वक्त के बेसमेंट और खिलता हुआ पीला गुलाब

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    जनवरी 2013
श्रेणी लम्बी कहानी
संस्करण जनवरी 2013
लेखक का नाम अल्पना मिश्र





अल्पना मिश्र ने अपनी पढ़ाई काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से पूरी की और वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। आपके दो कहानी संग्रह, 'छावनी में बेघर' और 'कब्र भी कैद और जंजीर भी' को पर्याप्त सराहना मिली है।




बिसेसरगंज में रिक्शे की सवारी

बहुत देर से रिक्शा जाम में फंसा था। जाम यहाँ पहले भी लगा करता था। पहले, मतलब मेरे बचपन के दिनों में। कभी कभार जब मैं यहाँ आई थी, ज्यादातर माँ के साथ। लेकिन तब के जाम और अब के जाम में फर्क आ गया था। तब बैलगाडिय़ाँ और उन पर लदे बोरों या नीचे सरका दिए गए बोरों से जगह बंद हो जाया करती थी। कभी कभी बोरे फट जाते, उनके भीतर की दुनिया बिखर जाती और बोरों का मालिक अपने नौकरों समेत अपना सामान बटोरने के लिए रास्ते की आवाजाही रूकवाने की कोशिश करता, पर अब अगल-बगल दुकानों और मोटर गाडिय़ों से जगह पट गयी थी। रिक्शा निकलना दूभर था। इधर मेरी मौसी का घर था। अब, इतने वर्षों बाद जब मैं इस शहर में पढऩे आ गयी तो एक बार फिर कभी-कभार इस तरफ आना पडऩे लगा था। माँ, मौसी के लिए कुछ सामान, पुरानी साडिय़ाँ, स्वेटर वगैरह या कभी थोड़े से रुपये दे आने को कहतीं, तब आना पड़ता। रुपये ज्यादा नहीं होते। पचास, सौ से दो सौ के बीच होते। माँ इसे ही दे आने पर जोर देतीं। मौसी इसे ही पा कर निहाल होतीं। ये रुपये उनकी लाइफ लाइन हैं, ऐसा वे नहीं कहतीं, केवल जतातीं। मैं कभी-कभार वाले इन रुपयों को दे आने में देरी करती। देरी करती नहीं देरी हो जाती। माँ को लगता था कि एक ही शहर की बात है। पर एक ही शहर की बात होते हुए भी रुपये  देने जाने भर में सारा दिन स्वाहा हो जाता था।
रिक्शा रेंग-रेंग कर आगे बढ़ता था। शहर का यह हिस्सा एक बड़े थोक मार्केट के लिए जाना जाता था। इसी से रिक्शों, ठेलों की, मोटर गाडिय़ों, बैलगाडिय़ों की, छोटी ट्रकों, लारियों आदि की भारी आवाजाही बनी रहती थी। अगल-बगल आकाश तक लदी लारियों के बोरों से गर्द उठती रहती। हल्दी, लाल मिर्च, बडिय़ाँ, चावल, गेहूँ... सबको अलग अलग और सम्मिलित रूप में पहचाना जा सकता था। सड़कें पतली थीं। तब भी यानी मेरे बचपन के समय भी। पता नहीं, बीसेक साल बाद ऐसी न रह जायें। क्या पता, कभी कोई बड़ी कम्पनी विदेश से चल कर आये और इस पूरे शहर के साथ साथ बिसेसरगंज के इस इलाके पर कब्जा कर ले और यहाँ की तंग गलियों में बने दो-तीन-पाँच तल्लों वाले मकानों को गिरा कर उनकी जगह साफ सुथरे चमकते मॉल खोल दे, फूड बाजार बना दे और हम जो ये तरह-तरह के मसालों की गंध से भरे छींकते जा रहे हैं, उसे भूल जाएं! उड़ती हुई धूल, मिट्टी, डीजल, पेट्रोल की गंध भी गंध न रहे, खुशबू में बदल जाए। अपने रह रह कर छींकने की तरह इनके ढेरों ढेर रंगों को भी भूल जाएं।...
भूल जाना एक सुकूनदेह पद नहीं था।
तभी ख्याल आया कि यह जगह कभी कुछ और कैसे हो सकती? सड़क पर चलती इन गायों का क्या होगा? कहाँ भेज दी जायेंगी ये? और अगल बगल के इन मकानों में ठूँस ठूंस कर भरे हुए ये लोग कहाँ रहने चले जायेंगे? अगल-बगल के ये पत्थरों से बने ऊँचे मकान अब पहले की तरह रहे भी नहीं। सब घरों में कोई न कोई दुकान खुल गयी है। न जाने कितने एस.टी.डी. बूथ उग आए हैं। पान तम्बाकू की दुकानें बेतहाशा बढ़ गयी हैं। कहीं-कहीं जरा सी जगह में एस.टी.डी. बूथ भी है और  फोटोस्टेट भी है और अंदर कम्प्यूटर टाइपिंग भी सिखा रहे हैं या कम्प्यूटर खोल के बैठे हैं, इंटरनेट कैफे चल रहा है। जगह इतनी नहीं है कि एक आदमी ठीक से बैठ जाए पर दुकानें सारी हैं। कहीं कहीं इन पटे हुए सामानों, गाडिय़ों वगैरह से छूट गयी जरा सी खाली जगह दिखती है। वहाँ पान की पीक, तम्बाकू के थक्के और बलगम भरा पड़ा है।
लगता था जितना बेचा जा रहा है उतना थूका भी जा रहा है!
मन ही मन यही सब सोच रही थी। एक मन होता था कि पैदल चल पडूं। इस एक घंटे में किनता तो आगे बढ़ गयी होती। मौसी का मकान पाँच तल्ले का था। कई गलियों से मुड़ते हुए वहाँ तक पहुँचना होता था। हर बार गली से गुजरते हुए सावधान होना पड़ता था। एक गली छूट जाने का मतलब था लम्बा भटकना या शायद जिंदगी भर भटकना। ऐसा लोग कहते थे। कौन भटका, कब-कब भटका? इसका कोई साफ हिसाब किसी के पास नहीं था। लेकिन गलियों में घुसते हुए थोड़ा डर जरूर लगता था। दोनों तरफ के ऊँचे घने मकान अगर जरा सा भी हिले तो लगता था कि संकरी सी तंग गालियों को ढँक लेंगे। इसलिए डर लगता था। सि डर के पीछे अपने लक्ष्य तक पहुँच जाने का साहस छिपा हुआ था। मौसी के घर पर यह प्रसिद्घ ज्ञान की तरह बिखरा हुआ था कि पुरानी फिल्मों में इन गलियों को खूब दिखाया गया है, ऐसे लोगों को, जो इन्हीं गलियों में भटक कर जिंदगी भर के लिए नरक में चले गए थे। खासकर लड़कियाँ। वेश्या में बदल गयी तमाम लड़कियाँ, जिनके माँ बाप का हाथ इन गलियों में छूट गया था या छुड़ा दिया गया था, यहीं भटकी थीं और अंतत: उन शातिर दिमागों के संपर्क में चली गयी थीं, जो उन्हें नरक की तरफ ले गए थे। हमें कुछ यकीन था, कुछ नहीं था। गलियाँ अपने पतलेपन से ज्यादा अंधेपन के कारण भयावह लगती थीं। वही कारण, जो मैंने अबी बताया कि दोनों तरफ के ऊँचे घने मकान, एक इंच भी जगह खाली नहीं। केवल आगे की तरफ खुलेंगे और पीछे की ओर। ऊँचे इतने की सूरज की रोशनी भीतर घुसने के लिए रोज उनसे लड़ाई करे। गलियाँ इन मकानों की कैद में थीं। इन मकानों से अलग उनका अपना कोई पानी, हवा या कीचड़ भी नहीं था। सब कुछ इन्हीं की बदौलत था।
मैं रिक्शे से उतर कर जैसे ही गली से मुड़ी, एक सुमंगला चिन्ह वाली गाय मेरे पीछे लग ली। वह दायें होती तो मैं बाँये होती। वह बाँये होती तो मैं दायें। गली इतनी पतली थी कि गाय के छू जाने से बचना मुश्किल लगता था। इस तरह इस संकरी जगह से बचते-बचाते मैं पाँचवी गली तक पहुँची। गाय भी पहुंची। मैं गाय से भरसक बचते हुए मौसी के मकान का दरवाजा खटखटाने लगी। गाय रंभायी। पता नहीं किसकी आवाज पर मौसी ने दरवाजा खोला। वे बहुत बूढ़ी लग रही थीं। पिछली बार से भी ज्यादा। चेहरे पर कुछ खालीपन बढ़ा था। शायद एक दो दाँत इधर और टूट गए थे। वे चौंकते हुए आह्लाद के साथ आगे बढ़ीं। मुझे लगा कि जैसे मुझे भेंटने बढ़ी हों, पर वे गाय को भेंटने लगीं — ''अरे रे रे रानी... लैह आइउ बिट्टो को। पहिचानत रह्यू का? जा, जा, घुम्मा अबहिन।''
गाय को छोड़ कर वे मेरी तरफ बढ़ीं और एकदम गाय वाले अंदाज में बोलीं —''अरे रे रे...बिट्टो, कइसे आइउ आज? चला, चला, बैठका में।''
उन्होंने प्रेम से मेरा हाथ पकड़ा और दरवाजे से जुड़ी सीढिय़ाँ धीरे-धीरे चढ़ते हुए बैठका में आयीं। मैं उनके पीछे उनके पकड़े हुए हाथ से कुछ कुछ दिक्कत के साथ चलते हुए आयी। गले उन्होंने फिर भी मुझे नहीं लगाया। वे मानती थीं कि पढ़ी लिखी लड़कियाँ अब क्या भेंटेंगी? कभी हम कह दें कि मौसी हम तो आपको भेंटना चाहते हैं तो गजब तरीके से शर्मा उठती थीं। गाल एकदम लाल हो उठते। इतना गहरा शर्माना मैंने उनमें ही देखा, वह भी लड़कियों के संग साथ।
''जीजी कुछ भेजी हैं?'' मौसी ने धीरे से पूछा।
मैंने सिर हिला दिया। मौसी उछाह से भर गयीं। वे इधर नाचती सी गयीं, फिर उधर नाचती सी गयीं, फिर पास आ कर बोलीं— ''जानत हउ बिट्टो, हलवाई अब नाहीं है मकान में। छोडि़ गए। एही बदे मिठाई बंद हुइ गई। किराया कुल इहै में पटाई जात रहा। घर में के मना किहल जाय? जे देखौ ते मिठाई तौलवा लै। एही बदे। जगहियो कम पड़त रही। अब मौसा जी जहिहैं तो तोताराम के हियां से समोसा लै अहिहैं।'' मौसी जब आह्लाद से भर उठतीं तो ठेठ भाषा में चली जातीं।
