तिब्बत से कविताएं

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    जनवरी 2013
श्रेणी पहल विशेष - 2
संस्करण जनवरी 2013
लेखक का नाम तेनजिन त्सुंदे,प्रस्तुति : अशोक पांडे






2001 का पहला आउटलुक-पिकाडोर नॉन-फिक्शन अवार्ड पाने वाले तेनजिन त्सुंदे ने मद्रास से स्नातक की डिग्री लेने के बाद तमाम जोखिम उठाते हुए पैदल हिमालयी दर्रे पार किए और अपनी मातृभूमि तिब्बत का हाल अपनी आँखों से देखा। चीन की सीमा पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर तीन माह ल्हासा की जेल में रखा। उसके बाद उन्हें वापस भारत में ''धकेल दिया गया।"
सत्तर की दहाई के शुरुआती सालों में मनाली के नज़दीक भारत की सरहदों पर बन रही सड़कों पर मज़दूरी कर रहे एक गरीब तिब्बती शरणार्थी परिवार में जन्मे तेनजिन त्सुंदे की तीन पुस्तकें छप चुकी हैं - क्रॉसिंग द बॉर्डर, कोरा और सेम्शूक - एस्सेज़ ऑन द तिबेतन फ्रीडम स्ट्रगल, क्रॉसिंग द बॉर्डर कविता - संग्रह है, कोरा में कवितायें और कहानियां हैं जबकि सेम्शूक में जैसा कि नाम से जाहिर है, त्सुंदे के निबंध संकलित हैं। 1999 में अपना पहला कविता संग्रह छपने के लिए उन्होंने अपने सहपाठियों से पैसे उधार मांगे थे - तब वे बम्बई में अंग्रेजी साहित्य में एम.ए. कर रहे थे।
1999 में तेनजिन ने फ्रेंड्स ऑफ तिब्बत (इण्डिया) की सदस्यता ग्रहण की। तब से अब तक वे इस संगठन से जुड़े हैं और वर्तमान में इसके महासचिव हैं। 2002 में उन्होंने बम्बई के ओबेरॉय टावर्स में तिब्बती झंडा और एक बैनर फहराया था जिस पर लिखा था - ''तिब्बत को आजाद करो"। भारत का दौरा कर रहे तत्कालीन चीनी राष्ट्रपति उसी इमारत में भारत के बड़े व्यापारियों की एक सभा को संबोधित कर रहे थे। इस घटना ने अंतर्राष्ट्रीय मीडिया का ध्यान इस कारनामे की तरफ खींचा और भारतीय पुलिस अफसरान ने जेल में उन्हें अपने अधिकारों की पैरवी करने की हिम्मत रखने की दाद भी दी।
इन दुस्साहसिक कारनामों से घबराई हुई चीनी सरकार ने नवम्बर 2006 में चीनी राष्ट्रपति के भारत भ्रमण के दौरान त्सुंदे की गतिविधियों पर रोक लगाने की मांग की। त्सुंदे को चौदह दिन के लिए धर्मशाला में गिरफ्तार रखा गया। उसके बाद 2008 के साल जब बीजिंग में ओलिम्पिक होने थे — त्सुंदे और उनके साथियों ने तिब्बत चलो मार्ग का नेतृत्व किया जो बावजूद पुलिस दमन और अत्याचार के अंतर्राष्ट्रीय सुर्खियों में बना रहा।
तेंजिन त्सुंदे का लेखन द इंटरनेशनल पेन, साहित्य अकादमी भारतीय साहित्य, द लिटल मैग्जीन, आउटलुक, द टाइम्स ऑफ इण्डिया, तहलका, द डेली स्टार (बंगलादेश), टुडे (सिंगापुर), तिबेतन रिव्यू और एनी प्रकाशनों से छप चुका है। एक कवि के तौर पर उन्होंने कई अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर तिब्बत का प्रतिनिधित्व किया है।


