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जनवरी 2013

इक्कीसवीं सदी में मार्क्सवाद

गोपाल प्रधान


प्रस्तुत लेख में मेरी भंगुर स्मृति में सोवियत संघ के विघटन से लेकर वर्तमान समय तक जिस तरह मार्क्सवाद के उत्थान पतन का ब्यौरा दर्ज है उसे निरूपित करने की कोशिश की जाएगी। स्मृति की गड़बड़ी और अंग्रेजी की गलत सही जानकारी इसकी सीमाएँ हैं लेकिन कोई और यह काम शुरू नहीं कर रहा इसलिए हाथ लगाया। चर्चा बहुतों से इसी उम्मीद से की कि वे इस काम को इसी भली तरह से अंजाम दे सकते हैं लेकिन होनी को कौन टाल सकता है।

सोवियत पतन के बाद का मार्क्सवाद विरोध नए हालात के मद्दे नजर धीमा हुआ है और एक ओर अमेरिकी साम्राज्यवाद के विध्वंसक उभार तथा हाल में आर्थिक मंदी की चपेट और दूसरी ओर लातिन अमेरिका में एक के बाद एक देशों में मार्क्सवाद समर्थक दलों की विजय ने मार्क्सवाद को दोबारा प्रासंगिक बना दिया है।
सोवियत संघ के पतन का धक्का इतना जबर्दस्त था कि एकबारगी उससे संभलने में वक्त लगा। चारों ओर पूँजीवाद के जीत का इतना तगड़ा जश्न मनाया जा रहा था और उत्तर आधुनिकता के ही प्रासंगिक दर्शन रह जाने के इतने बड़े बड़े दावे किये जा रहे थे कि 'मंथली रिव्यू' में भी कुछेक प्रतिबद्घ लोगों को छोड़कर किसी की रुचि महसूस नहीं होती थी। इसी दौर में एजाज़ अहमद की किताब 'इन थियरी' का प्रकाशन हुआ। एजाज़ अहमद उर्दू साहित्य के विद्वान हैं और उत्तर आधुनिकता आदि सिद्घांतों का साहित्य से बहुत कुछ लेना देना था इसलिए वे इस सैद्घांतिक बहस में भी कूदे। ज्यादातर साहित्य सिद्घांतों पर केंद्रित होने के बावजूद इस किताब में तत्कालीन बहसों में हस्तक्षेप करते हुए क्लासिकीय मार्क्सवादी नजरिया अपनाया गया था। कुछ मामलों में उन्होंने ग्राम्शी पर विचार करते हुए उन्हें भी शास्त्रीय मार्क्सवादी परंपरा में स्थापित करने की कोशिश की।
इसी समय जब सब कुछ उत्तर हो रहा था तो मार्क्सवाद के भीतर भी तरह तरह की मान्यताएं घुसाकर उसे भी उत्तर मार्क्सवाद बनाया जा रहा था। मसलन अंतोनियो नेग्री की किताब 'एंपायर' आई जिसमें साम्राज्यवाद को नया अवतार ग्रहण किया हुआ बताया गया था। किताब में कहा गया था कि साम्राज्यवाद आज मार्क्सवादियों ने जैसा उसे बताया था वैसा नहीं रह गया बल्कि पुराने जमाने के साम्राज्यों की तरह का हो गया है और उससे लड़ाई भी विविधवर्णी हो गयी है। सा$फ है कि विश्व सामाजिक मंच में जिस तरह भाँति भाँति भी शक्तियाँ शामिल हो रही थीं उसी के कारण इस तरह के सिद्घांत भी पेश किए जा रहे थे। पुस्तक में साम्राज्यवाद से लडऩे की माओवादी नीति 'तीन दुनिया' के सिद्घांत पर यह कहकर सवाल उठाया गया था कि तीसरी दुनिया में भी एक पहली दुनिया बन गई है और उसी तरह विकसित देशों में एक तीसरी दुनिया दिखाई पड़ती है।
वैसे भी मार्क्सवाद कोई ऐसा दर्शन नहीं रहा है कि महज तार्किक रुप से सच होने के आधार पर उसकी प्रासंगिकता बनी रहे। इसी बीच लातिन अमेरिकी देशों में नई शुरुआतों की खबरें आने लगीं। ब्राजील में लुला की जीत से और कुछ हुआ हो अथवा नहीं विश्व आर्थिक मंच के समानांतर विश्व सामाजिक मंच के गठन और उसकी पहलों ने ध्यान खींचना शुरू कर दिया। अमेरिका के सिएटल में हुए प्रदर्शनों से लगा कि यह कोई तात्कालिक परिघटना नहीं है। इन चीजों को कुछ दिनों तक उत्तर आधुनिक व्याख्या के ढाँचे में समेटने की कोशिश होती रही लेकिन जल्दी ही आंदोलनकारियों और प्रतिरोध की ताकतों को मार्क्सवाद पर बात करते हुए सुना जाने लगा। ध्यान रखना होगा कि इस क्रम में मार्क्सवाद में कोई नया तत्व नहीं जोड़ा गया बल्कि उसके कुछ पहलुओं को उभारा गया जो अब तक थोड़ा बहुत उपेक्षित रह गए थे। लेकिन इस दौर के मार्क्सवाद संबंधी विचार विमर्श की एक विशेषता पर ध्यान देना जरूरी है। बीच में मार्क्सवाद का शैक्षिणिक रूप बहुत ज्यादा उभारा गया था। उसके मुकाबले इस दौर में आंदोलनों में उसके जुड़ाव को सहज ही महसूस किया जा सकता है।


