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जनवरी 2013

इस हम्माम में सब नंगे हैं .......

जितेंद्र भाटिया

चार वर्षों के लम्बे अंतराल के बाद 'पहल' की इस सुपरिचित श्रृंखला के ज़रिए फिर आपसे मुखातिब होते हुए मेरे मन में आह्लाद और विनम्रता का एक मिला जुला भाव है। आह्लाद 'पहल' की वापसी को लेकर कुछ इसतरह का, कि जिस प्रिय चीज़ को आप पूरी तरह खोया हुआ मान चुके हों, वह कई मौसमों के अंतराल पर एक दिन किसी चमत्कार की तरह आपको फिर मिल जाए। बकौल पाब्लो नेरुदा —
शायद यह धरती हमें सिखा सकती है
कि सर्दियों में सब-कुछ मरा हुआ दिखने के बाद
कैसे बाद में जीवित साबित होता है...
और विनम्रता इस बात को लेकर कि पिछले सिलसिले के आखिरी अंक 'पहल 90' में श्रृंखला की जगह जब मेरी लम्बी कहानी छपी थी तो उसके अंत में संम्पादक ने अपनी ओर से लिखा था कि लेखमाला अगले अंक से जारी रहेगी। 'पहल' में आया यह लम्बा विराम अप्रत्याशित रहा, लेकिन मुझे संतोष है कि चार वर्षों के बाद इस नयी शुरूआत के साथ मैं न सिर्फ अपने, बल्कि संपादक के 'पहल 90' में किए गए पुराने वादे का निर्वाह भी कर पा रहा हूं! — लेखक

