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जनवरी 2013

गहन - गूढ उत्तर का संकुल पथ

महान जापानी कवि बाशो यात्रा वृत्त, अनुवाद - सुरेश सलिल

प्रस्तुत यात्रावृत्त जापानी कविता के पुराण-पुरुष — 'हाइकू' छंद-प्रकार के पुनर्संस्कर्ता और परिव्राजक-यात्री मात्सुओ बाशो (1644-1694) की कालजयी यात्रावृत्तांत कृति 'गहन-गूढ़ उत्तर का संकुल पथ' का एक अंश है। पेशे से कवि, आस्था में 'ज़ेन' और जीवन-शैली में परिव्राजक यात्री, बाशो ने अपने जीवन के अंतिम दस वर्ष उत्तर के दुर्गम पर्वतीय प्रांतरों की यात्रा करते हुए गुजारे। वे अपनी दैनिक ज़रूरत की वस्तुओं का थैला खुद ढोकर चलते थे और यात्राएं प्राय: पैदल पांवों — यदा-कदा टट्टू की सवारी ही करते थे। प्राय: यात्रा के दौरान उनका कोई कवि-शिष्य साथ हो लेता था, जो पूरी यात्रा साथ देने को प्रतिबद्घ नहीं होता। बीच में कहीं भी वह रुक जा सकता था। यात्रा के दौरान बाशो अपना टिकान किसी मंदिर की पांथशाला में अथवा मित्रों के यहां करते थे। उनके मेजबान कवि, धर्म-पुरोहित, छोटे-मोटे व्यवसायी-किसान, यहां तक कि चुंगी-नाकों के चौकीदार और समुद्रतटवर्ती मछुआरे भी, हुआ करते थे। उत्तर की, कई हजार मील लम्बी चार दुर्गम यात्राओं का समापन 1694 में हुआ। एकाध मास के अल्प विश्राम के बाद वे दक्षिण के अभियान पर निकल पड़े। और तभी 12 अक्टूबर 1694 को यात्रा के प्रथम चरण में ही, दक्षिण अभियान को स्थगित कर वे अनंत यात्रा पर निकल गये।
बाशो ने अपने यात्रावृत्त डायरी शैली में लिखे हैं। गद्य के बीच-बीच कविताओं का पुट देते हुए। कहीं-कहीं तो कई-कई पृष्ठों तक कविताएं ही कविताएं। कविताएं सिर्फ अपनी नहीं, सहयात्री शिष्य कवियों की भी, और प्रसंगानुकूल स्मरण हो आई किसी पूर्ववर्ती जापानी या चीनी कवि की भी। बाशो के यात्रावृत्त जापान गद्य साहित्य में ऊँची हैसियत रखते हैं। यह भी, कि बाशो, एक अविराम यात्री के रूप में, हमारे राहुल सांकृत्यायन और नागार्जुन के पूर्वज माने जा सकते हैं।
बाशो का जन्म जापान के इगा प्रांत के उएनो कस्बे में हुआ। यह क्योतो से दक्षिण-पूर्व में कोई 30 मील के फासले पर है। बाशो के पिता स्थानीय 'तोदो' सामंत घराने में एक नीची श्रेणी के समुराई (सैनिक) थे। उसी परिवार में बाशो का बचपन और जवानी बीती। वहीं उन्होंने कविता रचना शुरू किया। 25 वर्ष की उम्र में वे क्योतो चले गये और वहाँ कोई पांच वर्ष तक रहे। सन् 1672 में वे तब के 'इदो' और आज के तोक्यो शहर स्थानांतरित हो गये और वहीं सुमेदा नदी के तट पर, कुटी बनाकर अंत तक रहते रहे।
बाशो ने अपने पचास वर्षों के जीवन में, एक के बाद एक तीन कविनाम बदले। हुएने-काल में पहला कविनाम 'सोबो', क्योतो-काल में दूसरा कविनाम 'तोसेइ' और इदो-काल में सुमेदा नदी के किनारे रहने के दौरान 'बाशो'। यह तीसरा और अंतिम कविनाम ही जापानी साहित्य में उनकी अमर पहचान बना।
'बाशो' कविनाम का भी अपना एक रोचक इतिहास है। इदो का एक संपन्न व्यवसाई और कवि सम्पू, बाशो के घनिष्ठ प्रशंसकों में था। वह समय-समय पर उनकी आर्थिक सहायता भी करता रहता था। उसने सुमेदा नदी के निकट फुकागावा में उनके लिए एक कुटी निर्मित करा दी। उसी वर्ष शीतकाल में बाशो के एक शिष्य ने कहीं से केले का एक पौधा लाकर कुटी के बाहर रोप दिया। (जापानी में एक विशेष किस्म के केले को 'बाशो' कहते हैं।) यह कवि की पहचान की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण घटना थी। उसी क्षण से 'बाशो' (केला) के व्यक्तित्व का अभिन्न हिस्सा बन गया। 'सोबो', 'तोसेई' - अपने पिछले दोनों नामों को हाशिये पर खिसका कर अब वे 'बाशो' हो गये और अंत तक वही रहे।

