कश्मीर की अनसुलझी पहेलियों का एक मुकम्मल दस्तावेज

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    सितम्बर - अक्टूबर : 2020
श्रेणी कश्मीर की अनसुलझी पहेलियों का एक मुकम्मल दस्तावेज
संस्करण सितम्बर - अक्टूबर : 2020
लेखक का नाम रमेश अनुपम





किताबें

कश्मीर और कश्मीरी पंडित-अशोक कुमार पाण्डेय

 

 

       घाटी में मात्र 4 प्रतिशत के आस-पास आबादी वाले कश्मीरी पंडितों की मानसिक बुनावट के बारे में रूककर थोड़ा सोच लेना बेहतर होगा। हमने देखा है कि मुग़लकाल में पहली बाहरी शासन के आने के साथ ही यह संयोग पैदा हुआ कि सधर्मा होने के बावजूद मुग़लों ने स्थानीय मुसलमानों पर भरोसा न करते हुए दैनन्दिन प्रशासनिक सहयोगी के रूप में ब्राह्मणों पर भरोसा किया। इस तरह बाहरी शासन जहां स्थानीय मुसलमानों को सत्ता से बाहर करने वाली परिघटना बना, वहीं लम्बें समय से हाशिये पर रहे कश्मीरी ब्राह्मणों के लिए एक अवसर लेकर आया था।

बिना मुसलमानों के पंडित कैसे रहेंगे? उन्हें न सब्जी उगाने आता है, न मांस काटने, न लकड़ी काटने, फिर अगर उनका अलग प्रदेश बन जाए तो कैसे काम चलाएंगे? ज़ाहिर है कि कम से कम शहरी पंडितों और मुसलमानों के बीच यह जो रिश्ता बना। वह एक हद तक शेष भारत में सवर्णों और दलितों के बीच के रिश्तों की तरह था। जहां पढ़े-लिखे शासकीय नौकरी करने वाले वर्ग की तरह सामने आते हैं और मुसलमानों का बहुसंख्यक अशिक्षित, ग़रीब और मज़दूरी करने वाला।

पूरे दो साल मैंने सोचा कि पंडित भाग क्यों रहें हैं। मेरा बेटा बहुत परेशान था लेकिन मुझे कोई डर नहीं लगा क्योंकि मैं तमाम आतंकवादी लड़कों को जानती थी। उनमें से कई मेरे हाथों ही पैदा हुए थे। मुझे दुख हुआ उनके हथियार उठाने का। जो वे कर रहें हैं, वह ग़लत है। लेकिन राज्य की सरकारों और दिल्ली के रवैये और कश्मीर पर उनकी ग़लत नीतियों ने साबित किया है कि जब एक देश अपने युवाओं की फिक्र नहीं करता तो वे विद्रोह में उठ खड़े होंगे और हथियार उठा लेंगे। 1947 के बाद से केन्द्र सरकारों की ग़लत नीतियों ने इसे बर्बाद कर दिया है।

         

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'कश्मीर और कश्मीरी पंडित’ में दिए गए इन तीन उद्धरणों के मार्फत कश्मीर और कश्मीरी पंडितों की वास्तविक स्थितियों को काफी हद तक समझा जा सकता है। कश्मीर और कश्मीरी पंडितों को लेकर विगत कुछ दशकों से जिस तरह की चिंता, व्यग्रता और भ्रांतियां दिखाई देती रहीं हैं, यह क़िताब उन चिंताओं, व्यग्रताओं और भ्रांतियों से एक तरह से पर्दा उठाने का काम करती हैं। साथ ही विमर्श का एक ऐसा गम्भीर पाठ निर्मित करती है जो आज के संदर्भ में बेहद लाज़मी है।

अशोक कुमार पाण्डेय की दो वर्ष पूर्व प्रकाशित 'कश्मीरनामा’ की तरह 'कश्मीर और कश्मीरी पंडित’ एक ऐसी महत्वपूर्ण किताब है जो एक तरह से कश्मीर और कश्मीरी पंडित पर एक मुक्म्मल दस्तावेज है। गहन अध्ययन तथा विश्लेषण के साथ लिखी गई यह एक ऐसी दुर्लभ किताब है जिसमें कश्मीर को लेखक ने उसकी पूरी समग्रता के साथ ही नहीं अपितु सर्वथा एक नए संदर्भ में भी देखने का कार्य किया है। 'कश्मीर और कश्मीरी पंडित’ ग्यारह अध्यायों में विभक्त एक ऐसी गम्भीरकृति है जिसमें कश्मीर को लेकर प्रचलित अनेक झूठों से पर्दा उठाने का काम भी लेखक ने किया है।

इस किताब की भूमिका की शुरूआत में ही अशोक कुमार पाण्डेय ने यह लिखना जरूरी समझा है कि 'कश्मीर एक पहेली है तो कश्मीरी पंडित पहेली के भीतर की पहेली। जिसे हम भारत की मुख्यधारा कहते हैं, ख़ासतौर पर हिंदी भाषी समाज, उसके लिए कश्मीरी पंडित का अथज़् है: नब्बे के दशक में कश्मीर घाटी से विस्थापित हिंदू या इतिहास में ज्ञान की किताबों से राजतरंगिणी के लेखक कल्हण या फिर रस सिद्धांत के प्रणेता अभिनव गुप्त, इससे अधिक जानने-समझने की कोशिश कम से कम हिंदी समाज में मुझे नहीं दिखी है। यह किताब उस पहेली की कुछ गुत्थियों को इतिहास और वर्तमान के स्त्रोतों से सुलझाने की एक कोशिश का हिस्सा है’।

भारत के लिए कश्मीर हमेशा किसी पहेली से कम नहीं रहा है और कश्मीरी पंडित को उस पहेली के भीतर की पहेली ही कहा जा सकता है। यह सच है कि कश्मीर को लेकर हमारी राय कभी एकमत नहीं रही है और कश्मीरी पंडितों को लेकर इतनी अधिक भ्रांतियां हैं कि उसमें सच और झूठ का चुनाव करना हमेशा कठिन ही रहा है। कश्मीर को वैसे भी हम अब तक कितना जान पाए हैं या इसे अशोक कुमार पाण्डेय के शब्दों में कहें तो हम सचमुच उसे कितना जानना-समझना चाहते हैं। इस दृष्टि से भी देखें तो कश्मीर और कश्मीर की समस्या कभी हमारी प्राथमिकता में शुमार नहीं रहा है। इसलिए यह किताब कश्मीर और कश्मीरी पंडित जैसी अब तक की गूढ़ और अबूझ पहेली को बूझने की दिशा में एक सार्थक पहल की तरह है।

'कश्मीर और कश्मीरी पंडित’ के शुरूआती चार अध्यायों में कश्मीर के अतीत पर लेखक ने प्रकाश डाला है। अपने पहले अध्याय 'इतिहास के पहले का इतिहास’ में 'नीलमत पुराण’, 'राजतरंगिणी’ को प्रमुख आधार मानकर कश्मीर के अतीत को खंगालने का कार्य लेखक ने किया है। इस अध्याय में विभिन्न स्त्रोतों को आधार मानकर लेखक कश्मीरी ब्राह्मणों के कश्मीर के मूलनिवासी होने पर संदेह प्रकट करते हैं।  दूसरे अध्याय 'स्वर्णकाल का मिथक’ में लेखक पुन: 'नीलमत पुराण’ और 'राजतरंगिणी’ को केन्द्र में रखकर उसकी ऐतिहासिकता को लेकर सवाल खड़े करते है। 'नीलमत पुराण’ को  लेखक मिथकीय कथा अधिक मानते हैं तथा उसकी प्रामाणिकता को लेकर भी वे आश्वस्त नहीं जान पड़ते हैं।

कल्हण द्वारा लिखित 'राजतरंगिणी’ को अत्यंत प्रामाणिक ग्रंथ मानते हुए भी अशोक कुमार पाण्डेय इस निष्कर्स पर पहुंचते हैं कि न तो 'राजतरंगिणी’ पर आंख मूंद कर भरोसा किया जा सकता है, न ही खालिद अहमद बशीर की तरह इसे सीधे-सीधे खारिज किया जा सकता है। कश्मीर में ब्राह्मणों के प्रवेश के विषय में अशोक कुमार पाण्डेय अपनी इस किताब में यह मानते हैं कि 'कश्मीर में ब्राह्मणों के प्रवेश को लेकर कोई एक सर्व स्वीकृत सिद्धांत नहीं है। सुनील चंद्र रे की किताब 'अर्लीहिस्ट्री एंड कल्चर ऑफ  कश्मीर’ के इस निष्कर्स से अशोक कुमार पाण्डेय सहमत जान पड़ते हैं कि 'कश्मीर में दूसरी जगहों से ब्राह्मणों का बहुत प्रारंभिक काल से ही लगातार प्रवास होता रहा है और कश्मीरी ब्राह्यणों का एक बड़ा हिस्सा इन्हीं अप्रवासियों से बनता है’।

'कश्मीर और कश्मीरी पंडित’ के तीसरे अध्याय 'कश्मीर में इस्लाम’ में अशोक कुमार पाण्डेय इस निष्कर्स पर पहुंचते है कि कश्मीर में हिंदू राजाओं के कुशासन के फलस्वरूप मुगलों का आगमन अवश्यंभावी ही था। सन् 1320 से 1819 तक लगभग पांच सौ वर्षों तक कश्मीर में मुगल शासकों का राज रहा। यहां प्रेमनाथ बजाज के इस कथन को उद्धृत किया गया है जिसमें उन्होंने हिंदूओं राजाओं के कुशासन के फलस्वरूप कश्मीर की गद्दी पर शाहमीर के बैठने को जनता की स्वाधीनता संघर्ष की जीत के रूप में देखा था।

