गुरुत्वाकर्षण

  • 160x120
    जनवरी 2013
श्रेणी कवितायें
संस्करण जनवरी 2013
लेखक का नाम राजेश जोशी





गुरूत्वाकर्षण


न्यूटन जेब में रख लो अपना गुरूत्वाकर्षण का नियम
धरती का गुरूत्वाकर्षण खत्म हो रहा है।

अब तो इस गोलमटोल और ढलुआ पृथ्वी पर
किसी एक जगह पाँव टिका कर खड़े रहना भी मुमकिन नहीं
फिसल रही है हर चीज़ अपनी जगह से
कौन कहाँ तक फिसल कर जायेगा
किस रसातल तक जायेगी यह फिसलन
कोई नहीं कह सकता
हमारे समय का एक ही सच है
कि हर चीज फिसल रही है अपनी जगह से।

पृथ्वी का गुरूत्वाकर्षण खत्म हो रहा है।

फिजिक्स की पोथियों!
न्यूटन के सिद्घान्त वाले सबक की ज़रूरत नहीं बची।

पृथ्वी का गुरूत्वाकर्षण खत्म हो रहा है।
कभी भी फिसल जाती है राष्ट्राध्यक्ष की जबान
कब किसकी जबान फिसल जाएगी कोई नहीं जानता
श्लोक को धकियाकर गिरा देती है फिसलकर आती गालियाँ
गड्डमड्ड हो गये है सारे शब्द
वाक्य से फिसलकर बाहर गिर रहे हैं उनके अर्थं
ऐसी कुछ भाषा बची है हमारे पास
जिसमें कोई किसी की बात नहीं समझ पाता
संवाद सारे खत्म हो चुके है, स्वगत कर रहा है
नाटक का हर पात्र।

आँखों से फिसल कर गिर चुके हैं सारे स्वप्न।

करोड़ों वर्ष पहले ब्रह्माण्ड में घूमती हजारों चट्टानों को
अपने गुरूत्वाकर्षण से समेट कर
धरती ने बनाया था जो चाँद
अपनी जगह से फिसल कर
किसी कारपोरेट के बड़े से जूते में दुबक कर बैठा है
बिल्ली के बच्चे की तरह।

फिसलन ही फिसलन है पूरे गोलार्ध पर
और पृथ्वी का गुरूत्वाकर्षण खत्म हो गया है!

ओ नींद
मुझे इस भयावह स्वप्न-सत्य से बाहर आने का रास्ता दे!

अनुपस्थित-उपस्थित

मैं अक्सर अपनी चाबियाँ खो देता हूँ

छाता मैं कहीं छोड़ आता हूँ
और तरबतर होकर घर लौटता हूँ।
अपना चश्मा तो मैं कई बार खो चुका हूँ।
पता नहीं किसके हाथ लगी होंगी वे चीजें
किसी न किसी को कभी न कभी तो मिलती ही होंगी
वो तमाम चीजें जिन्हें हम कहीं न कहीं भूल आये।

छूटी हुई हर एक चीज तो किसी के काम नहीं आती कभी भी
लेकिन कोई न कोई चीज तो किसी न किसी के
कभी न कभी काम आती ही होगी
जो उसका उपयोग करता होगा
जिसके हाथ लगी होंगी मेरी छूटी हुई चीजें
वह मुझे नहीं जानता होगा
हर बार मेरा छाता लगाते हुए
वह उस आदमी के बारे में सोचते हुए
मन ही मन शुक्रिया अदा करता होगा जिसे वह नहीं जानता।

इस तरह एक अनाम अपरिचित की तरह उसकी स्मृति में
कहीं न कहीं मैं रह रहा हूँ जाने कितने दिनों से,
जो मुझे नहीं जानता
जिसे मैं नहीं जानता।
पता नहीं मैं कहाँ, कहाँ कहाँ रह रहा हूँ
मैं एक अनुपस्थित-उपस्थित!

एक दिन रास्ते में मुझे एक सिक्का पड़ा मिला
मैंने उसे उठाया और आसपास देखकर चुपचाप जेब में रख लिया
मन नहीं माना, लगा अगर किसी जरूरतमंद का रहा होगा
तो मन ही मन वह बहुत कुढता होगा
कुछ देर जेब में पड़े सिक्के को उंगलियों के बीच घुमाता रहा
फिर जेब से निकाल कर एक भिखारी के कासे में डाल दिया
भिखारी ने मुझे दुआएँ दी।

उससे तो नहीं कह सका मैं
कि सिक्का मेरा नहीं है
लेकिन मन ही मन मैंने कहा
कि ओ भिखारी की दुआओं
जाओ उस शख्स के पास चली जाओ
जिसका यह सिक्का है।

अंधेरे के बारे में कुछ वाक्य

अंधेरे में सबसे बड़ी दिक्कत यह थी कि वह किताब पढऩा
नामुमकिन बना देता था।

पता नहीं शरारतन ऐसा करता था या किताब से डरता था
उसके मन में शायद यह संशय होगा कि किताब के भीतर
कोई रोशनी कहीं न कहीं छिपी हो सकती है।
हालांकि सारी किताबों के बारे में ऐसा सोचना
एक किस्म का बेहूदा सरलीकरण था।
ऐसी किताबों की संख्या भी दुनिया में कम नहीं,
जो अंधेरा पैदा करती थीं
और उसे रोशनी कहती थीं।