तेनजिन त्सुंदे

मेरी किस्म का निर्वासन


अपने चिंकी तिब्बती चेहरे के अलावा
मैं भारतीय ज़्यादा हूँ।

आप मुझे से पूछिए कि मैं कहाँ का रहने वाला हूँ और मेरे पास कोई उत्तर नहीं होगा। मुझे लगता है मैं कहीं का नहीं हूँ, न कभी मेरा कोई घर ही रहा है। मेरा जन्म मनाली में हुआ, पर मेरे माँ-बाप कर्नाटक में रहते हैं। हिमाचल के दो स्कूलों में पढ़ाई करने के बाद मैं उच्च शिक्षा के लिए मद्रास, लद्दाख और बंबई गया। मेरी बहनें वाराणसी में रहती हैं जबकि भाई धर्मशाला में। मेरा रजिस्ट्रेशन प्रमाणपत्र (भारत में मेरे रहने का परमिट) बतलाता है कि मैं भारत में रह रहा एक विदेशी हूँ और मेरी नागरिकता तिब्बती हैं। लेकिन दुनिया के राजनैतिक मानचित्र पर तिब्बत कहीं भी नहीं है, मुझे तिब्बती बोलना अच्छा लगता है लेकिन मैं अंग्रेजी में लिखना पसंद करता हूँ। मुझे हिन्दी गाने गाना अच्छा लगता है पर मेरी लय और उच्चारण बुरी तरह खराब होते हैं। जब-तब कोई आकर मुझसे पूछता है कि मैं कहाँ से आया हूँ ...मेरे जिद्दी उत्तर तिब्बत से सिर्फ भवें ही नहीं उठा करतीं.. मुझ पर सवालों, वक्तव्यों और संदेहों और सहानुभूतियों की बाढ़ उमड़ आती है। लेकिन उनमें से एक भी इस सादा वास्तविकता को दिल से नहीं समझ सकता कि दुनिया में ऐसी कोई जगह नहीं जिसे में अपना घर कह सकूं और यह कि इस संसार में मैं हमेशा सिर्फ एक राजनैतिक शरणार्थी रहूँगा।
जब हम हिमाचल प्रदेश के एक तिब्बती स्कूल में पढ़ते थे हमारे अध्यापक हमें तिब्बत पर हो रहे अत्याचारों की कहानियाँ सुनाया करते थे। हमें अक्सर बताया जाता था कि हम सारे शरणार्थी थे और हमारे माथों पर एक बड़ा खुदा हुआ था। वह सब हमारी समझ में नहीं आता था और हम यह चाहते थे कि अध्यापक अपनी बात पूरी करे और हमारे तेल चुपड़े बालों समेत हमें धूप में खड़ा न रखे। खासे लंबे समय तक मैं यकीन करता रहा कि हम खास तरह के लोग हैं जिनके माथों पर खुदा हुआ है। अपने स्कूल परिसर के पास रह रहे बाकी भारतीय परिवारों से हम लोग अलग नज़र आते थे; वह बूचड़ परिवार जो हर सुबह इक्कीस बकरियां काटा करता था (अधकटी गर्दन वाली बकरियां जब बां-बां करती थीं हम टिन की उनकी छत पर पत्थर मारा करते थे) वहाँ पड़ोस में पांच परिवार और थे; उनके पास सेबों के बगीचे थे और ऐसा लगता था वे अलग सिर्फ अलग तरीकों के सेब ही खाया करते थे। स्कूल में हमने अपने सिवाय ज़्यादा लोग नहीं देखे सिवाय कुछ इन्जियों (अंग्रेजों) के जो जब-तब आया करते थे। स्कूल में शायद जो पहली बात हमने सीखी वह ये थी कि हम लोग शरणार्थी थे और यह हमारा देश न था।
झुम्पा लाहिड़ी की इंटरप्रेटर ऑफ मैलेडीज़ अभी मैंने पढऩा बाकी है। जब एक पत्रिका में उन्होंने अपनी किताब के बारे में बताया तो कहा कि उनका निर्वासन उनके साथ बड़ा हुआ। और यही मुझे अपनी कहानी भी लगती है। हाल की तमाम हिन्दी फिल्मों में से मैंने एक फिल्म का बहुत इंतज़ार किया — जे.पी. दत्ता की रिफ्यूजी। फिल्म में एक दृश्य था जो हमारे दु:ख को कितने अच्छे तरीके से व्यक्त करता है — सीमा के उस पार से एक पिता अपने परिवार को पड़ोसी मुल्क में लेकर आया हुआ है। उनका जीवन किसी भी तरह की सुविधाओं से वंचित है। वे किसी तरह अपने को बचाए हैं। एक के बाद एक घटनाएं घटती हैं और आखिरकार अधिकारीगण उसे कैद कर लेते हैं और उसकी पहचान के बारे में सवाल करते हैं। वह आंसुओं में टूट पड़ता है — वहाँ हमारा जीना मुश्किल हो गया था, इसलिए हम यहाँ आए, अब यहाँ भी... क्या रिफ्यूजी होना गुनाह है? सेना का अधिकारी हक्का-बक्का रह जाता है।
