समकालीनता का आहत नैरंतर्य

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    जनवरी 2013
श्रेणी लेख
संस्करण जनवरी 2013
लेखक का नाम उदय शंकर






युवा रचनाकार और स्कॉलर उदयशंकर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से सम्बद्घ हैं। हाल ही में उन्होंने सुरेन्द्र चौधरी की रचनावली का संपादन किया जो प्रकाशित और चर्चित है। 5 जनवरी 1982 को बिहार के गया के एक गांव महमदपुर में उनका जन्म हुआ। 'पहल के रचनाकार और कार्यकर्ता मंडल में बड़ी भूमिका।



(महान फिल्मकार अलेखांद्र जोदरोव्सकी से अपनी बात की शुरुआत करता हूँ। वह कहता है - ''I told my daughter -'Grow and she told me - diminish !— इतने छोटे हो जाओ कि दिल में समा जाओ। डा. सुरेन्द्र चौधरी मेरे लिए इतने ही छोटे थे। जब मैं उनसे मिला था और जब तक वह जीवित रहे, इतने ही छोटे बने रहे। इसके अपने नफे-नुकसान थे। शुरुआत में मैं उनकी पुस्तक रूप में अप्रकाशित शोधग्रंथ, पांडुलिपियों और पत्रिकाओं में बिखरी पड़ी सामग्रियों से संबंधित कुछ सूचनाओं को साझा करना जरूरी समझता हूँ।
एक दौर में हिंदी का रचनात्मक साहित्य अस्तित्ववाद के काफी असर में रहा है। इस असर की प्रकृति में भेद अवश्य था। कहीं आयत्त थीं, तो कहीं इमानदार कोशिश। इसलिए आलोचना का एक जरूरी कार्य यह भी था कि अस्तित्ववाद की सैद्घांतिकी को स्पष्ट किया जाता और रचना में उसकी उपस्थिति की भंगिमा की पड़ताल की जाती। 'अस्तित्ववाद और समकालीन हिंदी साहित्य नामक शोधग्रंथ एक तरफ हाइडेगर, सात्र्र, सीमोन, मर्लिन पिंटो, कार्ल यास्पर्स, किंकेगार्द, कामू आदि के मूल और अनुदित पाठों को जाँचते हुए जहाँ सैद्घांतिकी के स्वरूप का निर्धारण करता है तो दूसरी तरफ रचनात्मक साहित्य पर उसके असर की भंगिमा की पड़ताल भी करता है। डॉ. चौधरी का शोधग्रंथ इसी भंगिमा की पड़ताल के क्रम में अज्ञेय, निर्मल वर्मा, श्रीकांत वर्मा और गंगा प्रसाद विमल के उपन्यासों क्रमश: 'अपने-अपने अजनबी, 'वे दिन, 'दूसरी बार और 'अपने से अलग का विवेचन प्रस्तुत करता है। इसी तरह 'विपात्रों की कथायात्रा, 'समकालीन हिंदी नाटक : विसंगतियों का बोध एवं 'समकालीन हिंदी कविता : अंधेरे से साक्षात्कार शीर्षक के अंर्तगत क्रमश: कहानी, नाटक और कविता में व्याप्त अस्तित्ववादी भंगिमा को विवेचित किया गया है। डॉ. चौधरी का यह शोधग्रंथ अभी प्रकाशित होना बाकी ही है।
डा. चौधरी का गया के संबंध में एक महत्वपूर्ण योगदान यह तो है ही कि उन्होंने शहर समेत परे मगध का एक ऐतिहासिक अध्ययन प्रस्तुत किया है। करीब 150 पृष्ठों फैली यह सामग्री पटना से निकलने वाली पत्रिका 'ज्योत्सना में धारावाहिक रूप से प्रकाशित हुई थी। पहली कड़ी के प्रकाशन के साथ ही संपादक ने इस योजना के संदर्भ में लिखा था - ''साहित्य की विविध विधाओं पर शल्य-चिकित्सकों की तरह धारदार छुरी से पोस्टमार्टम करने वाला और सबसे अलग-थलग, अपने ढंग का अकेला यह आलोचक आज अपने ही शहर गया के सामाजिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक खंडहरों में भटक रहा है।... लेखक की पैनी खोजी निगाहें बहुत-कुछ तलाश रही हैं। आइए, हम और आप भी उसके पीछे-पीछे तनिक भटकने का प्रज्ञा-सुख लें। इस भूमिका के साथ शुरू होता है इतिहासविज्ञ चौधरी का सशक्त प्रवाह- ''अपने नगर को एक नयी दृष्टि से देख रहा हूँ। सूर्यकुंड के नाम से प्रसिद्घ इस देवताल के स्नानघाट पर खड़ा होकर पूर्व में उगे हुए सूर्य को देखकर अचानक एक परिदृश्य खुलने लगा है। संस्कृतियाँ और सभ्यताएँ किस तरह काल के हाथों विचित्र रूप बदलती हैं। सूर्य मंदिर और सूर्यकुंड पालवंशी बंग राजाओं के काल के हैं। गया के निवर्तमान निर्माण में शायद सबसे पुराने अवशेषों में एक रथारूढ़ सूर्य की दिव्य मूर्ति पूर्वाभिमुख है। मूर्ति देवलक है। ..