उस्मान खान का जन्म 15 जुलाई 1984 को मध्यप्रदेश के रतलाम जिले में हुआ। विज्ञान स्नातक होने के उपरान्त उन्होंने अपना रुख हिंदी-साहित्य के अध्ययन की ओर किया। रतलाम में ही स्नातकोत्तर की उपाधि के बाद शोध के लिए जे.एन.यू. आये। कमलेश्वर की कहानियों पर एम.फिल। फिलहाल 'मालवा के लोक-साहित्य, लोक-संस्कृति' विषय पर पीएच.डी. के लिए शोधरत हैं। 'छपाऊ मानसिकता' और वेब-ब्लौगिये-फेसबूकिये प्रचार-प्रसार से काफी दूर इस मितव्ययी-संकोची कवि के व्यक्तित्व को इनकी कविताओं में भी देखा जा सकता है। डायरी, आत्म-संवाद को साधने की अपेक्षा ऐसे ही कवि-व्यक्तित्व-प्रकृति से संभव है। कविता के अलावा कहानी और आलोचना में भी ठीक-ठाक दखल हैं। लेकिन बिना कुरेदे कहीं भेजने से रहे। बमुश्किल 'डायरी' और 'चार संवाद' शीर्षक-श्रृंखला की कविताओं को पहल के लिए देने को सहर्ष तैयार हो गए।
2 नवंबर
आशंका है छत पकड़कर झूल रहा बन्दर की तरह सौ वाट का बल्ब: खीं-खींयाता दु:स्वप्न
जहाँ राबिया तुम रौशनदान तोड़कर अभी-अभी भागी हो और गाँव-गोईरे ईमली की डाल पर चमगादड़-सी लटक गई हो
क्या हुआ था? जिन्दगी इतनी कठिन तो नहीं थी कि एक शांत धूसर आभा ओढ़ ली जाए।
4 नवंबर
मृत्यु! एक शहर में भटकते हम दोनों, एक दिन टकराएँगे ही!
5 नवंबर
जेबें इतनी खाली हैं कि अलीफ- लैला का आखरी किस्सा भी सल्फास की गोलियों को सुनाया जा चुका है
7 नवंबर
नीम-बुझी गलियों की दीवारों के अँधेरे-उजाले पर बोध की सारी पीड़ा और क्रोध उभारता चला जा रहा है अंडरग्राउंड का गुलमोहर का फूल
10 नवंबर
जैसे आईना टूटता है और नींदें पीड़ाओं का सिलसिला हो जाती हैं
सीपियों में मिली कविताएँ मेरी साँसों में अश्वत्थामा के कपाल-सी मैं सूरज को अपने सर में रख लेता हूँ और कुर्सी को छतपंखे की जगह टाँग देता हूँ
11 नवंबर
तुम घोड़ों से आए और तुमने सिर्फ दो स्वाद हमारे लिए शाश्वत बना दिए- एक कड़वा और एक कसैला तुम घोड़ों से आए और तुमने सिर्फ दो चीज़ें हमें दीं- नाल और लगाम।
12 नवंबर
फ्लाय-ओवर के नीचे हैंगओवर में... जाम। चाँद और फैंटेसी सड़क पर बिखरे जा रहे हैं और आटो में चेता है सौ वाट का बल्ब।
13 नवंबर
हल्के-हल्के तय करके कई सदियों का सफर, एक राग।
अपनी कोमल ऊँगलियों में ठंडी मिजराबें संभाले मेरे बालों में पिरो रही है शहरज़ाद। --------------- मेरे भाईयों का नाम बताओ! जो मुझे अंधेरे के कुँए में फेंक गए थे!! और जैसे रात गई थी- रेगिस्तान में!!!