अपने देश के पिछले चार-पांच वर्षों के राजनीतिक-सामाजिक अंतराल पर नज़र डालें तो शायद बहुत कुछ घटित हो गया, लेकिन बदला कुछ भी नहीं। इस श्रृंखला में छेड़े गए लड़ाई के बहुत सारे मुद्दे अब एक ठोस, तल्ख हकीकत की शक्ल में सामने आ चुके हैं। जनमानस की अस्मिता, उसकी ज़िन्दा रहने की सहज लड़ाई और उसकी चरम सहनशीलता को चुनौती देने वाले संगीन सामाजिक अपराधों को इतिहास किस रूप में दर्ज करेगा, यह कह पाना अभी मुश्किल है। अपने चुनावी प्रतिज्ञा-पत्रों में दोनों जहान की फर्ज़ी खुशियां सामान्य आदमी के नाम लिख देने और बाद में मौका आने पर उसकी गाढ़ी कमाई के पैसों से खड़ी सार्वजनिक सम्पदा को अपने निजी स्वार्थों के लिए हथिया देने की प्रक्रिया अब लगभग संवैधानिक करार दी जा चुकी है। अपने पसंदीदा शायर 'गालिब' के शब्दों में कहें तो—
दोनों जहान देके वो समझे ये खुश रहा
यां आ पड़ी वो शर्म की तकरार क्या करें!
एक जनतंत्र के रूप में हम बेहद सहनशील, बेहद उदार, बेहद 'अवगुण चित न धरो' वाले सामाजिक प्राणी हैं। हमारे धर्म में संगीन से संगीन और अक्षम्य से अक्षम्य अपराध को जड़ से काट डालने के अचूक उपाय लिखे हुए हैं और हमारी सामाजिक याददाश्त में ऐसा कोई कृत्य या कुकर्म नहीं है, जिसे समय गुज़रने के साथ पूरी तरह धोया या भुलाया न जा सकता हो। मिलान कुंडेरा की 'दि बुक ऑफ लाफ्टर ऐंड फॉरगेटिंग' की तरह हम जानते हैं कि कोई चीज़ जब खत्म होती है तो भविष्य से पहले हम उससे जुड़े अतीत के पन्नों को हमेशा के लिए रबर से मिटा रहे होते हैं। यही कारण है कि कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाले में जेल काट चुकने के बाद कल्माड़ी बाहर आते ही फिर से उन्हीं खेल संस्थानों के मुखिया बनने और लंदन के खेलों में भारत के राजकीय प्रतिनिधि बनने की बेशर्मी ज़ाहिर करते हैं, करुणानिधि की बेटी और टू जी स्पेक्ट्रम की अभियुक्त कोनीमोज़ी ज़मानत मिलते ही चेन्नै में अपने वज़न से भारी फूलमालाएं लाने वाले शुभचिंतकों के एक भारी जमावड़े में फोटो खिंचवाती नज़र आती हैं और प्रतिदिन अंग्रेज़ी वर्णमाला के ए से ज़े तक हर अक्षर से शुरु होने वाले भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी यू पी ए सरकार रामलीला मैदान में दो-दो सौ रुपयों वाले चेहरों से भरी ट्रकों की रैली में वैश्वीकरण के नए कदमों का बार-बार सस्वर आलाप करती है लेकिन वहां भ्रष्टाचार के बारे में एक शब्द तक कहने की औपचारिकता भी किसी को ज़रूरी नहीं लगती।
कुंडेरा के 'विस्मृति के राष्ट्रपति' की तर्ज़ में आज इस देश में हम विस्मृति की सत्ता को भोग रहे हैं जहां हम्माम में सब नंगे हैं और अब धीरे-धीरे यह नंगापन ही गोया कि राजनीतिक परिधान बनता जा रहा है। हमें बताया जा रहा है कि हम वह देखें जो दिखाई नहीं देता लेकिन जो है। मिलान कुंडेरा कहते हैं कि ''... लोगों से उनकी स्मृति छीनकर आप एक तरह से किताबों, संस्कृतियों और इतिहासों को नष्ट कर रहे होते हैं!... फिर दूसरों से कुछ नयी किताबें लिखवायी जाएंगी, एक नयी संस्कृति, एक नया इतिहास ईजाद किया जाएगा और अंतत: लोग धीरे-धीरे भूलने लगेंगे कि पहले क्या था...'' कि उनका असंतोष किस बात से था और वह (नंगापन) क्या था जहां से उन्होंने ये सारा किस्सा शुरु किया था...
राजनीति का यह भयावह रूपक जिसमें विस्मृति के साथ-साथ जनतंत्र के नाम पर तानाशाही के उग्र रंग बार-बार दिखाई देते हैं, हमारे देश में लगातार खेला जा रहा है और हम और आप, या सिर पर अन्ना या आम आदमी की सफेद टोपी लगाए वे तमाम आदमी ले देकर इस खेल में कोई मायने नहीं रखते। हमारे सूचना का अधिकार भी अंतत: छपे हुए शब्दों या मीडिया के तयशुदा पैंतरों में महदूद होकर रह जाता है। टी वी की तमाम समाचार चैनेलों पर शाम के वत आपको फिर-फिर वही-वही चेहरे दिखाई देंगे, किसी न किसी पार्टी का प्रतिनिधित्व करते हुए। वक्त के साथ ये सब कुंडेरा के 'विस्मृति के राष्ट्रपति' की तर्ज़ में कुतर्क के बादशाह बन चुके हैं, और टी वी कैमरों के सामने अपना खेल सजाना इन्हें बखूबी आता है। इनके संपेरो के पिटारे में सबसे विषैला दंतविहीन नाग वह है जो सारी ज़रूरी चीज़ें को स्मृतिहीनता के हवाले कर बार-बार हमें याद दिलाता है कि जब विपक्ष सत्ता में थी तो उन्होंने भी यही या इससे भी बदतर किया था। इस एकमात्र तर्क के आधार पर ये स्वघोषित वैधता के तमगे बटोरते हैं और फिर अपने-अपने दंतविहीन सांपों को एक-दूसरे से लड़ाकर चेक की शक्ल में चैनेल से अवतरित होने का टैक्स वसूलकर चले जाते हैं। यू पी ए की एक फैशनेबल दल बदलू महिला (नाम लेना फिजूल होगा) हर पैनेल में, और कई बार एक ही शाम में कई-कई रंगों की साडिय़ों में दिखाई देंगी। इन्हें दूसरों को बीच में टोकने और गंभीर से गंभीर मुद्दों को भी औरतों की घरेलू तू-तू-मैं-मैं तक उतार देने का का महारत हासिल है। बीच में कभी-कभी कोई भूतपूर्व महा-न्यायाधीश या मीडिया के प्रतिनिधि भी आ जाते हैं, लेकिन इनमें से हरएक कहां जाकर किसके पक्ष में खड़ा होगा, यह अनुभवी श्रोताओं को पहले से मालूम होता है। मीडिया के 'एंकर' अपने लफ्फाज़ी भरे पम्पों से हर मुद्दे में नाटकीयता की नकली हवा भरते जाते हैं और फिर समाप्ति पर समय की दुहाई देकर एक झटके के साथ पूरे मुद्दे या कि बहस की हवा निकाल भी देते हैं। आप इनके तेवरों पर न जाएं, जहां हर चीज़ की एक तयशुदा कीमत होती है। कुल मिलाकर यही टी वी पर दिखाई देने वाली समाचारों की नौटंकी है, जो अब 'कलर्स' और 'स्टार प्लस' पर बरसों चलने वाले 'सोप ऑपेरा' सीरियलों जितनी ही नकली और सर्वथा प्रत्याशित दिखने लगी है।
अपने स्वतंत्रता के बाद के इतिहास में हमने बरसों तक 'इनफ्रास्ट्रक्चर' और संसाधनों के अभाव का रोना रोया है। संचार साधनों, सड़कों, सस्ते अनाज, बिजली, पानी और रोज़गार की इन लड़ाइयों में अनपी हार को हमने हमेशा घाटे के बजट के चलते संसाधनों की कमी के मत्थे मढ़ा है। लेकिन जब सन् 2060 तक की विश्व-प्रगति के जायज़े में सुनने को मिलता है कि अगले पचास वर्षों में हमारे देश की अर्थव्यवस्था पूरी दुनिया में सबसे अधिक गति से प्रगति करेगी, तो मानना पड़ता है कि सवाल संसाधनों से ज़्यादा  उनके सही और ईमानदार बंटवारे और उनकी लूट रोकने का है। यह बात तब और भी उजागर हो जाती है जब यही संस्था बताती है कि नागरिकों की सम्पन्नता के मामले में हमारा देश दुनिया के सबसे फिसड्डी देशों में दूसरे नम्बर पर रहेगा। इन दोनों आंकड़ों को जोड़कर पढऩे के बाद समझना बहुत मुश्किल नहीं होना चाहिए कि आने वाले वर्षों में देश की अर्थव्यवस्था की यह अव्वल दर्ज़े की प्रगति देश के किन गिने चुने खास नागरिकों के लिए होगी।
ट्रांसपेरेंसी इंटरनैशनल एक विश्वव्यापी संस्था है जो सालाना तौर पर प्रत्येक देश की सामाजिक स्थिति में पारदर्शिता और भ्रष्टाचार का आकलन करती है। लगभग पांच वर्ष पहले 'पहल' की इस श्रृंखला में हमने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर चर्चा करते हुए इस संस्था का भी ज़िक्र किया था। दृष्टव्य है कि पांच साल पहले दुनिया में ईमानदार देशों की सूची में हमारा देश 83वें स्थान पर था लेकिन कम से कम बेईमानी के इस आंकड़ों में हमने पांच वर्षों में बेहतरीन प्रगति की है और अब हमारा देश ईमानदारी के स्केल पर तेरह सीढिय़ां लुढ़ककर 95 वें स्थान पर पहुंच गया है। यू पी ए सरकार चुनावों से पहले जब अपनी उपलब्धियों को फेहरिश्त अपने वोटरों के सामने रक्खेगी, तो निश्चय ही वह इस शर्मनाक उपलब्धि पर पूरी तरह पर्दा डालना चाहेगी। 2 जी स्ट्रेक्टम से लेकर कामनवेल्थ खेल, आदर्श कॉलोनी, स्विस बैंकों के खाते और कोयले ब्लॉक घोटाले तक का हर मामला न सिर्फ सरकार की बढ़ती हुई उद्दंड मानसिकता बल्कि आर्थिक अनियमिताओं के प्रति जानबूझकर आंखें बंद कर लेने के रवैये को व्यक्त करता है। दुखद यह भी है कि भ्रष्टाचार के ये मामले केवल सरकार तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि विपक्ष और खास तौर पर बी जे पी के प्रतिनिधि भी इनमें उतने ही लिप्त हैं और कॉरपोरेट जगत से तो खैर इनका चोली-दामन का साथ है।
