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जनवरी 2013

मौत ज़िन्दाबाद

जोश मलीहाबादी, अनुवाद - ओम प्रभाकर

हैदराबाद के उर्दू दैनिक "पयाम" के 21 अक्टूबर 1938 से मालूम हुआ कि हैदराबाद में स्व . मुंशी प्रेमचंद की पहली बरसी बड़े समारोहपूर्वक मनाई गई। हैदराबाद के अदीबों, दानिशवरों और समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों  बड़े उत्साह के साथ उसमें भागीदारी की और मुंशी साहब की साहित्यिक और राष्ट्रिय सेवाओं के लिए उनकी भूरी-भूरी प्रशंसा की।

ये वही घटना थी कि जिसके घटित  होने का पूर्वानुमान था और मुंशी साहब की मृत्यु के अवसर पर "कलीम" (दिल्ली ) में जिसके बारे जोश मलीहाबादी की कलम से यह लिखा गया था कि ....... प्रेमचंद मुबारक हो कि तू इस माया के जाल और झूठे बंधनों से मुक्त हो गया कि जहाँ दौलत के सिवा किसी कला-कौशल की कद्र नहीं होती। तू उस हिंदुस्तान की  भरी महफ़िल के वीराने से उठ गया जहाँ लेखकों को अनादर के सिवा कुछ नहीं मिलता।

अय, हिंदुस्तान के मुर्दापरस्त लोगों! आओ अब तुम्हारे उछलने और उड़ान भरने की बारी है। प्रेमचंद  मर गया। अब अख़बारों में लेख लिखो। उसकी तारीफ़ों के पुल बांधों और उसकी याद को स्थायी करने की झूठे प्लेटफार्मों से आवाज़ बुलंद करो ताकि दुनिया तुम्हारे साहित्य, कला और भाषा के प्रति समर्पित भाव पर यकीन करे। यों तो ऐसे अवसर हमें बार - बार मिला करते हैं, लेकिन आत्म - प्रदर्शन और आत्म - प्रशंसा का ऐसा दिन तो कहीं वर्षों में ही आ पता है। मगर मैं जानता हूँ कि तुम क्या और कैसे हो? मुझे तुम्हारी इल्म और अदबदोस्तियाँ अच्छी तरह मालूम हैं।

आज तुम जिस पर लेख लिख रहे हो, वही प्रेमचंद मुझसे तुम्हारी निर्दयता और उपेक्षा का रोना रोया करता था। तुमने उसे एक दिन भी चैन से नहीं बैठने नहीं दिया। वो बूढा और कमजोर आदमी एक जगह से दूसरी जगह आजीविका की तलाश में घबराया - फिर करता था, मगर तुम  भाषा और साहित्य के हितैषियों ने उसके हितों का अहसास एक बार भी नहीं किया।

मैं यह  बहुत ऊँची आवाज में कहता हूँ,  सुनने वाले सुन लें कि प्रेमचंद को मौत ने नहीं बल्कि पूरे हिंदुस्तान (या कम अज कम हिंदी और उर्दू  वालों) की कृतघ्नता ने शहीद कर डाला है।

आपने देखा कि 'कलीम' में जो लिखा गया वो शब्दशः पूरा हुआ। अभी क्या है? अभी तो प्रेमचंद की मौत को सिर्फ एक ही साल हुआ है कि उनकी 'बरसी' में 'महाजन' और साहित्यकार सक्रिय हो उठे हैं। ज़रा उनकी मौत का कुछ और वक्त गुज़रने दीजिये, फिर देखिए कि हिंदुस्तान के मुर्दापरस्त क्या - क्या स्वांग भरा करेंगे और कितने ही शहरों में मुशी जी के स्टैचू लगाये जायेंगे। लेकिन अगर जीते जी मुंशी प्रेमचंद हैदराबाद जाते और कोशिश करते कि उन्हें 'कहीं' नौकरी दे दी जाये या उनकी साहित्यिक पेंशन तय कर दी जाये तो निश्चित है कि सभी 'महाजन' और साहित्यकार उनकी बात कर कहकहे लगते, उन्हें सस्ते और हलके शब्दों से सम्बोधित करते और सहानुभूति और सहयोग के नाम पर अपने घर की तरफ मुड़ जाते।
मगर चूंकि आज वो दुनिया में नहीं हैं और हमें ये विश्वास है कि अब हमें उनकी कोई मदद नहीं करनी पड़ेगी इसलिए आज हमारे सीने चौड़े - चौड़े हैं और उनकी तारीफों के पुल बाँध - बाँध कर ये साबित कर रहें हैं कि हम भाषा और साहित्य का सम्मान करने वाले दुनिया के सबसे बड़े लोगों में से हैं।