मैं मुस्करा पड़ी। इसमें मना करना या बोलना बेकार था। अचानक यकीन नहीं होता था कि हलवाई अब नहीं रहा। सदियों से रहता रहा था। कोई मेहमान आ जाए, तो कुछ सोचना नहीं होता था। मिठाइयाँ इसी हलवाई के घर में ही बना करती थीं। दुकान कहीं और थी। शायद बिसेसरगंज चौक पर। या शायद कहीं और। उनका 'कहीं और होना' ही मेरी जानकारी में था। पहले जब सबसे नीचे बने तल्ले में हलवाई किराये पर रहता था, तब, हमारे उस बचपन में, हमारी आँखों के सामने किसी भी तल्ले से एक टोकरी झुक कर झाँकने में नहीं आती थी। ज्यादा झुक कर झाँकने पर गिर जाने और फिर गिर कर मर जाने का खतरा था। खतरे से सब, सबको आगाह करते रहते थे। अचानक नीचे से कोई आवाज गूंजती थी और टोकरी धीरे-धीरे ऊपर खींची जाती थी। ऊपर आती टोकरी में गुलाब जामुन, चमचम, खीर कदम, ...वगैरह दिखाई पड़ते। कुएं से मिठाई खींचने का यह अद्भुत अनुभव था। लेकिन यह सबके वश का नहीं था। अभ्यस्त आदमी ही टोकरी सही तरीके से खींच पाता था। हम अभ्यस्त नहीं होते थे। टोकरी हमसे बीच में ही गड़बड़ा जायेगी, यह डर रहता था। अब टोकरी खींचने का वह अवसर हमेशा के लिए लुप्त हो गया था।
''हलवाई चला गया!'' मैंने दुखी हो कर कहा।
मौसी मेरे दुख में दुखी नहीं हुईं।
''बँटवारा होइ गवा न। गाजीपुर वाले भाईसाहब भी आइ के यहीं डट गये। लिटायर होइ गये न।'' उन्होंने मुझे दुखी न होने का तर्क दिया। मौसी उस पुरानी स्मृति में से इस बात के लिए कुछ छटपटा रही थीं कि मुझे कुछ खिला नहीं पा रही हैं। वे बार-बार मौसा जी को कोंच रही थीं कि उठें और जा कर कुछ कुछ ले आएं। लेकिन मौसा जी मेरे आने का कोई खास नोटिस नहीं ले रहे थे। वे उसी कमरे में एक कोने में पड़ी पुराने जमाने की आराम कुर्सी पर बैठे तम्बाकू बना रहे थे। मेरे पाँव छूने पर 'खुश रहा' कह कर फिर तम्बाकू बनाने लगे थे। तम्बाकू बनाते हुए वे एक ही स्थिति में देर तक रूके रह जाते, जैसे कि अँगूठे को हथेली पर रख कर उसे देखते ही रह जाते और भूल जाते कि तम्बाकू बनाना है। ऐसे ही कुछ देर में लोगों की उपस्थिति को भी भूल जाते। मौसा जी कुछ ही देर में मेरे आने को भूल गए थे। मौसी थीं कि भुला नहीं पा रही थीं।
''दामोदर जी रस्ते में भेंटाए होंगे?'' उन्होंने करूणामय उत्साह के साथ पूछा।
दामोदर जी उनके बड़े लड़के थे और उनके साथ मौसी की करुणा थी और अतिरिक्त स्नेह के कारण हमेशा एक उत्साह भी जुड़ा रहता था। इसी उत्साह के बल पर वे लगातार दामोदर जी का काम करने में लगी रहती थीं। दामोदर जी मेरी सबसे बड़ी बहन से भी चार साल बड़े थे। इस लिहाज से उनकी उम्र तीस-बत्तीस के आस पास थी। मैंने उन्हें एक अरसे से नहीं देखा था।
''कहाँ थे?'' मैंने हैरान होकर पूछा।
''शनि महराज के तेल चढ़ावै गए रहै। वहीं, मोड़वा पे।''
हाँ, मोड़ पर मैंने उन्हें देखा था। शायद वही थे। अब याद आया। जहाँ से मैं पहली गली में मुड़ी थी, वहाँ सड़क पर ही एक सरकारी नल था। नल के चारों तरफ सीमेंट का एक पतला घेरा बना था। उस गेरे एक सब तरफ काई जमी थी। काई ऐसे घेरे के अंदर भी कहीं-कहीं जमी थी। वहीं बगल में सिंदूर से पुते शनि देवता रखे थे। उसी नल के पास की दीवार पर एक तस्वीर भी किसी ने चिपकाई थी। तस्वीर बहुत धुंधली पड़ चुकी थी। मालूम नहीं होता था कि किसकी है? नल अगर खोलो तो पानी के छींटे जरूर शनि देव पर पड़ जायेंगे, ऐसा ख्याल किसी को आया होगा, जिसे आया होगा, उसने पॉलीथिन से शनि देवता को ढका होगा। शायद इससे भी ज्यादा उन्हें बरसात के जल से बचा ले जाने का ख्याल उसे रहा हो। जो भी हो, अब वह पॉलीथिन वहीं एक तरफ चिंगुड़ी मिगुड़ी पड़ी थी। उसका एक कोना अभी भी शनि महाराज के पास के पत्थर से दबा था। दुनिया भर का कूड़ा कचरा उड़-उड़ कर वहीं घेर के किनारे जमा हो गया था। तम्बाकू पाउच अपनी पूरी चमक के साथ वहाँ विराजमान थे। एक आधे घेरे के अंदर भी चले गए थे। थोड़ा सा आगे गाय का गोबर पड़ा था। वहीं घेरे के बाहर चप्पल उतार कर एक व्यक्ति, जिसकी घनी काली दाढ़ी थी, नल खोल कर मल-मल कर अपना पैर धो रहा था। झुक कर पैर धोने के कारण मैं उसका चेहरा नहीं देख पाई थी। लेकिन पैर के गौर वर्ण पर मेरा ध्यान गया था। शायद वही थे दामोदर जी। शायद पैरों की इस धुलाई के बाद वे शनि देव की तरफ झुके होंगे। मैं आगे बढ़ आई थी।
मैं दामोदर जी को याद करने की कोशिश में थी कि तभी एक दुबली पतली साँवली सी औरत दरवाजे के पास आकर खड़ी हो गयी। उसके हाथ में झाडू था। झाडू उसने वहीं दरवाजे के पास रख दिया और अपनी धोती में हाथ पोंछती अंदर चली आयी। अंदर आ कर मेरे पाँव के पास जमीन पर बैठ गयी।
''बच्ची कब आयीं?'' उसने पूछा।
''मुन्ना बो हैं।'' मौसी ने मेरे कुछ भी कहने से पहले कहा। मैं चौंक गयी। यही थीं मुन्ना बो! इन्हीं के लिए लड़ी गयी थी लड़ाई! ये इस इतने निरीह तरीके से खटिया के पाँवे पर टिक कर बैठी थीं! मैंने उन्हें पहले कभी नहीं देखा था। मेरी कल्पना में वे एक ऐसी सुन्दरी थीं, जिस पर मौसा जी के बड़े भाई के सबसे छोटे लड़के मुन्ना जी रीझ गए थे और जाति बाहर हो जाने का खतरा उठा कर भी उन्हें भगा ले गए थे। इस बात को भी लगभग दो साल हो गए होंगे। तब मैं अपने बचपन के दिनों में एक दो बार आने के बाद, इस शहर के लिए आयी ही थी।
मौसी ने मुन्ना बो को इशारे से बुलाया। वह खटिया के पाँव पर इस तरह टिक कर बैठी थी, जैसे जमीन में धँस कर बैठी हो।
''हे राम!'' कहते हुए बहुत ताकत लगा कर वह उठीं। यह एक दर्दनाक उठना था। उठ कर वह उस रसोई में गयीं, जो इसी बैठका की कुछ जगह घेर कर बनाई गयी थी। मौसी मेरे पास आ गयीं और रसोई से बरतन माँजने की आवाज आने लगी। रसोई में दरवाजा नहीं था। लग नहीं पाया था। अब शायद उसकी जरूरत भी महसूस नहीं की जा रही थी।
मौसा जी अपनी दुनिया में बैठे-बैठे उठे और उस बैठका की थोड़ी सी जगह में चहलकदमी करने लगे। चहलकदमी में उनका कोई कोई कदम एकदम रसोई के सामने या उसके भीतर पड़ जाता था। जगह इतनी नहीं थी कि कोई खुल कर चहलकदमी कर ले। मौसा जी जब रसोई की तरफ कदम बढ़ाते तो वहाँ से कुछ पानी जो इधर बह आता था, उनके पैर को भिगोने लगता। इससे वे झल्ला जाते।
''का हो मुन्ना बो, तनि पानी संभार के करा!'' वे गुस्सा कर कहते। बँटवारे में यही एक कमरा उनके हिस्से आया था। कभी बैठक के काम आता रहा होगा। अब इसी एक कमरे में कुछ घेर कर रसोई का काम चलता है, दूसरी तरफ कुछ घेर कर सोने का काम। कान्हा तिवारी अपने कसरत के लिए चार छ: ईंटा भी एक तरफ जमा किए रहते हैं। इससे बैठका की जगह सिकुड़ कर रह गयी है। उस पर से दो खाट उसमें पड़ी ही रहती है। एक पुश्तैनी आरामकुर्सी भी बँटवारे की देन है। कहते हैं कि मौसा जी उसके लिए अपने भाइयों से लड़ गए थे और सब कुछ कुर्बान कर के भी उसे पाना चाहते थे। अब मिल गयी तो उसी पर उनकी और दामोदर जी की दुनिया फैली रहती थी।
तो मुन्ना बो उनकी बात का कोई असर नहीं ले रही थीं। बिना आवाज के उनकी खटर पटर सुनाई पड़ रही थी। शायद उनका काम पूरा होने को था, क्योंकि मौसी उठीं और रसोई में चली गयीं। मैंने देखा वे रोटी पर गुड़ रखकर मुन्ना बो को दे रही थीं। मौसा जी इस बीच रसोई में झाँकने लगे थे। मुन्ना बो के लिए उनके सामने खाना मुश्किल था। वे साड़ी जरा सा सिर पर खींच कर रोटी आँचल में दबा कर एक तरफ खड़ी हो गयीं। मौसा जी के पलटते ही वे तीर की तरह निकलीं और रोटी आँचल में दबाए हुए जाने कहाँ चली गयीं।
''उपरा खाना न मिलल होई। ऐही बदे।'' मौसी ने फुसपुसा कर मुझसे कहा।
मेरी सारी कल्पना चकनाचूर हो गयी थी। मुझे हैरानी थी कि मुन्ना जी तो अब कुछ काम धंधा भी शुरू किए थे? फिर ये इस हालत में क्यों थीं?