कश्मीरी पंडित नामकरण की पृष्ठभूमि के विषय में लेखक ने यहां यह बताने का प्रयत्न किया है कि मुहम्मद शाह ( 1719-1748 ) के जमाने में कश्मीर से दिल्ली आए पंडित जयराम भान को राजा की उपाधि मिली थी, उन्होंने बादशाह से मांग की कि कश्मीरी ब्राह्मणों को 'ख्वाजा’ की जगह अलग से 'कश्मीरी पंडित’ के नाम से सम्बोधित किया जाए। मुहम्मद शाह ने उनकी यह अर्जी मान ली और उसके बाद से कश्मीर के ब्राह्मणों को कश्मीरी पंडित कहे जाने का रिवाज चला। यानें 'कश्मीरी पंडित’ शब्द का अभ्युदय अठारवीं शताब्दी में सम्भव हो पाया।

चौथे अध्याय 'बदलते समीकरणों की सदी’ में सिख और डोगरा राज्य में कश्मीरी पंडितों की स्थिति पर विचार किया गया है। सिख और डोगरा राज के कश्मीर में अभ्युदय को लेकर विभिन्न स्त्रोतों का आश्रय लेते हुए अशोक कुमार पाण्डेय का यह निश्कर्ष बेहद महत्वपूर्ण है कि 15 जून 1819 को कश्मीर अफगानों के हाथों से निकलकर सिख राजा रणजीत सिंह के हाथों में आ गया।

1849 के दूसरे आंग्ल सिख युद्ध के बाद कश्मीर के इतिहास ने एक बार फिर बड़ी करवट ली। रणजीत सिंह के सिपहसालार रहे सिख सेना के प्रमुख जम्मू के तत्कालीन राजा गुलाब सिंह डोगरा ने अमृतसर समझौते में सिख साम्राज्य पर अंग्रेजों द्वारा लगाये गए डेढ़ करोड़ के जुर्माने का आधा हिस्सा चुकाकर बदले में जम्मू , कश्मीर , गिलगिट , बालिस्तान और लद्दाख का शासन हासिल किया और इस तरह आधुनिक जम्मू और कश्मीर राज्य पहली बार 1849 के पश्चात् ही डोगरा राजा गुलाब सिंह के राज में अस्तित्व में आया।

अशोक कुमार पाण्डेय कश्मीर और कश्मीरी पंडितों की समस्या की शुरूआत भी कश्मीर में डोगरा राज के उदय से ही मानते है। एक तरह से कश्मीर को लेकर इस प्रचलित मिथक को भी वे तोडऩे का प्रयास करते है कि जिसमें इस समस्या का प्रारम्भ सन् 1947 से माना जाता है।

इस संदर्भ में अशोक कुमार पाण्डेय का यह निष्कर्ष अत्यंत महत्वपूर्ण है 'कि आम तौर पर 1947 को कश्मीर समस्या की शुरूआत का वर्ष मानने की राजनीतिक दृष्टि से हटकर गौर से देखें तो कश्मीरी समाज के भीतर वह खींचतान डोगरा राज्य की स्थापना के साथ शुरू होती है जिसमें दोनों समुदायों के बीच तनावों की वह अनवरत श्रृंखला पैदा की जिसने एक तरफ  दोनों के मन में पूर्वग्रह भरे तो दूसरी तरफ  धार्मिक कट्टरता की प्रवृत्तियों को बढ़ावा दिया’।

अशोक कुमार पाण्डेय ने इस बात को भी गंभीरतापूर्वक रेखांकित करने का प्रयत्न किया है कि कश्मीरी पंडितों की स्थिति शुरूआती दौर से ही कश्मीर के मुसलमानों से बेहतर रही है। कश्मीरी पंडित जहां एक ओर सरकारी नौकरी में सभी महत्वपूर्ण स्थानों पर आसीन थे वहीं दूसरी ओर आम मुसलमान मजदूर जैसे छोटे-मोटे कामों के योग्य ही समझे जाते थे।

इस संदर्भ में उन्होंने प्रेमनाथ बजाज को उद्धृत किया है: 'पंडितों को बचपन से ही सरकारी नौकरी के लिए प्रशिक्षित किया जाता था। मांए अपने बच्चों को, पुरोहित अपने यजमानों को और बड़े-बूढ़े जवानों को यह आशीर्वाद दिया करते थे कि उन्हें सरकार में नौकरी मिले, प्रमोशन हो’।

आनंद कौल का यह निष्कर्ष भी अपने आप में कम महत्वपूर्ण नहीं है कि: 'कश्मीरी पंडित शानदार क्लर्क होते है, किसी सरकारी दफ्तर में उनकी नियुक्ति अच्छी किस्मत की तरह मानी जाती थी। वही मुस्लिम समुदाय का बड़ा हिस्सा खेती, शॉल बुनाई, पेपरमैशे जैसे रोज़गारों से जुड़ा हुआ था और शिक्षा-दीक्षा के क्षेत्र में पिछड़ा हुआ था’।

अशोक कुमार पाण्डेय सन् 1873 में छपे 'अगजेटियर ऑफ  कश्मीर’ में एलिसन की मदद से यह बताने की कोशिश करते हैं कि सन् 1860 में कश्मीर घाटी में कुल 45 जागीरदार थे जिनमें सिर्फ 5 मुसलमान थे। एलिसन यह भी लिखते है कि उसी वर्ष विभिन्न विभागों में लिपकीय पदों पर 5572 कश्मीरी पंडित कार्य कर रहे थे, लेकिन एक भी मुसलमान को उस पद के योग्य नहीं समझा गया था। उस समय स्थिति यह थी कि राजकुमार रणवीर सिंह ने सन् 1853 में हिंदू और सिख जनता से मुसलमानों की मांस की दुकानों की बहिष्कार की अपील की और सिखों को मांस की दुकानें खोलने के लिए प्रोत्साहित किया। इसी अध्याय में इस बात का भी उल्लेख है कि 'सन् 1920 के दशक में कश्मीर में 117 लोग जेल में बंद थे जिसमें से 97 मुस्लिम थे जो गोकशी के इलजाम में जेल में थे’।

अत्यंत अल्प संख्या के बावजूद कश्मीरी पंडित राजस्व जैसे महत्वपूर्ण विभागों पर कब्जे के कारण अपनी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ करने और सामाजिक स्थिति प्रभावशाली बनाने में सफल हुए थे। जबकि घाटी के मुसलमानों का बड़ा हिस्सा लगातार वंचना का शिकार हुआ। अशोक कुमार पाण्डेय यहां यह जोडऩा भी नहीं भूलते हैं कि कश्मीर में नौकरियों को लेकर यह एक सरलीकृत समझ होगी कि सभी पंडित नौकरी में थे और मुसलमान बाहर। पहली बात तो यह कि पंडितों का शहर में रह रहा वर्ग ही नौकरियों का उम्मीदवार था और उसका मुकाबला घाटी के उच्चवगीज़्य मुसलमानों से था। गांवों में पंडितों का एक बड़ा हिस्सा ऐसा था जो या तो खेतिहार था या शहरी पंडितों के यहां रसोइये या घरेलू सहायक जैसे छोटे-मोटे काम करता था।

डोगरा राज में शिक्षा के स्तर की बात करें तो इस किताब के लेखक के अनुसार सन् 1891-92 में पूरे कश्मीर में केवल 1585 छात्र शिक्षण संस्थाओं में पंजीकृत थे, जिनमें से 1327 पंडित और शेष 233 मुस्लिम छात्र थे। सन् 1916 में प्रतापसिंह ने भारत सरकार के शिक्षा आयुक्त मिस्टर शार्प की अध्यक्षता में एक कमीशन नियुक्त किया। कश्मीर में मुसलमानों की स्थिति पर टिप्पणी करते हुए इस कमीशन ने दर्ज किया 'कश्मीर का मुसलमान इतना गरीब है कि वह अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेज पाता। शार्प ने मुस्लिम छात्रों और शिक्षण संस्थाओं के लिए वजीफे और अनुदानों की अनुशंसा की’  लेकिन दुर्भाग्य से शार्प की यह अनुशंसा कभी कार्य रूप में परिणित ही नहीं हो पाई।

अशोक कुमार पाण्डेय ने चतुर्थ अध्याय में ही धारा 35-ए के सम्बंध में चर्चा करते हुए बताया है कि महाराजा हरिसिंह के शासनकाल में 31 जनवरी सन् 1927 को 'राज्य उत्तराधिकार कानून की घोषणा हुई जिसमें विक्रम संवत 1942 के पहले से राज्य में रह रहे और उसके बाद से लगातार राज्य में निवास कर रहे लोगों को राज्य का नागरिक घोषित किया गया। बाहरी लोगों के लिए नौकरियां पाना, वजीफा पाना प्रतिबंधित कर दिया गया। बाद में इस पाबंदी को ही धारा 35-ए का प्रमुख आधार बनाया गया।

बहरहाल डोगरा राज में अंग्रेजी हुकुमत के बावजूद कश्मीर की राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक स्थिति में किसी तरह का कोई बदलाव सम्भव न हो सका। अपने ही राज्य में कश्मीरी मुसलमान एक तरह से बेगाने थे। कश्मीर में आम मुसलमानों की नियति केवल बेगार करना था। सरकारी नौकरियों में उनके लिए कोई जगह नहीं थी। स्कूल और कॉलेज में उनके लिए कहीं कोई स्थान नहीं था। उनके मुकाबले कश्मीरी पंडितों की स्थिति बेहतर थी वे ज्यादा सम्पन्न, पढ़े लिखे और सरकारी नौकरियों में एकाधिकार रखने वाले रसूखदार लोग थे।

 