मुंशी जी की बरसी के मौक़े पर अगर अचानक प्रेमचंद की विधवा स्टेज पर आ जाती है और अपने स्वर्गीय पति के नाम पर केवल इतनी प्रार्थना करती कि उनके अप्रकाशित उपन्यासों के प्रकाशन के लिए थोड़े से रुपयों की सहायता कर दी जाये तो मुझे पूरा यकीन है कि प्रेमचंद की बरसी बनाने वालों से कुछ तो कुर्सियों के पीछे छिप  जाते और कुछ घबराकर खिडकियों से सड़क की तरफ़ कूद जाते। ये जो दृश्य है वह सिर्फ़ हैदराबाद का ही नहीं है बल्कि हमारे तमाम सूबों, कमिश्नरियों, ज़िलों शहरों और क़स्बों का यही हाल है कि हम कलाकारों की ज़िन्दगियों को अत्यंतहीन भाव से ठुकराते रहते हैं; लेकिन उनके मरते ही उनकी कब्रों की पूजा करने लगते हैं। सच्ची बात ये है कि हिन्दुस्तान एक मुर्दा मुल्क और हिंदुस्तानी एक मुर्दा ज़ात है कि जिसे मुर्दापरस्त होना ही होना है।

ज़ाहिर है कि मुर्दों की ज़िन्दों से कोई हमदर्दी नहीं होती। ज़िन्दा ही ज़िन्दों को समझ सकता है। और यही कारण है की जब तक कोई व्यक्ति ज़िन्दा रहता है, हिन्दुस्तान के मुर्दे उससे बेख़बर और दूर - दूर रहते हैं और जब वो मर कर उनके गिरोह में शामिल हो जाता है, वैसे ही उसे ज़मीन से उठा आसमान तक पहुँचाने की कोशिश में लग जाते हैं।

वो चिंतनशील बुद्धिजीवी की जिनके शब्द रेडियो की ध्वनि तरंगों की तरह वातावरण की आवाजें और दिली ज़ज्बातों को सुना करते हैं, कि जब रात भीग जाती है जब भी सुबह तक ये आवाजें आती रहती हैं कि, अय, हिन्दुस्तान के परेशानहाल कलाकारों, तुम नतशीश और चश्मेतर क्यूँ  हो?  कौन सी अक्लमंदी है कि तुम ज़िन्दा हो? तुम आख़िर मर क्यों नहीं गए? तुम्हारे कपड़े मैले - कुचैले और तुम्हारे पेट खाली क्यों है? सिर्फ़ इस जुर्म में कि तुम साँस ले रहे हो? अगर अक्लमंद हो तो मर जाओ। हम जो तुम्हारी ही कौम के हैं, तुम्हारा सम्मान करने से कब तक वंचित रहेंगे? हम तुम्हें विश्वास दिलाते हैं कि जिस दिन तुम मर जाओगे, हम तुम्हारे नाम पर ग़रीबों, अपाहिजों को भरपेट भोजन करायेंगे, उन्हें नए - नए कपड़े पहनाएँगे और तुम्हारी क़ब्र को सुनहरी करके दुनिया को दिखायेंगे कि हम हिन्दुस्तानी अपनी महान विभूतियों का सम्मान और उनका स्मरण करने में किसी से पीछे नहीं हैं।

मर जाओ ! मर जाओ !! खुदा के लिए मर जाओ !!! हमारे धैर्य को ज़्यादा देर तक नहीं आज़माओ।

(बशुक्रिया माहनामा "सदाए उर्दू", भोपाल, 10 वीं जिल्द का शुमारा-3, संपादक - नईम कौसर।


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