शुक्रिया इमरान साहब

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    दिसम्बर 2013
श्रेणी लम्बी कहानी
संस्करण दिसम्बर 2013
लेखक का नाम इंदिरा दाँगी






स्कूल बस का ड्राइवर है इमरान।
रोज़ सबेरे दो फेरे लगाता है। चार बजे जागता है। पाँच बजे से बच्चे पिक करना शुरू कर देता है। पहले राउण्ड में पचास छात्र-छात्रायें; तीसरी कक्षा से ऊपर वाले बच्चे। दूसरे में पैंतालीस बच्चे; पहली से तीसरी तक के। सबेरे के साढ़े आठ तक काम पूरा करना होता है।
वो दूसरे राउण्ड में दिखती है। सत्ताइस-अट्ठाइस से ज़्यादा की नहीं होगी। क्या पता पच्चीस-छब्बीस की ही हो! घर के कपड़ों में भी अच्छा ड्रेसअप सेंस - कभी कैपरी के साथ लॉग टी-शर्ट, कभी लैगी संग कुर्ती, कभी जींस पर सफेद शार्ट शर्ट, दो-एक बार साड़ी में भी दिखी है। लम्बे बालों को कभी फ्रेंच पोनी में सजा लेती है, कभी ढीले जूड़े में पीठ पर छोड़ देती है और कभी जब बाल उसके खुले होते हैं, बालों का डिजायनर रबर बैंड कलाई पर होता है - ब्रेसलेट की तरह। मोहतरमा का हर काम एक अदा है - वो ऐसा सोचता है। कुल मिलाकर वो उसे ऐसी लगती है जैसे कोई लम्बी-छरहरी, खूबसूरत हीरोइन सुबह-सुबह बिना मेकअप सड़क किनारे खड़ी है - अपने बच्चे को स्कूल बस में चढ़ाने।
उसके बच्चे को लेने का नंबर बयालीसवाँ है। पॉश कॉलोनी से निकली नई बायपास सड़क पर अपने डुपलेक्स-बंगले के बाहर खड़ी, स्कूल बस की राह तकती हुई वो इमरान को हर दिन मिलती है। साथ में उसका बच्चा खड़ा रहता है - स्कूल जाने को एकदम ही तैयार। बस ऐन वहाँ रुकने से पहले एक और बच्चे को पिक करती है, यही कोई दो सौ कदम पहले। वो दूर खड़ी बस को देख लेती है। इधर अपने कंधे से बैग-बॉटल उतारकर वो बच्चे को पहनाते हुए उसका माथा चूमती है, इधर इतनी दूर बस ड्राइवर इमरान अपने चेहरे के बहुत पास उसके होठों की गर्म नरमी महसूस करता है। स्टेयरिंग पर हाथ जैसे थक जाते हैं। पूरा शरीर ढीला पड़ जाता  है; और लगभग हर दिन ही कंडक्टर अब्बास चचा उसे हँसकर आवाज़ देते हैं,
''सुबह की चाय हो गई हो तो चलें इमरान मियाँ?''
वो झेंप जाता है - किसी नये लड़के की तरह; बत्तीस साल का ऊँचा-पूरा, कद्दावर इमरान।
यहाँ से बस आगे बढ़ती है, दिल की धकधक भी। ...और ये आ गया वो कीमती लम्हा। हीरे-सा चमकीला, मोती-सा उजला, नीलम-सा खास ये वक्त। वो अपने बेटे को बस के दरवाज़े तक लाती है और अब्बास चचा को हर दिन वे ही-वे ही बातें याद दिलाती है,
- सीट पर बिठा दीजियेगा।
- बैग को पीछे से ज़रा हाथ लगा दीजियेगा सीढिय़ों पर!
- लौटने में ध्यान से उतारियेगा!
बूढ़े अब्बा चचा कभी मज़ाक में कह उठते हैं,
''वे मोहतरमा जिस तरह मुझे हर दिन हिदायतें देती हैं, कभी-कभी मुझे भरम होता है कि वे उस बच्चे की अम्मी हैं या मेरी?''
हा हा हा - स्कूल कम्पाउण्ड में खड़ी कतारबद्ध बसों के सब ड्राइवर-कंडक्टर हँस पड़ते हैं। फिर कोई अगला, कोई नया किस्सा, बात, वाक्या सुनाने लगता है। सब आगे बढ़ जाते हैं; और इमरान अब तक उसी एक पल में गुम अपने भीतर हौले से किसी से कहता है,
''क्या तुम्हें पता है, तुम कितनी खूबसूरत हो??''
अगला खूबसूरत वक्त आता है दिन का, जब स्कूल बस की वापिसी का पहला फेरा लगाती है बस, दूसरी क्लास तक के बच्चों को छोडऩे का। यहाँ बस जैसे ही रुकती है, उसकी पहली नज़र इमरान पर ही पड़ती है और इमरान की उस पर। वो उसे देखता रह जाता है जबकि वो सेकेण्ड के आठवें हिस्से में ही आँखें हटा लेती है। बस क्योंकि सड़क पर इधर बाँयीं ओर रुकती है और वो उस तरफ इन्तज़ार में होती है; अब्बास चचा उसके बेटे को सड़क पार करवाते हैं। वो बस रोके रहता है - शायद साँस भी! वो बेटे के कंधे से बैग उतारकर अपने कंधे पर लेती है और उसकी कलाई पकड़कर चली जा रही होती है। ...इमरान अपनी कलाई पर उसके हाथ की नरम पकड़ महसूसता उसे जाते देखता रह जाता है - किसी दीवाने की तरह, मुँह बाये, बिना पलकें झपकाये!
अब्बास चचा अपनी टोपी-इमामा ठीक करते फिर मुस्कुराते हैं,
''इमरान मियां, दोपहर की चाय हो गई हो तो आगे बढ़ें?''
यहां, इमरान के दिन का मकसद जैसे पूरा हो जाता है; अब करने को भले सौ काम बाकी हों, उसके दिल को लगता है, अगले दिन की सुबह से पहले करने को कोई लायक काम है ही नहीं।
स्कूल वाली नौकरी का व$क्त पूरा होने के बाद इमरान और अब्बास चचा ऑटो चलाते हैं, जिन्हें वे दिन के आधे वक्त के लिए किराये से लेते हैं। सौ रुपये में आधे दिन के लिए  मिला ऑटो दो सौ- ढाई सौ कभी कभी तो तीन सौ रुपये आमदनी भी करवा देता है; यों रात के साढ़े आठ-नौ बजे जब वे अपने घरों को लौटते हैं, उनके चेहरे ईमानदारी की मेहनत-भरी थकान से रोशन होते हैं। यहां बस्ती में भी दोनों पड़ोसी हैं - पुराने भोपाल की एक गरीब बस्ती। पहले झुग्गियाँ थीं, अब सरकार ने एक कमरे वाले फ्लैट बनवा कर नाम मात्र के मूल्य पर बाँटे हैं यहाँ के वाशिन्दों को, जिनमें से ज़्यादातर या तो खण्डवा-खरगौन के बेरोज़गार हुए बुनकरों की अगली पीढिय़ाँ हैं या जंगल से सरकारी हाथों बेदखल आदिवासी हैं या इसी इलाके के पुराने-कन्वर्टेट मुसलमान हैं जो पुश्तों पहले दरअसल दलित-गरीब हिन्दू जातियाँ थे। यों अफसर लूट मचाये थे। कहीं रिश्वत, कहीं 'अंधा बाँटे रेबड़ी...' वाला हिसाब चल रहा था, लेकिन उसकी बिरादरी के पावर हाउस नेता हैं सलीम भाई। सी.एम. तक उनकी बात सुनते हैं। उनके वाले मुसलमानों में से एक के भी साथ नाइंसाफी नहीं हुई। इमरान के पास तो जिक्र करने लायक भी रकम न थी; पर घर की चीजें, जेवर, असबाब, सब होता किस दिन के लिए है। अब सलीम भाई को अफसरों को भी तो कुछ खिलाना-पिलाना पड़ा ही, फिर अगर खुद भी कुछ न बचायें तो इतने बड़े नेता होने का रुतबा-रुआब कैसे निभे? बदन के कपड़ों के सिवाय सबकुछ बिक गया $गरीबों का; पर ऊपर वाले की मेहर कि इमरान को अपनी झुग्गी के बदले फ्लैट मिल गया - सो भी फस्र्ट फ्लोर पर। पुराने पड़ोसी अब्बास चचा को भी उसके बगल में ही फ्लैट मिल गया। वे अपनी बीवी के साथ अकेले रहते हैं यहाँ। चची के ज़िन्दगी भर के ज़ेवर और चचा की बूढ़ापे के लिए जोड़ी एफ.डी.'याँ सब इस फ्लैट के नाम रहीं। वैसे उनका एक बेटा भी है - वाहिद। चचा कभी मेटाडोर चलाते थे, खुद की। चची और वहीद की ज़िद पर उन्होंने अपनी मेटाडोर बेच दी और नादरा बस स्टैंड पर बेटे को, ढाबे के लिए ज़मीन खरीदकर दे दी। लड़का मेहनती था - साल दो साल में ही ढाबा कैशकाऊ हो गया। निकाह हुआ, बच्चे हुए और ज़िन्दगी में आगे बढ़ गया वाहिद चचा-चची को पीछे छोड़ गया। अब वो उधर ही, खुद के मकान में रहता है, अपने बीवी-बच्चों के साथ; और ढाबे की इतनी आमदनी है कि उसने एक ब्रांच नवबहार सब्जी मंडी वाले रोड पर भी खोल ली है। बेटा चला गया तो चचा अपने बूढ़े घुटनों पर हाथ टिकाकर खड़े हुए और बस की कंडक्टरी करने लगे। - और अब तो इंशाअल्लाह, खुद के फ्लैट में रहते हैं। चचा ने ज़िन्दगी का सामना मई की तरह किया है - हमेशा ही! ...बेटा एक बार जो घर से गया, फिर कभी मिलने तक नहीं आया! उसकी बीवी आयशा, अक्सर के बीमार अपने सास-ससुर से नफरत करती है। चची तो अपने दिल के हाथों मजबूर, अक्सर चली भी जाती हैं, ढाबे पर बेटे से मिलने। कभी सेवइयाँ, कभी कबाब बनाकर ले जाती हैं। दिन-रात खूब चलने वाले ढाबों के मालिक बेटे के लिए जो उसके हाथ से खाने का डिब्बा ले तो लेता है; पर अक्सर ही या तो इधर-उधर रखकर भूल जाता है या नौकरों को दे देता है। चटोरे नौकर उस सादा खाने में मिली मोहब्बत की लज़त कभी नहीं जान पाते, और अक्सर ही कूड़ेदान में पहुँच जाया करता है वो गोश्त, तरकारी, अचार, मठरियाँ, मुरब्बे - जिन्हें बनाने में बूढ़ी चची ने कभी कंपकंपाया हाथ जलाया, कभी हरारत-बुखार की गोली खाई! यों चची की बाकी ज़िन्दगी का मकसद जैसे यही बचा है - बेटे के लिए तरह-तरह का खाना पकाकर ले जाना; पर चचा बाप होने से पहले एक खुद्दार मर्द हैं। वे सालों से अपने बेटे से नहीं मिले हैं। इमरान ही जैसे उनका बेटा है, दोस्त तो है ही। ...रिश्ते दरअसल ज़रूरतें हैं!