ऋग्वैदिक कवि ने प्रश्न किया था - ''कयायाति स्वधया (4/13/5 ऋ.) 'अनियाती अनिबद्घ। ...अथर्ववेद का 'पुरातन व्रात्यों का क्षेत्र कैसे पुराणों और स्मृतियों के मार्ग से असुर क्षेत्र में बदल गया, कोई नहीं जानता। ...महापूजा-स्थलों के साथ-साथ लघु पूजा-स्थलों का जाल-सा बिछा है मगध क्षेत्र में। ...ये पूजा-स्थल, इनके देवी-देवता, इनकी पद्घतियाँ और इनके उपांग — एक-एक आदि स्रोत की ओर ले जाते हैं। इनमें सामान्य जन की विश्वास-पद्घति वाली एक व्यापक सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का हमें आभास मिलता है। गजेटियर लेखक ओ मेली, डा. ग्रियर्सन, रेवरेंड हॉन और 1750 में गया की यात्रा पर आए जर्मन पादरी टिफेन थेलर के यात्रा-वृत्तांत के साथ-साथ बहुत सारे देशी-विदेशी लेखकों के यात्रा-संस्मरण, शोध आदि को इस अध्ययन का आधार बनाया गया है। पुरातात्त्वि और पौराणिक साक्ष्यों की भी विशद पड़ताल है। क्या यह सिर्फ तथ्यात्मक विवरण या बौद्घिक शगल है? संस्कृति, परंपरा और मिथक की कौन सी चिंता इनको परेशान कर रही थी जिससे वह 'अपने-अपने पूजा-स्थल और 'पितरपूजा और श्राद्घ जैसे शोधपूर्ण अध्ययन के लिए बाध्य हो गए?
इनके उत्तर सुरेन्द्र चौधरी जी की ही पंक्तियों में हमें मिल जाते हैं जब वह कहते हैं - ''अपने-अपने पूजा-स्थलों के इस रोचक इतिहास में जहाँ एक ओर मानव-विश्वासों के विविध रूपों का दर्शन होता है, वहीं ऊँची-नीची सांस्कृतिक परंपराएं भी लक्षित होती हैं। अभिजन संस्कारों और कृत्यों से अलग, सामान्य जन के विश्वासों और कृत्यों में आकस्मिक जटिलता दिखाई पड़ती है। ...गया क्षेत्र से होकर प्राक्-इतिहास और इतिहास की बृहत लघु-धाराएँ निरंतर प्रवाहित होती रही हैं। उन समयों में भी, जब हलचलों भरा इतिहास ठहर गया लगता है, इस क्षेत्र की सामाजिक गतिशीलता बनी रहती है। जनजीवन में पूजा और उत्सवों का इस क्षेत्र में विशेष महत्व था। व्रात्यों, असुरों और अनेक जन-जातियों (प्रमुख कोल) और पूर्वी कार्य कबीलों के इस क्षेत्र के विश्वासों और पूजा पद्घतियों के अध्ययन के क्रम में लघु पूजा-स्थलों का संधान सांस्कृतिक महत्त्व रखता है। विशेष रूप से अंतर्लयन की प्रक्रिया का अध्ययन इसी रूप में संभव है। भारतीय इतिहास के अध्ययन का यह पूरक क्षेत्र अब हमारे ध्यान में आया है। 150 पृष्ठों में फैली इस सामग्री को भी प्रकाशन का इंतजार है।
आजकल हिंदी में मिथकों को एतिह्यता की चर्चा फिर से शुरू हुई है। वैदिक-पौराणिक मिथक-चक्रों के साथ-साथ उनके लौकिक चक्र का, जो लिखित परंपरा से अधिक से अधिक मौखिक परंपरा में जीवित हैं, तुलनात्मक अध्ययन डा. चौधरी ने 'मिथक और ब्राह्मणवाद शीर्षक पांडुलिपि में किया है। यह व्यवस्था और विचारधारा के रूप में ब्राह्मणवाद का एक ऐतिहासिक अध्ययन है। गया और मगध संबंधी डा. चौधरी का चिंतन-अध्ययन इसी का संदर्भ-बिंदु, या कह लें कि इस महती कार्य का उत्साह-संचयन था जिसमें 'महान और 'लघु तथा शास्त्र और लोक प्रदत्त मिथकों, विश्वासों, पद्घतियों के अंतर्लयन या पूरकता के साथ-साथ व्यवस्था और विचारधारा के रूप में ब्राह्मणवाद के वर्चस्व का अध्ययन प्रस्तुत हुआ है। इसे भी अभी प्रकाशित होना है। इसी तरह 'कहानी की समकालीनता शीर्षक एक पांडुलिपि तथा पत्रिकाओं में बिखरे लगभग 100 और निबंधों को पुस्तक रूप में प्रकाशत होना अभी शेष ही है।