गहन गूढ़ उत्तर का संकुल पथ

दिवस और मास शाश्वत यात्री हैं। वैसे ही व्यतीत होते वर्ष भी। वे, जो समय की मार से पराजित होकर धाराशायी होने तक सागर के एक छोर से दूसरे छोर तक नौका, या मैदानों में, पर्वतों पर, खाई-खंदकों में घोड़ा दौड़ाते रहते हैं, अपने जीवन का प्रत्येक क्षण यात्रा करते हुए व्यतीत करते हैं। अनेक पुराण पुरुषों ने भी यात्रारत रहते हुए मार्ग में अंतिम सांस छोड़ी। मैं स्वयं भ्रमण की उत्कट अभिलाषा के साथ लम्बी अवधि तक मेघों और हवाओं की गति पर मुग्ध रहा हूँ।
विगत शरत् के बीतते न बीतते मैं सागर का किनारा खूँद कर लौटा था। नया वर्ष शुरू होने से पूर्व सुमिदा नदी के किनारे के अपने टूटे-फूटे घर का जाला साफ करने का भी ठीक से समय नहीं निकाल पाया था, कि जैसे ही वसंत का कुहासा मैदान में ऊपर उठना शुरू हुआ, फिर बाहर निकल पडऩे और यथासमय शिराकावा का नाका पार करने को मन हुमकने लगा। मानो देवताओं ने मेरी आत्मा को अपनी मुट्ठी में कर लिया हो और नीचे की परत पलट कर ऊपर तक ला दी हो! लगा कि मार्ग के बिम्ब और कल्पनाएं हर कोने से मुझे टेर रहे हैं। लिहाजा निकम्मेपन के बीच घर में पड़े रहना मेरे लिए असम्भव था। तैयारी के दौरान, फटे-मसके पाजामे को सींते-गाँठते हुए, हैट में नया फीता बाँधते हुए और टाँगों में ताकत भरने के लिए 'मोक्सा'1 की मालिश करते हुए, मैं मात्सुशिया द्वीपों पर उगे पूर्णचंद्र के सपने देखता रहता। अंतत: अस्थायी टिकान के तौर पर साम्पू2 की कुटिया में स्थानांतरित होने के साथ मैंने अपना घर बेच दिया। फिर भी, पुराने घर की दहलीज पर मैंने आठ बंदो की एक श्रृंखलाबद्घ कविता लिखी और उसे काठ के एक खम्भे पर टाँग आया। उसका प्रारंभिक अंश इस प्रकार था -
इस दरवाजे के पीछे,
दब गया है अब जो ऊँची-घनी घास में,
मनाएगी एक अन्य पीढ़ी
त्योहार गुडिय़ों का।3
27 मार्च की भोर में, पौ फटे, मैंने पथ गहा। आसमान में अंधेरा अटका हुआ था और चाँद अब भी दिखाई दे रहा था, यद्यपि उसकी काया शनै: शनै: क्षीण होती जा रही थी। फुजी पहाड़ की अस्पष्ट छाया और उएनो-यानाका के चेरी के फूल अंतिम विदा दे रहे थे। बीती रात एकत्र हुए मित्र मेरी यात्रा के प्रथम कुछ मीलों तक साथ देने के लिए साथ-साथ नौका पर सवार हुए। फिर भी, सेंजू में हम जब नौका से उतरे, तो आगे के तीन हजार मीलों का ख्याल करके अकस्मात् मेरा दिल भर आया और आँखें इस प्रकार छलक उठीं कि बस्ती के घर और मित्रों के चेहरे साफ-साफ दिखाई देने बंद हो गये - सब कुछ एक अस्पष्ट झलक भर बन कर रह गये।
बीतता वसंत,
चिडिय़ाँ शोकाकुल,
रोती हुई मछलियाँ
भरी-भरी आँखों।
अपने प्रस्थान के स्मृति-गान के रूप में, इस कविता के साथ मैं अपनी यात्रा पर आगे बढ़ चला। किंतु चिरकालिक विचारों से मेरे डग बोझिल हो उठे। मेरे मित्र एक पंक्ति में खड़े थे और मेरी पीठ उन्हें जब तक नज़र आती रही, हाथ हिला-हिला कर वे मुझे विदा देते रहे।
