निलिम कुमार की कविताएं

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    जनवरी 2013
श्रेणी असमिया / आठ कविताएं
संस्करण जनवरी 2013
लेखक का नाम निलिम कुमार, अनुवाद - पापोरी गोस्वामी





असमिया कवि नीलिम कुमार नई पीढ़ी के सबसे परिचित और उतने ही विवादास्पद रचनाकार के तौर पर जाने जाते हैं। शिल्प के स्तर पर उन्होंने अनूठे प्रयोग करके नई परंपरा डाली  है, साथ ही शब्दों और चिन्हों के स्तर पर भी वे अत्यधिक प्रयोगशील रहे हैं। उनकी कविताओं की विशेषता है मानवीय देह का बिंबों के रूप में अलग ढंग से प्रयोग। दैनंदिन जीवन से उपजा यथार्थ उनकी कविताओं में खूब देखने को मिलता है। असम के लोक समाज और साधारण जन की छवियों का प्रतीकों के रूप में उन्होंने बखूबी उपयोग किया है। यौन जीवन की दैहिक एवं मानसिक उपलब्धियों की बारीक अनुभूतियां उनकी कविताओं में विलक्षणता के साथ मौजूद हैं।
अपनी कविताओं के बारे में नीलिम कुमार कहते हैं कि मैं संघर्ष को भी आनंद की तरह देखता हूँ। जीवन की दुविधाओं और द्वंदों के बारे में उनका चिंतन वैचित्र्य रचता है। उनके मुताबिक एक तरफ ईश्वर और दूसरी ओर शैतान दोनों ही मेरी आत्मा की कीमत पूछ रहे हैं। उनका कहना है कि मैंने शब्दों को उनके अर्थों की सीमाओं से मुक्त कर दिया है।
नीलिम कुमार का जन्म 1961 में असम के बरपेटा जिले के पाठशाला गाँव में हुआ था। वे पेशे से डॉक्टर हैं। उनका पहला कविता संग्रह 1985 में प्रकाशित हुआ। उनकी कविताएं कई भाषाओं में अनूदित हो चुकी हैं। अब तक सात कविता संग्रह और दो उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं।


पापोरी गोस्वामी लगभग दो दशकों से असमिया, बांग्ला और हिंदी में परस्पर अनुवाद कर रही हैं। उनके द्वारा अनूदित अब तक दो उपन्यास और दो कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। संस्मरणों से संबंधित एक पुस्तक प्रकाशनाधीन है।

यात्रा

अँधेरा होने के बाद हम लोग लंगर डालकर
नाव पर बैठे थे
हमारी मुट्ठी में थी जर्जर पांडुलिपि
पंख फडफ़ड़ाती हुई उड़ गई थी सुरमई चिडिय़ा
हम सब बिना हिले-डुले बैठे थे
अँधेरे के साथ मिलकर ।
हथेली की रेखाओं में भविष्य ढूँढऩे के लिए
एक-दूसरे के हाथ पकड़े हुए थे
सूखे मरियल से हाथों को छूकर ही समझ गए थे
गिद्घों के झुंड अभी नीचे उतर आएँगे।
हमारे बीच बैठी एक औरत ने उसी समय जन्मा एक बच्चा
कोई खुशी से चिल्लाया था - ''यही सूर्य है"
कुछ लोग थकान में चिथड़े-चिथड़े सपनों के साथ
बड़बड़ा रहे थे
साँय-साँय हवा में किसी तरह सावधानी से
एक दिया जलाकर धीमी रोशनी में
बाहर झाँक रहा था मैं।
देखा-खून से लथपथ कई लोगों के
जीवन की पांडुलिपियाँ पानी में बह गई हैं।
आख़िरी बार दिये की दुर्बल रोशनी में
हम देख रहे थे एक दूसरे के चेहरे
गालों पर लुढ़कते आँसुओं को किसी तरह सँभालकर।
फिर पतवार उठा ली हमने
डरावनी खामोशी के बीच भी
पानी को चीरती हुई आवाज़ के साथ
आगे बढऩे लगी थी हमारी नाव
और फिर -
विध्वंस से बची एक हरी-भरी घाटी में
नीले झंडे उभरने लगे
हमारी आँखों के सामने

अतिथि

बिना कुछ पूछे ही
मेरे हृदय के दरवाज़े खोलकर वह अंदर आ गया
आते ही उसने प्रेम से सजा मेरा गुलदस्ता तोड़ दिया

