धूल वन

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    जनवरी 2013
श्रेणी उर्दू कहानी
संस्करण जनवरी 2013
लेखक का नाम नैयर मसूद





17 नवंबर, 1936 को लखनऊ में जन्मे सैयद नैयर मस्ऊद रिज़वी उर्द अफसानों की दुनिया में अपना एक अलग मकाम रखते हैं। इनके अफसाने अलग से पहचाने जाते हैं। फारसी के उस्ताद होते हुए भी इनके अफसानों को ज़बान इस कदर सादा, मगर तहदार होती है कि पाठक उसकी रौ में बहता चला जाता है। एक सुरमई-सा अंधेरा इनके अफसानों पर छाया रहता है, जैसे किसी ख्वाब की-सी जादुई दुनिया में पहुंच गए हों। वो खुद भी कहते हैं कि उनके अफसानों के खाके उन्हें ख्वाब में क्लिक होते हैं।
नैयर मस्ऊद बहुत कम लिखते हैं, लेकिन जब लिखते हैं, तो उसे नज़रअंदाज़ करना मुश्किल हो जाता है। उनके तकरीबन सभी अफसाने चर्चा में रहे हैं। यों उनके अदबी कामों की सची बहुत लंबी है। सीमिया (1984), इत्रे-काफर (1989), ताऊस चमन की मैना (1998) उनके चर्चित कहानी संग्रह हैं। उन्होंने अनुवाद भी खब किए हैं, खास तौर से ईरानी अदब से। उन्हें ऑल इंडिया मीर अकादमी एवार्ड,उत्तर प्रदेश उर्द अकादमी एवार्ड, कथा एवार्ड 1993, 1996, फारसी के लिए राष्ट्रपति सम्मान, साहित्य अकादमी एवार्ड मिल चुके हैं। उनके फन और शख्सियत पर कई विशेषांक: आज (कराची), सौगात (बैंगलोर), द एनुअल आफ उर्द स्टडीज, डिस्कांसन यनिवर्सिटी, अमेरिका, उर्द चैनल (मुंबई) वगैरह से शाएं हुए हैं।
नैयर मस्ऊद साहब के ज्यादातर अफसाने हिंदी में त्रिमासी ''शेष" में प्रकाशित किए गए हैं। ''धूलवन" अफसाना न सिर्फ ताज़ा है, बल्कि हिंदी में अप्रकाशित भी। नैयर मस्ऊद साहिब लखनऊ के एक अदबी घराने से ताल्लुक रखते हैं। उनकी रिहाइशगाह ''अदबिस्तान" लखनऊ में दीनदयाल रोड पर एक तीर्थ स्थान का दरजा रखती है। इससे उर्द अदब में उनकी हैसियत व अहमियत का अंदाज़ा किया जा सकता है। लंबे अर्से से वो साहिबे-फराश हैं।
- हसन जमाल


सामने की झाड़ी में सरसराहट हुई और मेरे कदम रुक गए। सरसराहट फिर हुई और मुझे यकीन हो गया कि झाडी़ में सांप है। सांप से मैं पहले भी बहुत डरता था और अब तो मुझे एक बार सांप काट चुका था। कोई ज़हरीला सांप था और मैं मरते-मरते बचा था। सांप का डसा हुआ आदमी उस कीड़े से कितना डरने लगता है, इसका अंदाज़ा वही कर सकता है जिसको कम से कम एक बार ज़हरीला सांप काट लेता है। उसे हर जगह सांप नज़र आने लगता है। इस खुश्क झाड़ी में मुझे भी सांप नज़र आने लगा। ये वीरान इलाका एक दोराहा था। मैं जिस रास्ते पर चल रहा था वो समतल और खुला-खुला था और इस पर दोनों तरफ झाडिय़ां थीं और मेरी वहमज़दा आंखों को हर झाड़ी में सांप नज़र आ रहे थे। मैंने दसरे रास्ते को देखा। ये बिल्कुल उजाड़ और असमतल था, लेकिन इस पर झाडिय़ां बहुत कम और छिदरी-छिदरी थीं। मैं उसी रास्ते पर मुड़ गया और आगे बढऩे लगा।
कुछ दर चल कर फिर एक दोराहा पड़ा। एक रास्ते पर झाडिय़ां और हरियाली थी, दसरा उजाड़ था। इसी तरह कई बार हुआ और एक बार में उजाड़ वाले रास्तों पर मुड़ता रहा। साफ मालम हो रहा था कि हरियाली वाले रास्ते ही अस्ल रास्ते हैं जो किसी न किसी बस्ती या बस्तियों की तरफ जा रहे हैं। लेकिन उजाड़ वाले रास्ते भी तो किसी तरफ जाते होंगे। सांप काटने के बाद से कभी-कभी मैं अजीब तरह के वहम में मुब्तला हो जाता था। मुझे बताया गया कि सांप-डसे के ज़ेहन पर ऐसा ही असर हो जाता है। इस मौके पर मुझे ये वहम हो गया था कि ये वीरान रास्ते ही मुझे मेरी मंज़िल पर पहुंचाएंगे जो मालम नहीं कहां है, इसीलिए मैं हरे-भरे रास्तों से कतराता रहा।
इन रास्तों पर अभी तक मुझे कोई आदमी नहीं मिला था, लेकिन अब एक रास्ते पर मुडऩे के बाद मुझे एक आदमी उसी उजाड़ रास्ते पर जाता नज़र आया। वो धीरे-धीरे चल रहा था और साफ मालम होता था कि बहुत थक गया है। आखिर वो एक जगह ज़मीन पर बैठ गया। उसके करीब पहुंच कर मुझे भी थकन का एहसास हुआ और मैं उसी के पास बैठ गया। कंधे पर से अपना थैला उतार कर ज़मीन पर रखा और उसकी तरफ ध्यान दिया, ''कहां से आ रहे हो?"
उसने एक कस्बे का नाम लिया। मैंने पछा, ''वहां क्या करते हो?"
''भीख मांगता हं", उसने वही जवाब दिया जिसकी मैं उसका हुलिया देख कर अपेक्षा कर रहा था।
''और रहते कहां हो?" उसने अपने सामने के उजाड़ रास्ते की तरफ इशारा किया और थकी हुई आवाज़ में बोला, ''धूल वन में।"
''धूल वन में भीख नहीं मिलती?"
''मिलती है, मगर आंधियों की फसल आ गयी है ना। आंधी आती है तो सारे में धूल जम जाती है", उसने कहा और क्षितिज पर नज़रें जमा दीं।
''आंधी?" मैंने कहा।
''दिन भर चलती रहती है। सब घरों के अंदर बंद रहते हैं। शाम को आंधी थमती है तो सब लोग बाहर निकल कर सफाई-सुथराई करते हैं। फिर अपने कामों में लग जाते हैं। मैं सवेरे-सवेरे घर से निकल जाता हं। आंधी थमने के बाद रात को धूल वन वापस आता है, लेकिन आज यहां भिखारियों की हड़ताल है इसलिए वापस धूल वन जा रहा हं।"
मुझे उसके मसलों से दिलचस्पी नहीं थी कि धूल वन में रात में कौन भीख मांगता है और कौन भीख देता है।
उसने अपनी गुदड़ी संभालना शुरु कर दी थी। मैंने पछा, ''आंधी का रंग कैसा होता है?"
