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जनवरी 2013

शक्तिपूजा की नव्य संस्कृति

दीपेंदु चक्रवर्ती, अनुवाद - प्रमोद बेड़िया

यह पहल की आवाज का एक हिस्सा है। इसको संपादकीय, प्रकाशकीय, समकालीन, आधारभूत, सामूहिकता जो भी समझें, इसे पढ़ें जरूर। यह रचना (निबंध) बांग्ला की लंबे समय से निकलती सुप्रसिद्घ पत्रिका - 'अनुस्टुप' में 1986 में प्रकाशित हुई थी। पत्रिका संपादक विमल आचार्य से अनुमति लेकर प्रमोद बेडिय़ा ने इसे हमारे लिये संभव किया।

मेंढ़कों ने ईश्वर से एक राजा मांगा। ईश्वर ने उनके लिए एक बड़ा-सा काठ का टुकड़ा भेज दिया। वे राजा की पीठ पर चढ़ जाते, उछलते-कूदते, लेकिन काठ निस्पंद रहता, मेंढ़कों को मजा नहीं आता। वापस वे ईश्वर के पास गये - नया राजा, मनभावन-सा राजा दो। इस बार ईश्वर ने ऐसा राजा भेजा जो सिर्फ भयभीत ही नहीं करता, भक्षण भी करता है प्रजा का - याने सांप। मेंढ़कों की इच्छानुसार सांप मेंढ़कों को खाता रहा। और लगता है आत्मसुख में लीन मेंढ़कगण - 'राजा दीर्घजीवी हो' - कह कर राजा के पेट में जाते गए और उसकी सेहत बढ़ाते रहे।
हम भारतवासी ईशप की कहानी के मेंढ़क तो नहीं हैं और न ही ईश्वर से राजा मांगना पड़ा। हमें राजा की जरूरत भी नहीं है, क्योंकि गणतांत्रिक भारत में हम मतदान कर शासक बनाते हैं जो हमारे प्रति जिम्मेदार हैं, जो चुनाव के समय हाथ जोड़कर वोट की भीख मांगते हैं और जीतने पर कदाचित कंधे पर सवार भी कर लेते हैं। लेकिन काठ की तरह निश्चल भी नहीं हैं, और सांप की तरह निगलते भी नहीं हैं। थोड़ा बहुत फुफकारते हैं, कभी-कभी डंक भी मार लेते हैं, लेकिन पाकिस्तान और बांग्लादेश के शासकों की तरह सुबह-शाम नहीं। जिसे तीसरी दुनिया कहते हैं, उसमें हमारा कुछ बोलबाला भी है, गुट निरपेक्ष आंदोलन में भी हम जीत कर ही आते हैं; सिर्फ बल प्रयोग वाले राजा का शासन नहीं है हमारा। दुनिया में जहां भी तानाशाही है, अत्याचार है, पशुशक्ति का आधिपत्य है वहां हमारा 'सरकारी कंठ' गरज उठता है। देश में आरवेल की तरह कुछ खुदरा गण हत्याएं हो सकती हैं, जरूरी दंगे-फसादों में कभी-कभार हजार-बारह सौ लोग जीवित ही परलोक गमन कर सकते हैं, नितांत ही भोले-भाले, पुलिस की कोई गोली किसी आते-जाते मूर्ख पथचारी के सीने में आश्रय पा सकती है, जेल में विशेष चिकित्सा से कुछ कैदी अंधे भी हो सकते हैं; लॉकअप में कोई कमजोर-सा आदमी निहायत सहलाने मात्र से निहत भी हो सकता है - लेकिन इतने बड़े देश की असंख्य जनसंख्या में यह कितना ही कम प्रतिशत है! आधुनिक युग के सत्यदृष्टा कृषि-परिसंख्यान (data ) यह बताते हैं कि तीसरी दुनिया के दूसरे देशों की तुलना में भारतवासी लगभग शांतिपूर्वक ही हैं। लगभग शांत वातावरण में हम लोग शिक्षा-संस्कृति और राजनीति की चर्चा करते रहते हैं। वर्तमान समय में साम्प्रदायिक और अलगाववादी घटनाओं का कुछ अतिरेक जरूर है, लेकिन फिर भी किसी सैनिक अभियान की जरूरत तो नहीं हुई।