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पांचवें अध्याय 'बनते-बिखरते आख्यान ‘ ( 1931-1934 ) की शुरूआत ही कश्मीर के विदेश तथा राजनीतिक मामलों के मंत्री एल्वियान मुखर्जी के इस कथन से होती है 'जम्मू और कश्मीर राज्य अनेक प्रतिकूल परिस्थितियों से जूझ रहा है। मुसलमानों की बड़ी जनसंख्या पूरी तरह से अशिक्षित है, जो ग़रीबी और बेहद ख़राब आर्थिक हालात से जूझ रही है और प्रशासन उनसे मूक जानवरों की तरह व्यवहार करता है। सरकार और जनता के बीच कोई सम्पर्क नहीं है। जनता की परेशानियों को सुनने के लिए समुचित अवसर नहीं है’।

'कश्मीर और कश्मीरी पंडित’ में यह तथ्य एक बार नहीं अनेक बार उभर कर आया है कि कश्मीर में आम मुसलमानों की स्थिति कभी बेहतर नहीं रही। मुसलमानों की अशिक्षा, ग़रीबी, बेरोजगारी और उपेक्षा को किसी भी शासन द्वारा कभी गम्भीरता से नहीं लिया गया।

इसी अध्याय में लेखक ने सन् 1931 के आम मुसलमानों के असंतोष का भी उल्लेख किया है। सन् 1931में कश्मीर के आम मुसलमानों ने अपने अधिकारों को लेकर अपनी आवाज बुलंद करने की कोशिश की जिसे कश्मीरी पंडितों ने 'साम्प्रदायिक मांग’ की संज्ञा दी। राहुल पंडिता जैसे अंग्रेजीदा विशेषज्ञों ने अपनी किताब में इसे 'एक साम्प्रदायिक घटना’ निरूपित किया है। इंदिरा गांधी के करीबी माखनलाल फोतेदार 1931 के इस आंदोलन को 'अंग्रेजों की शह पर महाराजा के खिलाफ  आंदोलन मानते हैं’। अशोक कुमार पाण्डेय ने इस बात की भी यहां चर्चा की है कि दुर्भाग्यवश डॉ. भीमराव अम्बेडकर भी 1931 के इस आंदोलन को एक सही परिप्रेक्ष्य में नहीं देख पाते है।

अशोक कुमार पाण्डेय यह मानते हैं कि एक तरह से देखा जाए तो कश्मीर के आम मुसलमानों की पीड़ा और अन्याय से जुड़े इस बेहद गम्भीर आंदोलन की जड़ों की तलाश साम्प्रदायिकता में जाकर करना हमारी साम्प्रदायिक दृष्टि का परिचायक है। कश्मीरी पंडितों को लेकर घडिय़ाली आंसू बहाने वाले बुद्धिजीवी राजनेता कभी भी कश्मीर के आम मुसलमानों की समस्याओं को गम्भीरतापूर्वक समझ ही नहीं सके। कश्मीरी मुसलमानों की समस्या और कश्मीरी पंडितों के नजरिये को शेख अब्दुल्ला के मार्फत एक दृष्टांत द्वारा इस किताब में प्रस्तुत किया गया है। जिसमें आम मुसलमानों के प्रति कश्मीरी पंडितों के नज़रिये को समझा जा सकता है।’ 1938 में जब पंडित जवाहर लाल नेहरू कश्मीर गए तो कश्मीरी पंडितों से बातचीत में उन्होंने मुसलमानों को सामाजिक अछूत न समझने की अपील की। अगले दिन पंडितों का एक प्रतिनिधिमंडल उनसे मिलने आया और कहा कि आप मुसलमानों को अलग करने की बात करते हैं लेकिन हमारे यहां शादियों में मुसलमान जमीन पर छिड़काव करते हैं। नेहरू ने हंसकर कहा वे आपकी शादियों में जमीन पर पानी छिड़क सकते हैं, लेकिन वे आपके साथ खाना नहीं खा सकते है’।

कश्मीरी मुसलमानों और कश्मीरी पंडितों के बीच के संघर्ष तथा द्वंद्व को अशोक कुमार पाण्डेय ने अपनी इस किताब में बहुत गहराई के साथ विश्लेषित करने का प्रयास किया है। जहां 1931 के आंदोलन को कश्मीर के मुसलमान 'शहीद दिवस’ के रूप में मनाते हैं, वहीं कश्मीरी पंडित इसे 'काला दिवस’ के रूप में। यहां एक और घटना का उल्लेख करते हुए अशोक कुमार पाण्डेय ने अपने इस अध्याय में उस मोड़ का जिक्रकिया है जहां से आधुनिक कश्मीर में आख्यानों की बायनरी शुरू होती है। इस बायनरी की चर्चा भी यहां जरूरी है।

13 जुलाई 1931 को श्रीनगर जेल के भीतर अब्दुल कादिर के मुकदमें के दौरान प्रशासन ने बड़ी संख्या में पुलिस बल तैनात कर दी थी। जेल के बाहर बड़ी संख्या में लोग मौजूद थे। ख्वाजा अब्दुल खालिफ  शोरा ने वहीं नमाज़ पढऩी शुरू कर दी। वहां अफरा तफरी मच गई, कश्मीर के इतिहास में पहली बार पत्थरबाजी की घटना हुई, पुलिस को गोली चलानी पड़ी जिसके फलस्वरूप 22 लोग मारे गए और सैकड़ों लोग घायल हुए। भीड़ में शामिल असामाजिक तत्वों को इस दौरान लूट पाट करने का मौका मिल गया। इस दौरान तीन कश्मीरी पंडित भी मारे गए। प्रेम नाथ बजाज ने इस घटना का उल्लेख करते हुए इसमें तीन हिंदूओं के मारे जाने की चर्चा की है। पृथ्वी नाथ टिक्कू को भी यहां उद्धृत किया गया है जिसमें उन्होंने भी मरने वाले कश्मीरी पंडितों की संख्या 3 बताई है। लेकिन बलराज मधोक जैसे पूर्व जनसंघ के नेता तथा 'कश्मीर एक्सपर्ट’ का खिताब पाने वाले एक अंग्रेजीदॉ पत्रकार सुशील पंडित इसमें मरने वाले कश्मीरी पंडितों की संख्या हजारों तक पहुंचा देते हैं। कश्मीर को लेकर फैलाए गए झूठ और सच को इसी से समझा जा सकता है। अशोक कुमार पाण्डेय बार-बार इस झूठ से निपटने का प्रयास करते हैं।

अशोक कुमार पाण्डेय ने कश्मीर के 1931 के 'नारचू पलटन’ का उल्लेख भी अपने इस अध्याय में शिद्दत के साथ किया है। 21 सितम्बर को इस्लामिया हाई स्कूल के सालाना जलसे के लिए चंदा एकत्र करते हुए शेख अब्दुल्ला को गिरफ्तार कर लिया गया। जिसके फलस्वरूप कश्मीर में लेाग बहुत बड़ी संख्या में देशी हथियार और मछली पकडऩे वाली बंसी लेकर सड़कों पर उतर आए। बंसी को ही कश्मीरी भाषा में 'नारचू’ कहते हैं इसलिए इस आंदोलन को 'नारचू पलटन’ कहा जाता है। इस आंदोलन में $गौर तलब यह था कि एक भी कश्मीरी पंडित को इस आंदोलन में नुकसान नहीं पहुंचाया गया। पूरे कश्मीर में इस तरह के पोस्टर लगाये गए कि 'मुसलमानों की हिंदुओं’ से कोई दुश्मनी नहीं है बल्कि हमारा जिहाद महाराजा के शासन के खिलाफ  है। इस तरह के सच को न मीडिया दिखाती है न कश्मीरी विशेषज्ञ। कश्मीर के नाम पर केवल झूठ को ही बार-बार प्रचारित किया जाता है।

कश्मीरी पंडितों के रवैयों को इस किताब में लेखक ने दर्ज किया है कि किस तरह वे मुसलमानों की हर मांग को 'साम्प्रदायिक’ करार देकर उनके सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग की खिलाफत कर रहे थे। अपने लिए सेना में भर्ती और सभी बालिग युवाओं की नौकरी की मांग को वे एक तरफ राष्ट्रवादी कह रहे थे तो दूसरी तरफ आम मुसलमानों की नौकरी में आरक्षण की मांग को साम्प्रदायिक और राष्ट्र विरोधी।

कश्मीर और कश्मीरी पंडितों को लेकर जिन सारे तथ्यों को जिस गम्भीरता के साथ इस किताब में प्रस्तुत किया गया है उसे सही परिप्रेक्ष्य में समझे जाने की आज ज्यादा जरूरत है। कश्मीर और कश्मीरी पंडित जैसी समस्या कोई ऐसी सरलीकृत समस्या नहीं है जिसे जुमलेबाजी और धार्मिक कट्टरता के नज़रिये से समझा जा सकता है। यहां यह भी $गौरतलब है कि हमारे इस धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में विगत अनेक वर्षों से जो हिंदुत्व की प्रचंड लहर चल रही है उसने इस समस्या को सुलझाने में कम उलझाने में ज्यादा दिलचस्पी दिखाई है।

इस देश में दुर्भाग्य से एक लम्बे समय से कश्मीर के मुसलमानों को लेकर केवल नफ़रत की फसल उगाई जा रही है। 370 और 35-ए के खिलाफ अनेक वर्षों से यह बयानबाजी होती रही है कि कश्मीर के मुसलमानों पर सरकार मेहरबान हैं? कश्मीर के मुसलमानों को हम एक अरसे से राष्ट्रविरोधी मानकर चल रहे थे और हिंदुतत्व का ध्वजा लहराने वालों को सच्चा राष्ट्र भक्त। यहां अब यह समझ लेना भी आवश्यक है किइस देश का समूचा मध्यवर्ग जो पढ़ा-लिखा और शिक्षित है भ्रष्ट हो चुका है। हिंदुत्व के चश्मे से ही वह हर समस्या को देखने-समझने में पूरी तरह से पारंगत हो चुका है। यह धर्मांधता, यह कट्टरपन, यह दूसरे धमार्लंबियों के प्रति नफरत इस देश में क्या फासीवाद को जन्म देने के लिए पर्याप्त नहीं है?

