मुखपृष्ठ पिछले अंक कुछ पंक्तियां
जनवरी 2013

कुछ पंक्तियां

ज्ञानरंजन



तीन वर्ष से अधिक के अंतराल के बाद 'पहल' की वापसी हो रही है। ऐसा इसके बंद होने की ही तरह, आकस्मिक हुआ। आकस्मिकताओं के पीछे भी कारगर संदर्भ हो सकते है। कई तरह की स्वतंत्रता और सहयोग के विश्वसनीय प्रस्तावों के बाद 'पहल' का फिर से निकलना संभव हो पा रहा है। एक साहित्यिक पत्रिका निकालना पहले की अपेक्षा आज अधिक चुनौतीपूर्ण हो गया है क्योंकि विभक्तियां बढ़ी है और धन सम्पदा की दौड़ वैचारिकी को गहरी चोट पहुँचा चुकी है। 'पहल' के बंद हो जाने पर एक मंद कुहराम जिन नामी, सफल और दोस्त लोगों ने मचाया था, वे वास्तव में अभी भी और कभी भी उसके लिये ठंडे ही रहे हैं। इस बार अनाम लोग, जिसमें चिंतातुर युवा अधिक है, उत्साहित और सहयोगी होकर आये हैं। पुराने होनहारों में सन्नाटा है, उनके भीतर खिलेगा तो देखेंगे की मनोवृत्ति कायम है। यह दंबगई है। हैसियत बना लेने वाले और पुराने समर्थ रचनाकारों की चाल में एक सफलीभूत गर्वीलापन आ गया है। ये दरारों में अपना घर बना रहे हैं, ये पंक्तियों को आगे पीछे करते हैं, शीर्षकों को बदलते बदलते ही शाम हो जाती है पर इनका एक मजबूत संयुक्त परिवार है। ये प्रतिबद्घत्ताओं से परे चले गये हैं। दूसरी तरफ एक बिखरी बेचैन दुनिया है, उसने 'पहल' का स्वागत किया है, वह झोली में लगातार कुछ डाल रही है, सृजनात्मक उत्साह दिखा रही है, वायदा कर रही है, वायदा निभा रही है। 'पहल' की इस पारी में एक बड़ी जगह नये रचनाकारों ने ही बनाई है। लेकिन निरूद्देश्य यौवन और खुले बाजार के लिये हमारे पास जगह नहीं है। कठिनाई यह है कि इधर कलह, तू तू, लांछन, दंगा, दंगल और वकालत बहुत बढ़ गयी है। जो विश्वसनीय और मजबूत स्वर थे वे भी इसी मिर्च मसाले के शिकार हुये या अवसादग्रस्त हुए। मार काट मची हुई है, सहमे हुये बच्चे गर्दन घुमा घुमा कर देख रहे हैं, चुप हैं, विचलित हैं या इंटरनेट की शरण में हैं। कुछ हैं जो चौराहों पर रुके हैं, भांप रहे हैं कि क्या करें। या वही कि खिलेगा तो देखेंगे। जबकि हिन्दी का विश्व साम्राज्य बढ़ रहा है, प्रकाशकों का विश्व साम्राज्य बढ़ रहा है। अमीरी आ रही हैं, विभोर कर रही है, प्रतिरोध ठप है या खुदरा है। आलोचक और मागदर्शक क्या कर रहे हैं? आलोचना की पीठ अध्यापकों के पास हैं। वे वाचाल हैं, लोकार्पित है, अध्यक्षताएं कर रहे हैं, जगह जगह जाकर उन्होंने शताब्दी तमाशा मचाया हुआ है क्योंकि कोष और श्रद्घा उसी जगह है। वे व्यस्त हैं, वे उद्घाटन और नियुक्तियां करेंगे, भक्त बनाएंगे, छोटे छोटे लिटटेरी क्लब बनवाएंगे, फुटकरों का संग्रहण करेंगे। वे आपको पुरस्कृत करेंगे और प्रतिदिन एक समारोह मचाएंगे। एक धारा बन गई है, उस लीक पर वृद्घों की राह पर प्रौढ़ भी चल पड़े हैं, अब नव्यतयों की बारी है।

हमारा प्रयास है कि रचनाकार आलोचना में प्रवेश करें। हिन्दी में पहले भी आलोचना को रचनाकारों ने संभाला था। बड़े उदाहरण हैं। मठों को टूटना ही होगा। हमने पहल के आगामी अंकों के लिए भी योजनाबद्घ तरह से नये रचनाकारों को आलोचनात्मक लेखों के लिये आमंत्रित किया है - और यह क्रम धाराप्रवाह होगा।

प्रस्तुत अंक में कुछ लोग पहली बार आये है। जीवित परंपराओं से लेकर अज्ञात भविष्यों तक की पहचान और समर्थन 'पहल' की कोशिशों का स्थायी भाव है। हम अपनी छापी गई रचनाओं का समर्थन करते हैं, हमारी संपादकीय नीति की यह एक मुख्य कार्रवाई है।


Login