एक


इस दौरान लिओनार्ड वुल्फ की किताब 'हवाई रीड मार्क्स टुडे' चर्चित हुई। किताब के लेखक यूनिवर्सिटी कालेज लंदन में दर्शन के प्रोफेसर थे और इसका प्रकाशन 2002 में हुआ था। भूमिका में लेखक ने बताया कि उन्होंने जब मार्क्सवाद पर एक पाठ्यक्रम शुरु किया तो उन्हें उम्मीद नहीं थी कि कोई इसे पढ़ेगा लेकिन अचरज तब हुआ जब अनेक छात्र इसे पढऩे के लिए आए। इस रुचि का कारण बताते हुए उन्होंने विश्व सामाजिक मंच के जुलूसों में प्रदर्शित एक बैनर का जिक्र किया है जिसमें लिखा था 'चेंज कैपिटलिज्म विथ समथिंग नाइस'। इसी इच्छा में वे मार्क्सवाद के लिए जगह देखते हैं। वे मार्क्सवाद को पूँजीवाद की मूलगामी आलोचना के बतौर समझते हैं। पुस्तक में मार्क्स के विचारों के प्रति कोई श्रद्घा नहीं है बल्कि ज्यादातर एक तरह की आलोचना ही है लेकिन किन्हीं किन्हीं प्रसंगों में बिना शक कुछ नई बात कहने की कोशिश की गई है।
सबसे पहले वे सवाल उठाते हैं इक्कीसवीं सदी में मार्क्सवाद में से कितना कुछ बचा रहेगा और उत्तर देते हैं कि हमारे कल्पना से ज्यादा ही। वे मार्क्स की एक सीमा का संकेत करते हैं जिसे हम आगे के तकरीबन सभी विचारकों में दोहराया जाता हुआ पायेंगे। वे कहते हैं कि मार्क्स के लिए प्राकृतिक संसाधन अक्षय थे इसलिए पूँजीवाद की उनकी आलोचना में हम पर्यावरण के विनाश संबंधी प्रसंग उतने नहीं देखेंगे जितने आज दिखाई पड़ते हैं। पुस्तक की सीमा के बतौर वे इस बात को भी शुरू में ही साफ कर देते हैं कि मार्क्स को उन्होंने पारंपरिक तरीके से यानी एंगेल्स की नजर से ही देखा है।
वुल्फ ने पुस्तक की शुरुआत मार्क्स के शुरुआती लेखन के विश्लेषण से की है। इस सिलसिले में ध्यान रखना होगा कि पूँजीवाद की आलोचना अपने जमाने में मार्क्स अकेले ही नहीं कर रहे थे। वुल्फ का मकसद अन्य आलोचकों के मुकाबले मार्क्स की विशेषता को उजागर करना है। वे कहते हैं कि मार्क्स को पूंजीवादी समाज मानव विरोधी नजर आता है लेकिन उन्हें लगा कि पूँजीवाद समाज में मजदूरों की बदहाली का सही विश्लेषण नहीं हो रहा है इसीलिए इसका इलाज भी नहीं खोजा जा सका है। उस समय धर्म को लेकर बहुत सारा आलोचनापरक चिंतन हो रहा था। धर्म संबंधी इस समस्त विवेचन को मार्क्स ने सामाजिक आलोचना में बदला और इसके लिए अलगाव की धारणा का उपयोग किया तथा इसके साथ श्रम के अलगाव की बात उठाई। उन्होंने यह भी माना कि उदारवादी समाज में प्राप्त अधिकारों को मजदूरों को प्रदान करने से भी उनकी समस्या का समाधान नहीं हो सकता। धर्म के सवाल से शुरू करने की वजह युवा हेगेलपंथी थे। युवा हेगेलपंथियों में मार्क्स सबसे अधिक फायरबाख के नजदीक थे। फायरबाख ने कहा कि ईश्वर ने मनुष्य को नहीं वरन मनुष्य ने ईश्वर को बनाया है। उनका कहना था कि मनुष्य ने अपने सभी गुणों का सर्वोत्तम रूप कल्पित करके उन्हें ईश्वर में निवेशित कर दिया। उनके अनुसार इसके कारण हम मानवीय गुणों को उनका उचित दाय प्रदान नहीं कर पाते। मार्क्स ने कहा कि 'धर्म की आलोचना सारत: पूरी हो चुकी है' । स्वाभाविक रूप से धर्म की आलोचना उस समय की सत्ता की आलोचना भी थी क्योंकि वह सत्ता अपने आपको धर्मसम्मत बताती थी। इसीलिए युवा हेगेलपंथियों की नास्तिकता इतनी खतरनाक मानी गई। बहरहाल मार्क्स $फायरबाख के भी विश्लेषण से संतुष्ट नहीं हुए। उन्होंने सवाल उठाया कि आखिर मनुष्य ने धर्म का आविष्कार ही क्यों किया। इसका उत्तर देने के क्रम में वे इस मान्यता तक पहुँचे कि इस दुनिया की तकलीफों ने धर्म की कल्पना को जन्म दिया है इसलिए धर्म का उच्छेद उन हालात के खात्मे से जुड़ा हुआ है जिन्होंने धर्म और ईश्वर की कल्पना को पैदा किया। इसके बाद वे इस बात पर जोर देते हैं कि मार्क्स ने वास्तविक दुनिया को बदलने की कल्पना को पैदा किया। इसके बाद वे इस बात पर जोर देते हैं कि मार्क्स ने वास्तविक दुनिया को बदलने में मनुष्य की भूमिका को उजागर करने के लिए अपने समय की दार्शनिक धाराओं का खंडन किया। उनके अनुसार मार्क्स हाब्स से लेकर फायरबाख तक के भौतिकवाद की आलोचना इसलिए करते हैं कि वह दुनिया को बदलने में मनुष्य की भूमिका को मंजूर नहीं करता तो दूसरी ओर हेगेल में अपनी पूर्णता को पहुँचा हुआ भाववाद भी ऐतिहासिकता को स्वीकार करने के बावजूद समस्त बदलाव को महज चिंतन के बदलाव तक सीमित कर देता है। हेगेल की तरह वे मानते हैं कि मनुष्य अपने आपको और दुनिया को सांसारिक गतिविधि के जरिए बदलता है लेकिन उनके विपरीत कहते हैं कि यह बदलाव महज चिंतन के क्षेत्र में नहीं बल्कि वास्तविक दुनिया में होता है। इस गतिविधि का एक महत्वपूर्ण पहलू उत्पादक गतिविधि या श्रम है। अब श्रम का सवाल ही उन्हें अलगाव की अमूर्त धारणा से उसके ठोस रूपों पर विचार करने की ओर ले जाता है। श्रम के अलगाव के