कविता, विज्ञान, सृजन और प्यार से बना एक संसार

  • 160x120
    दिसम्बर 2013
श्रेणी सिरीज
संस्करण दिसम्बर 2013
लेखक का नाम शिरीष कुमार मौर्य







लाल्टू कई मायनों में मेरे लिए बहुत खास कवि हैं। दिसम्बर 2012 में भारतीय भाषा परिषद की पत्रिका ने 'लांग नाइंटीज़' पर एक कविता विशेषांक निकाला, जिससे खासा बवाल मचा। अंक के पीछे विचार न होकर नीयत का मामला अधिक था और थीम सम्पादक की अपनी न होकर कवि बद्रीनारायण से ली गई थी... बहरहाल, इस सबसे अवगत होते हुए मेरे मन में लाल्टू के नाम की उथल-पुथल मची रही। सबसे पहले मुझे उत्सुकता हुई कि वे कब हिंदी कविता में आए, उम्र के लिहाज से तो वे मुझसे खास बड़े हैं। मुझे 90 की पत्रिकाओं की छुटपुट याद है पर बड़ी याद आधार से आए युवा कवियों के पहले संग्रहों के सेट की है, जिसमें वर्तमान वागर्थ सम्पादक एकांत श्रीवास्तव, कुमार अम्बुज समेत शायद बारह कवि थे और इनमें एक लाल्टू - किताब का नाम 'एक झील थी ब$र्फ की'...
इस संग्रह की भंगिमा बाकी सबसे अलग थी। मैं उस 18-19 की उस उम्र में था जब अलग की खोज एक विशेष खोज होती है। मेरी वैचारिक क्षमताएं कम थीं पर माक्र्सवाद के प्रति समर्पण पूरा था और वही किसी कवि को पसन्द या खारिज करने का पहला और अंतिम आधार होता था... कुछ और चीज़ों को स्वीकार और समाहित करने के साथ वह अब भी है। लाल्टू शायद तभी अमरीका से चंडीगढ़ लौटे थे। उनके संग्रह में 'मजदूरों के साथ शाम' शीर्षक की कविता थी, जो उनकी भागीदारी का तो उतना नहीं पर वैचारिक रुझान का एक साफ संकेत देती थी। आगे मेरे ये विश्वास 'काला माइकल' कविता से और पुख्ता हुए। लाल्टू विचार की भूमि पर तब से प्रचलित हिंदी मुहावरे से अलग अपनी बात कह रहे थे और मुझे उसकी गूंज खूब सुनाई दे रही थी -
माइकल कार्टर
शरीर काला
सचमुच काला

दोस्त
मैंने कहा
मुझे ले चलो
अपनी गलियों में
जहां मैल्कम एक्स का प्रेत
मार्टिन लूथर की हत्या का
प्रतिशोध लेने को तड़पता है

लाल्टू के अनुभवों का अमरीका हमारे अनुमानों का अभिमानी अमरीका था। माइकल जो कवि था, दार्शनिक था, उस पर गुंडागर्दी का इल्ज़ाम... यह निरंकुश अमरीकी नवसाम्राज्य का चेहरा हम वामपंथी राजनीति में कदम रख रहे गली के लड़के भारत के एक छोटे-से कस्बे में रहकर भी देख पाते थे, इसलिए इसे अपनी आवाज़ देने वाला यह कवि बहुत अपना लगा।
* * *

लाल्टू का दूसरा संग्रह 'डायरी में तेईस अक्टूबर' आया। उधर लाल्टू के साथ आए पहले संग्रहों वाले कवियों में से आधे आलोचकों का आशीर्वाद पा रहे थे... प्रशंसियाये जा रहे थे.... इस कवि की आवाज़ मानो कहीं बहुत पीछे से आ रही थी। रंगमंच भरा हुआ था, इस तथाकथित 'लांग नाइंटीज़' के नेपथ्य में लाल्टू अकेले खड़े थे और अभी मैं क्षोभ और अपने समय की प्रतिबद्ध कविता में शामिल ज़रूरी क्रोध के साथ देख रहा हूँ कि दिसम्बर 2012 के वागर्थ ने भी उन्हें वहीं खड़ा रखा है।
कवि की डायरी में ये तथ्य दर्ज़ हुए कि लेनिन ने सशस्त्र क्रांति का प्रस्ताव रखा 23 अक्टूबर के दिन, आज़ाद हिंद सरकार ने बर्तानिया के खिलाफ जंग का एलान किया और आगे -