रोशनी के पास कई विकल्प थे
ज़रूरत पडऩे पर जिनका कोई भी इस्तेमाल कर सकता था
ज़रूरत के हिसाब से कभी भी उसको
कम या ज्यादा किया जा सकता था
ज़रूरत के मुताबिक परदों को खीच कर
या एक छोटा सा बटन दबा कर
उसे अंधेरे में भी बदला जा सकता था
एक रोशनी कभी कभी बहुत दूर से चली आती थी हमारे पास
एक रोशनी कहीं भीतर से, कहीं बहुत भीतर से
आती थी और दिमाग को एकाएक रोशन कर जाती थी।

एक शायर दोस्त रोशनी पर भी शक करता था
कहता था, उसे रेशा रेशा उधेड़ कर देखो
रोशनी किस जगह से काली है।

अधिक रोशनी का भी चकाचौंध करता अंधेरा था।

अंधेरे से सिर्फ अंधेरा पैदा होता है यह सोचना गलत था
लेकिन अंधेरे के अनेक चेहरे थे
पॉवर हाउस की किसी ग्रिड के अचानक बिगड़ जाने पर
कई दिनों तक अंधकार में डूबा रहा
देश का एक बड़ा हिस्सा।
लेकिन इससे भी बड़ा अंधेरा था
जो सत्ता की राजनीतिक जिद से पैदा होता था
या किसी विश्वशक्ति के आगे घुटने टेक देने वाले
गुलाम दिमागों से!

एक बौद्घिक अंधकार मौका लगते ही सारे देश को
हिंसक उन्माद में झौंक देता था।

अंधेरे से जब बहुत सारे लोग डर जाते थे
और उसे अपनी नियति मान लेते थे
कुछ जिद्दी लोग हमेशा बच रहते थे समाज में
जो कहते थे कि अंधेरे समय में अंधेरे के बारे में गाना ही
रोशनी के बारे में गाना है।

वो अंधेरे समय में अंधेरे के गीत गाते थे।

अंधेरे के लिए यही सबसे बड़ा खतरा था।

पक्की दोस्तियों का आईना

पक्की दोस्तियों का आईना इतना नाजुक होता जाता था
कि जरा सी बात से उसमें बाल आ जाता और
कभी कभी वह उम्र भर नहीं पाता था।
ऐसी दोस्तियाँ जब टूटती थीं तब पता लगता था
कि कितनी कड़वाहट छिपी बैठी थी उनके भीतर
एक एक कर न जाने कब कब की कितनी ही बातें याद आती थीं
कितने टुच्चेपन, कितनी दगाबाजियाँ छिपी रही अब तक इसके भीतर
हम कहते थे, यह तो हम थे कि सब कुछ जानते हुए भी निभाते रहे
वरना इसे तो कभी का टूट जाना चाहिये था।

पक्की दोस्तियों का फल
कितना तिक्त कितना कटु भीतर ही भीतर!

टूटने से खाली हुई जगह को भरती थी हमारी घृणा!

उम्र के साथ साथ नये दोस्त बनते थे और पूराने छूटते जाते थे
बचपन के लंगोटिये यार बिछड़ जाते थे।
कभी कभी तो महीनों और साल दर साल उनकी याद भी नहीं आती
साल चौमासे या बरसों बाद उनमें से कोई अचानक मिल जाता था
कस कर एक दूसरे को कुछ पलों को भींच लेते थे
फिर कोई कहता कि यूँ तो मैंने सिगरेट पीना छोड़ दिया है
पर आज तेरे मिलने की खुशी में बरसों बाद एक सिगरेट पिऊँगा
दोनों सिगरेट जलाते थे।
अतीत के ढेर सारे किस्सों को दोहराते थे, जो दोनों को ही याद थे
बिना बात बीच बीच में हँसते थे, देर तक बतियाते थे
लेकिन अचानक महसूस होता था
कि उसके पास सिर्फ कुछ यादें बची हैं
जिनमें बहुत सारे शब्द हैं पर सम्बंधों का ताप कहीं चुक गया है।

पक्की दोस्तियों का आईना
समय के फासलों से मटमैला होता जाता था।

रात दिन साथ रह कर भी जिनसे कभी मन नहीं भरा
बातें जो कभी खत्म होने का नाम ही नहीं लेती थीं
बरसों बाद उन्हीं से मिल कर लगता था
कि जैसे अब करने को कोई बात ही नहीं बची
और क्या चल रहा है आजकल... जैसा फिजूल का वाक्य
बीच में बार बार चली आती चुप्पी को भरने को
कई कई बार दोहराते थे।
कोई बहाना करते हुए कसमसाकर उठ जाते थे
उठते हुए कहते थे... कभी कभी मिलाकर यार।
बेमतलब है यह वाक्य हम जानते थे
जानते थे कि हम शायद फिर कई साल नहीं मिलेंगे।

मुश्किल वक्त में ऐसे दोस्त अक्सर याद काम आते थे
जिनसे कभी कोई खास नज़दीकी नहीं रही।

पक्की दोस्तियों के आईने में
एक दिन हम अपनी ही शक्ल नहीं पहचान पाते थे।

यह समय

यह मूर्तियों को सिराये जाने का समय है।

मूतियाँ सिराई जा रही है।

दिमाग में सिर्फ एक सन्नाटा है
मस्तिष्क में कोई विचार नहीं
मन में कोई भाव नहीं

काले जल में बस मूर्ति का मुकुट
धीरे धीरे डूब रहा है!

Login