कारण मनुष्य अपने अस्तित्व को साकार नहीं कर पाता। श्रम के अलगाव के कारण जो गतिविधि आनंद का स्रोत होनी चाहिए वही तमाम तरह की तकलीफों का स्रोत बन जाती है। मेहनत करने वाला मनुष्य काम की स्थितियों के कारण अपनी मनुष्यता को खोकर महज हाथ और पेट बनकर रह जाते हैं। श्रम माल में बदल जाता है जिसे बाज़ार में खरीदा और बेचा जाता है। श्रमिक का जीवन ही मानो उसके अपने लिए नहीं बल्कि धनी मानी लोगों की जरूरत के मुताबिक चलता हुआ प्रतीत होता है। मार्क्स ने श्रम के अलगाव को इस तरह प्रस्तुत किया कि पूँजीवाद के तहत मनुष्य का सार उसके अस्तित्व से जुदा हो जाता है। मार्क्स के अनुसार मनुष्य सारत: उत्पादक प्राणी होता है लेकिन पूँजीवादी व्यवस्था में उसे अमानवीय स्थितियों में मेहनत करनी पड़ती है।
इस अलगाव का पहला रूप यह है कि मनुष्य अपनी मेहनत से पैदा हुई चीज से अलग कर दिया जाता है। मार्क्स के अनुसार जिस भी वस्तु के हम दर्शन करते हैं वह मनुष्य की मेहनत के जरिए उस रूप में आई होती है। बात यह है कि संसार के ऐसा होने के बावजूद हम उसे अपनी मेहनत का ही उत्पाद स्वीकार नहीं करते। इस तरह हम अपनी ही बनाई दुनिया में अजनबी की तरह रहते हैं। ये वस्तुएँ सिर्फ पराई और रहस्य ही प्रतीत नहीं होतीं बल्कि हम पर राज भी करने लगती हैं। मान लीजिए हम कहते हैं 'बाज़ार की ताकतें' और हमारी बनाई हुई चीज होने के बावजूद हम उन्हें इस तरह समझते हैं मानो वे गुरुत्वाकर्षण की शक्ति जैसी कोई चीज हों। इस तरह बाज़ार हम पर शासन करने लगता है।
अलगाव का दूसरा रूप श्रम विभाजन से पैदा होता है। इसके कारण श्रमिक समूची व्यवस्था को नहीं समझ पाता और अपनी जगह पर अपना काम यांत्रिक तरीके से करता रहता है। इसके कारण मनुष्य मशीनी तरीके से एक ही काम बार बार करता रहता है और उकी सृजनात्मकता मारी जाती है। इसी से फिर मनुष्य प्रजाति के बतौर हमारे खास गुणों या मानवता से हमारा अलगाव होता है। मनुष्य का अपना खास गुण है सामाजिक रूप से उत्पादक गतिविधि। मार्क्स कहते हैं कि उत्पादन तो अन्य प्राणी भी करते हैं लेकिन मनुष्य स्वतंत्रता पूर्वक अपनी मर्ज़ा के मुताबिक अनपहचाने रास्तों पर चलकर भी उत्पादन करता है। उसके उत्पादित वस्तुओं की विविधता अपार हो सकती है लेकिन पूँजीवाद के तहत मनुष्य की यह उत्पादक आज़ादी मारी जाती है। मेहनत प्रसन्नता की बजाए तकलीफ बन जाती है। मनुष्य की दूसरी विशेषता उत्पादन के मामले में बड़े पैमाने का सहयोग है। इसे सामान्य रूप से हम नहीं महसूस करते लेकिन अगर दूसरे ग्रह से कोई आए तो उसे हमारे उत्पादन और उपभोग में बहुत बड़ा सहकार दिखाई पड़ेगा। हजारों तरह की चीजों को बनाकर हम समूची दुनिया में करोड़ों की संख्या में उसे उस्तेमाल करते हैं। मार्क्स का कहना है कि ये दोनों ही विशेषताएं पूँजीवादी उत्पादन पद्घति में नष्ट हो जाती हैं और मनुष्य अपनी विशेषता खोकर अन्य प्राणियों की तरह हो जाता है। मनुष्य अपनी स्वतंत्रता का अनुभव काम करते हुए नहीं काम खत्म हो जाने के बाद करता है।
यह अलगाव दूसरे मनुष्यों से हमारे अलगाव के रूप में भी सामने आता है। हम सामाजिक जीव के रूप में अपना अस्तित्व नहीं समझते बल्कि कमाने और खर्च करने वाले प्राणी की तरह अपने आपको समझने लगते हैं। यह अलगाव यदि पहले मनुष्य पर उसके ही बनाए ईश्वर के शासन के रूप में दिखाई पड़ता था तो पूँजीवादी व्यवस्था में मुद्रा या पूँजी के शासन के रूप में दिखाई पड़ता है। पूँजी एक परदा हो जाती जिसके पीछे हम शायद ही कभी देखते हैं। यही मानव संबंधों को निरूपित करने लगती है। पूँजीवादी समाज में लोग किसी को इसलिए प्यार नहीं करते क्योंकि वह प्यार करने लायक है बल्कि उसके धनी होने पर उससे प्यार किया जाता है। किसी के प्रति श्रद्घा भी उसके गुणों की बजाए उसके धनी होने पर उमड़ती है। जो काम दूसरों के प्रति लगाव के कारण किया जाना चाहिए उन्हें पैसा लेकर किया जाने लगता है।
इसके बाद वुल्फ मार्क्स के परिपक्व दर्शन की ओर मुड़ते हैं और बताते हैं कि इसके उनके शुरुआती विचारों का विस्तार है। वे 'अर्थशास्त्र की आलोचना में योगदान' की भूमिका के बतौर लिखी पंक्तियों को उठाते हैं और बताते हैं कि मार्क्स के अनुसार मानव इतिहास बुनियादी तौर पर मनुष्य की उत्पादक शक्ति के विकास की कहानी है। आर्थिक संरचनाओं में बदलाव भी इसी उत्पादक शक्ति के विकास में सहायक अथवा बाधक होने के आधार पर होता है। किसी आर्थिक संरचना के इस विकास में बाधक बनते ही शासक वर्ग की समाज पर पकड़ कमजोर पडऩे लगती है और सामाजिक क्रांति का दौर शुरू हो जाता है। कुल मिलाकर उक्त किताब में मार्क्स के शुरुआती चिंतन के सिलसिले में ही कुछ नई बातें कही गई हैं। उनके बाद के लेखन को व्याख्यायित करते हुए वे कोई नई बात नहीं करते।