''कहाँ चलत है दुकनिया? पहले चलत रही। अब तो ढेरन खुल गयी हैं।''
फोटोस्टेट की दुकान थी। उसी में मेज पर फोन रखकर एस.टी.डी. बूथ भी चलाया जा रहा था। शुरू में चला भी, पर अब तो हर हाथ में मोबाइल हो गया था। इस तरफ फोटोस्टेट कराने वाले भी कम थे।
''चाय तो पियबू?'' मौसी चाय ले आई थीं। फिर एकदम मेरे पास आकर उन्होंने लगभग फुसफुसाते हुए कहा — ''मुन्ना जी का कौनो ध्यान इन पे न है। खाली अपने मतलब बदे...।'' मौसी रुक गयीं। 'दुकान के बदे' वे कहना चाहती थीं। पर शब्द बदल ले गयीं। मौसा जी वापस अपनी जगह पर यानी उसी आराम कुर्सी पर बैठ गए थे और तम्बाकू मलते हुए किसी दूसरी दुनिया की तरफ निकल गए थे। तब मैंने झट से सौ रुपये निकाल कर मौसी के हाथ में रख दिया। मौसी ने मुड़ कर मौसा जी की ओर देखा और इस बात से आश्वस्त हो कर कि वे इस दुनिया में फिलहाल नहीं थे, रुपये झट से अपने ब्लाउज में खोंस लिए। तब दामोदर जी लौटे। बढ़ी हुई दाढ़ी मूंछ में ढँका ढँका चेहरा लिए। धोती पहने थे और बदन पर लाल अँगोछा डाले थे। बिना मेरे 'प्रणाम' का उच्चारण किए 'खुश रहा' बोल कर बैठ गए।
''भइया कोई दूसरा काम शुरू किए हैं?'' मैंने यह पूछा। माँ ने विशेष रूप से यह पूछ लेने को कहा था। दामोदर का काम छूटता लगता था। एकदम उनके पिता की तरह। आजिज आ कर उनके पिता ने हमेशा के लिए काम करना छोड़ दिया था। दामोदर जी अभी लगे हुए थे। ऐसा हम सब मानते थे।
''अब कौनो काम रहा ही नहीं। सब तरह का काम कर के हम देख लिए। अब इस दुनिया में हमारे लिए काम नहीं बचा है।'' बहुत तटस्थ भाव से दामोदर जी ने कहा।
''शनि देव जो करें। प्रसन्न होंगे तो कुछ होगा। अबकी कुछ पैसा इकट्ठा हुआ तो उन्हें अन्न वस्त्र दूंगा।'' कुछ रुक कर उन्होंने कहा।
''इनकर मन पूजा पाठ में रम गवा है बिट्टो।'' मौसी ने कुछ श्रद्घा भाव से कहा।
भइया ने कुछ और कहा था। उनके लिए अब इस दुनिया में काम नहीं रह गया था। तिस पर पैसा वे शनि देव के लिए इकट्ठा करना चाहते थे। वे छत्तीस प्रकार का काम कर चुके थे। जैसे जैसे काम का प्रकार बढ़ता गया था, उनका पूजा पाठ भी बढ़ता गया था। घंटो मगन हो कर वे हनुमान जी के आगे शीश नवाए खड़े रह सकते थे। माला फेरते घंटो बीत जाते थे। इस तरह दामोदर जी का प्रवेश उनके भाव लोक में बढ़ता गया था।

बैंड, बाजा, बारात

मुन्ना जी सीढिय़ों से उतर रहे थे और मैं सीढिय़ाँ चढ़ रही थी। तभी उनसे मेरी मुलाकात हुई थी। एकदम खड़ी चढ़ाई वाली ऊँची ऊँची सीढिय़ाँ थीं। दोनों तरफ बंद दीवार थी। ऐसा लगता था जैसे सुरंग में सीढिय़ाँ हों और वे जब बाहर खुलेंगी तो प्रकाश से सामना हो जाएगा। ऐसा लगने वाला प्रकाश तो सीढिय़ाँ चढ़ जाने पर भी नहीं मिलता था। लेकिन ऐसा भी नहीं था कि प्रकाश बिल्कुल नहीं था। हर मंजिल पर सीढिय़ों के साथ लगे छोटे से बारामदे और छोटे से आँगन से प्रकाश सीढिय़ों पर हल्का हल्का, कहीं कहीं गिरता था। आँगन कुँए की तरह गहरा था। उस तक धूप का चले आना आसान नहीं था। इन खड़ी और अँधेरी सीढिय़ों पर चढ़ते हुए आदमी सीढिय़ों को ज्यादा देखता था, उतरते हुए आदमी को कम। इसी में मुन्ना जी उतरते हुए रुक गए थे। उन्होंने सीटी बजा कर कोई धुन निकाली, फिर तमक कर बोले— ''का बिट्टो, तनी देख के चलौ।'' और आखिरी शब्द तक आते आते मेरा हाथ पकड़ कर मरोड़ दिया था। यह अचानक का आक्रमण था। इसलिए हाथ छुड़ा कर मैंने चिल्ला कर कहा— ''मुन्ना भइया!'' मुन्ना जी ने इस चिल्लाने की परवाह नहीं की और अपने पुराने लहजे में ही बोले— ''चुप! बड़की नाजुक बनी हैं!'' फिर वे उन्हीं भुतही, सीधी, ऊँची सीढिय़ों पर उतर कर अंतध्र्यान हो गए। मैं गुस्से में बॉह सहलाती सीढिय़ाँ चढऩे लगी। पछताते हुए भी कि इस एक क्षण में जरा सा चूक गयी नहीं तो इन्हीं सीढिय़ों पर ढकेल देती बच्चू को। पर क्षण बीत चुका था। पछतावा नहीं बीता था।
यह मुन्ना जी से मेरी दूसरी मुलाकात थी। पहली तब हुई थी, जब मौसी के बैठका में वे अचानक घुस आए थे— ''चाची, आज हम ऊपर न खायेंगे। मार डरिहैं सब हम्मे।'' वे नाराज थे। तभी पता चला था कि वे मौसा जी के सबसे बड़े भाई के सबसे छोटे लड़के हैं और उनकी ख्याति मुन्ना जी के नाम से है।
''मुन्ना जी हैं बच्ची, मुन्ना जी हैं।'' मौसी ने ऐसे बताया था मानो मुन्ना जी कोई महान व्यक्ति हों। लेकिन मुन्ना जी ने मुझे काटती हुई ऐसी नजरों से घूरा, जैसे मैं कोई खल पात्र हूँ और कहानी में अचानक घुस कर उन्हें इस गुस्से की मुद्रा और मैला कुचैला पैजामा पहने देख ली हूँ। इसके बाद में फौरन बाहर चले गए थे। बैठका से बाहर पतला छोटा सा बारामदा था, वही जो सीढिय़ों से जुड़ा था। उसी बारामदे में एत तिपाई खींच कर मुन्ना जी बैठ गए थे। तबी एक और शख्स का प्रवेश हुआ। वे मौसा जी के सबसे छोटे लड़के थे। कान्हा तिवारी। वे भी अपने में मगन से घुसे थे और मुझे देख कर जरा सा हिचकिचाए थे। फिर अपनी रौ में लौट आए थे। कुछ देर बाद उन्होंने एक छोटी सी पिस्तौल निकाल कर मेरे सामने खाट पर रख दी।
''अच्छा तो आजकल ये कर रहे हैं?'' यह मैंने अचरज से पूछा। वे उत्साहित हो उठे।
''देसी कट्टा। किसी का काम किए रहे। उसी से लिए। रहेगा तो सौ काम करेंगे। सुनौ मम्मी, तुहूँ सुनौ! एक तरफ पिस्तौल रखा, दूसरी तरफ रुपया। तेरह सौ रुपये की बात थी। मैंने पिस्तौल उठा ली। तेरह सौ रुपये में पिस्तौल कहाँ मिली?''
मैं विस्मय से उन्हें देख रही थी। नाटे कद के हैं। कहते हैं कि बड़े छुटपन से ईंटे उठा उठा कर कसरत करने लग गए थे तो इनकी ऊँचाई रूक गयी। पता नहीं इसमें कितना सच था।
''पैसा उठउता तो ज्यादे अच्छा रहत। देखत नाहीं हउवा अपने बाप के! कत्थू करम के नाहीं रहि गए।'' मौसी ने जरा सा गर्व मिले दुख से कहा।
''क्या मम्मी, तुहूँ! पैसा कै दिन चलत? हाथ चली सालों साल। तेरह सौ रुपया का मलाल जिन करा। लावा, हमहू बदे चाय लावा।''
मौसी ने एक कप और चाय छानी लेकिन उनके चेहरे से तेरह सौ निकल जाने का दुख धुला नहीं।
''क्या काम करवाया था?''
''अरे बिट्टो बहिन जी, उ क्या था कि एक आदमी का माल फँसा था, साला दे नहीं रहा था। गए चार जने ले के, पिल पड़े। निकलवाया। बात चार हजार से चल के तेरह सौ पे टूटी। बकिर साले ने बंदूक रख दी। तेरह सौ लो चाहे बंदूक लो।''
''का दुनाली बंदूकौ रखी?'' मौसी ने बीच में टोक कर पूछा।
''अरे मम्मी, समझा करौ। इहै, तमंचा। तमंचा की बात करत हईं।''
''चला एक ठो काम तो पकड़ला।'' अचानक कहीं दूर से आती हुई सी मौसा जी की आवाज सुनाई पड़ी। तो क्या इतनी देर से मौसा जी सब सुन रहे थे? वे किसी दूसरी दुनिया में जा कर भी इस दुनिया के सिगनल पकड़ रहे थे!
''जयगोबिंद खिला रहे हैं?'' अचानक कान्हा तिवारी ने मुन्ना जी को आवाज दी और मेरी तरफ मुखातिब हो कर बोले — ''मुन्ना जी दुकान खोले हैं। ऐही बदे।''
''मिठाई की?'' मैंने चौंक कर पूछा।
''नहीं रे, मोबाइल रिपेयरिंग।''
''इसी से बौखलाए रहते हैं।'' मौसा जी ने पुन: सिगनल कैच किया।
''अच्छा! बधाई भइया!'' मैंने तत्काल बधाई कह दिया।
''क्या करे बहिन जी सब्बन पीछे पड़े हैं हमारे। उपरा मार हुई है। महाभारत मचा है सुबहिहैं से।'' दहाड़ते हुए से मुन्ना जी उठे और अपने बौखलाने का कारण स्पष्ट करने अंदर चले आए। उस समय वे भूल गए कि मैला कुचैला पैजामा पहने हैं।
''ऐसी मुसीबत में फँस गए हैं कि क्या कहें? तुम बताओ, अब हम कमाने लगे हैं, तब कुछ निर्णय कर सकते हैं कि नहीं?'' वे समझाने की मुद्रा में बैठ गए। तब उनका ध्यान तमंचा पर पड़ा। आह्लादकारी सिहरन से भर कर उन्होंने तमंचा को छूआ और आँखों में प्रशंसा भर कर कहा— ''हूँ... तो गुरु!'' उनके छू चुकने के बाद उसी  प्रशंसा के भाव से कान्हा तिवारी ने तमंचा उठा कर अपनी बुशर्ट के भीतर डाल लिया।
''तो बिट्टो बहिन जी, आपकी जानकारी के लिए बता दें कि आज मुन्ना जी खुद ही महाभारत खड़ा किए। क्या हुआ कि सुबहिहैं मतस्य कन्या को ले कर दिखावै आ गए। केहू सहन करी हियां? बतावा?''

''मतलब?'' मैं हैरान हुई।
''मने कि प्रेम विवाह की तैयारी और क्या?''
''तुम इनवरसीटी में पढ़ती हो बिट्टो, बताओ कि हम कैसे गलत कह रहे हैं? आज के जमाने में कौन मानता है यह सब?'' मुन्ना जी ने मुझसे समर्थन की इच्छा से कहा। मुन्ना जी की यह बात मुझे भीतर तक छू गयी। कहीं कुछ बहुत तरल मेरे भीतर उमडऩे लगा। यह बीते दिनों में देखे गए स्वप्न की तरह था। मैं बहुत बहुत सहमत हो आयी। कहीं मैं मुन्ना जी की हाँ में हाँ न मिला दूं, मौसी अपने रसोई के चौखटे से दौड़ कर उठीं।
''कहारिन है बिट्टो।? समझाऔ बच के रहें। अब तक तिवारी खानदान में कोई कहारिन न लाया है। लड़कियाँ मर गई हैं क्या बाभनों में? हजार लड़कियाँ हैं, एक गयी तो सौ मिलिहैं। बोलौ!''
