झाँकी इस बीच कामायनी को दूर से देखा गया है। वह बातचीत, आदत और अभिव्यक्ति में नहीं है। यह समकालीनता की हद है। हमलोग कदम-कदम पर भारी मुआवज़ा देते हुए आगे निकले और उत्तराधिकार खंडित हो गया। सवाल रचना के विराट को पूरा-पूरा धारण कर लेने का नहीं है - वह संभव नहीं है, ज़रूरी भी नहीं है - उसके लिए कोई और ही मौसम, दूसरी ही धातु चाहिए - लेकिन उसे आरंभ, हमसफर, चुनौती या दायित्व मानने में क्या हर्ज़ है? घबराने की भी कोई बात नहीं है। प्रसाद पड़ोसी हैं। बनारस में उनका घर, अवदान और संततियाँ बर्बाद और अभिशप्त हैं। कॉपीराइट खत्म हो गया है तो पुस्तकें पेशेवर प्रकाशकों के पास जा रही हैं और कीमती भौतिक संपदा भू-मािफयाओं के पास पहुंचने वाली है। कामायनी सहित सभी कृतियों का कोई 'क्रिटिकल एडिशन' अब तक तैयार नहीं हुआ। विभिन्न संस्करणों के पाठ में अनेकानेक अंतर हैं। कई जगहों पर पूरी-पूरी पंक्तियाँ बदली हुई हैं। छात्र संस्करण कुछ और कहता है, भारती भंडार वाला हस्तलिपि संस्करण कुछ और। कविपुत्र रत्नशंकर प्रसाद ने यथाशक्ति और प्रामाणिक पाठ तैयार किया, लेकिन उसे अंतिम मान लेना ठीक नहीं है। जन्मशती के मौके पर प्रकाशित रचनावली अब अनुपलब्ध है। महान रचनाकार के घर से कुछ दूर स्थित दूकान तक आन-जाने के रास्ते पर आबादी का कब्ज़ा है, पुश्तैनी ज़र्दे का कारोबार ठप है। शहर में दूसरी चीज़ों का हल्ला है और शालीन नागरिकता चुप है। वह दृश्य में है और नहीं दिख रही है। ऐसे अभाग्य के साथ शुरुआत कुछ कम मुश्किल हो जाती है। यहाँ से शोक की बजाय उत्सव का वरण भी किया जा सकता है। 2011 में कामायनी की रचना के पचहत्तर बरस पूरे होने पर एक अवसर बन रहा था और हम यहीं से प्रसाद का स्पर्श करना चाहते थे - हम स्थान की ओर से रचनाकार का अभिषेक करना चाहते थे, इसलिए कामायनी के मंचन का फैसला हुआ। हमारा खयाल है कि ऐसी कोशिशों से भौतिक दिक्कतों को टाला या भूला जा सकता है - कभी-कभी उन्हें अपदस्थ भी किया जा सकता है। यह नाट्यालेख इसी का प्रतिफल है। जो पंक्तियाँ कामायनी के काव्य में निहित कहानी को ज़ाहिर करती थीं, यहाँ सिर्फ उन्हीं को लिया गया है। यह चालाकी है और विवशता, लेकिन आत्मविश्वास भी कहीं काम कर रहा है कि कामायनी की कहानी जिन पंक्तियों से बनती है महज़ उनसे भी महाकाव्य में शामिल बड़ी दार्शनिक समस्याओं की झाँकी मिल जाएगी। बाकी कविता भी अनिवार्य है और इस चयन में वह आलोकित ही होती है। ऐसे ही, पंक्तियों के क्रम में भी कहीं-कहीं कुछ उलटफेर है। प्रसाद ने मनोविकारों के आधार पर सर्गों की रचना की है। हमने कहीं उन मनोविकारों को स्वाधीन चरित्रों की तरह विकसित किया है - कहीं वे दूसरे चरित्रों में घुल गये हैं और कहीं उन्हें पूरा छोड़ भी दिया गया है। यों, यह नाट्यालेख भले ही मूल कविता-पंक्तियों के स्तंभ पर खड़ा है, उससे पूरी तरह स्वायत्त है और पढऩे की मेज़ की जगह रिहर्सल के फ्लोर पर - मंचन की ज़रूरतों के मुताबिक संभव हुआ है। यह आलेख नृत्य और संगीत में विन्यस्त होना चाहिए। कविता अपनी अभिव्यक्ति के लिए एक खास िकस्म की कोरियोग्राफी की माँग करती है। वह यथार्थवादी अभिनय-रूपों में सँभल नहीं पाती। यथार्थ का गैरज़रूरी