ओम प्रभाकर पहले पंडित ओमनारायण अवस्थी थे। जन्म 1941 का। सातवें दशक के गीतकारों में प्रमुख थे फिर जमकर उर्दू सीखी और मान्यता प्राप्त की। नरेश सक्सेना और निदा फ़ाज़ली के मित्र और समकालीन हैं। 'तिनके में आशियाना' उर्दू ग़ज़लों का मज्मुआ प्रकाशित और उर्दू अकादमी से हाल ही में पुरस्कृत।
इस ज़मीं का टुकड़ा है मिरे घर के लिए कितना अम्बर है मिरे बाजू , मिरे पर के लिए।
ये मेरा सर है कि जो हर दौर में कटता रहा और कितने दौर बाक़ी हैं मिरे सर के लिए।
सिर्फ़ मेरा जिस्म ही महफूज़ रक्खे है मुझे वरना मुझ पर क्या है उस ठण्डे दिसम्बर के लिए।
और जो कुछ था वो जिसका था उसी को दे दिया बस ज़मीं दो गज़ रखी है अपने बिस्तर के लिए।
घुटने मोड़े, सर झुकाए सुबह से बैठा हूँ मैं जिस्म आदी कर रहा हूँ छोटी चादर के लिए।
वो हैं मेरे नक़्शे-पा और ये रहा रख्ते-सफ़र और क्या हाज़िर करूँ मैं अपने रहबर के लिए। 5.6.2008
धुंध के पार कहीं रौशनी उछलती है ग़ोश:ए -गुम1 से कोई चीख सी उछलती है।
मैं देखता हूँ कि दरिया जहाँ पे गिरता है उसी ढलान से मछली कोई उछलती है।
सभी हैं घर में बमामूल2 अपनी - अपनी जगह कि सिसकता है कोई बेकली3 उछलती है।
हवा की छेड़ से बलखाते हुए दरया में चाँद को साथ लिए चाँदनी उछलती है।
ये सिर्फ़ जानता है नग्मागर4 कि नग्मे में कहाँ पे चीख़, कहाँ ख़ामुशी उछलती है।
नहीं है जिस पे सिवा जिस्म के कोई पूँजी उसी के हाथों में नई ज़िन्दगी उछलती है।
बज़्मे इशरत5 के उबलते हुए हंगामे में आग को सर पे रखे तीरगी6 उछलती है 14.7.2005 1. अज्ञात कोना 2. रोज की तरह 3. बेचैनी 4. गायक 5. राग - रंग की महफ़िल 6. अँधेरा
भली किसी को, किसी को है जो बुरी दुनिया बहुत दिनों से मेरे साथ है वही दुनिया।
शिकस्ता1 ख़्वाबों के बिखरे हुए मनाज़र2 से कोई बनाए किसी तौर इक नयी दुनिया।
मिली है मुझको विरासत में, क्या करूँ इसका इधर से चटखी, उधर से कटी - फटी दुनिया।
हैं चंद हाथ यहीं पर कि जिनकी मुट्ठी में न जाने कब से दबी है मुड़ी-तुड़ी दुनिया।
बिखर गया था सभी कुछ तिरे पलटते ही पड़ी थी चार तरफ़ इक लुटी-पिटी दुनिया।
उजड़ते वक्त में कैसे सम्हाल कर रक्खूँ बसी है दिल में मिरे जो हरी - भरी दुनिया। 28.5.2008 1. टूटे हुए 2. दृश्य
थोड़ा तेरा, थोड़ा मेरा हिस्सा निकले इसी ख़राबे1 से कुछ अच्छा - अच्छा निकले।
आनी है हर साल खिज़ां तो हो सकता है अब के पतझड़ से कोई गुल-चेहरा निकले।
दिल ही दिल में ढूँढ रहा हूँ कोई रास्ता दिल ही दिल में शायद कोई रास्ता निकले।
तोड़ रहा हूँ मैं दुख के पत्थर पर पत्थर शायद कोई पत्थर तेरे जैसा निकले।
रख कर तेरी याद कहीं मैं भूल गया हूँ अब उठ कर ढूँढू तो जाने क्या - क्या निकले? 19.11.2008 1. वीराना
जमीनों पर मकाँ लिक्खे हुए हैं छतों पर आस्मां लिक्खे हुए हैं।
हैं अपने दुख तो अपने साथ, लेकिन हमारे सुख कहाँ लिक्खे हुए हैं?
अयाँ अल्फ़ाज़ से काफ़ी ज़ियाद दिमागों में निहाँ लिक्खे हुए हैं।
बहुत से मर चुके रस्तों पे अब भी बहुत से कारवाँ लिक्खे हुए हैं।
जहाँ कुछ भी नहीं लिक्खा, वहाँ पर हवाओं के बयाँ लिक्खे हुए हैं।
खिजाँ की पीठ को पढ़ कर तो देखो कि कितने गुलिस्ताँ लिक्खे हुए हैं।
जहाँ पत्थर भी मिट्टी हो चुके हैं वहीँ नामो - निशाँ लिक्खे हुए हैं। |