बाकी सभी बकाया लोगों का एक छिटका हुआ कवि - मनुष्य

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    जनवरी 2013
श्रेणी समीक्षा
संस्करण जनवरी 2013
लेखक का नाम शिरीष कुमार मौर्य





शिरीष मौर्य सुपरिचित कवि है। पहला कविता संग्रह 'शब्दों के झुरमुट में' था। 1973 की पैदाइश। इधर की आलोचना दुर्गतियों से निकल कर कुछ अलग तरह से लिखने की तैयारी में हैं। यहां आलोचना के औजारों, प्रत्ययों और फिकरों से बचने का अभ्यास दिखाई पड़ता है। इस क्रम में अगला लेख वीरेन डंगवाल पर होगा।


शमशेर बहादुर सिंह के बाद विनोद कुमार शुक्ल ही एक ऐसे कवि हैं, जिनकी कविता को पढ़ते हुए मैं अचानक खुद को बहुत सावधान, विनयी और एक अजब-से अव्यक्त संतुलन में पाता हूं। उनकी कविताएं मुझे अनुशासन में ले आती हैं। कैसी विनम्र भाषा में कितना चीरता-सा व्यंग्य, जैसे लम्बी रातों के बाद उन्हें चीरती हुई सुबहें होती हैं और कोई अकेली चिडिय़ा धीमे स्वर में बोलना शुरू करती है। उजाले उतरते हैं धरती पर और हृदय में... अनगिन संकटों से घिरा मनुष्य कुछ देर के लिए अपनी स्मृति और वाणी पा जाता है। जैसे भैरव में कोमल रिखब और धैवत आते हैं। भोर के इस गहरे राग की तरह कविता, जो आपको मनुष्य होने का गहरा अहसास दिलाए और वैसा बने रहने का भरपूर विश्वास भी, कितनी कीमती है वह - अपने समकालीन कोलाहल और उथलेपन में उसे पाना मानो खुद को वापस पाना है। विनोद कुमार शुक्ल के लिए कविता लिखना अपनी सम्पूर्णता में किस तरह लिखना है, उसे ठीक-ठीक खुद उन्हीं के शब्दों में इस तरह समझा जा सकता है -

कविता लिखते समय
मेरा ध्यान दुनियादारी में रहता है

लिखते समय
कोई घर का बंद दरवाज़ा
खटखटाता है
तो मैं सुन लेता हूं
और दरवाज़ा खोलता हूं

विनोद कुमार शुक्ल को न सिर्फ उनके आलोचकों, बल्कि चाहने वालों ने भी बंद दरवाज़ों का कवि साबित करने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। मैंने उनकी कविता में कुछ यात्राएं की हैं और मैं ताईद करना चाहता हूं कि वे दुनियादारी में लगे दरवाज़ा खोल देने वाले कवि हैं... उनमें निजता की कोई गुत्थी ऐसी नहीं है, जिसे सामाजिक सन्दर्भों में न खोला जा सके... अव्वल तो वो खुद-ब-खुद खुल जाती है, उसे किसी बाहरी सहायता की कोई ज़रूरत नहीं होती।
* * *
किसी कवि के बारे में लिखते हुए लिखने वाले का 'आत्म' भी सामने आना चाहिए। मुझे पता नहीं क्यूं लगने लगा है कि डाइअलेक्टिक और उसकी स्पिरिट का सम्मान करना जितना कवि जानते हैं, उतना अब आलोचक नहीं... कवियों में भी कुछ भटकाव हैं पर उतने नहीं, जितने आलोचकों में। मेरा पूरा यकीन डाअलेक्टिक में है, इसलिए मैं लिखता हूँ... कविता भी और इधर कुछ समय से आरम्भ हुआ मेरा ये टूटा-फूटा गद्य भी - मोटे तौर पर ये मेरे लिखने का प्रमुख कारण है। विनोद कुमार शुक्ल के संग्रह 'कभी के बाद अभी' में मुझे डाइअलेक्टिक का एक पूरा आकार और संसार नज़र आ रहा है, इसलिए मैं उस पर भी लिख रहा हूँ...
* * *
जिन्होंने शत्रुता निभाई
मैं उनके साथ अमर रहूं
कि एक दिन मित्रता निभायेंगे

अपनी मित्रता बढ़ाकर
संसार भर को मित्र बना लूं
तब तक अमर रहूं

तमाम दुखों के साथ
अमर रहूं
कि एक दिन आएगा
जब कोई दुखी नहीं होगा
और उनमें एक मैं रहूंगा

यह मेरे इन्तज़ारों की कविता है... मैंने एक निपट जटिलता को पढ़ते-लिखते हुए कुछ उम्रें गुज़ारी हैं जीवन के उस अर्थ को पाने लिए, जो इस कविता में सहज ही मिल रहा है। जटिलता, जिसमें ज़रा भी जल नहीं था... सूखी, ऐंठती हुई-सी, कंठ में चुभती चीख जैसी... पर यहां वह जल है, जिसे हम खोते जा रहे हैं। स्वीकारना ही होगा कि हमने बाहर के ही नहीं, अपने भीतरी पर्यावरण को भी बहुत नष्ट किया है। मैं तो मर रहा था कि जिन्होंने मुझसे शत्रुताएं निभाईं, वे एक दिन मित्रता निभाएंगे - उस मरने के 'मर' को अमर करते हुए इस कविता ने मुझे इस इंतज़ार का एक बेहतर सलीका सिखाया है। अब मेरा यह इंतज़ार अधिक धैर्यपूर्ण और मनुष्यवत् होगा। मैं देख पा रहा हूं कि प्रचलित मुहावरे में एक छोटी-सी फेरबदल, जीवन में कितना बड़ा रद्दोबदल कर सकती है।
* * *
मनुष्य और मनुष्यता के लिए लिखी गईं कविताओं में तमाम तरह की चिन्ताएं और उनकी सम्भाल का एक सधा हुआ विचार होता है... इनमें हमारे ठस अकादमिक विद्वान भावात्मक संवेदना और ज्ञानात्मक संवेदना का अपना प्रिय खेल नहीं कर सकते - यहां भावुकता ज्ञान से पैदा होती है और ज्ञान भावुकता से। साहित्य संसार की निजी बातचीतों में विनोद कुमार शुक्ल को अकसर कुछ वाचाल लोग चुप्पा कवि कहते हैं... एकाधिक बार मैंने इसे कहीं लिखा हुआ भी देखा है। यह गलत धारणा है कि विनोद कुमार शुक्ल की कविताएं कम बोलती हैं। हां, हो सकता है कि वे ज़ोर से नहीं बोलतीं। मैंने इधर के अपने अनुभवों में सीखा है कि हर अवसर पर ज़ोर से बोलने को ही बोलना कहना एक लगभग मनुष्य-विरोधी विचार हो सकता है और विचार-विरोधी विचार भी। हम मनुष्यता के हक में रास्तों पर बड़ा जुलूस निकालने से पहले कमरे में बैठकर उसे धीमी आवाज़ों में आकार देते हैं, उसमें विचार की भूमिका निर्धारित करते हैं, उसके विचारहीन-उन्मादी भीड़ में तब्दील होकर रह जाने की हर सम्भव गुंजाइश को टटोलते हुए सुगठित और वैचारिक आंदोलन का रूप देने का प्रयास करते हैं। विनोद कुमार शुक्ल की कविताओं का चुप भी तो ठीक यही करता है -