जब सलीम भाई को फ्लैट के ऐवज़ रकम चुकाने के लिए इमरान ने अपना ऑटो भी बेच दिया था, तो चचा ने ही उसे स्कूल बस की ड्रायवरी दिलवाई थी। अब वे हँसकर कहते हैं,
''हमें क्या मालूम था खाँ, तुम एक नौकरी में दो तनख्वाहें पाने लगोगे''
मोहब्बत से बड़ी और कोई क्या तनख्वाह देगा ज़िन्दगी को?
जब से उसे उससे मोहब्बत हुई है, ज़िन्दगी जैसे बदल गई है, बेहतर हो गई है। तकलीफें तो अब भी थीं, पर उनमें वो पहले सी चुभऩ न रही थी ...गर्मियों का आग-सूरज जैसे अचानक ये सर्दियों वाली सुख-धूप पहन ले! आजकल वो पड़ा मुतमईन-मुतमईन-सा रहता है; भले उसकी बीवी शहनाज लाख कोसती रहे सरकार को।
''तीन ही तो साल बीते हैं और बिल्डिंग का ये कि नक्शा बदल गया है! दीवारों में दरारें पड़ गई हैं। टाइल्सें झडऩे लगी हैं। सीमेंट-पुट्टी जगह-जगह से उखड़ी जा रही है। या अल्लाह, इस बिल्डिंग में कित्ता घटिया माल लगा है कि ऊपर वाले फ्लैट की बाथरूम का पानी नीचे वाले फ्लैट की रसोई में रिसता है! ...अपना सबकुछ बेच दिया था हमने, इस एक कमरे के घर के लिए जहाँ तीन सालों बाद भी पानी तक की सहूलियत नहीं!''
दरअसल महकमे ने अपार्टमेंट्स तो बनवा दिए, पर पानी-टंकियों और नल-पाईप फ़िटिंग के लिए बिना टेंडर निकाले ही, एक गुमनाम कम्पनी को जो काम दे दिया था और सत्तर परसेंट पेमेण्ट एडवांस में दे भी दिया था; उस पूरे मामले का खुलासा कर दिया एक नामी अखबार ने। मीडिया में आते ही मामला तमाशा बन गया। कम्पनी तो भाग गई; लेकिन इतने बड़े अधिकारियों-प्रमुख सचिव स्तर के नौकरशाहों-साहबों के फ़िलाफ सीधी कार्यवाही कैसे कर दे सरकार - इनक्वायरी चल रही है, विधानसभा में सब जवाब दिए जा चुके हैं, रिटायर्ड जजों वाले दो जाँच आयोग बैठाये जा चुके हैं, ...और ज़मीनी हकीकत ये है कि पिछले तीन सालों से अपार्टमेंट्स की छतों पर टंकियाँ तो भरी जाती हैं, पर फ्लैटों तक पानी पहुँचता नहीं। दो हज़ार फ्लैटों में रहने वाले दस हज़ार वाशिन्दे आसपास के हैंडपम्पों, सड़कों के किनारे वाले नलों या फिर अपने-अपने अपार्टमेंट की छत से दिन-रात पानी-ढुलाई में लगे रहते हैं। ...कितनी लड़ाईयाँ होती हैं! कितनों के सिर फूटते हैं! कितनों ने बाल्टी भर पानी के पीछे थाना-कचहरी पर डाली!
रात साढ़े आठ-नौ पर जब वो घर लौटता है, अक्सर ही शहनाज़ और दोनों बच्चे सड़क पार के हैंडपम्प से, या तो अपार्टमेंट की छत से बाल्टियों-कट्टियों में पानी ढोते नजर आते हैं। जब तक शहनाज़ उसके लिए खाना पकाती है, वो आठ-दस फेरी पानी ला चुका होता है; लगातार उस हूर-परी के बारे में सोचते हुए। ...उसका  प्यार उसकी रंगो में उफनती ताकत बन जाता है, ज़रूरत पड़ते ही!
रात साढ़े नौ तक जब वो खाने और बाकी कामों से फारिग हो चुका होता है, अपार्टमेंट की अंधेरी छत पर चला आता है। कुछ देर वो यहाँ ठहरता है - पर अकेला नहीं! ठंडी हवा, टिम टिम सितारे, अधूरा-पूरा चांद, रूमानी तन्हाई और वो उसके साथ होती है - सिम!
उसका नाम इमरान ने ऐसे जाना कि एक रोज़ जैसे ही बस रुकी और वो अपने बेटे को चढ़ाने ही जा रही थी कि उसके बंगले की पोर्ट से, बरमूड़ा-बनियान पहने एक आदमी ने उसे आवाज़ लगाई थी,
''अरे सिम, ये प्रोजेक्ट तो रह ही गया मिकी का!''
वो दौड़ लगाकर गई थी गोकि इमरान को यहाँ से जाने की कभी जल्दी नहीं रहती। वो पूरे पांच मिनिट भी बस रोके रह सकता था उसके इन्तज़ार में; पर वो सेकेण्ड्स में ही वापिस आ गई थी। हाँफती-दौड़ती तेज़ साँसों और सुर्ख गुलाबी हो आये चेहरे के साथ, थर्माकोल सीट पर बना प्रोजेक्ट उसने बस के गेट पर खड़े अब्बास चचा को पकड़ा दिया। ...उसका दिल किया, ड्राइवर की नौकरी छोडकर कंडक्टर हो जाये!
तो सिम!
वैसे उसका नाम शायद साँची है पर अगर उसका शौहर उसे 'सिम' पुकारता है तो वो भी उसे 'सिम' ही कहेगा।
शनिवार की रात के आठ-साढ़े आठ बजे रहे हैं। वो और चचा ऑटो लौटाकर घर को लौट रहे हैं। उनके अपार्टमेंट के बाहर दस-पन्द्रह लोग जमा थे। चार-पाँच रौबदार जो बीच में खड़े थे, वे दूर से ही पहचाने जा सकते थे। इमरान-अब्बास चचा समझ गये, कल फिर सलीम भाई की कोई रैली, धरना या प्रदर्शन है।
''तो तुम ये कह रहे हो कि तुम कल की रैली में अपना ऑटो नहीं लगाओगे?''
एक गरीब से तल्ख आवाज़ में पूछा जा रहा है।
''क्यों जाऊँ मैं सलीम भाई के प्रोग्रामों में रोज़-रोज़ अपना काम छोड़कर?''
''काम छोड़ते हो तो बदले में क्या कुछ मिलता नहीं है?''
''क्या मिलता है, पूड़ी-आलू का पैकेट और सौ रुपट्टी?''
''जुबान सम्हाल वर्ना...''
पीछे खड़े मुग्गे पहलवान लड़के का हाथ अपनी कमर तक जाकर रुक गया। अंदर ज़रूर कोई खतरनाक हथियार है; तमाशबीन इधर-उधर खिसक लिये। छुटभैया लीडर ने लड़के को इशारा किया; पहलवान दो कदम पीछे हो गया, नेता दो कदम आगे। अब लीडर ने सामने वाले को नज़र भर परखा। उसे रत्ती भर भी नहीं डराया जा सका है, जबकि सामने चार मुग्गे गुण्डे हैं। वो नई उमर का लड़का है - मेहनत से कसी मुश्कें, मुफलिसी की आँच में तपी-खुरदुरी शक्ल। कंधे पर से शर्ट फटी, पैर में इतनी घिसी चप्पल कि न होती तो भी खास फर्क नहीं पड़ता। छोटे लीडर ने सबक याद किया - सलीम भाईजान कहते हैं, नंगे से कभी न लड़ो, नंगे को पुटियाओ! ...आज मौका है अपनी काबिलियत साबित करने का।
''लगता है सलीम भाई के सब एहसान भूल बैठे हो मियाँ?'' नेता-आदमी ने अपनी आवाज़ मीठे तंज़ के माकूल बनाकर कहा।
''क्या एहसान? ये फ्लैट जो हमें दिलवाये हैं उन्होंने, गर्वमेंट ने इनका दाम इतना कम रखा था कि मुफ्त समझिए!''