उस दिन हम लोग सोच रहे थे अपने विभाजित व्यक्तित्वों के बारे में
रोटी और सपनों की गड़बड़ के बारे में
रोटी और सपनों की यह गड़बड़ हमारे आज के जीवन में किस कदर  हड़कम्प-सा मचाए है, यह अलग से कहने की बात नहीं। इसी संग्रह में माक्र्स का वह महान स्वप्न जैसे फिर जीवित हो उठा -

महाविश्व में हर प्राणी को प्यार मिले
निर्जीव भी उस उन्माद में चीखें
सड़कों पर सोए हर बेघर को रात की परियां
उस तरह चूमें...

एक अनगढ़ युवा लड़की को क्रांतिकारी बना दे जो
स्वयं खिलना है वह एक जादुई फूल का

जानता हूं मैं इस स्वप्न को इसी भाषा में सम्भव होना है, बौद्धिक हठयोग में नहीं... पर इसे हज़ार बार देखते भी मैं खुद इस तरह कविता में सम्भव नहीं कर पाया। लाल्टू को पढ़ते मुझे कई बार बतौर कवि अपनी असफलताओं का बोध होता है और मुझे ये बात भली-सी भी लगती है। इस तरह मेरे लिए लाल्टू की कविता महज विचार और बहस के नहीं, प्यार के भी काबिल लगी है मुझे। इस संग्रह की कविताएं बताती हैं और खुद कवि उसे दर्ज़ भी करता है कि उसने कविता में विचारधारा का विरोध पढ़ा है। ध्यान दिया जाए कि बात आलोचना की, सैद्धान्तिक साहित्य की नहीं हो रही, कविता की हो रही है। इस विरोध का प्रतिकार भी कवि के पास मौजूद है। रचनात्मक विधाओं में ही विचार और सैद्धान्तिकी का मूल ढांचा बनता है, यह जान लेने का समय हम कवि कहाए जाने वाले हिंदी के युवाओं के लिए आ पहुंचा है... हमारे बीच के बहुत सारे कवियों के कथ्य और लहज़े को उनके पीठ पर हाथ रखने वाले रच रहे हैं और वे अपने इन दुर्दिनों को उपलब्धि मान बैठे हैं, उदाहरण अनेक हैं, मैं उस विस्तार में नहीं जाऊंगा। उन बूढ़े या बूढ़े हो रहे हाथों के लिए मेरे मन में पूरा सम्मान और प्यार है... उन्होंने वर्षों विचार और साहित्य के लिए काम किया है पर एक सच्चा कवि खुद में रचता है, उसे कोई चाक पर रख कर घुमाने लग जाए तो विषय चिंता का हो जाता है। फिर कवि उसमें फंसता है, जिसे हमारे अग्रज कवि वीरेन डंगवाल ने अपनी एक कविता में 'आत्मग्रस्त छिछलापन' कहा है।
* * *
मैंने अभी कहा कि लाल्टू की कविता से प्यार हो जाता है और प्यार के कवि हैं भी। उनके तीसरे संग्रह 'लोग ही चुनेंगे रंग' में शामिल एक कविता 'छोटे-बड़े' के इस अंश से उनके इस प्यार की दिशा कुछ साफ होगी -

तारे नहीं जानते ग्रहों में कितनी जटिल जीवनधारा
आकाशगंगा को नहीं पता भगीरथ का इतिहास वर्तमान
चल रहा बहुत कुछ हमारी कोशिकाओं में हमें नहीं पता

अलग-अलग सूक्ष्म दिखता जो संसार
उसके टुकड़ों में भी है प्यार
उनका भी एक दूसरे पर असीमित अधिकार

जो बड़े हैं
नहीं दिखता उन्हें छोटों का जटिल संसार

छोटे दिखने वालों का भी होता बड़ा घरबार
छोटी नहीं भावनाएं, तकलीफें
छोटे नहीं होते सपने
कविता, विज्ञान, सृजन, प्यार
कौन है क्या है वह अपरम्पार