''मटियाली होती है", उसने एक बार फिर क्षितिज की तरफ देखा, ''आ रही है।"
वो उठ खड़ा हुआ। मैंने चलते-चलते पछा, ''धूल वन में परदेसियों के रहने का भी कोई ठिकाना है?"
''बड़ा घर", उसने कहा, ''अगर धूल वन जा रहे हो तो बस चल दो।"
''तुम चलो, मैं आ रहा हं।"
ज़ाहिर है उसे नहीं मालम था कि आंधी मुझे अपनी तरफ खींचती है। बचपन ही से मैं आंधी में घर के अंदर नहीं टिक पाता था। बाहर निकल कर परी आंधी को अपने ऊपर से गुज़रने देता था। मेरे शहर में रंगीन आंधियां भी आती थीं। काली आंधी जिससे सब लोग डरते थे, मुझे सबसे ज्यादा पसंद थी। हर तरफ अंधेरा फैल जाता। मेरा ख्याल है शुर-शुर में स्याह आस्मान पर सितारे भी चमकते दिखाई देते थे। घर वाले मुझे बाहर जाने से रोकते थे लेकिन मैं घर के अंदर नहीं टिक पाता था। मैं लाल और पीली आंधी में भी बाहर निकल जाता था और फज़ा को लाल और पीला होते देखता था। उस वक्त ऐसा मालम होता था कि सारी दुनिया में तेज़ रौशनियां फैल गयी हैं। सिर्फ पीली आंधी में मुझे कुछ कुछ डर लगता था इसलिए कि एक दफा मैंने उस आंधी के साथ कुछ इन्सानी आवाज़ें भी सुनी थीं या शायद ये मेरा वहम हो।
अब मेरे इलाके में न काली आंधी आती थी, न लाल, न पीली। मामली आंधियां कभी-कभी आती थीं और मैं उनमें भी बाहर निकल जाता था।
मेरे साथ वाला भिखारी मुझे दर जाता दिखायी दिया। उसी वक्त मुझे उसी रौशनी में आगे बढ़ते हुए दर मिट्टी का रंग फैलता दिखायी दिया।
''मटियाली आंधी।" मैंने सोचा। आज तक मैंने मटियाली आंधी नहीं देखी थी। मैंने उसे अपने ऊपर आने दिया। ज़रा ही देर में मेरा परा बदन गर्द से अट गया। मालम होता था कोई टोकरों में मिट्टी भर-भर कर मेरे ऊपर फेंक रहा है। अब हर तरफ मिट्टी उड़ती दिखायी दे रही थी और रौशनी धुंधूला गयी थी। उस रौशनी में आगे बढ़ते हुए मुझे कुछ ही दर पर वो बस्ती मिल गयी। मगर उससे पहले बार मेरा पैर किसी छोटे गड्ढे में आ गया और मैं गिरते-गिरते बचा। ये कुदरती गड्ढे नहीं, छोटी-छोटी कब्रें-सी खोदी गयी थीं।
''क्या धूल नगर में बच्चों की कोई बीमारी फैली हुई है?" मैंने अपने आप से  सवाल किया। इस वक्त वहां सड़क पर कोई नहीं था और मैं उस बस्ती में अकेला घम रहा था।
आंधी का सिलसिला पांच दिन तक रहा और ये पांचों दिन मैंने बस्ती में तनहा घमते हुए गुज़ारे। रोज़ सवेरे गर्द उड़ाती हुई आंधी शुर हो जाती। दोपहर से उसका ज़ोर कम होने लगता। शाम होने से पहले वो बिल्कुल खत्म हो जाता और परी बस्ती गर्द में डबी रह जाती। कुछ देर बाद घरों के दरवाज़े खुलना शुर होते। लोग बांसों में बंधी हुई बड़ी-बड़ी झाडुएं लिये हुए बाहर निकलते और गर्द के ढेर किनारों पर लगा देते। फिर गाडिय़ां आतीं और गर्द के अंबार लाद कर बस्ती के बाहर कहीं फेंक आतीं और हवा मालम नहीं, उन्हें कहां उड़ा ले जाती। रात होने से पहले परी बस्ती साफ हो जाती और सड़कों पर लागे चलना फिरना शुरु कर देते। मैं उस वक्त तक बस्ती से बाहर आ चुका था जहां एक बड़े-से दरख्त के नीचे मैंने अपना अस्थायी ठिकाना बना लिया था। वहां अपने लिबास को झटक-झटक कर गर्द से साफ करता, अपने बदन और बालों से भी गर्द को दर करता, फिर आदमी बन कर बस्ती में दाख़िल होता और खोमचे वालों से कुछ खाने-पीने की चीज़ें खरीद कर उसी दरख्त के नीचे आ जाता। दसरे दिन सवेरे से आंधी की सनसनाहट शुर हो जाती। घरों के दरवाज़े बंद होने लगते और परी बस्ती मेरे इख्तियार में हो जाती।
फज़ा में फैली हुई धुंध के बावजद इन सैरों में करीब-करीब परी बस्ती मेरी नज़र से गुज़र गयी। इसके ज्यादातर मकान बहुत पुराने बने हुए नहीं मालम होते थे। बस्ती का रकबा भी ज्यादा नहीं था। इसके रहने वालों के बारे में कुछ मालम नहीं हो सका, इसलिए कि अभी तक मेरी मुलाकात उस पहले दिन वाले भिखारी और दो तीन दुकानदारों से हुई थी, बाकी बस्ती मेरे लिए अजनबी थी जिस तरह मैं उनके लिए अजनबी था। मुझे मालम नहीं था कि लोग धूल के दिनों में अपने-अपने मकान की खिड़कियों से महज़ वक्त गुज़ारी के तौर पर सड़क को देखते रहते थे। वो मुझ को इस हद तक जानते थे कि किसी दसरी जगह का आदमी आंधी से बाहर चलता फिरता है और रात बस्ती से बाहर वाले दरख्त के नीचे गुज़ारता है।
धीरे-धीरे वहां वालों से मेरी जान-पहचान शुरु हुई। मेरा पहला परिचित वही बस्ती का भिखारी था। उससे मेरी अक्सर बातचीत होती थी और उसी से मैंने बस्ती के बाहर वाले दरख्त का ज़िक्र सुना। उसने मुझे बस्ती के बाहर विशेषत: उस दरख्त के नीचे ठहरने से मना किया और बताया कि वो दरख्त मनहस है। उसने बगैर नाम लिये एक शख्स का ज़िक्र किया जो उस दरख्त से गिर कर बावला हो गया था। मैंने उस शख्स का नाम पछा तो वो आह भर कर बोला, ''तुम्हें मालम हो जाएगा।"
और एक बार फिर मुझ से बस्ती के बड़े मकान में रहने को कहा और ये भी बताया कि वहां गरीब लोग मुफ्त में रहते हैं। मैं गरीब नहीं था, इसलिए मैंने उसी दरख्त के नीचे अपना ठिकाना बना रखा था। लेकिन एक रात मुझे उस दरख्त से डर लगने लगा। उसकी बल खायी हुई शाखों पर सांपों का गुमान हो गया। उस रात मैंने ख्वाब में देखा कि उस पर से दो सांप गिरे और मेरे करीब से रेंगते हुए कहीं गायब हो गए। ख्वाबों का अब मुझ पर कोई असर नहीं होता, लेकिन सांप मैंने पहली बार ख्वाब में देखे थे। मैंने डरते-डरते अपने आसपास तलाश भी किया। ज़ाहिर है मुझे कोई सांप नज़र नहीं आया, मगर हर सांप डसे आदमी की तरह ये ख्याल मेरे वहमीले ज़ेहन में बैठ गया कि इस दरख्त पर ज़रर सांप रहते हैं और मैं उनकी ज़द में हं।
दसरे दिन मैंने अपना बस्ता दरख्त के नीचे से हटा लिया और किसी दसरी बस्ती के बारे में वहां के लोगों से पछगछ शुरु कर दी। सबसे पहले पुराने मुलाकाती भिखारी को तलाश लिया। वो जिस जगह पर भीख मांगता था वहां नहीं मिला तो कुछ लोगों ने बताया कि वो बीमार है और दो तीन दिन से बड़े मकान में पड़ा है। बड़े मकान का पता हरेक को मालम था। मैं वहां पहुंचा। बड़े रकबे की अच्छी-पुख्ता इमारत थी। छोटे-छोटे कमरे बहुत थे। एक कमरे में वो गदड़ लपेटे पड़ा हुआ था। बड़े मकान के साफ-सुथरे कमरे में वो बेजोड़ मालम हो रहा था। मुझे देख कर उसने अपना गदड़ संभाल कर उठने की कोशिश की, लेकिन कामयाब नहीं हुआ। मैंने भी उसे लेटे रहने का इशारा किया और वो अपने गदड़ पर करीब-करीब गिर गया। मैंने उससे दवा-इलाज को पछा तो बोला, ''डाक्टर साहब तीसरे दिन पर आते हैं। कल आएंगे।"
इसके बाद उसने अपनी बीमारी की गैर दिलचस्प तफ्सील बयान करना शुरु कर दी। मामली बुखार था। दो तीन दिन में खुद ही उतर जाता, लेकिन वो उसे कोई बड़ी बीमारी समझ रहा था। तब उसे मेरी मिज़ाजपुर्सी का ख्य़ाल आया। मैंने बताया कि अब मैं दरख्त के नीचे नहीं रहंगा। खैराती मकान में भी नहीं रहंगा। फिर पछा, ''जिस बस्ती में तुम आंधी के दिनों में जाते हो, वहां रहने का ठिकाना मिल सकता है?"