मौसी क्या कह रही थीं? एक जाएगी तो सौ मिलेगी, सामान हैं क्या लड़कियाँ? और प्रेम का कोई अर्थ नहीं है? इस बात पर मैं मुन्ना जी की तरफ थी। 'प्रेम न देखे जात कुजात' मैंने धीरे से कहा। मौसी भड़क गयीं— ''बिगड़ रही हौ बिट्टो तुमहूं। जीजी से कहब हियां न पढ़ावें। यही सीखत हईं हियां रह कर!''
''असल बात तो इ है कि दुकनिया ओके बाप की है। वही में किराये पे दुकान खोले हैं। नजर दुकनिया पे है कि मेहरारू पे?'' मौसा जी उठ कर खड़े हो गए। दीवार के मुक्के से अपनी चुनौटी की डिबिया निकालने लगे।
''कुच्छो बोल जाते हैं।'' गुस्सा कर मुन्ना जी ने कहा।
तो यह मेरी पहली मुलाकात थी मुन्ना जी से। इसी के बहुत दिन बाद मुन्ना जी सीढिय़ों पर चढ़ते उतरते टकराए थे। मैं ऊपर पहुँची तो पता चला कि कान्हा और मौसी नहीं हैं। दामोदर जी एक कौने में पड़ी बँटवारे में मिली पुराने जमाने की आराम कुर्सी पर बैठे माला फेर रहे थे। मौसा जी खिड़की के पास खड़े हो कर चुनौटी से चूने का आखिरी अंश भी पोंछ डालने पर लगे थे। मैंने दोनों को प्रणाम किया तो दोनों ने एकदम एक भाव से कहा- ''हाँ, हाँ'' और कहीं अनंत में डूब गए। यह रविवार की सुबह का समय था। मैं ऐसे ही किसी छुट्टी के दिन आ पाती थी। तभी मौसी ऊपर के किसी तल्ले से उतरती आईं और मुझे पुचकार कर पूछने लगीं कि कब आयी? घर में सब कैसा है? आदि आदि। फिर खुश हो कर दामोदर जी से बोलीं— ''तनि टोकरी लटकावौ!'' लेकिन दामोदर जी अपने अनंत जगत से नहीं लौटे।
''सब लोग टोकरी लटका लटका के अपने अपने घर में मिठाई ले लेते हैं। हमारे यहाँ कोई आ जाए तब भी नहीं हो पाता। नालायक हैं न सब। किराए का हमारे हिस्से क्या आता है। मिठाई भी नहीं।'' इस भाव को व्यक्त करती मौसी खुद ही टोकरी लटकाने चली गयी। इतने में ऊपर से मुन्ना जी की छोटी बहन इठलाती हुई आयी और दामोदर जी के सामने खड़े होकर कहने लगी—''भइया, कहीं मुन्ना जी को देखे हैं? मम्मी परेशान हैं। कल से ही उनका पता नहीं।'' उसने झुंझला कर दुबारा दोहराया लेकिन तब भी दामोदर जी अपनी अनंत लोक की यात्रा से पृथ्वी पर नहीं आ सके। तब गुस्सा कर उसने कहा - ''सधुआ गए हैं तो घर में किस लिए पड़े हैं? सबका मूड़ खराब करेंगे, बस!''
मैं उसकी बात सुन कर चकरा गयी। बस अभी अभी तो मुन्ना जी मुझसे सीढिय़ों पर टकराए थे।
''अभी तो मुझे सीढिय़ों पर मिले थे।'' मैंने हैरानी से कहा।
''अभी? वो कैसे? बप्पा रे! अब समझी मने कि अबहिहैं ये चिट्ठा डाल के गए हैं।''
''कैसी चिट्ठी?''
''अरे वही,जो लोग घर छोड़ के जाते समय लिखते हैं। वही। मैं समझ गयी सामान लेने आए होंगे''।  उसने इतनी लापरवाही से कहा कि लगा ही नहीं कि उसकी माँ चिंतित हैं या इस बात में चिंता का कोई तत्व हो सकता है!
''लेकिन हाथ में सामान तो नहीं था।'' मैंने संशोधित करने की कोशिश की।
''रहा होगा। कोई कीमती छोटा सामान होगा, तुम्हें पता नहीं चला होगा।'' उसने तटस्थ हो कर कहा।
मुझे और भी हैरानी हुई। घर छोड़ के जाने वाला आदमी इस तरह सीटी बजाते, दूसरों का हाथ मरोड़ते जाता है क्या? मुन्ना जी ऐसे ही गए थे।
''कहत रहे न कि कुछ न कुछ सुराग होई जरूर।'' मौसी ने उत्साह से कहा। उनका कहा सच निकला था।
''चिट्ठी में क्या लिखे हैं?''
''वही, जो रोज ब़क्कत रहे।'' गुडिय़ा ने बिना दुख के कहा।
''लौट आएंगे दो चार रोज में।'' दामोदर जी ने हाथ की माला फेरते हुए एकदम शांति से कहा।
इतने में आंधी तूफान की तरह कान्हा तिवारी ऊपर के किसी तल्ले से उतरते आए और उसी पतले से बारामदे में पहुंच कर, कमर पर हाथ रख कर चिल्लाए— ''मुन्ना जी तो लै गए बैंड, बाजा, बारात!'' उनके चिल्लाने में उछाह था। उनके पीछे पीछे उसी तेजी से सात आठ आदमी उतरे।
''ऐ गिरधारी!'' उन लोगों ने मौसा जी का नाम ले कर पुकारा।
''चलो सबन। नाहीं तो गजब होइ जहिहैं।'' उसमें कुछ लोग धोती कुर्ता पहने थे और एक दो लौग पैंट शर्ट पहने थे। जो सबसे पीछे उतरे वे पैजामा कुर्ता डाले थे। उनके पीछे घर के कुछ जवान लड़के उतरे। उनमें से कितने ही लड़कों को मैं पहली बार देख रही थी। ये सब लोग मौसा जी के भाई और उनके परिवार के लोग थे जो मुन्ना जी को गजब कर डालने से रोकने के लिए निकल पड़े थे।
मौसा जी ने पैंट बुशर्ट पहनी थी और कंधे पर एक लाल बनारसी अंगोछा डाले थे। बड़ी देर से चुनौटी से चूना निकाल रहे थे। एकदम से हरकत में आ गए। लहक कर पीछे भागे। दामोदर जी एकदम से उठे और दरवाजे तक जा कर फटी आँखों से खड़े खड़े पिता की तेजी को देखते रह गए।

खामोशी थी, आवाज का किरदार था

माँ को फॉलो करना मुश्किल काम था। पिता जी को फॉलो करना आसान था। पिता जी फक्कड़ई करते थे। शुरू में वे किसी दफ्तर में क्लर्क थे, लोग यह भूल चुके थे। उनके घर का मुकदमा कई पीढिय़ों से चल रहा था। जिनके साथ मुकदमा चल रहा था, उनसे कभी आमना सामना होने पर लड़ाई भी होती रहती थी। वे सुलह समझौते की बजाय लडऩे के विकल्प की तरफ चले जाते थे। झगड़ा फौजदारी तक चला जाता था। पुलिस, दरोगा से ले कर कोर्ट कचहरी सब होता रहता था। इस सब में पिता जी अपनी नौकरी कई बार खो चुके थे। किसी के लिए भी यह याद रखने लायक बात नहीं कि वे अब तक कितनी बार नौकरी का खोना पाना कर चुके थे। हर बार एक नई नौकरी के साथ जीवन शुरू करते। संकल्प धरते कि सब एकदम ठीक चलायेंगे, लेकिन अधराह में ही कुछ न कुछ गड़बड़ा जाता। बार बार नौकरी खोने और दुबारा पाने के बीच का अंतराल कैसा होता था, इसे माँ जानती रही होंगी। शायद इसीलिए घर के बजट में बहुत ज्यादा कटौती करती रहतीं। सब्जी में इतना पानी डालतीं कि दोनों वक्त पानी से रोटी खाई जा सके। सब्जी का पानी पौष्टिक पानी था, यह माँ ने सब बच्चों को समझा दिया था। बचत की भावना इस हद तक कूट कूट कर भरी थी कि अगर रुटीन से हट कर कहीं खर्च हो जाता तो बड़ी गिल्ट महसूस होती। एक बार मैंने हाईस्कूल की परीक्षा देने के बाद कुछ सहेलियों के साथ एक ग्रुप फोटो खिंचवाया था। फोटो की एक एक कॉपी सबने ली थी। मेरा भी बड़ा मन था। मैंने भी एक कॉपी ले ली। इस एक कॉपी लेने के पैसे लगे थे। माँ ने तब पैसे जिस भाव से निकाल कर दिये थे, वह कांटेदार अहसास आज तक मुझे चुभता है। लेकिन अब वे पैसे लौटा देना बेकार था। लौटाने से उनके रुक जाने या माँ के खजाने को बढ़ा देने की गुंजाइश अब नहीं रह गयी थी। बहुत संभव था कि वे तुरंत खर्च हो जाते। तिस पर बड़ी बात यह थी कि उन्हें इसकी याद भी नहीं थी कि उन्होंने कोई गिल्ट हमारे भीतर डाल दिया था, जिससे मुक्ति का मार्ग हम तलाश रहे थे।