दो

इसके बाद महत्वपूर्ण किताब रणधीर सिंह की एक वृहदाकार (तकरीबन 1100 पृष्ठों की) पुस्तक 'क्राइसिस आफ सोशलिज्म' थी जो 2006 में अजंता बुक्स इंटरनेशनल द्वारा प्रकाशित हुई थी। इसमें एक प्रतिबद्घ मार्क्सवादी द्वारा समाजवाद में संकट की बजाए समाजवाद के संकट पर विचार किया गया था। भूमिका में लेखक ने स्वीकार किया है कि इस पुस्तक को एक दशक पहले ही प्रकाशित हो जाना चाहिए था क्योंकि तब इस विषय पर बहस चल रही थी लेकिन उस समय भी लेखक ने छिटपुट लेखों के जरिए वे बातें प्रस्तुत की थीं जो इसमें विस्तार से दर्ज की गई हैं। पुस्तक के लिखने में हुई देरी की वजह बताते हुए उन्होंने लिखा है कि उन्हें आशा थी कि कोई न कोई इस काम को ज्यादा तरतीब से करेगा और उनकी उम्मीद पूरी हुई क्योंकि इसी बीच इस्तवान मेज़ारोस की किताब 'बीयांड कैपिटल-टुवार्ड्स ए थियरी आफ ट्रांजीशन' प्रकाशित हुई जिससे उन्होंने काफी मदद ली। लेकिन यह रणधीर सिंह की विनम्रता है क्योंकि उनकी किताब का स्वतंत्र महत्व है। मेज़ोरोस के काम को हम थोड़ा रुककर देखेंगे।
पुस्तक के शीर्षक से ही स्पष्ट है कि इसमें समाजवादी निर्माण की समस्याओं पर मार्क्सवादी नजरिए से बात की गई है। इस बात पर जोर देना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि मार्क्सवाद के प्रति सहानुभूति जताने वाले ऐसे भी लोग पैदा हो गए हैं जो किसी स्वप्निल मार्क्सवाद की रचना करके समाजवादी निर्माण के सभी प्रयासों को मार्क्सवाद से विलचन साबित करने लगते हैं। किताब में बल्कि इस तरह के प्रयासों का खंडन ही किया गया है शायद इसीलिए इसका उपशीर्षक 'नोट्स इन डिफेंस आफ ए कमिटमेंट' है यानी किताब एक प्रतिबद्घता के पक्ष में है। इस किताब का दूसरा अध्याय 'आफ मार्क्सिज्म आफ कार्ल मार्क्स' पहले ही एक पुस्तिका के रूप में छपा था इसलिए सबसे पहले वहीं से। अपनी बात वे यहाँ से शुरू करते हैं कि सोवियत संघ के पतन को मार्क्सवादी सिद्घांत के एक विशिष्ट व्यवहार की असफलता के बतौर देखा और समझा जाना चाहिए न कि इसे समाजवाद और पूँजीवाद के बीच जारी जंग का अंतिम समाधान मान लेना चाहिए। इस बात पर लेखक ने इसलिए भी जोर दिया है क्योंकि रोज रोज सोवियत संघ के पतन को समाजवाद या मार्क्सवाद की असफलता बताने के प्रचार के चलते क्रांतिकारी कार्यकर्ताओं और बुद्घिजीवियों में भ्रम और संदेह फैसला है। यहाँ तक कि जो लोग इसे सिद्घांत के बतौर कारगर मानते थे वे भी सामाजिक प्रोजेक्ट के बतौर इसका कोई भविष्य स्वीकार नहीं करते और सिद्घांत तथा व्यवहार के बीच ऐसी फाँक पैदा करने की कोशिश करने लगे जैसी फाँक मार्क्सवाद में कभी थी ही नहीं।
पुस्तक का मुख्य विषय न होने के बावजूद लेखक को मार्क्सवाद पर विचार करना पड़ा। वे जोर देते हैं कि मार्क्स ने अन्य दार्शनिकों की तरह चिंतन का कोई अंतिम ढांचा नहीं निर्मित किया क्योंकि वे 'दार्शनिक' या 'समाजशास्त्री' होने की बजाए क्रांतिकारी थे। उनका सैद्घांतिक काम एक असमाप्त प्रोजेक्ट है। अन्य विषयों (हेगेल के दर्शन, राजनीतिशास्त्र या, द्वंद्ववाद या पद्घति) पर प्रस्तावित काम की तो बात ही छोडि़ए, खुद अर्थशास्त्र संबंधी काम में भी काफी कुछ बकाया रह गया था कि जिसे कुछ हद तक एंगेल्स ने निपटाया। रणधीर सिंह के मुताबिक इसके कारण भी मार्क्सवाद की ऐसी समझ बनती है मानो वह समाज को केवल आर्थिक नजरिए से देखता हो। यहाँ तक कि उनके लेखन में सब कुछ एक ही तरह से महत्वपूर्ण नहीं है। उन्हें बहुत सारा लेखन तात्कालिक दबाव में भी करना पड़ा था इसलिए उनके गंभीर काम को अलग से पहचानना चाहिए। उनके चिंतन में विकास भी हुआ है इसलिए शुरुआती और बाद के कामों का महत्व एक जैसा ही नहीं है। वे कहते हैं कि मार्क्स के चिंतन में अर्थशास्त्र से ज्यादा महत्वपूर्ण राजनीति है। आर्थिक ढाँचे का विश्लेषण तो वे व्यवस्था के उस आधार को समझने के लिए करते हैं जिसे क्रांतिकारी राजनीतिक व्यवहार के जरिए बदला जाना है। आर्थिक पहलू पर मार्क्स के जोर को हेगेल के भाववादी दर्शन के विरुद्घ उनके संघर्ष के परिप्रेक्ष्य में भी देखा जाना चाहिए। वुल्फ ने जिस तरह पर्यावरणीय पहलू पर मार्क्स की कमी का संकेत किया था उसी तरह रणधीर सिंह ने भी उसे रेखांकित किया है लेकिन उनका कहना है कि उन सबके बावजूद एक भरपूर मार्क्सवादी सिद्घांत के बारे में सोचा जा सकता है।
मार्क्स के सिद्घांतों के 'आर्थिक' अभिग्रहण से भी समाजवाद के ढहने का संबंध है इसको चिन्हित करते हुए वे लेनिन के बाद सोवियत संघ में समाजवाद को महज आर्थिक उपलब्धियों तक सीमित करके देखने समझने के नजरिए का उल्लेख करते हैं। इसका उदाहरण वे मार्क्सवाद की ऐसी 'आधिकारिक' व्याख्या को भी मानते हैं जिसमें भौतिकवाद के तीन सिद्घांत, द्वंद्ववाद के चार नियम और ऐतिहासिक भौतिकवाद के पाँच चरण होते थे। जबकि उनके मुताबिक मार्क्सवाद बहुत ही खुला हुआ दर्शन है। यहाँ तक कि वह अपने सुधार की माँग भी आगामी पीढिय़ों से करता है। इसी सिलसिले में वे कहते हैं कि नव सामाजिक आंदोलनों की चुनौती के समक्ष आज मार्क्सवाद को समृद्घ करने की जिम्मेदारी आन पड़ी है।
उन्होंने सर्वहारा की तानाशाही की धारणा पर सवाल उठाने की बजाए यह बताया कि मार्क्स ने पेरिस कम्यून को सर्वहारा की तानाशाही का आदर्श रूप कहा था जिसके लोकतांत्रिक स्वरूप का विस्तार से वर्णन किया गया है। अन्य चीजों के अलावा रणधीर सिंह कुछ बेहद जरूरी सैद्घांतिक सवाल उठाते हैं। समाजवादी प्रोजेक्ट के पतन से एक सवाल पैदा हुआ है जिसका कोई सैद्घांतिक समाधान उन्हें मार्क्साद के भीतर नजर नहीं आता। अनुभव से दिखाई पड़ा है कि सत्ता पर कब्जा हो जाने के बाद नए तरह से वर्ग निर्माण की प्रक्रिया शुरू होती है। उनका कहना है कि रूसी और चीनी दोनों ही क्रांतियों के बाद लेनिन और माओ को यह समस्या नजर आई और उन्होंने इसका समाधान खोजने की कोशिश की लेकिन दोनों के ही उत्तर पार्टी ढाँचे के बाहर जाकर अंदर की समस्याओं को हल करने के समान हैं। यह बात माओ की सांस्कृतिक क्रांति में और भी खुलकर व्यक्त होती है। जबकि समस्या यह थी कि संगठन के भीतर ही आत्म सुधार का कोई कारगर तरीका खोजा जाए। उनके मुताबिक यह ऐसी समस्या है जिसका समाधान अभी नहीं पाया जा सका है।
इस किताब की खासियत यह थी कि इसने प्रतिबद्घ वामपंथी कार्यकर्ताओं को वाहियात किस्म की बातों से परे हटाकर सही मुद्दे को पहचानने में मदद की जो घटनाओं की तीव्रता और दुश्मनों के ताबड़तोड़ हमलों के समक्ष कुछ हद तक किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए थे। उस समय तो अनेक लोग यही कहने को महान आविष्कार समझ रहे थे कि मार्क्सवाद में लोकतंत्र की गुंजाइश नहीं है इसलिए विपक्ष न होने से कम्युनिस्ट पार्टी को अपनी गलतियों का पता नहीं चला। रणधीर सिंह ने ठीक ही मजाक उड़ाते हुए लिखा कि क्या इस कमी को दूर करने के लिए कम्युनिस्ट पार्टी अपने को ही विभाजित करके विपक्ष बनाती! इसी तरह जो लोग कह रहे थे कि पिछड़े देश में क्रांति होने से अथवा एक ही देश में समाजवाद के निर्माण का निर्णय होने से विकृतियों का जन्म हुआ उनके तर्कों को खारिज करते हुए वे कहते हैं कि यह सब विशेष ऐतिहासिक परिस्थितियों के प्रति रूसी कम्युनिस्टों का उत्तर था जिसमें कोई बुनियादी खामी नहीं थी।