कविता, विज्ञान, सृजन और प्यार की बात लाल्टू ने की है... यही उस वर्ग की चार बराबर भुजाएं हैं, जिनके क्षेत्रफल में उनका रचना-संसार रचा हुआ है। टुकड़ों की बात इधर फ्रेंच और उस पर आधारित अमरीकी थियरी में बड़े धूमधाम से होती रही है पर वहां उनके प्यार और एक दूसरे पर असीमित अधिकार की बात कभी नहीं आती। यहां से विचार की धाराएं अलग होती हैं। छोटे दिखने वालों का बड़ा घरबार महान आख्यानों को जन्म देता है, जिन्हें कविता, विज्ञान, सृजन और प्यार मिलकर बनाते हैं। अपने इस प्यार के साथ लाल्टू अपनी पीढ़ी में लगातार कुछ खतरनाक उत्तरआधुनिक धारणाओं के साथ एक लड़ाई लड़ते रहे हैं।
यह समय हर तरफ से हमारे ओर बढ़ते लुटेरों का समय है। वे विचार लूट लेना चाहते हैं, हमारे अब तक किए हुए संघर्षों की कथाएं-कविताएं लूट लेना चाहते हैं, हमारे आख्यान लूट लेना चाहते हैं, सोचने और सही-गलत को निर्धारित करने की हमारी ताकत लूट लेना चाहते हैं और लाल्टू की एक कविता में तो-

जब लूटने को कुछ न बचा तो उन्होंने सपने लूटने की सोची
वे दिन दहाड़े आते रात के अंधेरे में आते
अपनी डायरियां खोल तय करते सपनों की $कीमत
सपनों के लुटते ही गायब हो जाते डायरी के पन्ने
* * *

लाल्टू दरअसल कविता में एक वैज्ञानिक और राजनैतिक कार्यकर्ता हैं, उनमें कवि होने की भंगिमा उतनी नहीं है। वे बहुत सारी चीज़ों को बहस के बीच ले आते  हैं। कहीं-कहीं उनका कविता- संसार आत्मालाप, प्रेमिकाओं से संवाद, नितांत निजी स्मृतियों के संताप आदि में प्रवेश कर जाता है, तब लाल्टू मुझे उतना प्रभावित नहीं करते, क्योंकि यह कविता में उनकी ताकत नहीं है... उसका छोर दूसरा है... उनकी बेचैनी, छटपटाहट, उनके स्पष्ट बयान, साम्प्रदायिकता के खिलाफ बोलने का उनका अंदाज़, जीवन के विविध प्रसंगों की उनकी वैज्ञानिक-वैचारिक परिभाषाएं उन्हें मेरे लिए प्रिय कवि बनाती हैं। निजता की गुत्थियां समाज में खुलें तो वे सहज स्वीकार्य हैं लेकिन उनमें बाहर न निकल पाने की यह क्षमता यदि नहीं है तो कुछ पाठक उन्हें अपने निजी अनुभवों से जोड़ कर भले देख पाएं पर एक वृहद वैचारिक परिदृष्य में वे निरर्थक हैं। लाल्टू में यह अल्पांश में है, उतने का एक कवि अधिकार भी रखता है। बतौर प्रशंसक और पाठक मुझे कोई बड़ी शिकायत नहीं है उनसे।
* * *
मेरे पास मौजूद अब तक छपे लाल्टू के संग्रहों में अंतिम 'सुंदर लोग तथा अन्य कविताएं' है। इस संग्रह में भी उनकी कविताएं पाठकों और आलोचकों का अनुरंजन करनेवाली कविताएं नहीं है। एक खास अर्थ में तो वे हिम्मत तोड़ देनेवाले कवि हैं। उनके संग्रह को पढऩा एक जंग जीतने सरीखा लगता है। यही बात समकालीनों में उन्हें अग्रज असद ज़ैदी से जोड़ती है।