हम बार-बार योरोप के अर्थशास्त्री पर्लिट्ज़ के उस वक्तव्य की ओर लौटते हैं जिसमें उन्होंने कहा था कि आने वाले दिनों में राजनीतिक सत्ताएं महज़ व्यावस्थापन एवं संचालन की भूमिकाएं निभाएंगी जबकि वास्तविक सत्ता राजनीतिज्ञों के हाथ से निकलकर उद्योगपतियों और मल्टीनेशनल संस्थाओं के हाथ में चली जाएगी। पर्लिट्ज़ के अनुसार यही वैश्वीकरण की सबसे ज़रूरी शर्त भी है। अरुंधती राय का मानना है कि यही हमारी तेज़ी से बढ़ती और 'प्रगति' की ओर अग्रसर होती अर्थव्यवस्था का मूलमंत्र भी है। यदि हम भ्रष्टाचार के तमाम मामलों की तह मे जाएं तो सरकार एवं सत्ता के तमाम दलाल, जिनकी ओर उंगलियां उठी हैं, दरअसल इन तमाम लूट के बिचौलिए मात्र रहे हैं। इस लूट की वास्तविक उपभोक्ता हैं वे तमाम कम्पनियां जिनकी खातिर इन आर्थिक अनियमिताओं को अंजाम दिया जा रहा है। लेकिन इन्हें कठघरे में लाने का सवाल ही पैदा नहीं होता। अरुंधति राय अपनी दो टूक ज़बान में कहती हैं—
''रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड उन मुट्ठी भर कम्पनियों में से एक है, जो इस देश को चलाती हैं।... इनके साथ हैं टाटा, जिंदल, वेदांता, मित्तल, इनफोसिस, एस्सार और दूसरा रिलायंस (अनिल अंबानी) आदि। ...इसीलिए आश्चर्य नहीं कि 120 करोड़ की जनसंख्या वाले इस देश में सबसे अमीर सौ व्यक्तियों के पास आज देश की कुल आय या सकल घरेलू उत्पाद (जी डी पी) की एक चौथाई से भी अधिक निजी सम्पत्ति है। मुकेश अम्बानी की कुल सम्पत्ति बीस अरब डॉलर के आस-पास आंकी गयी है। वे आज इस धरती पर तेल, प्राकृतिक गैस, पेट्रोकेमिकल्स और पॉलिएस्टर फाइबर के स्वामी हैं। विशेष आर्थिक क्षेत्र, खुदरा भोज्य पदार्थों का धंधा, शिक्षा के लिए खास स्कूलों, जैविक शोध संस्थानों और 'स्टेम सेल' के भंडारों तक हर एक की कुंजी उनके पास है। ... अम्बानी की कम्पनी ने हाल ही में टी वी समूह इन्फॉटेल में 95 प्रतिशत की हिस्सेदारी खरीदी है। यह कम्पनी सी एन एन से लेकर सी एन बी सी और ई टी वी तक 27 समाचार और मनोरंजन चैनलों की मालिक है और देश में सिर्फ इसी के पास द्रुत गति वाली 4 जी टेक्नॉलॉजी का लाइसेंस हैं जो आने वाले दिनों में सूचना प्रसार का सबसे बड़ा ज़रिया बनने वाली है। यही नहीं, श्री अम्बानी की अपनी क्रिकेट टीम भी है...
... हमारे देश में कुल जनसंख्या के चौथाई यानी 30 करोड़ लोग उदारीकरण के बाद वाले युग के मध्यवर्ग से आते हैं, जो आज इस परिवर्तनों के साथ-साथ उस दूसरी दुनिया की भटकती आत्माओं के बीच जी रहा है, जहां मृत नदियों, सूखे तालाबों-कुंओं, नंगी पहाडिय़ों और रौंदे जा चुके जंगलों की प्रेत-कथाएं हैं, जहां ढाई लाख से अधिक कर्ज़ में डूबे किसान आत्महत्या कर चुके हैं और जहां अस्सी करोड़ की भूखी, फटेहाल भीड़ को हटाकर हमारे लिए रास्ता बनाया गया है, जब कि वह सारी भीड़ आज भी दिन में बीस रुपये या इससे भी कम में गुज़ारा करने पर मजबूर है।
...देखा जाए तो उद्योग के इन्हीं नामों के बूते पर हमारी अर्थव्यवस्था दुनिया में सबसे तेज़ रफ्तार से आगे चल निकली है। और पुराने समय के अच्छे उपनिवेशों की तरह हमारे प्रमुख निर्यात हैं हमारे प्राकृतिक खनिज। हमारे देश की बड़ी-बड़ी औद्योगिक हस्तियां टाटा, जिंदल, एस्सार, रिलायंस और स्टरलाइट साम-दाम-दंड के बूते पर इसी धारा की टोंटी संभाले लगातार इस धरती के गर्भ से पैसा खींचकर उगाह रही हैं कि वाह, जिस चीज़ को बनाना तक न पड़े, उसे भी बेचकर मुनाफा कमाया जा सकता है। और इस होड़ का कोई अंत नहीं है, क्योंकि जितना आपके पास है, उतना ही अधिक आप उससे और बना सकते हैं!
...इन उद्योगपतियों की तिजोरियों में धनवर्षा का दूसरा स्रोत है भूमि-अधिगृहण। यह रास्ता सारे विश्व में भ्रष्ट अधिकारियों से मिलकर अपनाया जाता रहा है और भारत में भी लाखों नागरिकों की ज़मीनें 'सार्वजनिक हितों' के नाम पर कभी विशेष आर्थिक क्षेत्रों तो कभी इनफ्रास्ट्रक्चर योजनाओं या बांधों, सड़कों, मोटरकार कारखानों, रासायनिक केंद्रों या फार्मूला रेसिंग की दुहाई लेकर यह ज़मीन सरकार लेती है और बाद में इसमें से अधिकांश औद्योगिक संस्थानों के नाम स्थानांतरित हो जाती है। (रॉबर्ट वडरा वाले केस में अस्पताल के लिए ली गयी ज़मीन के भूमि उद्योगपतियों को दिए जाने के आरोप भी सामने आए हैं) ताज्जुब की बात है कि इनमें से कोई भी ज़मीन किसी गरीब के हिस्से में आज तक नहीं आयी है। विस्थापितों को औने-पौने मुआवज़े के साथ उनकी ज़मीनों के बदले प्रगति या नौकरियों के थोथे आश्वासन दिये जाते हैं, लेकिन हम अच्छी तरह तरह जानते हैं कि जी डी पी की वृद्घि और नए कारोबारों/नौकरियों के बीच का रिश्ता एक और बहुत बड़ा धोखा है। बीस वर्षों की तथाकथित 'प्रगति' के बाद भी आज देश के 60 प्रतिशत श्रमधर्मी बेकार हैं और देश के 90 प्रतिशत मजदूर आज भी असंगठित क्षेत्रों में काम कर रहे हैं। देश में भ्रष्टाचार का हर नया किस्सा इससे पहले की वारदात को फीका करता चला जाता है।''
रांची से 15 किलोमीटर दूर नगरी गांव के किसान झारखंड सरकार द्वारा अपनी ज़मीन के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट, इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ इनफॉरमेशन टेक्नॉलाजी और नैशनल युनिवर्सिटी ऑफ स्टडी ऐंड रिसर्च इन लॉ के लिए अधिगृहण के खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं। आदिवासी कार्यकर्ता और चर्चित ऐक्टिविस्ट दयामणि बरला ने जब तथाकथित सरकारी ज़मीन पर हल जोतने की कोशिश की तो उसे गिरफ्तार कर लिया गया। बरला का कहना है कि मैं म.गा.रा.ग्रा.रो.अ. का रोज़गार कार्ड मांगती हूं तो ये मेरे विरुद्घ ज़मीन के अतिक्रमण का वारंट लेकर आ जाते हैं। यदि हम अपनी ज़मीन, अपने जल, अपने जंगलों को वापस देने की मांग करते है तो सरकार कहती है कि हम राज्य के लिए खतरा बन गए हैं। क्या इसी दिन के लिए बिरसा मुंडा ने स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ी थी। कई कई मुकदमों में घिरी 48 वर्षीय बरला पिछले कुछ समय से जेल में हैं। ''मैं जानती हूं कि इस देश में गरीब और सर्वहारा होने का क्या मतलब है। इस सरकार को लगता है कि हमारा संघर्ष इस राज्य के विकास की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है!''
लेकिन बरला की कहानी हमारे मीडिया के लिए 'अच्छी कॉपी' नहीं और यही वजह है कि बरला जैसे चेहरों से हमारा बहुत कम वास्ता होता है। राजनीतिक और सामाजिक स्थितियों पर असुविधाजनक सवाल पूछने वालों को यह राजनीतिक सत्ता बहुत बेशर्मी के साथ खारिज करती रही है। इसी के चलते अरुंधती राय देशद्रोही घोषित कर दी जाती है, आदिवासियों के बीच काम करने वालों का मृत्युदंड से नवाज़ा जाता है, केजरीवाल जैसों को सी आई ए का एजेंट बताया जाता है (लालू प्रसाद उवाच), कार्टून बनाने वालों को देशद्रोह के अपराध में जेल मिलती है और भ्रष्टाचार के विरुद्घ आवाज़ उठाने वालों को 'पागल कुत्ते से काटे' की संज्ञा दी जाती है। उधर सुदूर बंगाल में अप्रिय बातें छापने वाले समाचारपत्रों पर एक सिरे से प्रतिबंध लगा दिया जाता है। देखा जाए तो असहिष्णुता के ये सारे उदाहरण हिटलर के दौर के फासिज्म के उदाहरणों से बहुत दूर नहीं हैं।