''पाकिस्तान से चले आ रहे हो मियाँ कि यहीं के हो? इस मुल्क में मुसलमानों को मु$फ्त में मिलता क्या है?''
''सौ $फीसदी यहीं का हूँ और यहाँ का होने की सौ फीसदी कीमत भी चुकाता रहा हूँ। एक लाख का फ्लैट तीन लाख में दिलवाया है सलीम भाई ने!''
''तो भी दिलवाया तो हैं! गिरीश शर्मा के सर्पोटरों के तो पैसे भी गये और फ्लैट भी न मिले। अल्लाह का शुक्रिया अदा करो कि अपने लीडर सलीम भाई हैं। उनका हाथ बिरादरी की पीठ पर न हो तो कहीं के न रहें हम-तुम! अभी फ्लैट के मालिक कहलाते हो, पुलिस परेशान नहीं करती, दूसरे ग्रुप वाले तुम्हारे ऑटो पर वसूली नहीं लगा पाते। अगर सलीम भाई न हों तो तुम लोगों को कौन बचायेगा गुण्डों, पुलिस और पॉलिटिक्स से? इज्जत-आबरू से ही ज़िन्दगी बसर करना चाहते हो ना?'' - नेता ने गरीब नौजवान के कंधे पर हाथ रख दिया।
सबसे कमज़ोर नस! कसी मुश्कों वाला नौजवान ढीला पड़ गया।
''कल कै बजे लगाना है ऑटो?''
इमरान-अब्बास चचा इन भाई-लोगों से कतराकर गुज़र जाना चाहते हैं, पर बाज-नज़र से परिन्दे बच सकते हैं भला??
''अब्बास, कल रैली में तुम दोनों के ऑटो लग जायें!''
''पर हम दोनों तो किराये के ऑटो ...हुज़ूर से क्या छिपा है?''
''ठीक है, ठीक है, ऑटो न लाओगे, खुद तो आओगे ना?'' - पान की पीक सड़क पर फेंकते हुए नेता-हुज़ूर ने कहा ...लहू की बूँदों जैसे थूक-पीक से सड़क रच गई।
''ज़रूर! ज़रूर! चलते हैं; सलाम।''
दोनों जल्दी से अपार्टमेंट के भीतर चले आये।
''आप तो जायेंगे?'' - सीढिय़ाँ चढ़ते इमरान ने पूछा।
''तो और क्या करूँगा मैं बूढ़ा इतवार को घर अकेले पड़े-पड़े; तुम्हारी चची तो आज आधी रात से उठकर कुछ पकाने लगेगी और कल सबेरे ही निकल जायेगी  बेटे से मिलने। ज़रूर गोश्त खरीद भी लाई होगी अब तक तो। पूछे कोई इस पगली से, जिसके ढाबों पर दिन-रात लज़ीज़ खुशबुयें उड़ती हैं, मँहगे-से-मँहगा गोश्त पकता है, उस बड़े आदमी के लिए ये मरी अपना पेट काट-काटकर चीज़ें क्यों ले जाती है? पागल औरत!''
''नहीं चचा, पागल माँ!''
इमरान ने कहा तो चचा के पास अब इस बारे मे कहने को कुछ और न बचा।
''तुम तो रैली में जाओगे नहीं, मैं जानता हूँ। पिछली बार, पता है वे पूछ रहे थे! ...उनकी गिनती में न आओ मियाँ!''
''एक जान है चचा, चाहे अल्लाह ले ले, चाहे इंसान; इससे कम मुसीबतों को मैं गिनता नहीं!''
इमरान अपने फ्लैट में चला गया। चचा चची से कह रहे हैं,
''ये इत्ता शानदार आदमी! इत्ता पढ़ा-लिखा! इत्ता काबिल! ये इससे बहुत बेहतर ज़िन्दगी के काबिल है - बेहतर काम! बेहतर घर! बेहतर बीवी!''
कहते-कहते चचा को सिम याद आई और वे पोपले मुँह से मुस्कुरा उठे। चची भुन गयीं,
''सब मर्द एक-से होते हैं! नई ज़िन्दगी के नाम पर इन्हें सबसे पहले नई बीवी चाहिये!''
बुजुर्गवार हो हो कर हँसने लगे। चची भी हँसने लगीं। ...चची भी जानती हैं, इमरान के बाहर शहनाज़ है, भीतर-सिम!
कल इतवार है:
- अलसुबह नहीं जागना है।
- बस नहीं चलानी है।
- सिम को नहीं देख पाना है।
वो जैसे भरपाई कर लेना चाहता है। हवा कितनी नर्म है! धूल कितनी खुशबूदार! तारे कितने चमकीले हैं; और सिम कितनी $खूबसूरत है!! ये मार्च के आखिरी दिन हैं; इधर बीच में दो हफ्ते स्कूल बंद रहा था। वो उसे देखने के लिए हर एक दिन तड़पकर रह गया था। एक दफा ऑटो उस रास्ते पर ले भी गया था, बिना किसी सवारी के; पर वो नज़र ही नहीं आई! अभी पिछले हफ्ते स्कूल फिर खुला, तब कहीं जाकर उसकी जान में जान आई। लेकिन अप्रैल के बाद स्कूल फिर बंद हो जाना है... गर्मियों की जानलेवा छुट्टियाँ!!
उसने सिर के पीछे हाथ टिकाये और आँखें मूँद लीं। वही पहचानी-बहुत पहचानी डियो खुशबू जो बस के दरवाज़े से उसकी सीट तक हर दिन उड़ आती है, हवा में उतरने लगी। इमरान आँखें बंद किये गहरी साँसें खींच रहा है। सिम पास आकर लेटगई है। उसके सीने पर सिर टिका लिया है। वो उसके रेशमी बालों में उँगलियाँ फिराने लगा है,
''सिम!''
''हूँ!''
''अप्रैल के बाद तुम बहुत दिनों तक नहीं मिलोगी ना? मैं मर जाऊंगा सिम!'' - उसने अपनी गहराईयों से कहा।
''मिलूँगी क्यों नहीं? हर दिन मिलूँगी'' - उसने उसके सीने पर अपना चेहरा टिका लिया, इतने पास कि उसकी साँसें इमरान को अपनी साँसों में आ मिलती महसूस होने लगीं।
''कहाँ?''
''यहाँ!!'' - उसने शरमाकर उसके सीने में अपना चेहरा छिपा लिया।
इमरान ने उसे बाँहों में भींच लिया, इतनी शिद्दत से जैसे अपने भीतर ही उतार लेगा; फिर करवट लेकर उसे धूल रचे फर्श पर लिटा दिया। नर्म हवा और महकती धूल के बीच वो उसके कान की बाली को चूमने ही जा रहा था कि - बाल्टियों की खडख़ड़ाहट, डगमगाती रोशनी और एक हाँफती-थकती बुजुर्गाना आवाज़ अंधेरी छत पर चली आई है,
''हहअ! इमरान मियाँ, क्या यहां हो? हहअ!''
अब्बास चचा सीढिय़ों पर सेल फोन की मामूली टार्च रोशनी में दो खाली बाल्टियाँ खड़काते चले आ रहे थे; और साथ ही, उसका नाम लेकर ज़ोर-ज़ोर से पुकारे जा रहे थे।
''जी!'' वो एक लम्हें को झुँझलाया; कैसी घिस-घिस ज़िन्दगी है साली, किसी खूबसूरत ख्याल को सोचने तक की फुर्सत-मौका नहीं देती।
आगोश में लरज़ती सिम मुस्कुराकर हवा हो गई; और वो आपे में लौट आया।
''आप पानी भरने आये हैं यहाँ, इस वक्त? लाइये, मैं भरे देता हूँ।''
इमरान ने चचा से दोनों बड़ी-बड़ी बाल्टियाँ लेकर टंकी में डुबोयीं और ताकत से खींच ली। पल को, चचा को वाहिद याद हो आया।
''पानी भरने नहीं आ रहा था, मैं तो तुम्हें बुलाने आ रहा था। तुम्हारी बीवी तुम्हें यहाँ-वहाँ तलाश रही है। रात के साढ़े ग्यारह बज रहे हैं और जनाब, बिना घर में बताये, बिना सेल फोन लिए यहाँ आराम फरमा रहे हैं! मैंने यही कहा नाज़ से भी, मुल्ले की दौड़ मस्जिद तक; सिवाय छत के, इमरान मियाँ और कहीं नहीं जा सकते इस वक्त! मैं बुलाये लाता हूँ। बस, छत का नाम सुनते ही तुम्हारी चची ने ये इतने बड़े-बड़े बाल्टे पकड़ा दिये। कहने लगीं, छत पर जा ही रहे हैं तो इन्हें भी भरते लाईये। पूरे-पूरे न बनें तो आधे-आधे ही सही। मैंने कहा, बेगम जब मैं ऊपर जाने लगूँ, तब भी यही कहना कि वाहिद के अब्बू, ऊपर तो जा ही रहे हैं, तो वहाँ से दो-एक बादल भेज दीजियेगा खिड़की के रास्ते, सब बाल्टे खाली पड़े हैं!''
बूढ़े ने खुद की बात पर ज़ोर का ठहाका लगाया। आजकल चचा बात-बेबात यूँ ही हँसा करते हैं, ज़िन्दगी जैसे कोई दिलचस्प चुटकुला बन गई हो उनके लिए। वे कुछ वक्त तक अकेले ही हँसते रहे। फिर बुजुर्गवार हँसते-हँसते आँखों में उतर आये आँसू पोंछते हुए, भरी बाल्टियों को उठाने की कोशिश की, पर लडख़ड़ा गये। ...ओ वाहिद!