सुदूर उत्तर के विलक्षण दृश्य देखने के उपरांत वापसी की सतत कामना करते हुए उस पूरे दिन मैं चलता रहा। किंतु इस संभावना पर भरोसा टिक नहीं पा रहा था, क्योंकि पता था कि गेनरोकु4 के दूसरे वर्ष में इस तरह एक लम्बी यात्रा पर निकलते हुए, ज्यादा ठंडे इलाकों में पहुँच कर, सिर पर और अधिक रूखे बाल ही संचित करूंगा। शाम के समय सोका गाँव पहुँचने पर, असबाब के बोझ से मेरे हड़ीले कंधे टीसने लगे थे। असबाब में, रात में बदन को गर्म रखने के लिए कागज़ी कोट था, स्नान के बाद पहनने के लिए सूती चो$गा था, बारिश से बचाव के न-कुछ-से साधन थे, लिखने-पढऩे की चीज़ें थीं और थे मित्रों द्वारा दिये गये उपहार। बेशक मैं हल्का रह कर यात्रा करना चाहता था, किंतु कुछ ऐसी खास चीज़ें लगातार साथ लगी चली आ रही थीं, जिन्हें व्यवहारिक कारणों से या भावनात्मक लगाव के चलते मैं फेंक नहीं सका।
मैं मुरो-नो-याशिमा देवस्थली के दर्शन करने गया। सहयात्री सोरा5 के अनुसार यह देवस्थली पुष्पित वृक्षो की देवी को समर्पित है, और उसकी एक और देवस्थली फुजी पहाड़ के अधोभाग में स्थित है। इस देवी को लेकर लोक में एक आख्यान भी प्रचलित है। कहते हैं, जब वह गर्भवती थी, तो उसके उदर में पल रहे बच्चे को लेकर उसके पति ने संदेह प्रकट किया, तो उसके ईश्वरीय स्वरूप को प्रमाणित करने के लिए उसने स्वयं को एक जलती हुई कोठरी में बंद कर लिया। इसीलिए उसके पुत्र का नाम अग्निजन्मा देव7 पड़ा और उसकी देवस्थली को 'मुरो-ना-याशिमा' कहा गया, जिसका शाब्दिक अर्थ है 'जलती हुई कोठरी'। उस देवस्थली की एक प्रथा थी कि कविगण, वहाँ जाने पर, ऊपर उठते धुएँ का स्तुतिगान करें, और सामान्यजन 'कोनोशिरो' नामक चित्तीदार मछली से परहेज करें। उस मछली से, जलने पर, बड़ी खराब गंध निकलती है।
30 मार्च की रात मैंने निक्को पर्वत की तलहटी में स्थित एक पांथशाला में बिताई। उस पांथशाला के आतिथेय ने अपना परिचय सत्यवादी गोज़ायमोन के रूप में दिया और कहा कि मैं उसकी पर्णशय्या पर निश्चिंत-मन सोऊँ, क्योंकि उसकी एकमात्र आकांक्षा अपने नाम को सार्थक सिद्घ करने की थी। मैंने सूक्ष्मतापूर्वक उसका अध्ययन किया और हठधर्मिता के स्तर पर उसे निश्छल-निष्कपट पाया — दुनियावी छल-छंद से निपट अनजान। लगा, मानो इस धुमंतू तीर्थयात्रा में मेरी सहायतार्थ स्वयं कृपालु बुद्घदेव ने एक मनुष्य का चोला धारण कर लिया हो। निश्चय ही, ऐसी संत-सुलभ निष्कपटता का अनादर नहीं होना चाहिए। यह उस पूर्णता के अत्यंत निकट पड़ती है, जिसका प्रतिपादन कन्फ्यूशस ने किया है।
अप्रैल मास के पहले दिन, निक्को पर्वत पर स्थित सबसे पावन देवस्थली को अपने श्रद्घासुमन अर्पित करने के उद्देश्य से, मैं उस पर्वत पर चढ़ा। इस पर्वत को पहले निको कहा जाता था। जब महान पुरोहित कूकाई8 ने उस पर यह देवस्थली निर्मित करायी, तो उसका नाम बदलकर निक्को कर दिया। निक्को का शाब्दिक अर्थ है - सूर्य की भास्वर रश्मियाँ। कूकाई सामथ्र्यवान भविष्यदृष्टा रहे होंगे, कि एक हजार वर्ष आगे का वर्तमान पढ़ सके, क्योंकि वर्तमान में यह पर्वत सर्वाधिक पावन-पवित्र देवस्थली का अधिष्ठान है और समस्त मनोकामनाएं पूरे करने वाली देवस्थली के रूप में इसकी मान्यता सम्पूर्ण देश में, सर्वजनों में, सूर्य की भास्वर रश्मियों की भांति प्रकाशित है। इस देवस्थली के महात्म्य को लेकर और कुछ कहना उसकी पावनता का अतिक्रमण ही होगा।
विस्मय से भर कर
देखा मैंने
ताज़ा पत्तियों को, हरी पत्तियों को
सूर्यातप में प्रफुल्लमना!