यह हमारी उस परंपरा की देन है जो पाश्चात्य उदारपंथी सोच के साथ प्राचीन  हिंदू भारत की धर्म-चिंता के मिलने से पैदा हुई है। पाश्चात्य शिक्षा व्यवस्था तथा शिल्प चेतना ने जातीय मानस को समाज सचेतन और युक्तिवादी बनाया है तथा सनातन हिंदु आदर्श से मिली है सत्यशीलता तथा शांतिप्रियता - राजनैतिक स्तर पर जिनके प्रतिनिधि हैं नेहरू और गांधी। आज सारी दुनिया में festival of india  नामक मजलिश अगर लोकप्रिय होती है तो उसकी बुनियाद में है गांधी-नेहरू की युगल जोड़ी - सन्यासी और बुद्घिजीवी।
स्वाधीनता मिलते ही भारतवासियों ने सोच लिया था - शासक काठ का टुकड़ा भी नहीं हो; सांप भी नहीं हो, लेकिन आवश्यकतानुसार काठ की तरह सहनशील भी हो, और जरूरत हो तो सांप की तरह फुफकार भी सके। हमें दोनों एक साथ चाहिए - किसी एक से तृप्ति नहीं होती है। इंदिरा गांधी ने एक बार एक ही चुन लिया था - आपात्काल की घोषणा कर डंक मारा था - बाद में सुधार कर चंदन काष्ठ की सुगंध बिखेरी।
हिंदु धर्म में जैसे शक्तिपूजा की महिमा है, वैसे भक्ति और प्रेम के देवता भी दुर्बल नहीं हैं। अंग्रेजों ने एक ओर राजदंड का प्रहार जारी रखा तो गांधीवादी नेतृत्व का आदर भी किया। होते-होते ये दूब भी कोमलता और वज्र की कठोरता शासक श्रेणी की धारणा में यों मिलती गई कि इस मिट्टी पर फासीवाद सहज ही पनप नहीं पाया। पाकिस्तान और बांग्लादेश में अंग्रेजों का कठिन-कोमल रूप ग्रहण योग्य नहीं रहा; क्योंकि इस्लाम में बाहुबल के प्रति समर्थन ही ज्यादा है। धार्मिक परंपराओं के फर्क से भारतीय उपमहादेश में दो प्रकार के सोच रहे।
लंबे बालों वाला कोई युवक अगर संलग्न किरानी की बीवी को विधवा बनाने की धमकी देता है तो काम तो होगा ही, दोनों में मामा-भानजे का संबंध भी हो जाएगा। क्योंकि हमारे यहां शक्ति पूजा शास्त्र के अनुसार लघु शक्तिमान, ऊंचे शक्तिमानों के समक्ष नत प्राय: होकर कृतार्थ हाते हैं। शक्तिमान सिर्फ बाहुबल से ही नहीं होते। वह छुद्र किरानी भी अपने क्षेत्र का राजा है। वह अच्छी तरह जानता है कि किस तरह 'कर' वसूलना है, मजबूर को कैसे सजा देनी है। टेबल की दूसरी तरफ खड़ा आदमी हाथ में छुरा लिए खड़ा है, जरूरत हुई ते उसे चला भी सकता है, याने मस्तान है और वी.आई.पी. की शक्ति का अंतर किरानी और अफसर याद रखते हैं। मस्तान नाराज होने पर दैहिक आक्रमण कर सकता है, लेकिन वी.आई.