दबाव उनके अमूर्तनों को समतल करने लगता है और सबसे कोमल अंतध्र्वनियाँ गुम या अवमूल्यित हो जाती हैं। कामायनी की शास्त्रीयता के अलग से भी कुछ आह्वान हैं। हमने अपनी प्रस्तुति में तीन नृत्यरूपों - छऊ, भरतनाट्यम और कथक की ब्लेंडिंग केभीतर से एक आधुनिकतर देहभाषा की खोज की कोशिश की थी। इस तरीके से असहमत और भिन्न भी हुआ जा सकता है। यों, इस कृति में शिल्प की, अभिव्यक्ति के अलग-अलग मॉडल्स की, व्याख्या और बहस के अंतरालों की खोज की अशेष संभावनाएं हैं।
धमार की लयगति में विभिन्न दिशाओं से सभी अभिनेताओं का मंच पर आगमन और कहानी के नायक मनु द्वारा ध्वजस्थापन विध्वंस की ध्वनि। प्रकाश और आंगिक के ज़रिये हाहाकार और विकल मनुष्यता की अभिव्यक्ति
पंचभूत का भैरव मिश्रण, शंपाओं के शकल-निपात, उल्का लेकर अमर शक्तियाँ खोज रहीं ज्यों खोया प्रात।
जलप्लावन की ध्वनि और मनु के आगमन का संगीत
हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छाँह; एक पुरुष, भींगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह।
मनु : ''विस्मृति आ, अवसाद घेर ले, नीरवते! बस चुप कर दे; चेतनता चल जा, जड़ता से आज शून्य मेरा भर दे।''
अंतराल, पृष्ठभूमि में भोर का मद्घिम उजाला
उषा सुनहले तीर बरसती जयलक्ष्मी-सी उदित हुई; उधर पराजित कालरात्रि भी जल में अंतर्निहित हुई।
श्रद्घा के आगमन का संगीत
श्रद्घा: ''कौन तुम? संसृति-जलनिधि तीर-तरंगों से फेंकी मणि एक, कर रहे निर्जन का चुपचाप प्रभा की धारा से अभिषेक?''
मनु: ''कौन गा रहा यह सुन्दर संगीत...? कौन हो तुम वसंत के दूत विरस पतझड़ में अति सुकुमार! घन-तिमिर में चपला की रेख, तपन में शीतल मन्द बयार।''
श्रद्घा: ''भरा था मन में नव उत्साह सीख लूँ ललित कला का ज्ञान; इधर रह गंधर्वों के देश, पिता की हूँ प्यारी संतान।''
नखत की आशा-किरण समान, हृदय के कोमल कवि की कांत- कल्पना की लघु लहरी दिव्य, कर रही मानस-हलचल शांत।
श्रद्घा: ''तपस्वी! क्यों इतने हो क्लांत? वेदना का यह कैसा वेग? आह! तुम कितने अधिक हताश - बताओ यह कैसा उद्वेग।''
मनु: ''किंतु जीवन कितना निरुपाय! लिया है देख, नहीं संदेह, निराशा है जिसका परिणाम, सफलता का वह कल्पित गेह।''
श्रद्घा: ''और यह क्या तुम सुनते नहीं विधाता का मंगल वरदान - 'शक्तिशाली हो, विजयी बनो, शक्तिशाली हो, विजयी बनो, शक्तिशाली हो, विजय बनो...' डरो मत, अरे, अमृत संतान एक तुम, यह विस्तृत भू-खण्ड प्रकृति वैभव से भरा अमंद; कर्म का भोग, भोग का कर्म, यही जड़ का चेतन आनंद।'' दया, माया, ममता लो आज, मधुरिमा लो, अगाध विश्वास; हमारा हृदय-रत्न-निधि स्वच्छ तुम्हारे लिये खुला है पास।''
समवेत: ''शक्ति के विद्युत्कण, जो व्यस्त विकल बिखरे हैं, हो निरुपाय; समन्वय उसका करे समस्त विजयिनी मानवता हो जाय।''
जागरण-लोक था भूल चला स्वप्नों का सुख-संसार हुआ; कौतुक-सा बन मनु के मन का वह सुन्दर क्रीड़ागार हुआ।
मनु: ''पीता हूँ, हाँ, मैं पीता हूँ - यह स्पर्श, रूप, रस गंध भरा; मधु लहरों के टकराने से ध्वनि में है क्या गुंजार भरा।''
अनुराग का संगीत