इन समस्याओं को लेकर जब कभी-कभार कोई राष्ट्रीय स्तर पर आपत्ति दर्ज़ करता है या किसी सतर्कता संस्था द्वारा योजनाओं पर धांधली का आरोप लगता है तो सिब्बल जैसे कानून्विद् मंत्री झट से सामने आ जाते हैं कि नुकसान दरअसल हुआ ही नहीं (2 जी स्कैम), जब सरकार से जुड़े व्यक्तियों या रिश्तेदारों पर सीधे आरोप लगता है तो हमें सरकारी और वैयक्तिक हैसियतों का फर्क समझाया जाता है (रॉबर्ट वडरा प्रकरण), पार्टी के मुखिया जब आर्थिक अनियमितताओं के घेरे में पकड़े जाते हैं (नितिन गडकरी मामला) तो गुजरात से मोदी के धुरंधर कुतर्कशास्त्री यतिन ओझा टी वी पर चुनौती देते हैं कि गडकरी 'व्यक्तिगत' कारगुज़ारियों से पार्टी का एक पैसा भी इधर से उधर हुआ हो तो बताएं, और जब न चाहते हुए भी मंत्रियों को जेल से बचाना मुश्किल हो जाता है तो प्रधानमंत्री अपनी स्थायी रुप से खिसियाई आवाज़ में मिली जुली गठबंधन सरकार या 'कोएलिशन' की मजबूरियां जताकर कन्नी काट जाते हैं। देश में स्वतंत्रता से बाद के इतिहास में शायद राजनीतिक महकमे में इतनी लूट और नैतिकता का इतना ह्रास पहले कभी नहीं देखा गया होगा। अली जलील के शब्दों में
नशेमन ही के लुट जाने का गम होता तो क्या गम था
यहां तो बेचने वालों ने गुलशन बेच डाला है
राजकीय लूट की इस महापुराण में अपनी तमाम कमियों और सीमाओं के बावजूद किसन बाबूराव हज़ारे उर्फ अन्ना हज़ारे का उल्लेख सम्मान के साथ लिया जाना बेहद ज़रूरी है। यह आज के समय का दुर्भाग्य है कि हमारे राजनीतिक परिदृश्य पर एक भी ऐसा विश्वसनीय चेहरा नहीं रहा है, जिसके नाम को लेकर अंदरूनी नैतिकता या ईमानदारी की शपथ खायी जा सकती हो। प्रारंभिक दिनों में दादर स्टेशन पर फूल बेचने से लेकर 12 वर्षों तक एक सैनिक की वर्दी पहनने वाले और बाद में बेहद सहज ढंग से अपने अत्यंत गरीब गांव रालेगान सिद्घि को प्रगति की राह पर लाने वाले 75 वर्षीय अन्ना किस तरह लगभग रातोंरात भ्रष्टाचार की लड़ाई का मूर्त चेहरा बन गए, यह हम सभी जानते हैं। लेकिन अन्ना से सहमत या असहमत होने से पहले उनके उत्थान के लगभग चमत्कारिक ग्राफ को समझना महत्वपूर्ण होगा। एक तो अन्ना ने जिस समय भ्रष्टाचार की दुखती रग पकड़ी थी, उस समय सबसे गरीब तबके से लेकर उच्च मध्यवर्गीय स्तर तक लगभग समूचे समाज को यह सवाल आवश्यक दिखाई दे रहा था। दूसरे एक लम्बे अर्से से सामाजिक परिप्रेक्ष्य में कोई विश्वसनीय चेहरा दूर तक नज़र नहीं आता था। अन्ना के आक्रामक तेवर और उनकी स्वार्थ-रहित छवि ने सहज ही उन्हें अत्यंत विश्वसनीय बना दिया था। जो लोग अन्ना के अभियान को लेकर आश्वस्त नहीं थे, उन्हें भी उनका सीधा और बिना लाग-लपेट वाला सरलीकरण भा गया था। पहले टी वी की एकाध चैनेल ने ही उनके अभियान की तेज़ी को भांपा था और फिर धीरे-धीरे दूसरो की देखा-देखी, टी आर पी के लालच में सभी चैनेल उनके पीछे चल पड़े थे। अन्ना का अभियान इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का भी भरपूर फायदा उठा रहा था। लेकिन दिक्कत यह थी कि सरकार की नीयत शुरु से लेकर अंत तक खोटी थी और अपनी-अपनी रोटियां सेंकती विपक्ष की पार्टियां भी सिर्फ सतही तौर पर समर्थन दे रही थी, वे वास्तव में मज़बूत लोकपाल बिल की दुरभिसंधि में पडऩा नहीं चाहती थी। लम्बे अंतराल के बाद अन्ना के आंदोलन का वही हश्र हुआ, जिसकी आशंका शुरु से थी। आंदोलन में पड़ती दरारों को पढ़ते ही सरकार ने बहुत मुस्तैदी से सारी बहस को ठंडे बस्ते में डाल दिय और अब उसके मुद्दों को बाहर निकालकर कार्यान्वित करने का माद्दा कांग्रेस या बी जे पी किसी में नहीं है।
अन्ना हज़ारे के तमाम आलोचकों में अरुंधति राय भी थी, लेकिन उनकी आलोचना बहुत विश्वसनीय प्रतीत नहीं होती। उन्हें अन्ना के रातों-रात संत बन जाने पर ऐतराज़ था और उनका मानना था कि अपने कड़े रुप में लोकपाल बिल बेहद 'दमनकारी' साबित हो सकता है। उन्होंने एक जगह यह भी कहा है कि वे अन्ना हज़ारे के पक्ष में नहीं हैं क्योंकि वे राज ठाकरे के समर्थक हैं और उन्होंने अपने आंदोलन में महाराष्ट्र में हो रही किसानों की आत्महत्याओं के बारे में एक शब्द भी नहीं कहा है। ये दोनों की तर्क मायने नहीं रखते क्योंकि अन्ना हज़ारे ने कभी राज ठाकरे की विचारधारा का समर्थन नहीं किया। उनके अभियान का सारा ज़ोर लोकपाल के मुद्दे पर था और अन्य सवालों के साथ घालमेल से यह अप्रभावकारी हो जाता। दृष्टव्य है कि 'हिंदू' समाचारपत्र ने, जिसके ज़रिए अरुंधती ने अपना पक्ष रक्खा था, अब अपनी वेबसाइट से अरुंधती के वक्तव्य को हटा दिया है। लेकिन इसमें शक नहीं है कि अन्ना हज़ारे के आंदोलन में गई गंभीर खामियां थी और उनका 'सब कुछ या कुछ नहीं' वाला रवैया कई लोगों को ग्राह्य नहीं था। दूसरे वे अपने स्वयं के लोकपाल के मसौदे को समन्वय या बातचीत के ज़रिए बदलने के लिए तैयार नहीं थे। इन्हीं कारणों से, और बढ़ती आपसी दरारों के चलते अन्ना का तीसरा अनशन लगभग असफल रहा और तब उनके पास अपने अनशन को समेटने के सिवाए कोई चारा नहीं रहा।
इसमें कोई शक नहीं कि अन्ना और उनके 'इंडिया अगेन्स्ट करप्शन' आंदोलन ने पहली बार बहुत गंभीरता से कुछ ऐसे सवाल उठाए जिन्हें अब तक हर सत्ताहीन सरकार बहुत चतुराई से अंज़रअंदाज़ करती रही है और यदि कोई आमूल परिवर्तन न आया (जिसकी संभावना फिलहाल काफी कम है), तो आगे भी करती रहेगी। और यह सवाल सी बी आई एवं सी वी सी की स्वायत्ता का है। सी ए जी जिसने पहले 2जी स्पेक्टम और बाद में कोयले-भूखंड के आबंटन पर अपनी रपटों से भूचाल खड़ा कर दिया था, इन दोनों संस्थानों को स्वायत्ता दिलाने के पक्ष में है। यही मांग अन्ना और 'आई ए जी सी' के मसौदे में भी है, जिसे सरकार ने फिलहाल टाल रक्खा है क्योंकि ये संस्थान समय समय पर सरकारके लिए व्यावसायिक जगत से अंधाधुंध पैसा कमाने वाली कामधेनु गाय साबित होते रहे हैं। सी ए जी के प्रमुख विनोद राय साफ शब्दों में कहते हैं कि जिस धृष्टता से यह सरकार (आर्थिक और प्राकृति स्रोतों को लेकर) फैसले लेती रही है, वह बेहद भत्र्सनीय है। लेकिन उनका मानना है कि सूचना अधिकार अधिनियम आने के बाद देर-सबेर सरकार को कठघरे में आकर जवाब देना ही होगा। ''हम सब जानते हैं कि हमारी जवाबदेही क्या है!'' क्योंकि अब किसी भी चीज़ को छिपा सकना संभव नहीं है। श्रीराय कहते हैं कि यदि हम सी बी आई और सी वी सी से सकारात्मक कार्रवाई की अपेक्षा करते हैं तो (सरकार को) एक साहसिक कदम उठाकर इन्हें संवैधानिक बनाना ही होगा। ''आज ऐसा नहीं है और इसीलिए तमाम लोग इन संस्थाओं को सरकार के हाथ की कठपुतलियां कहते हैं।'' और इसके साथ ही परोक्ष रूप से अन्ना की मांग का समर्थन करते हुए वे कहते हैं, ''यदि आप चाहते हैं कि लोकपाल पूरी स्वायत्ता और स्वतंत्रता के साथ काम करे, तो हमें इसे संवैधानिक अधिकार देने ही होंगे!'' सी ए जी और श्री राय का यह साहसिक बयान खाली नहीं गया और जैसा कि अपेक्षित था, सरकार के प्रवक्ता मनीष तिवारी ने तुरंत इस पर अपनी टिप्पणी की और श्री राय पर पलटवार भी किया। स्थिति चाहे जो भी हो, लेकिन हमें स्वीकार करना पड़ेगा कि चेतना जगाने की दिशा में अन्ना के ग्रूप की भूमिका को सारी असफलताओं के बावजूद नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।