पी. ताजिंदगी पीछा नहीं छोड़ेगा और यह आपसी समझदारी से हमारे शक्तिमानों का कोई खास विरोध नहीं दिखता, बल्कि मौसेरे-चचेरे भाई का संपर्क ही नज़र आता है। अफसर और कुछ भी कर लें, इन मस्तानों पर आक्रमण नहीं करते और ये मस्तान भी अफसरों को किसी मुश्किल में नहीं डालते, एवं इन दोनों के बीच के लोग अपने-अपने क्षेत्र के राजा होते हुए भी मस्तानों और अफसरों का वजन समझते हैं। शक्तिपूजा की रिपोरेटरी के अनुसार इन दोनों के ऊपर बैठे नेताओं का चेहरा एक तरफ मस्तानों जैसा लगता है और दूसरी तरफ अफसर जैसा - हिंदु देवी-देवियों के विग्रह का एक नया संयोजन-सा। ये नये देवता दलपति के दलपतियों का सलाम करते रहते हैं।
सीढ़ी दर सीढ़ी बनाए शक्तिमानों के इस पिरामिड पर कहीं सत्यम-शिवं-सुंदरम की वाणी, कहीं जनतंत्र, समाजवाद भी, यहां तक कि क्रांति के आह्वान उत्कीर्ण हैं। इस पिरामिड का एक विशेष स्तर हमारे बुद्घिजीवियों ने हथिया रखा है। हालांकि भारतीय, खासकर बंगाली बुद्घिजीवी कहने से एक क्षीण धातु का भद्र-सा मनुष्य सामने आता है, जो कुश्ती तो दूर 'खिस्ती' (व्यंग्य) से ही मूर्छित होने लगता है। लेकिन उसे शक्तिहीन समझना नादानी होगी, क्योंकि उनके पास भी ताकत है, वे अकेले नहीं, उनका भी दल है। यहाँ शक्तिपूजा की बुनियाद ही दल है - जैसा भी हो - राजनैतिक दल हो सकता है, सांस्कृतिक गोष्ठी सकती है या अड्डा जमाने वाले का ही दल क्यों न हो। बुद्घिजीवी लोग बुद्घि की पताका लहराते हैं, लेकिन अंतिम निर्णय तो समगोत्रिय लोगों की सम्मिलित शक्ति ही निर्भर होता है। इसका बलप्रयोग मस्तानों की तरह 'पथघाट पर नहीं होता, सबके सामने भी नहीं होता है; वे माघा का आघात अपने-अपने दायरे में करते हैं। खून बहता नहीं, हत्या भी हो जाती है।'
मान लें कि आप नाटक करते हैं और किसी बड़े समीक्षक को नाराज कर दिया है। शीघ्र ही आप समझ जाएंगे कि किसकी पूंछ पर पैर रखा है। आप ईष्र्यालु होकर उसे थियेटर में प्रवेशाधिकार से वंचित कर सकते हैं। कलकत्ता में जब शंभुमित्र 'गैलीलियो' का मंचन कर रहे थे तब ऐसा ही हुआ था। युक्ति, तर्क, न्यायबोध और विवेक पर हमारा समाज निर्भर नहीं है, इसलिए सांस्कृतिक इलाके में भी यह शक्तियुद्घ चलता रहता है या भारसाम्य। यह शक्ति मनन की नहीं, सृजनशीलता की भी नहीं है और प्रतिभा की भी नहीं; वह शक्ति सामाजिक प्रतिष्ठा का दूसरा नाम है, वह सिर्फ गोष्ठी निर्भर शक्ति होती है। हर जगह एक ही कहानी है। आनंद बाजार पत्रिका के श्रमिकों की हड़ताल के विरुद्घ जिन्होंने हस्ताक्षर नहीं किए, मालिकों का नहीं, संस्थान से जुड़े बाकी बुद्घिजीवियों का भी व्यवहार रूखा होने लगा - क्योंकि ये बाकी के बुद्घिजीवी बाध्य किये गये थे मालिकों का आनुगत्य स्वीकार करने तथा खुली सभा में उनके पक्ष में वक्तव्य रखने के लिए। श्रमिक-मालिक अंतद्र्वंद्व में बुद्घिजीवियों का मालिकों