दो अपरिचित से नियति अब चाहती थी मेल। नित्य परिचित हो रहे तब भी रहा, कुछ शेष; सृष्टि हँसने लगी आँखों में खिला अनुराग; राग-रंजित चंन्द्रिका थी,उड़ा सुमन-पराग। और हँसता था अतिथि मनु का पकड़ कर हाथ; चले दोनों, स्वप्न-पथ में, स्नेह-संबल साथ।
मनु: ''देख लो, ऊँचे शिखर का व्योम-चुम्बन-व्यस्त; लौटना अंतिम किरण का और होना अस्त। चलो तो इस कौमुदी में देख आवें आज; प्रकृति का यह स्वप्न-शासन, साधना का राज। देवदारू निकुञ्ञ गहर सब सुधा में स्नात; सब मानते एक उत्सव जागरण की रात। आ रही थी मदिर भीनी माधवी की गंध; पवन के घन घिरे पड़ते थे बने मधु-अंध।
मनु: ''आह! वैसा ही हृदय का बन रहा परिणाम पा रहा हूँ आज देकर तुम्हीं से निज काम। आज ले लो चेतना का यह समर्पण दान, विश्व-रानी! सुन्दरी नारी! जगत की मान।'' धूम-लतिका-सी गगन-तरु पर न चढ़ती दीन, दबी शिशिर-निशीथ में ज्यों ओस-भार नवीन! झुक चली सव्रीड़ वह सुकुमारता के भार, लद गई पाकर पुरुष का नर्ममय उपचार।
यही श्रद्घा के व्यक्तित्व में लज्जा का प्रवेश। दो लड़कियों के मानुषी अवतार में वह सहेलियों की तरह उमंगित मंच पर आती है और आगामी पंक्तियों के दरम्यान नाचती-खेलती, गहन तात्विक संवाद करती हुई श्रद्घा की चेतना में निमज्जित हो जाती है।
लज्जा : ''मैं रति की प्रतिकृति लज्जा हूँ मैं शालीनता सिखाती हूँ; मतवाली सुन्दरता पग में नूपुर-सी लिपट मनाती हूँ। चंचल किशोर सुन्दरता की मैं करती रहती रखवाली; मैं वह हल्की-सी मसलन हूँ जो बनती कानों की लाली। इतना न चमत्कृत हो बाले। अपने मन का उपचार करो; मैं एक पकड़ हूँ जो कहती ठहरो कुछ सोच-विचार करो।''
श्रद्घा: ''मैं जभी तोलने का करती उपचार स्वयं तुल जाती हूँ; भुज-लता फँसाकर नर-तरु से झूले-सी झोंके खाती हूँ। इस अर्पण में कुछ और नहीं केवल उत्सर्ग छलकता है; मैं दे दूँ और न फिर कुछ लूँ, इतना ही सरल झलकता है।''
लज्जा: ''नारी! तुम केवल श्रद्घा हो विश्वास रजत नग पगतल में; पीयूष-स्त्रोत-सी बहा करो जीवन के सुन्दर समतल में। आँसू से भींगे अंचल पर मन का सब कुछ रखना होगा, तुमको अपनी स्मित-रेखा से यह सन्धि-पत्र लिखना होगा।''
लज्जा की तरह आई किशोरियों का प्रस्थान। अंतराल।
श्रद्घा और मनु का ताज़ा प्रेममय जीवन दैंनदिन पारस्परिकता, प्रकृति और प्रेम के संश्लेष की चित्रावली में व्यक्त होता हुआ। तभी दृश्य और संगीत के माधुर्य में विघ्न। लयवाद्य की सरल गति में असुर पुरोहितों, आकुलि और किलात का चोर दा$िखला। उद्घोषणा के-से स्वर में आगामी दो पंक्तियों का पाठ
असुर पुरोहित इस विप्लव से बच कर भटक रहे थे; वे किलात आकुलि हो जिनने कष्ट अनेक सहे थे। समूह-स्वर: आकुलि-किलात
आवृत्ति और अशुभ नृत्य
आकुलि: ''क्यों किलात! खाते-खाते तृण और कहाँ तक जीऊँ; कब तक मैं देखूँ जीवित पशु घूँट लहू का पीऊँ। क्या कोई इसका उपाय ही नहीं कि इसको खाऊँ? बहुत दिनों पर एक बार तो सुख की बीन बजाऊँ।''
पुन: अशुभ नृत्य
आकुलि: आकुलि ने तब कहा, ''देखते नहीं, साथ में उसके; एक मृदुलता की, ममता की छाया रहती हँस के। अंधकार को दूर भगाती वह आलोक किरन-सी; मेरी माया बिंध जाती है जिससे हलके घन-सी। तो भी चलो आज कुछ करके तब मैं स्वस्थ रहूँगा; या जो भी आवेंगे सुख-दु:ख उनको सहज सहूँगा।'' यों ही दोनों पर विचार उस कुंज द्वार पर आये; जहाँ सोचते थे मनु बैठे मन से ध्यान लगाये!