'संक्रमण काल में पंडित समाज’ में लेखक ने सन् 1934 से लेकर आजादी से पहले तक के काल को समेटने का प्रयत्न किया है। इस अध्याय में लेखक ने सन् 1932 को पुन: याद किया है जिसने कश्मीर के सामाजिक-राजनीतिक जीवन में भूचाल ला दिया था।

कश्मीर के एक दूसरे पहलू पर भी अशोक कुमार पाण्डेय ने अपनी इस किताब में इशारा किया है। जो कश्मीर के सौहाद्रपूर्ण इतिहास का गवाह है। सन् 1944 में जिन्ना को कश्मीर के मुसलमानों ने बेरंग लौटा दिया। सावरकर को युवक सभा के अध्यक्ष शिवनारायण फोतेदार ने भी बाहर का रास्ता दिखा दिया। गो कि कश्मीर के मुसलमान और कश्मीरी पंडित दोनों यह भलीभांति जानते थे कि धार्मिक कट्टरता से कश्मीर का कोई भला नहीं हो सकता है। मोहम्मद अली जिन्ना और सावरकर इसलिए कश्मीर से बैरंग लौटा दिये गये। शेख अब्दुल्ला के इस कथन कोभी यहां प्रमुखता के साथ उद्धृत किया गया है जिसमें वे कहते हैं कि है 'हम अपने दिल की गहराई से हिंदुस्तान के हिंदुओं और मुसलमानों की एकता चाहते हैं’।

कश्मीर में आजादी के पहले के परिदृश्य को अशोक कुमार पाण्डेय ने इस किताब के प्रारम्भिक छ: अध्यायों में सिलसिलेवार रूप से सूत्रबध्द किया है। विभिन्न ग्रंथों और भाषणों को उन्होंने स्त्रोत के रूप में प्रस्तुत किया है। अशोक कुमार पाण्डेय हर तथ्य को प्रामाणिक रूप में अपनी इस किताब में प्रस्तुत करते हैं जिनमें से ज्यादातर तथ्य हमारे लिए नये हैं, जो कश्मीर के बारे में हमारे अब तक के अज्ञान से न केवल पर्दा उठाते हैं बल्कि कश्मीर को लेकर हमारी ज्ञानात्मक संवेदना को भी पुष्ट करते हैं।

 

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'विभाजन, परिवर्तन और विडम्बनाएं’ नामक 7 वें अध्याय में वल्लभ भाई पटेल को लेकर फैलाये गए ढ़ेर सारे भ्रमों, मिथकों, अफवाहों को तर्क, तथ्यों तथा प्रमाणों की कसौटी पर कसकर उसे नये सिरे से जांचने का काम किया गया है। जिससे यह प्रमाणित होता है कि वल्लभ भाई पटेल भारत में कश्मीर के विलय को लेकर कभी गम्भीर नहीं रहे।

इस अध्याय में इस तथ्य को भी रेखांकित किया गया है कि डोगरा राजा हरि सिंह कश्मीर को लेकर एक अलग राष्ट्र का ख्वाब देखने में लगे हुए थे। इस संभावना को भी टटोलने की पुरजोर कोशिश की गई है कि मुस्लिम बहुल राज्य होने के कारण बहुसंख्यक जनता सम्भवत: पाकिस्तान में विलय के पक्ष में हो। शेख अब्दुल्ला और नेशनल कान्फ्रेस की उस समय की भूमिका पर $गौर फरमाते हुए लेखक यह मानते हैं कि शेख अब्दुल्ला किसी भी परिस्थिति में पाकिस्तान में विलय के पक्ष में नहीं थे। दूसरी ओर डोगरा राजा हरि सिंह दिग्भ्रमित थे, वे शायद हवा का रूख देखने में लगे थे। वल्लभ भाई पटेल की कोई रूचि कश्मीर में नहीं थी, वे केवल 560 रियासतों को ही भारत में मिलाने के पक्ष में थे जिसमें कश्मीर शामिल नहीं था।

1946 मेें कश्मीर के तत्कालीन प्रधानमंत्री रामचंद्र काकने हरिसिंह के निर्देश पर शेख अब्दुल्ला को देश द्रोह के लिए गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। पं. जवाहर लाल नेहरू जो उनकी पैरवी के लिए श्रीनगर आ रहे थे उनके प्रवेश पर पाबंदी लगा दी गई। 1947 में भी वे जेल में ही थे। पंडित जवाहर लाल नेहरू और महात्मा गांधी के कारण डोगरा राजा हरि सिंह को न केवल झूकना पड़ा वरन् शेख को जेल से रिहा भी करना पड़ा। डोगरा राजा हरि सिंह को श्रीनगर से भागकर पहले जम्मू तथा बाद में बम्बई में शरण भी लेना पड़ा। सेना के 48 ट्रकों में अपने बहुमूल्य सामानों को भरकर हरिसिंह को श्रीनगर से कूच करना पड़ा था। एक अलग डोगरा राष्ट्र का उनका सपना अब टूटकर बिखर चुका था।

यहां दो बातों का जिक्र जो इस किताब के महत्वपूर्ण अंश है उस पर गौर करना जरूरी है। पहला जब विभाजन को लेकर पूरा देश साम्प्रदायिकता की आग में झुलस रहा था, कश्मीर में एक भी साम्प्रदायिक दंगा नहीं हुआ। कश्मीरी मुसलमानों और पंडितों ने इस तरह कश्मीर की शानदार परंपरा को बनाये रखकर एक मिसाल कायम की। दूसरा कश्मीर में 370 का सभी समुदाय ने समर्थन किया। सरकारी नौकरियां और ज़मीन केवल कश्मीर के नागरिकों के लिए सदा के लिए सुरक्षित हो गई थी। कश्मीर में बाहर के लोगों के लिए लिए न नौकरी थी न ज़मीन।

इस अध्याय में अशोक कुमार पाण्डेय द्वारा कश्मीर के भारत में विलय को लेकर इतिहास में दबे छिपे अनेक प्रसंगों को उजागर करने का प्रयास किया गया है। 1947 में आजादी के बाद डोगरा राजा हरि सिंह और प्रधानमंत्री रामचंद्र काक का एक ही स्टैंड था कि किसी भी हालत में कश्मीर का भारत में उसका विलय न हो।

लेखक ने इसी अध्याय में लैरी कॉलिन्स और डोमनिक लैपियर द्वारा 1984 में माउंटबेटन से लिए गए साक्षात्कार के उस महत्वपूर्ण उद्धरण को उद्धृत किया गया है जिसमें डोगरा राजा हरि सिंह की नीयत का पता चलता है: 'उन्होंने हरिसिंह से कहा था कि वह चाहते है कि कश्मीर का पाकिस्तान में विलय हो क्योंकि वहां की बहुसंख्यक आबादी मुसलमान थी। लेकिन हरिसिंह ने कहा कि वह किसी कीमत पर पाकिस्तान से विलय नहीं करेंगे लेकिन वह भारत से भी नहीं मिलना चाहते थे’।

यहां वल्लभ भाई पटेल की कश्मीर के प्रति नकारात्मक रवैये की एक बार फिर गंभीर चर्चा की गई है। यहां अशोक कुमार पाण्डेय ने एम.जे.अकबर द्वारा माउंटबेटन के हवाले से 'सड़े सेबों’ के एक किस्से का जिक्र किया है। वल्लभ भाई पटेल माउंटबेटन से कहते हैं मुझे सभी 565 (उस समय भारत में रजवाड़ों की संख्या) सेब चाहिए। लेकिन माउंटबेटन के यह कहने पर कि अगर मैं कुछ वापस लेना चाहूं तो, वह कहते हैं कि हम 560 से भी काम चला लेंगे। कश्मीर इन्हीं 5 सेबों में था। आगे इस पर भी लेखक ने ध्यान दिलाने की कोशिश की है। 1947 के बाद जवाहर लाल नेहरू द्वारा बार-बार यह ध्यान दिलाये जाने पर कि पाकिस्तान कश्मीर पर कब्जा करने के लिए कोई चाल कर सकता है, पटेल ने नेहरू की बात पर कोई तवज्जो नहीं दिया।

पटेल के कश्मीर के प्रति इस रूख को लेखक ने आगे भी प्रकट किया है। खासकर वल्लभ भाई पटेल जिसमें यह मान कर चलते हैं कि 'हमें कश्मीर के मामले में नहीं उलझना चाहिए। पहले ही हमारे पास काफी राज्य हैं ‘। अशोक कुमार पाण्डेय का यह निष्कर्ष जो इस अध्याय का एक महत्वपूर्ण अंश है जिसे आज के संदर्भ में समझा जाना बेहद ज़रूरी है। सम्भव है इससे बहुत से लोगों के मन में छाया हुआ अंधेरा और भ्रम भी टूटे: 'आज कश्मीर को लेकर नेहरू को बार-बार कठघरे में खड़ा किया जाता है कि अगर पटेल की चलती तो कश्मीर में कोई समस्या नहीं होती, लेकिन अगर इस बिंदु पर पटेल की चलती तो शायद कश्मीर कभी भारत का हिस्सा ही नहीं होता’। वल्लभ भाई पटेल मुस्लिम बहुल इस राज्य के विलय के पक्ष में कभी नहीं थे।