17 नवंबर
विक्षिप्त अफवाहें आईने और आँखों के बीच आँखें दरकती हैं आईना कोढ़ाता है घर से न लाश मिलती है न आईना
23 नवंबर
असंगता थी उदासी थी घर के कोने धूसर थे लैम्पपोस्ट उदास थे प्रसव-पीड़ा से बिल्लियाँ चिल्लाती थीं सड़क पर उड़ते कागज़ के टुकड़ों की आवाज़ मनहूस थी चाकू लिए एक आदमी घूमता था क्षिप्रा के तट पर सन्नाटा था मगर, इतना तो, नहीं था कभी! जंगलों पर और बस्तियों पर ये अपशकुन-सा क्या मँडरा रहा है।
24 नवंबर
तुम आते जैसे शबे-विसाल चाँद पर बादल आता है जैसे सही वक्त पर मानसून आता है जैसे यादों के शहर में वह मोड़ जहाँ अपने महबूब से मिलना हुआ था जैसे गोंद आता है बबूल में और नदी में मछलियाँ ------- इस तरह नहीं जैसे रतौंधी जैसे घाव पर मक्खियाँ जैसे घर पर पुलिस जैसे इमरजेंसी! जैसे हत्या!! जैसे, ब्लैक-आउट...
26 नवंबर
मेरी कहानियों की सौ-सौ नायिकाएँ और नायकों को जो महुए की चुअन सीने पर महसूस करते थे। जो जिन्दगी को भरपूर जीना चाहते थे। जो बेनाम गलियों के मोड़ों पर, घरों के साफ-सुधरे कमरों में, सड़कों की भरी-पूरी छातियों पर, झाडिय़ों में, और पहाडिय़ों पर कत्ल हुए। और जिनके बरसाती गीतों की धुन पर डोला करते थे साँची के स्तूप- रात की व्याकुलता में बीडिय़ाँ सुलगाते देखा मैंने और देखा गुस्से से दाँत पीसते, उन्हें!
28 नवंबर
जीवन साँझ-सा नि:शब्द शेष हो जाए श्वास-नि:श्वास के क्रम में दु:ख कठिन हो जाए जमकर पर, तुम प्यार नहीं हो तुमको प्यार नहीं लिखूँगा।
4 दिसंबर
प्रेम में, निषिद्घ- मृत्यु का मौन, आवाज़ खोजता है।
5 दिसंबर
रात को एक बजे पेपरवेट के नीचे दबाए गए यातना के इतिहास के सेंसर्ड पन्ने बस्ती से मसान तक घुग्घूओं के परों से झड़ते हैं ------- जब्तशुदा गाडियों पर जमी धूल रातगश्त पर भेज चुकी है पुलिसवालों को दो ट्यूबलाईटों के बीच खड़े आदमकद आईने में एक केंचूआ रेंग रहा है...
चार संवाद
1. साँची से लौटा संवादिक
.. जब मुझे पकड़ा गया। मैं साँची के स्तूपों के आख्यान-शिल्प पर सोच रहा था। सोच रहा था, तुम अब तक सो गई होगी। अब तक फ्लाय ऑवर के नीचे नरक का रूपक तैयार हो गया होगा। अब तक मीनार पर नहीं रुका होगा— विषाद। गलियों में पैवस्त हो गया होगा— या पलंग के नीचे-ऊपर करता होगा घर में। ...सोच रहा था, मुझे अब तक बात करना नहीं आती और तुम अब तक सो गई होगी। वरना फोन करता। ...महामाया का सपना, शिल्पी की कल्पना, झेल नहीं पाई। ...और अब मुझे श्रेष्ठियों के सामने कबूल करना है कि मैंने ही बुद्घ की मूर्ति तोड़ी है। नहीं जानता, किस किताब के तहत मुझे मिलेगी सज़ा। ज़माना सज़ाओं की किताबें इतनी जल्दी-जल्दी बदल रहा है? नहीं जानता, आजकल चल रहा है किसका सिक्का, किस श्रेष्ठी का फैन्टेसाइड नरक।
2. संगमरमर की कोठरी से लौटा संवादिक
अ.
अब मैं अकेलेपन के बारे में कुछ कहना चाहूँगा। कहना चाहूँगा दूरियों और कहानियों के बारे में। दूरियाँ बहुत कठोर होती हैं — संगमरमर की तरह कठोर। संगमरमर की तरह चमकती हैं, जब बहुत दिन फिर जाते हैं आँखों और चेहरे के बीच। चेहरे वैसे ही मिलते हैं रोज़ — जैसे मेरी आँखें छोड़ती हैं उन्हें — जहाँ छोड़कर जाता हूँ — वहीं पड़ी रहती हैं चीज़ें, अकेलेपन में। बहुत वक्त बाद पता चलता है, चेहरे और चीज़ें बदल गई हैं — देखने, छूने भर से। छूने भर से टूट सकता है बहुत दिनों से एक-सा दिख रहा — आसमान।
ब.
