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जनवरी 2013

सुविधा दुविधा के आन्दोलन और मध्यवर्ग

शिवप्रसाद जोशी / सचिन गौड़

आंदोलन के संदर्भ में ईमेल पर एक दीर्घ संवाद के अंश


अपने देश में आंदोलनों के स्वरूप और उनमें मध्यवर्ग की भागीदारी के सवाल पर, अण्णा हजारे के आंदोलन, ऑक्युपाई वॉल स्ट्रीट आंदोलन और अरब बसंत के हवाले और इन सबके बीच अरुंधति रॉय के बेचैनी और ताप से भरे हुए विचारों पर प्रतिक्रियास्वरूप ईमेल पर ये संवाद हुआ था जो कमोबेश एक लंबी अंतहीन बहस जैसा होता चला गया। लेकिन इसी में कई ऐसी हलचलें, नादानियां, दुविधाएं, और कई ऐसी उत्तेजनाएं थीं कि इन्हें सार्वजनिक और साझा किया जाना ज़रूरी लगा।
सचिन गौड़ बीबीसी और डॉयचे वेले में काम चुके हिंदी के गहरे सरोकारों वाले युवा पत्रकार हैं। बीटेक की डिग्री ली। पत्रकारिता में चले आए और फिर इधर नौकरी और नाना ऑफर छोड़कर अपनी जमापूंजी की मदद से इन दिनों अमेरिका की एक मशहूर युनिवर्सिटी से विधि और राजनय पर मास्टर्स कर रहे हैं। उनके दिमाग में कुछ सवाल थे जो उन्होंने ईमेल पर कुछ समय पहले (जून-जुलाई 2012) मुझे भेजे थे कि मेरा उन पर क्या रुख है। ये सिलसिला लंबा चला। टीम कहा जा रहा अण्णा ग्रुप तब तक कथित रूप से एकजुट ही था।
नई वैचारिकी के साजोसमान कुछ अलग और पेचीदा ही होते हैं। प्रस्तुत अंश में कई ढंग से उम्मीद और स्वप्न की पुनर्खोज का उपक्रम भी है और संकटों की निशानदेही और उनसे मुकाबला करने की तैयारियों का एक कच्चा ही सही जाय भी। उन जायज़ों के सिलसिलों को बढ़ाता बदलता एक रॉ लेकिन नियोड्राफ्ट-जो हमारे और हमसे पहले के वक्तों में नाज़ुक मौकों पर पीढिय़ां अपने अपने ढंग से लाती रही हैं। - शिवप्रसाद जोशी