कश्मीर के तैंतीस वर्षों ( 1949-1982 ) का लेखा-जोखा 'नया निजाम पुरानी मुश्किलात’ में देखने को मिलता है। इस अध्याय में 1949 से 1982 तक के लेखा-जोखा को अशोक कुमार पाण्डेय ने प्रस्तुत किया है। यहां इस बात की भी चर्चा की गई है कि किस तरह से1950 में शेख अब्दुल्ला की सरकार द्वारा लाया गया भूमि सुधार कानून कश्मीर के इतिहास में एक नया अध्याय साबित हुआ। इस कानून के द्वारा पहली बार बंटाई पर खेती करने वाले किसानों को ज़मीन का मालिकाना हक मिला भूमि की अधिकतम सीमा 182 कैनाल (22.75 हेक्टेयर) तय कर दी गई। विधान सभा में यह फैसला किया गया कि जिसकी जमीन अधिग्रहित की जायेगी उसे किसी तरह का कोई मुआवज़ा नहीं दिया जायेगा। इस तरह कश्मीर पूरे देश में एक ऐसा राज्य बन गया जहां ज़मीन के बदले बड़े जमीदारों को किसी तरह का कोई मुआवज़ा नहीं दिया गया। यह कश्मीर की जनता के लिए शेख अब्दुल्ला द्वारा उठाये गये एक क्रांतिकारी कदम का परिणाम था।

अशोक कुमार पाण्डेय ने लाभान्वित किसानों के जो आंकड़े जुटाए हैं उसे गम्भीरता से समझने की जरूरत है। उस समय घाटी में 2,60,54 मुस्लिम किसान ऐसे थे जिनके पास 100 कैनाल से कम ज़मीन थी जबकि दूसरी ओर 100 कैनाल से कम गैर मुस्लिम किसानों की संख्या 18,692 थी। 96 प्रतिशत मुस्लिम आबादी वाली घाटी में गैर मुस्लिम किसानों की यह संख्या चैंकाने वाली है जिनके पास 18,692 ज़मीन थी। इसकी वज़ह यह थी कि डोगरा राज में स्वजातीय डोगराओं तथा पंडितों को मुस्लिमों की तुलना में कहीं ज्यादा लाभ पहुंचाया गया था। शेख अब्दुल्ला द्वारा लाये गए भूमि सुधार कानून से लगभग ढ़ाई लाख दलितों को लाभ हुआ जिससे वे ज़मीन के मालिक बन सके। लेखक के अनुसार इससे जम्मू के स्वर्ण हिंदुओं की भावनाओं को ठेस पहुंची। जम्मू केे प्रजा परिषद के तथाकथित नेताओं ने इस सारे मामले को साम्प्रदायिक रंग दिया और शेख अब्दुल्ला तथा नेशनल कांफ्रेस को कश्मीर से उखाड़ फेंकने का ऐलान कर दिया। पंडित जवाहर लाल नेहरू तक शेख अब्दुल्ला की शिकायत पहुंचाई गई।

शेख अब्दुल्ला के इस बयान को भी समझे जाने की जरूरत है- 'जागीरदारी के खात्में और किसानों के ऋण माफी को अंजाम दिया गया तो नुकसान हिंदु-मुसलमान दोनों ही तरह के जागीरदारों को हुआ। लेकिन हिंदू जागीरदारों के सीधे दिल्ली से सम्पर्क थे और इसे हिंदू विरोधी साबित कर दिया गया। मुझे ब्रिटिश एजेंट, कम्युनिस्ट एजेंट और अमेरिकी एजेंट तक कहा गया और एक षड्यंत्र के तहत मुझे गिरफ्तार कर लिया गया’।

इसी अध्याय में अशोक कुमार पाण्डेय ने वल्लभ भाई पटेल की कश्मीर के प्रति नकारात्मक रवैये को भी तथ्यों के आधार पर पुन: खंगालने का कार्य किया है। इस संदर्भ में उन्होंने इंटेलीजेंस विभाग के सहायक निदेशक बी.एन.मलिक की किताब’ माई इयर्स विथ नेहरू’ से एक लम्बा उद्धरण उद्धृत किया है। यह उद्धरण मलिक ने कश्मीर से लौटकर एक विस्तृत रिपोर्ट गृह मंत्रालय को दी थी उसी से लिया गया है।’ प्रधानमंत्री ने इस रिपोर्ट को कश्मीर की वर्तमान स्थिति का एक निष्पक्ष आंकलन माना था। सरदार वल्लभ भाई पटेल खुश नहीं थे। मेरी यह रिपोर्ट स्पष्टत: उनके कश्मीर के संदर्भ में और ख़ास तौर पर शेख के बारे में विचारों के विपरीत थी’।

आगे इस किताब में पटेल और कांग्रेस के भीतर उभर आए दक्षिण पंथी नेताओं को लेकर एक गम्भीर टिप्पणी भी है 'जनसंघ जैसे संगठनों को लेकर नेहरू और शेख दोनों की समझ एक जैसी थी। नेहरू ने 1964 में एक आधिकारिक बैठक के दौरान स्पष्ट कहा था कि भारत को खतरा वामपंथ से नहीं बल्कि हिंदुत्ववादी दक्षिणपंथी संगठनों से है। लेकिन उस दौर में न केवल पटेल बल्कि कांग्रेस के भीतर दक्षिणपंथी नेताओं की एक बड़ी संख्या थी जिनके मन में जनसंघ और आर.एस.एस. को लेकर एक सॉफ्ट कार्नर था’।

इसी अध्याय में लेखक ने विस्तारपूर्वक गृह विभाग तथा इंटेलीजेंस के अधिकारियों द्वारा पं. जवाहर लाल नेहरू के मन में लगातार शेख अब्दुल्ला के खिलाफ़ ज़हर भरने के वर्णन को भी रेखांकित किया गया है। जिसके चलते शेख को 8 अगस्त को गुलमर्ग में गिरफ्तार कर लिया गयाऔर उनके स्थान पर बख्शी गुलाम मोहम्मद को सदर-ए-रियासत बनाया गया। 9 अगस्त को बख्शी द्वारा शपथ लिए जाने के बाद ही समूचा कश्मीर विरोध में उतर आया था जिसके फलस्वरूप अनेक लोगों को कश्मीरी पुलिस की गोलियों का निशाना बनना पड़ा।

28 जुलाई 1967 की एक घटना जिसने कश्मीर की सियासत में तूफान मचा दिया था उसे भी लेखक ने इस अध्याय में विस्तारपूर्वक जगह दी है। परमेश्वरी हांडू नामक एक कश्मीरी पंडित लड़की ने अपना धर्म परिवर्तन कर अपने सहकर्मी गुलाम रसूल कांठ से प्रेमविवाह कर लिया। मामला पुलिस तथा थाने तक पहुंचा। लड़की के नाबालिग होने की शिकायत की गई जिसके फलस्वरूप लड़की को थाने ले जाया गया। त्रिलोकी नाथ धर के नेतृत्व में जनसंघ से जुड़े पंडितों ने लड़की से थाने में मुलाकात की लेकिन लड़की अपने पति के साथ रहने की जि़द पर अड़ी रही। उसने अपने बालिग होने का सबूत भी प्रस्तुत किया जिसके फलस्वरूप पुलिस ने लड़की को उसके पति के पास भेज दिया। कश्मीरी पंडितों ने इसे साम्प्रदायिक रंग दे दिया। कश्मीरी पंडित सड़कों पर उतर आये। पंडित संवाददाताओं ने इसकी बड़ी-बड़ी रिपोटर््स बनाकर राष्ट्रीय मीडिया में भेज दी और इसे मुस्लिम लड़के द्वारा हिंदू लड़की के अपहरण का मामला बनाकर तूल दिया।

8 अगस्त को कश्मीरी पंडितों द्वारा 'कश्मीरी हिंदू एक्शन कमेटी’ का गठन लिया गया। 13 अगस्त को जनसंघ के बैनर तले एक बड़ी सभा हुई। 22 अगस्त को बलराज मधोक श्रीनगर पहुंचे और उन्होंने कश्मीर के मुसलमानों को पाकिस्तान चले जाने की चेतावनी दी। शेख अब्दुल्ला उस समय जेल में थे। बलराज मधोक के भड़काऊ भाषण से कश्मीर में आग लग गई। कश्मीरी पंडित और मुसलमान दोनों खुलकर आमने-सामने आ गए। कश्मीरी पंडित तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी से दिल्ली आकर इस उम्मीद से मिले कि कश्मीरी पंडित होने के कारण श्रीमती गांधी उनका समर्थन करेंगी पर हुआ इसका उल्टा। इंदिरा गांधी ने कश्मीरी पंडितों के प्रतिनिधि मंडल को डॉट दिया।

आगे इस तथ्य को भी लेखक ने बेहद बारीकी के साथ इस अध्याय में उल्लेखित किया है कि किस तरह जयप्रकाश नारायण तथा 163 सांसदों ने श्रीमती इंदिरा गांधी से शेख अब्दुल्ला को रिहा करने तथा उनसे बातचीत करने की मांग की, जिसके फलस्वरूप 5 जून 1972 को शेख को जेल से रिहा किया गया। इसके पश्चात् सन् 1977 में हुए कश्मीर विधानसभा चुनाव को लेखक ने कश्मीर के इतिहास में बहुत महत्वपूर्ण मानते हुए लिखा हैं कि 'इस विधानसभा चुनाव में कश्मीर की जनता ने शेख अब्दुल्ला तथा नेशनल कान्फ्रेंस को भारी बहुमत से चुना। यह शेख अब्दुल्ला और नेशनल कांफ्रेस की अपार लोकप्रियता का परिणाम था’।