''वहां भीख भी मुश्किल से मिलती है। बेमुरव्वत लोग हैं। मैं तो पेट की खातिर वहां जाता हं", उसने कहा और फिर कहा, ''आखिर इस बड़े मकान में क्या बुराई है?"
कोई बुराई नहीं थी, लेकिन मैं वहां रहना नहीं चाहता था। कोई मुनासिब जवाब सोच रहा था कि कमरे के बाहर कदमों की आहट सुनायी दी। भिखारी ने फिर उठने की कोशिश करते हुए कहा, ''डाक्टर साहब आज ही आ गए।"
इतने में एक डाक्टर और उसके साथ एक और आदमी कमरे में दाख़िल हुए। साथ वाले ने कहा, ''कहो सरदार, इतने दिन से बीमारी पड़े हो और हमको इत्तिला नहीं की।"
भिखारी ने जवाब दिया, ''हुजर, कल डाक्टर साहब के आने दिन..."
''तुम्हें मालम नहीं कि जब यहां कोई बीमार पड़ता है तो डाक्टर साहब अपनी बारी छोड़ कर भी आ जाते हैं।" उसने डाक्टर को इशारा किया। डाक्टर ने मरीज़ का मुआयना करके अपने बैग से दो तीन गोलियां निकालीं और उनके इस्तेमाल की तरकीब बता कर उठने को हुआ। लेकिन साथ वाला बैठ गया और इधर-उधर की बातें करने लगा। उसने डाक्टर को कुछ इशारा किया और डाक्टर उसे सलाम करके चला गया। आदमी ने भिखारी से कहा, ''भई सरदार, सुना है बस्ती में कोई बाहर का आदमी आता है।"
''बाहर के आदमी तो मुख्तार साहब, बस्ती में आते ही रहते हैं।"
''नहीं, जो आंधी के वक्त बस्ती में घमता है।"
तब मैंने उस आदमी को ज़रा गौर से देखा जिसको भिखारी मुख्तार साहब कह रहा था। अपने रख रखाव और लिबास से कोई खास आदमी मालम होता था। भिखारी ने मेरी तरफ इशारा किया और बोला, ''यही हैं।"
अब मुख्तार साहब को शायद पहली बार मेरी मौजदगी का एहसास हुआ। मैंने सलाम किया। उसने बहुत काइदे से जवाब दिया। भिखारी ने मुझे बताया, ''मुख्तार साहब यहां की जायदाद देखते हैं।"
''आप बड़े मकान ही में रहते हैं?" उसने मुझ से पछा।
''जी नहीं। बस्ती के बाहर रहता हं और अब किसी और बस्ती में जाने को सोच रहा हं।"
''क्यों? बड़ा मकान पसंद नहीं आया? ये आप ही लोगों के लिए बनाया गया है।"
''ये गरीबों और मुहताजों के लिए हैं। मेरा इस पर हक नहीं।"
''क्यों? आप यहां की आंधी से घबरा गए?"
''आंधी से मैं नहीं घबराता। जब तक मेरे शहर में आंधियां आती थीं, मैं हर आंधी को बहार निकल कर अपने सीने पर लेता था। मुझे ये अच्छा मालम होता था।"
''अजीब।" उसने मुझे दिलचस्पी से देखा, ''आपके यहाँ आंधी के साथ गर्द नहीं आती थी?"
''शायद नहीं आती थी। मैंने गौर नहीं किया। कम से कम यहां की मटियाली आंधी के मुकाबले में।"
''आपने आंधी को तमाशे की तरह देखा है", उसने लंबी सांस ली, ''हमको उससे लडऩा पड़ता है।"
''फिर आप लोगों ने इस बस्ती को रहने के लिए क्यों पसंद किया?"
''लंबा िकस्सा है। कम से कम गर्द हटाने के बहाने परी बस्ती की सफाई होती रहती है।"
मैंने गौर किया। वाकई इस बस्ती से ज्यादा साफ-सुथरी बस्ती मैंने नहीं देखी थी।
वो उठ खड़ा हुआ। कुछ देर तक सरदार को देखता रहा। फिर बुरा-सा मुंह बना कर बोला, ''भई सरदार, तुम्हारे पास काइदे के कपड़े नहीं हैं? ये क्या गदड़ लपेटे पड़े हो?"
''अच्छे कपड़े हैं मुख्तार साहब। त्योहार और शादी ब्याह में पहनता हं। गदड़ न लपेटं तो कोई भीख भी न देगा।"
''सच कहते हो", उसने जेब में हाथ डाला और कुछ रकम निकालकर सरदार के सरहाने रख दी। फिर मुझसे बोला, ''अच्छा आज हमारी खातिर बड़े मकान में रह लीजिए। फिर कल से कुछ और इंतिज़ाम कर लीजिएगा। दसरी बस्ती में पहुंचते-पहुंचते आपको रात हो जाएगी। यहां रात को सफर करना ठीक नहीं, रास्ते में गड्ढे बहुत पड़ते हैं", उसने मुस्करा कर सरदार को देखा, ''बराबर वाला कमरा खाली है। इसमें आराम कीजिए। सरदार आपका दिल बहलाएगा। दिलचस्प आदमी है मगर बातें बहुत करता है।"
सरदार हंसने लगा, ''आप भी मुख्तार साहब..."