कुरोकामी पर्वत, कुहरे के बावजूद, दूर से दृष्टव्य था। अपने नाम के विपरीत, वह अपनी हिम-धवल छवि को अद्भुत रुप से प्रभासित कर रहा था। वैसे, उसके नाम का शाब्दिक अर्थ है 'काले देश'।
मुक्ति पाकर अपने केशों से
आया मैं कुरोकामी पर्वत पर,
धारण किये जिस दिन
स्वच्छ वस्त्र गरमियों के मौसम के।
        (सोरा)
मेरे सहयात्री का वास्तविक नाम कावाई सोगोरो है। सोरा उसका कवि नाम ठहरा। यह मेरे पड़ोस में रहता था और पानी लाने, जलावन जुटा देने जैसे नाना रकम कामों में मेरी सहायता करता रहता था। उसकी अभिलाषा थी कि मेरे साथ मात्सुशिया और किसागाता के दृश्यों का आनंद ले और घुमंतु यात्रा की कठिनाइयों में भी मेरा साथ दे। अत: ठीक मेरे प्रस्थान वाली सुबह सिर मुँडा कर, भ्रमणशील पुरोहितों वाला चोगा पहन कर, यहाँ तक कि सोगो के रुप में एक नये नाम के साथ वह यात्रा के लिए प्रस्तुत हो गया। उसके इस नये नाम का अर्थ है 'धार्मिक रूप में प्रबुद्घ'। अत: उसकी कविता में कुरोकामी पर्वत का वर्णन भर नहीं है। विशेषकर उसकी अंतिम दो पंक्तियाँ गहरा प्रभाव छोड़ती हैं। उनमें अपने लक्ष्य पर डटे रहने का उसका संकल्प व्यक्त हुआ है।
उस देवस्थली से कोई दो सौ गज़ ऊपर चढऩे पर मैं एक प्रपात पर आया, जो एक सँकरी पहाड़ी के एक गहवर से फूट रहा था और कई सौ फुट नीचे की बहुत लम्बी छलाँग लगाता हुआ एक गहरे हरे पोखर में गिर रहा था। प्रपात की चट्टानें पानी के तेज़ बहाव में घिस-घिस कर इस कदर कटावदार हो गई थीं, कि हम उसे पीछे से देख सकते थे, यद्यपि हम एक पथरीली गुफा में दुबके हुए थे। इसीलिए उसका एक उपनाम 'पीछे से देखो'9 पड़ गया था।
गुफा में कुछ पल की खामोशी
निहारा मैंने एक जलप्रपात,
ग्रीष्म के
प्रथम परिदर्शन के रुप में।
नासु प्रदेश के कुरोवाने कस्बे में मेरा एक मित्र रहता था। बीच में एक खूब लम्बा-चौड़ा, दूर-दूर तक फैला घास का जंगल। लम्बा चक्कर लगा कर घूम कर जाने के बजाय मैंने घास के जंगल के बीच से होकर जाने वाले अपेक्षाकृत छोटे रास्ते को पकडऩे का फैसला किया। चलते हुए, कुछ दूरी पर मुझे एक गाँव नज़र आया। किंतु उस गाँव तक पहुँच पाता, कि बारिश शुरु हो गई और अँधेरा घिरने लगा आखिरकार मुझे रात का टिकान उस जंगल में आबाद एकमात्र किसान के झोपड़े में करना पड़ा। अगली सुबह फिर आगे की मंज़िल। जब मैं ऊँची-ऊँची घास के बीच से धीरे-धीरे घिसट रहा था, रास्ते के किनारे एक घोड़ा नज़र आया, घास चरता हुआ। पास ही एक किसान हँसिया से घास काट रहा था। मैंने उससे अनुरोध किया कि वह अपना घोड़ा भाड़े पर मुझे दे दे। कुछ देर तक तो वह न-नुकुर करता रहा, लेकिन अंतत: मेरे अनुरोध पर पसीज कर उसने कहा, ''इस जंगल में सैकड़ों आड़े-बेड़े रास्ते हैं, तुम्हारे जैसा अजनबी उनमें आसानी से भटक सकता है। मेरे घोड़े को अपना रास्ता ठीक-ठीक मालूम है। जब वह आगे जाने से इन्कार कर दे, तो उसे वापस भेज देना।''
इस तरह वह घोड़ा भाड़े पर मुझे मिल गया और उस पर सवार होकर मैं आगे के लिए चल पड़ा। तभी देखा कि दो बच्चे दौड़ते हुए मेरे पीछे लगे हैं। उनमें एक लड़की थीं जिसका नाम 'कासाने' था। इस शब्द का अर्थ होता है 'नानारूप'। मैंने सोचा, इसका नाम कुछ विचित्र-सा, किंतु असाधारण रुप से खूबसूरत है!
अगर तेरा नाम कासाने,
माने, नानारुपा है,
कितना उपयुक्त है यह
किसी दुगुनी खिली गुलाबो के लिए भी!