''आप जाईये, मैं लेता आऊँगा।''
''क्यों, अभी तक रात की चाय नहीं हुई जो रुकोगे यहाँ?'' - बड़े मियाँ जवानी के दिनों वाली मुस्कुराहट में मुस्कुराये। वो झेंप गया,
''आप ये चाय-वाय क्या कहते रहते हैं?''
''तुम जिससे ताज़ादम हो जाते हो, उस एहसास को मैं चाय कहता हूँ।'' फिर उसकी पीठ पर एक धौल जमाई,
''कभी हम भी तुम्हारी उमर के थे बच्चे!''
दोनों सीढिय़ाँ उतर रहे हैं।
''उन्होंने तुम्हारा नंबर चाहा है।''
''किन्होंने?''
''मेरी अम्मी ने!'' चचा इमरान की हालत के मज़े लेते हुए फिर मुस्कुराये।
''क्या? कब? मैं कहाँ था जब आपकी बात हो रही थी? आपने दे दिया?''
आखिरी सवाल करते-करते उसकी आवाज़ में हद बेचैनी की थरथराहट उतर आई। वो अपनी जगह रुका रह गया और बाल्टियों से पानी छलक गया।
''अरे मियाँ, एक साँस में सौ सवाल करोगे क्या? बताता हूँ, पर बताने की फीस लगती है! शाही  ज़मील में चिकन टिक्का खिलाना पड़ेगा। क्या कहते हो?''
''चिकन टिक्का, चिकन कोरमा, चिकन बिरयानी जो आप चाहें!''
''घर के लिए भी पैक करवाऊँगा, सोच लो!''
''अब जान मत लीजिए चचा!''
''अच्छा भई बताता हूँ। न बताऊँ गर तो तुम पूरा पानी यहीं छलकाये देते हो।'' वे खुश होकर बताने लगे,
''दरअसल तुम्हारी सिम कल  पेरेन्ट्स मीट में आई थी। मुझे कुछ एडवांस लेना था, सो मैं भी कल स्कूल गया था। मुझे देखते ही पहचान गयीं, मेरी अम्मी जो ठहरीं!'' - वे हँसने लगे। इमरान के दिल का हाल उसके चेहरे पर उतर आया; उससे मुस्कुराया तक न गया।
''कहने लगीं, आप अपना सेलफोन नंबर दे दीजिए। कभी आपकी बस लेट होती है तो पूछ तो सकते हैं।''
''फिर?''
''फिर क्या? मैंने कही, मोहतरमा, मैं तो कंडक्टर भर हूँ। नंबर लेना ही है तो ड्राइवर साहब का लीजिए।''
''फिर?''
''फिर क्या? कुछ नहीं! नोट करा दिया अपन ने तुम्हारा नंबर।''
''उनका नंबर ले लिया?'' - वो ऐसे उतावला हो उठा जैसे करोड़ की लॉटरी में अपना टिकिट खुलने में सिर्फ एक नंबर की कमी रह गई हो।
''अमाँ, तुम भी कमाल के सवाल करते हो; क्या कहकर लेता मैं उनका नंबर? फिर तुम्हारा हाल छिपा है क्या मुझसे? कुछ नहीं तो उन्हें मैसेज़ ही करने लगोगे वक्त-बेवक्त। बात तो करोगे ही - जरूर! तुम्हारी नौकरी तो जायेगी ही खाँ, ये खाकसार भी इस उमर में नई रोज़ी तलाशता नज़र आयेगा। इश्क कितनी खतरनाक शै है, ये जानने में ही जवानी गँवाई है अपन ने।''
इमरान की सूरत ऐसी हो आई जैसे करोड़ की लॉटरी खुलने से सिर्फ एक नंबर चूक गया हो टिकिट उसका।
''नाज़ थोड़ी साँवली सही, आम सूरत सही, पर ये तो देखो, कित्ती खिदमतगार बीवी है! कोशिश करो कि तुम्हें उससे मोहब्बत हो जाये।''
''कोशिश करने से अगर...'' वो कहते-कहते उदास हो गया; और वापिस, भरे-वज़नदार बाल्टे उठाकर चल दिया।
चचा ने एक गहरी साँस लेकर छोड़ी,
''इस राह पर और आगे न बढऩा इमरान। ये राह नहीं, आग का दरिया है। अपना सबकुछ गँवा बैठोगे।''
''अरे चचा, आप क्या कह रहे हैं! मेरे दिल में और कोई नहीं है सिवाय नाज़ के।''
''आमीन!''
चचा ने उसके सिर पर हाथ फेरा और बिना मुस्कुराये आगे बढ़ गये। उसने आँखें बंद कर लीं - लगा, सिम ने पीछे से उसे बाँहों में भर लिया है ...उफ! जान लोगी तुम मेरी!!
अगले तीन दिनों तक लगातार वो बस को पाँच-आठ मिनिट लेट ले जाता रहा था। सिम का उसके सेलफोन पर कोई कॉल नहीं आया; पर चौथे रोज़ जब उसने बस पूरे बारह मिनिट लेट कर दी, तो एक अनजान नंबर स्क्रीन पर रोशन हुआ, बस के डेसबोर्ड पर रखा उसका सेलफोन बजने लगा,
अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफर के हम हैं
रुख हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं
''हलो।''
कितनी मीठी आवाज़ है; इमरान को विविध भारती की उद्घोषिकाओं की आवाज़ें याद हो आयीं।
''जी।''
''मैं हार्दिक की मम्मी बोल रही हूँ। आज बस लेट है क्या?''
''नहीं, बस पहुँच ही रहा हूँ।''
''ओ.के.।''
उधर से कॉल कट कर दी गई। इमरान ने बहुत ज़ोर डाला दिमाग पर, तब वो दुरुस्त ड्राइविंग कर पाया।
अब उसके पास सिम का सेलफोन नंबर आ गया था। हज़ार  बार उसके दिल ने कहा, कॉल कर, मैसेज़ भेज; पर हज़ार बार वो स्क्रीन पर उसका नंबर चूम कर रह गया।
रात ठीक से सो नहीं पाया। वो जानता है, अब शायद खुद को और रोक नहीं पायेगा उस नंबर पर कॉल करने से। आज उसने अपना सेलफोन चलती बस से बाहर फेंक दिया। ...वो सिम को तंग नहीं करना चाहता, न अपनी मोहब्बत को ज़लील!
- अरे! पर आज तो सिम बच्चे को छोडऩे आई ही नहीं!
बच्चे को उसके पापा बस में चढ़ा रहे हैं। इमरान डुपलेक्स पर नज़र डालता है - सिम कहीं नहीं!! अब से पहले तो कभी ऐसा नहीं हुआ।
स्कूल में उसका मन बेचैन रहा।
लौटते में खासा बेचैन; क्या वो कहीं गयी थी सुबह? पर अब तो ज़रूर आयेगी बच्चे को लेने! कहीं तबीयत तो? नहीं! नहीं! ऐसा नहीं सोचना चाहिए। ठीक ही होगी वो।
वो खुद को दिलासा भी दे रहा है और बेचैन भी। ...और वो बच्चे को लेने खड़ी है। चेहरा ज़र्द, आँखें थकीं, कंधे ढले-कुछ बीमार-बीमार-सी दिख रही है। उसे यों देख इमरान का चेहरा उतर गया।
क्या हुआ है? डॉक्टर को दिखाया? यहाँ धूप में क्यों आ खड़ी हुईं; बच्चा इतना भी छोटा नहीं कि बीस कदम अकेले चलकर घर न पहुंच सके! ज़्यादा काम न करना! आराम करो सिम, प्लीज़!
कितना कुछ कहना चाह रहा था वो, पर कहता किस हक से? बस की खिड़की से दो परेशान आँखें देखती रहीं अपनी सिम को लौट जाते हुए। - ज़रूर ही मामूली हरारत रही होगी या हल्की थकान, बुखार जैसा कुछ! कल आऊँगा तो एकदम ठीक मिलेगी। अपने को बहलाते हुए उसने, न्यूट्र्ल को गियर में बदला और बस आगे बढ़ चली।
नहीं! थकान, हरारत या मौसमी बुखार नहीं था ये। आगे हर दिन वो और ज़र्द दिखी - और और थकी हुई। कभी बच्चे को छोडऩे आती, कभी बच्चा अपने पापा के साथ खड़ा दिखता। लेने वो हमेशा रहती, पर खड़ी नहीं - कभी टिकी, कभी अपना सिर थामे।
क्या हुआ है उसे?
इमरान का दिल उबलने लगा है।
ऑटो यूनियन की मीटिंग चल रही है - कलेक्टर गाइड लाइन के खिलाफ। नया फरमान जारी किया है ज़िला प्रशासन ने। हर ऑटो वाले को वर्दी पहननी होगी और मीटर के हिसाब से किराया लेना होगा। उधर ऑटो वाले अड़े हैं पहले मीटर के हिसाब वाला किराया बढ़ाइये, उधर कलेक्टर साहब अड़े हैं, पहले हमारी बनाई नई गाइड लाइन अमल में लाइये, तब विचार करेंगे। मीडिया ने मामले को खूब तूल दिया है। यहाँ तक कि आज की इस ऑटो चालक यूनियन की बैठक का भी भारी मीडिया कवरेज़ हो रहा है। यूनियन के प्रांतीय अध्यक्ष गिरीश शर्मा - जैसे ऑटो चालकों के नहीं बल्कि मीडिया, मुख्यमंत्री और अपनी पार्टी के टिकिट वितरक आलाकमान से मुखातिब हैं,
''.दिन के बारह बजे हों या रात के दो; मुसाफिरों को उनकी मंज़िल तक पहुँचाना हमारा फर्ज़ है। हम न हों तो जनता को कितनी परेशानी हो, कितने अपराध हों पैदल चलने वालों के साथ! हम उनके सेवक ही नहीं, रक्षक भी हैं! और आप देखिए! देखिए हमारी दुर्दशा! सरकार हमारे लिए भला करती ही क्या है? पुलिस हमें अलग परेशान करती है, गुण्डे अलग! हम अनाथ बच्चे के जैसे हो गये हैं, जिसके मन में आता है, हमें चपतियाता चला जाता है!''