लेकिन वो मुझे खुदा हािफज़ कर जा चुका था।
* * *
सरदार वाकई दिलचस्प आदमी था और वाकई बहुत बातें करता था। उस रात हम बहुत देर तक बातें करते रहे और उससे मुझ को धूल वन के बारे में इतना मालम हो गया जितना शायद कई महीने में मालम नहीं हो सकता था।
धूल वन, उसने बताया, कोई बस्ती नहीं थी। बस ऊंची नीची बंजर ज़मीन के छोटे-बड़े टुकड़े थे जिन पर लंबी घनी झाडिय़ां और कुछ दरख्त थे जिनको पानी की ज़ररत नहीं होती थी। बड़े मालिक ने वो सारी ज़मीन खरीद ली और उस पर मकान वगैरह बनवाए। किनारे पर की निचली ज़मीन को गहरा खुदवा कर वहां एक बड़ा तालाब बनवाया। पानी ज़मीन पर बहुत नीचे था जिसके लिए कई गहरे कुएं खुदवाए। बीच में आंधियां आती रहीं, लेकिन बड़े मालिक ने उसकी परवाह नहीं की और आंधी की लाई हुई धूल को हटवाते रहे।
''लेकिन उन्होंने इस बस्ती को... धूल वन को क्यों पसंद किया?"
''बस, अपनी बस्ती बसाने का शौक। मैंने बताया नहीं कि ये कोई बस्ती नहीं थी, कोई इस ज़मीन का मालिक नहीं था। सिर्फ कुछ बंजारे साल दो साल में यहां डेरे लगाते थे। बड़े मालिक ने सरकार से सारी ज़मीन खरीद ली। बंजारों के लिए पश्चिम की तरफ कुछ ज़मीन अलग कर दी और यहां मकान दुकान बनाने में लग गए। लेकिन बड़े मालिक का बुलावा आ गया।"
उसने लंबी सांस ली और मौत के बारे में एक दार्शनिक-सा प्रवचन शुरु कर दिया। उसकी आवाज़ सुनते-सुनते मैं सो गया।
दरख्त के नीचे की बेआराम ज़िदगी के बाद बड़े मकन के उस कमरे में ऐसी अच्छी नींद आती कि सवेरे बहुत देर में आंख खुली। आंधी शुरु हो गयी थी और बस्ती के दरवाज़े बंद हो गए थे। दरख्त के नीचे देर में जागता था तो भी आंधी में बाहर निकल सकता था, यहां मैं बड़े मकान में बंद हो गया था। मुझे घुटन महसस हो रही थी लेकिन बिस्तर पर पड़ा सोता जागता रहा। अपने ठिकाने पर जाने का ख्याल नहीं आया। शाम को बाज़ार का एक चक्कर लगाया। दुकानदार मुझ को पहचानने लगा था। हम दोनों कुछ देर बातें करते रहे। वो भी मुझ से पछ रहा था कि मैं आंधी में बाहर क्यों घमता हं। मैंने उसे भी यही जवाब दिया कि बाहर निकलना मुझे अच्छा लगता है। वो बोला, ''मुख्तार साहब भी पछ रहे थे। उनसे छोटी मालकिन ने पछा होगा।"
धूल वन की छोटी मालकिन का ज़िक्र उस दिन मैंने पहली बार सुना। सोचा, इससे कुछ और मालम करं। फिर चुप रहना बेहतर मालम हुआ और मैं उठ खड़ा हुआ। अब सरदार की तबीअत ज्यादा खराब हो गयी थी और वो अपने गदड़ में लिपटा हुआ पड़ा था। मैंने उसका हाल पछा। वो ठीक से जवाब भी न दे सका। उसे सर्दी बहुत लग रही थी। फिर भी मैं उसके पास कुछ देर बैठा रहा। तबीअत आप ही आप उलझ रही थी। अपने ठिकाने पर जाने की तैयारी करते-करते मालम नहीं कब सो गया। दसरे दिन फिर देर में उठा और फिर दिन भर बड़े मकान में बंद पड़ा रहा।
शाम को डाक्टर फिर सरदार को देखने आया। मुख्तार साहब उसके साथ थे। डाक्टर के जाने के बाद भी वो बैठे रहे। दे तीन बार उन्होंने भी सरदार की नब्ज़ देखी। फिर मुझसे पछा, ''कहिए, आपने क्या तै किया?"
मैंने कुछ तै नहीं किया था, लेकिन अब बड़े मकान में मुझ को नहीं रहना था। इसलिए मैंने यं ही कह दिया, ''कल चला जाऊंगा। आज शायद अपने पुराने ठिकाने पर सो जाऊं। कल दिन में कोई और बस्ती देखंगा।"
''दिन में?" उन्होंने पछा, ''और आंधी?"
''आंधी में बाहर निकलने का आदी हं", मैंने कहा और ये सोच कर शर्मिन्दा हुआ कि आज का दिन मैंने नष्ट कर दिया। दरख्त के नीचे रहता तो कोई बस्ती ढंढ लेता। मुख्तार साहब को शायद मेरे ख्याल का अंदाज़ा हो गया। उन्होंने कहा, ''आंधी में दिन को कोई काम नहीं हो सकता", उन्होंने पहले दिन की कही हुई बात दोहरायी, ''आपने आंधियों को तमाशे की तरह देखा है"।
''मेरे बचपन का ज़माना था। उस वक्त तमाशा भी ज़ररी काम मालम होता था।"
मैंने सोचा, मैं ख्वाहमख्वाह बहस में उलझ रहा हं। बात बदलने के लिए कुछ और सोच रहा था, लेकिन अचानक मुख्तार साहब ने कहा, ''हमें रंगीन आंधियों के बार में बताइये"।
मैंने सरसरी तौर पर बता दिया। मुख्तार साहब सुनते रहे फिर बोले, ''वाकई तमाशा मालम होता होगा खास कर बच्चों को।"
''बच्चे कभी-कभी डर भी जाते थे। मुझे डर लगता था इसलिए घर से बाहर निकल जाता था"।
''अजीब!" मुख्तार साहब ने वही कहा जो पहले दिन कहा था और फिर कहा, ''अजीब!"
थोड़ी देर बैठ कर मुख्तार साहब रुख्सत हो गए। मैंने उनके चले जाने के बाद कुछ देर सरकार के पास बैठा रहा। उसको नींद आ रही थी। मैंने उससे बात नहीं की और अपने कमरे में आया। अपना सामान समेटा और बाहर निकला तो कुछ दर पर मुख्तार साहब नज़र आए। उनके साथ कोई खुश-लिबास औरत और कुछ मज़दर िकस्म के आदमी थे। मैं उन सब की नज़र बचा कर आगे बढ़ा। थोड़ी दर जाकर रुक गया और अपने ठिकाने वाले दरख्त के नीचे जाने की हिम्मत बांधने लगा। उसमें कुछ देर लगी। फिर आगे बढऩे लगा। मगर अपनी पुश्त पर मुख्तार साहब की आवाज़ सुनकर रुक गया। वो करीब ही खड़े कह रहे थे, ''साहब कहां चले?"
''आपको शायद बता चुका हूँ।"
''लेकिन रात को सफर करना...."
उसी वक्त एक मज़दर ने करीब आकर कहा, ''मुख्तार साहब, छोटी मालकिन ने आपको बुलाया है। कहा है, उनको भी लेते आइयेगा।"
''उनको किन को?"
''वही जो आंधी में बाहर घमते हैं", मज़दर ने कहा कि उसकी नज़र मुझ पर पड़ी, ''यही तो हैं!"