भीड़ के हल्ले में
कुचलने से बचा यह मेरा चुप
अपनों के जुलूस में बोलूं
कि बोलने को सम्हाल कर रखूं का चुप

अपनों के जुलूस में बोलने के लिए सम्हाल कर रखा हुआ यह चुप इतना मुखर होकर बोलता है कि वह सब ढेर सारा हल्ला-गुल्ला करके 'बोला हुआ' धरा रह जाता है, स्मृति भी उसे स्वीकार नहीं करती। इस चुप की आवाज़ ही सबसे बड़ी और सधी हुई आवाज़ होती है फिर भले हम उसे देर में सुनते हैं। इसमें स्मृतियां कराहती हैं, यथार्थ गूंजता है और स्वप्न जन्म लेते हैं। मैं पूछना चाहता हूं कि स्वप्नों के जन्मने की पीड़ा भी कम बड़ी आवाज़ है क्या आज की दुनिया में... यहीं ज्ञान और भावुकता का वह अनिवार्य सम्बन्ध भी उपस्थित है, जिसने हमें विपुल प्राणिजगत में मनुष्य बनाया और अब तक बनाए रखा है। विनोद कुमार शुक्ल की कविता इस सम्बन्ध को बार-बार रचने की कविता है।
* * *
सिर उठाकर
मैं बहु जातीय नहीं
सब जातीय
बहु संख्यक नहीं
सब संख्यक होकर
एक मनुष्य खर्च होना चाहता हूं
एक मुश्त

ऐसा लिखना बहुलतावाद की धूर्त पैरोकार बनी तथाकथित उत्तरआधुनिकता के िखलाफ बहस छेडऩा है। डिफेरेंस और फ्रेगमेंटेशन को बढ़ावा देने और डीकंस्ट्रक्शन के निरन्तर बेलगाम अलगाव के विरुद्घ कवि का यह बयान काफी स्पष्ट है। इसी क्रम में गौर करना होगा कि इधर फ्रेंच अकादमी के उत्तरआधुनिक किंवा उत्तरसंरचनावादी विमर्शों में वैश्विक पर्यावरण भी एक बड़ा मुद्दा रहा है, जिसमें अमरीकी की काफी रुचि है... खासकर एशियाई देशों के पर्यावरण के लिए अमरीकी चिन्ताएं रेखांकित करने योग्य हैं। अपनी मशहूर पुस्तक लिटरेरी थ्योरी में टेरी ईगलटन ने फ्रेंच अकादमी की इस नई भूमिका को साफ तौर पर इंगित किया है - फ्रांस में उत्तरसंरचनावाद ईरान के कठमुल्लों की प्रशंसा और अमरीका को एक मात्र मुक्त और बहुलतावादी दृष्टिकोण वाले मुल्क के रूप में समारोहपूर्वक स्थापित करने में अच्छी तरह समर्थ रहा है। हमारी निकट की स्मृति साक्षी है कि ईरान-ईराक युद्घ के ज़माने में अमरीकी नज़दीकी ईरान से खूब रही है। खैर मैं अभी इस विस्तृत पश्चिमी परिदृश्य में न जाकर यहां भारतीय आदिवासियों के सन्दर्भ में विनोद कुमार शुक्ल की कविता से कुछ उद्घरण प्रस्तुत करना चाहूंगा -

जो प्रकृति के सबसे निकट हैं
जंगल उनका है
आदिवासी जंगल के सबसे निकट हैं
इसलिए जंगल उनका है
अब उनके बेदखल होने का समय है
यह वही समय है
जब आकाश से पहले
एक तारा बेदखल होगा
जब पेड़ से
पक्षी बेदखल होगा
आकाश से चांदनी बेदखल होगी
जब जंगल आदिवासी बेदखल होंगे

यह संग्रह में शामिल एक पूरी कविता है, जिसके बयान पहली निगाह में अनगढ़ और भावुकता भरे लग सकते हैं... पर विनोद कुमार शुक्ल अपने शिल्प में पहली निगाह के कवि हैं ही नहीं, उन्हें कई निगाहों से पढऩे की ज़रूरत पेश आती है। वे साधारण दिखते में असाधारण रचते हैं। उनकी सरलता धोखा दे सकती है। उनके छोटे-छोटे बयान अपने भीतर एक लम्बी बहस छुपाए होते हैं। जंगल आदिवासियों का है और बाहरी हस्तक्षेप के पहले उन्होंने हज़ारों साल उसे सभी पशु-पक्षियों समेत बहुत कामयाबी से बचाए रखा है। वे खेतिहर प्रजाति के सामन्ती दिशा में चले गए लोग नहीं हैं, वे जंगल को दूसरे प्राणियों की तरह इस्तेमाल करते हुए उस पारिस्थितिकी तंत्र का अनिवार्य हिस्सा बन चुके हैं। वे बेदखल होंगे... यह खतरे की घंटी है, आदिवासियों से अधिक जंगल के लिए और समूची दुनिया के लिए। दुनिया में जिस भी जंगल से आदिवासी बेदखल हुए हैं, वो नष्ट होता गया है। पृथ्वी पर मनुष्यता के हित में अब पर्यावरण विमर्श चल रहा है, जिसे दरअसल डाइअलेक्टिक की भाषा में सामने आना चाहिए। विनोद कुमार शुक्ल की कविता इसी भाषा का सहारा लेती है और आदिवासियों की बेदखली के साथ आकाश से तारे व चांदनी और पेड़ से पक्षी के बेदखली के दृश्य प्रस्तुत करती है। ये पृथ्वी पर उजाले और जीवन के मरने के दृश्य हैं, महज आदिवासियों की बेदखली  के दृश्य प्रस्तुत करती है। ये पृथ्वी पर उजाले और जीवन के मरने के दृश्य हैं, महज आदिवासियों की बेदखली के नहीं। इस छोटी-सी लगती कविता में एक बड़ा आख्यान है और इतिहास, विज्ञान व मनुष्य की सम्पूर्ण स्वतंत्रता के बड़े आख्यानों के विरुद्घ साम्यवाद से भागे हुए चिंतक ल्योतार अपनी रिपोर्ट काफी वर्ष (1979) पहले ही 'पोस्टमार्डन कंडीशंस' के रूप में कैनेडियन-अमरीकी अकादमी और राजनीति को दे चुके हैं। एक निगाह में देखें तो सभी जानते हैं कि पश्चिमी दुनिया में 'एक ऑफ एनलाइटमेंट' और 'आधुनिकता' ने दो महान आख्यान दिए - पहले विज्ञान और फिर बाद में दर्शन व राजनीति के क्षेत्र में मार्क्सवाद - इन दोनों को ही इस तरह उपलब्धि के रूप में देखने-जानने-पहचानने में एक कोताही-सी सृजनात्मक हिंदी लेखन में होती रही थी है। अब वैश्विक स्तर पर इन्हें अपदस्थ करने की तैयारी है। विज्ञान का दोहन सही-गलत तकनीकी विकास में जारी है और मार्क्स का मूर्खतापूर्ण विरोध बहुलतावाद और विभेद के जरिए सामने आ रहा है। टेरी ईगलटन ने संरचनावाद के प्रस्तोता स्यूसर के लिए लिखा है कि यदि वे जानते हैं कि उनके लिए ये आगे ये हश्र होगा तो वे संस्कृत के आनुवंशिक प्रकरण भर से चिपके रहना पसन्द करते। विनोद कुमार शुक्ल इस संग्रह में बार-बार कहते हैं कि जंगल उनका है जो प्रकृति के सबसे निकट हैं, न कि उनका जो जंगल और दुनिया को अपनी शर्तों और गणित पर बचाने का ठेका लिए बैठे हैं। कितनी दारूण हो सकती है ये आशंका -