का इस तरह समर्थन करना एक विरल घटना ही है। इस शक्तिपूजा को स्थापित करने जन-समर्थन की आवश्यकता होती है इसलिए जनसभा का आयोजन। अर्थात शक्ति की उपासना युक्ति की पोशाक से ही पूरी होती है। सोचने और बोलने की स्वाधीनता के योद्घा की आत्मगरिमा से भरपूर अखबारों के कमरों में निरंतर शक्ति का खेल भी चलता है। अखबार वाले चिल्लाते रहें, लेकिन यह पाखंड नग्न होकर सामने आया है और सिनेमा का विषय भी बन गया है - जैसे 'गृहयुद्घ' और 'न्यू दिल्ली टाइम्स'। उनके लिए गनीमत है कि ऐसे समालोचकों को भी अंतत: उनसे ही भीख मांगनी होती है।
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चिंतन और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दूसरे पैरोकार विश्वविद्यालय भी परोक्ष रूप शक्ति पूजा में ही व्यस्त है। विज्ञापन या सभाओं में जो बहसें होती हैं - जैसे कलकत्ता विश्वविद्यालय में - वह भी दलगत शक्ति के प्राधान्य विस्तार के अभिप्राय को छुपाने के लिए। शिक्षा-जगत में किसी अकेले व्यक्ति का अस्तित्व विपन्न है; उसे किसी दल से ही जुड़कर चलना होगा। उसके पास युक्ति, न्यायबोध, निरपेक्षता अगर है तो इस शक्तिपूजा की संस्कृति में निठल्ला होकर रहेगा। दरअसल समाज का वह हिस्सा जो तार्किक बोध पर टिका है, लगभग किनारे होने बाध्य है। जो खुली आंखों और विशाल दिल के साथ भी सामाजिक क्षमता की लड़ाई से अलग है, उन सा अहहाय, निस्संग और विपन्न और दूसरा नहीं होता। सामाजिक शक्ति के लिए पहली शर्त है किसी राजनैतिक संगठन से जुड़ाव, फिर आता है व्यक्तिगत मेलजोल याने connection -धन से सभी कुछ खरीदा जा सकता है, लेकिन उपरोक्त दोनों इंतजाम हों तो धन की कमी से अवरोध नहीं होगा। आम आदमी भी सारी सुविधों पा रहा है - ऐसे दृश्य विरल नहीं हैं प्राय: देखा जाता है कि हस्पताल में अर्थवान मनुष्य को वे सुविधाएं नहीं मिल पा रही हैं जो एक साधारण मध्यवर्गीय व्यक्ति निजी संबंधों की वजह से सरलता से पा रहा है। एक मित्र हस्पताल में है, दूसरा रेल का एक्जीक्यूटिव - इस तरह विभिन्न जगहों पर एकाध मित्र हो, अपने लोग हों तो उस शक्तिमान व्यक्ति का सम्मान तो जरूरी हो ही जाता है।
अपने लोगों का 'उपकार' करना, मित्रों को प्राथमिकता देना, इत्यादि जुमले गालियों के रूप में हम उछालते रहते हैं, लेकिन मन ही मन जानते हैं कि पूरा समाज घूस, 'घूंसी' (मुक्का) तथा व्यक्तिगत् संबंधों पर टिका है। जहां घूस चलती है, वहां 'घूंसी' का प्रयोजन नहीं है, जहां व्यक्तिगत निकटता है, वहां घूस की भूमिका नगण्य है और जहां घूस और निकटता दोनों से काम नहीं होता वहां मुक्का अनिवार्य है। ये तीनों उपादान ही शक्तिपूजा की सामग्री हैं एवं वही समाज इसका जुगाड़ बैठा सकता है जो जानता