''अच्छा, तुम चलो", मुख्तार साहब ने कहा फिर मुझसे बोले, ''चलिए साहब, मलिका याद कर रही हैं..."
''मलिका कौन?"
''धूल वन की मालिक वही हैं। कभी-कभी बाहर से आने वालों को अपने यहां बुलाती हैं।"
''लेकिन मुझे क्यों?"
''शायद आंधी के दिनों में आपके बाहर निकलने की वजह से।"
''लेकिन आंधी के बाहर निकलना कोई निराली बात नहीं है।"
''नहीं है, लेकिन जब मैंने उन्हें बताया कि आप आंधी के वक्त मकान के अंदर नहीं रह सकते... उनका ख्याल है कि वो आपको जानती हैं। कम से कम उनकी वालिदा जानती थीं और शायद उनके मियां भी।"
''उनके मियां क्या अब नहीं हैं?"
''हैं लेकिन बेहोश रहते हैं।"
''क्यों?"
''आप वाले दरख्त से गिर गए थे। सर के बल गिरे थे। उसके बाद से..."
''तो सरदार उन्हीं का ज़िक्र कर रहा था", मैंने सोचा, ''लेकिन वो उस दरख्त पर चढ़े ही क्यों थे?" इस अर्से में मैं भल गया कि मैंने उनसे कुछ पछा था। शायद दवा-इलाज के बारे में कोई रस्मी सवाल था। मुख्तार साहब कह रहे थे, ''शहर के अस्पतालों में दिखाया गया, दो जगह भर्ती भी रहे। आमिलों, झाड़-फंक वालों, बंजारों से भी मदद ली गयी, सब बेकार! अब हर वक्त बेहोश रहते हैं। एक डाक्टर रख लिया गया है। कभी-कभी कुछ देर को होश आता भी है तो होश की बातें नहीं करते। एक तो उनके मुंह से बात निकलती ही नहीं, फिर आवाज़..." अचानक को रुक गए फिर बोले, ''लीजिए उनका मकान आ गया।"
मैंने अपने बाएं हाथ पर बनी हुई कोठी को देखा और देखता रह गया।
ऐसा मालम हुआ कि मैं अपने लड़कपन के मकान को देख रहा हं जो कभी का खत्म हो चुका था और मैं उसे भुलाने में बड़ी मुद्दत के बाद कामयाब हुआ था। उस मकान का अगला भाग, बरामदे के दरवाज़े और अंदर ड्योढ़ी बिल्कुल उसी मकान की-सी थी।
मुख्तार साहब अंदर चले गए थे और मैं अपने उस मकान की एक-एक चीज़ को याद कर रहा था। उसके रहने वाले, मेरे बुजुर्ग, उनकी सरतें बल्कि आवाज़ें तक मुझे याद आने लगीं। अपने यहां के मुलाज़िम, मेहमान और आए दिन के हंगामे, वो लोग जिनमें से अब कोई मौजद नहीं था। मैंने उन सब को भुला दिया था, लेकिन ये मेरी भल थी। बचपन की दसरी यादों की तरह ये यादें भी मेरे दिमाग में कहीं मौजद थीं और अब एक एक करके या एक साथ ताज़ा हो रही थीं।
ये सब शायद चंद लम्हों के अंदर हो गया। मुख्तार साहब को गए हुए देर नहीं हुई थी और अब वो वापस आकर मुझ को गौर से देख रहे थे। मैं उनकी तरफ देखने लगा।
''आइये, बुला रही हैं," उन्होंने कहा और मैं उनके पीछे-पीछे मकान में दाख़िल हो गया।
* * *

मकान का ये मर्दाना हिस्सा और मेरे मकान के मर्दाने से खासा मुख्तलिफ था। जनाने हिस्से को एक दरवाज़ा बाकी मकान से अलग करता था। उधर से औरतों की आवाज़ें आ रही थीं और एक बच्चा निरन्तर रोए जा रहा था। मुख्तार साहब ने उस दरवाज़े पर दस्तक दी और बुलंद आवाज़ से कहा, ''बता दो, वो आ गए हैं।"
मैंने इतनी देर में मर्दाने हिस्से को देख लिया था। एक बड़ा कमरा था और उससे लगे दो छोटे कमरे। बड़े कमरे का दरवाज़ा बंद था। छोटे कमरों में मामली दफ्तरी बेतर्तीबी से ढेर था। किताबें भी बहुत-सी थीं, ज्यादातर दरख्तों के बारे में। दरवाज़े खुले हुए थे। मुख्तार साहब ने मुझे उन्हीं में से एक कमरे में बैठा दिया।
कुछ देर बाद मलिका कमरे में दाख़िल हुई। मैं उसे कोई पुख़्ता उम्र की औरत समझ रहा था लेकिन वो जवान और मुझ से उम्र में बहुत छोटी थी। मैं समझ रहा था कि उसे बात करने में मुझे कुछ तकल्लुफ होगा, लेकिन उम्रों के फर्क ने उस तकल्लुफ को बाकी नहीं रहने दिया। फिर भी कुछ देर तक मैं उससे बहुत संभल कर बात करता रहा। उसने मुझसे कुछ रस्मी सवाल पछे। आपाके यहां कोई तकलीफ तो नहीं है, यहां का रास्ता आपको किस तरह मालम हुआ वगैरह। मैंने सरसरी तौर पर सरदार से मुलाकात का हाल बता दिया, फिर खामोश हो गया। मलिका ने मुख्तार साहब से पछा, ''आपने इन्हें सब बता दिया है?"
''सब नहीं। ये बात करने का मौका ही नहीं दे रहे हैं।"
''अब बात कर लीजिए," मलिका ने कहा। फिर उठते हुए मुझ से पछा, ''आप खाने में क्या पसंद करते हैं?"
''मैं जिस तरह की ज़िंदगी गुज़ार रहा हं", मैंने जवाब दिया, ''उसमें पसंद नापसंद का सवाल नहीं होता। जो भी जहां भी मिल जाए।" मैंने उसे बैठने का इशारा करते हुए कहा, ''और इस वक्त खाना खा चुका हं। आप मेरे लिए तकलीफ ना कीजिए।"
मलिका बैठ गयी। कुछ देर खामोशी रही। फिर मैंने वो सवाल किया जो मुझे परेशान कर रहा था, ''आपका मकान बहुत अच्छा बना है। किसने बनाया है?"
''ये हमारी अम्मी ने बनवाया है। शादी के पहले वो जिस मकान में जाया करती थीं वो उन्हें बहुत अच्छा लगता था। यहां धूल वन में जब हमारे अब्ब उनके लिए मकान बनवा रहे थे, तो अम्मी ने उनसे वैसा ही मकान बनवाने की फरमाइश की और उका नक्शा जैसा उनको याद था, उन्हें बना कर दिखाया..."
अचानक वो मुझे याद आ गयीं और मैंने मलिका की बात परी होने से पहले ही पछ लिया, ''मुआफ कीजिए, आपकी मां का नाम ज़ीनत बेगम तो नहीं था?"
''आपको क्यों कर मालम हुआ?"
''वो अक्सर हमारे यहां आकर मेहमान रहा करती थीं।"
मलिका ने मुख्तार साहब की तरफ देखा और वो बोले, ''अजीब! अजीब!"
मलिका ने मुझ से पछा, ''ये कब की बात है?"
''ज़माने का ठीक ख्याल नहीं, लेकिन उस वक्त मैं लड़का-सा था।"
''तो वो आपको याद क्यों कर रह गयीं?"