खचाखच भरे हाल के दिल की बात; तालियाँ गूँज उठीं हर ओर से। एक पुराना ऑटोवाला नये को बता रहा है,
''तुम अपने गिरीश भाई को नहीं जानते? इनके इक्कीस ऑटो किराये पर चलते हैं, और वो तो इन्होंने यों ही खरीद लिये थे, फकत एक घण्टे में - जिस दिन यूनियन का चुनाव होना था। बाकी, भाई हैं बहुत बड़े आदमी! न जाने कित्ते डम्पर और जेसीबियाँ हैं! पेट्रोल पंप, क्रेशर... - बीएमसी के अध्यक्ष जो रह चुके हैं। लेकिन तुम ज़िन्दा मिसाल देखो, करोड़पति होकर भी, खुद को हममें से एक बताते हैं गिरीश भाई!''
तालियों पर दिल में मुग्ध नेता ने आवाज़ में दूना जोश भरते हुए कहा,
''आप किसी भी ऑटो वाले के घर जाकर देख आइये, वे कितनी खस्ताहाल झुग्गियों में रहते हैं! न उनके बच्चों को बेहतर शिक्षा है न पौष्टिक आहार। और जो रूखी-सूखी रोटी हमारे भाई अपने बच्चों को खिलाते हैं, उस थाली में भी लात मार देना चाहते हैं इस ज़िले के हुक्मरान! पेट्रोल कितना मँहगा हुआ है, तब भी ज़माने भर पहले के रेट-किराये पर ऑटो चलवाना चाहते कलेक्टर साहब!! स्टेशन से ईदगाह हिल्स हमारे ऑटो मात्र साठ-पैसठ रुपये में पहुँचाते हैं। अब दस-पाँच रुपये भी न कमाये आदमी तो क्या खुद खाये, क्या बच्चों को खिलाये? अब कलेक्टर साहब कहते हैं मीटर के हिसाब से किराया लो मतलब स्टेशन से ईदगाह हिल्स तक का तीस-पैंतीस रुपये। इसमें तो ऑटो चलाने की लागत ही न निकलेगी! कितने ही भाई हमारे किराये के ऑटो चलाते हैं। कभी सवारी नहीं भी मिलती तो आधा-आधा दिन बोहनी के इंतज़ार में ही बीत जाता है। अब आप ही बताइये, तीस रुपये में ऑटो वाला कैसे तो ऑटो मालिक का किराया चुकायेगा? कैसे पेट्रोल भरवायेगा और कैसे पालेगा अपने बच्चों का पेट?''
फिर तालियाँ! तालियाँ! तालियाँ! मीडिया के कैमरे फ्लैश! फ्लैश! फ्लैश!
नोट्स के पुर्ज़ेज़ेब के हवाले कर, सफल नेता होने के गर्व से दिपदिपाते गिरीश शर्मा बैठ गये हैं; और अब सामने बैठे हुजूम-चालकों में से कोई-कोई उठकर अपनी व्यथा सुनाने लगा है। हर कहानी, हर व्यथा में एक ही बात कि कलेक्टर साब ऑटो वालों के पेट पर लात मार रहे हैं।
एक बूढ़ा, बीमार-सा दिखता ऑटो वाला अपनी बात कहते-कहते रो पड़ा। स्तब्ध सभी ने कहीं से एक गहरी आवाज़ गूँजी, ''मैं कलेक्टर को चाकू मार दूँगा!''
कैमरों के लेंस, माइकों की दिशायें पलटीं - कौन बोला? कौन?? वे उतावले हैं एक सच्चाई को सनसनी बना देने के लिए:
- क्या कलेक्टर के खिलाफ बोलने वाला हिस्ट्रीशीटर है?
- क्या वो वाकई कर सकता है कलेक्टर भोपाल पर हमला?
- क्यों मजबूर हुआ एक ऑटोवाला कलेक्टर पर उठाने को चाकू?
...भूखी मीडिया किसी मादा भेडि़ए की तरह पैनी आँखों से खोज रही है - शिकार मेमना!
अब्बास चचा ने अपने पूरे ज़ोर से उसकी कलाई दबा ली,
''खबरदार जो सिर उठाया या मुँह से आवाज़ निकाली! पागल आदमी अपने बीवी-बच्चों का ख्याल कर मुँह बंद रख! अब तक कोई नहीं जान सका है कि हममें से बोला कौन है। अल्लाह के वास्ते चुप रहो इमरान मियाँ!''
दो-तीन मिनिट्स एक मीडियाकर्मी भीड़ को देख अटकलें लगाते रहे, तभी मंच से नेताजी ने पुन: सबका अटेंशन खींच लिया, ''देख रहे हैं आप! देख रहे हैं हमारी तकलीफ! हमारा कष्ट जो अब चरम पर पहुँच गया है! मैं कलेक्टर साहब को दो दिन की मोहलत देता हूँ, अगर हमारी माँग नहीं मानी गई तो अपने पार्टी कार्यकर्ताओं और अपने ऑटो चालक यूनियन के भाईयों के साथ कलेक्ट्रेट के सामने धरने पर बैठूँगा और तब भी अगर उन्होंने हमारी गुहार नहीं सुनी तो मैं आमरण अनशन करूँगा!''
तालियों की गडग़ड़ाहट ऊँची और ऊँची होती जा रही हैं। क्षणजीवी मीडिया फिर गिरीश शर्मा का हो गया है जो इस समय अपनी जोश भरी आवाज़ में दुष्यन्त की पंक्तियाँ दोहरा रहे हैं,
''हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए।
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए।''
इधर मौका पाकर अब्बास चचा इमरान का हाथ पकड़े बाहर चले आये हैं ...जैसे गलत काम करते पकड़ में आये अपने कमउम्र बेटे की कलाई पकड़े कोई गुस्साया बाप चला जा रहा हो।
''क्यों खाँ? क्यों बिल्कुल ही दीवाने हुए जा रहे हो? कुछ होश भी था तुम्हें कि नहीं? न तुम गिरीश भाई हो न सलीम भाई! और अगर पॉलिटिक्स में ही न जाना हो तो बड़े लोगों के खिलाफ मुँह न खोलना चाहिए! गिरीश भाई लाख कोस लें कलेक्टर को, किसी की क्या मज़ाल कि उन पर हाथ डाले; तुम बच्चे, आज-के-आज धर लिए जाते और थाने में पता है क्या होता? कलेक्टर खास तौर पर आता तुम्हारी हड्डियाँ तोडऩे! अरे, ये मामला आज नहीं तो कल सुलट ही जायेगा। तुम क्या समझते हो कि गिरीश भाई की पॉलिटिक्स को चमकने देंगे सलीम भाई वो भी अपने ही विधानसभा क्षेत्र में, अपने ही वोट बैंक के बूते?? आज के अखबार में क्या कहा है सलीम भाई ने सो भूल गये? देखना, वे आज के आज कलेक्टर के पास जायेंगे ज्ञापन लेकर। कलेक्टर माँगें तो मान ही लेगा, चाय-नाश्ता भी करायेगा और कल अ$खबार में दोनों की हाथ मिलाते फोटू भी छपेगी। ये ऊँची पॉलिटिक्स है मियाँ, हमारी-तुम्हारी समझ में नहीं आयेगी। और हम गरीब, बाल-बच्चेदार लोगों को इस आग से खेलना भी नहीं हैं! ...तुम्हारी समझदारी की तो दुनिया मिसाल देती है; तुम ऐसी वाहियात बात कह जाओगे, मैंने कभी ख्वाब में भी न सोचा था! तुम तो वाहिद से ज़्यादा...'' - गुस्से में हाँफता बूढ़ा चुप हो गया। इमरान का चेहरा, जिस्म, साँसें - पूरा वजूद उदास है।
चचा जैसे बात की तह तक पहुँचना चाहते हैं,
''क्या बात है, आजकल बड़े उखड़े-उखड़े रहते हो? नाज़ भी तुम्हारी चची को यही बता रही थी कि तुम खोये-खोये, चुप-चुप रहने लगे हो - घर आते ही खाना खाकर सीधे छत पर चले जाते हो और परसों तो सो भी वहीं गये थे। बेचारी बुलाने गई तो चीख पड़े उस पर... और आज तुम कलेक्टर को चाकू मार देने की बात कह गये! तुम्हें हुआ क्या है?''