लड़कियों की पढ़ाई पर माँ का कोई विश्वास नहीं रह गया था। वे पढ़ी लिखी थीं और यह उनके अपने जीवन अनुभव से निकल कर आया विचार था। पढ़ाई के नाम पर वे बड़े धैर्य के साथ कहतीं— ''पढ़ कर क्या होगा? मैं पढ़ कर क्या कर रही हूँ? और बेहतर बरतन माँजोगी? और बेहतर घर ठीक करोगी? सिलाई बुनाई कर लोगी? सोडा सर्फ का अंतर जान जाओगी? इतने के लिए ऊँची पढ़ाई की क्या जरूरत? मन करता है कि अपनी डिग्री चूल्हे में जला दूं। किसी काम की नहीं।'' यह माँ का सोचना था। हमारा सोचना नहीं था। उनका मन फटा हुआ था। यह हम उनके बार बार कहने से जान गए थे। वे अपने गाँव की पहली ग्रेजुएट लड़की थीं। गाँव में इस बात का अभी भी नाम था। लेकिन इस नाम का उन्हें कोई फायदा नहीं हुआ था। हर बात पर पिता जी कह देते थे— ''क्या फायदा पढ़ी लिखी लड़की से शादी करने का?'' पिता जी पढ़ी लिखी लड़की से शादी का पूरा फायदा लेना चाहते थे। इसलिए उन्हें नौकरी पकड़ लेने पर जोर देते थे। माँ ने सोचा हेगा कि इनका कौन भरोसा? कब न नौकरी छोड़ बैठें! इसलिए उन्हें अपनी इन्हीं डिग्रियों का कुछ फायदा ले लेना चाहिए। लेकिन उनके हिस्से कोई बड़ी और ताकतवर नौकरी नहीं आ पाई। सरकारी प्राइमरी पाठशाला की नौकरी मिली। वे पढ़ाई के साथ कुछ बड़ा जोड़ कर देखती थीं। खासकर अपनी पढ़ाई के साथ। क्योंकि वे अपने गाँव की पहली ग्रेजुएट थीं और पता नहीं कोई उनसे यह अपेक्षा रखता था कि नहीं, पर वे अपने आप से, समाज में खास तरह के पोजीशन की अपेक्षा रखती थीं। मगर अपने गांव की पहली ग्रेजुएट होने के बावजूद उन्हें यह पोजीशन वाला पद नहीं मिला था। इसलिए इस मिल गयी नौकरी में उनका मन नहीं लगता था। यह उन्हें अपनी पढ़ाई के लिहाज से तुच्छ लगती थी। ऊपर से इस नौकरी के मिल जाने के बाद भी घर में उनकी हैसियत एकदम से बढ़ती हुई नहीं दिख रही थी। पैसा भी उनके हाथ में नहीं रह पाता था। हरदम हिसाब देने की तलवार लटका करती थी। अपने ही पैसे छिपा लेने का उन्हें गहरा क्षोभ होता रहता था। छिपा कर पचास सौ रुपये मौसी को भेज देने का क्षोभ भी गहरा था। कमा कर लाने पर भी घर का खर्च ठीक से न चल पाने का भी क्षोभ गहरा था। वे इस गहराई में तैरती अपनी पढ़ाई और नौकरी दोनों से क्षुब्ध बनी रहती थीं।
अब उन्हें यह कौन समझाये कि उनका वक्त था तो उन्हें आसानी से उनके ग्रेजुएट होने का फायदा मिल गया था। एक अदद सरकारी नौकरी मिली थी। आज वह भी कितना मुश्किल हुआ था। अव्वल तो खाली ग्रेजुएट को कोई किसी लायक समझता ही न था। पढ़ाने लायक तो बिल्कुल नहीं। चाहे प्रायमरी के बच्चों को पढ़ाना हो! इसी नौकरी के लिए लोग रुपये पैसे ले कर खड़े थे, तब भी उन्हें किसी ताकतवर सोर्स की दरकार बनी हुई थी। इसी नौकरी के लिए मेरी बड़ी बहन हाथ पाँव मार रही थीं। मैं इसी को पा लेने को विकल थी। और मेरी माँ थीं कि इसे ही हेय दृष्टि से देख रही थीं। अपने लिए देख रही थीं, हमारे लिए नहीं। हमारे लिए यह उपयुक्त ही थी। हम अपने शहर के पहले ग्रेजुएट नहीं थे। फिर भी वे नौकरी किए जा रही थीं।
नौकरी नापसंदगी के चलते नहीं छोड़ी जा सकती थी।
इस गहन जरूरत के बावजूद उन्हें अनिवार्य रुप से अपनी तनखाह ला कर हर महीने पिता जी के सामने स्टूल पर रखनी पड़ती थी। शायद पहले, जब हम कुछ छोटे थे, तब उन्हें तनखाह रख कर चरण भी छूना पड़ता था। बाद में हम बहनों के बार बार टोकने पर माँ ने चरण छू कर आशीर्वाद लेना बंद कर दिया। इससे भी पहले उन्हें दादी के चरण के पास रुपया रख कर पॉवलगी कर के आशीर्वाद लेना पड़ता था। दादी उन्हें 'पुत्रवती' होने को आशीषतीं, लेकिन आशीर्वाद लगता नहीं। आशीर्वाद लगने की प्रतीक्षा जरूर होती। इस प्रतीक्षा में लड़कियों के पैदा होने की सूची लम्बी होती चली गयी। पांच लड़कियाँ पैदा हो गयीं। छठीं हो कर मर गयी। पर आशीर्वाद लगने की प्रतीक्षा न दादी के लिए धूमिल हुई न पिता जी के लिए। माँ के लिए जरूर यह व्यर्थ हो गयी।
जब दादी के चरणों पर रुपया चढ़ा दिया जाता और आशीर्वाद की रस्म पूरी हो जाती, तब दादी पुकारतीं— ''बबुआ!'' पिता जी इतने में समझ जाते। आ कर रुपये ले जाते। दादी के नहीं रहने पर पूरी तरह यह जिम्मेदारी उन्हीं पर आ गयी। पहले की तरह ही अगले दिन वे चार रुपये माँ को देते— ''रिक्शे का किराया रोज माँग लेना!''
माँ चार रुपये नहीं लेतीं। तमतमा कर चल देतीं। जा कर रसोई में बरतन उठाने पटकने लगीं। पिता जी डांट कर कहते —''किसी और से माँगने जाओगी रुपया? जाओ! चमड़ी उतार के रुपया देगा।''
''दूसरे का रुपया तो नहीं माँगती? अपना ही माँगती हूँ तो नहीं देते। कौन सा अपना पेट भर लूंगी? एक टेबुल खरीदनी है। कोई घर आ जाए तो अच्छा नहीं लगता।'' माँ बड़बड़ाती जातीं और बरतन घिसती जातीं। पिता जी माँ का बड़बड़ाना सुन कर टालते जाते। बाहर अपने मित्रों से कहते — ''कमाने भेजो, तो औरत हाथ से निकलने लगती है। रात दिन चिक चिक मचाती है। साला, रुपया न लाई, जेवरात लाई! घर की जरूरत न होता तो कौन भेजता?''
पिता जी गुस्सैल थे। गुस्सा भी कैसा? न्याय अन्याय पर जमाने भर से लड़ जाते थे, अपनी नौकरी तक की भी परवाह नहीं करते थे। माँ बड़बड़ातीं तो वे टालते थे, पर जब बहुत ज्यादा बड़बड़ातीं तो कभी कभी आपा खो देते थे और चार छ: झापड़ आसानी से मार देते थे। तरह तरह की धमकियाँ देते। माँ युद्घ में भाग लेने की बजाय रोने लगतीं। यह हमें अच्छा नहीं लगता। एक आदमी मारे और दूसरा पिटते हुए रोये, चिल्लाए, यह एक सही दृश्य नहीं था। यह हमारा आदर्श दृश्य नहीं हो सकता था। इसी का परिणाम था कि जब शादी के कुछ समय बाद ही मेरी बड़ी बहन पर उनके पति ने हाथ उठाया तो वे एकदम आप खो बैठीं। उस मारने वाले हाथ को वे तोड़ कर, मोड़ कर फेंक देना चाहने लगीं। लेकिन तोड़ कर रह गयीं, फेंक नहीं पायीं। इसका अफसोस उन्हें आज तक था। माँ  को दूसरा अफसोस आज तक था कि वे युद्घ का बिगुल बजा कर अपनी ससुराल से भाग आयी थीं, लड़ कर शहीद नहीं हुई थीं। जब कि बड़ी बहन इसका उलट सोचती थीं। वे कहती थीं कि वे आयीं अपना पक्ष मजबूत करने। अपने लोगों का समर्थन पाने और अपनी सेना तैयार करने के लिए। यहीं वे चूक गयी थीं। उनके लोग उनके युद्घ में शामिल होने से कतरा गए थे। माँ से उम्मीद वैसे भी नहीं की जा सकती थीं। वे अपने ही युद्घ में हारी हुई थीं। युद्घ में जीत गयी लड़कियों के बारे में हमें बिल्कुल पता नहीं था। वे कहाँ रहती थीं? क्या खाती थीं। किससे पूछा जाए? आस पास तो बस हारने हारने को होती लड़ाइयाँ थीं और कुछ डरावनी कहानियाँ थीं।
तो पिता की दबंगई हमें बहुत अच्छी लगती थीं। उनकी मस्ती भी उतनी ही अच्छी लगती थी। मैं मन ही मन अपने लिए पिता वाला व्यवहार चुनना चाहती थी। पर माँ ऐसा करने के बीच जबरदस्त तरीके के आड़े आती थीं। वे नहीं चाहती थीं कि हम पिता जैसे बन जाएं। हम नहीं चाहते थे कि माँ जैसे बन जाएं।
यही द्वंद्व था।
इसी के बीच हम थे।
कभी दबंगई कर के लड़ जाते थे, कभी धैर्य रख कर सह जाते थे।
मैं ससुराल से भाग आयी थी। हॉलांकि मुझसे पहले मेरी बड़ी बहन अपने ससुराल से भाग कर आ चुकी थीं। मैं उन्हीं की तरह माँ के जीवन को दुहराना नहीं चाहती थी। मैं अपने शहर की पहली ग्रेजुएट लड़की भी नहीं थी। मैं तो सिर्फ इंटरमीडिएट पास थी। लौट कर मैं पिता जी से लड़ पड़ी थी। लड़ी थी आगे पढऩे के लिए। लेकिन पिता को लगा था कि मेरी लड़की में खोट है। झगड़ालू है। इसलिए भगा दी गयी है। लड़की खुद ही भाग आए, यह पिता जी ने बड़ी बहन के संदर्भ में भी स्वीकार नहीं किया था। इसलिए उन्होंने उम्मीद से भर कर कहा— ''पढ़ो आगे। नौकरी ही कहीं लग गयी तो उन लोगों को फायदे का कुछ लालच हो जाएगा।''
पिता जी ने एकदम दूसरी तरह सोचा था। पर मैंने इसमें से 'पढ़ो आगे' को ही पकड़ा और जिद कर के पास के इस शहर चली आयी थी।
''कमा रही थी तो अपना पैसा ले कर भाग क्यों न गयी?'' मैंने गुस्सा कर माँ से कहा था।
''भाग कर आदमी कहाँ तक जा सकता है?'' माँ ने निराशा से कहा था।
''निकलने से कहीं तक तो जाएगा।'' मैंने और गुस्सा कर कहा।
इस पर माँ के आगे भय का पूरा संसार खुल गया। वे लगीं बताने— ''भागने से लड़कियाँ कहाँ कहाँ पहुँच जाती हैं। बिसेसरगंज की गलियों में जो लड़कियाँ गुम हो गयी थीं, वे भी कहाँ पहुँचीं। जिंदगी नरक है। बाहर के नरक से अंदर का नरक ठीक है। अंदर के नरक में एक की मार है, बाहर के नरक में मार ही मार है।...''