        - सोरा रचित
थोड़ी देर में मैं एक छोटे गाँव में आ गया। जीन-काठी में एक छोटी-सी राशि बाँध कर मैंने घोड़े को वापस भेज दिया।
अंतत: मैं सकुशल कुरोबाने कस्बे पहुँच गया और अपने मित्र जोबोजी10 से भेंट की। उस दौरान वह अपने सामंत-मालिक की अनुपस्थिति में उसकी हवेली की देख-रेख कर रहा था। बिना किसी पूर्व-सूचना के अचानक मुझे अपने सामने पाकर वह खुशी से फूला न समाया। हम दोनों ने कई दिन - कई रातें खूब घुल-मिलकर बातें कीं — गप्पें लड़ाईं। उसके छोटे भाई तोसुई12 ने मुझसे वार्तालाप करने का कोई भी अवसर हाथ से जाने नहीं दिया। वह मुझे अपने घर ले गया और अपने संबंधियों-मित्रों से मेरा परिचय कराया।
एक दिन हमने नगर-परिसर का जायज़ा भी लिया और एक प्राचीन श्वान-आखेट-स्थल (dog shooting ground) के भग्नावशेष देखे। नगर-परिसर से और  भी आगे बढ़कर रानी तामामो13 की समाधि तथा विख्यात हाचीमान देवस्थली के दर्शनों की इच्छा लेकर हम घास के जंगल में भी दाखिल हुए। उक्त देवस्थली के बारे में प्रचलित है कि जब समुद्रतट छोड़ चुकी एक नौका पर लटकते एक अकेले पंखे पर निशाना साधने की चुनौती बहादुर तीरंदाज योइची14 के सम्मुख पेश की गई, तो उसने सहायता की याचना इसी देवस्थली के देवता से की थी। अँधेरा घिरने के बाद हम घर लौट आये।
कोम्योजी मंदिर ने मुझे उस सभाकक्ष में पधारने के लिये आमंत्रित किया था, जिसमें शुगेन पंथ15 के संस्थापक प्रतिस्थापित हैं। कहा जाता है कि उन्होंने अपने पंथ के सिद्घांतों का प्रचार करते हुए, काठ के खड़ाऊँ पहन कर पूरे देश का भ्रमण किया था।
भद्दर गर्मियों में, पर्वतों के बीच
सादर नवाया मैंने सिर
एक प्रतिमा के ऊँचे खड़ाउओं के सम्मुख
अपनी यात्रा के लिए आशिष माँगते हुए।
इस प्रदेश में उंगाजी नामक एक जैन मंदिर भी था। पुरोहित बुच्चो16 इस मंदिर  के पिछवाड़े, पहाड़ों में कभी एकांतवास करते थे। उन्होंने बताया था कि देवदार की लकड़ी के स्वयं बनाए काठ-कोयले से अपने आश्रम की चट्टान पर उन्होंने यह कविता लिखी थी :
घास-भरा आश्रम यह,
मुश्किल से, पाँच वर्गफुट से ऊपर,
खुशी-खुशी मैं इसे छोड़ देना चाहूंगा
बारिश के दिनों को छोड़कर।
मंदिर की दिशा में बढ़ते हुए, नवयुवकों की एक टोली मेरे साथ हो ली। रास्ते भर वे इतनी प्रसन्नतापूर्वक बातें करते रहे, कि पता ही नहीं चला मैं कब मंदिर पहुँच गया। मंदिर एक पर्वत की बगल में, घने देवदार और चीड़ के दर$ख्तों से पूरी तरह ढका हुआ था। काई टपकाते किनारों के बीच से, घाटी के ऊपर जाती एक पतली पगडंडी हमें, पुल के पार, मंदिर के द्वार तक ले गई। अप्रैल का महीना होने के बावजूद, हवा में अब भी ठरन शेष थी।
पुरोहित बुच्चो के आश्रम के अवशेष देखने के इरादे से मैं मंदिर के पिछवाड़े गया। वह एक विशाल चट्टान के मूलाधार का सहारा लिए खड़ी एक छोटी-सी झोपड़ी की शक्ल में था। मुझे लगा, मानो मैं पुरोहित गेन्मयो17 की कुटिया तथा पुरोहित होउन18 के आश्रम में खड़ा होऊँ। मैंने, तत्काल रची, यह कविता उस झोपड़ी की एक थून्ही पर लटका दी :
कठफोड़ों तक ने
नहीं डाली इस पर अपनी कृपा-दृष्टि,
यह नन्हीं झोपड़ी
खड़ी है, जो एक ग्रीष्म कानन में!