अशुभनृत्यमय कथोपकथन में आकुल और किलात मनु को यज्ञ और बलि के लिए उकसाते हैं।
दोनों: ''कर्मयज्ञ से जीवन के सपनों का स्वर्ग मिलेगा; इसी विपिन में मानस की आशा का कुसुम खिलेगा।''
मनु: ''किन्तु बनेगा कौन पुरोहित? अब यह प्रश्न नया है; किस विधान से करुँ यज्ञ यह पथ किस ओर गया है।
दोनों: कहा असुर मित्रों ने अपना मुख गंभीर बनाये; ''जिनके लिए यज्ञ होगा हम उनके भेजे आये।
यजन करोगे क्या तुम? फिर यह किसाके खोज रहो हो; अरे पुरोहित की आशा में कितने कष्ट सहे हो? इस जगती के प्रतिनिधि जिनसे प्रकट निशीथ सबेरा, 'नित्य, वरुण' जिनकी छाया है यह आलोक-अँधेरा। वे ही पथ-दर्शक हों सब विधि पूरी होगी मेरी; चलो आज फिर से वेदी पर हो ज्वाला की फेरी।''
मनु: ''एक विशेष प्रकार कुतूहल होगा श्रद्घा को भी, प्रसन्नता से नाच उठा मन नूतनता का लोभी।''
भीषण अशुभ नृत्य मंत्रोच्चार, यज्ञ, बलि और वध के शब्द और ध्वनियाँ। अंधा उल्लास और समवेत मदिरापान
पुरोडाश के साथ सोम का पान लगे मनु करने; लगे प्राण के रिक्त अंश को मादकता से भरने।
प्रिया श्रद्घा के प्रति मनु के भीतर वासना का उदय। दृश्यालेख मधुर। आकुलि-किलात मनु की स्थिति पर राक्षसी तरीके से प्रसन्न। श्रद्घा व्याकुल, लेकिन मनु के लिए अगाध आकर्षण। वासना पीडि़त मनु का उद्घत आंगिक। मंच पर मनु का वैविध्यमय आवागमन और प्रताप। प्रणय की आहट
जाग उठी थी तरल वासना मिली रही मादकता; मनु को कौन वहाँ आने से भला रोक अब सकता।
खुले मसृण भुज-मूलों से वह आमंत्रण था मिलता; उन्नत वक्षों से आलिंगन-सुख लहरों-सा तिरता।
मनु: ''देवों को अर्पित मधु-मिश्रित सोम अधर से छू लो, मादकता दोला पर प्रेयसि! आओ मिलकर झूलो।''
श्रद्घा: ''मनु! क्या यही तुम्हारी होगी उज्जवल नव मानवता? जिसमें सब कुछ ले लेना हो हंत! बची क्या शवता।''
मनु का कोप
मनु: ''तुच्छ नहीं है अपना सुख भी श्रद्घे! वह भी कुछ है; दो दिन के इस जीवन को तो वही चरम सब कुछ है।''
क्रुद्घ मनु द्वारा श्रद्घा का आलिंगन। तिर्यक प्रेम।
और एक फिर व्याकुल चुंबन रक्त खौलता जिससे; शीतल प्राण धधक उठता है तृषा-तृप्ति के मिस से। दो काठों की संधि बीच उस निभृत गुफा में अपने; अग्रि-शिखा बुझ गई, जागने पर जैसे सुख सपने।
अंतराल। मनु यज्ञ और बलि याने हिंसा में प्रवृत्त। आकुलि-किलात उसकी आखेटशक्ति और पराक्रम पर खलपूर्वक उत्तरजीवित और प्रसन्न। मंच पर शिकार का दृश्य
मनु को अब मृगया छोड़ नहीं रह गया और था अधिक काम; लग गया रक्त था उस मुख में हिंसा-सुख लाली से ललाम। मृग डाल दिया फिर धनु को भी मनु बैठ गये शिथिलित शरीर; बिखरे थे सब उपकरण वहीं आयुध, प्रत्यंचा, श्रृंग, तीर।
श्रद्घा: 'दिन भर थे कहाँ भटकते तुम' बोली श्रद्घा भर मधुर स्नेह; 'यह हिंसा इतनी है प्यारी जो भुलावाती है देह-गेह!'
