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जनवरी 2013

पत्र

विजेन्द्र

4 अक्टूबर, 2012

दो महीने के बाद आज ही लौटा हूँ। 'पहल' पुन: प्रकाशित होने को है हल्की चर्चा तो सुनी थी। पर आपके पत्र ने आश्वस्त किया। इससे ज्यादा प्रसन्नता की बात और क्या हो सकती है। प्रगतिशील तथा जनवादी साहित्यिक तथा सांस्कृतिक मूल्यों को नई ऊर्जा तथा नया क्षितिज प्राप्त होगें। यह बड़े संकट का दौर है। देखते देखते लोगों ने अपने संकल्प और वैचारिक चित्तभूमियाँ बदल दिये है। मेरे ख्याल से यह समय तो गहरे आत्मालोचन तथा तीखे वैचारिक संघर्ष का है। इसमें संदेह नहीं सत्ता क्रमश: क्रूर होती जा रही है। परोक्षत: आपातकाल जैसी स्थितियाँ बन रही हैं। जनवादी पत्रिकायें भी बाज़ार की भव्यता में रस लेने लगी हैं। इससे मैं समझता हूँ जनवाद विरोधी लोगों को बल मिल रहा है। ऐसे में एक दिशा सूचक जनवादी मूल्यों को समर्पित पत्रिका का क्या रोल हो सकता है — आप से बेहतर कौन जान सकेगा। जो पत्रिकायें ऐसे कठिन दौर में भी संघर्षशील जनता से एकात्म होकर आज की कठिन चुनौतियों को यदि नहीं स्वीकारेंगी तो इतिहास उन्हें जरूर विस्मृत कर देगा। आखिर में विजय तो सर्वहारा की ही होनी है। हमें दिखाई भले न दें हालात विश्व में नया मोड़ लेने को बेचैन दिखते हैं। यह आर्थिक संकट अच्छे अच्छे साम्राज्यों को हिला रहा है। हमें छाया प्रतीति का भेदन कर सार तत्व तक जाना होगा। जैसे बाजार तो छाया प्रतीति है। इसका सार तो साम्राज्यवादी वित्तीय पूँजी का विषबुझा चेहरा है। वह हमारे लिये विषकन्या है। महिमामण्डन बाजार का हो रहा है। जहाँ सीधा प्रहार होना चाहिए उधर ध्यान ही नहीं है। मैं दरअसल जनवादी - प्रगतिशील साहित्य पत्रकारिता के महते दायित्व को ध्यान में रख अपनी बात 'आप से' कह रहा हूँ। बाजार हमारे सौंदर्यबोध को ही कुत्सित नहीं करता बल्कि वह हमें अपनी क्षमतामूलक जड़ों से भी काटता है। 'सरस्वती' की फाइलें देखने से पता लगता है कि महावीर प्रसाद द्विवेदी कितने बड़े जोखिम का सामना कर संघर्ष कर रहे थे। शायद आज हम उन्हें इसीलिये विस्मृत नहीं कर पाते। पहल यदि इधर कुछ कर पाये तो उससे जनवादी मूल्यों को बहुत बल मिलेगा। आप जानते ही हैं मोटी तथा भारी भरकम पत्रिकायें हिंदी में अनेक हो चुकी हैं। उनमें प्रकाशित लेखक हाल फिलहाल प्रसन्न भले हो लें पर उनका स्थाई महत्व भी होगा कहा नहीं जा सकता। पत्रिका सार्थक रचनाशीलता को सुरक्षित और पुष्ट ही नहीं करती बल्कि निरर्थक का खरपत की तरह मूलोच्छेद भी करती है। औपनिवेशिक आधुनिकता का रंग पिछले दिनों और गाढ़ा हुआ है। क्या इसके प्रतिरोध के लिए एक सक्षम पत्रिका के पास कोई दृष्टि - कोई विकल्प - नहीं हो सकता।
आपका बहुत लंबा साथ रहा है। अब उम्र का वह दौर है कि न जाने कब क्या हो जाये। पहल से मैं आंतरिक रुप से जुड़ा भी रहा हूँ। अत: इतनी बातें  कह कर आपसे संपाद का सुखद अनुभव हो रहा है।

- सस्नेह, विजेन्द्र
जयपुर

 


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