कुछ महीने पहले न्यूयॉर्क में तिब्बतियों का एक समूह संकट में पड़ गया था। समूह में ज़्यादातर नौजवान थे। एक तिब्बती युवा की मौत हो गयी थी और और अंतिम संस्कार करना किसी को नहीं आता था। हर कोई एक दूसरे को देख रहा था। अचानक उन्हें लगा कि वे घर से कितनी दूर हैं —
    ...और जहां इतने सालों से
    हमारे न दफनाए गए मृतक हमारे साथ भोजन करते हैं
    पीछा करते हैं हमारे शयनकक्षों के दरवाजों से।
        - अबेना पी.ए. बूसिया
एशिया से पश्चिम जाने वाले किन्हीं और आप्रवासियों की तरह जीवनयापन के लिए तिब्बती शरणार्थी भी वहाँ के बेहद मशीनी और प्रतिस्पर्धात्मक वातावरण में कड़ी मेहनत करते हैं। एक बूढ़ा आदमी नौकरी मिलने पर सिर्फ इस बात से खुश हुआ कि अब वह अपने परिवार के सीमित संसाधनों पर बोझ नहीं बनेगा। उनका काम था बीप की आवाज़ आने पर एक बटन दबाना। दिन भर ऐसा छोटा सा काम करना उसे बड़ा मनोरंजक लगा। हौले हौले अपनी प्रार्थना दोहराते हुए हाथों में पूजा की माला लिए वह दिन भर वहीं बैठा रहता। हाँ बीप बजते ही वह बटन दबा दिया करता। (उसे माफ करें, उसे नहीं पता था वह क्या कर रहा था।) कुछ दिन बाद उत्सुकतावश उसने अपने सहकर्मी से उस बटन के बारे में पूछा। उसे बताया गया कि जब बी वह बटन दबाता था एक मुर्गी की गर्दन काट दी जाती थी। उसने तुरंत वह नौकरी छोड़ दी।
अक्टूबर 2000 में सारा संसार सिडनी ओलिम्पिक से जुड़ा हुआ था। हॉस्टेल में हम सारे टीवी से निगाहें गड़ाए ओपनिंग सेरेमनी शुरू होने का इंतज़ार कर रहे थे। आधा समय बीतने के बाद मुझे अनुभव हुआ कि मैं कुछ भी साफ नहीं देख पा रहा था और मेरा चेहरा गीला था। न, न, ऐसा नहीं था कि मुझे उस समय सिडनी में होने की इच्छा हो रही थी या माहौल ऐसा था या खेलों का जज्बा। मैंने अपने आस पास को दोस्तों को समझाने की भरपुर कोशिश की। लेकिन वे समझ ही नहीं सके। समझना शुरु तक नहीं कर सके... कर भी कैसे सकते थे? वे एक देश के नागरिक थे। उन्हें अपने देश के छूट जाने का विचार तक नहीं करना पड़ा। उन्हें कभी नहीं रोना पड़ा अपने देश के लिए। उनके पास अपनी एक जगह थी जहां के वे थे — वह जगह न सिर्फ दुनिया के नक्शे में थी, ओलिम्पिक खेलों में भी थी। उनके देशवासी गर्व के साथ परेड कर सकते थे, अपनी नागरिकता के प्रति विश्वस्त, अपनी राष्ट्रीय पोशाकों में और ऊंचे ऊंचे उनके झंडे। मैं उनके वास्ते कितना खुश था।
    रात आती है, पर तुम्हारे सितारे कहाँ होते हैं
जब मैं खामोश था, डूबा हुआ आंसुओं में, नेरुदा बोले मेरे बदले। बाकी कार्यक्रम को शान्ति से देखता हुआ मैं उसांसा और भारी महसूस कर रहा था। वहाँ सीमाहीनता की बात हो रही थी और खेलों के जज्बे की मदद से भाईचारा बढ़ाने की। अपने घर के आराम में से वे एक मानवता के नज़दीक आने और सीमाओं को नकारने की बातें कर रहे थे। मैं, एक शरणार्थी, वापस घर जाने के सिवा किस बारे में बात कर सकता हूँ?