तीन

इसके बाद जिस किताब का जिक्र जरूरी है वह छपी तो बहुत पहले थी लेकिन 2008 में आकार बुक्स ने फिर से छापा है। किताब का नाम है 'हाउ टु रीड कार्ल मार्क्स' और लेखक अन्स्र्ट िफशर हैं। एक लंबी और बेहद उपयोगी भूमिका जान बेलामी फास्टर ने लिखी है। इधर के दिनों में मार्क्सवाद पर जो भी सोच विचार हो रहा है उसकी एक विशेषता मार्क्स के नजरिए में उनके मानववाद पर जोर को रेखांकित करना है। रणधीर सिंह ने भी इस पहलू को उभारा। िफशर की इस किताब में मार्क्स के ही लेखन से महत्वपूर्ण अंशों को चुनकर उनकी व्याख्या की गई है। पुस्तक का पहला अध्याय ही है - द ड्रीम आ$फ द होल मैन। स्पष्ट है कि मार्क्स के लेखन के उस हिस्से पर बल दिया गया जिसमें वे आधुनिक पूँजीवादी खंडित मनुष्य के बरक्स संपूर्ण मनुष्य के सपने को समाजवादी समाज का लक्ष्य घोषित करते हैं। उनके मुताबिक अठारहवीं सदी में मनुष्य का अपने आप से अलगाव समूचे यूरोप का बुनियादी अनुभव था। इसलिए अपने आपसे, अपनी प्रजाति से, आसपास की प्रकृति से मनुष्य के इस अलगाव का खात्मा उस समय के सभी मानववादियों की साझी चिंता थी। उनमें रोमांटिक लोग भी शामिल थे लेकिन समय बीतने के साथ कुछ लोग अतीत को चरम मुक्ति का समय मानकर उसका गुणगान करने लगे जबकि अन्य भविष्य में मनुष्य के इस अलगाव के खात्मे का सपना सँजोए रहे।
उनके अनुसार मनुष्य श्रम के जरिए ही अपने सार को साकार करता है। लेकिन पूँजीवादी व्यवस्था में यही श्रम, श्रम विभाजन के हवाले हो जाता है। मार्क्स सामाजिक श्रम विभाजन और मैनुफैक्चर में श्रम विभाजन में फर्क करते हैं। सामाजिक श्रम विभाजन कृषि या उद्योग जैसा विभाजन है। इसी के भीतर लिंग या आयु के हिसाब से हुआ विभाजन भी आता है। कबीलों के बीच युद्घ में पराजित कबीले के लोगों को गुलाम बनाकर उनसे मेहनत कराने के चलते भी एक तरह का विभाजन हो जाता है। इसी दौर में वस्तु विनिमय की प्रथा सामने आती है। इसके बाद मानसिक और शारीरिक श्रम का अंतर आता है जिसका सबसे बड़ा रूप गाँव और शहर का विभाजन न सिर्फ मनुष्य के भीतर छिपी हुई संभावनाओं को साकार करते हैं बल्कि खास तरह की मानसिक और शारीरिक अपंगता को भी जन्म देते हैं। शहर में उत्पादकों के गिल्ड में भी अलग अलग गिल्डों के बीच का विभाजन बहुत कुछ प्राकृतिक ही होता है। शिल्पी जो कुछ बनाता है उससे उसका अलगाव नहीं होता।  वह कोई भी चीज पूरी ही बनाता है। लेकिन मैनुफैक्चर के आगे बढऩे पर आधुनिक श्रम विभाजन नजर आना शुरू होता है। इसके पहले तक औजार मनुष्य के आदेश मानता था लेकिन आधुनिक उद्योग तो मनुष्य को औजार का गुलाम बना देता है।
किताब के अंत में िफशर भविष्य के लिए मार्क्सवाद की चार रोचक धाराओं का जिक्र करते हैं:
1. मार्क्सवाद को ऐसा वैज्ञानिक विश्व दृष्टिकोण समझना जिसे इतिहास की द्वंद्वात्मक व्याख्या के लिए लागू किया जा सकता है। यह धारणा मार्क्स की बनिस्पत एंगेल्स के विचारों से ज्यादा प्रभावित है लेकिन एंगेल्स की इस बात को भी ध्यान में रखती है कि हरेक नई खोज के साथ भौतिकवाद को भी बदलना होगा। इसके चलते एंगेल्स के भी विचारों की फिर से परीक्षा हो रही है, उनके सामान्यताओं को दुरुस्त किया जा रहा है और आधुनिक विज्ञान की कुछेक महत्वपूर्ण खोजों को गैर मार्क्सवादी साबित करने वाले प्रतिबंधों को ढीला किया जा रहा है।
2. 'मनुष्य के दर्शन' के रूप में मार्क्सवाद की परिकल्पना जिसमें अलगाव को बुनियादी धारणा माना जाए। आजकल ज्यादातर मार्क्सवाद का विकास इसी दिशा में हो रहा है।
3. संरचनावाद से प्रभावित होकर मार्क्स के लेखन को भाषा और मिथ के विश्लेषण के लायक बनाना। यह विकास मार्क्सवाद को अकादमिक बनाने की ओर ले गया।
4. इतिहास और राजनीतिक पहल के अध्ययन के लिए वैज्ञानिक पद्घति के बतौर उसे विकसित करना। तीसरी दुनिया के देशों में अधिकतर मार्क्सवाद का विकास इसी लक्ष्य की ओर अग्रसर है।