'नये चुनाव पुरानी रवायत’ में 1982 के बाद के कश्मीर का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया गया है। तारिक अली की किताब 'द स्टोरी ऑफ  कश्मीर’ का एक उद्धरण प्रारम्भ में ही दे दिया गया है जिससे इस दौर के इतिहास की बानगी मिलती है। तारिक अली ने लिखा है’ 1983 से 1987 का इतिहास पहले इंदिरा गांधी और फिर राजीव गांधी की अभूतपूर्व राजनीतिक ग़लतियों और फारूख अब्दुल्ला की अपरिपक्वता से कश्मीर समस्या को पुनर्जीवत करने का इतिहास है’।

सन् 1983 के विधानसभा चुनाव में श्रीमती इंदिरा गांधी और फारूक अब्दुल्ला आमने-सामने थे, हालॉकि श्रीमती गांधी यह चाहती थी कि कांग्रेस और नेशनल कान्फ्रेंस आपस में गठबंधन कर चुनाव लडं़े लेकिन ऐसा सम्भव न हो सका। फारूक अब्दुल्ला ने यह चुनाव अकेले अपने दम पर लड़ा और इस चुनाव में जीत फारूक की ही हुई।

अशोक कुमार पाण्डेय अपनी किताब में कश्मीर के चुनाव के बाद की घटनाओं का विश्लेषण करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंचते है कि चुनाव के बाद श्रीमती गांधी के साथ फारूक के सम्बंध बेहद खराब हो गए। इधर श्रीमती इंदिरा गांधी की मंडली में अरूण नेहरू, मुफ्ती मोहम्मद सईद और माखन लाल फोतेदार जैसे लोग थे जो फारूक अब्दुल्ला को पसंद नहीं करते थे। वे जल्द से जल्द फारूक को कश्मीर की सत्ता से बेदखल करना चाहते थे। श्रीमती इंदिरा गांधी पर इस मंडली का गहरा प्रभाव भी था। इसी मंडली द्वारा फारूक को अपदस्थ करने के लिए पहले जम्मू कश्मीर के राज्यपाल बी.के. नेहरू पर दबाव बनाया गया। बी.के. नेहरू के ऐसा न करने पर उन्हें पद से हटाकर जगमोहन को 1984 में जम्मू कश्मीर का राज्यपाल बनाया गया।

अपने इस अध्याय में अशोक कुमार पाण्डेय ने कश्मीर के उन दिनों की हालातों का प्रामाणिक वर्णन किया है। फारूक अब्दुल्ला और गुल शाह के शासन काल को ही नहीं अपितु केन्द्र की अदूरदर्शी नीतियों को भी बहुत बारीकी के साथ चित्रित किया है। कांग्रेस और नेशनल कान्फ्रेंस का गठबंधन अंतत: 1987 के विधान सभा चुनाव में सम्भव हो पाया है। इस चुनाव को जीतने के लिए अपनाये गए हथकंडों की भी विस्तारपूर्वक चर्चा इस अध्याय में की गई है जिसके चलते यह गठबंधन कश्मीर में चुनाव जीतने में सफल हुआ।

यहां तत्कालीन डी.आई.जी.ए.एम. वटाली की किताब 'कश्मीर इंतिफादा’ से उद्धृत कर बताने की कोशिश की गई है कि राजीव गांधी ने भी बाद में अपनी इस गलती को स्वीकार किया था कि किस तरह उन्होंने कश्मीर के विधानसभा चुनाव में नेशनल कान्फ्रेंस को कांग्रेस के साथ गठबंधन के लिए मजबूर किया था। ‘ 1988 में कांग्रेस कार्यकत्ताओं की एक बंद कमरे में हुई बैठक में जहां मैं भी उपस्थित था, राजीव गांधी ने नेशनल कान्फ्रेंस के साथ चुनाव पूर्व समझौते को ग़लत माना जिसने सेक्यूलर और उदारवादी ताक़तों के लिए राजनीतिक स्पेस संकुचित कर कट्टरपंथी ताक़तों को मजबूत कर दिया था’।

लेखक मानते है कि सन् 1987 के बाद कश्मीर को जिस सूझ-बूझ के साथ समझने की जरूरत थी उसका फारूक अब्दुल्ला में अभाव था। जनता में यह बात घर कर गई थी कि कांग्रेस और नेशनल काफ्रेंस ने यह चुनाव धांधली कर जीता है। इससे फारूक और भारत दोनों की छवि खराब हुई। उधर धीरे-धीरे नौजवानों में सरकार के प्रति गुस्सा पैदा होने लगा था। आजाद कश्मीर में उन्हें भारत के खिलाफ  प्रशिक्षित किया जाने लगा था। छात्रों और नौजवानों में ग्रेनेड और पिस्तौलों के प्रति आकर्षण बढ़ता जा रहा था।

राज्य सरकार और केन्द्र सरकार दोनों ही इस बढ़ते हुए खतरे से अनजान थे। राज्य और केन्द्र के इंटलीजेंस विभाग को जैसे इस सबसे कोई लेना देना नहीं था। यहां लेखक ने एक बार फिर से ए.एम. बटाली को उद्धृत किया है: 'कश्मीरी युवाओं के नियंत्रण रेखा के पार करने की गतिविधियों के बारे में न तो आई.बी. न रॉ या सेना या बी.एस.एफ. ने राज्य सरकार या केन्द्र सरकार को कोई इत्तला दी। सभी एजेंसिया नियंत्रण रेखा पर हो रही कार्यवाहियों और घाटी में फैले आतंकवाद से अनजान प्रतीत होती थी’।

सन् 1989 तक आते-आते कश्मीर की स्थिति काफी बदतर हो गई। इसमें जितनी गलती कश्मीर की नेशनल कान्फ्रेंस सरकार की थी उतनी ही केन्द्र सरकार की भी, जिसने कश्मीर की स्थिति को बेहतर बनाये रखने में कभी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई।

 

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1989 से आगे का वृत्तांत 'डर, गुस्सा, बेरूखी और घर से बेघर कश्मीरी पंडित’ नामक अगले अध्याय में है। फारूख और केंद्र की कश्मीर के प्रति बेरूखी ने वहां की हालातों को काफी खराब कर दिया था। यही सब कारण है कि जे.के.एल.एफ. ने 'कश्मीर छोड़ो’ का नारा अलापना शुरू कर दिया। कश्मीर में हत्याओं का दौर शुरू हो गया।

दिसम्बर में केंद्र में गृहमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईंद की बेटी रूबिया सईद का अपहरण कर लिया गया। फारूक पर केंद्र द्वारा दबाव डाला गया कि पांच आतंकवादी को रिहा किया जाए ताकि रूबिया सईद की रिहाई सम्भव हो सके। रूबिया सईद के अपहरण के पीछे आतंकवादियों का मकसद भी यही था। दिल्ली से दो केन्द्रीय मंत्री इंद्र कुमार गुजराल और आरिफ  मोहम्मद खान श्रीनगर पहुंचे और फारूक को इस बात के लिए धमकाया गया कि अगर उन्होंने पांच आतंकवादियों को रिहा नहीं किया तो उनकी सरकार को बर्खास्त कर दिया जायेगा। फारूक को केंद्र सरकार के दबाव के आगे झुकना पड़ा।

नन्दिता हक्सर को उद्धृत कर लेखक ने इस बात पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला है कि कैसे वहां वामपंथी और समाजवादी ताकतों का सफाया कर दिया गया जिससे कश्मीर में किसी आंदोलन को कोई वैचारिक धार दे पाने वाली ताकतें ही नहीं बची। आजादी के नारे के अलावा भविष्य की कोई योजना, रणनीति और स्वप्न विकसित नहीं हो पाये। आगे यह भी दृष्टव्य है’ इसी उत्साह और संभ्रम में कश्मीरी पंडितों को डराने-धमकाने की कोशिशों ने विश्वजनमत को इस आंदोलन से दूर कर दिया’।

जगमोहन को लेकर अशोक कुमार पाण्डेय के इस तर्क से सहमत हुआ जा सकता है कि पहली बार राज्यपाल रहते हुए उन्होंने फारूक की बर्खास्तगी से लेकर हिंदु त्यौहारों पर मांस की बिक्री पर प्रतिबंध लगाने, नौकरियों में पंडितों के प्रति पक्षपात के लिए वे जाने जाते थे। ऐसे व्यक्ति को दोबारा राज्यपाल बनाकर श्रीनगर भेजा जाना वी.पी. सिंह सरकार का कोई अच्छा कदम नहीं माना जा सकता है।

अशोक कुमार पाण्डेय ने जगमोहन के विषय में यह भी लिखा है कि किस तरह उन्होंने 19 जनवरी को पदभार ग्रहण किया और उसी दिन अद्र्धसैनिक बलों ने श्रीनगर के घर-घर में तलाशी लेनी शुरू कर दी। श्रीनगर में उसी दिन 300 नवयुवकों को गिरफ्तार कर लिया गया। 20 जनवरी को इसके विरोध में उग्र प्रदर्शन हुआ। 21 जनवरी को हालात काबू से बाहर हो गए, शहर में कफ्र्यू लगा दिया गया।

इन्हीं सब हालातों के चलते पहली बार कश्मीर में कश्मीरी पंडितों के मन में डर और गुस्सा ने अपनी जगह बनाई। अशोक कुमार पाण्डेय ने अपनी इस किताब में इस तथ्य को भी उद्घाटित करने का प्रयास किया हैं कि केन्द्रीय सेवाओं में बड़ी संख्या में होने के कारण आतंकवाद के भारत विरोधी अभियान का शिकार पंडित हुए। लेकिन एक पक्ष यह भी था कि आंदोलन में साम्प्रदायिक प्रवृत्तियों के चलते कई बार कश्मीरी पंडित सिर्फ इसलिए मारे गए कि वे पंडित थे।