मेरे लिए घर एक वास्तविकता है। वह वहाँ पर है और मैं उससे बहुत दूर हूँ। यह वो घर है जिसे मेरे दादा-दादी और पिता पीछे तिब्बत में छोड़ आये थे। यह वो घाटी है जहां मेरे पोपो-ला और मोमो-ला के खेत थे और बहुत से याक, जहां मेरे मां-पिता अपने बचपन में खेला करते थे। अब मेरे मां-पिता-कर्नाटक में एक रिफ्यूजी कैम्प में रहते हैं। उन्हें एक मकान और जोतने को खेत मिला हुआ है, वे अपनी सालाना फसल मकई उगाते हैं। कुछ दिनों की छुट्टियों में मैं उन्हें मिलने हर साल दो बार जाया करता हूँ। उनके साथ रहते हुए मैं अक्सर उनसे तिब्बत के अपने घर की बाबत सवालात करता हूँ। वे मुझे उस दुर्भाग्यपूर्ण दिन के बारे में बताते हैं जब वे चंग्थांग के हरे चरागाहों में, अपने याकों और भेड़ों को चराते हुए खेल रहे थे, जब उन्हें सब छोड़ छाड़ कर गाँव से भागना पड़ा था। हर कोई गाँव छोड़ कर भाग रहा था और लोग कह रहे थे कि चीनी लोग रास्ते में पडऩे वाले हर किसी का कत्लकर दे रहे हैं। मठों पर बम फेके जा रहे थे, लूटपाट और अफरातफरी का माहौल था। सुदूर गाँवों में धुंआ देखा जा सकता था और पहाड़ों पर लोगों की चीखें थीं। जब उन्होंने वास्तव में अपना गांव छोड़ा उन्हें हिमालय से होकर भारत में घुसना पड़ा — और वे तब बच्चे ही थे। अनुभव उत्तेजनापूर्ण था पर भयभीत करने वाला भी।
भारत में उन्होंने मासुमारी, बीर, कुल्लू और मनाली में पहाड़ी सड़क-मजदूरों की तरह काम किया। मनाली से लद्दाख जाने वाली सैकड़ों किलोमीटर लंबी, दुनिया की सबसे ऊंचाई पर स्थित कोलतार की सड़क का निर्माण तिब्बतियों ने किया था। मेरे माँ-पिता बताते हैं कि उन शुरुआती महीनों में भारत आए तिब्बतियों में से सैकड़ों मर गए थे। गर्मी उनसे बर्दाश्त नहीं होती थी और जब मानसून आया उनका स्वास्थ्य कमज़ोर था। लेकिन सड़क किनारे कैम्प लगा रहा - उनकी कई पालियां चला करती थीं। यात्रा के दौरान सड़क किनारे एक जुगाड़ तम्बू के भीतर मेरा जन्म हुआ। बच्चे के जन्म को दर्ज करने का वक्त किसके पास था जब हर कोई भूखा और थका हुआ था - मैं जब भी अपनी माँ से अपना जन्मदिन पूछता हूँ वह यही जवाब देती है। जब मेरा स्कूल में दाखिला हुआ तब मुझे एक जन्मदिन प्राप्त हुआ। तीन अलग अलग दफ्तरों में तीन अलग अलग दस्तावेज़ बनाए गए। अब मेरे पास जन्म की तीन तारीखें हैं। मैंने आज तक अपना जन्मदिन नहीं मनाया।
हमारे खेत में मानसून का स्वागत होता है पर हमारे मकान में नहीं। चालीस साल पुरानी खपरैल की छत झुकती जाती है और अपने मकान में हम बाल्टियाँ, बर्तन, चम्मच और गिलासों से लेकर काम में जुट जाते हैं और बारिश के देवताओं की भेजी कृपा इकट्ठा करते हैं, जबकि पा-ला छत पर चढ़कर उसकी मरम्मत में जुट जाते हैं। अच्छी एस्बेस्टस की चादरों की मदद से पा-ला कभी भी छत की तरीके से मरम्मत करने की नहीं सोचते। वे कहते हैं - हम जल्द ही तिब्बत लौटेंगे। वहाँ हमारा अपना घर है। हमारी गौशाला में कुछ मरम्मत ज़रूर हुई है, फूंस को हर साल बदला जाता है। और कीड़ों के खाए हुए लकड़ी के खम्भे बदल जाते हैं।
जब तिब्बती लोग कर्नाटक में सबसे पहले बसे, उन्होंने फैसला किया था कि वे सिर्फ पपीते और सब्जियां उगाएंगे। उन्होंने कहा कि महान दलाई लामा के आशीर्वाद से वे हद से हद दस सालों मे वापस घर पहुँच जाएंगे। लेकिन अब तो अमरुद के पेड़ भी सूख गए हैं। पिछवाड़े के बरामदे में दबाए गए आम के बीज अब फल देने लगे हैं। खजूर के पेड़ हमारे निर्वासन के घरों के कंधों से कंधे मिलाने लग चुके हैं। बूढ़े लोग धूप सेकते, मक्खन वाली चाय (छंग) पीते, पूजा वाला खोर हिलाते हुए हुए पुराने दिनों की याद किया करते हैं जबकि जवान लोग दुनिया भर में बिखरे हुए हैं - अध्ययनरत या काम करते हुए। यह इंतज़ार जैसे अनंतता को पुनर्परिभाषित करता है-
छत पर घास
फलियों में कल्ले फूटे
और बेलें दीवारों पर चढऩे लगीं,
खिड़की से होकर रेंगते आने लगे मनीप्लांट
ऐसा लगता है हमारे घरों की जड़ें उग आयी हों।