''वो मेरा आंधी में घमना बड़े शौक से देखती थीं। बाकी घर के लोग तो मुझे रोकते थे, डराते भी थे। लेकिन मैं आंधी के आसार नज़र आते ही दौड़ कर उनको बता देता था और वो किसी खिड़की में आकर खड़ी हो जाती थीं। उस वक्त हमारे शहर मे रंगीन आंधियां आया करती थीं। उन्हें भी शायद ये आंधियां अच्छी लगती थीं।"
ज़ीनत बेगम बहुत खामोश स्वभाव और अपनी बेटी ही की तरह नाजुक-अंदाम थीं। वो मेरी वालिदा को किसी सफर में रेल पर मिली थीं। मेरी वालिदा में कुछ ऐसी बात थी कि खानदान भर के लोग और बाहर वाले भी अपने दुख-दर्द उनके सामने खुल कर बयान कर देते थे और उनकी गमख्वारी से तसल्ली पा जाते थे। ज़ीनत बेगम की ज़िंदगी में भी कुछ परेशानियां थीं। वो जब हमारे आतीं तो देर-देर तक हमारी अम्मां से अकेले में बातें करती और कभी-कभी रोती थीं। अम्मां उनको समझाती बुझाती थीं और वो मुत्मईन होकर वापस जाती थीं। फिर कुछ दिन तक उनके खत आते रहते थे जिनमें मे वो मुझ को ज़रर पछती थीं और रंगीन आंधियों से मेरी दिलचस्पी का भी ज़िक्र करती थीं।
मुझे वो दिन एक एक करके याद आ रहे थे और मैं उनमें गुम होकर भल चला था कि इस वक्त कहां बैठा हं। इतने में मलिका ने मुझ से पछा, ''वो आपके यहां कब तक आती रहीं?"
''मेरा लड़कपन की था।"
''ये सब मेरे पैदा होने से पहले की बातें हैं", मलिका ने अपने आप से कहा, फिर उठते-उठते मुख्तार साहब से बोली, ''ये अपने ही आदमी हैं। आप इन्हें सब बता दीजिए।" और वो उठकर अंदर चली गयी।
मुख्तार साहब कुछ देर चुप बैठे रहे, फिर कहने लगे, ''समझ में नहीं आता कहां से शुर करं और क्या क्या बताऊं?"
''आपको जो कुछ याद आता जाए, बेतकल्लुफ बताइये", मैंने कहा, ''ज़ररत होगी तो बीच में कुछ पछ लंगा।"
और मुख्तार साहब ने बताना शुरु किया, ''ज़ीनत बेगम मेरी बड़ी बहन थीं। उनकी शादी कम उम्र में हो गयी थी। मियां रईसज़ादा और तवायफों का शौकीन था। बीवी से ज्यादा मतलब नहीं रखता था। दो साल तक ज़ीनत बेगम इसकी वजह से बहुत परेशान रहीं। उसके सुधार की कोशिश की, मगर वो नहीं सुधरा और आखिर एक तवायफ के कोठे ही पर मर गया। फिर भी उसके पास काफी दौलत बच गयी थी, इसलिए ज़ीनत बेगम को पैसे की तंगी नहीं हुई। बस, तनहाई से घबराती थीं और कभी-कभी किसी दसरे शहर में निकल जाती थीं। उसी ज़माने में रेल के एक सफर में आपकी वालिदा से उनकी मुलाकात हो गयी। वो ज़ीनत बेगम को बहुत पसंद करती थीं और अक्सर उन्हें अपने यहां बुला लेती थीं। मैं उस ज़माने में बेरोज़गार था। उम्र भी कम थी। ज़ीनत बेगम मुझे अपने साथ रखती थीं। आपकी वालिदा उनसे दसरी शादी के लिए इसरार किया करती थीं। आखिर वो राज़ी हो गयीं। आपकी वालिदा ने उनके लिए बहुत सोच-समझ कर बड़े साहब का चुनाव किया। इनकी भी एक शादी हो चुकी थी। उम्र भी कुछ ज्यादा थी लेकिन आपकी वालिदा को यकीन था कि वो ज़ीनत बेगम की बड़ी कद्र करेंगे और वाकई..."
''आगे बताइये।"
''वो बहुत काबिल आदमी थे। उनको मालम नहीं क्या क्या आता था। दौलतमंद भी थे। शहर में उनकी बड़ी कोठियां और दसरी जायदाद थी। लेकिन आपकी वालिदा उनकी शादी में शरीक नहीं हो सकीं। इससे कुछ दिन पहले ही आपके मकान का वािकआ..."
''मुझे मालम है", मैंने उनकी बात काट दी, ''आप आगे सुनाइये।"
''मैंने कहा कि बड़े साहब को मालम नहीं क्या क्या आता था, लेकिन उनकी अस्ल दिलचस्पी तामीरी कामों और दरख्तों में थी। इसीलिए उन्होंने धूल वन की ये उजाड़ ज़मीन खरीदी और इसके लिए मालम नहीं कहां-कहां से दरख्तों के गमले लाकर रखे और यहां कई मकान बनवाए जिनमें गरीबों के लिए बड़ा मकान सबसे शानदार था। इसके अलावा..." वो फिर रुके, फिर बोले, ''उनके छोटे भाई बाप की ज़िंदगी ही में मर गए थे और फिर मां भी खत्म हो गयीं और उन्होंने अपने यतीम भतीजे को पाला था। मेरा मतलब है छोटे साहब को और ज़ीनत बेगम से शादी के वक्त उन्होंने उनसे इजाज़त ले ली थी कि छोटे साहब को अपने साथ रखेंगे। उस वक्त छोटे साहब करीब बारह बरस के थे और शहर के किसी स्कल में पढ़ते थे। ज़ीनत बेगम के यहां भी शादी के दसरे साल मलिका पैदा हुई और छह साल की होगी कि वो भी शहर के स्कल में दाख़िल कर दी गयी, लेकिन ज़ीनत बेगम उसकी जुदाई बरदाश्त नहीं कर सकीं, इसलिए बड़े साहब ने दसरे साल ही उसे स्कल से उठा लिया और यहीं धूल वन में उसे अपनी निगरानी में तीन मास्टरों से पढ़वाते रहे। वो छोटे साहब से बहुत हिल-मिल गयी थी इसलिए बड़े साहब ने उनकी पढ़ाई का इंतिज़ाम धूलवन में ही किया।"
''आगे सुनाइये", मैंने फिर उन्हें टोक दिया। किसी की बात सुनने का ये शालीन तरीका नहीं था, लेकिन उस वक्त मुझ को ये सारी तफसील गैर दिलचस्प मालम हो रही थी। मुख्तार साहब को भी शायद मेरी उकताहट का अंदाज़ा हो गया और रुक कर कुछ सोचने लगे। मुझे उन पर तरस आने लगा। मैंने कहा, ''आप अपना हाल बताइये।"
और उन्होंने ज़रा दिलचस्पी के साथ बताना शुरु किया, ''ज़ीनत बेगम ने भी उनके साथ शादी की एक शर्त रखी थी कि वो अपने भाई को भी अपने साथ रखेंगी। बड़े साहब को उनकी हर शर्त मंजर थी। इस तरह मैं भी यहां आ गया और बड़े साहब मुझे भी उसी तरह चाहने लगे जिस तरह अपने भतीजे को चाहते थे। एक दिन बोले - भई मुख्तार, तुम्हारा तो नाम ही मुख्तार है। हम तुम्हें धूल वन की जायदाद का मुख्तार बनाते हैं।"
''दिलचस्प आदमी थे बड़े साहब।" मैंने कहा।
''लाजवाब आदमी थे। धूल वन को बसाने के लिए उन्होने शहर से आदमी छांट-छांट कर उनको मकान मुहैया कर दिये। जिनकी इतनी हैसियत भी नहीं थी उनके लिए बड़ा मकान था। पहली खेप में वो सरदार को भी पकड़ लाए। कहते थे, हर बस्ती में एकाध फकीर होना जररी है।"
''मुझे तो ज्यादातर लोग बहुत गरीब नज़र आए।"
''इसलिए कि वो वाकई गरीब हैं। अक्सर इनमें से कारीगर और मिस्त्री िकस्म के लोग हैं जिनका काम शहर में नहीं चलता था। सरदार भी एक दरगाह के सामने बैठा मक्खियां मारा करता था। यहां इसका भी काम चल निकला। ये धूल वन का सबसे पुराना बाशिंदा है और धूल वन के बारे में बहुत कुछ जानता है।"
''बड़े साहब इससे बेतकल्लुफ थे?"