कुरोबाने के अपने मित्र से अवकाश लेकर, मैं सेस्शो सेकी (हत्यारी शिला) की दिशा में चल पड़ा। उसका यह नाम इसलिए पड़ा, कि जो भी परिंदा, तितली या कीट-पतिंगे जाने-अनजाने उसके निकट गये, उन्हें अपनी ज़िन्दगी से हाथ धोना पड़ा। मैं अपने मित्र द्वारा उपलब्ध कराये गये घोड़े पर सवार था। मार्गदर्शन के लिए एक किसान भी मेरे साथ पैदल-पाँव चल रहा था। उसने जब मुझसे एक कविता अपने लिए रचने का अनुरोध किया, तो मेरे ऊपर उसका प्रभाव एक प्रीतिकर विस्मय के रूप में हुआ।
मोड़ो अपने घोड़े का रुख
मैदान-पार की पगडंडियों की ओर,
सुन सकूँ ताकि मैं
पुकार किसी कोकिला की।
हत्यारी शिला एक गर्म चश्मे के निकट, पहाड़ के अँधेरे कोने में स्थित थी और उसके चारों ओर उसमें से रिसती विषैली गैस तैर रही थी। मरी हुई मधुमक्खियों, तितलियों तथा अन्य कीट-पतिंगों के ढेर के ढेर उसके फर्श पर लगे थे। इसलिए फर्श का रंग मुश्किल से ही पहचाना जा सकता था।
मैं वह भिंसा वृक्ष (willow tree) देखने भी गया, जिसका गुणगान, ''फैलाये साया अपना स्फटिक धवल सरिता पर'' पंक्ति के माध्यम से साइग्यो ने अपनी एक कविता में किया है। वह आशिनो ग्राम के निकट एक धान-खेत के किनारे खड़ा था। इस भिंसा वृक्ष को लेकर मेरे मन में वर्षों से उत्सुकता थी, क्योंकि इसकी चर्चा अनेक बार मैं इस प्रदेश के शासक से सुन चुका था। अब जाकर जीवन में पहली बार वह अवसर सुलभ हुआ, कि अपने टखनों को उसकी छाया में विश्राम दे सकूँ।
रोंपाई कर ली किशोरियों ने जब
धान-खेत की इक क्यारी की,
तब मैंने भिंसा की छाया से
बाहर आने की तैयारी की।
अनेक दिनों के एकाकी भ्रमण के बाद अंतत: मैं शिराकावा के नाके पर पहुँचा, जो उत्तरी क्षेत्रों के प्रवेश-पथ को चिन्हित करता है। वहाँ पहुँच कर पहली बार मुझे एक विशिष्ट प्रकार का संतुलन और आश्वस्ति भान अनुभव हुआ — एक प्रकार की पूर्ण निश्चिंतता। अत: एक प्रकार की सौम्य निर्लिप्तता के साथ मैंने उस प्राचीन यात्री के बारे में सोचा, जिसने घर को संवाद देने की प्रबल उत्कंठा के साथ इस द्वार को पार किया था। इस द्वार की गणना तीन सबसे बड़े जाँच-केंद्रों में होती है और अनेक कवियों ने, प्रत्येक ने अपनी एक स्वरचित कविता यहाँ छोड़ते हुए, इस द्वार को पार किया है। मैं स्वयं घने छायाकार वृक्षों के मध्य से, शरत् हवाओं की दूरस्थ ध्वनि सुनते और शरत् की रंगतों की झांकी का अवलोकन करते आगे बढ़ा। पथ के दोनों ओर भरपूर खिले हुए 'उनोहाना' के हजारों-हजार हिम-धवल पुष्प और वैसी ही श्वेत-धवल छाया बिखेरती बौर-लदी झड़बेरी की झाडिय़ां। पहली नर में लगा, मानो धरती प्रारम्भिक हिमपात से ढकी हुई हो। कियोसुके19 के विवरणों के अनुसार, कहते हैं, पुरातन यात्रियों ने अपनी सर्वोत्कृष्ट वेशभूषा में इस द्वार को पार किया था।
अलंकृत करते हुए केश अपने
'उनोहाना' के श्वेत पुष्पों से,
पार किया मैंने द्वार,
मेरी अद्वितीय उत्सवोचित वेशभूषा।
        - सोरा रचित
उत्तर की ओर बढ़ते हुए मैंने आबुकुमा नदी पार की और जिस पथ को पकड़ा, उसके वाम पाश्र्व में आहजु के उत्तुंग पर्वत शिखर थे और दक्षिण पाश्र्व में इवाकी, सोमा तथा मिहारु नाम वाले तीन ग्राम, जिन्हें निम्नस्थ पर्वतों की एक श्रृंखला हिताची व शिमोत्सुके जनपदों के ग्रामों से अलगाती थी। मार्ग में 'छाया सरोवर'20 पर मैं कुछ देर विरमा। मान्यता थी कि उसके तट पर जो भी व्यक्ति या वस्तु होती है, उसकी यथातथ्य, सही-सटीक परछाई उसमें प्रतिबिम्बित होती है। इसी कारण 'छाया सरोवर' उसका नाम प्रचलित हुआ। उस दिन आसमान बादलों से घिरा हुआ था। अत: मेघ-मेदुर भूरे