भारतीय कृषक समुदाय की प्रागैतिहासिक पृष्ठभूमि शीर्षक पांडुलिपि, जिस पर डा. सुरेन्द्र चौधरी ने शायद सबसे अधिक समय दिया था, उसे भी प्रकाशित होना है। डॉ. चौधरी के निर्देशन में संजय कुमार सिंह नामक शोधार्थी ने 'संस्कृत नाटकों और आधुनिक हिंदी नाटकों के रंग-शिल्प और रंगकर्म का तुलनात्मक अध्ययन विषयक शोध कार्य किया है जिसके समकक्ष हिंदी में नाटक विषयक दूसरा कोई काम मेरे देखने में नहीं आया है। इसका जिक्र मैंने इसलिए किया कि इसी शोध में 'हड़प्पा संस्कृति पर सुरेंद्र चौधरी की 'प्रकाश्य पुस्तक के एक अध्याय 'भारतीय ग्राम समुदाय और जन संस्कृतियाँ से कुछ पंक्तियाँ उद्घृत की गईं हैं। पंक्तियाँ इस प्रकार हैं - ''हड़प्पा संस्कृति के नागर और लोक अवशेषों में धर्म और संस्कृति के जो लक्षण दिखाई पड़ते हैं, वे सामान्यत: प्रतीक चरित्र वाले भी हैं और मिथकीय भी हैं। हम मोटे तौर पर यहाँ दो प्रकार के मूर्त विधानों के आधार पर एक रूपरेखा तय करेंगे। पूजा-पद्घति के अन्य अवशेषों से इनकी संगति और अंतर्विरोध की समस्या इस सांस्कृतिक मूल के अध्ययन की सबसे गंभीर समस्या है ...प्रतीक विधान वाली मोहरों को मिथकीय विधान वाली मुहरों से अलग करने के पक्ष में सबसे बड़ा तर्क यही है कि मिथकीय विधान का स्रोत देवगाथाएँ और वीरगाथाएँ, दोनों हो सकती है। इस निजंधरी रूप को यदि हम गाथाओं में रूपांतरित कर पाते तो हड़प्पा संस्कृति का एक अत्यंत भरा-पूरा और व्यापार-रत समाज हमारे सामने उभरकर आता।
इस 'प्रकाश्य पुस्तक के संदर्भ में पूछने पर संजय जी ने बताया कि डॉ. चौधरी ने मूल पांडुलिपि साहित्य अकादमी को भेजी थी लेकिन आज तक अकादमी ने न तो उसे छापा और न ही लौटाया। इसकी कोई और प्रति उपलब्ध नहीं है। ये कुछ अनछुए पहलू और सूचनाएँ थी जिन्हें साझा करना मैं जरूरी समझ रहा था।)

ऊपर डा. सुरेन्द्र चौधरी ने जिस अंतर्लयन और पूरकता की चर्चा की है, वही कथा-आलोचना में डा. चौधरी की टेक है। इसे ही वे समकालीनता और समकालीन यर्थाथवाद जैसी पदावलियों में परिभाषित करने की कोशिश करते हैं। रचना-धारा या कह लें कि रचनात्मक प्रवृत्तियों के संदर्भ में जहाँ वह समकालीनता या समकालीन यथार्थ की चर्चा करते हैं, वहाँ पूरकता और अंतर्लयन पर जोर है। वहीं रचना मात्र के संदर्भ में, खास कर उपन्यास के संदर्भ में जब वह समकालीन यथार्थवाद की चर्चा करते हैं, वहाँ पूरकता के साथ-साथ क्रिया-प्रतिक्रिया भी है, अंतर्लयन के साथ-साथ विपर्य भी है। इसे स्पष्ट करते हुए वह लिखते हैं — ''मेरी दृष्टि में समकालीन यथार्थवाद का अर्थ दो रूपों में अपने को प्रकट करता है; एक जनता और व्यवस्था के नये अंतविर्रोध के रूप में और दूसरा, जनता के बीच के अंतविर्रोध के रूप में। ये दोनों ही प्रकार के नये अंतविर्रोध हमारे समाज में आजादी के बाद प्रकट होते हुए एक नया सामाजिक अस्तित्व धारण कर लेते हैं। अत: इन अंतविर्रोधों के संदर्भ में ही हम आजादी के बाद की सामाजिक वास्तविकता की धारणा को स्पष्ट कर सकते हैं।
इस समकालीन यथार्थवाद को वह भारतीय संदर्भों में ज्यादा महत्वपूर्ण मानते हैं। लेकिन साथ ही साथ वह उसे यूरोपीय यथार्थवाद से अलगाते भी है, जिसका अमूमन दो स्वरूप होता है - एक आलोचनात्मक यथार्थवाद और दूसरा समाजवादी यथार्थवाद। इसे आप जॉर्ज लुकाच के समकालीन यर्थाथवाद से अलग भी कर सकते हैं।
डा. चौधरी का मानना था कि किसी दौर की युगसंवेदना को, समकालीनता को किसी एक कहानीकार के माध्यम से समझना नामुमकिन है। उनके यहाँ रचना-दौर का अध्ययन ज्यादा है, इसमें रचना-पीढ़ी के अध्ययन को भी समाहित समझना चाहिए। आजादी के बाद का रचना-दौर डा. चौधरी को इसीलिए महत्त्वपूर्ण लगता है क्योंकि बहुत सारी रचना-प्रवृत्तियाँ एक साथ सामने आ रही थीं। एक तरफ अमरकांत, शेखर जोशी, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, मोहन राकेश और निर्मल वर्मा की कहानियाँ शहरी मध्यवर्ग के सामाजिक आधार और उसके वैचारिक-भावात्मक अंतर्विरोधों को उभारकर सामने लाती हैं, तो दूसरी तरफ रेणु, मार्कंडेय, शिवप्रसाद सिंह और