मनु: ''तिस पर यह पीलापन कैसा, यह क्यों बुनने का श्रम सखेद; यह किसके लिए बताओ तो क्या उसमें है छिप रहा भेद?''
श्रद्घा: ''वह आवेगा मृदु मलयज-सा लहराता अपने मसृण बाल; उसके अधरों से फैलेगी नवमधुमय स्मिति-लतिका-प्रवाल। झूले पर उसे झुलाउंगी दुलरा कर लूँगी बदन चूम; मेरी छाती में लिपटा इस घाटी में लेगा सहज घूम।''
श्रद्घा के मुँह से आसन्न संतति की बात सुनकर मनु जल जाता है। उसकी देहभाषा में क्रोध और ईष्र्या
मनु: ''यह जलन नहीं सह सकता मैं तुम अपने सुख से सुखी रहो, मुझको दु:ख पाने दो स्वतंत्र; 'मन की परवशता महादु:ख' मैं यही जपूँगा महामंत्र। लो चला आज मैं छोड़ यहीं संचित संवेदन-भार-पुंज; मुझको काँटे ही मिले धन्य! हो सफल तुम्हें ही कुसुम-कुंज।''
श्रद्घा के साथ-साथ समूची प्रकृति और स्वयं के निर्माणों को छोड़कर मनु न जाने कहाँ जाता हुआ। शोकात्र्त प्रिया उसे रोकने के प्रयत्न करती है
श्रद्घा: ''रुक जा, रुक जा, रुक जा, सुन ले लो निर्मोही!''
काम और रति का प्रवेश। मनु के प्रति धिक्कार
काम-रति: ''मनु, तुम श्रद्घा को गये भूल! जो क्षण बीते सुख-साधन में उनको ही वास्तव लिया मान; वासना-तृप्ति ही स्वर्ग बनी, यह उल्टी मति का व्यर्थ ज्ञान।''
मनु को जैसे चुभ गया शूल!
काम-रति: ''तुम भूल गये पुरुषत्व-मोह में कुछ सत्ता है नारी की, समरसता है संबंध बनी अधिकार और अधिकारी की।''
काम: ''हाँ, अब तुम बनने को स्वतन्त्र, अब विकल प्रवत्र्तन हो ऐसा जो नियति-चक्र का बने यंत्र; हो शाप-भरा तव प्रजातंत्र।'' रति: ''जीवन सारा बन जाय शुद्घ, अपनी शंकाओं से व्याकुल तुम अपने ही होकर विरुद्घ; हो वर्तमान से वंचित तुम अपने भविष्य में रहो रुद्घ, सारा प्रबंध ही हो अशुद्घ।''
अंतराल
उद्घोषणा: ''श्रद्घा से विरक्त मनु, कामायनी का परित्याग, काम और रति द्वारा स्त्री-जीवन की महत्ता का सन्देश। घायल मनु के जीवन का संघर्षमय दूसरा अध्याय। मनु का इड़ा के राज्य सारस्वत प्रदेश में प्रवेश'' इड़ा के आगमन का लंबा संगीत। बिखरे हुए समूह के साथ वह मंच-बीच आ जाती है। समूह का प्रस्थान। मनु और इड़ा की मुलाकात
मनु: ''अरे कौन?''
इड़ा: ''मैं हूँ इड़ा, कहो तुम कौन? यहाँ पर रहे डोल।''
मनु: ''मनु मेरा नाम, मैं विश्व पथिक सह रहा क्लेश।''
इड़ा: ''स्वागत, स्वागत, स्वागत! पर देख रहे हो तुम यह उजड़ा सारस्वत प्रदेश, भौतिक हलचल से यह चंचल हो उठा, देश ही था मेरा इसमें अब तक हूँ पड़ी-सी आशा से आये दिन मेरा।'' मनु: ''मैं तो आया हूँ — देवि बता दो जीवन का क्या सहज मोल भव के भविष्य का द्वार खोल!''