अन्ना का आंदोलन जिन चेहरों को अपने साथ लाया, उनमें सबसे महत्वपूर्ण नाम अरविंद केजरीवाल का है, जो अब अन्ना से अलग होकर पूरी तरह राजनीति के अखाड़े में कूद पड़े हैं। अन्ना ने अपना आंदोलन समेटने से पहले स्पष्ट किया कि वे सक्रिय राजनीति में नहीं उतरना चाहते, जबकि अरविंद केजरीवाल मानते हैं कि परिवर्तन अंतत: राजनीति के ज़रिए ही लाया जा सकता है और चूंकि लगभग सभी पार्टियां लोकपाल को फर्ज़ समर्थन देने के बावजूद इसे कार्यान्वित करने में असफल रही हैं, इसलिए उनकी पार्टी (जिसका नाम अभी तय होना बाकी है) अब सक्रिय राजनीति के रास्ते से भ्रष्टाचार मिटाने और अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों की 'पोल खोलने' का अनवरत प्रयास करेगी। अपनी तेज़-तर्रार भाषा और कुशल तर्क-शक्ति के आधार पर एक युवा नेता के रूप में केजरीवाल की छवि बहुत तेज़ी से उभरी है, लेकिन अपने उद्देश्य में वे कहां तक सफल हो पाएंगे, इसमें राजनीति के अनुभवी किरदारों और बुद्घिजीवियों को काफी संदेह है।
आई आई टी खडग़पुर से मैकैनिकल इंजीनियरिंग में बी टेक की उपाधि लेने वाले केजरीवाल भारतीय राजस्व सेवा में 14 साल गुज़ार चुके हैं और उन्होंने अरुणा रॉय के साथ मिलकर 'सूचना के अधिकार अधिनियम' को पारित करने पर काफी काम किया है। 2001 में अधिनियम के पारित हो जाने के बाद वे सक्रिय रुप से इसके प्रसार एवं कार्यान्वयन के विभिन्न मुद्दों से जुड़े रहे। अपने इस काम के लिए अरविंद केजरीवाल को मेगसैसे पुरस्कार भी मिल चुका है और इससे मिले पैसों को लगाकर उन्होंने एक एन जी ओ का सूत्रपात भी किया है।
अन्ना हज़ारे से अलग हो जाने के बाद से केजरीवाल ने एक के बाद एक कई खुलासों के ज़रिए राजनीतिज्ञों और उनसे जुड़े व्यक्तित्वों के निजी और सामाजिक क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार को सामने लाने का प्रयास किया है। रॉबर्ट वडरा से लेकर सलमान खुर्शीद और नितिन गडकरी उनकी चपेट में आ चुके हैं और इधर उनका निशाना रिलाएंस, डाबर, एच एस बी सी और कुछ दूसरे व्यावसायिक समूहों की ओर भी घूमा है। इन सभी खुलासों को देखकर जहां एक ओर केजरीवाल के साहस और उनकी काबिलियत की तारीफ करनी पड़ती है, वहीं यह भी लगता है वे बेहद जल्दी में है और बहुत सारे जानकारों के अनुसार वे राजनीति में 'लम्बी रेस के घोड़े' नहीं हैं और शायद बदहवासी या उठापटक में अपनी सारी 'अश्व-शक्ति' गंवाकर वे बहुत जल्दी थक-चूर किसी ठौर से बंधकर रह जाएंगे।
आई आई टी खडग़पुर से ही जुड़े एक और अरविंद, अरविंद तेलतुंबड़े के अनुसार —
''आप चाहे अरविंद केजरीवाल से सहमत हों या न हों, लेकिन आपको मानना पड़ेगा कि वे इस जनतंत्र की एक भारी कमी का पर्दाफाश कर इस देश के राजनीतिक परिदृश्य पर अपने पदचिन्ह छोडऩे में बेहद कामयाब हुए हैं...
यह करतब उन्होंने कैसे कर दिखाया? इस देश में गरीबी, असमानता, कुपोषण, भ्रूण हत्या, बीमारी और स्वास्थ्य से लेकर किसानों की आत्महत्या और अपराधहीनता तक सैंकड़ों समस्याएं हैं, जिनसे हमारे देश की अस्सी प्रतिशत जनता लगातार जूझ रही है। लेकिन इनमें से एक भी समस्या केजरीवाल के शहरी श्रोताओं मुआफिक नहीं होती। और तब उन्हें एक लाजवाब युक्ति सूझी कि क्यों न भ्रष्टाचार को एक समस्या और जन लोकपाल बिल को उसके समाधान के रूप में प्रस्तुत किया जाए!...''
तेलतुंबड़े कहते हैं नव-उदारतावादी मध्यवर्गीय वर्ग की नज़र में कुछ समय पहले तक इस देश में सब-कुछ ठीक-ठाक चल रहा था और वैश्वीकरण की शह पाकर 'ब्रैंड इंडिया' में आर्थिक प्रगति कुल सकल आय या जी डी पी की शक्ल में स्वस्थ छलांगें भी लगाने लगी थी। ऐसे में आए दिन सामने आने वाले भ्रष्टाचार के मामले इस आदर्श छवि को बिगाडऩे पर तुले हुए थे, जिससे अंतत: उनकी अपनी नियति भी जुड़ी थी।
''ऐसे में केजरीवाल के भ्रष्टाचार विरोधी अभियान ने उनका मन जीत लिया और वे उनकी ओर खिंचे चले आए, क्योंकि उन्हें विश्वास था कि 'लोकपाल' पारित होने से भ्रष्टाचार की समस्या पर कमोबेश काबू पाया जा सकेगा।...''
अन्ना हज़ारे की गांधीवादी छवि ने इस आंदोलन को कुछ और प्रभावकारी बना दिया था। बाद में जो कुछ घटित हुआ वह दरअसल भ्रष्टाचार विरोधी नव-उदारतावादी और सत्ता में भ्रष्टाचार के ज़रिए सौदे पटाने वाले सरकारी नव-उदारतावादी वर्ग के बीच का संघर्ष था। इसमें कई व्यवधान आए। जब जनता का सब्र टूटने लगा तो इस स्थिति को केजरीवाल ने सबसे पहले भांप लिया। फिर से उत्साह बढ़ाने के लिए उन्होंने राजनीति में उतरने का ऐलान कर डाला।
तेलतुंबड़े और उनके जैसे कुछ दूसरे विचारकों को लगता है कि केजरीवाल ने एक सार्थक सामाजिक आंदोलन बहुत चतुराई से खड़ा किया है, लेकिन उनका संशय है कि अंतत: वे स्वयं अपने बिछाए गए जाल में फंस जाएंगे क्योंकि वे हर दिन नए खुलासे तो खड़े कर सकते हैं, लेकिन दोषियों को सज़ा दिला पाना उनके वश में नहीं है। क्या वे वडरा और सलमान खुर्शीद को जेल पहुंचा सकते हैं? शायद नहीं। केजरीवाल स्वयं कह चुके हैं कि उनका काम दोषियों की शिनाख्त करना है, उन्हें सज़ा देने का काम यह जनता अपने जनतांत्रिक अधिकारों के ज़रिए करेगी। मुझे यह एक बहुत मुश्किल सपना सा लगता है, लेकिन फिर भी हमारे पास क्या केजरीवाल के इस आशावाद का समर्थन करने के सिवा कोई चारा है?
मुझे तेलतुंबड़े के इस कथन में भी त्रुटि दिखाई देती है कि देश की अस्सी प्रतिशत खस्ताहाल जनता का भ्रष्टाचार की समस्या से कोई लेना-देना नहीं है। अन्ना हज़ारे के इर्दगर्द जमा होने वाली तमाम भीड़ के नव-उदारतावादी करार दिए जाने वाले फतवे पर भी मेरी असहमति है। इसमें बहुत सारे विद्यार्थी, रिटायर हुए बूढ़े, गांव के बेकार नौजवान और बहुत से दूसरे लोग भी थे। शायद तेलतुंबड़े समाज के सार्थक परिवर्तन में इस वर्ग की कोई भूमिका नहीं देखते, लेकिन ज़रूरी नहीं कि ऐसा हो। यूं भी एक बड़े जन-समुदाय का कोई खास लेबल लगाना त्रुटिपूर्ण हो सकता है। शहर और गांव, सर्वहारा और निम्न मध्य वर्ग, संगठित कामगार और छुट्टे मजदूर, ये सब इस देश के अलग-अलग सीलबंद डिब्बे नहीं हैं जहां एक का प्रभाव दूसरे तक न पहुंचता हो।
तेलतुंबड़े केजरीवाल द्वारा 'अच्छे और साफ' लोगों को चुनाव में खड़ा करने के इरादे का भी मज़ाक उड़ाते हैं। तेलतुंबड़े कहते हैं कि इस सड़ी व्यवस्था में केजरीवाल इतने सारे अच्छे लोग लाएंगे कहां से? उनके अनुसार इतने अच्छे लोग बचे ही नहीं इस भ्रष्ट समाज में और चुनावपत्र दाखिल करने के लिए केजरीवाल को शायद व्यवस्था से दुखी जेलयाफ्ता लोगों से पर्चे भराने पड़ेंगे। तेलतुंबड़े जैसे सुधी मगर संशयवादी मस्तिष्कों से निपटना मुश्किल काम है, लेकिन मैं समझता हूं कि इस तरह के मज़ाक से, चाहे उनका अनुमान कितना भी सही क्यों न हो, निश्चय ही उनका वोट भ्रष्टाचार मिटाने के 'असंभव' सपने के विपक्ष में जा खड़ा होता है। हर चीज़ को एक ही रंग के चश्मे से देखने से कभी-कभी दृष्टि दोष भी हो सकता है। तेलतुंबड़े और उनके साथी मान चुके हैं कि पत्थर उछालने से आकाश में सूराख सिर्फ दुष्यंत कुमार की गज़ल में हो सकता है, वास्तविक जीवन में नहीं। लेकिन यदि आप पत्थर उछालने वाले के पक्षधर होने का दावा करते हैं तो आपका विश्वास पैदा करना होगा कि पत्थर उछालने के सांकेतिक कदम से आकाश में सूराख चाहे न हो, लेकिन 'बात निकलेगी तो बहुत दूर तलक जाएगी'