आसमान की परछाई ही सरोवर के जल में प्रतिबिम्बित हो रही थी। डाक नगर सुकागावा में मैं कवि ताक्यू21 से भेंट करने गया और कुछेक दिन उन्हीं के घर पर उनके साथ बिताए। उन्होंने शिराकावा गेट की मेरी काव्य-संलिप्ति के बारे में जिज्ञासा की। बताना पड़ा कि आसपास के ग्रामांचल के कौतुकों और प्राचीन कवियों की स्मृतियों ने मुझे इतना आत्मसात कर रखा था, कि जितनी कविताएं मैं रचना चाहता रच  नहीं पाया। फिर भी यह खेदजनक था कि शिराकावा गेट से गुजरते हुए एक भी उल्लेखनीय कविता न रची जाए, अत: मैंने लिखा :
पहला काव्योचित जोखिम
जिससे होकर मैं आया -
धान-रोंपाई के गान थे
सुदूर उत्तर के।
इस कविता को प्रारंभिक बंद की भाँति उपयोग करते हुए, हमने श्रृंखलाबद्घ काव्य के तीन सर्ग (books) लिखे।
इस डाक नगर के बाह्यांचल में पाँगुर (chest nut) का एक विशाल वृक्ष था और उसके नीचे एक पुरोहित एकांतवास में रह रहा था। मैं जब उस वृक्ष के सम्मुख खड़ा था, तो मुझे महसूस हुआ, मानो मैं नितल पर्वतों के मध्य होऊँ, जहाँ कवि साइग्यो ने पांगुर के काष्ठफल चुने थे। मैंने थैले से एक कागज़ निकाला और लिखा :
''पाँगुर एक पवित्र वृक्ष है, क्योंकि पाँगुर के लिए चीनी भावचित्र (Ideo-graph) एक ऐसे वृक्ष का है, जो ठीक अधो-पश्चिम - पवित्र भूमि की दिशा —में स्थित है। पुरोहित ग्योकी22 के बारे में, कहा जाता है कि, वे इसके काष्ठ का प्रयोग अपने घर के मुख्य स्तंभाकार और छड़ी के लिए करते थे।
पाँगुर ओलती से सटा
भव्य, फूलों लदा
छूट जाता है अनदेखा
दुनियादार लोगों से।''
हिवाता नगर से होते हुए, जो कवि तोक्यू के निवास से लगभग पाँच मील के फासले पर है, मैं आसाका की प्रसिद्घ पहाडिय़ों में आया। पहाडिय़ाँ जनपथ से अधिक दूर नहीं थीं, और अनेक सरोवरों से छितराई हुई थीं। यह 'कात्सुमी' नाम की आइरिस की एक विशिष्ट प्रजाति का मौसम था, सो उसे देख पाने की ललक से मैंने एक के बाद एक सारे सरोवर छान मारे, मार्ग में मिलने वाले प्रत्येक व्यक्ति से पूछा कि उसके होने की सम्भावना कहाँ हो सकती है, लेकिन हैरत की बात कि उनमें से किसी ने उसका नाम तक न सुना था। और मैं उसकी झलक-भर पा पाता, कि इसके पहले ही सूर्य अस्ताचलगामी हुआ। निहोन्यात्सु में मैं पथ पार कर दक्षिणवर्ती हुआ, शीघ्रता में 'कुरोजुका' की प्राचीन गुफाएं देखीं और रात्रि-विश्राम के लिए फुकुशिमा में पड़ाव डाला।
अगली सुबह मैंने शिनोबु ग्राम का पथ पकड़ा। वहाँ कभी एक पत्थर की नक्काशीदार सतह पर छपाई-रँगाई करके एक विशेष प्रकार का कपड़ा 'शिनोबु-जुरी' तैयार किया जाता था। मैं उस पत्थर को देखना चाहता था। वहाँ पहुँचने पर पाया, कि वह एक छोटे-से गाँव के बीचोंबीच रखा है और आधा हिस्सा उका मीन में गड़ा हुआ है। एक बच्चे ने, जो स्वयमेव मेरे गाइड की भूमिका अदा करने लगा था, बताया  कि कभी यह पत्थर एक पहाड़ की चोटी पर हुआ करता था, किंतु इसे देखने आने वाले यात्री, मार्ग में पडऩे वाले खेतों में खड़ी फसल पैरों से रौंद कर इस तरह बरबाद कर डालते, कि आखिरकार आजिज़ आकर किसानों ने उसे वहां से ढकेल कर घाटी में गिरा दिया और आधा हिस्सा मिट्टी में दबा कर उल्टा खड़ा कर दिया। इस तरह उसका नक्काशीदार चेहरा नीचे ज़मीन में गड़ गया और निचला सिरा ऊपर है, जिसे आप देख रहे हैं। मैंने सोचा, कुल मिलाकर, पत्थर की यह दास्तान अविश्वसनीय नहीं है।
व्यस्त हाथ ये
धान रोंपती बालाओं के,
यादगार हैं, किसी रूप में,
उजड़ी-बिसरी रैंगरेज़ी के।

1.    एक वनौषधि (Artemisia moxa ), इसके सूखे पत्ते त्वचा पर बाँधे जाते हैं और सिंकाई की जाती है। जनसाधारण के विश्वासानुसार यह सभी रोगों पर प्रभावी है।