सचिन गौड़ (सगौ) - कुछ साल पहले तक जनांदोलन या छात्रों की ओर से शुरू किए जाने वाले आंदोलन दिखाई देने बंद हो गए थे लेकिन वित्तीय संकट के बाद से ये फिर नज़र आ रहे हैं और इनका स्वागत किया जाना चाहिए। जनशक्ति को सलाम है। अमेरिकी मीडिया और एक वर्ग को काहिरा, त्रिपोली में हुए आंदोलन ऐतिहासिक नजर आते हैं लेकिन ऑक्यूपाइ वॉल स्ट्रीट आंदोलन और बैंकरों, बिचौलियों के खिलाफ प्रदर्शन उसे कुछ दिशाहीन लोगों की हताशा भर लगता है। ये इस समाज का दोहरा नजरिया है जो बेहद दुखद है...
अरुंधति ऑक्युपाइ आंदोलन और अरब जगत में तानाशाहों के खिलाफ (प्रो अमेरिकी तानाशाह) आंदोलनों का खुलकर स्वागत करती हैं। उनके वक्तव्यों और लेखों में वह मध्य वर्ग की खासी आलोचना करती हैं, उसे स्वार्थी, दोगला, और कई बार अंधराष्ट्रवादी करार देती हैं। लेकिन ये विश्लेषण वह भारतीय मध्य वर्ग के लिए इस्तेमाल करती हैं। मैं जानना चाहता हूं कि ऑक्युपाइ आंदोलन, और अरब जगत की क्रांति समाज के किस वर्ग ने शुरु की... क्या यहां मध्य वर्ग क्रांति या ऑक्युपाइ प्रदर्शनों का उत्प्रेरक नहीं बना। अगर हां तो ये दोहरा नजरिया क्यों। जनांदोलन को तौलने के तराजू अलग-अलग क्यों।
शिवप्रसाद जोशी (शिप्रजो) - जनांदोलन होने का दावा करने वाले अभियानों को वास्तविकता को समझने के लिए मेरे ख्याल से बहुत देर तक और बहुत दूर तक देखने की जरूरत नहीं होगी। भारत में अभी हाल के जो भी आंदोलन हम दिल्ली आदि में देख चुके हैं, उन्हें जनांदोलन कहने में शायद किसी को भी हिचक होगी। आप देखिए कि पब्लिक इंटुलेक्चुअल्स में अरुंधति अकेली और पहली थीं जिन्होंने अण्णा आंदोलन की मंशा और निहितार्थ को ठीक-ठीक पकड़ा। जब लोग दुविधा में ही थे खासकर बुद्घिजीवी, राजनैतिक दल तब अरुंधति ने ही सबसे पहले हमें बताया कि ये आंदोलन क्योंकर जनांदोलन नहीं कहा जा सकता। आपको याद होगा कि जन संस्कृति मंच जैसे धुर वामपंथी संगठन भी इसे ''जनांदोलन'' कह बैठे थे। इससे भी पता चलता है कि लकीरवादी वाम पॉलिटिक्स बाज़दफा कैसी सुन्न हो जाती है। पश्चिम बंगाल में ममता बैनर्जी का लौटना और अब उनका मचाया हाहाकार तो इसी सुन्न अवस्था की वजह से संभव हुआ।
तो इस आंदोलन में कौन लोग थे। ये बताने की ज़रूरत नहीं है। जत्थे के जत्थे दूर देहातों से आए आदि जैसे आंकड़े विजुअल आए और विलुप्त हो गए। आिखर किस भ्रष्टाचार को मिटाने की ये लड़ाई थी। खैर ये एक अलग बहस है।
यहां बात मध्यवर्ग की है। जब हम मध्यवर्ग कहते हैं या अरुंधति जिस समूह को मध्यवर्ग संबोधित कर रही हैं ये वो वर्ग है जिसका अस्तित्व ही उपभोक्तावाद और उपयोगितावाद पर टिका है। हम और आप इस मध्यवर्ग का हिस्सा हैं। हम अलग सोच रख रहे हो सकते हैं लेकिन मध्यवर्ग की मूल प्रवृत्तियां एक लिज़लिज़ी भावुकता और सरलीकरण की ओर उन्मुख होते जाने में हैं। वे निरंतर एक ऐसे स्पेस की ओर ताकते रहने को अभिशप्त हैं मानो, जहां उन्हें खुली हवा खुली ज़िदगी शांति चैन और वो तमाम सुख मिलेगा जो यूं पेड़ पर लदे फूलों की तरह हाज़िर नहीं है। यानी मध्यवर्ग जिस ऊंचाई की ओर जाना चाहता है और जिस ढलान से पीछा छुड़ाना चाहता है वो आगे कुआं पीछे खाई वाली स्थिति है अगर इसे बहुत मोटे शब्दों में रखें तो उसे कुछ चमत्कारों की सदैव प्रतीक्षा रहती है। फिर वो निर्मल बाबा के रूप में हो या अण्णा हजारे के रूप में। वो मोमबत्ती जलाने जुलूस में चला जाएगा लेकिन किसी अंधेरे को काटने की ताब उसमें न होगी। वो निर्णय और अनिर्णय के बीच झूलता हुआ सा समाज है।
उसे जुलूस में जाना भाता है लेकिन वो ज्यादा देर पैदल नहीं चल सकता। ज्यादा देर भूखा नहीं रह सकता। अपना काम न हो तो न हो लेकिन घूस नहीं देंगे के साहस की ओट में ज्यादा देर नहीं रह सकता है, उसे नारे अच्छे लगते हैं वो उन्हें ज़ोर से बोल सकता है लेकिन जल्द ही उसे घर भी लौटना होता है जहां उसका परिवार और सुविधा और सुरक्षा और शांति और नींद और नौकरी और तनख्वाह है। तो ये मध्यवर्ग वो है जो धार्मिक रूप से वितंडावादी हो गयाहै। ज़ोर-ज़ोर से जै माता की करता रहता है, उन विघटनकारी टीवी धारावाहिकों को नियमपूर्वक देखता है, और अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए कर्ज़ लेता रहता है।
अगर हम अरब बसंत या ऑक्युपाई मूवमेंट को मध्यवर्ग का मूवमेंट बताते हैं जो शायद एक भूल कर रहे होते हैं। अरब बसंत में खासकर, उसमें निश्चित रूप से जैसा कि मैंने कहा समाज के हर तबके की छटपटाहटें दर्ज हुई हैं। लेकिन आप ये भी जानते हैं कि इस आंदोलन में मुस्लिम ब्रदरहुड भी कूदा। इस संगठन का चरित्र क्या है, क्या स्वभाव है, कौन लोग उसके सदस्य हैं, ये देखा जाना चाहिए। ये ज्यादातर खाते-पीते अरबी हैं। लेकिन खून किनका बहा। मध्यवर्ग के कई लोग इस आंदोलन में थे लेकिन ये आमलोगों का आंदोलन था। मतलब ट्युनीशिया में खुद को आग के हवाले कर देने वाले श$ख्स की लड़ाई कहां से कहां पहुंची। ये देखिए। आज लोग हैरान परेशान हैं और बाघ की जगह भेडिय़ों को सत्ता सौंप देने की आशंका उन्हें सता रही है। और अरब बसंतका हाल सीरिया में देखिए। और बाकी जगह देखिए। ये बसंत सउदी अरब क्यों नहीं गया जो खाड़ी में अमेरिकी नीतियों और सामरिकताओं का सबसे प्रमुख ठिकाना हुआ है।
तो अगर आप इसे आज एक अव्यवस्थित, सिमटे हुए, अधूरे और लुटेपिटे आंदोलन के रुप में देखते हैं तो इसकी वजह वे मध्यवर्गीय प्रवृत्तियां हैं जो इस आंदोलन में चली आईं और इसे तोड़मरोड़ दिया। इसे मुकम्मल क्रांति तक नहीं पहुंचने दिया। ये भूमिका तो मध्यवर्ग की ज़रूर रही है इन आंदोलनों में। क्या लीबिया से गद्दाफी और मिस्र से मुबारक का खात्मा ही इस आंदोलन का लक्ष्य था। तो फिर अगर ऐसा था तो ये आंदोलन यूरोप और अमेरिका का प्रायोजित आंदोलन था। या अगर ऐसा नहीं था तो फिर वो लक्ष्य हासिल क्यों नहीं हुआ। क्रांति में एक संक्रमण काल होता है। यहां हम ये सुविधा भी इस आंदोलन को नहीं दे सकते। उसे कहा जाने लगा सत्ता हस्तांतरण का संक्रमण काल।
उधर आप ऑक्युपाई आंदोलन को देखें तो वो वहां तख्ता पलट का इरादा नहीं था। यहां तक कि कब्ज़ा भी प्रतीकात्मक ही था। और अपनी शुरुआत और कंसेप्ट से ही वो आंदोलन ऐसी कोई हुंकार भर कर चला भी नहीं था। वहां लोगों को एक मुद्दा दिया गया कि इस पर सोचें और जमा हों। तो ये एक प्रयोग जैसी मुहिम है। इसे आप चाहें तो क्रांति का प्रयोग भी कह सकते हैं। क्रांति न भी कहें तो परिवर्तन का प्रयोग कह सकते हैं। अब किस चीज़ में परिवर्तन। रहने-खाने जीने की स्थितियों में परिवर्तन। इन मामलों की किसी बुरी स्थिति है ज़ाहिर है मध्यवर्ग की तो नहीं है। यहां तात्पर्य ये नहीं कि वो संकटविहीन है। अपनी तरह के सांस्कृतिक सामाजिक नैतिक आथिक संकटों से मध्यवर्ग घिरा है।
मध्यवर्ग हम और आप में से ही ऐसे बहुत सारे लोगों की मनोवृत्ति है जो अपा काम निकलाने की िफराक में रहती है और फिर अपने रास्ते चल देती है। उस मनोवृत्ति में क्या फर्क पड़ता है के जुमले चलते हैं और वो हलचलों से विवादों से बहसों से टकरावों से परहेज़ करती है। हर संकट के लिए और हर न्याय के लिए ईश्वर उसका अंतिम अध्यक्ष है। दिन भर ''पाप" करने के बाद वो रात ये कहते हुए एक बेफ़िक्र नींद में जाने वाली है कि ईश्वर हमें माफ करना और दंड मत देना।
सगौ - इसी मध्य वर्ग को स्वार्थी करार देते हुए कहा गया कि उसे सिर्फ उन मुद्दों में दिलस्पी है जिससे उसके जीवन स्तर पर सीधा असर पड़ता है इसलिए भारत में जितना रोष भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में दिखाई दिया, उतना कश्मीर में या मणिपुर सशस्त्र सेना एक्ट के ख़िलाफ़ नदारद रहा।
इसी लॉजिक को थोड़ा आगे बढ़ाया जाए तो मैं जानना चाहूँगा कि ऑक्यूपाइ आंदोलन के पिले साल शुरु होने की पृष्ठभूमि क्या है। यही न कि वित्तीय संकट के बाद लोगों का जीवन स्तर पहले जैसा नहीं रहा, बेरोजगारी बढ़ी, अमीर-गरीब की खाई बढ़ी इत्यादि। ऑक्यूपाई प्रदर्शनों में नारे लगाने वाली यही 99 फीसदी जनता कुछ साल पहले तक अमेरिकी स्टोरी और वहां की व्यवस्था में ही अपना हिस्सा लेकर खुश थी। तो फिर क्या अब प्रदर्शनकारियों को स्वार्थी कहकर, उनकी लानत मलानत कर उन्हें और उनके आंदोलन को डिसक्रेडिट कर दिया जा। अगर नहीं तो क्यों नहीं।
शिप्रजो - मध्यवर्ग के बारे में ऊपर कई बातें आ गई हैं। पुनश्च: उस 99 फीसद में ज़ाहिर है मध्यवर्ग का भी एक बहुत बड़ा हिस्सा है, जिसे हम निम्न मध्यवर्ग कहते हैं। उच्च मध्यवर्ग तो एक फीसदी में विलीन हो चुका। और वो आता रहता है और वहां विलीन होता रहता है। लेकिन एक अजीबोगरीब विडंबना देखिए कि ये गणित न जाने क्यों ऐसा का ऐसा ही है। न जाने कब से। 99 फीसद और एक फीसद। मोटे तौर पर।  बहरहाल यहां मेरा विरोध आपकी इस बात पर है कि वो 99 परसेंट आबादी सिस्टम में (एक समय तक) अपना हिस्सा लेकर खुश थी।
तो यही तो वो अंतर्विरोध है जो ऑक्युपाइ सामने ला रहा है। कि आपने कैसे जनजन को इतने लंबे समय तक यानी बहुत ही लंबे समय तक फंसाए रखा। उसे एक सुनहरे स्वप्निल जीवन की न जाने किस किस्म की कितनी झांकियां दिखाईं। उनमें ले भी गए। लेकिन कभी नहीं बताया कि उनका इस्तेमाल इस दुष्चक्र को चलाने वाले की मशीन में ईंधन की तरह हो रहा है। रघुबीर सहाय की एक कविता  की लाइन है। जनगनमन में भला कौन वो भारत भाग्य विधाता है, फटा चिथन्ना पहने जिसका गुन हरचरना गाता है।
मध्यवर्ग मोहित हुआ फिर लुटाता गया फिर लुटता गया। इस मध्यवर्ग से कुछ चालाक लोग छिटककर बाहर निकल आए और मशीन की बगल में खड़े हो गए। यहां पर मध्यवर्ग भी विभाजित हो गया। कुछ लोग लगातार पिसते घूमते रहे और ये सिलसिला जारी है। अब आप इन पिसे हुए लुटेपिटे लोगों को कहें कि वे अपना हिस्सा पाकर खुश थे तो शायद ऐसा नहीं था। वे एक अदम्य किस्म की बेचैनी में घिरे थे और अपने भीतर भी कई चक्कर काट रहे थे। वे उस नियति कहे जाने वाले दुष्चक्र से निकलने के लिए हमेशा बेताब थे लेकिन उनका इरादा उस मौकापरस्त और महत्वाकांक्षी उच्च मध्यवर्ग जैसा नहीं था, उन्हें बस अपने जीने के हालात बेहतर बनाने अपनी नौकरी रह पाने अपना घर चला पाने और विकसित देश में रहने की जो न्यूनतम सुविधाएं हैं वे चाहिए थीं। वे उन्हें नहीं मिली। तो वे क्या करते। क्या कर सकते हैं। ऑक्युपाइ ये बताता है।
अब नारे लगाने लोग यहां भी पहुंचे जंतरमंतर। इंडिया अंगेस्ट करप्शन हो गया। पर क्या ऐसा हो पाया। ये इंडिया ही हुआ। भारत नहीं हुआ। क्या विकल्प दिए आपने। सूली पर लटका दो। एक भ्रष्ट निजाम को काबू में रखने के लिए एक समांतर निजाम की वकालत। कॉरपोरेट और मीडिया और एनजीओ बाहर क्यों। उन पर चुप्पी क्यों। क्या इस आंदोलन की कोई टाइमिंग है। 2014 से पहले।
टाइमिंग ऑक्युपाई आंदोलन की भी पूछी गई थी। यकीनन वो टाइमिंग के साथ शुरू हुआ था। क्योंकि वो एक प्रयोग था पर उसका लक्ष्य 2012-13 नहीं था। उसकी चोट सीधे उस किले पर थी जो अंतरराष्ट्रीय पूंजी को संचालित करता है या उसमें भागीदार है और जिसके नुमाइंदे सारी दुनिया में फैले हुए हैं। भारत में भी। सरकार से लेकर सड़क तक। अरुंधति ने इसी संकट को दिखाया है, कि हम क्या करें। क्या ऑक्युपाई जैसी कोई चेतावनी जंतरमंतर जैसे आंदोलनों से कॉरपोरेट के खिलाफ उठी। चमत्कृत और गदगद लोगों और भीड़ को क्या बताया गया कि सरकार है चोर है जन लोकपाल ठीक करेगा। मतलब ऐसे समय में जब सरकार अपने सारे दायित्वों का निजीकरण कर रही है और कॉरपोरेट नीतियों का एक अदृश्य संचालक हो गया है वैसे में सरकार को ही निशाने पर लाना तो लगता है या तो ये आंदोलन भ्रमित है या फिर कोई एजेंडा है इसका। (जैसे ये भी कॉरपोरेटीकरण के यज्ञ में अपने क़िस्म की आहुति दे रहा है)
ऑक्युपाई ने सरलीकृत समाधान नहीं दिए। उसने उलटे सवाल ही और खड़े कर दिए। वो इतना पेचीदा और परतदार आंदोलन है। उसे बहुत ध्यान से देखे जाने की ज़रूरत है। वो एक दर्शन को चुनौती दे रहा है। संयोग से ये काम अमेरिका में ही हो रहा है तो बेहतर है। लेकिन इससे कॉरपोरेट भयभीत होगा या मनमानी रोक देगा ये खुशफहमी अभी किसी को भी नहीं। लेकिन कॉरपोरेट गलत और अनैतिक है। ये सब जान गए हैं और गड़बड़ी वहीं से है ये पता चल गया है। ये सवालों के कब्ज़े में आ गए हैं।
सगौ - मैंने अमेरिका में ऑक्यूपाइ आंदोलन की कवरेज देखी, कुछ मित्रों को हिस्सा लेते देखा, और उस दौरान वहां के माहौल के समझने की कोशिश की। आंदोलन में कुछ बेहद सुलझे हुए नागरिक दिखाई दिए जो लंबी और व्यवस्था बदलाव की लड़ाई के लिए तैयार थे, कुछ दिशाहीन दिखे जिनके लिए इस आंदोलन में शामिल होना सिर्फ एक नए अनुभव को लेना था, और कुछ ऐसे भी लोग थे जिनके होने से आंदोलन की धार कुंद करने में मेनस्ट्रीम मीडिया को आसानी हुई। लेकिन क्या ये हर आंदोलन की कहानी नहीं है।
विरले आंदोलन ही आदर्श आंदोलन होते हैं। हर आंदोलन के अपने स्वार्थ और व्यक्तिगत हित भी है। इसके बावजूद अनेक बार वे सकारात्मक बदलाव ले आते हैं। किसी भी आंदोलन का विरोध या समर्थन क्या व्यक्ति या वर्ग आधारित होना चाहिए या फिर मुद्दा आधारित।
शिप्रजो - आप अगर इसे अण्णा आंदोलन के संदर्भ में पूछ रहे हैं तो देखिए अण्णा का मुद्दा भी गलत है। वो कथित आंदोलन कई िकस्म की गल्तियों से भरा है। आंदोलन व्यक्ति या वर्ग चलाते हैं और एक मुद्दा लेकर आते हैं। मुद्दा यूं ही नहीं बन जाता। हर क्रांति का एक सबजेक्ट एक संकल्पना एक उद्देश्य एक सपना होता है। बशर्ते वो क्रांति हो। यहां अरब बसंत और अण्णा या ऑक्युपाई आंदोलन क्रांति नहीं बनी हैं।
इसमें ऑक्युपाई आंदोलन इसलिए अलग और ऊंचा है क्योंकि उसमें क्रांति के बीज हैं। वो एक बहुत गहन चिंतन के बाद और एक बहुत लंबी दास्तान लंबे संघर्ष के बाद आया है। उसमें सत्ता हस्तांतरण का लक्ष्य नहीं है। उसमें वैसी माक्र्सवादी पुकार भी नहीं है कि राज्य का विलय हो और वर्गहीन समाज हो और सत्ता सर्वहारा की हो।