आदिवासी, पेड़ तुम्हें छोड़कर नहीं गए
और तुम भी जंगल छोड़कर खुद नहीं गए
शहर के फुटपाथों पर अधनंगे, बच्चे-परिवार
के साथ जाते दिखे
अपना जंगल नहीं इस साल
कहीं यही कारण तो नहीं

इस साल का भी अन्त हो गया
परन्तु परिवार के झुंड में अबकी बार
छोटे-छोटे बच्चे नहीं दिखे
कहीं यह आदिवासियों के अंत होने का
सिलसिला तो नहीं
भयावह सम्भावनाएं किसी भी विचारवान कविता में आती ही हैं... फिर एक दिन वे सच हो जाती हैं - ये मैंने मुक्तिबोध को पढ़ते हुए जाना। मुक्तिबोध के साथ ही अंतोनियो ग्राम्शी की भी एक आत्मीय याद के साथ कहना चाहता हूं कि आप उम्मीदों के सहारे जीते हैं और एक दिन उम्मीदों पर भी संकट आता है, जो आप पर आए संकटों से कहीं बड़ा होता है। उम्मीदों पर आया संकट किसी भी तरह की निजता से बाहर समूची मनुष्यता के लिए एक अधिक भयानक और चुनौतीपूर्ण संकट होता है। लेकिन हमें जानना होगा कि ऐसी आशंकाएं भी आशाओं के कारण ही जन्मती हैं। आशंकाओं और आशाओं के बीच की दुविधाजनक और तनाव भरी जगह विचारों से भरी जाती है। बहुत बड़ी चीज़ है। यदि इस जगह और इस द्वन्द्व के बीच मनुष्यता के पक्ष में एक सही विचार का चुनाव हम कर पाएं तो दिशाएं साफ हो जाती हैं... बाकी तो मनुष्य का एक सतत् संघर्षपथ है, जिस पर लम्बी यात्राएं अभी होनी हैं। विनोद कुमार शुक्ल की कतिवा में यह पथ दिखता है। यहां छोटे बच्चों का न दिखना एक बड़ी चेतावनी है और चेतावनी देना कविता का बहुत ज़रूरी काम है। समूची हिंदी कविता-परम्परा में कबीर से लेकर अब तक आश्वस्ति से अधिक चेतावनी देने वाली कविताएं ही आज हमारे साथ हैं... शेष तो अभिलेखात्मक अवशेष पर हैं।
सभ्यता का प्रश्न हमेशा ही हमारी वैचारिकी के सामने बहुत बेचैनी पैदा करने वाला प्रश्न रहा है। सभ्यता की कई सामाजिक और राजनीतिक परिभाषाएं मौजूद हैं, लेकिन कविता ही अब तक उसकी सबसे सही परिभाषा न कहें, तो भी कहना होगा कि अभिप्राय को अवश्य प्रस्तुत कर पायी है। कविता का सृजनात्मक दायित्व भी परिभाषा अथवा अर्थ को नहीं, अभिप्राय को व्यक्त करना है। विनोद कुमार शुक्ल ने इस अभिप्राय को बखूबी व्यक्त किया है, पहले भी और इस संग्रह में तो और भी -

जितने सभ्य होते हैं
उतने अस्वाभाविक

आदिवासी जो स्वाभाविक हैं
उन्हें हमारी तरह सभ्य होना है
हमारी तरह अस्वाभाविक

जंगल का चन्द्रमा
असभ्य चन्द्रमा है
इस बार पूर्णिमा के उजाले में
आदिवासी खुले में इकट्ठे होने से
डरे हुए हैं
और पेड़ों के अंधेरे में दुबके
विलाप कर रहे हैं
क्योंकि एक हत्यारा शहर
बिजली की रोशनी से
जगमगाता हुआ
सभ्यता के मंच पर बसा हुआ है

छत्तीसगढ़ में रहते हुए विनोद कुमार शुक्ल में इस चेतना का होना भी स्वाभाविक ही है... ठीक आदिवासियों के होने की तरह। उम्र और लेखन के इस पड़ाव पर लेखक की यह एक बहुत स्पष्ट राजनीतिक चेतना है। कौन नहीं जानता कि छत्तीसगढ़ की सरकार ने पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन की अगुआई में आदिवासियों की इतनी चिन्ता और संरक्षण किया है कि वहां अब स्थायी कत्लगाहें बन चुकी हैं। बहुचर्चित और बहुधिक्कारी सलवा-जुडूम भी दरअसल उसी अकादमिक समुदाय की पैदावार है, जिसके बारे में मैंने पहले टेरी ईगलटन का वक्तव्य प्रस्तुत किया है। नष्ट होते जीवन को और तेज़ी से नष्ट करने का क्रूरतम उदाहरण है यह। नक्सलियों के नाम पर आदिवासी औरतें और बच्चे कत्ल किए जा रहे हैं और देश के गृहमंत्री अभूतपूर्व बेशर्मी से 'सारी' बोल रहे हैं। इधर मनुष्यता के सन्दर्भ सभ्यता का अर्थ अभी स्पष्ट होना बाकी है और उधर अमरीकी अकादमी 'क्लेशेज़ आफ सिविलाइज़ेशंस' के साथ 'रीमेंकिंग आफ वल्र्ड' का दावा पेश करते हुए एक अभूतपूर्व राजनीति स्वांग रच रही है। वह पूरब के सन्दर्भों में पूरब को ही भरमाना चाहती है।
इस संग्रह की किंचित लम्बी कविताओं में से एक है 'रातों में भी जंगल में' ...जिसका होना घटना के होने की तरह है। बिना इन रातों का शिकार बने ऐसी रचना सम्भव नहीं है। विनोद कुमार शुक्ल आधुनिक सन्दर्भ में महज दिखाई दे रहे क्रौंच-वधों से प्रेरित कवि नहीं हैं, वे अपनों और अपना वध देखने वाले कवि हैं। वध उनके लिए सामने नहीं, भीतर घट रही घटना है... इसलिए मैंने कहा कि ये कविता भी एक घटना है -