कश्मीर में मुसलमान और पंडित दोनों मारे जा रहे थे। अशोक कुमार पाण्डेय ने मरने वालों के आंकड़े भी जुटाए हैं। इन आंकड़ों के विषय में उनकी राय है 'फिलहाल अगर आधिकारिक आंकड़ों को ही सही मान लें तो कश्मीर में आतंकवाद के 21 वर्षों ( 1990 से 2011) के बीच 43,460 लोग मारे गए जिनमें मुसलमान नागरिकों की संख्या 16,686 थी, इनमें आतंकवादियों के हाथों मारे गए कश्मीरी पंडितों की आधिकारिक संख्या 319 हैं’।

कुछ और भी उदाहरण इस किताब में दिए गए है जिससे कश्मीरी पंडितों को लेकर फैलाये गए भ्रमों और अफवाहों की सचाई का पता लगता है: 'उत्तर कश्मीर के तन्मर्ग के पास कुंजर बूसान गांव की पंच रही आशादेवी ने बताया कि जब उनके गांव के मुसलमानों ने उनसे गांव में ही रूकने की अपील की और भरोसा दिलाया कि वे उन्हें हर तरह से सुरक्षित रखेंगे, इस घटना के कोई दस साल बाद 2011 के पंचायत चुनाव में वह एक मुस्लिम महिला उम्मीदवार को हराकर पंच चुनी गई। इस तरह केकई उदाहरण इस किताब में हैं’।

रतन लाल तलाशी ने भी लेखक को बताया कि: 'मेरे चाचा ने भी गांव छोड़ कर पलायन करने से मना कर दिया और कहा कि हम यहीं जिएंगे और यहीं मरेंगे। उस समय मैं बच्चा ही था। हमारे गांव में किसी पंडित को नहीं मारा गया और न ही इस तरह की कोई घटना ही घटित हुई, इतने सालों से हम आज भी सुरक्षित है’।

रतन लाल तलाशी और शशी तलाशी के घर के ठीक बगल में एक तिमंजिला घर है जो त्रैलोक्य नाथ का घर है जो टीचर थे और 1989 में गांव छोड़कर चले गए थे। उनके पड़ोसी मुसलमान लेखक को बताते है कि त्रैलोक्य नाथ जी कभी-कभी गांव आते हैं। हमने किसी का घर नहीं छुआ। देखिए अखरोट के दरख्त भी साबुत है। ताला भी उन्हीं का लगाया हुआ है। यह कश्मीरी पंडितों की एक अलग कहानी को बयां करता है।

घाटी छोडऩे वाले कश्मीरी पंडितों की वास्तविक संख्या पर भी लेखक ने पर्याप्त खोजबीन की है। कहा जाता है चार लाख से सात लाख कश्मीरी पंडितों ने घाटी से पलायन किया है। 1981 की जनगणना के अनुसार घाटी में 1,24,078 हिंदू (पंडितों के अलावा अन्य भी) थे। इसमें अगर 1991 की जनसंख्या को भी जोड़ दिया जाए तो यह संख्या 1,32,453 हो जाती है, इसमें पलायन न करने वाले 8,000 कश्मीरी पंडितों की संख्या घटा दी जाये तो 1,24,453 हो जायेगी। इस तरह उन कश्मीरी पंडितों की संख्या लगभग 1,24,453 हो जाती है जिन्होंने घाटी से पलायन किया है। अशोक कुमार पाण्डेय यह मानते है उसी समय घाटी की हालातों से तंग आकर पलायन करने वाले मुसलमानों की संख्या भी लगभग 50,000 के आस-पास थी।

लेखक प्राप्त प्रमाणों के अनुसार यह मानते हैं कि कश्मीरी पंडितों को घाटी से बाहर निकालकर घाटी में दमन की मूल योजना जगमोहन की ही थी। उनका यह तर्क घाटी के मुस्लिम तथा कश्मीरी पंडितों के बयानों पर आधारित है।

 इस किताब में एक अन्य मुख्य सचिव विजय बकाया के हवाले से लेखक ने यह बताने का भी प्रयास किया है कि 19 और 20 जनवरी को जो हज़ारों लोग उन रातों को सड़कों पर उतर आए थे, उन्होंने एक भी पंडित या उनके घर को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया था।

अपने इसी अध्याय में अशोक कुमार पाण्डेय ने कश्मीर के नेता मीरवायज़ की हत्या का उल्लेख जगमोहन जैसे राज्यपाल की राजनीतिक सूझ-बूझ को समझने के लिए किया है। मीरवायज़ कश्मीर के ऐसे लोक प्रिय नेता थे जिन्होंने रूबिया के अपहरण को इस्लाम विरोधी कहा था। पाकिस्तानी प्रेस उन्हें 'भारत का दलाल’ लिखता था। मीरवायज़ के जनाज़े में हज़ारों लोग शामिल हुए। मुख्य सचिव आर.के. ठक्कर ने जगमोहन को स्वयं जाकर या किसी प्रतिनिधि को भेजकर उनकी कब्र पर फूल चढ़ाने की सलाह दी जिसे जगमोहन ने नहीं माना। उल्टा उन्होंने जुलूस पर प्रतिबंध लगाने वाले निर्देश दे दिये जिसकी परिणती पुलिस द्वारा भीड़ पर गोली बारी से हुई।

अशोक कुमार पाण्डेय द्वारा परिश्रमपूर्वक जुटाये गए समस्त तथ्यों में से इस एक तथ्य को बेहद बारीकी तथा गम्भीरता से समझे जाने की आज ज्यादा जरूरत है। मेहबूब मख्दूमी का एक लेख 2016 में 'ग्रेटर कश्मीर’ में प्रकाशित हुआ था, जिसमें उन्होंने 22 सितम्बर 1990 को कुछ प्रतिष्ठित विस्थापित कश्मीरी पंडितों के एक पत्र को उद्धृत किया है। अंग्रेजी में लिखे गए इस पत्र में बृजनाथ भान, एम.एल.धर, चुन्नीलाल रैना, अशोक कौल, एम.एल.मुंशी, पुष्कर नाथ कौल, कमल रैना जैसे उस समय के नामचीन कश्मीरी पंडितों के हस्ताक्षर हैं। इस पत्र में जो लिखा गया है वह महत्वपूर्ण है: 'यह स्पष्ट है कि समुदाय के कुछ स्वघोषित नेताओं और अन्य निहित स्वार्थी वाले कुछ लोगों को जगमोहन द्वारा बलि का बकरा बनाया गया था जिसमें अडवानी वाजपेयी, मुफ्ती और जगमोहन की मुख्य भूमिका थी। जिसने पंडितों से विनती की कि वे कश्मीर छोड़ दें और यह धर्म की रक्षा तथा अखण्ड भारत के स्वप्न के लिए बहुत जरूरी है’।

कश्मीरी पंडितों के हस्ताक्षर वाले पत्र में अडवानी, वाजपेयी, मुफ्ती और जगमोहन की मुख्य भूमिका वाले संदर्भ को कुछ अधिक बारीकी और गम्भीरता के साथ समझे जाने की ज़रूरत है। अखण्ड भारत का स्वप्न वाले रूपक को भी जो दुर्भाग्य से इन दिनों सच होता हुआ नज़र आ रहा है।

तवलीन सिंह के एक उद्धरण को भी इसी के साथ जोड़कर देखा जाना चाहिए- 'कई मुसलमान यह आरोप लगाते हैं कि जगमोहन ने कश्मीरी पंडितों को घाटी छोडऩे के लिए प्रेरित किया। यह सच हो या नहीं लेकिन यह तो सच ही है कि जगमोहन के कश्मीर के आने के कुछ दिनों के भीतर वे घाटी छोड़ गए और इस बात के पर्याप्त सबूत है कि 'जाने के लिए संसाधन भी उपलब्ध करवाये गए’।

इस तरह केन्द्र शासन के अविवेकपूर्ण रवैये के चलते कश्मीर की स्थिति न केवल गम्भीर होती चली गई वरन् कश्मीरी पंडितों को भी वहां से पलायन करने का अप्रिय निर्णय लेने के लिए बाध्य होना पड़ा। लेकिन इन सारी बातों के लिए हमारी मीडिया, ढ़ेर सारे तथाकथित बुध्दिजीवी, हमारे राजनेता केवल कश्मीर के मुसलमानों को ही बात-बात पर कठघरे में खड़े करने की कोशिश करते हैं और एक तरह से इन सारे तथ्यों से मुंह छिपाने का प्रयत्न करते हैं।

'कश्मीर और कश्मीरी पंडित’ का ग्यारहवां तथा अंतिम अध्याय 'जिन्होंने घर नहीं छोड़ा’ इस किताब का एक अत्यंत महत्वपूर्ण अध्याय है। इस अध्याय का प्रारम्भ अशोक कुमार पाण्डेय ने वांचू परिवार के परिचय से किया है। ह्रदय नाथ वांचू का नाम मानव अधिकार के क्षेत्र में बेहद सम्मानजनक नाम माना जाता है। उनके सम्बंध में लेखक द्वारा उद्धृत बलराज पूरी का यह उद्धरण $गौरतलब है: 'कश्मीर में मानवधिकार उल्लंघनों के दस्तावेजीकरण का काम जितनी निष्पक्षता और जितने व्यवस्थित तरीके से ह्रदयनाथ वांचू ने किया, उतना किसी और ने नहीं’।

ह्रदय नाथ वांचू के इस समय के इस बयान से भी उन्हें समझने में आसानी हो सकती है: 'यहां खुला दमन है। आज बीजेपी और आर.एस.एस. लॉवी खुलेआम कह रहे हैं कि जगमोहन को उन्होंने भेजा है। कश्मीर पर कोई स्पष्ट सरकारी नीति नहीं है। नेशनल कान्फ्रेंस और कांग्रेस के लोग भाग गए हैं। विपक्ष को खत्म कर दिया गया है। मध्यमार्गियों के खिलाफ वारंट जारी किये गए हैं’।