है कि गणतांत्रिक अधिकार किसी क्षमतावान के समर्थन के अलावा कुछ भी नहीं है। जो इस व्यवस्था के आलोचक हैं उन्हें भी इसी के सुयोग के बल चलना होता है; फर्क इतना ही है कि इसे रुक कर चलने के ज्यादा ही मेधा का खर्च करना होता है। शक्तिपूजा की संस्कृति से एक नया समीकरण पैदा हुआ है — भला आदमी याने कमजोर, विवेक याने कमजोरी, शिष्टाचार याने भय अऔर कानून मान कर चलना मूर्खता है। यहां आक्रमण ही आत्मरक्षा का श्रेष्ठ उपाय है और हर आदमी आक्रमण के लिए तत्पर है। शक्ति परीक्षा में व्यस्त हर मनुष्य कहीं न कहीं एक दूसरे का प्रतिद्वंद्वी है, लेकिन आदर्शगत रूप में एक दूसरे का मित्र है। यहां तीसरा कोई संबंध है ही नहीं। ऐसे माहौल में बने रहने के लिए शक्ति अर्जन जरूरी है एवं कई बार तो मौलिक शक्ति के बजाय अभिनय ही काफी होता है। शक्ति के प्रभामंडल का प्रकाश व्यक्तित्व से प्रकट होता है और हमारे लिए दूसरों पर विजय प्राप्त करना ही व्यक्तित्व का प्रमाण है, चाहे वह डरा-धमका कर ही क्यों न हो। एक व्यक्तित्ववान व्यक्ति की व्याख्या लगभग ऐसी होगी — वे कम बोलते हैं, जो कहते हैं वह भरी गले कहते हैं, उनके पास बैठने में डर लगता है, पास जाने पर वे माथे पर बल डाल कर बात करते हैं, जो पद की मर्यादा रखते हैं, एवं दूसरे की मर्यादा के लिए विशेष चिंतित नहीं हैं। एक दक्ष अफसर वह है जिसके सामने अधीनस्थ का मुंह सूखने लगता है, एक व्यर्थ अफसर वह है जिसेक साथ अपनापन लगता है। जहां मानवीय संस्कृति की विरासत है वहां भी इसी तरह के आदमी की पूजा होती है। शिक्षक या अध्यापक भी वही सम्मानित होते हैं जिससे छात्र डरते हैं और जो छात्रों का भय कम करते हैं वे उपेक्षा के पात्र होते हैं। व्यक्तित्व को रूखे व्यवहार से आंका जाता है, इसलिए कई बार निहायत लाचार, परोपजीवी व्यक्ति भी अपने उद्घत व्यवहार से महत्वपूर्ण लगता है। शक्तिपूजा की संस्कृति में शक्ति का अभिनय भी शक्ति का प्रतीक बन जाता है।
हिन्दुस्तान नवाब-बादशाहों का देश तो रहा ही, ऊपर से अंग्रेजों ने अपने देश की गणतांत्रिक चेतना से उलट मैजिस्ट्रेट, जज और दरोगाओं से डरने की मानसिकता भर दी। वह मानसिकता हमारे व्यक्तित्व में ओत-प्रोत सक्रिय है। हमें डरना अच्छा लगता है, भय से ही भक्ति होती है।
ऐसी परिस्थिति में फासीवाद का जन्म होता है - ऐसा विद्वानों ने कहा है। गणतांत्रिक व्यवस्था में व्यापक दुर्नीति और गैर जिम्मेदारी देखते-देखते जनता एक दिन मुसोलिनी या हिटलर जैसा तानाशाह चुन लेगी। लेकिन हकीकत यह है कि क्रांति की तरह यहां कोई तानाशाह भी नहीं हुआ।