अरब बसंत में त$कली$फों से निजात की एक लंबी लड़ाई गुंथी हुई है। लेकिन उस लड़ाई को किसी गद्दाफी या किसी मुबारक की ओर मोड़कर संक्रमणवादियों ने जीत पाई है। जनता की जीत दूर है। और अण्णा में तो लड़ाई ही बनावटी है। वो भ्रष्टाचार को सभी पापों और दुखों की जननी मानती हुई ऐसे उसे टोपीझंडे जुलूस के बीच लाई है कि लगता है ये टीवी पर्दे से बाहर कोई लाइव तमाशा है और टीवी के लिए इसे दिखाया जा रहा है कि खूब दिखेगा खूब बिकेगा और कुछ धूमधड़का भी होगा। वही हुआ भी। भ्रष्टाचार की मूल वजहों पर उसने कभी चोट ही नहीं की। वे एजेंडे में आई ही नहीं। एक सरकार उसकी नाकामी काहिली उसके लचर कानून और एक लोकपाल। ये स्वार्थ भरी भिनभिनाहट लगती थी। इसने मध्यवर्ग को चौंकाया गुदगुदाया उद्वेलित किया शहरी देहातों में भी खूब हलचल रही लेकिन ये अंतत: सत्तर के दशक की बंबइया हिंदी $िफल्म की तरह है जहां दीवार त्रिशूल नमकहराम आदि के संवाद हैं और वैसे ही गुबार हैं।
तो आपको इस नकलीपन को कंडम करना होता है। इसकी समस्त रूपरेखा में जिसमें व्यक्ति भी आते हैं और मुद्दे भी।
सगौ - अगर आप व्यवस्था में बदलाव के पक्षधर हैं तो इसके लिए लोगों को साथ लेना तो जरूरी है। अब देखना ये है कि आप लोगों को साथ किस तरह से लेते हैं। जिंदगी के अपरिवर्तनीय पहलू की तरह एक वर्ग है जो कट्टरता से अरुंधति रॉय की सही बातों और मुद्दों का विरोध करेगा। दूसरा पक्ष उतनी ही कट्टरता से समर्थन में खड़ा रहेगा। तर्क, विश्लेषण दोनों के लिए गैरजरूरी हैं क्योंकि उनका वैचारिक दृष्टिकोण शायद नहीं बदलेगा। ऐसे में अहम और संवेदनशील मुद्दों पर क्या उस वर्ग को साथ लेकर चलने की जरूरत नहीं है जो दोराहे पर खड़ा है। जो किसी भी और जा सकता है। उसे अपनी ओर खींचने की जरूरत नहीं होनी चाहिए।
लेकिन उनकी हाल के लेख तो ऐसे लगते हैं कि मध्य वर्ग का सामान्यीकरण कर उसे स्वार्थी, निकम्मा इत्यादि बताया जा रहा है। क्या ऐसे लोगों को साथ लिया जाएगा। क्या ऐसे होगी जागृति। क्या इतना जेनेरेलाइजेशन सही है। क्या मध्य वर्ग का हर प्राणी स्वार्थी है और शोषित वर्ग का हर सदस्य क्रांति का ईमानदार सिपाही। मैं और मेरे दोस्त क्या मध्य वर्ग नहीं है। और अगर मिस्र में शहरी मध्य वर्ग का क्रांतिकारी, ऑक्युपाइ आंदोलन का प्रदर्शनकारी स्वीकार्य है तो भारत का मध्य वर्ग का सहज सिपाही स्वार्थी क्यों हैं। क्या ये भी वैसा ही दोहरापन नहीं है जिसके इल्जाम अमेरिकी मीडिया पर लगते हैं।
शिप्रजो - सबको साथ लेकर चलने की ज़रूरत है। लेनिन ने जब रूस में मोर्चा संभाला था तो ज़ार के खिलाफ लड़ाई में उन्होंने कई मतों के आंदोलनकारियों से मदद ली थी। सब साथ-साथ आए थे। वे अमीर किसान भी थे। कुछ पूंजीपति, कुछ लोकतंत्रवादी कुछ और ज़ारविरोधी। तो इसमें तो कोई शक नहीं लेकिन ध्यान ये रखना होता कि ये क्रांति की सफलता पर उसे चट तो नहीं कर जाएंगे। जैसा खतरा अरब में हो गया है। जैसा रूस में भी था लेकिन लेनिन की सूझबूझ सबपर भारी पड़ी लेकिन ये भी देखिए कि उनकी नीतियां पार्टी में ही आगे कैसे बदलती चलीं गईं, स्तालिनवाद आया और उससे पहले और साथ ट्रॉटस्कीवाद। फिर बाज़ार समर्थक अमेरिका परस्त जमात आयी चली गई। फिर ग्लासनोस्त और पेरेस्त्रोयका हुआ और फिर सोवियत संघ कैसे ढेर हुआ।
आंदोलन को खराब करने और उसे भटकाने वाली शक्तियां उसमें घुलीमिली रहती हैं। उस वीड को तो समय आने पर हटाना ही होता है। लेकिन यहां तो बात ये है कि भारत में मध्यवर्ग किसी आंदोलन में आता हुआ दिखता ही नहीं। वो जिसे आंदोलन कहा जा रहा है ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है कि क्योंकर आंदोलन ही नहीं है। यही वो मध्यवर्ग है जिसका एक बड़ा हिस्सा 1992 में अयोध्या में और उसके बाद सक्रिय हुआ था। तो ये अण्णा टोपी भी धारण कर सकता है और हाथ में राम नाम की ईंट भी ले सकता है। इसी मध्यवर्ग का एक छिपा हुआ चरित्र कभी प्रकट नहीं हाता। वो चुपचाप अपना काम करता है। यानी एसएमएस फॉरवर्ड कर देगा या ईमेल या नारा लगा देगा या कान में कुछ कह देगा। इस मध्यवर्ग को आप ये कहें कि साथ लेकर चलें तो ये मुमकिन नहीं है। अगर ये है तो इसका अर्थ ये है कि वो आंदोलन ही संदिग्ध है।
मध्यवर्ग का हर प्राणी स्वार्थी बिल्कुल नहीं है। मध्यवर्ग कोई घोषित समूह नहीं एक सामाजिक सांस्कृतिक और राजनैतिक टेंडेंसी है। आंदोलन की गति और प्रवाह के लिए उसका न आना ही बेहतर है अगर आंदोलन वाकई गंभीर है। तो ये मध्यवर्ग का जेनेरेलाइज़ेशन नहीं है। ये उन प्रवृत्तियों की ओर इशारा है जो भारतीय समाज में पनप रही हैं और जो जनसंघर्षों को कमज़ोंर करेंगी। अव्वल तो उनसे दूर ही रहेंगी। मध्यवर्गीय विचारअपने नामअनुरूप ही है वो आपके साथ नहीं आएगा। आपके लिए चंद आवाज़ें ज़रूर लगाएगा लेकिन उनमें गूंज अस्थायी ही होगी। तो ऐसे निरर्थक तत्वों को किनारे आना ही होगा। वे बड़े आंदोलन के भागीदार नहीं बन सकते। उन्हें अभी और चकाचौंध और उदारवाद और उपयोगिता चाहिए। वे उस सुखवाद को भला क्यों छोड़ेंगे। अण्णा आंदोलन में उनकी भागीदारी एक तरह का सुखवाद ही है।
तो मैं समझता हूं कि अरुंधति रॉय का मध्यवर्ग पर हमला हमारे और आपके ऊपर या हम जैसे अन्य लोगों पर हमला नहीं है। वो मध्यवर्गीय लोलुपता और मौ$कापरस्ती और मक्कारी पर चोट कर रही हैं। इसका हमें स्वागत ही करना चाहिए और और ध्यान से आंदोलनों अभियानों के चरित्रों को देखना चाहिए। मैं तो यही करता हूं।
सगौ - (...पब्लिक इंटुलेक्चुअल्स में अरुंधति अकेली और पहली थीं जिन्होंने अण्णा आंदोलन की मंशा और निहितार्थ को ठीक ठीक पकड़ा...)
उनका लेख पढ़ चुका हूं लेकिन उनके तर्कों से संतुष्ट नहीं हुआ। उनके लॉजिक के हिसाब से नर्मदा बचाओ आंदोलन के कार्यकर्ताओं से पूछा जाना चाहिए कि अन्य मुद्दों पर शांत क्यों रहे। ईमानदारी से कहूं तो ये सवाल मुझे खतरनाक भी नजर आते हैं ठीक वैसे ही जैसे लकीर के दूसरी ओर बैठे लोग नरेन्द्र मोदी के खिलाफ चलने वाली मुहिम के लोगों की मंशा और उन्हें मिलने वाली फंडिंग पर सवाल उठाते हैं। असल समस्याओं की ओर आंख मूंद कर बैठने वाला कट्टरवादी धड़ा अरुंधति रॉय पर आरोप लगाता है कि अपने लेखन से वे देश को बदनाम करती हैं, उनका एजेंडा है। जिस तरह से ये आरोप ठीक नहीं है वैसे ही मेरी नजर में किसी आंदोलन को विफल करार दिए जाने से अच्छा है कि उसके सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं पर चर्चा हो। फंडिग, टाइमिंग, विदेशी या आरएसएस का हाथ, मंशा। ये कयासबाजी बहस और समस्या का सरलीकरण करती हैं और सत्ता वर्ग को आसान रास्ता प्रदान करती हैं।
शिप्रजो - आंदोलनों की असलियत पता करने के लिए किसी न किसी को कुछ न कुछ तो लिखना बोलना ही पड़ेगा। वरना हर आंदोलन खुद को जनता का आंदोलन कहकर महिमामंडित करता रहेगा। अण्णा आंदोलन की दिक्कत ये है कि उन्हें लगता है वे ही बस भ्रष्टाचार मिटाने में अग्रणी है, बाकी जनता पीछे से आए, वे ऐसे काम कर रहे है जैसे उन्हें ही आकाशवाणी हुई है या उन्हें ही इस बीमारी से निपटाने की पैगंबरी सौंपी गई है।
सगौ- (वो मोमबत्ती जलाने जुलूस में चला जाएगा लेकिन किसी अंधेरे को काटने की ताब उसमें न होगी। वो निर्णय और अनिर्णय के बीच झूलता हुआ सा समाज है...)
इस समाज को वंचित वर्ग से ऊपर उठ जाने का संतोष तो है लेकिन अभिजात्य वर्ग की जमात में शामिल न होने का मलाल भी है। इसलिए उसका रोष अस्थाई है क्योंकि उसके पास तुलनात्मक सुरक्षा का भाव है जो वंचितों और शोषितों के पास नहीं है। लेकिन मेरा सवाल है कि क्या इस वर्ग की आत्मग्लानि के भाव में इतना शापित कर देना ठीक है कि वो अपनी खोल में दुबक कर बैठ जाए। क्या समाधान लक्ष्य है या फिर वैचारिक विजय का संतोष जिसके मुताबिक मध्य वर्ग हर समस्या का दोषी है। मैं जिस मुद्दे के प्रति मजबूती से महसूस करूंगा उसके प्रति आवाज उठाऊंगा, हो सकता है मैं अन्य मुद्दों के लिए उतनी बुलंद आवाज न कर सकूं लेकिन क्या इसे मेरा अपराध समझा जाना चाहिए। निजी तौर पर हो सकता है कि मेरी जिम्मेदारियां मुझे लंबे रास्ते पर चलने की अनुमति न दें पर क्या इससे मेरा जज्बा कमजोर हो जाता है।
क्या थोड़ी देर चलने की शुरुआत भी बढ़ती राजनीतिक चेतना का सकारात्मक संदेश नहीं है जिसके मुताबिक ये कहने की कोशिश है कि चुनावी राजनीति में अप्रभावी रहे इस वर्ग को और उदासीन नहीं समझा जा सकता। पेड मीडिया की तो मजबूरी है कि इस वर्ग की इच्छाओं को पूरी करना इसलिए उसे मूवमेंट दिखाना पड़ा जिसने एक तरह से सरकार पर दबाव का काम किया। मीडिया सतही है और तात्कालिक है। आज इस मूवमेंट को दिखाकर कल उसके लिए भी मुसीबत भी खड़ी हो सकती है ये सोचने का समय उसके पास नहीं है...
शिप्रजो - अगर आप सच्चे आंदोलनकारी हैं फिर आप चाहें मध्यवर्ग से आते हों या उच्चवर्ग से या निम्न वर्ग से तो आप हर जेनुइन मुद्दे पर आवाज़ बुलंद करेंगे। नहीं करेंगे तो ये प्रवृत्ति अक्षम्य है। अक्षम्य किसके सामने। आपके अपने ही सामने, अपने इतिहास और अपने समाज के सामने ये अपराध ही है। यही जो ज़िम्मेदारी वाला एंगल है यही मध्यवर्ग की पेचीदगी और उसका दुविधापूर्ण मानस है। उसे लगता है कि मुझे घर भी तो चलाना है, लिखना पढऩा और मनोरंजन भी तो करना है।
जज्बा भले ही कमज़ोर न होता हो लेकिन ये भी सोचिए कि ऐसे जज्बे का क्या जो अपनी तमाम नैतिकता और विज़न के बावजूद  धरा का धरा रह जाए। फिर इससे क्या फर्क पड़ता है कि वो कमज़ोर है या मज़बूत या कम है या ज्यादा। मेरा तो अरुंधति से आगे बढ़कर ये मानना है कि लोकपाल जैसे आंदोलन हमारे भीतर निहित उस जज्बे को और बाहर नहीं आने देते। उसे जस का तस रहने देते हैं, या उसे जहां का तहां विचलित करते रहते हैं, उसमें ऐसा धक्का आने से रोकते रहते हैं जो उसे निर्णायक आंदोलन में खींच ले आए। यहीं हम सबकी समस्या है। अभी शायद हिंदुस्तानी मध्यवर्ग जनमानस उस धक्के के करीब नहीं पहुंचा है। जब ऐसा होगा तो निश्चित रूप से वो बड़ा ऐतिहासिक क्षण होगा। फ्रांस की क्रांति इस धक्के की एक मिसाल है लेकिन ऐसे धक्के का भी क्या करना जो एक नए गड्ढे में हम सबको फेंक दें।
हम यही कहते हैं कि हमें इस गड्ढे से उस गड्ढे में मत फेंकों। मध्यवर्ग को यूज़ मत करो। हमारी आकांक्षाओं और वासनाओं और अभिलाषाओं को हम पर लालच की तरह मत फेंको। मैं यही कहता हूं और जो आप भी कहते हैं कि मध्यवर्ग को अपना कुत्ता मानना बंद करो। कि जब आप कहेंगे तो भौंकेगा या काटेगा। लोकपाल जैसे आंदोलन और ये नकली जुंबिशे हमारे साथ यही कर रही है। और जो आपका सवाल है,उसके लिए यही लोग ज़िम्मेदार हैं। एक पूरा सिस्टम। जो सरकार और सत्ता से समांतर काम करता है। बहुत खामोशी से और बहुत खुराफाती अंदाज़ में। हमें पता कहां चलता है।
सगौ - (... अगर हम अरब बसंत या ऑक्युपाई मूवमेंट को मध्यवर्ग का मूवमेंट बताते हैं तो शायद एक भूल कर रहे होते हैं। लेकिन आप ये भी जानते हैं कि इस आंदोलन में मुस्सिलम ब्रदरहुड भी कूदा। इस संगठन का चरित्र क्या है...)
इस बात पर मेरी असहमति है। पहली बात तो ये कि मुस्लिम ब्रदरहुड इस आंदोलन में कूदा ही नहीं था एक हफ्ते बाद तक। घोषित तौर पर। कई दिनों तक इसे दूसरी बात ये समझनी होगी कि एक सिक्योरिटी स्टेट में विरोध की आग क्यों नहीं बुझी जबकि सरकारी मीडिया ने इसे रोकने के सभी प्रयास किए। इसलिए कि आंदोलन में शामिल लोगों ने फेसबुक, मोबाइल फोन वीडियो, ट्विटर और अन्य माध्यमों का इस्तेमाल किया। यही वजह थी कि क्रांति के आखिरी दिनों में ब्रदरहुड को शामिल होने के लिए मजबूर होना पड़ा। आंदोलन में निश्चित रूप से अन्य वर्गों के लोग भी शामिल थे लेकिन उनकी लड़ाई का नेतृत्व पढ़े-लिखे, सेकुलर, प्रोग्रेसिव युवाओं ने प्रदान किया, वही थे जो सरकारी मीडिया के दुष्प्रचार को तोड़ पाने में सफल रहे, वरना दूर-दराज के किसानों, मजदूरों को शांत रखने का मुबारक रिजीम आसान रास्ता तलाश चुकी थी।
अब ये दुर्भाग्य जरूर है कि प्रगतिशील लोगों की जमात इतनी बड़ी नहीं है कि क्रांति के बाद ब्रदरहुड को सत्ता से दूर रख पाने में सफल हो पाती, लेकिन उसे दबाव में ला पाने में सफल रही है ताकि वो अपने मुस्लिम एजेंडे को दूर रख पाने में सफल रहे। इसे आप कुछ इसी तरह से देख सकते हैं कि सत्ता में आने के बाद बीजेपी को विवादास्पद मुद्दों से पीछे हटना पड़ा या तुर्की में एरदोआन ने मुस्लिम एजेंडे से शुरुआत के बावजूद धीरे-धीरे अपनी सरकार को प्रगतिशील और उदारवादी के रूप में पेश किया... अगर ये सत्ता हस्तांतरण का संक्रमण काल है तो इसमें कोई परेशानी नहीं है। क्रांति के तत्काल बाद समतामूलक, न्याय आधारित समाज की स्थापना होना तो नामुमकिन ही है। हो सकता है कि ये मॉडल फेल हो जाए लेकिन समाज का निर्माण तो फिर इन्हीं रास्तों से होकर गुजरता।
शिप्रजो - ब्रदरहुट या बीजेपी की भूमिका में संतोष ढूंढ लेना जल्दबाज़ी होगी। बीजेपी कभी भी अपने एजेंडे से पीछे नहीं गई। ऐसा कुछ नहीं हुआ जो उसका एजेंडा बदला हो। सरकार में आने के बाद (मध्यमार्गी गैरसांप्रदायिक दलों के राजनैतिक गठजोड़ के साथ) भी वो चोरी छिपे अपना एजेंडा चलाती रही। इसके अनेक उदाहरण हैं। और सबसे बड़ा प्रमाण तो गुजरात है। आप लाख राजधर्म-राजधर्म कर लीजिए लेकिन इतिहास में तो आपका गुनाह दर्ज हो ही गया न कि आपने एक दोषी सिस्टम और उसके मुखिया के खिलाफ फौरन कार्रवाई नहीं की। वाजपेई का तो मेरे ख्याल से राजनैतिक करियर का ये सबसे बड़ा ज़ख्म है। वो उस अपराधबोध से निकल ही नहीं सकते।
गुजरात दंगों पर कुछ प्रगतिशील गैरसांप्रदायिक वाम रुझान वाले संगठनों और नागरिक बिरादरी को छोड़ दें तो क्यों नहीं एक विराट प्रतिरोध उठा। क्या ये कम बड़ा भ्रष्टाचार नहीं। मध्यवर्ग का सबसे बड़ा हिस्सा हिंदुओं से बनता है। उसके मस्तिष्क में मुस्लिम विरोधी छवि क्यों नहीं टूट रही है।
आप लीबिया या मिस्र की बात करते हैं। सीरिया में कत्लेआम जारी है। वहां ये ट्विटर क्रांति क्या कर रही है। सऊदी अरब में इसके हौसले क्यों नहीं बढ़ते। किस चीज़ का डर है। आप ज़ाहिर है सहमत नहीं ही होंगे लेकिन मैं तो कहूंगा क्रांति के रास्ते को ये चीज़ें लचीला और समझौतापरक बनाती हैं। क्रांतियां पथरीली ऊबड़-खाबड़ और धूल भरी होती हैं। वे हो सकता है विफल हो जाएं लेकिन वही रास्ता बनाती हैं। अपने यहां 1857 की
क्रांति ऐसी ही एक क्रांति थी। जिसके अब कई सारे विमर्श सामने आए हैं। लेकिन मैं तो आगे बढ़कर ये कहूंगा कि अरब बसंत में क्रांति ढूंढना नादानी थी और रहेगी। मैं पूर्व निजाम को सही नहीं मानता लेकिन मैं कहना चाहता हूं कि इस कथित बसंत ने नए अंधेरों में उन इलाकों को डाल दिया है जो ज्यादा खतरनाक हैं, क्योंकि अब वहां पर बात सिर्फ कट्टरता रूढिय़ों और तानाशाही की नहीं रह गई है, वहां नए और भयंकर कॉरपोरेट जलजले आएंगे। लोग और तबाह होंगे। क्या करें।