चार

कनाडा में मार्क्सवादी लेबोविट्ज की किताब 'द सोशलिस्ट अल्टरनेटिव : रीयल ह्यूमन डेवलपमेंट' आकार बुक्स में छपी 2010 में लेकिन इनकी महत्वपूर्ण किताब 'बीयांड कैपिटल' का दूसरा संस्करण 2003 में ही छप गया था। लेबोविट्ज की एक विशेषता यह भी है कि वे मेजारोस की मान्यताओं को सरल भाषा में सुबोध ढंग से प्रस्तुत करते हैं।
लेबोविट्ज की 'बीयांड कैपिटल' की शुरुआत इस सवाल से होती है कि आखिर इक्कीसवीं सदी के पूँजीवाद को समझने के लिए उन्नीसवीं सदी के लेखक को क्या देखा जाए। उत्तर देते हुए वे बताते हैं कि मार्क्सवाद असल में महज आर्थिक सिद्घांत नहीं हैं। मार्क्सवादी हरेक प्रकार के ऐसे समाज का विरोध करते हैं जो शोषण पर आधारित है और इसीलिए मनुष्य के संपूर्ण विकास में बाधक है। वे पूँजीवाद का विरोध इसलिए करते हैं क्योंकि इस समाज में फैसले मनुष्य की जरूरत के आधार पर नहीं बिल्क निजी मुनाफे को ध्यान में रखकर किए जाते हैं। मनुष्य और संसाधनों का पूरा इस्तेमाल नहीं हो पाता क्योंकि उन्हें मनुष्य की जरूरत के अनुसार संयोजित ही नहीं किया जाता। मानव अस्तित्व की बुनियादी शर्त प्राकृतिक पर्यावरण को निजी मुनाफे के लिए नष्ट कर दिया जाता है। ऐसे समाज में न्याय की बात बेमानी है जिसमें उत्पादन के साधनों का स्वामित्व एक बड़ी आबादी को अमानवीय हालात में काम करने के लिए मजबूर कर देता है। यहाँ तक कि जनता को लिंग, नस्ल और राष्ट्रीयता आदि के आधार पर इसीलिए बाँटा जाता है क्योंकि अन्यथा लोगों के बीच आपसी सहयोग पूँजी के लिए फायदेमंद नहीं होगा।
लेबोविट्ज कहते हैं कि मार्क्स का ग्रंथ 'पूँजी' एकतरफा तौर पर महज पूँजी को सक्रिय दिखाता है और इसके दूसरे पहलू मजदूर की स्वतंत्र सक्रियता को उजागर नहीं करता। इसके बरक्स वे मार्क्स के पहले इंटरनेशनल के भाषण से 'मजदूर वर्ग के राजनीतिक अर्थशास्त्र' की धारणा को ले आते हैं और मार्क्स के एक सपने का जिक्र करते हैं जिसको आजकल बहुत से विद्वान उद्घृत करते हैं। वह है- आपस में जुड़े हुए उत्पादकों का ऐसा समाज जिसमें सामाजिक संपदा, श्रमशक्ति के खरीदारों को प्राप्त होने की बजाए स्वाधीन तौर पर परस्पर संबद्घ व्यक्तियों द्वारा नियोजित की जाती है जो ''सामुदायिक उद्देश्यों के लिए और सामाजिक जरूरत' के मुताबिक उत्पादन करते हैं।

पाँच

हंगरी के मार्क्सवादी चिंतक इस्तवान मेजारोस िफलहाल सबसे महत्वपूर्ण माने जाते हैं। उनकी किताब 'बीयांड कैपिटल' की चर्चा हम पहले ही कर चुके हैं। उनकी सबसे बड़ी विशेषता है कुछ नई धारणाओं का उपयोग जिनसे परिचय के बगैर उनके लेखन को समझना मुश्किल है। मसलन वे पूंजीवाद (कैपिटल्जिम) की बजाए पूँजी (कैपिटल) का उपयोग बेहतर समझते हैं और दोनों के बीच फर्क बताने के लिए यह कहते हैं कि मार्क्स ने अपने ग्रंथ का नाम 'पूँजी' यूँ ही नहीं रखा था। उनके अनुसार पूँजीवाद, पूँजी की मौजूदगी का महज एक रूप है। पूँजीवाद के खात्मे के साथ ही पूँजी का अंत नहीं होता। इसे समाजवाद के लिए संघर्ष से जोड़ते हुए वे कहते हैं कि समाजवाद का काम पूँजी का खात्मा है। इसका पहला चरण पूँजीवाद की पराजय है। उनका कहना है कि जिन्हें समाजवादी क्रांति कहा गया वे दरअसल इसी काम को पूरा कर सकी थीं। वे उत्तर पूँजीवादी समाज की ही रचना कर सकी थीं जिसे समाजवाद की ओर जाना था लेकिन उसे ही समाजवादी क्रांति मान लेने से समाजवादी कार्यभार शुरू ही नहीं हो सका था।
मेजारोस ने किताब के दूसरे खंड के चौथे भाग के चौथे अध्याय में लिखा है कि वर्तमान दौर समाजवाद के लिए रक्षात्मक की बजाए आक्रामक रणनीति का है। इस दौर की शुरुआत की बात करते हुए इसे वे पूँजी के संरचनागत संकट से जोड़ते हैं और इसकी शुरुआत 1960 दशक के अंत से मानते हुए तीन घटनाओं का उल्लेख करते हैं जिनमें यह संकट फूट पड़ा था।
1. वियतनाम युद्घ में पराजय के साथ अमेरिकी प्रत्यक्ष आक्रामक दखलंदाजी का खात्मा।
2. मई 1968 में फ्रांस और अन्य 'विकसित' पूँजीवादी केंद्रों में लोगों का 'व्यवस्था' के प्रति विक्षोभ का प्रकट होना।
3. चेकोस्लोवाकिया और पोलैंड जैसे उत्तर औद्योगिक मुल्कों में सुधार की कोशिशों का दमन जिनके जरिए पूँजी के संरचनागत संकट की संपूर्णता का अंदाजा लगा।
मेजारोस का कहना है कि इन घटनाओं के जरिए उन परिघटनाओं का पता चलता है जो तब से तमाम घटनाओं के पीछे कार्यरत रही हैं और वे हैं -
1. 'महानगरीय' या विकसित पूँजीवादी देशों के अल्पविकसित देशों के साथ शोषण के संबंध एकतर$फा तौर पर निर्धारित होने की बजाए परस्पर निर्भरता से संचालित होने लगे।
2. पश्चिमी पूँजीवादी देशों के अंदरूनी और आपसी अंतर्विरोध और समस्याओं का उभार तेज हो गया।
3. 'वस्तुत: मौजूद समाजवाद' के उत्तर औद्योगिक देशों और समाजों के संकट आपसी विवादों के जरिए प्रकट होने  लगे।
मेजारोस का कहना है कि मार्क्स ने पूँजी के दो मूल्य बताए थे - उपयोग मूल्य और विनिमय मूल्य। पूँजीवाद असल में विनिमय मूल्य की प्रभुता से जुड़ा हुआ है। जबकि मनुष्य की जरूरतें उपयोग मूल्य से जुड़ी हुई हैं इसलिए लेन देन के क्षेत्र में उपयोग मूल्य के विस्तार से पूँजीवाद कमजोर होता है। इसी तत्व को लेबोविट्ज लैटिन अमेरिकी देशों के समाजवादी प्रयोगों में फलीभूत होता हुआ पाते हैं और इसी को वे 21 वीं सदी के समाजवाद की संज्ञा देते हैं जो बीसवीं सदी के प्रयोगों से भिन्न है। यही तर्क बहुत कुछ जिजैक का भी है जो 'अकुपाई वाल स्ट्रीट' आंदोलन के बाद खासे चर्चित हुए हैं। वे पूँजी के वर्तमान संकट का कारण विनियम मूल्य की बेलगाम बढ़ोत्तरी में देखते हैं।