रातों में भी जंगल में
जानवरों की आहट नहीं होती
आदमी की आहट होती है
जंगल से जानवर चले गए
वहां से जानवर होने का
अनुषंग भी चला गया
अगर आहट हुई तो लगता है
कोई आदिवासी वहां जान बचाने छुपा है

बताना कतई ज़रूरी नहीं पर पाठ पर ज़ोर देने वाले कुछ मूर्ख-प्रसंगों के ध्यान में आ जाने के कारण बताना पड़ रहा है कि जानवर चले गए का अभिप्राय विस्थापित होने से नहीं, नष्ट हो जाने से है। कविता में जानवरों की-सी लगती आहटें, आदिवासियों की भयपूर्ण उपस्थिति का दृश्य बनने लगती हैं -

जानवरों के नाम पर
एक जंगली खरगोश भी नहीं दिखेगा
आहट होते ही वहां टार्च की
तेज रोशनी पड़ जाए तो
खरगोश के बदले
एक आदिवासी नग्न बच्चा दिखेगा
जैसे जान बचाने प्राय:
खरगोश गायब होता है
वह भी गायब हो जाएगा

एक नीलगाय भी नहीं दिखेगी
बदले में हो सकता है
पीठ पर बच्चा बांधे
एक आदिवासी औरत दिख जाए

ये किसी डाक्यूमेंट्री िफल्म के-से दृश्य लगते हैं। लगता है कि कवि अपने ही भीतर किसी खोज अभियान पर है। विनोद कुमार शुक्ल की कविताओं की पहली पहचान उनकी विदग्ध भाषा रही है पर इस संग्रह में भाषा की सिनेमेट्रोग्राफी दिखाई दे रही है। यह पूरी कविता एक रात की फिल्म है, जिसमें अंधेरा अद्भुत कुशलता के साथ साकार हुआ है और एक परदा बन गया है, जिस पर कविता के दृश्य दिखाई देते हैं। दृश्य भी कैसे -

हो सकता है अंधेरे घने जंगल में अंदर
कुछ दूर
जानवरों की चमकती आंखें दिखें
तो उन्हें गांव छोड़कर भागे हुए आदिवासी समझना
जो थककर बीड़ी पीते हुए
सुस्ता रहे होंगे

आदिवासियों का गांव छोड़कर भागना ही सलवा जुडूम है... वे बेचारे अपने ज़बरिया किए जा रहे संरक्षण से भाग रहे हैं। अंधेरे की इस िफल्म में धीमी-धीमी आवाज़ें हैं, जो बैकग्राउंड में एक अलग दृश्य रचती हैं। कभी कोई प्रतिभावान फिल्मकार चाहे तो इसे परदे पर साकार कर सकता है... यूं भी इस मामले में विनोद कुमार शुक्ल अपने साथियों से आगे रहे हैं - उनकी कहानियों और उपन्यास पर फिल्में बनी हैं, अब कविता इस संग्रह की हो सकती हैं जहां आदिवासियों की पूरी सिरीज़ उपस्थित है और दृश्य भी पहले से तैयार। इन सभी कविताओं में एक थीम है, बीज-आख्यान हैं और पटकथा भी। इस सबकी राजनीति भी स्पष्ट है -

अपने को बचाने के लिए
खुद को मार डालने
हथियार उठाना पड़ता है -
दु:ख की ऐसी स्थिति
कि आत्महत्या के लिए
हथियार उठाना पड़े
तब दु:ख देनेवाले के लिए
हथियार उठाना
कितना गलत होगा
इसको मैं जान लेना चाहता हूं
इसका मतलब सीधा है
मैं जान लेना नही
जान बचाना चाहता हूं
यह आदिवासी सच है
विनोद कुमार शुक्ल का यह आदिवासी सच उन्हें अपने दूसरे संग्रहों की कविता से अलग कवि बनाता है, ऐसा पहले नहीं हुआ था। वे राजनीतिक मोर्चे पर चुप रहें या उन्हें चुप मान लिया गया था, इस वजह से राजनीति के सन्दर्भ-विशेष में उनके लिए एक अस्वीकार-सा कुछ पहले मेरे मन भी रहा था, पर अब इस संकलन के साथ वो जाता रहा। इस संग्रह में आदिवासियों के बहाने ही सही, उनकी राजनीति खुली है... किसी पुराने जख्म की तरह - उसकी लाली नज़र आ रही है। इसी स्वर में संग्रह के अंत की तरफ आने वाली कविता बिलासपुर के पास अचानक मार का जंगल भी बोलती है।
इस संग्रह से दिख रही बहसों में एक बहस छत्तीसगढ़ के बहाने छोटे राज्यों की अवधारणा को प्रश्नांकित करती बहस भी है। भारत जैसे एक बड़े गणराज्य में छोटे राज्यों के पक्ष के जो तर्क हैं, उनसे इनकार नामुमकिन है। मैं खुद उत्तराखंड राज्य आंदोलन में शामिल रहा और उस प्रक्रिया से गुज़रा हुआ आदमी हूं, जिसमें राजनीति का अनिवार्य विवेक मौजूद था। लेकिन इस विवेक का क्षरण राज्य गठन के साथ ही शुरु हो गया था। हमें क्षेत्रीय राजनीतिक दलों से उम्मीदें थीं, जो उनकी विवेकहीनता और अवसरवादिता में कहीं बेआवाज़ कत्ल हो गईं। विसंगति ये कि सत्ताएं कांग्रेस और भाजपा के हाथ रहीं, जो दरअसल राज्य आंदोलन के प्रबल विरोधी राष्ट्रीय दल थे। आज राज्यके नाम पर जो हमारे पास है, वह उदासी पैदा करता है और इस उदासी को क्षोभ और क्रोध में बदलने का हुनर भी लगता है कि अब बाकी नहीं रहा हममें। राजनीति के क्षरित - विकृत रूपों में एक रूप है, जिसके बारे में इस संग्रह की यह कविता बात करती है -