तीस सालों से कह रहा हूं
कि मैं तो कवि हूं
तीस सालों तक जिम्मेदारियां निभाता रहूंगा
'षडरिपु कथा' शीर्षक कविता में आई ये पंक्तियां लाल्टू के कविजीवन के अपार संघर्ष की ओर इशारा करती हैं। वीरेन डंगवाल, अरुण कमल, राजेश जोशी और मंगलेश डबराल की युवा कविता को सम्मोहित कर देने वाली अस्सी के दशक की पीढ़ी के तुरत बाद मेरे खुद के कविजीवन में तीन नाम आते हैं - कुमार अम्बुज, देवीप्रसाद मिश्र और लाल्टू। इनमें सिर्फ कुमार अम्बुज को हिंदी की बेहद संकीर्ण होती जा रही आलोचना ने पूरी तरह स्वीकारा है। देवीप्रसाद मिश्र को कम-कम और वह भी एक खास तबके में... गो हिंदी में तबके आम हैं अब। लाल्टू को तो  बिलकुल नहीं। लाल्टू के इस संग्रह से गुज़रते हुए मुझे गहरा अहसास है कि 'हिंदी में हिंसा' के इन प्रकरणों पर बात करने का समय अब आ पहुंचा है। ऐसे हालात में वागर्थ के पन्नों में मौजूद लांग नाइंटीज़ को फिर याद कर लेना दुहराव नहीं माना जाना चाहिए।
हमारे आदरणीय-आत्मीय अग्रजों ने कब-कब गोबर-गणेशों की पीठ पर अपने हाथ रखकर कितने कंडे बनाए, इसका गणित बेहिसाब है और अपवाद बस एकाध। मैं सीधे नाम लेकर कहूंगा कि ऐसे कंडे मान्यताप्रदायी संस्थाओं में बदल चुके बड़े आलोचकों और कवियों द्वारा बनाए जा रहे हैं, इसमें भी नामवर जी का योगदान खास है। दु:खद तो ये लगता है मुझे कि नामवर जी मेरे लिए आधुनिक कविता की आलोचना के निर्माता की तरह हैं और अपने-आप में उसका एक वैभशाली इतिहास बन चुके हैं। पर उनके और अन्य समानधर्माओं के बनाए ये कंडे अब भरपूर धुंआ दे रहे हैं और वो भी बिना कुछ पकाए। इस धुंए में हमारी आंखें जल रही हैं। ये धुंआ नए और मज़बूत फेफड़ों में जा चुका है - दम घोंट रहा है। लेकिन हम अपनी जलती हुई आंखें मलते इससे बाहर निकल रहे हैं। हम अपनी आग खोज रहे हैं, अपनी रोशनी देख पा रहे हैं - वहां दूर कहीं ये कवि भी खड़ा है, तीस बरस से अपनी मशाल जलाए। यह कवि कठोर है और हमारा है। हमारे समय के जटिल समीकरणों में उलझा यही मुक्तिबोध का 'वैज्ञानिक कार्यकर्ता' है।
इस संग्रह में स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की एक महत्वपूर्ण और बेहद जटिल कविता है बदलना। इसकी जटिलता ही इसे पठनीय भी बनाती है और प्रकारान्तर से खोलती भी है। इस सम्बन्ध पर संसार में सरल अभिव्यक्ति सम्भव नहीं, इसकी गहराइयां रहस्यों से भरी हैं और उथलापन कहीं है तो मिट्टी-गाद-काई और पत्थरों से लदा... यहां झांक पाना सरल नहीं... जबकि हमारे समय के एकाधि लोकप्रिय कवियों/कवयित्रियों ने इसे सबसे आसान रास्ता मान रक्खा है। उनकी देखा-देखी बिलकुल नए कवि/कवयित्रियां भी इसके फेर में पड़ गए दिखाई देने लगे हैं। लाल्टू की इस कविता का मूल पद है बदलना, जो कई तरह से सम्भव होता है... यह काफ्काई मेटामॉरफ़िज़म नहीं है... न इसमें कुछ जादुई है... यह बदलना मन के बदलावों के महज संकेत नहीं देता... पूरा नैरेशन करता है। यहां आदमी निकृष्ट मकड़ी कहते हुए कायान्तरण की बात नहीं कर रहा, रिश्तों के बीच के जाले देख रहा है... स्पष्ट है कि ये जाले उसने खुद लगाए है। फिर वो दोनों बदल गए- आदी बदला फूल में, जिस पर औरत ने थूक दिया। ये साधारण कार्यव्यापार नहीं है... सम्बन्धों की तबाही है। वह बदली लेकिन जिस चीज़ में बदली... ये कवि नहीं बताता। हज़ार दु:खों के पार औरत का बदलना ऐसा ही होता है-