 

छह

 

टेरी ईगलटन की किताब 'व्हाई मार्क्स वाज राइट' येल यूनिवर्सिटी से 2011 में प्रकाशित हुई है। पुस्तक का प्रारूप लोकप्रिय किस्म का है और लेखक का इरादा भी आम तौर पर मार्क्सवाद के बारे में प्रचारित भ्रमों का बहुत ही सरल सहज भाषा में खंडन निराकरण है। भूमिका में ईगलटन लिखते हैं कि पूरी किताब एक झटके में इस सवाल के इर्द गिर्द लिखी गई है कि अगर मार्क्साद पर लगाए गए सारे आरोप गलत निकले तो? लेकिन लेखक में मार्क्स के प्रति कोई श्रद्घाभाव नहीं है। हम सभी जानते हैं कि उन्होंने मार्क्सवाद से शुरू तो किया लेकिन फिर पश्चिम में जो भी वैचारिकी चली उसके साथ हेल मेल भी किया। उनकी यह किताब भी मार्क्सवाद के बढ़ते हुए प्रभाव का सूचक है।

ईगलटन सबसे पहले इस आपत्ति पर विचार करते हैं कि मार्क्सवाद औद्योगिक पूँजीवादी समाज की समस्याओं से जुड़ा हुआ था लेकिन अब दुनिया बदल चुकी है इसलिए इस उत्तर औद्योगिक दुनिया में मार्क्सवाद की प्रासंगिकता समाप्त हो गई है। जवाब देते हुए वे कहते हैं कि अगर ऐसा हो जाए तो मार्क्सवादियों से अधिक कोई भी खुश नहीं होगा। मार्क्सवाद तो बहुत कुछ चिकित्सा के पेशे की तरह है जिसका मकसद अपनी ही जरूरत को खत्म करना है। मार्क्सवाद को तभी तक रहना है जब तक उसका विरोधी अर्थात पूँजीवाद है। उनका कहना है कि आज पूँजीवाद खत्म होने की बजाए और भी आक्रामक होकर सामने आया है। जहाँ तक पूँजीवाद का रूप बदलने की बात है मार्क्स भी इस बात को जानते थे कि यह अत्यंत परिवर्तनशील है। मार्क्सवाद ने ही इसके अलग-अलग रूपों-व्यापारी, खेतिहर, औद्योगिक, इजारेदार, महाजनी - आदि को पहचाना और अलगाया था। जो पूँजीवाद आज अधिकाधिक अपने शुरुआती रूप में लौटता जा रहा है उसी के समर्थक इसे बदलाव साबित करने पर तुले हुए हैं। हुआ दरअसल यह है कि 70 और 80 के दशक में पूँजीवाद ने अपना रूप बदला था और पारंपरिक औद्योगिक उत्पादन की जगह उपभोक्तावाद, संचार, सूचना प्रौद्योगिकी और सेवा क्षेत्र की उत्तर औद्योगिक उत्पादन की जगह उपभोक्तावाद, संचार, सूचना प्रौद्योगिकी और सेवा क्षेत्र की उत्तर औद्योगिक संस्कृति सामने आई। लेकिन मार्क्सवादियों के पीछे हटने या पाला बदलने का कारण पूंजीवाद के रूप का बदलाव नहीं बल्कि उसके खात्मे की कल्पित असंभाव्यता थी। उनका कहना है कि आज के पूँजीवाद की आक्रामकता का कारण पूँजी की दुश्चिंता है। यह आत्मविश्वास के कारण नहीं बल्कि भयजनित प्रतिक्रिया है। इसके पीछे दूसरे विश्व युद्घ के बाद आए उछाल का खत्म होना है। इसी भय के कारण पूँजी हलका भी विरोध बर्दाश्त नहीं कर पा रही है। पूँजी की इस नई आक्रामकता के साथ वाम की निराशा ही मार्क्सवाद के अप्रासंगिक होने की घोषणाओं का मूल कारण है। आज की तारीख में मार्क्सवाद को बीते समय की बात कहना ऐसे ही है जैसे आग लगाने वालों की ताकत का मुकाबला न कर पाने के कारण आग बुझाने की व्यवस्था को बेकार कह देना।

इसके बाद वे दूसरे आरोप की चर्चा करते हैं कि चलिए सिद्घांत तो ठीक है लेकिन व्यवहार ने बेकार की हिंसा को बढ़ावा दिया है। इसके उत्तर में वे आधुनिक समय के युद्घों की हिंसा को सामने रखकर बताते हैं कि उनके मुकाबले समाजवादी देशों की हिंसा कुछ भी नहीं रही है। जैसे पूँजीवाद तमाम खून खराबे के बावजूद अनेक सकारात्मक उपलब्धियों के लिए जाना जाता है वैसे ही समाजवादी समाजों की भी अपनी कमियों के बावजूद उल्लेखनीय उपलब्धियाँ रही हैं। सोवियत रूस में लोकतंत्र की कमी को उन परिस्थितियों में देखा जाना चाहिए जो क्रांति के तत्काल बाद पैदा हुई। लेकिन समाजवाद ने इससे सीख भी ली है और पूँजीवादी की ताकत को पहचानते हुए बाज़ार समाजवाद जैसी चीज विकसित करने की कोशिशें जारी हैं। हालांकि उनकी खूबियों खामियों की चर्चा भी होती है लेकिन महत्वपूर्ण बात नई दिशा में आगे जाने का खुलापन है। इसके बाद विस्तार से वे इस तरह के प्रयोगों में लोकंतत्र की संभावना पर विचार करते हैं।