मैं इस बात से डरने की बजाय उब गयी। उब कर मैंने कहा— ''कमाता हुआ आदमी भागे तो बात कुछ और होगी।''
माँ की व्याख्यानमाला इस पर रुकने की बजाय और तेज हो गयी— ''कमाओ या न कमाओ, पैसा तो वही लोग रख लेंगे, जिसके कब्जे में पहुँच जाओ। धन पर औरत का अधिकार कहाँ रहने देते हैं? कमाने वाले का पैसा भी निकलवा लेंगे और देह भी। तुम्हें क्या पता बिट्टो! ये दुनिया किस कदर जालिम है। अभी तुमने देखा ही क्या है? मौज से पढ़ रही हो।''
इस पर मैं भड़क गयी। मैं कोई मौज से नहीं पढ़ रही थी।
''पहले भागो, तब व्याख्यान दो, तभी कोई भरोसा करेगा।'' मैंने सोचा था यह जहरबुझा तीर उन्हें कुछ निरूत्तर करेगा। लेकिन वे बस एक मिनट के लिए चुप हुईं, फिर अपनी बात मोड़ कर मेरा तीर मुझे लौटाते हुए बोलीं— ''तुम भाग कर कहाँ गयी बिट्टो? यहीं तो आयी। कहाँ जाती? लड़कियों के लिए कोई जगह नहीं है। हमारे जमाने में तो यह भी मयस्सर नहीं था।''
''मैं कमाऊंगी तो यहाँ नहीं रहूँगी। भाग कर कहीं और चली जाऊंगी। तब देखना।'' मैंने तन कर कहा।
''देखूंगी, देखूंगी। मरूंगी नहीं तब तक।'' बेहद खामोशी के भीतर से माँ की यह आवाज आयी थी। इसने मुझे चौंका दिया था। इस निराशा के भीतर उम्मीद छिपी थी कि शायद ऐसा दिन आ ही जाएगा, जब मैं कमाने लगूं और कमाते हुए कहीं भाग जाऊं, जिससे मेरे खाने पहनने की चिंता मां को न रह जाए और यह भी न रहे कि कोई मारता पीटता होगा, भूखे पेट सोना पड़ता होगा, ताने उलाहने होंगे, सास का पाँव चापते चापते गिर जाना होता होगा... ऐसा कुछ भी न रहे।
बहुत सारी चीजों से निष्कृति का स्वप्न जैसा था।
स्वप्न ही था।
यथार्थ में नौकरी मिल जाएगी, इसका कोई भरोसा नहीं था।

बेचैन सहस्त्र धाराओं के राग रंग थे, डूबती उतराती थी कहानी

''बीबी जी, जरा किनारे हो जाइए।'' जल्दी जल्दी सीढिय़ाँ धोती औरत ने अपने हाथ का झाडू रोक कर कहा।
''भाभी, मैं आपके लिए चूडिय़ाँ लाई हूँ, हरी-हरी।'' मैंने उसके जवाब में कहा।
''चलिए ऊपर, मैं अभी आ रही हूँ।'' औरत ने अपनी खुशी हल्का सा मुस्करा कर जाहिर की। यह औरत मुन्नाबो थीं। जिनका असली नाम हम भूल चुके थे। मुन्ना जी के नाम के साथ ही उनके अस्तित्व का बोध यहाँ होता था। अगर इस नाम को हटा दिया जाए तो वे क्या थीं यहाँ? इसे सहज बुद्घि का कोई भी व्यक्ति बता सकता था। मैं उन्हें वहीं छोड़ कर ऊपर बैठका में आयी तो देखा दामोदर जी घंटी बजाते हुए कोई मंत्र पाठ कर रहे थे। उनके पिता गिरधारी जी, उनकी पूजा में मगन मुद्रा पर ध्यान दिए बिना चुटकी लेते हुए कह रहे थे— ''यहीं घंटी बजावा करौ। दुकान कौन खोली? यही जिम्मेदारी ले ले हउवा। न निभै तो बतावा?''
''बस, अभिहैं। बस, अबिहैं।'' कह कर दामोदर जी और तेजी से मंत्र पाठ करने लगे। घंटी भी और तेजी से बजाने लगे। पूजा समाप्त कर के पुश्तैनी जायदाद के रूप में मिली आरामकुर्सी पर से बुशर्ट उठा कर पहनने लगे।
''आज उठने में थोड़ी देर हो गयी न। एही बदे। इतना लेट तो कभी न हुआ था।'' उन्होंने मेरी ओर न देखते हुए अपने आप से कहा।
''कौन दुनिया छोड़ के घंटी बजाना चाहे? लेकिन आप लोग जीने न देंगे। न इस विध, न उस विध।'' उन्होंने अपने आप से नाराज हो कर पिता की तरफ बिना देखे उनका उत्तर दिया।
''बीबी जी, कुछ खाईं-पीं कि नहीं?'' तभी पीछे से आ कर मुन्नाबो खड़ी हो गयीं। वे तैयार हो कर आयी थीं। कुछ देर पहले की सीढ़ी धोने वाली औरत वे नहीं लग रही थीं। पीले लाल फूलों वाली सिंथेटिक साड़ी पहने थीं। बाल ढंग से सँवारे हुए थे। माथे पर सिंदूर टिकुली लगी थी। हाथ में एक पॉलीथिन थी, जिसमें छोटा सा टिफिन बाक्स रखा हुआ लग रहा था।
''दुकान पर जाना है।'' हल्का का मुस्करा कर उन्होंने कहा।
वे पिछले दिनों से बेहद बदली लग रही थीं। साड़ी का पल्ला भी सिर की बजाय कंधे पर था। चेहरे पर थकान थी, पर कुछ आत्मविश्वास भी दिख रहा था। उनके आते ही दामोदर जी की हलचल बढ़ गयी थी। वे अपनी अत्यंत धीमी गति के भीतर भी कुछ तेज हो जाना चाहते थे। इसी समय मौसी कहीं से अवतरित हुईं और दौड़ती हुई रसोई वाली जगह के भीतर गयीं लेकिन पलक झपकते वापस भी निकल आयीं। निकल कर आयीं तो हाथ में अखबार में लपेट कर कुछ लिए थीं। वे अखबार की उस चीज को दामोदर जी को देने लगीं।
''भूक लग जाई।'' वे जबरदस्ती कर रही थीं। दामोदर जी रोक रहे थे। तब वे मुन्नाबो को अखबार में लिपटी वह चीज देने लगीं।
''अब हम एक ही समय खाते हैं बिट्टो! मनौती माने थे शनि महाराज से कि काम मिलेगा तो एक वक्त खाने लगेंगे। मम्मी समझती नहीं।''
फिर उन्होंने बहुत धीरे से मानो अपने आप से कहा — ''मनौती तो क्या है, बस, एक ही वक्त खाना चाहते हैं। आदमी जितना कमाए, उतना ही खाए तो ठीक।''
''कहाँ काम मिला भइया? कौन दुकान पे? भाभी भी जा रही हैं?'' मैंने खुशी और जिज्ञासा से पूछा।
''बिट्टो, मुन्ना जी चले गए न। अब दुकान कौन देखेगा? हमारे ऊपर आ गया। घर का काम है, कर रहे हैं। ये भी जायेंगी। दिन भर वहीं बैठेंगी। संझा बेला छोड़ जायेंगे।'' उन्होंने पूरे हौसले से बताया।
''कहाँ गए मुन्ना जी?''
मौसी को यह बताने में संकोच हुआ। मुन्नाबो सामने खड़ी थीं। वे इशारे से कहने लगी कि निकल जाने दो मुन्नाबो को।
''चल रहे हैं।'' दामोदर जी ने किसी कामकाजी आदमी की तरह कहा। लेकिन एक दो कदम ही चले थे कि पीछे मुड़ कर कहने लगे कि — ''मम्मी, कोई पुरान धुरान कपड़ा दो। दुकान वाला पोंछने का कपड़ा खराब हो गया है।'' उन्होंने मौसी से यह काम तत्काल पूरा करने की इच्छा से कहा था। मौसी समझ गयीं और यहाँ वहाँ गठरियों से कपड़ा निकाल निकाल कर देखने लगीं। फिर किसी पुराने कपड़े, शायद साड़ी थी, उसका टुकड़ा फाड़ कर दिया— ''बाकी तोहरे बदे ही रख देत हईं।''
वे निकल गए। उनके पीछे पीछे मुन्नाबो भी चलीं। मुन्नाबो भी एक दो कदम चलकर पीछे मुड़ीं— ''बीबी जी, दुकान की तरफ से निकलिएगा तो आ जाइएगा। बात कुछ हो नहीं पाई आपसे।'' फिर वे चली गयीं। उनके जाते ही मौसी, जो इतनी देर से मुझे बहुत कुछ बताने को व्याकुल हो रही थीं, खुल पड़ीं— ''पता है बिट्टो! मुन्ना जी दुबई भाग गए। किसी से पता चला। बता के थोड़ी न गए। दुकान कौन संभालता? दामोदर जी को लगा दिए हैं। मुन्ना बो हिसाब किताब देख बदे हैं। सबसे पढ़ी लिखी वही हैं न। घर का काम सुबहिहैं कर लेती हैं। रात का खाना बनावे बदे दामोदर जी पहुंच जाते हैं। दामोदर जी खाली थे। कुछ काम में इसी बहाने बझ गए हैं।''
फिर उन्होंने कुछ रुक कर मन का दूसरा कोना खोला - ''जब से मुन्ना जी गए हैं और मुन्ना बो दुकान पर बैठने लगी हैं, तब से दुकनिया चमक उठी है। रीचार्ज कूपन, मोबाइल का कवर, दुनिया भर के छोटे-छोटे सामान, नया मोबाइल भी उसी में बिकने लगा है। जरा सी जगह में इतना सामान। अकेले मुन्नाबो के मान का था? चौबीस घंटा उनके बाप की नजर उसी दुकान पे लगी रहती है। जब देखो तब खुदै पहुंच के इंक्वायरी करते रहते हैं। वो तो चली आयेंगी संझा में और दामोदार हमारे बिचारे सब गिन के, सहेज के आयेंगे रात के ग्यारह बजे तक।''
''ठीक तो है मौसी। दोनों लोगों का काम चल रहा है। दुकान से आमदनी होने लगी तो ऊपर वालों का भी खर्च निकलने लगा होगा। मार त्राहि त्राहि मची रहती थी। दामोदर भइया लग गए तो कुछ तो उनकी भी कमाई हुयी ही। अच्छा ही है।'' मैंने समझाने वाले भाव से कहा। लेकिन मौसी खुश नहीं हुयीं।
''का हो! खाली न भया?'' कान्हा तिवारी इसी बीच ऊपर कहीं से चिल्लाए।
''अबहिन नाहीं।'' मौसी ने झट से उठ कर दरवाजे से झॉक कर कहा। फिर वे मेरी तरफ पलटीं ही थीं कि उनकी आवाज की डोर पकड़ कर कान्हा तिवारी नीचे उतर आए। आ कर पैर हिलाते दरवाजे के पास खड़े हो गए। असल में इस पूरे पाँच मंजिले में एक टॉयलेट इस पहले तल्ले पर और एक चौथे तल्ले पर था। सब तल्लों पर टॉयलेट नहीं था। पता नहीं पिछले जमाने में ऐसा क्यों था। हलवाई वाले में टॉयलेट था कि नहीं? इस बारे में कभी बात नहीं हुई थी। आज घोर जिज्ञासा हो रही थी। पाँचों मंजिल में कुल मिला कर रहने वालों की संख्या लगभग पचास के करीब थी। इससे •यादा ही होगी। कम किसी सूरत में न थी। सात तो मौसा जी के चचेरे भाई थे और मौसा जी खुद पाँच भाई थे। सबका हिस्सा इन्हीं पाँचों मंजिल में बँटा हुआ था। नतीजा कि एक एक कमरा और थोड़ी रसोई की बनाई गयी जगह ही सबके हिस्से में आ पाई थी। लैट्रीन बॉथरूम की परेशानी ऐसे में बहुत बड़ी परेशानी थी। सुबह से जो लाइन लगती तो कितने ही लोगों का नम्बर रात में आता। लड़ाई झगड़ा भी इसके लिए कई कई बार हो चुका था। चाकू, छुरा, लाठी, बल्लम की नौबत न जाने कितनी बार आयी थी। पर एक और लैट्रीन बनवा लेने के लिए जगह छोड़ देने को कोई तैयार न हुआ था।
कान्हा तिवारी पैर हिलाते हुए दरवाजे के पास खड़े थे। आँखें उनकी पूरी तरह आँगन के उसी कोने में लगी थीं, जहाँ लैट्रीन की दीवार थी, लेकिन कान इधर फँसे थे। इसी समय मुन्ना जी की बहन गुडिय़ा उतर कर आयी। वह इतना ज्यादा नकली गहनों से सजी थी कि बड़ा अटपटा लग रहा था। आँखों में कोई तेज चमक वाला काजल लगाया था। गुलाबी रंग की लिपिस्टिक भी लगी थी। कानों में बड़ा बड़ा चमकीला झूमर लटक रहा था। गले में कई माले पड़े हुए थे। हाथ में कई चूड़े कंगन थे। यहाँ तक कि चमकते पत्तरों वाली और अटकते घुघरूं वाली कई अँगूठियाँ भी पहने थी। उसने मुझसे सट कर धरे से कहा — ''आपको मेरे व्बॉयफ्रेंड के बारे में पता है?''
