मैं अपने वसीयतनामे में और बातें लिखना चाहता हूँ, लेकिन मैं पस्त हो चुका हूँ। मेरे शरीर की एक एक शिरा थक चुकी है। फिर मेरी हिन्दी भी टुटपुंजिया है। मुझे अपने धर्म और देश के प्रति वफादार रहना सिखाया गया था लेकिन अब तक मैं पूरा नास्तिक हो चुका हूँ और अपने देश के खिलाफ मैंने हथियार उठा लिया। अब मैं सोचता हूँ कि यह रास्ता बरबादी की तरफ ले जायेगा। लेकिन मैं वापस नहीं लौट सकता। अगर यह वसीयत आप लोगों के हाथ लगे तो पढिय़ेगा और सोचियेगा कि आदिवासी लोग क्यों बागी हो रहे हैं।
उदयभानु पांडेय की एक कहानी से डिफू, असम 2012 |