इड़ा: ''सबका नियमन शासन करते बस बढ़ा चलो अपनी क्षमता; तुम ही इसके निर्णायक हो, हो कहीं विषमता या समता। तुम जड़ता को चैतन्य करो विज्ञान सहज साधन उपाय; यश अखिल लोक में रहे छाय।''
मनु: ''अवलंब छोड़कर औरों का जब बुद्घिवाद को अपनाया; मैं बढ़ा सहज, तो स्वयं बुद्घि को मानो आज यहाँ पाया।''
समवेत: ''मेरे विकल्प संकल्प बनें, जीवन हो कर्मों की पुकार; सुख-साधन का हो खुला द्वार''
अंतराल। उधर श्रद्घा दूसरे जीवन-संसार में मनु-पुत्र मानव के साथ।
मानव: 'माँ...' माँ-बेटे के बीच विनोद और भागमभाग
श्रद्घा: ''कहाँ रहा नटखट तू फिरता अब तक मेरा भाग्य बना; अरे पिता के प्रतिनिधि, तूने भी सुख-दुख तो दिया घना।''
मानव: ''मैं रुठूँ माँ और मना तू, कितनी अच्छी बात कही, ले मैं सोता हूँ अब जाकर, बोलूँगा मैं आज नहीं; पके फलों से पेट भरा है नींद नहीं खुलने वाली।'' श्रद्घा चुम्बन ले प्रसन्न कुछ-कुछ विषाद से भरी रही; कामायनी सजल अपना सुख-स्वप्न बना-सा देख रही,
अंतराल। इड़ा के दरबार का संगीत उद्घोषणा: ''आँसुओं में डूबी श्रद्घा को मानव के पास छोड़कर आइये चलते हैं मनु और इड़ा के सारस्वत प्रदेश! अब यह राज्य पूरी तरह बस चुका है। सिंहासन पर प्रजापति बने बैठे हैं मनु और साथ में बुद्घिमती इड़ा सुन्दरी।''
इड़ा ढालती थी वह आसव, जिसकी बुझती प्यास नहीं तृषित कंठ को, पी-पीकर भी, जिसमें है विश्वास नहीं।
मनु: मनु ने पूछा - ''और अभी कुछ करने को है शेष यहाँ?''
इड़ा: बोली इड़ा - ''सफल इतने में कभी कर्म सविशेष कहाँ! क्या सब साधन स्ववश हो चुके?'' मनु: ''नहीं अभी मैं रिक्त रहा, देश बसाया पर उजड़ा है सूना मानस देश यहाँ।'' सुन्दर मुख, आँखों की आशा, किन्तु हुए ये किसके हैं?; बोल अरी मेरी चेतनते! तू किसकी, ये किसके हैं?''
इड़ा: ''प्रजा तुम्हारी, तुम्हें प्रजापति सबका ही गुनती हूँ मैं, यह सन्देह भरा फिर कैसा, नया प्रश्न सुनती हूँ मैं।''
मनु: ''प्रजा नहीं, तुम मेरी रानी, मुझे न अब भ्रम में डालो, मधुर मराली! कहो प्रणय के मोती अब चुनती हूँ मैं।''
मनु का आक्रामक प्रणय निवेदन। इड़ा अपमानित अनुभव करती है, इनकार कर देती है और क्रुद्घ हो जाती है
इड़ा: ''आह प्रजापति, यह न हुआ है, कभी न होगा निर्बाधित अधिकार आज तक किसने भोगा?''