बाड़े अब बदल चुकी हैं जंगल में,
अब मैं कैसे बताऊँ अपने बच्चों को
कि कहाँ से आये थे हम?
धर्मशाला में हाल ही में मेरी मुलाकात एक दोस्त, दावा से हुई। चीन की जेल से छूटकर वह कोई दो साल पहले भारत आया था। उसने मुझे अपने जेल-अनुभव बतलाए। उसका भाई जो एक महंत था, तिब्बत को आज़ाद करो के पोस्टर लगाने के जुर्म में गिरफ्तार कर लिया गया था। पुलिस द्वारा यातना दी जाने पर उसने दावा का नाम ले लिया। दावा को बिन मुकदमा चलाए चार सौ बाईस दिन तक जेल में रखा गया। तब वह कुल छब्बीस साल का था। उसे कम उम्र में ही तिब्बत से बीजिंग ले जाया गया जहां उसकी औपचारिक शिक्षा होनी थी। वह अब भी चीनियों के उन प्रयासों की मजाक बनाया करता है जिनके माध्यम से वे तिब्बतियों पर साम्यवादी विचार लादने के प्रयास किया करते हैं। शुक्र है उसके मामले में चीनियों के प्रयास नाकाम रहे।
दो साल पहले, मेरे एक नज़दीकी स्कूली मित्र को एक ऐसा पत्र मिला जिसने उसके सामने जीवन की सबसे मुश्किल स्थिति पैदा कर डाली। पत्र उसके चाचा का था। पत्र के अनुसार उसके मां-पिता को, जो तिब्बत में रह रहे थे, नेपाल में दो माह की तीर्थयात्रा करने की अनुमति मिल गयी है। धर्मशाला से अपने भाई को लेकर ताशी नेपाल अपने माता-पिता से मिलने चल दिया, बीस साल पहले भागकर भारत आने के बाद से वे अपने मां-पिता से नहीं मिले थे। जाने से पहले ताशी ने मुझे लिखा - त्सुंदे, मुझे नहीं पता कि मैं खुश होंऊ कि मैं अपने मां-पिता से मिलने जा रहा हूँ या दुखी होऊं कि मुझे याद ही नहीं वे कैसे दीखते थे... जब मुझे मेरे चाचा के साथ भारत भेजा गया तब मैं बच्चा था। अब बीस साल बीत चुके हैं। हाल ही में उसे नेपाल में अपने चाचा से एक और चिट्ठी मिली। चिट्ठी के मुताबिक एक महीने पहले तिब्बत में उसकी मां का देहांत हो गया था। मैंने देखा था किस तरह दीवार टूटने पर पूर्वी और पश्चिमी जर्मन लोग एक दूसरे के गले लग कर रो रहे थे। उत्तर और दक्षिण में विभाजित करने वाली सीमा से हट जाने पर कोरियाई लोग किस कदर खुश नज़र आ रहे थे। मुझे भय है तिब्बत के बिछड़े परिवार कभी नहीं मिलेंगे। मेरे दादा-दादी के भाई-बहन तिब्बत में ही छूट गए थे। मेरे पोपो-ला की मृत्यु कुछ साल पहले हुई थी। क्या मेरी मोमो-ला कभी भी अपने बहन-भाइयों को देख सकेंगी? क्या हम कभी साथ हो सकेंगे जब वह मुझे हमारा घर और हमारे खेत दिखा सके?