राजनीति के समुद्र में से निकल कर आया
समुद्री घोड़े की तरह
जो नक्शा है छत्तीसगढ़ राज्य का
यह शार्क या मगरमच्छ जैसा भी हो सकता था नक्शे में-
समुद्री घोड़े के पेट में लोग हैं
यह उतना ठीक नहीं लगता
जितना कि शार्क या मगरमच्छ के पेट में कहने से
जैसा कि है

किस राजनीति के समुद्र में छत्तीसगढ़ निकला है, इसके बारे में कुछ कहना ज़रूरी नहीं। जिस राजनीतिक दल ने इसे जिस तरह बनाया और फिर इससे क्या-क्या कितना-कितना पाया, इसका पूरा अभिलेख अब मौजूद है। गलत विचारों और बदनीयती की परम्परा में राजनीति एक नकारात्मक अर्थ ग्रहण करती गई है। जिस जनता के लिय राज्य को होना था, वो वैसी ही रह गई बल्कि उससे भी बदतर हालात में ...लोग वाकई शार्क और मगरमच्छ के पेट में हैं। कविता में इस क्रूर सच के बाद एक सम्भव न हो सकी सम्भावना की स्मृति भी है -

इसका नक्शा संयोग से
जंगली फूल हो जाता
या फूल की कली
पकते हुए भात की हंडी हो जाती घर-घर में

जंगली फूलों और भात की हंडियों के रूपकों में ही इस राज्य की असल सूरत थी। सम्भावनाओं और विचार के प्रदेश में जब हत्याएं होती हैं तो वे अधिक नृशंस होती हैं - उनमें व्यक्तियों के साथ स्वप्न, उम्मीदें, भविष्य, बुनियादी हक-हुकूक सब मर जाते हैं। समूची मनुष्यता मर जाती है। यह कविता इसी दृश्य को इतिहास के वर्तमान तक खोलती है -

परन्तु उजाड़, जंगल, खेतों, गरीब-भूखों का यहां आदि दृश्य है
जैसा कि है
हो सकता था की-
इस छोटी-सी कथा में
एक पाठ्यक्रम है
कि हाथी पर बैठा
एक राजा है
और जय-जयकार करती
गरीब प्रजा
जो शुरु से है

यह आदिदृश्य अनादि बनता जा रहा है। अब भी वहां राजा है और गरीब प्रजा जो शुरु से है - जो छत्तीसगढ़ को छत्तीसगढ़ बनने से क्या मिला... और अधिक लूटपाट, संसाधनों का अमानवीय दोहन और विरोध में खड़े होने वालों के लिए बनाईं वे स्थाई कत्लगाहें, जिनका जिक्र मैंने पहले भी किया। और यह सिर्फ छत्तीसगढ़ की व्यथा नहीं है, उसके साथ पैदा हुए झारखंड और उत्तराखंड की भी है। छत्तीसगढ़ की सत्ता के झूट विनोद कुमार शुक्ल की कविता में एक भरपूर राजनीतिक समझ के साथ उजागर हैं। यह सत्ता भी मामूली सत्ता नहीं, उसके झूट भी मामूली झूट नहीं हैं - ये भारत की फासिस्ट ताकतें हैं और उनके अपने गोएब्लस हैं। छत्तीसगढ़ी में वह झूट बोल रहा है शीर्षक कविता का यह एक प्रसंग है -

छत्तीसगढ़ी में वह झूट बोल रहा है
कि अब अच्छे दिन आएंगे
सनकर सभी भूखे प्यासे
औरतें छोटे-छोटे बच्चे बूढ़े लोग
बहुत बुरे दिनों को लादे
अपने काले भविष्य के दूर कोनों में
लौट जाते हैं

...अचानक जोरके चीखने से
संसार की बोलियों के हुए तब सन्नाटे में
लाउडस्पीकर से
छत्तीसगढ़ी में वह झूट बोल रहा है -
लबारी बोलत है।
* * *
विनोद कुमार शुक्ल की राजनीति का एक और छोर 'मुझे बिहारियों से प्रेम हो गया' शीर्षक कविता में दिखाई देता है। महाराष्ट्र में ठाकरे परिवार के करम किसी से छिपे नहीं हैं। वे भीषण सामुदायिक हैं और इस अर्थ में वे ही उत्तरआधुनिकता की सच्ची संतानें हैं भारत में। जबकि हमारी अकादमियां पोथियों में सिर मार रही हैं, वे लाकेल को परिभाषित भी कर चुके हैं - फ्रेंच अकादमी के लोकेल सम्बन्धी सिद्घान्त ही आने-अनजाने उनके सिद्घान्त हैं। परिणाम हमारे सामने है। एक निरंकुश परिवार जो अपने परिभाषित लोकेल में किसी भी तरह के बाहरी हस्तक्षेप की अनुमति नहीं देता। मुम्बई में मराठी-मानुष की प्रचंड सामुदायिक भावना के आगे सभी नतमस्तक दिखाई  देते हैं। खेद का विषय है कि देश में विखंडन और अलगाव के ये दृश्य उत्तरआधुनिक अवधारणाओं के अनरूप हैं। ऐसे वक्त में विनोदज कुमार शुक्ल एक सीधा संवाद करती हुई कविता सम्भव करते हैं -

मुझे बिहारियों से प्रेम हो गया
जहां जाता हूं कोई न कोई मिल जाता है
उनकी बोली से पहिचान कर यही लगता
कि जिससे पिछली बार मिले थे

बिहार को दरअसल देश में गुंडाराज और अव्यवस्था का प्रतिरूप मान लिया गया है। बिहार के आम जन के श्रम, समर्पण और बौद्घिक उपलब्धियों पर कोई बात नहीं करता। यदि सर्वहारा की ही बात करें तो बिहार का मज़दूर पूरे देश में मिलेगा आपको। ये वर्चस्व कायम करने नहीं, महज कमाने-खाने गए लोग हैं -

बिहार के बाहर
एक बिहारी मुझे पूरा बिहार लगता
जब कोई पत्नी और बच्चे के साथ दिख जाता
तो खुशी से मैं उसे देशवासियो कह कर सम्बोधित करता
परन्तु यह महाराष्ट्रीय घटना है
कि कमाने-खाने के लिए जहां बसे हैं
वहां से भगाए जाने पर
अपनी बोली भाषा को
गूंगे की तरह छुपाए
कि जान बचाना है
बचाओ किस भाषा में चिल्लाना है
एक भाषा में बचाओ
दूसरे प्रदेश की भाषा में
जान से मारे जाने का
कारण बन जाता है