आसमानी कहानियाँ बेहद अकेले लोगों पर नाज़िल होती हैं। पहली कहानी से पहले बेहद अकेले होते हैं पैगम्बर। उतना अकेला आदमी मर भी सकता है। पागल भी हो सकता है। सिर्फ एक कहानी के अभाव में मुर्दों और पागलों-सा सुलूक करने लगते हैं लोग — और एक कहानी कहने पर बंद कर सकते हैं संगमरमर की कोठरियों में — अकेला — अनन्य। पूरी दुनिया, डार्विन और पॉर्न के बाद भी खुदा लापता नहीं है। और पैगम्बरों को अलग-अलग पतों से सिर्फ सज़ा बढ़ाए जाने की चिट्ठियाँ आती हैं — बहुत दिनों और रातों के बाद।
स.
बहुत दिनों और रातों के बाद बहुत भारी हो जाता है विदाई का पल। अकेलापन क्या किसी से विदा लेते ही शुरू होता है। क्या बेहद अकेला है पाकिस्तान। एक कहानी कहकर। हम दोनों की तरह।
3.
दफ्तर से लौटा संवादिक
क्या मेरी आवाज़ तुम तक पहुँच रही है क्या सुन पा रही हो मेरी बात वो नहीं तोड़ सकता था बुद्घ की मूर्ति इसीलिए पत्थरों पर उसके घात-प्रतिघात चुक गए से लगते हैं, मुझे तो महामाया का सपना बुद्घ के जन्म से ज़्यादा आकर्षित करता है लेकिन कलाकार अगर ठेका लेकर काम करे तो चुकने लगते हैं विवरण और कल्पना कितना बड़ा था सपना और उसके अनुपात कितनी छोटी जगह!! जैसे सपने— मकबरों में भरे जा सकते हैं। उफ! तुम कान साफ कराओ अपने! क्या सुन पा रही हो मेरी बात, कुछ कंजर औरतें फ्लाय ऑवर के नीचे मुस्कुराती हैं अजीब तरह ना शर्म, ना चालाकी, ना अफीम खींचे। ब्लाउज़ और स्तनों के माप में अजीब गुत्था-गुत्थी बदबुआते अँधेरे कोने में घात-प्रतिघात चूसे जाते, सारा थूक चूस लेने वाले, सूखे होंट। स्मैकी का मूठ-मार वीर्यपात। क्या सुन पा रही हो मेरी बात, मैं अकेलेपन में, खुद को भागते एक जगह से दूसरी जगह पकड़ता हूँ मैं मकबरों में भी पकड़ा जा सकता हूँ और फ्लाय ऑवर के नीचे भी हर जगह गुस्सा और चीख, पकड़ा न जा सकूँगा कभी कहानी, इतिहास, महाकाव्य पुराण में किसी रूप में, किसी आख्यान में
असंभव हूँ, असंभव हूँ — संगेमरमर की कोठरियों वाली दुनिया में।
4.
दो संवादिक
'आप पैगम्बरों के बारे में कुछ क्यों नहीं लिखते?' 'मुझे लगता है कि कवि पैगम्बर से कम नहीं होता। और पैगम्बर खुदा के बारे में लिखते हैं — अपने बारे में नहीं!' 'तो आप खुदा के बारे में कुछ क्यों नहीं लिखते?' 'क्योंकि पैगम्बर अपने अलावा किसी के बारे में नहीं लिख पाते।' 'तो आप अपने बारे में कुछ क्यों नहीं लिखते?' 'क्योंकि मैं किसी और के बारे में भी कुछ नहीं लिखता।' 'लेकिन आपने कुछ कविताएँ तो लिखी हैं!' 'हाँ, लेकिन जब तक कोई उनकी हत्या नहीं करता, तब तक वे खुदा और पैगम्बर से स्वतंत्र हैं।' 'इसका मतलब मैं हत्यारा हूँ!' 'इसका मतलब यह भी नहीं कि मैं पैगम्बर हूँ! पैगम्बरों का सवाल मुर्दा दुनिया का सवाल है, मैं ज़िन्दा लोगों से मुखातिब हूँ।'
उस्मान खान, 316 झेलम छात्रावास, ज ने वि, नई दिल्ली - 110067, मो - 08527460770 |