''वो हरेक से बेतकल्लुफ हो जाया करते थे। और हंसी की बात पर इतना ज़बरदस्त कहकरहा लगाते थे कि दरख्तों पर से चिडिय़ां उड़ जातीं थीं।"
दरख्तों के ज़िक्र पर मुझे याद आया, ''मुख्तार साहब, धूल वन के आसपास कोई दरख्त..."
''बहुत थे। सब कटवा दिए बड़े साहब ने। बस, वो। आप वाला दरख्त नाप के लिए छुड़वा दिया।" वो कुछ और बताने जा रहे थे लेकिन रुक गए और मुझे सलाम करके चले गए।
उस रात मैंने अपने दरख्त को गौर से देखा। उसमें कोई खास बात थी जो मेरी समझ में नहीं आ रही थी और मैं दरख्त को देखते हुए सो गया। सवेरे उठ कर मैंने फिर उसको गौर से देखा। उसकी शाखें बहुत घनी और बे-तर्तीब-सी थीं लेकिन उसकी हर शाख चार में से किसी एक दिशा की ओर इशारा करती थी। दिशाहीन शाख इस दरख्त में कोई नहीं थी। अब मुझ को वो दरख्त बहुत अनोखा और हज़ारों दरखतों में सबसे अलग मालम होने लगा। कम से कम मुझे यही यकीन था कि मैं इसे हज़ारों दरख्तों के बीच में पहचान लंगा।
दसरे तीसरे दिन आंधी खत्म हो गयी और धूल वन में दिन का कारोबार शुरु हो गया। एक दिन सरदार भी मिला और मैंने करीब-करीब सारा दिन उसे बातें करने में गुज़ार दिया। उसी ने मुझे बताया कि बंजारों की टोली वापस अपने पड़ाव पर आ गयी है। उसने बंजारों के चौधरी का नाम भी लिया, ''चौधरी बल्लम बढ़ा हो गया है, मगर अभी टांठा है।"
बल्लम-? क्या अतीत के सारे भत यहीं धूल वन में जमा हो रहे हैं? मैंने बदमज़गी के साथ सोचा। जब मैं शुर में घर से निकला था तो कुछ दिन बल्लम की टोली में भी रहा था। अच्छे लोग थे। सरदार के पास से उठ कर मैं बंजारों के पड़ाव पर पहुंचा। चौधरी बल्लम ने फौरन मुझे पहचान लिया।
रात बहुत देर तक हम बातें करते रहे। मैं ज्यादातर उसकी गर्दिशों के बारे में पछता रहा। उसने बताया कि बड़े साहब के लिए बहुत-से दरख्त उसी की टोली ने ढंढ़ कर निकाले थे।
''चौधरी, ये बताओ", मैंने पछा, ''वो दरख्त जो छोड़ दिया गया है..."
''हमें उसका नाम नहीं मालम। बड़े साहब कहीं से लाए थे। या शायद पहले से लगा हुआ था। बड़े साहब उसकी टहनी भी किसी को तोडऩे नहीं देते थे।"
रात ज्यादा आ गयी थी। मैं पड़ाव पर ही सो गया। सबेरे मुख्तार साहब की आवाज़ से मेरी आंख खुली तो वो बल्लम से पछ रहे थे कि इससे मेरी जान-पहचान किस तरह हुई? मुझे जागते देख कर वो मेरी तरफ देखने लगे।
''हम आपको दरख्त के नीचे ढंढ़ रहे थे। आज आपको मलिका से मिलना है।"
''थोड़ी ही देर में मिल लीजिए तो अच्छा है। मलिका आपको अपनी कहानी सुनाएंगी जिस तरह ज़ीनत बेगम आपकी वालिदा को सुनाती थीं। कह रही थीं कि आप से बातें करके उनका दिल हल्का हो जाएगा।"
थोड़ी देर बाद मलिका से मिला। आज वो बहुत अच्छा लिबास पहने थी और सोगवारी का अंदाज़ जो उस पर तारी रहता था, आज नहीं था। मामली बातचीत के बाद उसने बताना शुरु किया:
''अब्ब अम्मी के दीवाने थे। अम्मी ने आंधियों की शिकायत की तो वो आंधियां रोकने की तदबीरों में लग गए। मालम नहीं कौन-कौन से दरख्त जमा करके गमलों में लगा लिये और उनकी बड़ी देखभाल करते थे। गमलों के पौधे कई बरस पुराने थे। अब्ब ने बताया कि जब ये गमलों से ज़मीन में लगाए जाएंगे, तो एक दो बरस में छतनार दरख्त हो जाएंगे। एक दिन वो और छोटे साहब बहुत खुश खुश अम्मी के पास आए। कुछ दरख्त जो उन्हें नहीं मिल रहे थे, अब बंजारों की मदद से मिल गए थे। दरख्तों का सिलसिला बहुत दर से शुर होता और हर दरख्त आंधी की गर्द के लिए छलनी का काम करता और आखिरी दरख्त तक आते-आते गर्द गायब हो जाती, सिर्फ हवा रह जाती, वो भी बहुत तेज़ नहीं। ऐसा उनका कहना था।"
''उस दिन आंधी दो दिन पहले शुर हो गयी थी। अब्ब उसी आंधी में छोटे साहब के साथ बाहर निकल गए और आप वाले दरख्त से नाप-नाप कर दसरे दरख्तों की जगह पर निशान बना रहे थे। अचानक उनके गुर्दे में, शायद गुर्दे ही मे ऐसा शदीद दर्द उठा कि वो वहीं के वहीं खत्म हो गए।"
इसके बाद वो कुछ देर चुप रही। मैं भी चुप रहा। फिर उसने कहा, ''अम्मी उसके बाद खामोश रहने लगीं। बातें बहुत कम करती थीं। लेकिन एक रात छोटे साहब ने ख्वाब में पीली आंधी आती देखी। सबेरे उठे तो दहशतज़दा थे। उस दिन मालम हुआ कि वो पीली आंधी, बल्कि शायद रंगीन आंधी से डरते हैं। उनका डर दर करने के अम्मी ने आपके आंधी में घमने के कई िकस्से सुनाए और छोटे साहब का खौफ जाता रहा। बल्कि वो आपका ज़िक्र इस तरह करने लगे जैसे उनसे आपकी पुरानी मुलाकात हो।"
''छोटे साहब का खौफ दर करने की कोशिश में अम्मी ने आपके यहां अपनी मेहमानियों को और आपकी वालिदा को इस तरह और इतनी देर तक याद किया कि बीमार हो गयीं और कुछ दिन सोते में खामोशी के साथ गुज़र गयीं। अगर मुख्तार मामं न होते तो मालम नहीं क्या होता!"