वह इस कदर बदली है कि भूल गई रोना एक दिन
उसकी छातियों में प्यार की परत नहीं जमती
आंसुओं का खारापन वहां से गायब था

यहां रोना औरत की कमज़ोरी की तरह नहीं आता, जिसे पुरुष अपनी जीत समझ लेता है। यह रोना भावनाओं का बंधन है जो अब जाता रहा है... यही रिश्तों में आ सकने वाली सबसे बड़ी आपदा हो सकती है। कविता की अगली पंक्ति मे है - फूल ने देखा और महकता हुआ रोया। यह महकते हुए रोना शायद पुरुष में भावनाओं का पुनर्जन्म या गहरा पछतावा है पर असलियत यह है कि -

पंखुडिय़ां झड़ रही थीं चींटियां वहीं थीं
फूल के महकने की बात पुरानी पड़ गई थी
किसी को फुर्सत नहीं थी उसे सूंघने की

यहां आकर -

फूल ने देखा उसे
वह बिखरी हुई चमड़ा मांस हड्डियां
* * *
फूल को कोई नहीं बतलाता वह कैसे इस अंधेरे में पहुंचा
हर रास्ते में दावा था प्रकाश का
रात रात भर फूल सोचता
* * *
एक दिन फूल ने खुदकुशी की
कई दिनों तक खाया मांस चींटियों ने।

इस बदलने की कोई वजह कवि ने दर्ज़ नहीं की है। दरअसल हर कामयाब कविता की तरह इसका भी कोई एक पाठ मुमकिन नहीं। यह जटिल है, विज्ञान की तरह जिसे ग्रांडनैरेशन कहकर खारिज करने की कोशिशें की जाती हैं। मैं व्याख्या की कोशिश करूं तो असफलता हाथ लगेगी... इसे महसूसना होगा। अनुभव करने में ही असफलता कई बार सफलताओं में बदल जाती हैं।
सुंदर लोग : चार कविताएं  इस संग्रह का घोषणापत्र बन जाती हैं, जो सबसे अंत में छापी गई हैं। उसके अंत में आने से हुआ ये है कि ये कवि की राजनीति का स्थायी पता स्थापित कर देती हैं।

एक दिन हमारे बच्चे हमसे जानना चाहेंगे
हमने जो हत्याएं कीं उनका खून वे कैसे धोएंगे

हताश फाड़ेंगे वे किताबों के पन्ने
जहां भी उल्लेख होगा हमारा
रोने को नहीं होगा हमारा कंधा उनके पास
कोई औचित्य नहीं समझा पाएंगे हम
हमारे बच्चे वे बदला लेने को ढूंढेगे हमें
पूछेंगे सपनों में हमें, रोएं तो कहां रोएं

इन पंक्तियों में ये भारतीय समाज का सबसे दारूण दृश्य है। इस तबाही की वजहें भी कविता में पूरे आवेग और वाजिब क्रोध के साथ मौजूद हैं -

दौड़ रहा है आइंस्टाइन एक बार फिर
इस बार बर्लिन नहीं अहमदाबाद से भागना है
* * *
अनगिनत समीकरण सापेक्ष निरपेक्ष छूट रहे हैं
उन्मत्त सांड़ चीख रहा है कि वह सांड़ नहीं शेर है
किशोर किशोरियां आतंकित हैं
प्रेम के लिए अब जगह नहीं
सांड़ के पीछे चले हैं कई सांड़
लटकते अंडकोषों में भगवा टपकता जार-जार