लोग विनोद कुमार शुक्ल की चुटीली विदग्ध भाषा पर मोहित हैं और इधर मैं उनकी सादाबयानी का कायल हुआ जाता हूं। ऊपर जो पंक्तियां उद्धृत की मैंने, उनमें सादा किंतु मार्मिक बयान भर है। अभिप्राय के साथ मर्म मेरे लिए कविता को आंकने का दूसरा महत्वपूर्ण बिंदु है। मार्मिकता कविता का एक मानवीय मूल्य है, जिसका लोप इधर लगातार हुआ है। कविता को नितान्त रूखा बौद्घिक व्यायाम बना देने वाले तो अब मुक्तिबोध तक से सीखने को तैयार नहीं दीखते, जबकि मुक्तिबोध की कविता के मर्म हमारी कविता और जीवन के ऐतिहासिक प्रसंग बन चुके हैं। विनोद कुमार शुक्ल की कविता का मर्म वेधता हुआ आता है और पाठक के मर्म से बिंध जाता है। भाषाई विमर्श भी उत्तरआधुनिकता का गौरवपूर्ण अध्याय मान लिया गया है पर इसका क्या करेंगे जब एक भाषा में बचाओ दूसरे प्रदेश की भाषा में जान से मारे जाने का कारण बन जाता हो... आगे इसी कविता में आता है -

पकड़े गए जन्म से गूंगे का न बोल पाना
उसका जबान न खोलना बन जाता हो
और भीड़ को तब तक उसे पीटना है
जब तक उसकी बोली का पता न चले
तब बोली भाषा के झगड़े में
एक गूंगे का मरना भी निश्चित है

कितना दारूण दृश्य है यह। विनोद जी की अनुज-पीढ़ी के कवि वीरेन डंगवाल के शब्दों में आखिर हमने ये कैसा समाज रच डाला है। आज के माहौल में हम कुछ बड़ी अनाचारी ताकतों के सिरे सारे इल्ज़ाम नहीं थोप कर अपनी जिम्मेदारियों से भाग नहीं सकते - हमें सोचना होगा कि हमारे देश की जनता में राजनीतिक विवेक भी लगातार घटता गया है और इधर तो वो दिखाई ही नहीं देता। इस घोर सामुदायिक पहचानों के बीच कवि की यह चिंता कितनी मानवीय और विचारपूर्ण है -

नागरिकों, देशवासियों कहकर किसे पुकारूं
वह कौन है कहां रहता है

जैसा कि मैंने पहले भी कहा कविता अकसर एक चेतावनी भी होती है लेकिन हममें उसे सुनने का संस्कार और सलीका कम होता गया है। जीवन से कविता और साहित्य जितना दूर होता जाएंगे, जितना हमारा बहरापन बढ़ता जाएगा, हम उजड़ते जाएंगे।
* * *
साम्प्रदायिकता हमारे देश और समाज का सबसे बड़ा संकट है अभी। उससे भी बड़ा संकट है साम्प्रदायिक ताकतों के निरन्तर राजनीतिक विस्तार का। वे महामारी की तरह फैली हैं। ये कहना बार-बार दुहराना होगा पर आज के अकादमिक संसार में साम्प्रदायिकता का मुद्दा भी कहीं न कहीं उत्तरआधुनिक बताई गई स्थितियों से ही जुड़ता है। वहां सामुदायिकता का धर्म आधारित स्वीकार समझ और किसी भी तर्क से परे है। भूगोल और संस्कृति से बाहर सम्प्रदाय आधारित समुदायों की मान्यता दुनिया को एक डेड एंड तक ले जा रही है। लोग भूल रहे हैं कि संस्कृति और धर्म में मूलभूत फर्क है। एक धर्म को मानने वाले अलग-अलग संस्कृति के हो सकते हैं और एक संस्कृति में अलग-अलग धर्म के मानने वाले रह सकते हैं। हमारे देश में गुजरात इस नासमझी का अभूतपूर्व उदाहरण बन चला है। मेरे लिए तो वहां की सत्ता ही नहीं, जनता भी अब संदेह के घेरे में है... जो उसी सत्ता और मनुष्यता के उसी खलनायक को बार-बार अपने नायक के रूप में चुनती है। मैं स्वीकार नहीं कर पाता हूं कि जनता इतनी विवेकहीन कैसे हो सकती है। 2002 के बाद का गुजरात हिंदी कविता में भरपूर भत्र्सना के साथ दिखाई दिया है। मुझे विष्णु खरे और मंगलेश डबराल की कविताओं की पूरी स्मृति है। पहल में छपी निरंजन श्रोत्रिय की कविता 'जुगलबंदी' इस सन्दर्भ की एक महान कविता है। विनोद कुमार शुक्ल ने भी अपने स्वर में गुजरात पर मार्मिक टिप्पणियां कीं लेकिन वे उस तरह नहीं गूंजी, जिस तरह विष्णु खरे और मंगलेश डबराल की लम्बी कविताएं। ये विनोद कुमार शुक्ल का कवि-स्वभाव है, उनकी गूंज साथ आती तो है पर दूसरी आवाज़ों में डूब जाती है और फिर एक अन्तराल पर वो सुनाई देती है... स्थाई की तरह लौटना होता है उस तक। इस संग्रह में साम्प्रदायिकता के राजनीतिक विरोध की ये कविताएं, इसी तरह की कविताएं हैं। कहना चाहता हूं कि कविता में अब साम्प्रदायिक आतंक और दुश्चक्रों का पयार्य बन चुके गुजरात का नाम लेना मनुष्यता के हक में एक अनिवार्य राजनीतिक हस्तक्षेप है, जिसे विनोद कुमार शुक्ल ने पूरी वैचारिकी के साथ अंजाम दिया है -

गुजराती मुझे नहीं आती
परन्तु जानता हूं
कि गुजराती मुझे आती है-
वह हत्या करके भाग रहा है
यह एक गुजराती वाक्य है
दया करो, मुझे मत मारो
मेरे छोटे-छोटे बच्चे हैं
अभी लड़की का ब्याह करना है
ब्याह के लिए बची लड़की
बलात्कार से मर गई -
ये सब गुजराती वाक्य हैं
'गुजारिश' एक गुजराती शब्द है

ये विनोद कुमार शुक्ल की आवाज़ है - अपनी मार्मिकता में गहरे तक बेधती। गुजरात पर बहुत बड़े-बड़े बयानों के बरअक्स ये कुछ छोटे-छोटे वाक्य, जैसे कवि के बहुउल्लेखित चुप - वे पराध्वनियां, जिन्हें सुनने के लिए पहलू में चूर-चूर होता एक धड़कता रक्ताक्त दिल चाहिए - एक दिमाग, जिसमें कुछ फटा हो।

जब पिता मार डाला गया
तप पिता की गोद में जाने को लालायित
बच्चा भी
मां भी मारी गई
जब बच्चे को पिता की गोद में दे रही होगी
कि वह भाजी काट ले
बच्चे को धोखे से चाकू लग जाता तो -
तभी चाकू से मारे गए
कि भाजी की तरह काटे गए लोग -
यह जो कहा गया गुजराती में कहा जाता