आखिर चुप्पी तोड़ी उसने,
''पता नहीं चचा, उसे क्या हुआ है? उसके बारे में सोचता हूँ तो दिल घबराने लगता है आजकल! हर रोज़ कुछ और ज़र्द, कुछ और बीमार नज़र आने लगी है। और मैं कितना बेबस हूँ कि उसके हालात भी नहीं जान सकता!'' - उसने सड़क पर पड़े पत्थर को ज़ोर की ठोकर मारी, पत्थर दूर जा गिरा।
''ओह! तो ये बात है। मैं भी कैसा बेवकूफ हूँ, सब जानकर भी, समझ न सका। ...चलो, तुम्हारी सिम के लिए दुआ कर आयें। वो तो ठीक हो ही जायेगी, तुम भी बेहतर महसूस करोगे।''
बड़ी झील की लहरें दूर-दूर तक समन्दर-सा रचती हैं। समन्दर में भटके मुसाफ़िर-जहाज़ों के लिए लाइट हाउस-सी रोशन है शाह अली शाह की दरगाह। ...खौफ जगाते बे-हद पानी, पानी और पानी के बीच ज़िन्दगी को पनाह देती टापू-ज़मीन दरगाह। उसने दुआ की और सिम के नाम का एक धागा खुद की बाँह पर बाँध लिया। ...क्या धागे असर करते हैं? या असर करती हैं धागों में बँधी दुआयें?
आजकल वो फिर ठीक दिखने लगी है - ठीक से बेहतर की ओर। जिस्म भरा-भरा दिखने लगा है माशा अल्लाह! अब पहले-सी कैपरी, जींस या लैगी में नज़र नहीं आती बल्कि ढीले-पूरे सलवार कुर्तों में; और कभी तो नाइटी पर दुपट्टा ओढ़े ही चली आती है बच्चे को छोडऩे। उसके चेहरे की हमेशा वाली चुस्ती ने एक अलग तरह के सुकून की बादामी रंगत ले ली है। दिखने भी खुश लगी है इन दिनों।
- इमरान ने दरगाह पर जाकर चादर चढ़ाई,
''खुश रहे मेरी जान!''
जान - जो हर दिन बदलती-सी जा रही है, और और मोटी... और फिर उसके ढीले कुर्ते में दुपट्टे से भी न छुप सकने वाले उभार को देख इमरान ने जाना।
- अच्छा! तो मोहतरमा प्रेग्नेंट हैं!
उस रात इमरान ने अपनी बीवी को इतना संभालकर प्यार किया जैसे वो काँच की गुडिय़ा हो - हैंडल विद केयर!
सोने से पहले उसके माथे को चूमकर उसने कहा,
''तुम्हारी बड़ी फ़िक्र रहती है मुझे! ऊपरवाला तुम्हें हमेशा खैरियत से रखे।''
बीवी एकदम से चौंक गई,
''किससे बात कर रहे हैं??''
''अँ अ, तुमसे! और यहाँ कौन है?'' - वो बेवजह मुस्कुराया ...शरीर बच्चे की तरह।
फिर ऐसा क्यूँ लगा कि आपकी बाँहों में, मैं नहीं हूँ, कोई और है! -उसने दिल में कहा फिर आँखें मूँदकर बुदबुदाई,
''या अल्लाह रहम!''
दिन-दिन, हर दिन सिम का जिस्म बदलता जा रहा है। दिन के दोनों वक्त इमरान जब उसे देखता है, बाँह के धागे को छूकर दिल में दुआ दोहरता है। दरगाह पर चादर तो बोली ही है। सुनते हैं एक नई ज़िन्दगी को दुनिया में लाते वक्त माँ भी नई ज़िन्दगी पाती है - कभी नहीं भी पाती?
पता नहीं ड्यू डेट कब है?
...और आज वो बच्चे को बस तक छोडऩे नहीं आई। उसकी बजाय एक बूढ़ी औरत थी जो चेहरे-मोहरे से सिम से इस कदर मिलती-जुलती है कि वो जान गया, वे ज़रूर ही सिम की अम्मी हैं।
अब्बास चचा ने उसके दिल का सवाल सिम की अम्मी तक पहुँचा दिया,
''आज बीबीजी नहीं आयीं?''
''वो हॉस्पिटल में एडमिट है।''
''सब खैरियत?''
''पता नहीं! डॉक्टर की बताई डेट निकल चुकी है। आज शाम तक नार्मल डिलेवरी न हो सकी तो ऑपरेशन करने को कह रही हैं डॉक्टर।''
स्टेयरिंग पर से उसकी हथेलियाँ दुआ में उठ गयीं।
अगले पाँच-छह दिन बच्चा स्कूल नहीं गया। शायद घर पर कोई रहा भी नहीं इस बीच। आते-जाते वो घर बंद ही दिखा बस से। इमरान की बेचैनी का आलम ये कि किराने वाले से लड़ा, एक सवारी को आधे रास्ते में ही ऑटो से उतार दिया, शहनाज को डाँटा, बच्चे को थप्पड़ मार दिया; और अंधेरी छत पर जाकर जी भर रो आया। न जाने वो जीती है, न जाने मर गई ... या अल्लाह रहम!
अब्बास चचा कहते हैं, ''अरे खाँ, काये को दुबलियाये जा रहे हो फ़िकर में? आजकल तो ऑपरेशन होना बड़ी मामूली बात है। चलो, तुम्हें इत्ती ही फिकर है तो कल घर ही चलकर हाल पूछ आयेंगे, बच्चे के बहाने; और अगर घर पर कोई न मिला तो पड़ोस में पूछ लेंगे।''
पर कल, हाल पूछने के लिए घर तक जाने की नौबत नहीं आई। बच्चे अगले सबेरे तैयार खड़ा था, अपनी नानी की उँगली थामे।
''सब खैरियत तो है?''- चचा बस से उतरकर खड़े हो गये।
वो सोचने लगा - चचा न होते तो उसका क्या होता? ...बूढ़े उस दीवार की तरह होते हैं जो हमें बचाती है धूप, आँधी और सीधी बरसात से।
पाँच मिनिट में पूरा हाल पूछ-जानकर वे वापिस लौट आये; और बस ने अपनी र$फ्तार ली।
''मुँह मीठा कराओ खाँ! तुम्हारी सिम एकदम भली-चंगी है।''
''क्या ऑपरेशन हुआ?''
''हओ! बेटा हुआ है। कल शाम ही छुट्टी हुई अस्पताल से। दस-पन्द्रह रोज़ में अपने इन्तज़ार में फिर सड़क किनारे खड़ी पाओगे।''
''चचा, आज दोपहर का खाना हम पीरगेट पर खायेंगे।''
''शाही ज़मील में?''
''न, टेस्ट ऑफ हैदराबाद में।''
''तो यों कहो कि पार्टी दे रहे हो!''
वो बस मुस्कुराया - बस में गाना बज रहा है,
अभी साँस लेने की फुर्सत नहीं है
कि तुम मेरी बाँहों में हो
बच्चे को लाने-ले जाने नानी ही खड़ी नज़र आती रहीं और अगले बीस दिनों तक। इक्कीसवें रोज़ पिछले स्टॉप वाला बच्चा पिक करता इमरान लगभग चीख पड़ा,
''अरे चचा, देखो तो वो सिम है! वो सिम है!!''
उसने बिल्कुल नहीं जाना कि बच्चे को बस में चढ़ाते पेरेन्ट्स द्विअर्थी ढंग से मुस्कुराये। चचा ने उसे टोकना चाहा, पर टोका नहीं। इस खुशी में खुटक कौन लगाये! पल में दो सौ कदम की दूरी तय कर गई बस। गाड़ी रोककर वो लगभग दौड़कर नीचे उतरा। सिम नन्हे-नवजात को गोद में लिए थी और अब्बास चचा को कोई हिदायत दे रही थी। वो एकदम से सामने आ खड़ा हुआ उसके - पहली मर्तबा रूबरू!
''कैसी हैं अब आप?'' - उसने भरपूर नज़र डालते हुए पूछा। वो बेहद खूबसूरत लगी उसे... सुबह की पहली हवा के जैसी ताज़ा-पुरसुकून!
''मैं ठीक हूँ।'' - वो अचकचा-सी गई।
अब उसका ध्यान हाल जन्मे बच्चे पर गया - हूबहू सिम!
उसने पैंट की पिछली ज़ेब से पर्स निकालने को हाथ पीछे किया ही था कि नज़र डुपलेक्स की पोर्च में खड़े सिम के शौहर पर पड़ गई, गौर इसी तरफ है। उसका हाथ जहाँ का तहाँ रुका रह गया। अब्बास चचा ने उड़ती चिडिय़ा के पर गिन लिये; झट आगे आ गये।
''आपकी अम्मी से बड़ी जान-पहचान हो गई थी हम लोगों की। हर दिन आपका और बच्चे का ज़िकर किया करती थीं।.. बड़ा प्यारा बच्चा है। अल्लाह इसे लम्बी उमर दे। बिल्कुल आप पर गया है।''
जवाब में वो बंद होठों से मुस्कुराई। इमरान ने उसे पहली बार इतने करीब से देखा है, सो भी मुस्कुराते हुए।
''चलो भई इमरान, देर हो रही है।''
वे बस में लौट आये। बाद में चचा ने उसे डाँटा,
''क्यों खाँ? क्यों बेचारी को मुसीबत में डालने जा रहे थे? तुम तो बच्चे को एक सौ का नोट देकर निकल आते; उसकी पेशी हो जानी थी अपने शौहर के सामने। बेचारी क्या सफाई देती फिर, ज़रा बताओ तो? ...काबू में रखा करो अपना दिल; अगर ज़लील नहीं होने देना चाहते - उसे भी, खुद को भी!''