हां उम्मीद और ख्वाब यही है कि ये समस्त लड़ाईयां आने वाले वक्तों की एक बड़ी नदी बनने की दिशा में अग्रसर होंगी- और इन्हीं असली-नकली पैनी भोथरी बेहतर कमतर चमकीली भद्दी तकनीकी गैर तकनीकी- सभी किस्म की लड़ाईयां अंतत: घुलमिलकर एक नई संघर्ष चेतना का निर्माण कर सकती हैं। और इसी दिशा में विरोध आलोचना विवाद होंगे। जो आगे जा सकेगा वही आगे जाएगा। लेकिन इसे आप सरवाइवल ऑफ िफटेस्ट की ध्वनि में न पढ़ें। मेरी थ्योरी है - सरवाइवल ऑफ बेस्ट ऑफ स्ट्रेगल्स। जो जितना ईमानदार म*ाबूत साहसी प्रतिरोध होगा वही आने वाले दिनों की विडम्बनाओं में अपने लिए जगह बनाएगा। क्योंकि विडम्बनाएं तो कम होने से रहीं। ''पूंजीवाद का प्रेत" अभी इस शताब्दी में तो हमारे और हमारी आने वाली पीढ़ी पर मंडराता रहेगा। ये बहुत बड़ा जीवन लेकर आया है। लेकिन हमारे संघर्ष भी बहुत बड़ा जीवन लेकर आए हैं।