निश्चय ही यह सोचना कि लोकपाल बिल पास होने से देश में भ्रष्टाचार जड़ से समाप्त हो जाएगा, खामख्याली होगी। लेकिन यह भी सच है कि लोकपाल के कुछ प्रावधानों से निश्चय ही भ्रष्टाचार पर अंकुश लगेगा और सरकार की जवाबदेही भी काफी बढ़ जाएगी। केजरीवाल और अन्ना पर निशाना साधने वाले बार-बार कहते रहे हैं कि भ्रष्टाचार महज़ एक लक्षण है, बीमारी नहीं। वे यह भी कहते हैं कि बीमारी है हमारी सड़ी गली व्यवस्था। भ्रष्टाचार के अभियान के विरुद्घ बहुत सुविधाजनक ढंग से निशाना साधने वालों को स्पष्ट करना होगा कि यदि उनकी आस्था जनतांत्रिक तौर तरीकों में नहीं है तो क्या वे बंदूक की नोक पर इस व्यवस्था को बदलने का इरादा रखते हैं? अन्ना हज़ारे के आंदोलन के दिनों में सरकार की ओर से उनकी फौज को 'बी जे पी की बी टीम' का खिताब दिया गया था। खंडेलवाल पर भी बी जे पी के प्रति नर्म होने और भ्रष्टाचार के मूल में फैली बड़ी औद्योगिक शक्तियों को नज़रअंदाज़ करने के संगीन आरोप है। उन्होंने कुछ हद तक नितिन गडकरी, रिलाएंस और एच एस बी सी के ताज़ा खुलासों के ज़रिए इस आरोप को काटने की कोशिश की है।लेकिन हम देख चुके हैं कि औद्योगिक शक्तियों को कठघरे मे लाने का काम राजनीतिज्ञों पर वार करने से भी अधिक मुश्किल है। इसमें दो राय नहीं कि अधिकांश राजनीतिक भ्रष्टाचार के मामलों में इन औद्योगिक संस्थानों की अहम भूमिका रही है। सवाल उठता है कि केजरीवाल और उनके साथियों में क्या इन बड़ी मछलियों की शिनाख्त करने का मनोबल होगा, और यदि होगा तो क्या उनके कदम किसी सकारात्मक परिवर्तन की ओर इंगित करेंगे? सारी सदाशयता को स्वीकार कर चुकने के बाद भी हमें इस बात की बहुत कम संभावना दिखाई देती है। लेकिन फिर भी परिवर्तन की इच्छा रखने वाले समूहों के पास केजरीवाल और अन्ना के समर्थन में खड़े होने के सिवाए कोई चारा नहीं है क्योंकि इन निहत्थे सिपाहियों को छोड़कर फिलहाल कोई भी दूसरा इस लड़ाई में उतरने तक के लिए तैयार दिखाई नहीं दिखाई देता। शकील के शब्दों का सहारा लें तो--