छत्तीसगढ़ी में कहने से मुझे डर लगता है
परन्तु राष्ट्रभाषा में कहा गया

यहां भाजी काटने जाती मां बच्चे को पिता की गोद में दे रही है कि धोखे से चाकू न लग जाए और फिर अचानक समूचे दृश्य में सबसे बड़ा धोखा सामने आ जाता है। ये कारुणिक से अधिक क्षुब्धता और क्रोध उत्पन्न करने वाला दृश्य है। ये धोखा भी अपनी हदों से कहीं बाहर एक समूची मानवीय विरासत को दिया गया धोखा है। मनुष्यता के किसी भी शिल्प में इसका कभी कोई पश्चाताप संभव नहीं है। इसकी सज़ा अनिवार्य रूप से वहीं मौजूद है, जहां यह अपराध हुआ है और एक दिन उसे हम सबको भुगतना होगा। अभी हम कविता में और उससे बाहर अपने पश्चाताप दर्ज़ भले कर रहे हैं पर जीवन और उसके संकट जब और भयावह होकर हमारे ऊपर झुक आएंगे, तब भूमिगत हो जाने भर की भी भूमि नहीं होगी हमारे पास। इस कविता में जो कुछ कहा गया उसे छत्तीसगढ़ी में कहने कवि को डर लग रहा है, क्योंकि वहां भी वही ताकतें हैं और कुछ पता नहीं कि सिर्फ छत्तीसगढ़ नहीं, कब समूचा मुल्क ही गुजरात में तब्दील हो जाए। अगर है तो ठीक यही इन ताकतों के विरुद्घ एकजुट होने का समय है, आगे हम दिक् से भी जाएंगे और काल से भी और कोई अवधि भी नहीं होगी दरमियान। अब अंतरालों से गुज़र कर कुछ कहने का हुनर काम नहीं आएगा, बल्कि आगे वह हुनर ही नहीं रह जाएगा।
* * *
इस संग्रह की बहुत निकट की कविताओं में एक कविता है 'सुनो, हम थोड़े लोगों से बात करते हैं'— यह कविता हम कवियों से भरपूर मुखातिब है, इसमें हमारे पराभव के प्रसंग हैं और ये छोटे दिखते भले हों पर हमारे और हमारी अभिव्यक्तियों के नष्ट होते जाने के बहुत बड़े इलाके में घट रहे हैं -

सुनो, हम थोड़े लोगों से बात करते हैं
बहुत थोड़े
और गिने-चुनों को सुनते हैं
जबकि बाकी सभी बकाया लोग

कितना हल्ला है
और उतना ही अनसुना, अनदेखा
कुछ दिखता नहीं
हमेशा के दृश्य से पहले आवाज़ चली जाती है
फिर उजाला चला जाता है

हम हमेशा से कुछ दूर दूसरे हमेशा के लिए
थोड़े ज़्यादा  लोगों से बात कर लेना चाहता हूं
थोड़े ज़्यादा लोगों को देख लेना-सुनना
परिचितों, रिश्तों, धर्म जातियों से
छिटक कर एक मनुष्य की तरह
बकाया शेष मैं
बकायों से जुड़ जाना

ये एक निरन्तर अलगाव, बिखराव और चरम की ओर धकेली जा रही संकीर्ण सामुदायिकता के बीच महत्वपूर्ण बताए जाने वाले लोकेल आख्यानों के सामने खड़े मनुष्यता के महाख्यान की चुनौती है, जिसे यह कविता बहुत कम शब्दों में सम्भव करती है। समकालीन कोलाहल में कम किंतु मर्मबेधी शब्दों की सम्भावना भी अब भी एक विराट सम्भावना है। आज की कविता पाठकों की कमी का रोना बहुत रोती है पर ये भूल जाती है कि वो खुद कितने थोड़े लोगों से बात कर रही है और सुनती भी कितने कम लोगों को है। परिचितों, रिश्तों, धर्म, जातियों आदि से छिटक कर कवि किसी आइसोलेशन में नहीं जा रहा है बल्कि वो इन सबसे एक छिटके हुए मनुष्य की तरह बाकी सभी बकायों से जुडऩे के डाइअलेक्टिक में आ रहा है। यहां कोई भाषाई खेल नहीं चल रहा, एक वैचारिकी निर्धारित हो रही है। विनोद कुमार शुक्ल की कविता में ये पड़ाव बहुत खूबसूरत पड़ाव है मेरे लिए।
* * *
इस संग्रह में कई जगहें ऐसी हैं, जहां मैं बहुत देर रुक-थम जाता हूं... वो पन्ने पलटाए ही नहीं जाते मुझसे। जैसे 'नींद आ रही है' कविता के पन्ने, जहां एक लम्बा सधा हुआ विनम्र शिल्प अपनी कहन की परतें खोलता हैं। यहां पीड़ा खुद टूट जाती है और उम्मीदें तोड़ जाती हैं। कुछ अनहोना घटता है और कुछ होना घटने से रुक जाता है। एक आश्वासन जो आशंका के शिल्प में है और आशंकाएं जो आश्वासन और यकीन के परदे में, यहां मैं देख पाता हूं कि किसी कवि की विशिष्टता दरअसल एकबारगी देखने में बहुत सहज लगती वस्तु है पर उसे पाने में कई उम्रें खर्च हो जाती हैं। नींद इस कविता की थीम है पर उसका ठीक-ठीक अभिप्राय जागरण है। यहां ये दोनों विलोम मिलकर एक संसार रचते हैं, जिसमें भय है, मृत्यु है, रक्तबिंदु हैं, पुराने दिनों की आहत स्मृतियां हैं, कई सारी होनी-अनहोनियां हैं, स्वप्नों के एलबम हैं, झूटमूट के बहलावे हैं, कर्कश ध्वनियां हैं जो छाती को चीर कर दीवार से टकराती हैं, कुछ नींद का मरना है और कुछ व्यक्ति का, वो डरा हुआ भला आदमी है जो अगले दिन लाश में बदला दिखेगा। यहां नींद आते-आते कहीं निकल गई है - कभी वह पतली गली के बदबूदार सन्नाटे से आती दिखती है, कभी चोरी-चोरी किसी अपराधी की तरह कि जागते हुए पास क्यों आ रही हैं, और फिर -

अंधेरी-अंधेरी गलियों से
भागते-भागते
अचानक रोशनी-रोशनी से जगमगाती चौड़ी सड़क पर
भारी ट्रकों, गाडिय़ों के बीच
एक गरीब लड़की तरह
इज़्जत बचाने भागती-चिल्लाती नींद
किसी कैद से छूटी मगर
किसी चंगुल से बचकर नहीं
लुटकर आ रही है

सब तरफ की पहरेदारी को
नींद आ रही है
कई दिनों से जागने की थकावट में
कितने जागते हुए लोगों से
मुंह छुपाकर
मुझ अकेले की तरफ
मुंह-अंधेरे सुबह-सुबह
क्यों आ रही है
मुझे शर्म आ रही है
कि मुझे नींद आ रही है।