संजय गांधी जीवित होते तो संभव हो भी सकता था, लेकिन उनके जीवन काल में भी दलीय मतभेदों से लोकप्रियता में कमी आती जा रही थी। फिर जयप्रकाश नारायण के आंदालन ने यह साबित कर दिया कि सीधे ही कोई तानाशाही नहीं थोप सकता। पड़ोसी देशों में सैनिक शासन के बावजूद भारत में आज तक कोई सैनिक-अभियान नहीं हुआ, उसका कारण वाहिनी का सांगठनिक चेहरा भी है या फिर इस विशाल भूखंड पर बंदूक का शासन चला पाने की असुविधाएं भी प्रधान है। लेकिन शायद भारतीय मनोविज्ञान भी इसके प्रधान कारणों में से है। हमें सैनिक पोशाक में शक्तिमान शासक पसंद नहीं है बल्कि गांधी टोपी लगाए एक करुणामय व्यक्तित्व की जरूरत है जो बंशी को ही दंड की तरह व्यवहार कर पाए। अहिंसा का तत्व अपरिहार्य है - अहिंसा के आवरण में बल प्रयोग का स्वाद अधिक उपादेय है। हिंदु देवी-देवताओं के एक हाथ में शक्ति का प्रतीक रहता है और दूसरा हाथ जैसे कुछ देने को उद्घत है - गांधीवाद के प्रभाव से हमारे राजनैतिक देवी-देवताओं के उभय रूप ही स्वीकृत हैं। फासीवाद अमानवीय है, लेकिन उसकी एक संगति भी है कि पूरी जाति को एक विशेष उद्देश्य के लिए प्रेरित करते हैं। वर्तमान भारत में शक्ति उपासना के नेपथ्य में एक ambivalence  है जो लक्ष्यहीन है। शक्तिमान की ही पूजा होगी, लेकिन गणतंत्र के बहाने, अहिंसा के छलावे में, लेकिन इसके बावजूद कोई सचेतन लक्ष्य नहीं है। यह सिर्फ आदत है।
इस आदत की दुनिया में नीत्शे जैसे सुपरमैन के तत्व की जरूरत नहीं है, मुसोलिनी-हिटलर की तरह विश्व को कंपा देने वाले शासक भी नहीं असंख्य लघु तानाशाह (अंग्रेजों के जमाने के दरोगा से अभी तक के विधायकों तक) युगों से जनता को नियंत्रित करते आ रहे हैं तथा उनके योग्य प्रतिनिधि दिल्ली के सिंहासन पर बैठे हैं; प्रादेशिक राजधानियों में भी। अर्थात् हमारा शक्तितंत्र बुनियाद से चोटी तक जाता है, चोरी से आरोपित करने की छूट वहां नहीं है। इसीलिए कोई क्रांतिकारी दल, गणतंत्र का चोला चढ़ाए इस लोकतंत्र को चुनौती नहीं दे पाया।
ईश्वर के मेंढ़कों की तरह अगर हमें कभी ऐसा राजा मिले जो सीधे आक्रमण करे, रोशनी को कांच से न ढके, जख्म पर अहिंसा का मलहम न लगाएं - उस समय हम लोग मन-क्रम-वचन से शक्तिपूजा से घृणा करना सीखेंगे। वह भयंकर लेकिन जरूरी क्षण न आने तक हम एक ही साथ दाता और दस्यु की, मदर टेरेसा और फूलनदेवी की, महात्मा गांधी और संजय गांधी की तथा कार्ल माक्र्स और काली की एक साथ पूजा करते रहेंगे। तब तक आराम से इन छुद्र तानाशाहों का राज चलेगा - आफिस-अदालतों में, विश्वविद्यालय, मोहल्लों, हस्पतालों, यहां तक कि श्मशानों में भी।

दीपेंदु  चक्रवर्ती विश्वभारती में अध्यापक थे, फिर कोलकता में भी दीर्घकालीन अध्यापन किया।  इन दिनों बांग्ला की जानी मानी पत्रिका 'देश' में नाट्य समीक्षक हैं।

 


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