सगौ - (...और अण्णा में तो लड़ाई ही बनावटी है। भ्रष्टाचार की मूल वजहों पर उसने कभी चोट ही नहीं की। वो एजेंडे में आए ही नहीं...)

पहली बात तो ये कि अन्ना हजारे लोकपाल के मुद्दे के साथ जरूर आए हों लेकिन जनता भ्रष्टाचार से चिढऩ पैदा करने वाले माहौल की वजह से जुड़ी थी। लोकपाल तो एक सरलीकरण कहा जाएगा। आपने भारत में आंदोलन की टाइमिंग का एक पहलू तो देखा, लेकिन दूसरा नहीं... क्या ये सच नहीं है कि इस आंदोलन की जमीन घोटालों की बाढ़ के समय में तैयार हुई। क्या इस आंदोलन को मिले इतने समर्थन की वजह ये नहीं है कि कथित महाशक्ति देश के निवासी समझने वाले वर्ग को झटका लगा कि भारत स्टोरी पटरी से उतर रही है। मैं यहां कारणों का उल्लेख कर रहा हूं जिसकी वजह से मध्य वर्ग का समर्थन हासिल हुआ। दूसरा मेरा विरोध आपके  इस आंदोलन को बनावटी करार देने से है। ऐसा नहीं है कि इस आंदोलन में कमियां नहीं थी, इसकी अगुवाई करने वालों में घमंड और वनअपमैनशिप का खिजा देने वाला भाव नहीं था जो बाद में अच्छा हुआ कि चूर भी हुआ... लेकिन आप उन युवाओं की गंभीरता और समस्या के खिलाफ आवाज़ उठाने को बनावटी कह कर खारिज नहीं कर सकते। हां, ये जरूर हो सकता है कि उनकी भावनाओं को प्रगटीकरण बचकाना हो, या उनरूपों में हो जिनसे हम सहमत न हो पाएं।

इस नेतृत्वविहीन और आदर्शविहीन होते जा रहे समाज में अगर युवाओं को झंडे लहरा कर, टोपी पहन कर ये एहसास हुआ कि वो एक अहम लड़ाई लड़ रहे हैं तो इसके लिए क्या उन्हें हेयदृष्टि से देखा जाना चाहिए। और वैसे भी हालिया इतिहास में हमारे यहां आंदोलनों की ऐसी कौन सी मिसाल है जिसे वे आदर्श मानकर फॉलो करने की कोशिश करते...