तीसरे आरोप की चर्चा करते हुए वे मार्क्सवाद को निर्धारणवादी साबित करने की कोशिश का जिक्र करते हैं। इसका उत्तर देते हुए वे बताते हैं कि मार्क्स की ज्यादातर मान्यताओं का उत्स उनके पहले के चिंतकों में मौजूद है। वर्ग संघर्ष की धारणा के साथ उत्पादन संबंध को जोड़कर सामाजिक परिवर्तन का एक खाका प्रस्तुत करना उनका मौलिक योगदान कहा जा सकता है और इसी पर निर्धारणवाद का आरोप भी लगा है। लेकिन खुद मार्क्सवादियों ने इस पर सवाल उठाए हैं। इस मामले में द्वंद्वात्मकता पर जोर देने के बावजूद वे कुछ हद तक इस आरोप को स्वीकार करते हैं लेकिन दूसरे तरह से मार्क्स के सोचने को भी रेखांकित करते चलते हैं। उनका कहना है कि हालाँकि मार्क्स सामाजिक परिवर्तन में उत्पादक शक्तियों की प्रधान भूमिका देखते हैं लेकिन उत्पादन संबंधों की भूमिका को भी पूरी तरह खारिज नहीं करते। सामाजिक परिवर्तन में मनुष्य की सचेतन कारक के बतौर पहचान भी अनेक मामलों में, उनके मुताबिक, मार्क्स कराते हैं। वे यह भी बताते हैं कि मार्क्स के तईं इतिहास एकरेखीय तरीके से नहीं आगे बढ़ता बल्कि उनके चिंतन में पर्याप्त जटिलता को समाहित करने की गुंजाइश है।

चौथे आरोप की चर्चा वे इस रूप में करते हैं कि मार्क्स के सपनों का साम्यवाद मनुष्य की प्रकिृति को अनदेखा करके गढ़ा गया है। मनुष्य स्वार्थी, संग्रही, आक्रामक और स्पर्धा करने वाला प्राणी होता है। इस बात को भुलाकर मार्क्स साम्यवाद का सपना बुनते हैं। इस आरोप को ईगलटन सिरे से खारिज करते हैं और बताते हैं कि असल में तो मार्क्स पर यह आरोप ज्यादा सही होगा कि वे भविष्य की कोई समग्र रूपरेखा नहीं खींचते। भविष्य को लेकर अटकल न लगाने की मार्क्स की आदत के पीछे ईगलटन एक सचेत कोशिश देखते हैं और वह यह कि ऐसा करने से वर्तमान में करणीय के प्रति उत्साह खत्म हो जाएगा। वे कहते हैं कि भविष्यकथन मार्क्सवादियों का नहीं पूँजीवाद के समर्थकों का पेशा है जो आपके धन की सुरक्षा की गारंटी लिए फिरते हैं। असल में मार्क्स के जमाने में ढेर सारे लोग भविष्य के प्रति अगाध आशा से भरी भविष्यवाणी किया करते थे क्योंकि उन्हें लगता था कि दुनिया को तर्क की ताकत से बदला जा सकता है लेकिन मार्क्स के लिए यह काम वर्तमान के ठोस संघर्षों के जरिए होना था। वे मानते थे कि वर्तमान में ही वे शक्तियाँ होती हैं जो भविष्य का निर्माण करती हैं। मजदूर आंदोलन का काम उन शक्तियों को मुक्त करना है।

 

सात

 

2011 में ही एरिक हाब्सबाम की विशालकाय किताब 'हाउ टु चेंज द वल्र्ड'प्रकाशित हुई। इस पुस्तक की विशेषता मार्क्सवाद के अलग अलग दौरों का विश्लेषण है। इसमें 1956 से 2009 तक लेखक द्वारा मार्क्सवाद के सिलसिले में लिखे लेखों को कुछ को थोड़ा बदलकर, कुछ को विस्तारित करके शामिल किया गया है। इसमें मार्क्स एंगेल्स और मार्क्सवाद की शास्त्रीय परंपरा के लेखकों के अलावा सिर्फ ग्राम्शी को शामिल किया गया है।

उसके बाद तो अमेरिका में खड़े हुए 'अकुपाई वाल स्ट्रीट' आंदोलन के साथ ही ढेर सारे लोग मार्क्सवाद की ओर खिंचे आ रहे हैं। मसलन 2012 में डेविड हार्वे की किताब 'रेबेल सिटीज' प्रकाशित हुई है जिसमें यूरोप, अमेरिका और दुनिया के अन्य तमाम बड़े शहरों में फूट पडऩे वाले आंदोलनों के नगर आधारित होने के मद्दे नजर शहर के क्रांतिकारी महत्व को समझाने की कोशिश की गई है। हमारे देश में उद्योगीकरण के बाद मजदूर आंदोलन तो जरूर शहर केन्द्रित रहे लेकिन नए दौर में बढ़ते हुए नगरीकरण की पृष्ठभूमि में इस परिघटना पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए।

हाल के दिनों में मार्क्सवाद की ओर रुझान को देखते हुए एक फ्रांसीसी मार्क्सवाद एलेन बादू ने इस समय को मार्क्सवाद के उभार का तीसरा दौर कहा है। इसके पहलेके प्रथम दौर को वे 1792 में फ्रांसिसी गणतंत्र की स्थापना से लेकर 1871 में पेरिस कम्यून के पतन तक मानते हैं। दूसरा दौर 1917 की रूसी क्रांति से शुरु होकर 1976 में चीन में माओ की सांस्कृतिक क्रांति के खात्मे तक चला था। नई पीढ़ी के लोगों को बदलाव की प्रक्रिया को तमाम आंदोलनों के क्षणिक उभार के आगे ले जाने का रास्ता मार्क्सवाद के भीतर नजर आता है।

यूरोप के कुछ देशों में नए तरह की वामपंथी राजनीति के उभार के कारण भी संगठन और आंदोलन के मामले में फिर से सुधारवादी और संघवादी आवाजें सुनाई पडऩे लगी हैं। अनेक लोग जो विरोध की उत्तर आधुनिक धारा के साथ चले गए थे वे भी नए उत्साह के साथ वापसी कर रहे हैं लेकिन स्वभावत: अपने नए और भ्रामक सूत्रीकरणों के साथ। इसीलिए दोबारा सावधानी के साथ अपने को मार्क्सवादी कहने वालों के प्रति आलोचनात्मक नजरिया अपनाने की जरूरत है।


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