खुश हूं कि मेरा हुस्न-ए-तलब काम तो आया

खाली ही सही मेरी तरफ जाम तो आया!

दुखद यह नहीं है कि इस बाज़ार में कांग्रेस और बी जे पी दोनों ही खोखली और भ्रष्ट हो चुकी हैं, क्योंकि हमें इन दोनों से इससे बेहतर की उम्मीद भी नहीं रही थी। दुखद यह है कि इतने मुश्किल समय में कोई तीसरा विकल्प भी दिखाई नहीं दे रहा। स.पा. और बहुजन समाज अपनी-अपनी भ्रष्ट करनियों और अदालत में चल रहे मुकदमों के वज़न तले मुंह खोलने का साहस नहीं कर पा रहे हैं। तृणमूल के सूडो वामपंथ और रह-रहकर उभरती फासीवादी प्रवृत्तियों ने उसे केंद्र की राजनीति से बाहर निकाल फेंका है। दक्षिण की पार्टियों का ईमानदारी का इतिहास पहले ही से बहुत अच्छा नहीं है। वाम पंथी पार्टियों का प्रभाव भी लगातार सिमटता जा रहा है। ऐसे में केजरीवाल ने एक नयी पार्टी बना भी ली तो उसका जनाधार कहां से तैयार होगा? और यदि उन्होंने राजनीति में अपनी जगह बना भी ली तो क्या वे लम्बे समय तक देश की कॉरपोरेट ताकतों से अपने-आपको बचाए रख सकेंगे? उन्हें सबक सिखा सकना तो बहुत दूर की बात है।

उधर अपनी गिरती साख को बचाने के लिए कांग्रेस ने एक बार फिर उदारीकरण का मोटा कवच पहन लिया है, जिसके भीतर से भ्रष्ट मंत्रियों की लूट की कहानियां धुंधली पडऩे लगती है और प्रतिपक्ष के चीख-पुकार सुनाई देनी बंद हो जाती है। यह कवच सरकार को अपने सबसे बेशकीमती दोस्त अमरीका के और नज़दीक ले जाता है और जैसा कि अरुंधति रॉय कहती भी हैं, ''...अपेक्षा यह है कि अमरीका और चीन के शीत युद्घ में भारत वही किरदार अदा करेगा जो कभी अमरीका और रूस के शीत युद्घ में पाकिस्तान ने निभाया था। ...लेकिन रणनीति के खास मित्र होने का मतलब सिर्फ दोस्ती नहीं होता। इसका मतलब होता है हर स्तर पर दूसरे के कार्य में दखलअंदाज़ी। इसका मतलब होता है गुप्त जानकारी को एक-दूसरे के साथ बांटना, कृषि और ऊर्जा की नीतियों में फेरबदल, शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में विदेशी निवेश की छूट देना, इसका मतलब होता है खुदरा मंडियों के दरवाज़े खोलना।...''