मनु: ''इड़े, मुझे वह वस्तु चाहिए जो मैं चाहूँ; तुम पर हो अधिकार, प्रजापति न तो वृथा हूँ। क्रंदन का निज अलग एक आकाश बना लूँ, उस रौदन में अट्टहास तो तुमको पा लूँ।''
इड़ा: ''मनु! देखो यह भ्रांत निशा अब बीत रही है, प्राची में नव-उषा तमस को जीत रही है। अभी समय है मुझ पर कुछ विश्वास करो तो, बनती है सब बात तनिक तुम धैर्य धरो तो।''
मनु: ''मायाविनि! बस पा ली तुमने ऐसे छुट्टी, लड़के जैसे खेलों में कर लेते कुट्टी।''
मनु द्वारा ज़ोर-ज़बरदस्ती। इड़ा सख्त हो गयी
इड़ा: ''और कह रही किन्तु नियामक नियम न माने, तो फिर सब कुछ नष्ट हुआ-सा निश्चिय जाने। सावधान, मैं शुभाकांक्षिणी और कहूँ क्या। कहना था कह चुकी और अब यहाँ रहूँ क्या।''
मनु: ''मैं शासक, मैं चिरस्वतन्त्र, अब तुम पर भी मेरा हो अधिकार असीम, सफल हो जीवन मेरा। किन्तु आज तुम बंदी हो मेरी बाँहों में,
इड़ा के प्रति मनु के दुव्र्यवहार से सारस्वत प्रदेश की जनता क्रुद्घ हो गयी है। जनता का महल में प्रवेश। प्रतिकार, उपद्रव और युद्घ का माहौल। आकुलि-किलात भी जनता में है। उनके इस विश्वासघात पर मनु विस्मित और क्षुब्ध
सिंह-द्वार अरराया जनता भीतर आयी, समवेत: 'मेरी रानी, मेरी रानी, मेरी रानी' आवृत्ति
मनु: ''तुम्हें तृप्त कर सुख के साधन सकल बनाये; मैंने ही श्रम-भाग किया फिर वर्ण बनाया। आज न पशु हैं हम, या गूँगे काननचारी यह उपकृति क्या भूल गये तुम आज हमारी।''
आकुलि-किलात : ''देखो पाप पुकार उठा अपने ही मुख से, (मनु को लक्ष्य करते हुए) प्रकृति शक्ति तुमने यंत्रों से सबकी छीनी और इड़ा पर ये क्या अत्याचार किया है;'' प्रजा: ''आज बन्दिगी मेरी रानी इड़ा यहाँ है; ओ यायावर; अब तेरा निस्तार कहाँ है?'' मनु: ''तो फिर मैं हूँ हुआ अकेला जीवन-रण में, प्रकृति और उसके पुतलों के दल भीषण में।'' प्रजा: ''बस! बस! अब इसको मत जाने देना!'' मनु: ''कायर! तुम दोनों ने ही उत्पात मचाया, अरे, समझकर जिसको अपना था अपनाया; तो फिर आओ, देखो कैसी होती है बलि, रण-यज्ञ-पुरोहित ओ किलात औ आकुलि।'' उठा तुमुल रणनाद; भयानक हुई अवस्था बढ़ा विपक्ष समूह, मौन पददलित व्यवस्था! युद्घ की बीहड़ लंबी ध्वनि। नक्कारा, पखावज, मृदंग और तबला : संघर्ष का आभास कराती तिहाई।
इड़ा: ''रोको रण! रोको रण! रोको रण!''
समूह घेरकर मनु पर प्रहार करता है। चीत्कार
समवेत: सिंहासन खाली है!
इड़ा के सिंहासनारोहण का संगीत, अंतराल, उधर श्रद्घा बेटे मानव के साथ मनु को खोजती हुई सारस्वत प्रदेश में। मंच पर उदास रौशनी
नव कोमल अवलम्ब साथ में वय किशोर उँगली पकड़े, चला आ रहा मौन धैर्य-सा अपनी माता को जकड़े।
मनु घायल अचेत पड़े मिलते हैं। श्रद्घा मनु का स्पर्श और उपचार करती हुई
श्रद्घा: ''और वहीं मनु! घायल सचमुच तो क्या सच्चा स्वप्न रहा? आह प्राणप्रिय। यह क्या? तुम यों! धुला हृदय, बन नीर बहा! (मानव से): ''अरे आ तू भी देख पिता हैं पड़े हुए,''
मानव : ''पिता, आ गया लो!''
मनु संज्ञा में लौट रहे हैं
मनु: ''श्रद्घा! तू आ गई भला, तो पर क्या मैं था यहीं पड़ा? वही भवन, वे स्तंभ, वेदिका बिखरी है चारों ओर घृणा; ले चल इस छाया के बाहर मुझको, दे न यहाँ रहने, दूर, दूर ले चल मुझको।''
श्रद्घा: ''ठहरो कुछ तो बल आने दो, लिवा चलूंगी तुरत तुम्हें; इतने क्षण तक रहने देंगी क्या वह हमें?''