शैलेश मटियानी की कहानियों में ग्रामीण कृषक वर्ग और उसका सामाजिक आधार अपने सामयिक अंतर्विरोधों के साथ पहली बार एक बड़े अनुपात में प्रकट हो रहा था। कमलेश्वर में कस्बों का भी रंग है। पीढिय़ों के बँटवारा का मामला भी नहीं बना था। विष्णु प्रभाकर, नलिन विलोचन शर्मा और भीष्म साहनी भी साथ-साथ लिख रहे थे। सुरेन्द्र चौधरी लिखते हैं, ''प्रवृत्तियाँ अलग-अलग छोरों से पूरक भूमिका संपन्न करती दिखती है। " जरूरत थी कि इस पूरकता को अंतर्लयन की गति दी जाती, लेकिन आगे की कहानी-चर्चा ने इस अंतर्लयन को रोक दिया। जो कहानी किसी विचारधारात्मक मंचों की तमाम सीमाओं तथा जैनेंद्र, यशपाल और अज्ञेय की मध्यवर्गीय केंद्रीयता को तोड़कर आई थी, वह मध्यवर्ग के आत्मकेंद्रण की शिकार हो गयी। इसके पीछे नयी कहानी आंदोलन, आंदोलन के मंचों तथा इन मंचों पर सुशोभित आलोचकों की बड़ी भूमिका रही है। इसीलिए डा. चौधरी अपने को इन आंदोलनों से अलग रखते हैं और नयी कहानी की मध्यवर्गीय केंद्रीयता के यथासंभव आलोचक के रूप में उभरते हैं। सुरेन्द्र चौधरी इंगित करते हैं, ''निर्मल वर्मा, मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव, उषा प्रियंवदा, रमेश बक्षी... आदि कथाकार जीवन के कुछ रूपों को लेकर जिस तत्परता से चित्रण करने में लगे हैं, उसे देखकर क्या यह आशंका नहीं होती कि यह धारा नयी कहानी की मूल धारा है। "सुरेन्द्र चौधरी का मानना था कि नयी कहानी आंदोलन के संदर्भ में जिस तरह की कहानियां को उछाला गया, उससे समकालीन यथार्थ या समकालीनता आहत हुई है। रामविलास शर्मा के हवाले से वह लिखते हैं - ''शहरी मध्यवर्ग के इर्द-गिर्द चक्कर काटकर अपनी रचनात्मक प्रतिभा की इतिश्री मान लेने से साहित्य की परंपरा की क्षति होने की गहरी संभावना है। "
हालाँकि, नयी कहानी की चर्चा की शुरुआत तो ग्राम-संवेदना के कहानीकारों ने की, क्योंकि आजादी के बाद अचानक से गाँवों और अंचलों की केंद्रीयता सचमुच ही एक नयी घटना थी और तत्काल पकड़ में भी आ जा रही थी। लेकिन नयी कहानी का आंदोलन और नारा जल्द ही यहां से खिसक भी जाता है। सुरेन्द्र चौधरी स्पष्ट रूप से इंगित करते हैं कि कैसे नयी कहानी के ये आंदोलनकारी कहानी से ही विदा ले लेते हैं। एक राह के राही अनेक राहों पर - मोहन राकेश नाटक की ओर, राजेन्द्र यादव विचार की ओर और कमलेश्वर समांतर कहानी आंदोलन की ओर। यह अनेकता अगर कहानी के भीतर ही बनती तो समकालीनता की समृद्घि की ही सूचक होती।
कथा-आलोचना के संदर्भ में समकालीन यथार्थवाद की चर्चा, डा. चौधरी के अलावा कहाँ मिलती है, इसकी जानकारी मुझे नहीं है। समकालीन यथार्थवाद की इस अवधारणा के कारण ही रेणु का एक सम्यक मूल्यांकन डा. चौधरी के द्वारा संभव हुआ। इस विशेषता की ओर मेरा ध्यान सर्वप्रथम प्रणय कृष्ण की पुस्तक 'उत्तर औपनिवेशिकता के स्रोत और हिंदी साहित्य ने दिलाया। मैला आँचल के संदर्भ में यह  अक्सर कहा जाता रहा है कि उपन्यास में अंचल का जो नायकत्व है, वही इसे एक आंचलिक उपन्यास बनाता है। वह जो अंचल नायक है, वह क्या है? वही तो समकालीन यथार्थ है, वही नायकत्व तो समकालीनता है। यदि इस नायकत्व को किनारे रखकर देखें तो पूरे उपन्यास का ढाँचा गिर जाएगा। मेरीगंज में भी महासंस्कृति और लघुसंस्कृतियाँ हैं। ये कहीं पूरकता निभाती हैं, कहीं क्रिया-प्रतिक्रिया करती हुईं अंतर्लयन करती हैं तो कहां विपर्यय का भी संबंध दिखता है। यही पूरकता, क्रिया-प्रतिक्रिया, अंतर्लयन और विपर्यय मैला आँचल को नाटकीय बनाता है। नाटकीयता और संगीतधर्मिता के इस मूलभूत स्रोत को नहीं पकड़ पाने के कारण ही निर्मल वर्मा इसकी रूपवादी व्याख्या प्रस्तुत करते हुए प्रेमचंदीय ढांचे के झटके से टूट जाने को रेखांकित करते हैं और आश्चर्य, कि रामविलास शर्मा को भी यह प्रेमचंदीय कथा-शिल्प से दूर जाता दिखता है। लेकिन समानता की भंगिमा के अंतर को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। इसलिए निर्मल वर्मा के वक्तव्य को चेखव को मारकर कथा-मार्ग निकालने वाले संकल्प की निरंतरता से ही देखना चाहिए, जिस चेखव को नामवर सिंह ने यथार्थ की विजय का पहला उद्घोष कहा था। 