शिप्रजो - मैं आपके क्षोभ का सम्मान करता हूं और उस मामले में आपसे अलग नहीं हूं। जब हम इस अण्णा आंदोलन और उसके प्रतिभागियों की बात करते हैं तो हम उस विशाल जनसमूह को नहीं टार्गेट करते जो रामलीला मैदान या इंडिया गेट पर दिखा। आप उन आशयों को पकडि़ए जैसे मध्यवर्ग वाले मामले में अरुंधति के आशय हैं।

आप जनता की ओर से बोलना चाहते हैं लेकिन बार-बार अण्णा आंदोलन को सही ठहराने की कोशिश कर रहे हैं। उस आंदोलन में जिन-जिन वजहों से भी जहां-जहां से भी जो लोग आए उन्हें सलाम है। उनकी चीखों, ललकारों, हुंकारों और गुस्से में भी कुछ $गलत नहीं है। उनका कैंडिल मार्च करना टोपी पहनाना भी गलत नहीं है। हम उस आंदोलन के आशयों को समझने की कोसिश कर रहे हैं। कि आखिर ये इतने भर का ही आंदोलन है। इससे आगे क्यों नहीं है। एक लिज़लिज़ापन क्यों हैं। क्या वो वाकई सीधा राम रसोई से निकलकर आया है।

हम एक ऐसे तबके की बात कर रहे हैं जिसके लिए अपने पड़ोसी की मदद के लिए दौड़ पडऩा कितना कठिन होता है और रामलीला मैदान में जमे रहना कितना आसान। इस प्रवृत्ति की बात कर रहे हैं कि वो ठेली पर सबज़ी बेचने वाले साधारण व्यक्ति से तो मोलभाव करता रहेगा लेकिन बड़ी दुकान में जाते ही उसकी घिग्घी बंध जाती है और वहां वो ऐसे बिहेव करता है कि नाक न कट जाए।

एक बड़ी सच्चाई ये है कि युवाओं को ये अहसास हो जाने से ही काम नहीं चलता कि वो एक मुक्ति यज्ञ में शामिल हैं। भ्रष्टाचर मिटाने का मामला आप यज्ञ जैसा मत बनाइए। ये एक बहुत बड़ी और अंतरराष्ट्रीय लड़ाई का एक हिस्सा है। और ये ऐसी सबजेक्टिव कार्रवाइयों से नहीं मिटने वाला।

सगौ - (...तो मैं समझता हूं कि अरुंधति रॉय... मध्यवर्गीय लोलुपता और मौ$कापरस्ती और मक्कारी पर चोट कर रही हैं...)

ये तो आप भी मानेंगे कि गंभीर समस्याएं हैं। अब बहस इस बात पर है कि उसके खिलाफ लड़ाई कैसी लड़ी जाए, मेरी समझ में दो रास्ते हैं, एक रास्ता रेवोल्यूशन की ओर जाता है और दूसरा एवोल्यूशन की ओर जाता है जहां चरणबद्घ तरीके से छोटे उद्देश्यों के साथ सिस्टम को बेहतर बनाने की कोशिश हो सकती है। हर व्यक्ति बंदूक उठाकर जल जंगल जमीन के लिए संघर्ष कर पाएगा, मुझे ऐसा संदेह है।

लेकिन उनके ऐसा न कर पाने की वजह से उनकी लानत-मलानत करने को मैं सही नहीं मानता। आपने बात उठाई कि मध्य वर्ग एक समूह न होकर मेंटेलिटी है उससे मैं पूरी तरह सहमत हूं। पिछली मेल में मेरा आशय इसी बात को कहने और दोहरा नजरिया अपनाए जाने पर था।

लेकिन क्या ये मेंटेलिटी मानवीय गुण-दोषों का प्रगटीकरण ही नहीं है... क्या इस भाव से कुलीन, अभिजात, या फिर शोषित और वंचित वर्ग अछूता है। अगर मध्य वर्ग का कोई प्राणी इसी भाव से कहे कि गरीबों के वोट 100 रुपए में बिक जाते हैं और देश में सही सरकार ला पाने में विफलता की सबसे बड़ी वजह ये वंचित वर्ग है तो क्या ये अहंकारी कथन नहीं माना जाना चाहिए। आज़ादी की लड़ाई क्या दिखाती है क्या महात्मा गांधी के बारे में अपनी राय मैं ये बनाऊं कि वो ...अगुवाई किस वर्ग ने की स्वार्थी थे क्योंकि जब तक उन्हें गाड़ी से नीचे नहीं उतारा गया तब तक वो ज्यादा दूर चलने के हामी नहीं थे।

क्या मध्य वर्ग की रिसोसेंज के बगैर, उसकी अगुवाई के बिना क्या अर्थपूर्ण बदलाव की कल्पना संभव है। क्या मध्य वर्ग की राजनीतिक चेतना, समझ और वंचित वर्ग की ऊर्जा का संगम होना नहीं चाहिए। क्या मध्य वर्ग द्वारा उसके स्वार्थ के लिए किए जाने वाले आंदोलनों के सकारात्मक परिणामों को निर्वात में देखा जा सकता है। क्या हम दावे के साथ कह सकते हैं कि व्यवस्था में सुधार का फायदा निचले स्तर तक नहीं जाएगा।

शिप्रजो - लानत मलानत नहीं की जा रही है। मैं बार-बार कह चुका हूं कि हमारे ही तबके में कुछ दोषों की ओर इशारा है और हम अगर उन्हें ठीक कर सकें तो क्या दिक्कत है। वाद-प्रतिवाद से ही तो संवाद बनेगा। मध्यवर्ग चूंकि एक प्रवृत्ति है और उसे वैसा ही रहना है तो उसकी आलोचना होती रहेगी। मध्यवर्ग से निकले लोगों ने ही क्रांतियां की हैं। व्यक्ति पर हमला थोड़े ही है। मध्यवर्ग का ये चारित्रिक दोष है कि उसे सरलीकृत उपाय चाहिए। फिर वो बोतलबंद पानी हो या लोकपाल। लेकिन उस वर्ग में से ही कुछ लोग निकलकर, सुविधा और मस्ती की *ांजीरों को काटकर निकल आते हैं और एक बड़े संघर्ष में चले जाते हैं। वे पुरानी पीढ़ी के मध्यवर्ग से हो सकती हैं या नई पीढ़ी के। उनसे इतर मध्यवर्ग एक सोया हुआ जीव है और हड़बड़ाकर वो तभी उठता है जब उसे ध्यानाकर्षण से भरी कुछ रोशनियां कुछ हलचलें इधर-उधर दिखाई पड़ती हैं। इससे ऐसा मत मानिए कि ये लीजिए वो क्रांति के लिए तैयार हुआ। और उसमें वाकई बदलाव की आकांक्षा आ गई है। नहीं आती है। वो उमड़-उमड़ कर आता है फिर स्वभाव अनुरुप अपने काम और अपनी मौज में चला जाता है।

लेकिन मैं फिर कहता हूं कि इन्हीं हलचलों को देखकर कुछ लोग इसी मध्यवर्ग से निकलते हैं और उनके भीतर दाखिल हो जाते हैं। वे उन हलचलों को समझते हैं और अपनी भरसक लड़ाइयां लड़ते रहते हैं। वे जेनुइन लोग हैं। मध्यवर्ग की जोंक उन्होंने निकाल फेंकी होती है।

सगौ - (...इस आंदोलन की यही गति हुई कि सरलीकृत हमलों की ओर बढ़ा। असली लड़ाइयों को इसने आगे आने ही नहीं दिया...)

सरलीकृत हमले या बहस कौन नहीं चाहता है भारत में। सारी बहस काले और सफेद में ही तो आकर थम जाती है मानो ग्रे एरिया है ही नहीं। तो लकीर के एक ओर बैठे वर्ग को आर्थिक उदारीकरण, बाजारीकरण हर मर्ज की दवा नजर आती है तो दूसरा वर्ग इस इसे हर समस्या का जिम्मेदार बताता है। एक के लिए माओवादी सच्चे सिपाही हैं तो दूसरे के लिए वे क्रूर आतंकवादी है जिन्हें कुचल दिया जाना चाहिए। एक के लिए जिहादी विचारधारा सिर्फ पश्चिमी देशों को एजेंडा है तो दूसरा पूरी मुस्लिम कौम पर ही सवाल खड़ा करता है।

हर बहस जहां से शुरु होती है वहीं खत्म हो जाती है क्योंकि पीछे हटने या लचीलेपन को कोई तैयार नहीं है। हाल में सालों में मैंने देखा है कि समाधान पर पहुंचना लक्ष्य कम है, अपने पक्ष की शुचिता का बचाव करने का प्रयास ज्यादा है। जिसमें विपक्षी को हारते हुए देखने में ही विजय का संतोष है। ये ठहराव और खंदकों में मजबूत मोर्चाबंदी खतरनाक है और गतिरोध है। इससे बदलाव का रास्ता कठिन हो जाता है। खैर इस मामले में एक सरल मांग ही की जा रही है। स्वतंत्र, पारदर्शी और जवाबदेह जांच एजेंसी की मांग और वर्तमान समय में इसकी जरूरत से शायद ही कोई इंकार करें। लोकपाल समांतर ब्यूरोक्रेसी का निर्माण करेगा यह आशंका जायज है। इसलिए सीबीआई को सरकार मुक्त कराने पर भी जोर केंद्रित किया जा सकता है।

भ्रष्टाचार एक जटिल समस्या है लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि प्रभावी और पारदर्शी एजेंसी के गठन की मांग न की जाए और वो भी ऐसे दौर में जब हम दल मिलकर एक माफिया की तरह काम कर रहा है और पार्टियां परिवार की बपौती बन रही है।

शिप्रजो - बहस का ये ऐतिहासिक लक्षण या चरित्र रहा है, वे नए द्वंद्वों की ओर ले जाती है। वे अधूरी रह जाती हैं तो इसलिए नहीं कि हर पक्ष अपना खम ठोके रहता है, अधूरा रह जाना उसका एक लक्षण हैं। वे भला एकतरफा क्यों होने लगीं। आप मेरी बात कभी नहीं मानेंगे मैं आपकी बातें से सहमत नहीं हूंगा लेकिन आप देखेंगे कि इस न मानने के बीच जो एक बारीक अदृश्य डाएलेक्ट है वो हमें एक दूसरे से जोड़ता है और हमारे विचारों में पूरकता भी लाता है। जिसे आप गतिरोध कहते हैं मैं उसे एक असाधारण पुल कहता हूं। खैर ये तो एक मिसाल है हमारी और आपकी। बड़े फलक में आप देखेंगे कि अमेरिका अपना विचार लादता रहता है लेकिन उसका प्रतिरोध नाना ढंग से होता रहता है। बहस आप हर वस्तु या व्यक्ति के बारे में नहीं करते रह सकते। जैसे मिसाल के लिए नरेंद्र मोदी से आप बहस नहीं कर सकते उनसे तो आपको संघर्ष ही करना होगा। आप हर किसी से बहस करने नहीं जा सकते। आप नवनात्सियों से बहस नहीं कर सकते उनके खिलाफ आंदोलन की कार्रवाई करनी होगी।

जिसे आप सरल मांग कह रहे हैं मैं उसे चालाक मांग कहता हूं। आगे बढ़कर उसमें धूर्तता भी देखता हूं अगर आप अन्यथा न लें। एक जटिल समस्या लोकपाल से हल नहीं हो सकती। आप भी मानते हैं। निष्पक्ष स्वतंत्र पारदर्शी अधिकार संपन्न सर्वगुण संपन्न ऐसी एजेंसी से किसे इंकार है। पर क्या ये संभव है। आपको लगता है पोलिटिक्ल सिस्टम में इतनी नैतिक स्पेस है कि वो ये कर पाएगा। ब्युरोक्रेसी को ही देखिए। लोकपाल हो या जनलोकपाल वो सब कुछ क्षतविक्षत कर देगी। फिर क्या करना चाहिए।

मेरे विचार में हमें एक एक कर सरकार को नीतियों के आधार पर चुनौती देनी चाहिए। ये थोड़ा अलहदा बहस है... हमें ऐसे आंदोलन बनाने चाहिए कि उन नीतियों का पर्दाफाश करें जिनसे भ्रष्टाचार किया जा रहा है। और सबसे बड़ा है आर्थिक भ्रष्टाचार। ये एक मुश्किल लड़ाई है।

सगौ - (...समाधान लक्ष्य है लेकिन ठोस समाधान। शॉर्टटर्म समाधान नहीं। जैसे लोकपाल सुझा रहा है। एक समांतर ब्युरोक्रेसी का निर्माण...)

मेरा कहना है कि ठोस या स्थाई समाधान की राह में छोटे किंतु अहम लक्ष्यों को दरकिनार कर उन्हें बचकाना करार देना सही नहीं है। ठोस समाधान भी शॉर्ट टर्म ही होता है क्योंकि किसी राष्ट्र या समुदाय की प्रवृत्तियों को सदैव के लिए इस तरह से प्रोग्राम नहीं किया जा सकता कि एक क्रांति के बाद नए युग का सूत्रपात हो जाए। शायद रेवोल्यूशन के बाद ऐसा कुछ समय के लिए हो भी सकता है लेकिन फिर उसके विकार ग्रस्त होने की आशंका भी बढ़ती चली जाती है।

आपने निर्णायक आंदोलन का जिक्र किया। उस निर्णायक आंदोलन की जमीन कैसी होगी। क्या 2012 का निर्णायक आंदोलन 2035 में भी अपनी समग्रता को समेटे होगा। क्या उसके बाद इतिहास, समस्याओं, दुविधाओं, भ्रष्टाचार, मध्यवर्गीय प्रवृत्तियों का अंत हो जाएगा। क्या इतिहास हमें ऐसे आंदोलन की मिसाल देता है। हर युग हर काल अपने विरोधाभासों, अपनी जड़ताओं और अपनी व्यवस्थागत खामियों का सामना करता है इसलिए मैं ये नहीं मान सकता है कि एक महान धक्के के लिए अगर जनमानस तैयार हो जाए तो फिर असमानता, भ्रष्टाचार, गरीबी जैसे मुद्दों को तत्काल दूर किया जा सकेगा। मेरा ये कहना नहीं है कि ऐसा धक्का जरूरी नहीं है। है लेकिन हमें लक्ष्य वास्तविक रखने होंगे।

मुझे महसूस होने लगा है कि एक पैराडाइम शिफ्ट की जरूरत है और ये कोई आदर्श क्रांति का ख्वाब नहीं है। मैं नहीं मानता कि खून से उपजी क्रांति ही समाज में बदलाव लाने में सफल होती है। क्रांति में खून की उछाड़-पछाड़ होना जरूरी हो सकता है लेकिन वो एक पक्ष है। क्योंकि भ्रष्ट व्यवस्था में ईमानदारी की मिसाल कायम करना और उस व्यवस्था में परिवर्तन लाने की लड़ाई किसी क्रांति से कम नहीं है। और ये कोरी लफ्फाजी नहीं है।

मेरी राय गलत हो सकती है लेकिन आदर्श आंदोलन, समग्र क्रांति, ठोस समाधान का लंबा इंतजार एक पलायन जैसा महसूस होता है। पलायन इसलिए नहीं क्योंकि जज्बे में या गंभीरता में कमी है बल्कि इसलिए क्योंकि यह एक द्वीप का निर्माण करता है जहां मानवीय गुण-दोषों की कल्पना से दूर एक आदर्श समाज की परिकल्पना की जाती है जो वास्तविकता के धरातल पर अपनी भंगुरता और विकारों के मद्देनजर शायद ही संभव है।

मैं क्रांति (revolution ) को लक्ष्य तक पहुंचने का एकमात्र रास्ता नहीं मानता हूं, दूसरा रास्ता इवोल्यूशन (evolution) का है। और क्रांति भी एक इवोल्यूशन का ही हिस्सा है। इसीलिए मैंने पिछली मेल में छोटे और चरणबद्घ लक्ष्यों के साथ बड़े बदलाव का जिक्र किया।

शिप्रजो - आप बार-बार ये कहना चाहते हैं कि ठोक समाधान और अहम लक्ष्यों की दिशा में अण्णा आंदोलन की जगह है, वो इवोल्युशन की ओर जा रहा है। लेकिन मैं थोड़ा $खतरा मोल लेकर ये कहता हूं कि ये डिवोल्युशन है। ये प्रति आंदोलन है। और अगर इसे आप क्रांति कहेंगे तो मैं इसे प्रति क्रांति कहना उचित समझूंगा। हालांकि प्रति क्रांति जैसी गनीमतें भी इसने अपने लिए अभी नहीं बनाई है।

ये हमारे जनआंदोलनों की संभावनाओं उम्मीदों को कमज़ोर करता है। उसका रास्ता रोकता है। (ये अलग बात है कि वे अगर ठोस होंगे तो भला क्यों रुकेंगे - अपने ही देश के कई जनांदोलन मिसाल हैं जो जारी हैं।) मुझे यही डर है। ये सेफ्टी वॉल्व की तरह काम कर रहा है। खून की उछाड़पछाड़ से ये दूर से जा रहा है। जहां सिर्फ मोमबत्तियां और टोपियां और झंडे और भारत माता की फोटो और जैजैकार है। और खून की उछाड़-पछाड़ से आशय किसी खूनी क्रांति से नहीं। क्रांति या आंदोलन में रहने वाली उस उत्तेजना, और मोमेंटम से है। उस अग्नि और उस थरथराहट से जिसे ''वर्ग शत्रु" कांपते हैं।

अगर आप सोचते हैं कि अण्णा आंदोलन से व्यवस्था में परिवर्तन आ रहा है तो मैं इसे आपकी मासूमियत कहूंगा या ये पूर्वाग्रह है। कुछ भी नहीं बदला है। इस आंदोलन ने जैसा कि मैंने कहा जनता की लड़ाई को और पीछे धकेल दिया है। दिखने में लगता है कि सब हरकत में आ गए हैं। संसद हिल गई है। बहस हो गई है। निज़ाम सकपका गया है। कुछ भी तो नहीं हुआ है। आप उस दिन से जब ये सब शुरू हुआ था और आज तक का देश का हिसाब देख लीजिए। राजनीति में अर्थ में समाज में इसी में शायद सब कुछ आ जाए। आप एक-एक चीज़ उठाकर देख लीजिए। कहां क्या हुआ है। आप उस दिन से लेकर आज तक के बड़े अंग्रेज़ी अखबार बड़े हिंदी अखबार प्रमुख भाषाई अखबार (बांग्ला, मराठी, तमिल, कन्नड़ और अन्य) देख लीजिए। उस दौरान का टीवी देख लीजिए। सिनेमा, मनोरंजन, शेयर मार्केट, बिज़नेस, खेल, चुनाव, हिंसा आदि सब कुछ देख लीजिए।