कहाँ का मनहूस इंसान
सुबह ही आया था
खिलाया, पिलाया
शाम होने को आई मगर
अतिथि जाता ही नहीं
अब तो रात हो चुकी
मेरे ही बिस्तर पर गहरी नींद में
सोया है अतिथि

आधी रात को उसने
अपने हृदय से एक पोटली निकाली
और मेरे हाथ में रख दी
फिर अचानक जाने लगा ये कहते हुए
कि रात वाली गाड़ी से जाना है

उसके जाने के बाद मैंने पोटली खोलकर देखी
प्रेम से सजे मेरे गुलदस्ते की तरह
उसका हृदय भी खंडित था
कहाँ का अतिथि था
रात वाली गाड़ी से जाने कहाँ चला गया।

प्रेम पत्र

पेड़ के नीचे बैठकर
एकाग्र होकर लिख रहा था चिट्ठी
ईश्वर ने आकर पूछा - क्या लिख रहे हो।
मैंने कहा - प्रेम पत्र
ईश्वर दुखी हो गया
इसलिए मैं ले गया उसे
अपनी प्रेमिका के पास
ईश्वर को दिखाया मैंने
अपना प्रेम
ईश्वर फिर दुखी हो गया
उसने अरबी* का एक पत्ता तोड़ा
और उस पर लिखा हम दोनों का नाम
मैंने पूछा-
क्या लिख रहे हो तुम
उसने कहा-तुम दोनों का भाग्य।
* अरबी के चिकने पत्तों पर कुछ भी नहीं टिकता।

खूबसूरत औरतें

खूबसूरत औरतें सिटी बस से उतरती हैं
और फुटपाथ पर चलती हैं
खूबसूरत औरतें आती हैं तो शहर में
ग्यारह बार बज उठते हैं घंटे
शहर खोलकर रखता है अपनी सारी खिड़कियाँ
खूबसूरत लड़कियों को देखने के लिए

ऊन की दुकानों में खरीदारी के समय
वे चमक उठती हैं, एक तरह का ताप होता है उनमें
खूबसूरत औरतें कविताएं नहीं लिखतीं
हफ्ते में एक बार शैम्पू करती हैं $खूबसूरत औरतें
धूप में बैठकर कंघी करती हैं वे
हेमंत शेष नामक कोई कवि
उनके साथ मालिता* लिखता है
साग-सब्ज़ियाँ खूबसूरत औरतों के झोलों में
चढ़ जाना चाहती हैं
अपने आदमियों के लिए $खूबसूरत औरतें बनियान खरीदती हैं

फुटपाथ के किनारे खड़ी होकर गोलगपै खाती हैं
शाम से पहले घर लौटने के लिए वे व्यस्त हो उठती हैं।

भीड़ ठेलकर सिटी बस में चढ़ जाती हैं वे
और तब मुरझा जाता है शहर
शहर खूबसूरत औरतों के पीछे नहीं जा सकता
लेकिन जब चाहें, अपनी मर्ज़ी से
शहर को शिकार बना सकती हैं खूबसूरत औरतें।

* मालिता कविताओं का एक प्रकार है।

बारिश

उसका हृदय
ऊँचा पर्वत है -
मेघ बनकर मैं उसके पास जाता हूँ
स्पर्श करता हूँ

कभी-कभी उसके पथरीले वक्ष से टकराकर
मैं नीचे आ जाता हूँ
पहाड़, पेड़-पौधों और घरों को भिगोते हुए

लोक सोचते हैं-
बारिश आई है।



साथी

कहाँ जा रहे हो
कँधे पर मरी चिडिय़ाँ टाँगकर
कहाँ ले जा रहे हो?

मैं माँ के पास जा रहा हूँ
बारिश में चिडिय़ाँ मर गईं
ज़िन्दा करने जा रहा हूँ

कहाँ रहती है तुम्हारी माँ?