''कैसी बातें करती हो?" मुझे मुख्तार साहब की आवाज़ सुनायी दी। वो मालम नहीं, किस वक्त आकर बैठ गए थे, ''क्यों ये सब सोचती हो?"
''छोटे साहब के लिए अब्ब के बाद अम्मी का सदमा बहुत बड़ा था, लेकिन उन्होंने खुद को संभाल लिया और दरख्तों के काम में लग गए," मलिका ने कहा, ''लेकिन..." उसकी आवाज़ रुक गयी, ''मुख्तार मामं, आप बता दीजिए।"
''बार-बार पछ कर कुढऩे से क्या फायदा बेटी!" मुख़्तार साहब ने खानदान के बुजुर्ग की तरह कहा, ''कितनी बार तो सुन चुकी हो। उन्हें मालम है कि छोटे साहब दरख्त से गिर कर..."
''एक बार फिर बताइये। आपकी ज़ुबान से सुनने को जी चाहता है।"
''बताता हं, लेकिन रोने न लगना। तुम्हारी सेहत को नुकसान पहुंचेगा।"
''अब कहां रोती हं!"
''ज़ब्त करती हो, वो और भी नुकसान करता है," मुख्तार साहब ने बताना शुरु किया, ''खैर तो छोटे साहब ने फिर बड़े साहब का छोड़ा हुआ काम शुरु कर दिया। सबसे पहले गड्ढे ठीक कराए जो बड़े साहब के बाद भर चले थे। फिर आपके दरख्तों की शाखों..."
''ये आप लोग इसे मेरा दरख्त क्यों कहने लगे हैं?" मैंने ज़रा उलझ कर उनकी बात काटी।
''आप इसके नीचे रहते हैं ना?" मलिका ने कहा, ''इसके नीचे कोई और नहीं रहता। फिर इसका नाम भी किसी को नहीं मालम।"
मुख्तार साहब बोले, ''छोटे साहब ने फिर उसकी शाखों की सीध ले-ले कर सब दरख्तों की जगहें मुकर्रर कीं। उस वक्त वो बहुत खुश थे और एक बार फिर परे मंज़र का जायज़ा लेने के लिए दरखत के ऊपर चढ़ गए। सबने उन्हें मना भी किया, लेकिन इतनी देर में वो उसकी निचली शाख पर पहुंच चुके थे। मैंने उन्हें गिरते देख लिया, लेकिन मुझे पता नहीं चला कि वो सर के बल गिरे हैं। फिर वो बहुत ऊंचाई से नहीं गिरे थे। उनके मुंह से निकला - मलिका! और वो हंसते हुए उठ खड़े हुए। मैं एहतियातन उन्हें पकड़ कर ला रहा था कि अचानक वो गिर गए। कानों से खन भी बहने लगा और वो बिल्कुल बेहोश हो गए। फौरन शहर के अस्पताल में पहुंचा दिये गये। उसके बाद से जो इलाज हुए, आपको पता है।"
कुछ देर बाद बल्लम मलिका को सलाम करने आया। बातों-बातों में मलिका ने उससे पछा, ''छोटे साहब को नहीं देखोगे?"
''इसीलिए तो हम आए हैं।"
मलिका ने मुझ से कहा, ''आप भी उन्हें देख लीजिए। हमने रात को उन्हें ख्वाब में देखा था। ख्याल हुआ कि आज शायद उनको होश आए।"
''ख्वाबों का भरोसा नहीं," मैंने सोचा और बल्लम, मुख्तार साहब और मलिका के साथ बड़े कमरे में दाख़िल हुआ। और वहां मैंने उस शख्स को देखा जो मुझ को अपना दोस्त कहता था और जिसे मैं आज पहली बार देख रहा था।
वो गहरी नींद सो रहा था। कोई नहीं कह सकता था कि इसके दिमाग में क्या है और कुछ है भी या नहीं! मैंने उनके सीने पर हाथ रखकर धीरे से पुकारा, ''छोटे साहब!" फिर उसके नथनों पर हाथ रखा। उसके पपोटों को आहिस्ता से खोला और  बंद किया। उसके कान की लवों को देखा। मैं किसी माहिर डाक्टर की तरह मरीज़ का मुआयना कर रहा था, लेकिन इससे मेरा मकसद कुछ मालम करना नहीं था। मुझे मालम हो भी नहीं सकता था। लेकिन सब लोग मुझे ऐसी उम्मीदभरी नज़रों से देख रहे थे कि मुझे अपना अनाड़ीपन ज़ाहिर करना बेरहमी की बात मालम हो रही थी। मुआयने के दौरान मैंने बार-बार उसे पुकारा। हर पुकार पर सब थोड़ा आगे झुक कर कभी छोटे साहब को, कभी मुझे देखने लगते थे, लेकिन छोटे साहब जैसे थे वैसे ही रहे। मुझ को वहां एक अजनबी शख्स भी नज़र आया। वो दरवाज़े से लगा खड़ा था। मैंने दोबारा उसे गौर से देखा। सरदार था। उस वक्त काइदे का साफ-सुथरा लिबास पहन कर छोटे साहब को देखने आया था। उसने किसी से बात नहीं की और खामोशी के साथ गर्दन झुकाए पलट गया।
मैंने मुआयना खत्म किया और मुख्तार साहब से पछा, ''कभी कुछ बोलते भी हैं?"
''वही एक पुकार मलिका जो इनके होंठों पर दरख्त से गिरते वक्त थी।"
''मैं इस पुकार का मतलब समझती हं," मलिका बोली, ''कहते हैं, इस दरख्त को रहने देना," फिर मुझ से पछा, ''आपने इनको देख लिया? ये ठीक हो जाएंगे।"
''मुझ से पछ रही हो मलिका?" मैंने दिल ही दिल में कहा। मुझे अपनी वो अज़ीज़ा याद आ गयी थीं जो झले पर से गिर कर बेहोश हो गयी थी, फिर 20-25 साल तक होश में नहीं आयी थी। उनके दाढ़ी मंछें निकल आयी थीं और चेहरा भयानक हो गया था। मैंने उनका सिर्फ ज़िक्र सुना था। हो सकता है, इसमें कुछ या बहुत कुछ अतिश्योक्ति हो। मैंने उनका ख्याल ज़ेहन से निकला दिया और मलिका को जवाब दिया, ''ठीक भी हो सकते हैं। बज़ाहिर इन्हें कोई मर्ज़ नहीं है।"
फिर अचानक मेरा दिल धूल वन से उचाट हो गया है। मैं सोचने लगा, यहां क्यों पड़ा हं? दुनिया मुझे वैसी ही मालम होने लगी जैसी अपना घर छोड़ते वक्त मालम हुई थी। अभी खासा दिन बाकी था। मैंने दरख्त के नीचे जाकर अपना सामान इकट्ठा किया। आखिरी बार इस दरख्त को देखा। मलिका, मुख्तार साहब, सरदार, चौधरी, किसी से भी रुख्सत नहीं हुआ। बस्ती के बाहर छोटे-छोटे गड्ढों से बचता हुआ दर निकल आया और किसी नयी शहर आबादी की तलाश में चल पड़ा।

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