यह एक लम्बा किन्तु अनिवार्य उद्घरण है इस कविता का। समूची कविता में यह नींद जगह-जगह रूपकों में बदल जाती है। हमारे जीवन में रूपकों के कितने तत्व जाने-अनजाने शामिल रहते हैं, यह कोई अनजानी या अनकही बात नहीं है। हर व्यक्ति का जीवन अंतत: एक रूपक में बदलता है और इस क्रम में उससे जुड़ी चीज़ों, भावनाओं और स्थितियों  के कहां-कहां, कितने रूपक बनते हैं, वो खुद भी नहीं जानता। लेकिन कवि जानता है... इनमें से कुछ को वो कभी अपनी सार्वजनिक तो कभी निजी अंतरंग अभिव्यक्तियों के लिए चुनता है। इनके बनने में उसका नियंत्रण नहीं होता लेकिन इनके कविता में सम्भव होने को वो नियंत्रित कर सकता है। इस तरह की कविताओं में सायास और अनायास के बीच एक तनाव होता है, जिसे उसके समूचे सन्तुलन में साध लिया जाए तो ऐसी विरल कविता बनती है, जैसी विनोद कुमार शुक्ल के यहां है। ये लुटकर आ रही नींद जो कितने ही जागते हुए लोगों से मुंह छुपाकर अकेले कवि की तरफ आती भी है तो शर्म की तरह-अपने लोगों से यह जुड़ाव उन्हें बहुत बड़ा बनाता है मेरे लिए।
* * *
यह संग्रह आंचलिक प्रसंगों में आवाजाही कायम रखता है और बोली-भाषा में भी। फिर कहूंगा कि यह आवाजाही किसी भाषाई डिस्कोर्स में नहीं, वैचारिक डाइअलेक्टिक में घटित होती है -
कविता की अभिव्यक्ति के लिए
व्याकरण का अतिक्रमण करते
एक बिहारी की तरह कहता हूं
कि हम लोग आता हूं
इस कथन के साथ के लिए
छत्तीसगढ़ी में हमन आवत हन

तुम हम लोग हो
वह भी हम लोग हैं

वह अकेला उदाहरण नहीं है, छत्तीसगढ़ी के कई शब्द और वाक्य पूरे संग्रह में मौजूद है। एक लिखी जाने वाली ददरिया शीर्षक लम्बी कविता भी एक ऐसा ही प्रसंग है। यह जीवन-प्रसंग है, इसलिए विचार-प्रसंग भी है। जहां-जहां जीवन होगा, वहां-वहां द्वन्द्व भी होगा... जो अपने पीछे एक वैचारिक यात्रा निश्चित रूप से लाएगा। इसी तरह नज़र लागी राजा में एक लोकगीत की उत्तरआधुनिक टूटन है - ध्यान दिया जाए कि यह टूटन है, बिखराव नहीं है। देखना होगा कि टूटने से जीवन में कितने सधे हुए राग संभव होते हैं, उसमें एक समग्र मर्म सम्भव होता है, जिसकी बात मैं बार-बार कर रहा हूं।
* * *
यह संग्रह कवि की उम्र के उस पड़ाव पर आया है, जब संसार और उसकी हलचलें आगत से कहीं ज़्यादा विगत में उपस्थित होती हैं। लेकिन विनोद कुमार शुक्ल की इन कविताओं में यह फांक उतनी बड़ी नहीं है। इसमें 'आज' बहुत है, जैसा कि जितना स्वाभाविक तौर पर होना चाहिए उतना कुछ बीता हुआ भी है। मृत्यु के कुछ निजी उल्लेख हैं पर आनेवाले संसार का स्वागत करतीं एक अनोखी गरिमा से भरी ऐसी अद्भुत प्रिय कविताएं भी हैं -

अब इस उम्र में
कि कोई शिशु जन्म लेता है
तो वह मेरी नातिनों से भी
छोटा होता है

जन्म के संसार में कोलाहल है-
किसी ने सबेरा हुआ कहा तो
लड़का हुआ सुनाई दिया़
सुबह हुई चिल्ला कर कहा तो
लड़की हुई की खुशी लगती है

मेरी बेटी की दो बेटियां हैं
सबसे छोटी नातिन जाग गई
जागते ही उसने सुबह को
गुडिय़ा की तरह उठाया
बड़ी नातिन जागेगी तो
दिन को उठा लेगी

अंत में कहना चाहता हूं कि मेरे लिए बहस के बाहर न तो किसी भी तरह की कविता की उपस्थिति है और न जीवन की। खुशी है कि विनोद कुमार शुक्ल अपनी वरिष्ठता के बावजूद बहस के भीतर के कवि हैं आज भी। कवि की भी हमसे कुछ उम्मीदें हैं, जिन्हें हमें सुनना चाहिए -

चुप रहने को भी सुन लेना
जीवन की उम्मीद से
छाती से
कान लगाकर सुनना
कि धड़कन की आवाज़
आती है या नहीं
आवाज़ ज़रूर आएगी
यदि मेरे हृदय की नहीं
तो तुम्हारे हृदय की।

सुनने और बोलने की तमीज़ सिखाती हुई ये कविताएं ऐसे वक्त में आयीं हैं, जब कोलाहल बहुत है। गहरे अंधेरे हैं धरा पर। हत्यारे विचारों की आमद दिखाई देने लगी है। मनुष्यता के पक्ष में होने वाली बहसों के मुंह बंद करने के लिए अमरीकी अकादमिक समुदाय ने थैलियां खोल दी हैं - हमारे देश में इस धन की प्रेरणा से विमर्श रचने वाले बढ़ते जा रहे हैं और बहस छेडऩे वाले कमते जा रहे हैं। हमारा एक बुजुर्ग कवि बहस के पक्ष में है तो उस बहस का मोल अब पहचानना होगा। कविता में आवाज़ की दर्प भरी ऊंचाई हमने बहुत देखी। अब हमारे सामने उस विनम्र गहराई को जानने की चुनौती है, जो जीवन के तलघर से आती आवाज़ों में होती है। चमकते आकाश से ही नहीं, धरती की अंधेरी परतों से भी कोई बोलता है। आकाश से बोलना बरसता है और बह जाता है मगर धरती की परतों में बोलना खिलता है। मेरी मार्क्सवादी वैचारिकी के अनुशासन में खुलना और खिलना - ये दो सबसे अनिवार्य और महत्वपूर्ण प्रसंग हैं - समकालीन जीवन, समाज और कविता के प्रसंगों में और मैं बहुत गर्व से देखता हूं कि विनोद कुमार शुक्ल की कविता में ये दोनों ही भरपूर मौजूद हैं। एक दायरे में उन्हें समझने में होती रहीं गलतियां आगे नहीं होंगी, ऐसी कामना है मेरी।

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