'कहानी की समकालीनता नामक पांडुलिपि के प्रकाशन के पश्चात समकालीनता और समकालीन यर्थाथवाद पर और प्रकाश पडऩे की संभावना है। यह समकालीनता उनके मन में कुंडली मारकर बैठ गयी थी और इसे ही वह 'कहानी की समकालीनता में हल करना चाहते थे। वह लिखते हैं — ''क्या समकालीन कहानियाँ समकालीनता की सभी ध्वनियाँ प्रकट कर रही हैं?" और इन सारी ध्वनियों की तलाश को कथानक के ह्रास, सितंबर की शाम, चर्चा की मोनार, प्राग के कोन्याक में तो नहीं ही सिमटाया जा सकता है।
नामवर सिंह ने कविता की आलोचना में प्रयुक्त होने वाली विश्लेषणात्मक पद्घति को कहानी में भी आजमाया है। इस कारण बहुत सारे लोगों ने उन पर कविता के उपकरणों को कहानी पर थोपने का आरोप लगाया है। सुरेन्द्र चौधरी ने यह आरोप लगाया हो, ऐसा कहीं देखने में नहीं आता। 'कहानी : नयी कहानी हो या 'कविता के नये प्रतिमान, दोनों के संदर्भ में वह रूपवाद के असर को रेखांकित करते हैं और संकेत में ही रचना और परिस्थिति के सवालों का बीजगणितीय हल प्रस्तुत करने का आारेप लगाते हैं। डा. चौधरी कहीं-कहीं इस विश्लेषणात्मक पद्घति को भी आजमाते हैं, लेकिन प्रत्युत्तर के संदर्भों में ही। नामवर सिंह ने विश्लेषणात्मक पद्घति के सहारे ही परिंदे को पहली नयी कहानी भी कहा और कालातीत कलादृष्टि से भी विभूषित किया। डा. चौधरी इसी विश्लेषणात्मक पद्घति से 'परिंदे के बरअक्स 'जिंदगी और जोंक को सामने लाते हैं, लेकिन वह जानते हुए कि आलोचना की यह शैली आलोचना और रचना के बड़े सवालों को एक सँकरी गली में सीमित करती है तथा आलोचना-कर्म को भी सरलीकृत करती है। वह लिखते हैं — ''तमाम कुशलता के बावजूद 'परिंदे जैनेंद्र का अतिक्रमण नहीं करती थी।  इतना अवश्य था कि लतिका का पिंजरा बड़ा हो गया था, मगर कैच 22 वह तब भी न बन पाया था। ...लतिका को पिंजरे से ज्यादा उसका अपना नैतिक आवेश बाँधता था। इसी बिंदु पर उसकी अपनी पहली और आखिरी पहचान संभव है। उसका रक्षा-कवच ही उसका पिंजरा है जो एक छाया बनकर उसे घेरता है, न स्वयं मिटता है और न उसे मुक्त करता है! कहानी के गुंजलक में एक पारदर्शी की मन की यातनाएँ इन्हीं निविर्रोध क्षणों में उसे घेरती हैं। 'परिंदे का डा. मुखर्जी का कहता है — 'वैसे हम सबकी अपनी-अपनी जिद होती है, कोई छोड़ देता है, कुछ लोग आखिर तक उससे उससे चिपके रहते हैं। ... कभी-कभी मैं सोचता हूँ मिस लतिका, किसी चीज को न जानना यदि गलत है तो जानबूझ कर न भूल पाना, हमेशा जोंक की तरह चिपटे रहना, यह भी गलत है। और इस कथन के साथ एक कहानी मेरे दिमाग में कौंधती हैं, अमरकांत की कहानी 'जिंदगी और जोंक। यह सरल योगपद नहीं है, यह मैं जानता हूँ। दोनों की जमीन अलग है। समतल पर संक्रमण करना आसान होता है। मगर जिंदगियाँ सम-असम तल पर विभाजित हैं, फिर भी मानसिक यात्रा में उन्हें लांघना संभव है। जीवन अपने लिए कैसे-कैसे हेतु गढ़ लेता है। बौद्घिक-अबौद्घिक!! रजुआ के लिए उसका अतीत रायपुर का बरई होने तक सीमित है। अपने नाम की याद उसे आती भी है तो इसी प्रसंग में, जब वह अपनी मौत की खबर गाँव भेजना चाहता है और जब वह अपने जिंदा होने की खबर गांव भेजना चाहता है। इसके सिवा वह पूर्णत: अतीत-मुक्त है। मगर वर्तमान! अपने वर्तमान के साथ उसकी लड़ाई निरंतर जारी है। एक बलबती जीवनेच्छा उसे परिचालित करती है। इसी में उसकी सारी अपेक्षाएँ सीमित हैं — भूख भी, प्रेम भी, परिहास भी!!! आत्मदया के लिए उस अभागे के पास न चेतना है और न अवकाश ही। एक विडंबना की तरह है उसका अस्तित्व। फिर भी वह जिंदा है, जिंदगी से उसे मोह है। इस मरजीवा पात्र को भूतनाथ की तरह हर बार लेखक अपने तिलिस्म से जिंदा बाहर आता देखता है। जिंदगी के साथ उसकी ऐय्यारी दिलचस्प है, मानव इच्छा का विस्तार है। मैंने पहले ही कहा कि आलोचना की यह शैली डा. चौधरी की शैली नहीं है। इसीलिए तत्काल ही लिख देते हैं, ''कहानी की किताब का बीजगणित लेकर उत्तर बैठाना मेरी दिलचस्पी के विरुद्घ है। कहानी का कोई बीजगणित कहानी का पर्याय नहीं हो सकता। कहानी इस गणित से न लिखी जाती है और न समझी जाती है। तुलनात्मक विश्लेषण की यह पद्घति नामवर सिंह के यहाँ अक्सर मिलती है और, उसकी मानसिक यात्रा समकालीन कहानी की विषम धरातलों के साथ-साथ काल के भी भिन्न तलों को समेट लेती है। इस विश्लेषणात्मक पद्घति की सबसे बड़ी सीमा यही है कि इसे किसी तार्किक परिधि में अनुशासित करना संभव नहीं है। तभी तो, राजेन्द्र यादव की महत्ता विष्णु प्रभाकर से सिद्घ होती है और उषा प्रियंवदा की महत्ता निर्गुण से संभव की जाती है। इस पद्घति की तार्किक परिणति में जो अराजकता संभव है, उसका अंदाजा आप लगा सकते हैं। इस तुलना के नैरंतय को ही आज तक घसीट लें, सीमाएँ उजागर हो जाएँगी।
सुरेन्द्र चौधरी की आलोचना-पद्घति यह नहीं है। उनके यहाँ समकालीनता के विभिन्न स्वरों को पकडऩे पर जोर है और उन सभी स्वरों को समकालीन यथार्थ में अंतर्लयित होता हुआ देखना चाहते हैं। डा. नामवर सिंह की कहानी-आलोचना इस अंतर्लयन को बाधित करती हैं, समकालीन यथार्थ को आहत करती है। इसलिए आजादी के बाद की परिस्थिति का 'स्वतंत्र महसूस होने वाली परिस्थिति के रूप में, जनतंत्र कायम हो जाने और साहित्य-रचना के लिए उत्साहवद्र्घक माहौल बन जाने के रूप में किया जाने वाला नामवर जी का सरलीकरण उन्हें कचोटता है। नामवर जी अपनी इस दृष्टि को अपने ही तर्कों से स्थिर नहीं कर पाते हैं। एक तरफ दर्जनों व्यवसायिक कथा-पत्रिकाओं के प्रकाशन और 'कहानी पत्रिका के पुर्नप्रकाशन की बात करते हैं, तो दूसरी तरफ 'हंस और 'प्रतीक के बंद होने की बात करते हैं। एक तरफ स्वतंत्र महसूस करने की स्थिति कहते हैं, तो दूसरी तरफ 'पीड़ा भरी प्रतीक्षा जैसी उपहासास्पद स्थिति की भी चर्चा करते हैं। नामवर सिंह की इन असंगतियों को शायद ही किसी कथा आलोचक ने इतनी बारीकी से चिन्हित किया है। सुरेन्द्र चौधरी इन असंगतियों का कारण बिचली पीढ़ी की राजनीतिक अदूरदर्शिता न पहचान सकने वाली नावर सिंह की दृष्टि को देते हैं। वह लिखते हैं — ''आजादी के आसपास की बिचली पीढ़ी में राजनीतिक दूरदर्शिता न थी, यह कहना आज बहुत असंगत मालूम नहीं पड़ेगा। जिन लोगों के पास यह राजनीतिक दूरदर्शिता थी भी, वे व्यवहार में अपने को सीमित और विवश अनुभव कर रहे थे। व्यवहार में इस दूरदर्शिता को सीमित करने वाली अनेक शक्तियाँ थीं। आज की व्यवहारिक दुनिया में... नैतिक दूरदर्शिता की पहचान असंभव तो नहीं हुई, पर काफी कठिन हो गयी है। ...नैतिकता के प्रभाव-क्षेत्र का यह विभाजन आजाद भारत की सबसे बड़ी दुर्घटना है!" इसी संदर्भ में चौधरी जी विचारधारा और भावधारा तथा जीवन-परिस्थिति और रचना-परिस्थिति के विभाजन की बात करते हैं। यही विभाजन इसी पीढ़ी को परंपरा के ऊपर हमले के लिए उकसाता है। साहित्य के नैरंतर्य को बाधा पहुँचाने वाली पीढ़ी भी यही है। वे आजादी के लिए संघर्षरत गांधी, नेहरू और सुभाष की तीन पीढिय़ों के, जिनके लिए आजादी सिर्फ राजनैतिक परिवर्तन नहीं थी और जिनमें आजादी के बाद के जातीय संभावनाओं को लेकर भी मतैक्य नहीं था, आजादी रूपी तात्कालिक लक्ष्य तक के लिए स्थगित आपसी