और खजाने की लूट की कहानियों को बंद करने के लिए सरकार यही कर रही है क्योंकि देश को अमरीका के हाथ गिरवीं रखने की औपचारिकताएं ऊर्जा संधि के नाम पर पहले ही पूरी की जा चुकी हैं। अब देश के प्राकृतिक स्रोतों की लूट की प्रक्रिया को अंजाम देना भर बाकी है।

आज से ग्यारह वर्ष पहले 2001 में इस श्रृंखला में हमने फ्रांस के विशेषज्ञ स्टीफेन गॉडफ्री का 'पहल' के लिए विशेष रुप से तैयार किया गया आलेख प्रकाशित किया था। आलेख के अंत में स्टीफेन ने इस देश की स्वायत्ता को लेकर चंद ज़रूरी सवल पूछे थे, जिनकी ओर इस अंतराल के बाद लौटना ज़रूरी लग रहा है। स्टीफेन गॉडफ्री के सवाल थे--

* भारत की कम्पनियों का स्वामित्व किसके हाथ में होना चाहिए?

* इस देश की प्राकृतिक सम्पदा का महत्व क्या है?

* इस सम्पदा के स्वामित्व और इसके दोहन का अधिकार किसे मिलना चाहिए?

* क्या किसी को भी इस सम्पदा के जैविक रूपांतरण की छूट दी जानी चाहिए?

* क्या खुले बाज़ार में भारत अपनी ज़मीन और अपनी महत्वपूर्ण फसलों पर अपना नियंत्रण कायम रख पाएगा?

क्या पिछले ग्यारह वर्षों में हम इनें से एक भी सवाल जनहित में इस्तेमाल कर पाए हैं? अरुंधति की मानें तो पूरे विश्व में एक ज़रूरी उथलपुथल चल रही हैं--

''पूंजीवाद आज कितने गहरे संकट में है, इसका अभी पूरी तरह खुलासा नहीं हो पाया है। मार्क्स ने कहा था कि 'बुर्जुआ वर्ग के बने समाज में उनकी खुद की कब्र को खोदने वाले भी होते हैं; इस वर्ग का पतन और सर्वहारा की विजय सुनिश्चित है।'

माक्र्स ने जिस सर्वहारा की परिकल्पना की थी, वह आज निरंतर प्रहार झेल रहा है। कारखाने बंद होते जा रहे हैं, नौकरियां गायब हो चुकी  हैं, ट्रेड यूनियनों पर ताले लग चुके हैं। सर्वहारा को हर संभव तरीके से आपस में लड़ाया जाता रहा है। मुस्लिम के खिलाफ हिंदू, हिंदू के खिलाफ क्रिश्चियन, दलित के खिलाफ आदिवासी, जाति के विरुद्घ जाति, प्रांत के विरुद्घ प्रांत! लेकिन फिर भी, सारी दुनिया में वह प्रतिकार कर रहा है। चीन में अनगिनत हड़तालें और प्रदर्शन हुए हैं। भारत में सबसे गरीब वर्ग के लोग सबसे समृद्घ अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों की जनविरोधी योजनाओं का चक्का जाम करने में सफल रहे हैं।

पूंजीवाद संकट में है। उसे फिर से खड़ा करने के सारे उपाय नाकाम रहे हैं। अंतर्राष्ट्रीय मंदी धीरे-धीरे गहराती जा रही है। हमारी अपनी विकास गति लुढ़ककर 6.9 प्रतिशत तक आ गयी है। विदेशी निवेश छोड़-छोड़कर भाग रहा है। बड़े-बड़े बहुराष्ट्रीय संस्थान हतप्रभ हैं कि अपना फालतू पैसा वे किस देश के किस क्षेत्र में निवेश करें। 'युद्घ' और 'खरीददारी' की दोनों पुरानी चालें नाकाम सिद्घ हो चुकी हैं। पूंजीवाद की कब्र खोदने वालों को यह सीधा-सादा तथ्य भी समझ में नहीं आ रहा है कि पूंजीवाद ही इस दुनिया के विनाश के लिए जिम्मेदार है!''

भविष्य को लेकर अरुंधति की इस आशावादिता से सहमत या असहमत हुआ जा सकता है। उनकी बातों से लगता है क्रांति शायद अगले पखवाड़े में आने ही वाली है। लेकिन अंग्रेज़ी की शब्दावली में कहा जाए तो पूंजीवाद की जेबें शायद अब भी बहुत गहरी और लम्बी हैं। उन्हें खाली होने में शायद काफी समय लगगा। लेकिन इतना ज़रूर सच है कि वैश्वीकरण लागू करने वाली अंतर्राष्ट्रीय ताकतों का भ्रष्टाचार या नैतिकता से कोई लेना-देना नहीं होता। वे स्वयं अपने महकमों में समय आने पर डाकुओं, तानाशाहों और आतंकवादियों से समझौता कर सकती है। इसलिए वैश्वीकरण के तहत ईमानदारी की मांग करना फिजूल होगा। लेकिन आम जनता की दृष्टि से महत्वपूर्ण यह है कि जहां वैश्वीकरण के तर्कों को लीपा-पोती के बाद लोगों के गले से उतारा जा सकता है, वहां भ्रष्टाचार का अनुमोदन करना और लोगों के बीच उसे स्वीकृति दिलाना उतना आसान नहीं है। इसलिए धन, भूमि और प्राकृतिक सम्पदाओं की लूट का भ्रष्टाचार के नज़रिए देखा और परखा जाना तर्कसंगत और युक्तिपूर्ण है। इसमें लोगों की सहभागिता और पक्षधरता हासिल करना अपेक्षाकृत आसान भी है। ऐसे में इस युद्घ में उतरने वालों की सदाशयता, सूझबूझ और ईमानदारी पर ही इसकी विजय या पराजय का पूरा दारोमदार है। फिलहाल सिर्फ यह कामना ही की जा सकती है कि यह लड़ाई अंतत: हमें उन सवालों तक पहुंचाएगी जिनपर अंतत: इस धरती का भविष्य टिका हुआ है।

 

 

 

 

जितेन्द्र भाटिया, 101 वरुणि अपार्टमेंट, 285-286 आदर्श नगर, जयपुर-302004


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