मनु: ''जीवन सुख है? ना, यह विकट पहेली है भाग अरे मनु! इंद्रजाल से, कितनी व्यथा न झेली है श्रद्घा के रहते यह संभव नहीं कि कुछ कर पाऊँगा, तो फिर शांति मिलेगी मुझको जहाँ, खोजता जाऊँगा। सुखी रहे, सब सुखी रहे, बस छोड़ो मुझ अपराधी को।''
मनु का प्रतीकात्मक प्रस्थान; दरअसल वह मंच पर ही उपस्थित अदृश्य हो गये हैं
जगे सभी जब नवप्रभात में देखे तो मनु वहाँ नहीं। 'पिता कहाँ, पिता कहाँ, पिता कहाँ'; कह खोज रहा - सा वह कुमार अब शान्त नहीं।
श्रद्घा का विलाप
मानव : ''माँ! क्यों तू है इतनी उदास, क्या मैं हूँ तेरे नहीं पास;''
श्रद्घा : ''यह विश्व अरे इतना उदास; मेरा गृह रे उन्मुक्त द्वार।''
मानव: ''अम्बे फिर क्यों इतना विराग? मुझ पर न हुईं क्यों सानुराग''
श्रद्घा: ''बोली- ''तुमसे कैसी विरक्ति, तुम जीवन की अन्धानुरक्ति;''
ग्लानिग्रस्त इड़ा का प्रवेश
इड़ा: ''दो क्षमा, न दो अपना विराग; सोई चेतनता उठे जाग। तुम क्षमा करोगी यह विचार, मैं छोडू कैसे - साधिकार।''
श्रद्घा: ''मुझसे बिछुड़े को अवलम्बन, देकर, तुमने रखा जीवन; तुम आशामयि! चिर आकर्षण, तुम मादकता की अवनत धन; मनु के मस्तक की चिर अतृप्ति, तुम उत्तेजित चंचला शक्ति!''
श्रद्घा पुत्र को इड़ा को सौंप देती है
रह सौम्य! यहीं, हो सुखद प्रान्त, विनिमय कर दे कर कर्म कान्त।
श्रद्घा: ''तुम दोनों देखो राष्ट्र-नीति शासक बन फैलाओ न भीति; मैं अपने मनु को खोज चली सरिता मरु नग या कुंज-गली; वह भोला इतना नहीं छली! मिल जायेगा, हूँ प्रेम-पली।''
श्रद्घा मानव को वहीं छोड़कर मनु की तलाश में निकल रही है, किंतु मानव उसे रोक लेना या उसके साथ जाना चाहता है
मानव: ''ममता न तोड़, जननी! मुझसे मुँह यों न मोड़; तेरी आज्ञा का कर पालन, वह स्नेह सदा करता लालन, मैं मरूँ-जिऊँ पर छुटे न प्रन, वरदान बने मेरा जीवन! जो मुझको तू यों चली छोड़, तो मुझे मिले फिर वही क्रोड़।''
श्रद्घा: ''हे सौम्य! इड़ा का शुचि दुलार, हर लेगा तेरा व्यथा-भार यह तर्कमयी तू श्रद्घामय, तू मननशील कर कर्म अभय; इसका तू सब संताप निचय हर ले हो मानव भाग्य उदय; सबकी समरसता कर प्रचार, मेरे सुत! सुन माँ की पुकार।''
श्रद्घा प्रिय को खोजती निकली ही है, कि तभी मनु मिल भी जाते हैं
श्रद्घा: ''प्रियतम! यह नत निस्तब्ध रात, हे स्मरण कराती विगत बात; वह प्रलय शान्ति वह कोलाहल, जब अर्पित कर जीवन संबल; मैं हुई तुम्हारी थी निश्चल, क्या भूलूँ मैं, इतनी दुर्बल?''
मनु: ''यह क्या! श्रद्घे! बस तू ले चल, उन चरणों तक, दे निज संबल; सब पाप-पुण्य जिसमें जल-जल, पावन बन जाते हैं निर्मल; मिटते असत्य से ज्ञान-लेश समरस, अखंड, आनन्द देश!''
मनु का श्रद्घा के साथ हिमालय की ओर प्रस्थान। इड़ा और मानव शासन संभालने के लिए रुक जाते हैं सभी कलाकारों का मंच पर आगमन। सामूहिक ऊर्जा का प्रदर्शन। मंच, दिशाओं और दर्शकों का अभिवादन |