अंतविर्रोध को ही बिचली पीढ़ी में आयत्त मानते हैं। संविधान निर्माण से जनतंत्र को कायम होते देखने वाली नामवर जी की दृष्टि तब हमारे किसी काम की नहीं रह जाती जब संविधान निर्माता ही उसकी सीमाओं को हमारे सामने ले आते हैं, या आगे चलकर जब संविधान की दुहाई देकर आपातकाल की घोषणा कर दी जाती है। इसीलिए आजादी के आस-पास की पीढ़ी के मनोजगत का कोई भी मूल्यांकन इस खुशफहमी से नहीं पाया जा सकता। दूसरी तरफ 'पीड़ा भरी प्रतीक्षा जैसा व्यंजक पद यदि उस समय की जीवन परिस्थितियों का ठीक-ठीक आभास दिलाता है तो उसके रचनात्मक रूपांतरण का सवाल तात्कालिकता और रचना के सवाल से भी जुड़ जाता है। नार्मल मेलर की पुस्तक 'प्रेजिडेंशियल पेपर्स के हवाले से डा. चौधरी लिखते हैं — ''अपने व्यक्तित्व में पत्रकार से अधिक व्यवहारिक दूसरा कोई नहीं होता। सूचनाओं के लिए उसकी भूख उसी तरह होती है जैसे पैसों के लिए किसी व्यापारी की। ...एक पत्रकार उस व्यक्ति के संबंध में भी दिलचस्प रिपोर्ताज तैयार कर सकता है जिससे वह घृणा करता है। यह रचनात्मक व्यवहार नहीं है ...घटनाओं से रचनात्मक रूप से प्रतिकृत होना नहीं है। यह एक छोटी चालाकी है...।" नामवर जी लिखते हैं कि ''अपनी उपहासास्पद स्थिति का अहसास होते हुए भी लोग 'प्रतीक्षा करने को प्रस्तुत थे। धीरज का बाँध अभी एकदम न टूटा था। पीड़ा भरी प्रतीक्षा इस काल की कहानियों का मुख्य स्वर है।" और 'पीड़ा भरी प्रतीक्षा को 'परिंदे में चिन्हित करते हुए वह उसे पहली नयी कहानी घोषित करते हैं। सुरेंद्र चौधरी का मानना है कि नयी कहानी में निर्मल वर्मा एकमात्र ऐसे लेखक हैं जिनका combination इतना भाववादी है कि वे सहज ही सबसे अलग-थलग दिखाई दे रहे थे। उसी समय मुक्तिबोध भी सबसे अलग-थलग दिखाई दे रहे थे। मुक्तिबोध के यहाँ पीड़ा भरी प्रतीक्षा नहीं है। वह सिनीक, खूँखार और संशयवादी होते जा रहे हैं। मुक्तिबोध के यहाँ पीड़ा भरी प्रतीक्षा नहीं है। वह सिनीक, खूँखार और संशयवादी होते जा रहे थे। मुक्तिबोध के यहाँ पीड़ा भरी प्रतीक्षा वाली उपहासास्पद स्थिति के नकार की खोज डा. चौधरी की अपनी खोज है। और, जाहिर है कि पीड़ा भरी प्रतीक्षा वाली जीवन परिस्थितियों का रचना में रूपांतरण पत्रकारिता वाला रूपांतरण न होकर एक रचनात्मक रूपांतरण है। समाज में प्रतीक्षा है तो रचना में भी प्रतीक्षा होगी, यह तात्कालिकता है। आजादी जैसे तात्कालिक लक्ष्य के कारण स्थगित अंतर्विरोधों को आजादी ने पनपने की एक जमीन दी। इसने निरंतरता को बाधित किया। पूर्ववर्ती पीढ़ी के ऊपर जो हमला संभव हुआ, वह भी इसी 'आहत नैरंतर्य के कारण संभव हुआ। रचना और परिस्थिति की भी संगति बाधित होती है। अंतर्विरोध स्वीकार का भी था और नकार का भी। ये सारे अंतर्विरोध अगर किसी एक लेखक में मिलते हैं तो वे मुक्तिबोध हैं। मुक्तिबोध एक तरफ लिखते हैं कि ''मेरा अपना विचार है कि जिस भ्रष्टाचार, अवसरवादिता और अनाचार से आज हमारा समाज व्यथित है, उसका सूत्रपात बुजुर्गों ने किया। स्वाधीनता प्राप्ति के उपरांत भारत में दिल्ली से लेकर प्रांतीय राजधानियों तक अवसरवाद और भ्रष्टाचारवादिता के जो दृश्य दिखाई दिए, उनमें बुजुर्गों का बड़ा हाथ है।" दूसरी तरफ वह लिखते हैं कि ''प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने हाल ही में कहा है कि... जब देश अपने विशाल निर्माण कार्य में आगे बढ़ रहा है, तब इस विशाल निर्माण कार्य में जिन जीवन-मूल्यों का उन्मेष हो रहा है, उसका आविर्भाव साहित्य में भी होना चाहिए। प्रधानमंत्री के वक्तव्य में ध्वनि यह थी कि ऐसी स्थिति में ही साहित्य देश के सांस्कृतिक विकास में अपना योगदान दे सकता है। प्रधानमंत्री के इस महत्वपूर्ण वक्तव्य की चर्चा हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में आज तक देखने को नहीं मिली। शायद चर्चा के योग्य नहीं समझा गया अथवा पंडित जवाहरलाल नेहरू से उलझने का साहस कम होने से (एक जमाना था जब हिंदी के नाम पर पंडित जी से उलझा जा सकता था; किंतु अब की स्थिति दूसरी है; हिंदी के साहित्यिक पार्लामेंट में, रेडियो विभाग में, और प्रकाशन विभाग में डटे हुए हैं) शायद इस संबंध में चर्चा नहीं हुई।... साहित्यिकों का मत यह भी है कि देश के विकास के स्वप्न से साहित्य का कोई भीतरी संंबंध नहीं है। ...