वह जो गिद्घ की तरह बैठा है पर्वत शिखर
उसके पार
हवा के घरौंदे और मेघों के झुंड को छोड़
आकाश के तारे
मरघट के गीत
और सिसकियों को पारकर
मिलता है एक सुरमई पोखर
वहीं -
एक कमलिनी पर बैठी है मेरी माँ
पहाड़ कैसे पार करोगे तुम?
हवा में दबकर मर जाओगे
मेघ तुम्हें द$फना देंगे
और तारे जला देंगे
मैं एक गीत बनकर जाऊँगा
पत्थरों के बीच से
पेड़-पौधों के पत्तों में कंपन पैदा करते हुए

क्या मुझे भी साथ ले चलोगे?
मैं भी तुम्हारी माँ को माँ कहूँगी
तुम्हारे गीत सुनते हुए अपने केश लहराऊँगी
बाहें पसारकर हृदय खोल दूँगी

तुम्हें साथ ले जाऊँगा तो माँ नारा•ा होगी
क्योंकि मेरी जाति ही है... निस्संग

फिर मैं एक चिडिय़ा बन जाऊँगी
बारिश मुझे मार देगी
मैं मरी हुई चिडिय़ा-
तुम्हारे कंधों पर चढ़कर जाऊँगी

तारा

वह तारा-
आकाश में अकेला घूमता था
और एक दिन अचानक
आ गया मेरे आँगन में
खरगोश की तरह कान खड़े करके
फुदक रहा था
मैं उसे उठा लाया

बहुत ज़िन्दादिल था वह
लेकिन ठंड में ठिठुर रहे थे उसके होठ।

मैंने अपनी पसलियों-हड्डियों के बीच
उसे सहेजकर रखा

और फिर-
कितने युगों तक मेरे पास ही रहा
लेकिन एक दिन मेरे आँगन में
एक और तारा टूटकर गिरा
वह दौड़ गया मेरे कलेजे का दरवाज़ा खोलकर
दोनों तारे एक दूसरे को सहलाने लगे
आँखों-आँखों में करने लगे बातें
और एक-दूसरे से लिपटकर कहीं चले गए
कहाँ गया मेरा लाड़ला तारा
सीने में रखने के लिए
अब कहाँ से लाऊँ तेज़पिया*।
*छिपकली की प्रजाति का एक जीव, जिसके बारे में मान्यता है कि वह दूर से ही रक्त पी जाता है।

आओ बैठें फुटपाथ पर ही

इस जन अरण्य में कहाँ बैठें बताओ
सूनसान कहीं नहीं है
पार्क में बैठ नहीं सकते
पानी के फव्वारे को देखकर
और खिले हुए फूल-
हमारी नज़रें खुद में कैद कर लेंगे
हम एक दूसरे को देख ही नहीं पाएंगे

कहाँ बैठें कहो, इस जन अरण्य में
वह देखो 'जलपरी'*
चढऩा है उसमें
ब्रम्हपुत्र का सीना चीरकर आगे बढ़ेगी वह
लहरों के साथ तुम झूलोगी
क्या मुझे भी झुलाओगी अपने झूले में
चारों तरफ सिर्फ पानी और पानी
और बीच में तुमहारे हृदय का झूला

क्या तुम तैर सकती हो पानी में
बंकिम के उपन्यास में पढ़ा था
एक प्रेमी जोड़ा बह गया था बरसात की गंगा में
मँझधार में डूबकर कह रहे थे-
यही हमारी शादी है
फिर वह लड़की तैरती हुई किनारे पहुंच गई थी

अगर मैं तैरकर आ भी जाऊं
तुम तो वापस न आ पाओगी
अगर तैर न सकी तो
लेकिन जानती हो
सूनापन वहीं रहता है मझँधार में
जहाँ तैरना नहीं आता है।
मैं वहाँ तक तुम्हें नहीं ले जा सकता
इससे अच्छा है कहीं बैठें इसी फुटपाथ पर
सबके सामने फुटपाथ को पीठ दिखाकर
हमारी पीठ के पीछे
हज़ारों पद-शब्द गुजरेंगे
हमारे सामने होगा राजमार्ग
सायकल, रिक्शा और मोटरों की कतारें
तुम ढूँढऩा अपना जीर्ण रिक्शा
जिसमें बैठकर हमने शहर की धूप का आनंद लिया था
प्रथम परिचय के दिन

आओ फुटपाथ में ही बैठें
देह से देह सटाकर
जैसे किसी सुनसान जगह पर हम बैठते
फुटपाथ पर बैठे हुए हमें देखकर शायद पूरा शहर
कानाफूसी करेगा हमारे आचरण के बारे में
या फिर -
शहर एक बार गंभीरता से सोचेगा
कि यहाँ शांति और निर्जनता की कमी है
अच्छा ही होगा न-
हम शहर को चिंतन का एक अवसर देंगे।
* जलपरी एक जलयान का नाम है, जो ब्रह्मपुत्र में चलता है।

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