श्रीनिवास श्रीकान्त की तीन कविताएं

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    दिसम्बर 2013
श्रेणी कविताएं
संस्करण दिसम्बर 2013
लेखक का नाम श्रीनिवास श्रीकान्त







श्रीनिवास श्रीकांत हिन्दी के ऐसे वरिष्ठ कवि और आलोचक हैं जो लगभग पांच दशक से निरंतर लिख रहे हैं। उन्होंने विदेशी लेखकों का न केवल विस्तृत अध्ययन किया है अपितु उनकी महत्वपूर्ण कृतियों की विवेचना भी की है। उनके अब तक पांच कविता संग्रह और दो आलोचनात्मक पुस्तकें - गल्प के रंग और कथा त्रिकोण प्रकाशित हो चुकी हैं। पहाड़ों के कथाकारों की कहानियों का सम्पादित वृहद् संकलन 'कथा में पहाड़' काफी चर्चित रहा है। उनका एक कविता संग्रह प्रकाशनाधीन है। इन दिनों वे देश के कुछ महत्वपूर्ण वरिष्ठ व युवा कवियों पर एक पुस्तक लिखने में व्यस्त हैं। वे हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला में रहते हैं।


देहात के लोग

वे अपने वस्त्र खुद सिलते थे
सफर में जाने से पूर्व
उन्हें नहीं थी गाड़ी की दरकार
वे पैदल चलते
'चलाते चरणदास की बग्घी'
और न कभी थकते

शाम होते ही
जलने लगतीं झिलमिल
दूर से दिखतीं अंधेरे में
उनकी लालटेनी रोशनियाँ
समय  पर निपटा लेते
वे अपने सभी काम
     देहात के पुराने लोग

वे खुद बनाते थे
अपने हल
अपने बैलों को भी
            सतत श्रम के बाद
प्यार से थे नहलाते
सहलाते थे उनके ज़ख्म
साफ रखते उनकी त्वचा
समय पर चारा परोसते उन्हें
           देहात के वे पुराने लोग

वे खुद बनाते थे अपने मकान
मिट्टी, पत्थर, लकड़ी
गोबर की सेज में सीज़न की हुई
बनाते दूर के खेतों के निकट
घास की दो-घरी
छत भी बनाते थे पत्तों की
छक कर वे खाते थे
मृदु भोजन
मक्खन, छाछ व दूध के साथ
        बीमार भी कभी कभी होते थे
        देहात के पुराने लोग।।

कलमी बाँस का पौधा

कितना नायाब है
कलमी बाँस का वह पौधा
विजन वन में
उसकी रोयेदार चन्द कलगियाँ
चमक रहीं। सुब्ह के सूर्य में
आसपास है अनन्त आकाश

वह डोल रहा दूब के गलीचे पर
गर्व से सुसज्जित खड़ा है
          पहाड़ी धार से आती
                        धूप में

उजलायी है उसकी छवि
दिए हैं कलात्मक अँधेरे ने
उसे पेन्सिल शेड
वह लग रहा किसी चतुर चित्रकार का
एक सजीव लयबद्ध छवि बिम्ब

एक परिन्दे ने की है डुपडुप
दूसरे ने टीं वीं टुट टुट
तीसरे ने अपनी हुम हुम

गूँज रही वन में दूर दूर तक
झिंगुरों की कीरवाणी

मुझे लगा सबकुछ लयबद्ध

सरकण्डे
कलमी बाँस के
डोलते रहे देर तक हवा में।।

शिल्पी

शिल्पी और उसका हथकरघा
दोनों मिलजुलकर
बुन रहे पहाड़ी ऊन की/एक सुन्दरचादर

बुना जा रहा तानाबाना, बेलबूट
                     संगसंग बहुरंगी

कुटीर के बाहर
        थके हुए वृक्ष के पत्तों पर
प्रहार करती गर्दीलीहवा
पर वे नहीं हो रहे उत्तेजित
थका हुआ लग रहा है मौसम भी

सुनायी नहीं दे रही/वो पहले कीसी
मधुमक्खियों की गुनगुन
महक भी नहीं है हवा में
                 जंगली फूलों की
कशमल, कूजो, करौंदा
सब कट गयीं/उनको वहन करती
                            झाडिय़ाँ
पड़ोस में बड़े शहर के लिए
बनायी जा रही/एक पक्की सड़क
लगे हैं कंकरीट के ढेर
कुटीर के आसपास

इन सबसे अनजान
शिल्पी और उसका करघा
कर रहे लगातार संघर्ष

विलम्बित चल रहा काम
कर्मठ गा रहा अपनी भाषा में
एक मधुर लोकगीत/फूलों के मौसम का
                        करुणा से भरा
खट...खट...खट
चल रहा हथकरघा
आवाज़ का सर्प/रेंग कर चुप हो जाता
कुछ दूर तक
गूँजने लगता/चिमचिम चिमचिम
पाश्र्व में झिंगुरों का
               समवेत स्वर
अकेलेपन को/और गाढ़ा करता।।

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