आतंकित हैं वे सब जिन्हें जीवन से है प्यार

बर्लिन और अहमदाबाद इतिहास के एक भयानक मोड़ पर आकर एक हो जाते हैं। गुजरात पर कई कविताएं लिखीं गईं, काफी कुछ संकेतों में और कुछ खुलकर भी कहा गया पर लाल्टू की ये कविता उसके विद्रूप को ज़्यादा प्रकट करती है बनिस्पत औरों के।
कुल मिलाकर यह संग्रह समकालीन जीवन, साम्प्रदायिक दुश्चक्रों और उसके प्रतिरोध, प्रेम और स्त्री से जुड़ी कोमल-कठिन भावनाओं, बेहतर भविष्य की चिंताओं, राजनीति की गलत और सही दिशाओं की शिनाख्त का दस्तावेज़ बन गया है। इसे पढऩा और अपने समय के बनते हुए इतिहास के शैशव और उसे दर्ज़ करते कवि के प्रतिबद्ध कौशल को जानना और मानना है।
* * *

अभी जलसा-3 में लाल्टू की महत्वपूर्ण कविता 'शब्द मिले अनंत तो क्यों प्रलापमय' छपी है, जिस पर बात बहुत ज़रूरी है। इसमें हर पहलू से बहस की बहुत गुंजाइश है। कवि की बदतर बनाए जा रहे संसार के प्रति चिंताएं स्वाभाविक हैं, यहां उनकी खूब मुखर अभिव्यक्ति है। कई ब्यौरे हैं जो दुनिया को और उघाड़ कर दिखाते हैं... यहां तक कि उसकी अश्लील नग्नता को भी - इससे पहले भी कभी लाल्टू ने परहेज़ नहीं किया है... यहां भी वे किसी संकोच में नहीं हैं। जाहिर है कि संकोच में रहकर कोई कवि हो ही नहीं सकता। कविता में सामूहिक दु:खों और भूख का प्रसंग है... उनके होने पर सवाल हैं... निजी और सामाजिक विलाप तथा क्रोध भी बहुत है। यहां खुली चीखें हैं। कविता का एक समग्र प्रभाव बनता है लेकिन फिर वो कहीं-कहीं अचानक कुछ सवालों में घिरने लगता है... मैं खुद से पूछता हूं कि इस कविता में युधिष्ठिर जाने क्यों आया है... उससे पूछताछ आखिर किससे पूछताछ है। हमारे ये मिथक कब कविता को कहां से खा जाएं, कुछ कह नहीं सकते। इनके इस्तेमाल के उस्ताद अलग होते हैं। इन्हें सम्भालना सबके बस की बात नहीं। महाभारत के पूरे अठारह पर्वों का हिंदी अनुवाद पढ़ चुकने और कथा की जटिलता से गुज़रने के बाद भी मैं तो अपनी कविता उसके पात्रों की मौजूदगी देखना नहीं चाहूंगा... लेकिन विष्णु खरे ने अपनी कुछ कविताओं में इसे शानदार तरीके से मुमकिन कर दिखाया है... उसके लिए उनके जितनी जैसी अलग प्रतिभा और बुद्धिमत्ता चाहिए। मैं कहना चाहता हूं कि इस कविता का यह युधिष्ठिर नहीं होता तो अच्छा था, उसने कविता के तनाव और गरिमा में खलल डाला है। मैंने अपना यह इकलौता विरोध पहले दर्ज़ कर लिया है, अब कविता के दूसरे अंशों पर बात करूंगा। यह मुक्तिबोध, फैज़ से लेकर राजकमल चौधरी तक की गूंजें साथ लिए चलती है। कश्मीर की विभीषिका को विकट रूपों में प्रकट करती हुई सरहदों पर लगे कटीले तारों के पास तक चली जाती है। यह बताती है कि हमें कविता में किन जीवन-प्रसंगों की अनिवार्य चिंता करनी चाहिए। जीवन-प्रसंग, जिन्हें राजनीति संचालित करती है और राजनीति, जिसे हम चुनते हैं... इस कविता में लाल्टू की राजनीति और विचारधारा बहुत स्पष्ट है.... इसलिए बहुत जटिल प्रतिध्वनियों के बीच भी यह एक स्पष्ट कविता हैं... और इधर स्पष्टता की बहुत कमी दिखने लगी है कविता में। लोग साफ बोलना नहीं चाहते या फिर साफ बोलने को कलाविहीनता समझते हैं। वे भूल जाते हैं कि किन लोगों के बीच कविता को जाना है... या शायद चाहते हैं और उनका लक्ष्य यह है कि कविता पहले पीठ पर हाथ रखने वालों तक चली जाए, जनता तक फिर चली जाएगी... न भी जाएगी तो क्या.... एक युवा कवि ने तो हठ की हद तक कहा मुझसे कि हर बार कवि ही क्यों जनता तक जाए, जनता कविता तक क्यों न आए? मुझे नहीं मालूम इस तरह के कवि किस तरह की जनता के बीच रहते हैं। हमारी जनता तो अब भी वही है, समूचे प्रतिनिधि प्रगतिशील आंदोलन की जनता। लाल्टू एक आधुनिक वैज्ञानिक अकादमिक दुनिया में जीते हुए भी इसी जनता के कवि हैं और 2013 की शुरुआत में इस लम्बी कविता की जनता भी वही है।
* * *