और आप कहते हैं कि और वक्त दो। आप इसके ज़रिए इवोल्युशन देख रहे हैं। मैं कहता हूं ये इस आंदोलन के प्रति कुछ *यादा ही विनम्रता है। इतना विनम्र तो मैं नहीं होना चाहूंगा। इसे आप कितना ही धक्का दें ये इवोल्युशन की ओर जाने से रहा। उसके सब्जबाग भले ही दिखाता रहे। और रिवोल्युशन तो अपनी जगह है। इन्हीं कुछ अधमताओं से ही वो निकलती है। जैसा कि आपने कहा इवोल्व होगी। वो किस रूप में होगी हम नहीं जानते लेकिन उसका होना महज़ कोई स्वप्न या युटोपिया या द्वीप निर्मिति नहीं है। वो ऐतिहासिक सच्चाई है। उसे मानते या न मानते हुए भी हमारे सामने या हमारे आने वाले समय में वो कब हो जाएगी हमें इसका अहसास भी न होगा।

क्योंकि वो वक्त शायद कुछ और ही होता है। वो तो इतिहास की करवट है हम और आप तो बस लुढ़कते, बढ़ते, लपकते चले जाएंगे। या वहीं ठिठके रह जाएंगे। उस विचार को आप कैसे गिरा देंगे। और ये कोई अमूर्तता नहीं है। क्रांति हमसे नहीं होगी तो वो ऐसा नहीं होगा कि होगी ही नहीं, वो किसी और से होगी। पर होगी ज़रूर। लेकिन उसकी दिशा में बड़ी रुकावटें आएंगी आती रहेंगी आती रही हैं। ये आंदोलन ऐसी ही एक रुकावट है। लेकिन शायद उसके लिए अच्छा ही है। क्योंकि इससे उसका प्रवाह और निखरता है। ऐसी टकराहटें और ऐसे विवाद और ऐसे द्वंद्व भी चाहिए ही। ये एक तरह से उसकी कई किस्म की आहटें हैं। लेकिन इसका अर्थ ये नहीं कि ये उस लक्ष्य की हितैषी कार्रवाइयां हैं। वे बेशक उसके इम्तहान हैं। आखिर इतने सारे फाटकों को तोड़कर क्रांतियां हुई हैं।

बहरहाल हम आंदोलन और क्रांति की बातों में न बहकें। अगर क्रांति एक स्वप्न ही है तो इसे देखने और उसका विचार करने और उस पर अमल करने में क्या हर्ज़.

सगौ - (... अमेरिका में आंदोलन वालों के तौरतरी$कों पर बहस उचित नहीं। वो एक सुनियोजित आंदोलन नहीं है। उसकी कोई तारीख कोई डेडलाइन कोई समयावधि नहीं है...)

ये तो कोई बात नहीं हुई। मतलब हम अगर किसी आंदोलन का समर्थन करें तो उसके तौर तरीकों पर बहस न करें, और दूसरे आंदोलन के तरीकों पर ही सारी ऊर्जा केंद्रित कर कर दी जाए। मैंने गोरों, कालों, या एप्पल कंप्यूटर इस्तेमाल करने के तर्क ये बताने के लिए दिए हैं क्योंकि यही तर्क आंदोलन का विरोध करने वालों ने यहां दिए। अन्य भी कई तर्क है जो सतही रूप से बेहद मजबूत नजर आते हैं। लेकिन असल बात ये है कि किसी भी आंदोलन का समर्थन के विरोध में तर्क ढूंढना मुश्किल काम नहीं है। कई बार ये काम मीडिया कर देती है।

शिप्रजो - हमारे कई साथी ये कहते पाए गए थे कि लेनिन साब तो टाई-सूट पहनते थे और बात मज़दूरों और किसानों की करते थे। क्या खाक करते होंगे। तो इस बहस को तो रहने ही देते हैं। आप सही कह सकते हैं कि भ्रम पैदा करने के लिए भी ऐसी बातें आती हैं। लेकिन जो आंदोलन विभ्रम से ही पैदा हुआ हो तो उसका क्या कहा जाए।

जर्मन कवि हांस माग्नुस आंतेसबर्गर की कविता है मध्यवर्ग का शोकगीत, उसमें कुछ बातें हैं जो हम सबकी विडंबना बताती है। हम कथित मध्यवर्गीय बुद्घिजीवियों की।

सगौ - (...एक बड़ी सच्चाई ये है कि युवाओं को ये अहसास हो  जाने से ही काम नहीं चलता कि वो एक मुक्ति यज्ञ में शामिल हैं। भ्रष्टाचार मिटाने का मामला आप यज्ञ जैसा मत बनाइए...)

मेरी राय आपसे जुदा नहीं है। लेकिन मैं यह मानता हूं कि इच्छित लक्ष्यों और वास्तविक लक्ष्यों में अंतर होता है और सिर्फ इच्छित लक्ष्यों के मद्देनजर वास्तविक, छोटे किंतु बेहद अहम लक्ष्यों को दरकिनार नहीं किया जा सकता। भ्रष्टाचार निसंदेह एक अंतरराष्ट्रीय और बड़ी लड़ाई का हिस्सा है लेकिन सिर्फ इसी वजह से हम अपने देश में जवाबदेही तय करने वाली व्यवस्था का निर्माण करने की प्रक्रिया को नहीं टाल सकते, फिलहाल देश में राजनीतिक दल, एलीट वर्ग,कॉरपोरेट, मीडिया एक माफिया की तरह काम कर रहा है क्योंकि जवाबदेही नहीं रह गई है। अब यह जवाबदेही लोकपाल के जरिए हो, या सीबीआई को सरकार से मुक्ति दिलाकर हो, या किसी अन्य माध्यम से हो, बहस इस पर हो।

और यह कोई यज्ञ का आह्वान नहीं है। यह सिर्फ फोकस्ड मांग है। आज का युवा कुछ करना चाहता है लेकिन उसे आदर्श नहीं मिल पा रहा है। जिसे देश में 42 साल के युवक को प्रधानमंत्री बनाने के लिए एक महान पार्टी का वर्तमान नेतृत्व बिलख रहा हो, पैरों में लोट रहा हो, उस देश के युवा वर्ग को अगर एक 72 साल का वृद्घ मोबिलाइज करने में अगर सफल होता है तो यह सोचने वाली बात है।

शिप्रजो - हम भी आखिर इस युवा पीढ़ी का हिस्सा हैं। आज का युवा, फिर मैं ये बात $खतरा मोल लेकर कह रहा हूं कि अपने समाज और अपने देश की वास्तविकताओं से दूर है। वो कुछ करता हुआ दिखना चाहता है लेकिन अपने भीषण और ऊबडख़ाबड़ यथार्थ से पल्ला झाड़कर। हमने उसे ऐसा बना दिया है। आप जिस युवा की बात कर रहे हैं जो मध्यवर्गीय अकर्मण्यता और यथास्थितिवाद का शिकार युवा है। उससे आप ऐसी अपेक्षा मत कीजिए कि वो उठकर देश और समाज को बदलने बाहर निकल पड़ेगा। बेशक वो रामलीला मैदान या जंतरमंतर चला जाए। वहां घंटो खड़ा रहें। नारे लगाए। बस वो इतना ही करेगा। 42 साल के व्यक्ति और 72 साल के व्यक्ति की ये तुलनाएं एक बार फिर उस झांसे में फंसने वाला व्यवस्था बदलो लालित्य है जो इमेज मेकिंग में मुब्तिला है।

इसे आप उत्तर आधुनकता का झांसा भी कह सकते हैं। ये मोबिलाइज़ेशन फिर जैसा मैंने कहा हमारे वृहद समाज का मोबिलाइज़ेशन नहीं है। आप गलत जगह उम्मीद  देख रहे हैं। गलत घर में आग खोजने गए हैं। वहां कृत्रिम चूल्हा है। उम्मीद के लिए हमें और कोने खुंजे देखने होंगे जो कि हैं और धधक रहे हैं। छोटे छोटे लक्ष्य लेकर चलें की बात कुछ संदर्भों में तो ठीक जान पड़ती है लेकिन कई संदर्भ और ज़िदगी के कई मुआमले ऐसे होते हैं जहां छोटे-छोटे लक्ष्यों की बात करना एक तरह का एनजीओवाद लगता है।

आज के युवा पर मेरे कथन को आप जनरलाइजेशन न समझिए। मैं पहले भी कह चुका हूं कि वो क्षण ऐतिहासिक होगा जब अपने शरीर और विचार से चिपकी इस मध्यवर्गीय जोंक को खींचकर वो बाहर निकाल फेंकेंगा। तब आगे आएगा। ज़ाहिर हैं ऐसा युवा भी हैं। और होंगे।

 

 

 

 

 

संपर्क के लिये : sachin.gaur07@gmail.com, joshishiv@gmail.com


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