(नोट - इस निबंध को 2001 का आउटलुक-पिकाडोर नोंन-फिक्शन अवार्ड मिला था। निर्णायकों ने इस निबंध को छू लेने वाली सादगी के कारण चुना था जिसकी मदद से लेखक ने इस संसार में तिब्बती होने की त्रासदी को समझाया था, और एक दूसरे तरीके से यह दुनिया भर में फैले शरणार्थियों के दर्द को ज़बान देने जैसा था।)

जब धर्मशाला में बारिश होती है

मुक्केबाजी के दस्ताने पहने बारिश की बूँदें
हज़ारों हज़ार
टूट कर गिरती हैं
और उनके थपेड़े मेरे कमरे पर।
टिन की छत के नीचे
भीतर मेरा कमरा रोया करता है
बिस्तर और कागजों को गीला करता हुआ।

कभी कभी एक चालाक बारिश
मेरे कमरे के पिछवाड़े से होकर भीतर आ जाती है
धोखेबाज़ दीवारें
उठा देती हैं अपनी एडिय़ाँ
और एक नन्हीं बाढ़ को मेरे कमरे में आने देती हैं।

मैं बैठा होता हूँ अपने द्वीपदेश बिस्तर पर-
और देखा करता हूँ अपने मुल्क को बाढ़ में,
आज़ादी पर लिखे नोट्स,
जेल के मेरे दिनों की यादें,
कॉलेज के दोस्तों के $खत,
डबलरोटी के टुकड़े
और मैगी नूडल
भरपूर ताकत से उभर आते हैं सतह पर
जैसे कोई भूली याद
अचानक फिर से मिल जाए।
तीन महीनों की यंत्रणा
सुईपत्तों वाले चीड़ों में मानसून-,
साफ धुला हुआ हिमालय
शाम के सूरज में दिपदिपाता।

जब तक बारिश शांत नहीं होती
और पीटना बंद नहीं करती मेरे कमरे को
ज़रूरी है कि मैं
ब्रिटिश राज के ज़माने से
ड्यूटी कर रही अपन टिन की छत को सांत्वना देता रहूँ,

इस कमरे ने
कई बेघर लोगों को पनाह दी है,
फिलहाल इस पर कब्ज़ा है नेवलों,
चूहों, छिपकलियों और मकडिय़ों का,
एक हिस्सा अलबत्ता मैंने किराये पर ले रखा है,
घर के नाम पर किराए का कमरा -
दीनहीन अस्तित्व भर।

अस्सी की हो चुकी
मेरी कश्मीरी मकानमालकिन अब नहीं लौट सकती घर,
हमारे दरम्यान अक्सर खूबसूरती के लिए प्रतिस्पर्धा होती है -
कश्मीर या तिब्बत।

हर शाम
लौटता हूँ मैं किराए के अपने कमरे में
लेकिन मैं ऐसे ही मरने नहीं जा रहा,
यहाँ से बाहर निकलने का
कोई रास्ता ज़रूर होना चाहिए,
मैं अपने कमरे की तरह नहीं रो सकता,
बहुत रो चुका मैं
कैदखानों में
और अवसाद के नन्हें पलों में।
यहाँ से बाहर निकलने का
कोई रास्ता ज़रूर होना चाहिए,
मैं नहीं रो सकता -
पहले से ही इसकदर गीला यह कमरा।

आतंकवादी

मैं एक आतंकवादी हूँ
मुझे हत्या करने में आनंद आता है।

मेरे सींग हैं
दो विषैले दांत
और ड्रैगनफ्लाई की पूंछ।

अपने घर से भगाया हुआ मैं
डर के मारे छिपा हुआ
बचाता अपना जीवन
दरवाजे भेड़े जाते मेरे चेहरे पर।
लगातार लगातार नहीं मिलता न्याय
धैर्य का इम्तेहान लिया जाता है
टेलीविजन पर, तोड़ा जाता हुआ
एक खामोश बहुमत के सामने
दीवार से सटाया गया,
उस मृत छोर से
लौट कर आया हूँ मैं,

मैं हूँ वह अपमान
जिसे तुमने निगला था
चपटी नाक के साथ।

मैं हूँ वह शर्म
जिसे दफनाया था तुमने अँधेरे में।
मैं आतंकवादी हूँ
गोली मार गिरा दो मुझे