कविता में एक शिल्प और भाषा प्रसंग भी हुआ करता है। लाल्टू इस मोर्चे पर मुझे कभी बहुत सहज तो कभी अति आत्मसम्पादित कवि लगते हैं। पता नहीं क्यों वे गद्य से बचना चाहते हैं। एक रोचक बात जो मैंने देखी कि इस संदर्भ में द्विवेदी-युग और छायावाद के समय की एक धारणा इधर जाने-अनजाने फिर दिखाई देने लगी है कि अगर वाक्य में है और था के प्रयोग से परहेज करें तो कविता में गद्यात्मकता कम होगी और वह ज़्यादा कविता लगेगी। 93-94 की सर्दियों में दिल्ली में एक बार संयोगवश बुज़ुर्ग प्रगतिशील कवि त्रिलोचन से कोई 15 दिनों का साथ रहा मेरा। मेरी कविताओं पर राय देते हुए उन्होंने कहा कि 'सब अच्छा है पर वाक्य पूरे करो, भाषा खिलवाड़ की वस्तु नहीं है... आजकल कवि वाक्य पूरा नहीं करते, जिससे कविता की भाषा भ्रष्ट हो रही है।' मैं चकित रह गया जब उन्होंने उस समय के हमारे सभी अग्रज कवियों में ऐसे उदाहरण दिखा दिए। मुझे लगता है कि हिंदी के इस ताने-बाने से लाल्टू का कोई परिचय नहीं होगा पर उनकी कविता में 'है' और 'था' कम होते गए हैं। वे वाक्य-विन्यास में उलटफेर करते हुए लय पाने की कोशिश में भी दिखने लगे हैं, जबकि एक शानदार और बहुत प्रभावशाली लय गद्य की हासिल की है हमारी समकालीन कविता ने - यह लय खुद लाल्टू की कई कविताओं में है। इस प्रसंग में मैं सलाह देने की स्थिति में तो नहीं, पर आपत्ति करने की स्थिति में रहना चाहूंगा ही।
* * *
कहने और लिखने को बहुत-सी बातें हमेशा बची रहती हैं। लाल्टू के पास कविताओं की संख्यात्मक प्रचुरता है पर हर संग्रह में मुझे 10-12 कविताएं ही मिलती हैं, जो मेरे निकट हैं। ज़रूर यह मेरी पसन्द की सीमा ही है। इतने संग्रहों के  बाद मैं 50 कविताएं चुनकर एक संग्रह बना सकता हूं, जो मेरे हिसाब से लाल्टू का श्रेष्ठतम होगा। जो भी हो हर बार अपने हमउम्रों के कविता-उत्सवों के प्रसंगों से दूर किसी छोर पर खड़ा विचार और प्रेम में मग्न हमारा यह प्रिय कवि अपनी लगातार आती कविताओं के साथ और भी प्रिय होता जाता है। ऐसा क्यों है, उसे जानने के लिए अपनी उम्र के अधबीच में खड़े लाल्टू की ये छोटी-सी आत्मकथा भी पढ़ ली जाए-

बीच में अनंत संभावनाएं हैं
यही सोचा-चाहा ताजिन्दगी

कोशिश यही कि हिटलर भी रोना सीख ले
अपने गू में मरता शताब्दी का प्रतिनिधि हंस ले
इसके अलावा मैं एक जानवर
ढूंढता प्यार, सपने दो चार
खुश अपनी नादानी में बार-बार
* * *

Login