अपार्टमेंट-छत के घुप्प अंधेरे में अकेला खड़ा वो टिमटिमाती रोशनियों के शहर को देख रहा है:
इसी शहर में पैदा हुआ, यहीं-कहीं गंदी बस्ती में। बहुत सारे भाई-बहनों के बीच खुद को पैबन्द लगे कपड़ों में ही बड़ा होता पाया उसने। अम्मी दिन-रात सिलाई मशीन चलाती थीं - इतनी ज़्यादा कि लगता था कि सिलाई मशीन उनकी ज़िन्दगी नहीं, जिस्म का कोई हिस्सा है। उससे बड़े दो भाई गर्मियों में चुस्की-बरफ ठेला लगाते थे, ठंडों में चाय का। बहनें सिलाई-कढ़ाई में अम्मी की मदद देतीं और दूसरों के घर मेंहदी लगाने जाया करतीं। अब्बू कभी-कभार मिलने आया करते थे वर्ना तो पास के शहर सीहोर में उनकी अपनी एक मुकम्मल ज़िन्दगी थी - मिस्त्रीगिरी, खुद का मकान और बीवी-बच्चे भी। जब अब्बू आते, अम्मी खाट पर नया चादर बिछातीं, घर में गोश्त पकता। अब्बू दो-तीन दिन भीतर वाली झुग्गी में ही रहते पूरा वक्त, अम्मी के साथ - और जाते वक्त अपनी जरूरतों का रोना रोकर ज़रूर ही कुछ रुपये-मदद पुटिया ले जाते अपनी नासमझ, पहली-पुरानी बीवी से। बच्चों के बस्ते-जूते-कपड़े महीनों फटे बने रहें; अब्बू को रुपये देना कभी नहीं छोड़ा अम्मी ने। अब वो पलटकर सोचता है तो महसूसता है, वो अब्बू के लिए अम्मी का प्यार था - खालिस प्यार! नासमझी नहीं - नेकी! फिर अम्मी गुज़र गई। अब्बू ने आना छोड़ दिया। जैसे-तैसे कभी भरपेट, कभी भूखे रहकर वे भाई-बहन पले-बढ़े। पढऩे-लिखने से उसे मोहब्बत थी सो पढ़ गया - एम.ए. उर्दू।
जाना तो सरकारी नौकरी में चाहता था पर कुछ गरीबी, कुछ नसीब! लोन पर ऑटो लिया, फिर घर बसा लिया। पक्की छत-फ्लैट के फेर में ऑटो बिक गया। अब सोचता है, यहाँ से आगे कहीं नहीं जा सकेगा। बच्चे पढ़ जायें। इज्जत से ज़िन्दगी कट जाये और बुढ़ापे के लिए चार पैसे जमा हो जायें। मामूली बस-ड्राइवर की मामूली ज़िन्दगी।
- नहीं! सिम है तो!
उसके भीतर का सबसे बेहतर हिस्सा। अगर उसके वालिद ने उसे अच्छे स्कूल में पढ़ाया होता, किसी ऊँचे इम्तहान में बैठने का मौका-सहूलियत उसे मिली होती तो आज ज़रूर वो एक कामयाब और अमीर आदमी होता और सिम उसकी बीवी होती। सिम!... उसके भीतर का सब अधूरा, सब खूबसूरत अपने आप को एक साँचे में उतार लेता है और वो अपनी बाँहों में सिम को पाता है।
सिम! - एक ऐसी ज़िन्दगी जिसे वो हमेशा ही जीना चाहता है।
- एक ऐसी दुनिया जो उसे बहुत अच्छी लगती है।
- एक ऐसा ख्याल जो अपना होकर भी कभी अपना होगा नहीं।
दिल भर आया उसका। ज़ेब में रूमाल निकालकर आँखें पोंछी; पर आज जैसे साबुत-का-साबुत दिल आँखों के रास्ते बह जायेगा।
कंधे पर एक अपना स्पर्श,
''मेरी अम्मी को याद कर रहे हो खाँ?''
''चचा! आपने आज फिर पी है? ज़रूर चची से गालियाँ खाकर चले आ रहे हैं!'' अपने आँसुओं को बहलाने - या शायद छुपाने - के लिए वो चचा से उन्हीं की बातें करने लगा।
''वो साली क्या गाली देगी मुझे? मैं उसकी चुटिया पकड़ के उसे घर से निकाल दूँगा अभी-के-अभी! यहाँ क्यों पड़ी है मेरे घर में? जब मैं उसकी दवाईयों का खरचा नहीं उठा सकता, तो साली मुझे छोड़कर चली क्यों नहीं जाती? जाये अपने बेटे के घर! वहाँ इज्जत भले न मिले, इलाज तो मिलेगा। और वैसे भी, उसे तो मज़ाज़ है अपनी बेइज्जती करवाने में तभी तो दौड़-दौड़कर जाती है बेटे के ढाबे-घर! तुम्हें एक राज की बात बताऊँ, किसी को बताना नहीं!'' - वे चिल्लाना छोड़कर अचानक फुसफुसाने लगे,
''पिछले हफ्ते जब तुम्हारी चची, अपने नवासों-नवासियों से मिलने गई थी तो उसे आया देख वाहिद की बीवी ने झट वहाँ से डिब्बा हटा दिया। पता है उस डिब्बे में क्या था - चाकलेटें! कम्पनी वाली चॉकलेटें! उसे लगा होगा कि कहीं बुढिय़ा एक-आध चॉकलेट उठाकर मुँह में न डाल ले।''
वे फिर चिल्लाने लगे,
''वहाँ चॉकलेटें भले न मिले, इलाज तो मिलेगा!''
चचा अपने आँसू पोंछते जा रहे हैं और चिल्लाते जा रहे हैं,
''कमीनी औरत, क्यों मेरे साथ पड़ी हुइ है मरने को? चली क्यों नहीं जाती उस बेटे के पास? उस बेटे ...अ...अ, उसका क्या नाम है वाहिद? मेरे लड़के का क्या नाम है?''
''वाहिद उसका नाम है चचा। मैं इमरान हूँ।''
''हैंऐं इमरान?? ओअ, तो ये तुम हो इमरान मियाँ! तुम भी बड़े कमअक्ल हो यार! अरे जिससे तुम्हें इतनी ज़्यादा मोहब्बत है, जो रूह की तरह तुम्हारे भीतर घुसी हुई है... तो ...तो कभी उसे बताओ यार! कभी घुमाने-उमाने ले जाओ उसे ड्राइवर साहब! ये क्या बात हुई कि बस आ गये छत के अंधेरे में और उसकी याद में दो आँसू गिरा गये!''
''आप भी तो वाहिद से इतनी मोहब्बत करते हैं फिर आप क्यों नहीं कभी उसे बताते? क्यों उससे मिलने नहीं जाते?''
''क्योंकि...'' चचा ज़मीन पर बैठ गये, ''क्योंकि अब उसे अपने बूढ़े-बीमार माँ-बाप की ज़रूरत नहीं है। हमें भूख लगती है बेटा, दिन के तीन वक्त! हमसे ज़्यादा काम नहीं लिया जा सकता और हम अक्सर बीमार भी पड़ जाते हैं! इन दो ज़िन्दा बोझों से उन्हें नफरत है!''
चचा रोने लगे हैं, ''दो-दो ढाबों के मालिक साहब को एक मामूली बस-कंडक्टर की मोहब्बत नहीं चाहिए ...नहीं चाहिए!''

यों वक्त बीतता रहा है। इमरान अपने दिल को समझा चुका है कि सिवाय दो वक्त देख पाने के, इस ज़िन्दगी में तो सिम उसके हिस्से में आ ही नहीं सकती!
ज़िन्दगी भर का हिसाब-हिस्सा तय करने वाला इमरान कौन होता है??
हरदिन की तरह बस आकर रुकी। इमरान जानता है, कुछ सेकेण्ड्स को वो सिम को - अपनी ज़िन्दगी के सबसे खूबसूरत हिस्से को- देख पायेगा; चचा को हिदायतें देती उसकी कोयल-आवाज सुन पायेगा; फिर उसे लौट आना होगा, ज़िन्दगी की मामूलियों में - अकेले!
अकेले?
बच्चे की सजी-सँवरी माँ भी उसके साथ ही बस में चढ़ आई,
''चचा, मुझे इसकी टीचर से इसकी पढ़ाई के बारे में कुछ ज़रूरी बात करनी है; वहाँ तक आप लोगों के साथ चली चलती हूँ, लौटते में कोई और साधन कर लूँगी।''
''ज़रूर! ज़रूर! ये तो हमारी खुशक़िस्मती है कि आप हमारे साथ चल रही हैं!''
चचा बेहद खुश। आगे होकर, ड्राइवर के ऐन बगलवाली, बाँयी तरफ की लम्बी सीट झट खाली करवा ली और अपनी हथेली से उसे पोंछ भी दिया। सीट पर छपे गुलाब के फूल जैसे कुछ और खिल गये।
''बैठो बेटा।'' - उन्होंने इमरान को कनखियों से देखते, सिम से मुस्कुराकर कहा।
वो अपने दोनों बच्चों के साथ बैठ गई। सफेद-आसमानी अनारकली सलवार सूट में वो क्या तो गज़ब लग रही है! उसके सूट में जड़े सफेद नग रह-रहकर दमकते हैं जैसे सफेद कमल पर बिखरी पानी-बूंदों में धूप चमकती है। उसके चेहरे पर हल्का मेकअप है। बाल पीछे मोड़कर पिनअप, कुछ लटें माथे से लेकर पीछे गर्दन तक करीने से बिखराई हुयी। एक कलाई में घड़ी, दूसरी में सोने का ब्रेसलेट। कंधे पर सूट से मैच करता डिजायनर बैग। उसके डियो की भीनी खुशबू से माहौल महक उठा है। छोटे बच्चे को उसने खोद में और बड़े को खुद से सटाकर बिठाये है। दोनों बच्चे सफेद फाख्ता जैसे प्यारे हैं। एक नज़र में वो बेहद खुशनुमा, मार्डन और अमीर ज़िन्दगी का मॉडल लग रही है। इमरान तो जैसे भूल ही गया है कि वो कहाँ है? और उसका काम क्या है?