''नहीं।'' मैंने चौंक कर कहा।
''अभी आएगा तो दिखाऊंगी।'' उसने और धीरे से कहा।
मैं गुडिय़ा को बहुत छोटा समझती थी। हाईस्कूल में एक दो बार फेल होने से उसकी पढ़ाई छूट गयी थी। मुझे उम्मीद नहीं थी कि उसके पास एक व्बॉयफ्रेंड भी हो सकता था।
''ऐ... हो... ससुर खाली हुआ?'' कान्हा तिवारी आँगन से गुजर रहे किसी व्यक्ति पर पैर हिलाते हुए चिल्लाए।
''रक्षाबंधन आ रहा है बिट्टो!'' गुडिय़ा के चहक कर कहा।
''छुट्टी रहेगी न। आ जाना। कि घर निकल लोगी?'' मौसी ने दुलरा कर कहा।
''तुम कब से इस सब पर विलीब करने लगी बिट्टो! हैं... धागा भर है... हैं... मानो तो धागा न मानो तो... जो मर्जी करे मान लो... सब मसला यही है... हैं... बेकार की बात सब... हैं... ससुर वहीं बैठ के मैटिनी शो देखे लगे।'' वे फिर आँगन वाली दिशा में चिल्लाए।
''ससुर तमंचा इसीलिए रखे हैं? आज एक आध लोग न लुढ़के तो हमें दोष न देना। हैं... हैं... मम्मी निकालो मुक्का में से तमंचा। जो जाएगा, वहीं बैठ जायेगा... हैं... साला आज न बचेगा!'' वे क्रोध से टॉगें और जोर से हिला रहे थे।
मुझे उनका इस तरह बोलना जरा भी अच्छा नहीं लगा था। लैट्रीन के लिए युद्घ की संभावना भी बनती दिख रही थी। मैं मुँह बिचका बिचका कर अपना 'बुरा लगना' जता रही थी।
''कहीं चले जाते तो अच्छा था। नरक है ससुर।'' वे दरवाजे पर हल्का सा हाथ मार कर बड़बड़ाए।
यह बड़बड़ाना पिछले गुस्से और लैट्रीन के हक की लड़ाई से अलग किस्म का था!
यह कैसी हताशा और बेचैनी के भीतर से फूट कर निकला था!
यह बात के भीतर की बात कर लिए जाने का उत्प्रेरक था!
तब गुडिय़ा ने मेरा हाथ पकड़ कर मुझे खींचा- ''आइए न!'' मैं उसके साथ साथ बैठका की उस पुरातन खिड़की तक खिंच गयी, जिसमें आज तक छड़ नहीं लग पाई थी।
''वो देखिए!'' उसने हुलस कर बताया।
नीचे मोटरसाइकिल पर एक आदमी नीले रंग की टीशर्ट पहने बैठा दिखा। उसका चेहरा ठीक ठीक नहीं दिख रहा था। सिर पर कैप लगी हुई थी। केवल एक तरफ से जो हिस्सा देख रहा था, उससे मालूम पड़ रहा था कि छोटी छोटी दाढ़ी रखे है। गले में उसने लाल प्रिंट का रूमाल बाँध रखा था। देखने में मोटा तगड़ा लग रहा था। उसका जो हाथ मोटर साइकिल के हैंडल पर था, उसमें मोटे चेन वाला कड़ा झूल रहा था। सब मिला कर वह कहीं से भी गुडिय़ा की उम्र का नहीं लग रहा था। उसने दो बार हार्न बजाया और आगे निकल गया।
''यह तो तुम्हारे बराबर नहीं है? कैसे दोस्ती हुई इससे?'' लेकिन मेरी इन हैरानी भरी बातों को सुनने का वक्त उसके पास नहीं था। वह जाने कब नीचे उतर गयी थी। वह पैदल चली जा रही थी। मैं खड़ी देख रही थी। छटपटा रही थी कि उसे रोक भी न सकी। उसे आवाज दे रही थी। पर सड़क पर आवाज तैर कर जाने कहाँ चली जा रही थी। गुडिय़ा उस आवाज से परे हो चुकी थी। वह मुझसे, मेरी छटपटाहट से बेखबर गली के किसी मोड़ पर मुड़ गयी थी।
जब मैं वहाँ से लौट कर मौसी की तरफ आयी तब तक कान्हा तिवारी टॉयलेट के लिए जा चुके थे। मैं तरह तरह से मौसी को बताने लगी कि गुडिय़ा किसके साथ जा रही है? क्या कर रही है? पर मौसी अविश्वास करती रहीं, टालती रहीं, 'मजाक कर रही हो' ऐसा कह कर बचाती रहीं और अंत में झुंझला कर बोलीं— ''ऐसा होगा जो सब जनी काट के फेंक देंगे उन्हें।''
तब मेरे मन में गूंजा कि कहीं मौसी भी तो मन ही मन यह नहीं चाहतीं कि गुडिय़ा उसी मोटर साइकिल वाले के साथ कहीं चली जाए! कहीं भी! जहन्नुम में भी! क्या सब लोग अपने जीवन से इतना फेडअप हो चुके थे?!!!
मौसी अपना ही सुनाने को आतुर थीं।
''बिट्टो, पता है, काम तो मिल गया है दामोदर जी को, बकिर पैसा का कुछ हिसाब नहीं। मनमाना है। जब खुश होंगे जेठ जी तो दस बीस रुपया दे देंगे। नहीं तो कह देंगे कि जब फायदा होगा तब देंगे। घोर नाइंसाफी है। लड़का घर समझ के रात दिन लगा है। दुकान खोलने, साफ सफाई से ले कर सौदा सुलुफ के काम के लिए भी दौड़ाएंगे, बकिर पैसे के टाइम भूल जाएंगे। दामोदर जी भी न समझते हैं। उन्हें घर का काम लगता है। यही काम किसी और की दुकान में करें तो कुछ फायदा हो मगर किसी और की दुकान में सफाई न करेंगे, झाडू न देंगे, तब पंडित जी बन जायेंगे और इ लोग जो न करा लें।'' मौसी ने लगभग रोनी आवाज में कहा।
इसके तुरंत बाद ही उन्होंने फिर से बात को मोड़ दिया और मन का एक और कोना खोला— ''हमें तो अपना लड़का दिख रहा है बिट्टो। लड़का प्रसन्न है। काम में लगा है। हमें जाति पाँति से क्या? लेकिन तुम्हारे मौसा जी न समझे हैं। कहारिन के नीचे लड़का काम कर रहा है, ये उन्हें गँवारा न हो रहा है। बात बात मे ंजहरबुझा तीर हमें मारते रहते हैं। खुद नहीं छुड़ा पाते। नहीं जँच रहा है तो रोक दें बकिर नहीं, रोकने के लिए तो हम बने हैं न! हमहूँ नहीं रोकेंगे बिट्टो। लड़का काम में लगा तो है, ये जान रहे हैं तो मैं भी तो जान रही हूँ।'' यह मौसी की रोने से एकदम उलट आवाज थी।

धुआँसा नगर था, न मौसम, न सहारा, मगर फूल था कि खिला जाता था

मैं हाथ में अखबार का वही बंडल लिए, जिसे दामोदर जी ने लेने से इंकार कर दिया था और दामोदर जी के आँख दिखाने के कारण मुन्ना बो भी छोड़ आयी थीं, वहीं लिए दिए दुकान के सामने रिक्शे से उतरी। सामने थोड़ी सी जगह थी, जो सड़क की आवाजाही से अपने को बचा ले गयी सी लगती थी। उसी जगह पर कुर्सी खींच कर मुन्ना बो के ससुर बैठे थे। उसके अगल बगल दुकानों की नाक तक गाडिय़ाँ खड़ी थीं। मुझे देखते ही उन्होंने इशारे से कहा कि अंदर जाओ। अंदर कान्हा तिवारी जमे थे। स्टूल पर बैठ कर काँच के भीतर के मोबाइल को जाँच रहे थे। मुन्नाबो एक किनारे कुसी पर बैठी थीं। जब मैं घुसी, उसी समय कान्हा तिवारी ने मुन्नाबो की तरफ देख कर गर्दन मटका कर कोई भद्दा सा चुटकुला सुनाया था।
''यह सब आप कहाँ से सुन कर आ जाते हैं कान्हा बाबू?'' शांति से मुस्कराते हुए मुन्नाबो ने कहा और उठ कर मुझे अपनी तरफ खींच कर उसी, अपनी वाली कुर्सी पर बिठा दिया। कुर्सी एक ही थी। मैं न न करते बैठ गयी तो वे उसी काँच वाली अल्मारी जैसी टेबुल से सट कर खड़ी हो गयीं। पता नहीं मुझे ऐसा ही लगा कि मेरे अचानक चले आने से कान्हा तिवारी कुछ असहज हो उठे थे, जबकि मैंने उनका चुटकुला पूरा नहीं सुना था, मुन्नाबो की बात पूरी सुनी थी। कान्हा तिवारी तुरंत उठ खड़े हुए।
''कहाँ जाएं, कहाँ जाएं कि चैन मिले।'' वे हाथ उठा कर बुदबुदाए और एकाएक ही दुकान से बाहर चले गए।
''जब देखो, आ कर यहीं जम जाते हैं। पता नहीं क्या समझ लिया है? इन्हें घर में कोई बोल ही नहीं सकता। बात बात पर कट्टा निकाल लेते हैं।'' मुन्नाबो ने बिना मेरी तरफ देखे कहा।
''आफत है बस।'' यह उन्होंने बहुत धीरे से उसी स्टूल पर बैठते हुए कहा, जिस पर क्षण भर पहले कान्हा तिवारी बैठे थे।
''बाहर बड़के मौसा जी बैठे हैं? मैं समझी थी दुकान आपके भरोसे हैं?''