हाल ही में किन्हीं केदारनाथ का एक लेख निकला है, जिसमें दु:ख प्रकट किया गया है कि आजकल साहित्य राजनीति के पीछे चल रहा है और वह राजनीति का नेतृत्व नहीं कर रहा है। यदि उनके लेखका मतलब यह है कि साहित्य पर राजनीति का प्रभाव है, और राजनीति पर साहित्य का प्रभाव नहीं, तो लेखक से हमारी कुछ सहानुभूति हो सकती है। सुरेंद्र चौधरी लिखते हैं कि रचनात्मक परिस्थिति के ''आहत नैरंतर्य को, 'डिसकटोन्यूएंस को पहचाना मुक्तिबोध ने। अपनी रचनात्मक संवेदना में इसे मूर्त करते हुए उन्होंने 'विपात्र और 'क्लाड ईथर्ली जैसी रचनाएँ लिखीं। ...यथास्थिति के विरुद्घ छटपटाहट 'विपात्र की अंतरात्मा है जिसे 'परिंदे की प्रतीक्षा स्पर्श नहीं कर पाती। 'विपात्र के 'पर्सनल पैराबल को मुक्तिबोध ने युग की अंतरात्मा प्रदान कर दी है। इस व्यक्तिगत रूपक का निर्माण मुक्तिबोध ने 1954-55 के आसपास ही किया था। ...'विपात्र एक विडंबनातीत पैराबल है। इस विडंबनातीत पैराबल को प्राप्त करने के लिए लेखक को संघर्ष करना पड़ा था। 'परिंदे का पैराबल न तो उतना तात्कालिक ही है और न उतना रचनाशील ही। ...समय की निरंतर मृत्यु के साथ जो तात्कालिकता अतीत और भविष्य से जुड़ती है, वही रचना का आधार होती है। ...वस्तुत: अगर 50 के दशक के लेखक की मानसिक यात्रा का कहीं, साक्षात्कार हो पाता है, तो वह मुक्तिबोध में होता है। रचनाकार के मानसिक जगत की जैसी जटिल उपस्थिति से मुक्तिबोध की रचना स्वरूप ग्रहण करती है, उसकी तुलना में दूसरे लेखक बौने दिखते हैं।  ...मुक्तिबोध को अब भी केंद्र में रखने का पक्षधर हूँ। मुक्तिबोध वस्तु जगत और प्रतीकों की दुनिया के असाधारण संबंध के प्रति शायद सबसे सचेत लेखक थे। ...वे व्यक्ति के अनिवार्य इतिहास को एक तात्कालिक संदर्भ प्रदान कर रहे थे। नयी कहानी के केंद्र में मुक्तिबोध को रखकर चर्चा करने का आग्रह आज भी प्रस्तावित ही है। और फिर यही कहूँगा कि चर्चा का यह प्रस्ताव भी, जो आज तक उपेक्षित है, सुरेंद्र चौधरी के अलावा मुझे कहीं नहीं दिखता। और, वह सिर्फ चौंकाने के लिए कोई प्रस्ताव दें, यह उनके विवेचन में ढूंढना नामुमकिन है।
और अंत में, उनकी उपेक्षा की बात। डा. चौधरी ने कहीं लिखा भी है कि हिंदी  में माक्र्सवादी आलोचना अब तक व्यक्ति के जोर से चलती आई है। सुरेंद्र चौधरी अकेले उपेक्षित नहीं हुए हैं। उनके साथ कहानीकारों की एक बड़ी जमात, एक कथा-धारा को भी उपेक्षा का दंश झेलना पड़ा है। मार्कंडेय, अमरकांत और शेखर जोशी ऐसे ही कहानीकार हैं। आश्चर्य कि मार्कंडेय जी ने ही 'नयी कहानी और 'कथानक का ह्रास जैसे प्रचलित पदों या संज्ञाओं को पहली बार प्रस्तावित किया, चक्रधर नाम से कल्पना में लिखते हुए। 'कथानक का ह्रास लगभग बीज शब्द और सैद्घांतिक आधार है 'कहानी : नयी कहानी का। यह अलग बात है कि इस संदर्भ में मार्कंडेय जी का कहीं नाम भी नहीं लिया गया है और यह ह्रास खुद मार्कंडेय जी की कहानियों में कहीं नहीं दिखता है। मार्कंडेय जी आज हमारे बीच नहीं हैं, नहीं तो कुरेदने की कोशिश करता और यह बुदबुदाते हुए सुनना चाहता - ''
when me he flew, I was his wings

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