डर और कायरता
मैं छोड़ आया था
घाटी में
मिमियाती बिल्लियों
और जीभ लपलपाते कुत्तों के बीच।

मैं अविवाहित हूँ
खोने को
कुछ नहीं मेरे पास।

मैं बन्दूक की गोली हूँ
मैं कुछ नहीं सोचता।

टीन के खोल से
मैं झपटता हूँ
उस दो सेकेण्ड के जीवन के रोमांच के लिए
और मर जाता हूँ मृतकों के साथ।
मैं जीवन हूँ
जिसे तुम छोड़ आए थे पीछे।

दगा

हमारे घर,
हमारे गाँव, हमारे देश को बचाने की कोशिश में
मेरे पिता ने अपनी जान गंवाई,
मैं भी लडऩा चहता था,
लेकिन हम लोग बौद्घ हैं,
शांतिप्रिय और अहिंसक,
सो मैं क्षमा करता हूँ अपने शत्रु को,
लेकिन कभी कभी मुझे लगता है
मैंने दगा दिया अपने पिता को।

मैं थक गया हूँ

मैं थक गया हूँ
थक गया हूँ दस मार्च के उस अनुष्ठान से
धर्मशाला की पहाडिय़ों से चीखता हुआ।

मैं थक गया हूँ
थक गया हूँ सड़क किनारे स्वेटरें बेचता हुआ
चालीस सालों से बैठे बैठे - धूल और थूक के बीच इंतज़ार करता

मैं थक गया हूँ
दालभात खाने से-
और कर्नाटक के जंगलों में गाएं चराने से।

मैं थक गया हूँ
थक गया हूँ मजनू टीले की धूल में
घसीटता हुआ अपनी धोती।
मैं थक गया हूँ
थक गया हूँ लड़ता हुआ उस देश के लिए
जिसे मैंने कभी देखा ही नहीं।

तिब्बतपन

निर्वासन के उन्तालीस साल
तो भी कोई देश हमारा समर्थन नहीं करता,
एक भी देश तक नहीं।

हम यहाँ शरणार्थी हैं,
खो चुके एक देश के लोग,
किसी भी देश के नागरिक नहीं

तिब्बती दुनिया की सहानुभूति के पात्र -
शांत मठवासी और जिंदादिल परम्परावादी;
एक लाख और कुछ हज़ार
अच्छे से घुलेमिले हुए -
आत्मसात कर लेने वाले तमाम सांस्कृतिक आधिपत्यों में।

हरेक चेकपोस्ट और दफ्तर में-
मैं एक हूँ ''तिब्बती-भारतीय"
मुझे हर साल अपना रजिस्ट्रेशन सर्टिफिकेट
रिन्यू करना होता है एक सलाम के साथ -
भारत में जन्मा एक शरणार्थी।

मैं भारतीय अधिक हूँ
सिवा अपने चपटे तिब्बती चेहरे के,
''नेपाली?" ''थाई?" ''जापानी?"
''चीनी?" ''नागा?" ''मणिपुरी?"
कोई नहीं पूछता तिब्बती ''-?"

मैं तिब्बती हूँ
अलबत्ता मैं तिब्बत से नहीं आया,
कभी गया भी नहीं वहां,
तो भी सपना देखता हूँ
वहां मरने का।

मुंबई में एक तिब्बती

मुंबई में एक तिब्बती
को विदेशी नहीं समझा जाता।

यह एक चाइनीज़ ढाबे
में रसोइया होता है
लोग समझते वह चीनी है
बीजिंग से आया कोई भगौड़ा

वह परेल ब्रिज की छाँह में
स्वेटरें बेचता है गर्मियों में
लोग समझते हैं वह
कोई रिटायर हो चूका नेपाली बहादुर है।

मुंबई में एक तिब्बती
बम्बइया हिन्दी में गाली देता है
तनिक तिब्बती मिले लहज़े के साथ
और जब उसकी शब्द - क्षमता खतरे में पड़ती है
ज़ाहिर है वह तिब्बती बोलने लगता है,
ऐसे मौकों पर पारसी हंसने लगते हैं।

मुंबई में एक तिब्बती को
पसंद आता है मिड-डे उलटना
उसे पसंद है एफ एम. अलबत्ता वह नहीं करता
तिब्बती गाना सुन पाने की उम्मीद
वह एक लालबत्ती पर बस पकड़ता है
दौड़ती ट्रेन में घुसता है छलांग मारता
गुज़रता है एक लम्बी अंधेरी गली से
और जा लेटता है अपनी खोली में।