''बीबीजी, चौबीसों घंटे कोई न कोई नजर रखता है। जहाँ जहाँ इधर के लोग गैप छोड़ देते हैं, वहाँ वहाँ मेरे घर के लोग गैप भर देते हैं। ये जो दरवाजा देख रही हैं न, यहाँ से जब देखो, 'सुमन' सुमन का जाप करते कोई न कोई आता जाता रहता है।'' वे उदास हो उठीं।
तभी सचमुच उस भीतरी दरवाजे से एक बूढ़ी औरत निकली और उसने एक छोटे से बच्चे को धक्का देते हुए आगे किया—''जाओ, जाओ, बुआ टॉफी दिला देंगी। ऐ सुमन, दिलाई दो कुछ।''
''हूँ... आओ, आ जाओ।'' सुमन, जो मुन्नाबो थी, उन्होंने बिना हिले डुले कहा। बच्चा अपने आप उन तक आ गया तो बूढ़ी औरत दरवाजे के पीछे गुम हो गयी। तब दामोदर जी हाथ में चाय का दो गिलास लिए अंदर घुसे— ''कान्हा चले गए क्या? ला, चाय पीआ।'' उन्होंने काँच की अलमारी जैसी टेबुल पर बड़े संभाल कर चाय रखी। फिर बच्चे का हाथ पकड़ कर उसे तरह तरह से बहलाने पुचकारने लगे। सुमन उर्फ मुन्नाबो ने ड्रार खाल कर एक रुपया निकाल कर दामोदर जी को दिया— ''टॉफी।'' दामोदरजी रुपया ले कर बच्चे के साथ निकल गए। तब तुरंत ही वे हिसाब वाली कॉपी में 'एक रुपया - टॉफी पप्पू के लिए' ऐसा नोट करने लगीं। उनके इस तरह नोट करने से मेरी स्मृति में मेरी माँ खट् बज उठीं। वे भी इसी तरह एक एक पाई का हिसाब नोट करती रहती थीं और पिता जी उसे चेक करते रहते थे। फिर भी कुछ रुपये जाने किस हिसाब में चूक जाते थे, जिनमें से वे मौसी को कभी कुछ भेज देती थी। कभी हम बहनों में से जिसे ज्यादा जरूरत आ जाती, दे देती थीं। क्या मुन्नाबो बनी सुमन के हिसाब में भी कुछ चूक जाता होगा?
''बिट्टो बीबी जी, कहीं हमारे लिए बाहर कोई नौकरी बताइए। आप दस लोगों के बीच हैं। कुछ देखिए। क्या कहें? यहां चारों तरफ से घिरे हैं। इनमें से निकलने का रास्ता तो ढूँढना होगा। आप समझ रही हैं न!'' उन्होंने बड़ी गहरी उदासी से कहा।
मेरा मन मचल उठा। लगा कि मेरे साथ 'कहीं निकल पडऩे की साध लिए' कोई और भी है। 'चलो, साथ चलो। लडऩे का हौंसला रहेगा।' ऊपर से मैंने यह नहीं कहा, बल्कि अचानक ही उनकी उदास मुद्रा के आगे मैं प्रसन्न हो उठी। मेरे जैसा ही तो कुछ था। 'साथी, हाथ बढ़ाना' मैंने हाथ बढ़ा कर धीरे से कहा। उन्होंने हैरानी से भर कर मेरा बढ़ाया गया हाथ थाम लिया।
फिर उन्होंने धीरे धीरे कहा— ''यही सब बताने का मन था आपसे। देखिए, सब लोग कैसे नोच खसोंट पे जुटे हैं। दुकान का किराया नहीं दे पाते हैं न। इतना पैसा जो दुकान में लगा दिया। तो लोग किसी न किसी बहाने पैसा उगाहने की कोशिश करते हैं। कभी सब्जी लाओ, कभी चाय की पत्ती, कभी कुछ, कभी कुछ लगा ही रहता है। दामोदर जी लगे रहते हैं। इस घर में वही एक सज्जन आदमी है। वे तो जानते भी नहीं कि जब तब अल्मारी के नीचे दस, बीस रुपये मैं ही गिरा देती हूँ। शनि महाराज की कृपा कह कर उठा लेते हैं। खोल ओढ़ कर बैठे हैं शनि महाराज का! मन करता है सब नाटक खोल के रख दूं। जीवन से कब तक भागेंगे? लेकिन बस, उनकी सज्जनता देख कर रूक जाती हूँ। पर ज्यादा दिन नहीं चलने दूंगी अपने सामने यह सब!'' वे रूक गयीं। फिर उनकी उदासी में बहुत भीतर गड़ी मुस्कान की एक सुंदर दीप्ति उभरी।
''कितना तो सुंदर मन है उनके पास! एक दिन की बात कहूँ आपसे। उस दिन जरा सा अँगुली भर छू गयी थी तो खड़े रह गए कितनी ही देर। अगले दिन कविता लिख कर लाए। इतनी सुंदर लिखावट में लिखे थे मानो टाइप किया हो। ला कर मेरे टिफिन वाली पॉलीथिन के नीचे खोंस दिए। वो तो कहो किसी की नजर न पड़ी। लजाते रहते हैं। क्या कहें आपसे, यही एक सीधे आदमी हैं।''
ये किधर निकल रही थीं वे? मुझे विश्वास सा न हुआ। मन हुआ टोक दूँ। ये क्या कि कुँए से निकले खाई में गिरे? यही भोले भंडारी बचे हैं दुनिया में? और मुन्ना जी? जीवन से बाहर निकल गए थे क्या? लेकिन उनकी चमकती हुई आँखों के आगे कुछ कहते न बन रहा था।
''मुन्ना भइया क्या लौटेंगे नहीं?'' मेरा यह प्रश्न जमाने का प्रश्न था। वे जानती थीं।
बिना मेरे पूछे ही कहने लगीं— ''बीबी जी, जीवन में गणित होता है, सिर्फ गणित जीवन नहीं हो सकता। जिंदगी के धक्के आदमी को केवल तोड़ते ही नहीं हैं, सिखाते भी हैं। मजबूत भी करते जाते हैं। मैंने भी इसे जी कर ही सीखा। दुकान मुन्ना जी अपने नाम करा लिए। तब भी दुबई भागने की जरूरत पड़ी। दुकान बेचने की कोशिश किए। पैसा भी ले लिए थे किसी से। लेकिन ऐन वक्त पर बात खुल गयी। पैसा ले कर तो वे भाग गए। दुकान बस बच गयी। जैसे तैसे उस आदमी का पैसा चुका रहे हैं। किस्तों में दे रहे हैं। पता नहीं कितनी मुश्किलों से यह सब चल रहा है। डरती हूँ कि कुछ न ठीक बना तो मेरे साथ तो कुछ भी हो सकता है।''
''कुछ भी? ऐसा न कहिए भाभी।''
''कुछ भी मतलब कुछ भी। यही वक्त की जरूरत बन सकती है। अपने भरसक काम कर रही हूँ और अपने भरसक सोच रही हूँ। मैं सोच लूंगी इसका मुझे भरोसा है। किसी और पर नहीं अपने पर है। हाँ, एक और पर भी...'' कहते कहते वे रुक गयीं और हल्का सा मुस्करा उठीं।
दामोदर जी बच्चे को लिए तभी आ गए थे। वे संकोच से भर उठे। उनका संकोच मुझे बड़ा भला सा लगा। मुस्कराना उससे भी भला लगा था। इस समूचे दृश्य में से मैं एकदम अभी बाहर कर दी गयी थी। इस बाहर हो जाने पर मैं भी मुस्करा उठी। मैं चलने के लिए उठी। अचानक बच्चे को गोद से उतार कर वे मुझे रिक्शा कराने बाहर निकल आए। इससे पहले कभी वे मुझे रिक्शा कराने के लिए नहीं आए थे। बाहर कुर्सी पर मुन्नाबो के ससुर बैठे थे।
''अच्छा, रिक्शा कराने?'' उन्होंने हाथ के इशारे से पूछा और हाथ के इशारे से ही मेरे प्रणाण के उत्तर में 'जाओ, जाओ' जैसा कहा। हम सड़क पार कर के दूसरी पटरी पर आए। रिक्शा उधर ही मिलना था। एक रिक्शा रूक भी गया था लेकिन अचानक दामोदर जी ने मुझे हाथ उठा कर रोका— ''तुमसे कुछ बात करना चाहते हैं बिट्टो।''
''हाँ, भइया।'' कह कर मैं रुक गयी। थोड़ा चकित थी, थोड़ा लगाव महसूस कर रही थी। दामोदर जी इससे पहले कभी भी मुझसे इस गहरी आत्मीयता से नहीं बोले थे।
''तुम्हें क्या बतावें? दुकान से कोई पैसा रूपया का लाभ तो हमें है नहीं। लेकिन इज्जत है कि अपनी दुकान है। झूठी इज्जत ढो रहे हैं। हम जानते हैं बिट्टो। तुम्हारी भाभी सोचती हैं हमें कुछ नहीं पता। जो दस बीस रूपया मिल जाता है बीच बीच में, वही, तुम्हारी भाभी गिरा देतीं हैं चुपके से अलमारी के नीचे। हम जानते हैं। किसी से कह तो नहीं सकते। मम्मी तो समझ भी न सकेंगी।''
तो वे जानते थे! अगर वे जानते थे तो 'उनका यह जानना' जल्दी ही भाभी भी जान जाएंगी, मैं यह सोच कर कुछ खुश हो गयी।
''भइया, इतना पूजा पाठ? सारा समय इसी में लग जाए, सारा सोचने का दायरा यही हो, यह ठीक है क्या?'' मैंने अपने मन की बात आखिर इस मौके पर कह ही दी।
''हम क्या यह नहीं समझते बिट्टो! दुनिया जो देखती है, उसी को तुम भी सच मान रही हो! हम भी नहीं चाहते हैं यह सब। कोई अंध श्रद्घा नहीं है। पाखंड आदमी को कितना कमजोर कर देता हा। किन्हीं हालातों  से बचने का सहारा यह नहीं है। इतने वर्षों में हम भी जान गये हैं।''
''तो फिर यह क्यों किए जा रहे हैं भइया? भाभी दुखी होती है। आपको अच्छा आदमी मानती हैं और आप दुनिया से भाग रहे हैं!'' मैंने जरा नाराजगी के साथ कहा।
वे इधर उधर सड़क पर देखने लगे। फिर नीचा सिर कर के कहने लगे - ''शनि महाराज का खोल ओढ़ कर बैठे हैं, बोलो क्यों? अपने ही घर में जब जीने नहीं देंगे। बेरोजगार आदमी की क्या औकात है, बताओ! लेकिन अब बहुत हो गया। हम इस खोल में न रह सकेंगे। सब पाखंड बंद होगा। जीवन के जल में उतरना होगा। उतरेंगे। कोई साथ दे तो हौंसला होगा ही। मुझे भी बड़ा भरोसा होता है उन पर। बताओ, काम से कभी भागे हम? नहीं न। बकिर काम ही नहीं मिला अपने हिसाब का। अब यह भी द्वंद्व नहीं रहा।''
उन्होंने आकाश की तरफ देखा और बहुत धीमी और बहुत साफ आवाज में कहा— ''कैसी भली हैं वे! कैसी भली हैं वे!''
''भाभी का साथ दीजिएगा।'' मुझे यह कहने की अब जरूरत नहीं थी।
मैं हैरान हो कर उन्हें देख रही थी। और शायद पहली बार मुस्कराते हुए भी।

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