''क्यों इमरान मियाँ, अब तुमसे बस चलेगी कि नहीं?''
चचा ने चुटकी ली; उसने चौंककर बस स्टार्ट की।
स्कूल में बच्चों के साथ सिम उतर गई। बस स्कूल कम्पाउण्ड में बाकी बसों की कतार में खड़ी कर दी गई।
''या अल्लाह!!'' - इमरान ने स्टेयरिंग पर सिर टिका लिया।
''चचा, वो कितने करीब थी और मैं नज़र भर देख भी न सका; देखता तो बस कैसे चलाता!! शाह अली शाह ने एक मौका दिलवाया था, वो भी...!!''
''एक नहीं, दो मौके!''
''दो मौके??'' - उसके जिस्म में नामालूम सनसनी दौड़ गई।
''क्यों अभी वो लौटकर भी तो आयेगी।'' - चचा ने उस्तादों वाली आवाज़ में कहा।
''पर वो तो कह रही थी, वो किसी और साधन से...''
''ज़रूर चली जायेगी, अगर तुम न पूछोगे तो!''
''मतलब!!'' - स्टेयरिंग पर इमरान की हथेलियाँ पसीज गयीं।
दिल अपनी ऊँचाईयों पर धड़क रहा है। लहू में जैसे रफ्तार ही नहीं बची है। अपनी साँसों के लेने-छोडऩे की आवाज़ें तक सुन रहा है हद बेचैन इमरान। एक नज़र स्कूल के गेट पर है, दूसरी घड़ी पर। मिनिट में चार मर्तबा घड़ी की तरफ देख रहा है। दो दफा पेशाब कर आया है, तीन दफा पानी पी चुका है। बगल की बस वाले ड्राइवर ने पूछा भी,
''सब खैरियत है ना इमरान भाई?''
और वो चली आ रही है इमरान की खैरियत सामने स्कूल गेट से - पूरे बत्तीस मिनिटों के बाद। छोटे बच्चे को गोद लिए, कंधे पर बैग टाँगे वो स्कूल कम्पाउण्ड से बाहर चल दी है। पीछे से इमरान ने बस स्टार्ट की,
''यहाँ कोई बात हो तो सम्हाल लेना चचा।''
''बेफ़िकर होकर जाओ बेटा।''
अब बस से उतर चुके चचा बगल वाली बस के ड्राइवर से कह रहे हैं,
''टायरों में हवा बहुत ही कम थी; इमरान मियाँ भरवाने गये हैं। ज़रा बीड़ी तो पिलवाओ श्यामलाल भाई। तुम्हें क्या लगता है अबकी इलेक्शन में कौन जीतेगा, सलीम भाई या गिरीश भाई?''
इधर कम्पाउण्ड के बाहर मुख्य सड़क पर किसी टैक्सी-ऑटो की राह देखती सिम के सामने बस रुकी है,
''आइए, मैं छोड़े देता हूँ।''
''नहीं, मैं चली जाऊँगी।''
उसका छोटा बच्चा रो रहा है और वो परेशान नज़र आ रही है।
''तकल्लुफ न कीजिए; मैं उसी रूट पर जा रहा हूँ। बिल्कुल आपके घर के सामने से गुज़रूँगा। आइये ना प्लीज़!''
''नहीं मैं...'' कहते-कहते वो रुक गई। एक पल को चुप रही। इमरान के लिए ये पल फरिश्तों से मदद मांगने का पल था। शाह अली शाह मदद!
रोते बच्चे, अंगारा हो चली धूप और नज़र की हद तक कोई टैक्सी, ऑटो या बस नज़र न आने के चलते आखिर वो इमरान की बस में चढ़ आई।
...पर!
वो इमरान के बाँयी तरफ की सीट पर नहीं बल्कि पीछे दूर एक सीट पर जा बैठी है। उससे बस आगे नहीं बढ़ी।
''आप यहाँ आगे आकर बैठ जायें। यहाँ पंखा है। आपका बच्चा शायद गर्मी से रो रहा है।''
सिम आगे आकर बैठ गई। बच्चे को कोने पर लगे पंखे के सामने कर दिया। गर्मी से बेहाल बच्चा चुप हो गया; पर ज़रा में फिर रोने लगा।
इमरान ने बस आगे बढ़ाई। एक पल को उसे ख्याल आया, आज सिम उसके साथ है और ये कोई ख्वाब या ख्याल नहीं है
- क्या सच में?? वो मुस्कुराया; फिर सम्हला,
''क्या हुआ है इसे?''
उसने बच्चे के बारे में पूछा जिसे चुप कराने के लिए वो तरह-तरह की कोशिशें कर रही थी।
''इसे अचानक ही तेज़ बुखार हो आया है।''
उसने हिचकियाँ लेते बच्चे के मुँह से पानी की बोतल लगाई; बच्चे ने पानी नहीं पिया।
''आगे, पास ही में एक अच्छा चिल्ड्रन हास्पिटल है। बच्चे को वहाँ दिखा लीजिए।''
''नहीं, मैं बाद में दिखा ले जाऊँगी; अभी आप मुझे घर छोड़ दीजिए।'' - उसकी आवाज़ में बड़ी मासूमियत भरी झिझक थी। इमरान ने कुछ कहा नहीं; अगले मोड़ से बस अस्पताल के रास्ते पर मोड़ दी। तीन-चार मिनिट बाद सामने अस्पताल था। सिम बच्चे को कंधे से चिपकाये उतरने लगी।
''पैसे तो हैं ना?''
न मजहब की दीवार, न अमीरी-गरीबी का फासला, न दो अलग व्यवस्थाओं में होने की विवशता, ...इस वक्त में, ये सवाल इतनी आम और अधिकार भरी आवाज़ में किया गया जैसे किसी शौहर ने अपनी बीवी से कोई मामूली बात पूछी हो।
''हाँ।'' - लफ्ज भर का जवाब देकर वो बस से उतर गई।
अब वो उसका, अस्पताल से लौट आने का इन्तज़ार कर रहा है। साउण्ड सिस्टम में उसने अपनी दिलपसन्द ग़ज़ल डाली है,
रास्ते में वो मिला अच्छा लगा
सूना-सूना रास्ता अच्छा लगा
कितने शिकवे थे मुझे तकदीर से
आज क़िस्मत का लिखा अच्छा लगा
उँगलियाँ लय में गिर-उठ रही हैं; स्टेयरिंग बाँसुरी हो गई है।
आधे घण्टे में वो लौटी। साउण्ड सिस्टम में इस वक्त नज़्म,
कभी यूँ भी तो हो,
दरिया का साहिल हो
पूरे चाँद की रात हो
और तुम आओ
उसने सिस्टम की आवाज़ धीमी कर दी,
''क्या कहा डॉक्टर ने?''
''उन्होंने कहा, टीथिंग की वजह से फीवर आया है, दवा पिला दी है।''
बच्चा उसके कंधे से चिपका सुकून की नींद सो रहा था; इमरान ने देखा, बच्चे के चेहरे का सुकून माँ के चेहरे तक फैल गया है।
बस फिर चल पड़ी है।
पंद्रह मिनिट का रास्ता। पसीजती हथेलियाँ। चढ़ती-उतरती साँसें और होठों तक आ-आकर लौट जाते लफ्ज-रास्ते भर वो चुप रहा। वो तो खैर चुप थी ही। साउण्ड सिस्टम इमरान के दिल का हाल सुनाता रहा,
... जब सामने तुम आ जाते हो,
क्या जानिए क्या हो जाता है
कुछ मिल जाता है, कुछ खो जाता है
न जानिए क्या हो जाता है
सिम का घर आ गया। बस रुकी है। वो उतरने को है,
''आपने बड़ी मदद की आज वर्ना...'' वो मुस्कुराई।
''अरे, कोई बात नहीं!'' - वो भी मुस्कुरा दिया।
वो उतरकर अपने घर को चली गयी। आठ-दस मिनिट बाद वो अपने आप में लौट आया ...पागल!
अगली सुबह फिर वही रोज़ाना वाला रुटीन:
स्कूल बस ड्राइवर इमरान। चार बजे जागना। पाँच बजे से काम पर लग जाना। दो फेरे। पहले राउण्ड में पचास छात्र-छात्रायें। दूसरे में पैंतालीस। बयालीसवें बच्चे को पिक-करने से पहले बढ़ी दिल की धड़कन। वो सामने खड़ी है सिम, राह तकती हुई। साथ में चुस्त-तैयार बच्चा।
बस रुकती है।
बच्चे को चढ़ाती सिम आज कंडक्टर अब्बास चचा को हिदायतें नहीं दे रही है; उसकी झाँकती नज़र ड्राइविंग सीट तक चली आई है। इमरान उसे अपनी ओर देखते हुए देख रहा है, यकीन नहीं कर पा रहा।
वो मुस्कुराकर कह रही है,
''कल के लिए शुक्रिया इमरान साहब!''
- इमरान साहब!!
ये उसे अपनी ज़िन्दगी में मिली सबसे बड़ी इज्जत महसूस हुई है...जैसे ख्वाहिशों वाली ज़िन्दगी ने झुककर आदाब कहा हो। बस चल पड़ी है। इमरान मुस्कुरा रहा है।
... ज़िन्दगी खूबसूरत है!!


13 फरवरी 1980 को मुरैना में जन्मी इंदिरा दांगी की सक्रियता तेज है। वे बहु प्रकाशित है और देशी भाषाओं में पर्याप्त अनुवादित। मजबूत शिल्प,अपनी कमाई भाषा और प्रयोगात्मक साहस उनकी कहानियों में है। पहला संग्रह 'एक सौ पचास प्रेमिकाएं' राजकमल से 2013 में आया है।

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