2.    साम्पू (1647-1773), इदो का एक धनी सौदागर, जो समय-समय पर कई रूपों में बाशो की आर्थिक सहायता करता रहता था। वह एक अच्छा कवि भी था।
3.    जापानी त्योहार 'हिना मात्सुरी' (गुडिय़ों का त्योहार) तीन मार्च को मनाया जाता है। यदाकदा उसे आडू के बौर का त्योहार, या सिर्फ 'कन्याओं का त्योहार' भी कहते हैं।
4.    ईस्वी सन् 1689
5.    सोरा (1649-1710), शिनानो (नागानो प्रशासनिक क्षेत्र) का निवासी। काशिमा देवस्थली की यात्रा में भी यह बाशो का सहयात्री था। उसकी पुस्तक 'जुइको की' में बाशो के यात्रावृत्तों में आये काल्पनिक पक्षों का गहन अध्ययन-विश्लेषण हुआ है।
6.    इस देवी का जापानी नाम को-नो-हाना साबुया हीमे तथा उसके पति का नाम निनिगी-नो-मिकोतो है। इसके विस्तृत विवरण जापानी पौराणिकी के संदर्भ ग्रंथ 'कोजिकी' में दृष्टव्य हैं।
7.    अग्निजन्मा देव का जापानी नाम 'होहोदेमी-नो-मिकोतो' है।
8.    कूकाई (774-835) को कोबो दाइशी के नाम से अधिक जाना जाता है। वे शिन्गोन पंथ के संस्थापक थे और उन्होंने कोयासान में मंदिरों का निर्माण कराया था। बाशो ने निक्को देवस्थली के साथ उनका नाम भ्रमवश जोड़ा है। निक्को देवस्थली का निर्माण वस्तुत: शोदो (737-817) ने कराया था।
9.     इस जलप्रताप का जापानी नाम 'उरामी-नो-ताकी' है।
10.    जोबोजी ताकाकात्सु (1658-1730) सामंत ओ•ोकी मासुत्सुने की सेवा में संलग्न एक ऊँचे दर्जे का सामुराई था।
11.    तोसुई (1662-1728), जोबोजी का कनिष्ठ भ्राता। उसका वास्तविक नाम कानोकोबाता तोयोआकी था। सोरा के अनुसार उसका कवि-नाम तोसुई के बजाय सुइतो था।
12.    श्वान-आखेट (इनु ओडमोना्) खेल की शुरुआत कायाकुरा काल के प्रारम्भ में, संभवत: तीरंदाजी के अभ्यास के लिए हुई थी। शीघ्र ही यह चलन से बाहर भी हो गया।
13.    सामान्य धारणा है कि रानी तामामो अपने वास्तविक रूप में एक लोमड़ी थी। उसकी गणना सम्राट कोनोए (1139-55) की प्रिय रानियों में होती थी। किंतु एक पुरोहित द्वारा उसके छद्म रूप पर संदेह प्रकट करने पर वह उत्तरी वनांचलों की ओर भाग गई और स्वयं को एक विषैली शिला (सेस्शो सेकी) में रूपांतरित कर लिया।
14.    नासु-नो योइची, मिनामोतो शासकों की सेवा में तैनात, एक मामूली समुराई था। सन् 1185 में याशिमा के युद्घ में अपनी सफल तीरंदाजी से वह पूरे देश का योद्घा नायक बन गया।
15.    शुगेन पंथ के संस्थापक एन-नो-ओत्सुनु का लोकप्रिय नाम एन-नो-ग्योजा था। वह 7-8 वीं शताब्दी का एक पुरोहित था।
16.    बुच्चो (1643-1715) कोम्पोंजी मंदिर का प्रधान पुरोहित था। बाशो ने उसी के मार्गदर्शन में, 1673-84 के मध्य, इदो के चोकेइजी मंदिर में •ोन सिद्घांतों का अभ्यास किया था।
17.    गेन्म्यो अथवा युवान मियावो (1228-95), नान-सुङ् राजवंश का एक चीनी पुरोहित। उसके स्वयं को 15 वर्ष तक एक गु$फा में बंद रखा और उसे नाम दिया — ''मृत्यु द्वार''।
18.    होउन अथवा फा-युन (466-529), लियाङ् राजवंश का एक चीनी पुरोहित। उसने अपना अधिकांश जीवन, एक ऊँची शिला पर स्थित, एक छोटी-सी झोपड़ी से प्रवचन देते हुए बिताया।
19.    फुजीवारा-नो-कियोसुके (1104-77), हेइयान काल का कवि और विद्वान।
20.    इस सरोवर का जापानी नाम 'कागे-नुमा' है।
21.    तोक्यू (1638-1715) डाकनगर सुकागावा का एक प्रभावशाली अधिकारी था।
22.    ग्योकी बुसात्सु (668-749), नारा काल का एक पुरोहित, जिसने अपना सारा जीवन सामान्य जनों की मुक्ति के लिए अर्पित कर दिया था।


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