उसे गुस्सा आता है
जब लोग उस पर हँसते हैं
''चिंग-चौंग-पिंग-पौंग"

मुंबई में एक तिब्बती
अब थक चूका है
उसे थोड़ी नींद चाहिए और एक सपना,
11 बजे रात की विरार फास्ट में
वह चला जाता है हिमालय
सुबह 8:05 की फास्ट लोकल
उसे वापस ले आती है चर्चगेट
महानगर में - एक नए साम्राज्य में।

निर्वासन का घर

चू रही थी हमारी खपरैलों वाली छत
और चार दीवारें ढह जाने की धमकी दे रही थीं
लेकिन हमें बहुत जल्द लौट जाना था अपने घर.

हमने अपने घरों के बाहर
पपीते उगाये,
बगीचे में मिर्चें,
और बाड़ों के वास्ते चंगमा,
तब गौशालों की फूंसढंकी छत से लुढकते आए कद्दू -
नांदों से लडख़ड़ाते निकले बछड़े,
छत पर घास
फलियों में कल्ले फूटे
और बेलें दीवारों पर चढऩे लगीं,
खिड़की से होकर रेंगते आने लगे मनीप्लांट,
ऐसा लगता है हमारे घरों की जड़ें उग आयी हों।

बाड़ें अब बदल चुकी हैं जंगल में
अब मैं कैसे बताऊँ अपने बच्चों को
कि कहाँ से आये थे हम?

(चंगमा - बेंत जैसा लचीले तने वाला एक पेड़)

एक व्यक्तिगत टोह

लद्दाख से
बस निगाह भर दूर है तिब्बत।
उन्होंने कहा
दुमत्से की काली पहाड़ी से
यह तिब्बत है अब।
मैंने पहली बार देखा
अपने मुल्क तिब्बत को।
हड़बड़ी में छिपते-छिपाते
मैं टीले पर पहुँच गया।
मैंने मिट्टी को सूंघा,
ज़मीन को कुरेदा
सूखी हवा को सुना
और सुना बूढ़े जंगली सारसों को।
मुझे सीमा नज़र नहीं आई,
$कसम खा के कहता हूं कुछ भी
फर्क नहीं था वहाँ
मैं नहीं जानता
मैं वहाँ था या यहाँ
मुझे नहीं पता था
मैं वहाँ था या यहाँ।
लोग कहते हैं
क्यांग हर जाड़ों में आते हैं यहाँ।
लोग कहते हैं
क्यांग हर गर्मियों में जाते हैं वहाँ।

(क्यांग - तिब्बत और लद्दाख के उत्तरी मैदानों में पाए जाने वाले जंगली गधे)

पेद्रो की बांसुरी

पेद्रो, पेद्रो
क्या है तुम्हारी बांसुरी में?
क्या एक नन्हा बच्चा जिसकी माँ खो गयी है
और जो घूमता फिरता है
शहर के गीले पत्थरों पर अपने नंगे पाँव पटकता हुआ?

पेद्रो, पेद्रो
बताओ न क्या है तुम्हारी बांसुरी में?
क्या वह एक मुलायम कराह है
एक युवा लड़की की
सोलह की उम्र में गर्भवती, जिसे बाहर पेंक दिया गया घर से
जो अब रहती है एक पब्लिक पार्क में
शौचालयों के पीछे?

हैरत कर रहा हूँ
तुम फूंक मारते हो प्लास्टिक-पाइप के ठूंठ में
और वह जीवित हो उठता है किसी बांसुरी में
बिना आँख, कान या मुंह वाली
बजती हुई बांसुरी,
अभी रोती हुई, अबी गाती
सीटियाँ जो बदल जाती हैं नन्हीं सुई जैसे बाणों में
बाण जो चुभते हैं
उल्लुओं तक के कानों में चुभते हैं
उल्लू जिनके कानों तक में बाल होते हैं।

पेद्रो, पेद्रो
बताओ न क्या है तुम्हारी बांसुरी में?
क्या खिड़की के कब्जों में वह सीटी
एक युवा लड़की का रुदन है?
या उस नन्हे लड़के की साँसें
जो अब थक चुका है और सोया हुआ है
पुलिस स्टेशन में?

पेद्रो, पेद्रो
बताओ न क्या है तुम्हारी बांसुरी में?
बहुत बाद में निर्वासन के दौरान, मैं उसे अब भी देख सकत

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