इसी मानवाधिकार कार्यकर्ता ह्रदय नाथ वांचू की हत्या कर दी गई। 'ह्यूमन राइट्स वाच’ की रिपोर्ट में आरोप लगाया गया कि वांचू की हत्या तत्कालीन राज्यपाल गिरीश सक्सेना के कहने पर एक भारतीय अधिकारी द्वारा करवाई गई थी। संजय टिक्कू श्रीनगर में 'जम्मू कश्मीर पंडित संघर्ष समिति’ के कर्ताधर्ता हैं। उनसे लेखक ने एक लम्बी मुलाकात श्रीनगर में जाकर की है। उनके 'टेलीग्राफ ‘ में प्रकाशित एक बयान को भी इस अध्याय में उद्धृत किया है। उनका यह बयान अभी हाल ही में 370 हटाए जाने के बाद का है: 'मैं बता रहा हूं कि आगे बेहद मुश्किल दिन आने वाले हैं। आतंकवाद के उन शुरूआती दिनों से भी भयावह जब पंडितों को घाटी छोडऩी पड़ी थी। 370 हटाने के कदम ने इस समस्या को और 100 साल के लिए बढ़ा दिया है। धार्मिक विभाजन को और तीख़ा कर दिया है और लोगों की सहन शक्ति को कम कर दिया है’।

अशोक कुमार पाण्डेय ने एक और भ्रम से पर्दा उठाने का कार्य इसी अध्याय में किया है वे लिखते हैं 'एक आरोप अक्सर सुना जाता है कि पंडितों के पलायन के बाद कश्मीर में गलियों, सड़कों, शहरों आदि के नाम बदल दिये गए हैं। अपनी अनेक यात्राओं में घाटी के अलग-अलग कस्बों में घूमते मुझे तो ऐसा नहीं लगा आखिरी डोगरा महाराजा हरिसिंह के समय बनवाई गई हरिसिंह स्ट्रीट है। जवाहर नगर, करण नगर, महाराज गंज, मुंशी बाग़, देवी आंगन, रैनावारी, विचर नाग, गणपत्यार, शीतल नाथ, जोगी लंकर जैसे नाम वहीं के वहीं है। अवन्तिपुरा, संग्रामपुरा, नारायण बाग, भद्रकाली, गणेश बल, जोगी घाट जैसे कितने ही नाम मुझे कश्मीर के अलग-अलग इलाकों में घूमते मिले’।

मुस्लिमों द्वारा कश्मीर में मंदिर तोड़े जाने को भी खूब प्रचारित किया जाता है। अशोक कुमार पाण्डेय ने इस झूठ का भी पदार्फश इसी अध्याय में हरिंदर बावेजा की 'इंडिया टुडे’ में प्रकाशित रिपोर्ट 'डैमेजिंग लाइज’ को उद्धृत कर किया है। बावेजा के अनुसार 1991 में लालकृष्ण अडवानी ने कहा वे सभी पार्टियां जो बाबरी मस्जिद बचाने को अपना फ़र्ज़ मानती हैं, कश्मीर में तोड़े गए 55 मंदिरों के बारे में कुछ नहीं कहती। कुछ समय बाद उन्होंने यह संख्या 40 कर दी। भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व 1986 में तोड़े गए मंदिरों की संख्या 46 बताता है। एक वरिष्ठ आर.एस.एस. नेता इसकी संख्या 62 मानते हैं। 'इंडिया टुडे’ ने भाजपा की सूची के 23 मंदिरों का दौरा किया तो पाया कि इनमें केवल बाराकूला के दो मंदिर ही तोड़े गए है-शैल पुत्री और भैरव मंदिर। बाकी सभी मंदिर सुरक्षित पाए गए जहां पूजा-पाठ चल रहा था।

अशोक कुमार पाण्डेय ने कश्मीरी पंडितों की वापसी के लिए किए गए सरकारी प्रयासों का उल्लेख भी अपने इस अंतिम अध्याय में किया है कि किस तरह सन् 2000 में कश्मीरी पंडितों की वापसी के प्रयास केंद्र सरकार द्वारा किए गए। शेखपुरा में बने पहले ट्रांजिट कैम्प से लेकर सन् 2011 में मनमोहन सिंह सरकार द्वारा किए गए स्पेशल पैकेज की चर्चा की गई है। इन सारे सरकारी प्रयासों को नाकाफी मानते हुए संजय टिक्कू को उद्धृत कर यह बताने की कोशिश की गई है कि प्रधानमंत्री पैकेज विस्थापित पंडितों के पुनर्वास के अपने उद्देश्य में नाकामयाब रहा है।

वांचू परिवार के अमित वांचू के इस दर्द को भी 'कश्मीर और कश्मीरी पंडित’ के माध्यम से समझे जाने की आवश्यकता है। जब अमित वांचू कहते हैं 'चुनाव होते हैं, लोग जान का खतरा उठा कर वोट देने जाते हैं लेकिन बदले में मिलता क्या है? किसी सरकार ने उनके लिए कुछ किया? उसके वोट की कोई इज्जत की पार्टियों ने। अगर आप गवर्नेंस नहीं दे सकते तो लोकतंत्र का फायदा क्या है?

अमित वांचू का यह दर्द शायद हर कश्मीरी नागरिक का दर्द है। लेकिन इस दर्द को समझने वाली सरकार न पहले थी और न अब। कश्मीर में 370 और 35-ए के हटाये जाने के बाद भाजपा के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार से कश्मीर के हित में किसी भी तरह की उम्मीद करना एक तरह से बेमानी है।

 

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'इंसाफ  एक ऐसी चीज़ है जिसके मुतल्लिक कश्मीर के हर पक्ष को लगता है कि उसके साथ धोखा हुआ है। पाकिस्तान को लगता है कि एकदम सीमा से लगे मुस्लिम बहुल इलाके को न देकर माउंटबेटन से लेकर हरिसिंह और यू.एन.ओ. तक ने उसके साथ नाइंसाफी की है। हिंदुस्तान को लगता है कि इतने सालों तक इतना खर्च करने के बावजूद कश्मीरी उसके साथ एक स्वर में नहीं खड़े होते तो यह नाइंसाफी है। राजा के विलय पत्र पर हस्ताक्षर के बाद भी कश्मीर के भारत का हिस्सा होने पर सवाल उठना नाइंसाफी है। कश्मीरी मुसलमानों को लगता है कि जनमत संग्रह और स्वायत्तता का वादा न निभाकर लोकतंत्र को नियंत्रित रखकर उसके साथ नाइंसाफी की गई है और सवाल उठाने पर सेना से बंदूक चलवाकर भी। शेख को उम्र भर लगता रहा कि नाइंसाफी हुई है। उनके साथ फारूक को लगता है कि बिना किसी संशय के तिरंगा फहराने के बावजूद उनके साथ नाइंसाफी हुई है ‘।

अपनी इस किताब के अंतिम अध्याय में अशोक कुमार पाण्डेय का यह निष्कर्ष मानीखेज है। खासकर कश्मीर और कश्मीरी पंडित को लेकर उनका यह अभिमत पाठकों को अच्छा खासा बेचैन कर देने वाला है: 'कश्मीर पर हिंदी के बेहद प्रतिष्ठित कवि शमशेर बहादुर सिंह की एक अधूरी कविता है। कश्मीर पर लिखी तमाम किताबें पढ़ते हुए मुझे लगता है कि पूरी दिखती हुई भी अधूरी है और हज़ारेक पन्ने रंग देने के बाद भी मुझे लगता है कि कश्मीर पर मेरा लिखा भी अधूरा है’।

कश्मीर की समस्या की डोर आपस में इस कदर उलझी हुई है कि उस पर एकमत हो पाना या किसी एक निष्कर्ष तक पहुंच पाना थोड़ा कठिन ही है। इसलिए अशोक कुमार पाण्डेय की यह स्वीकारोक्ति अपने आप में मानीखेज है कि कश्मीर पर लिखी तमाम क़िताबें पढ़ते हुए भी मुझे लगता है कि पूरी दिखती हुई भी ये अधूरी हैं और हज़ारेक पन्ने रंग देने के बाद भी उनका कश्मीर पर लिखा आधा-अधूरा ही। यह एक ऐसे ईमानदार लेखक की आत्म स्वीकारोक्ति हैं जिसने 'कश्मीर और कश्मीरी पंडित’ जैसे एक बेहद ज्वलंत और जटिल विषय को अपने लेखन के लिए चुनने की हिम्मत दिखाई है।

इस किताब के अंतिम अध्याय 'जिन्होंने घर नहीं छोड़ा: घाटी में रह रहे कश्मीरी पंडित’ के आखिरी पैराग्राफ की ये पंक्तियां भी आज के संदर्भ में बेहद समीचीन हैं। इन पंक्तियों में अंतनिर्हित लेखक की बेचैनी और तकलीफ को समझे जाने की जरूरत है। अशोक कुमार पाण्डेय ने लिखा है: 'इन सब के बीच लम्बे समय से 370 हटाने को समस्या का समाधान बताने वाले दक्षिण पंथ ने संसद में अपने प्रचंड बहुमत का इस्तेमाल करते हुए श्यामा प्रसाद मुखर्जी का सपना पूरा तो कर दिया है लेकिन इन पंक्तियों के लिखे जाने तक कश्मीर में कफ्र्यू जैसे हालात हैं। इंटरनेट सेवाएं बंद हैं और छिटपुट विरोध प्रदर्शनों तथा सैन्य कार्यवाहियों के बीच पाकिस्तान से आतंकवादियों के कश्मीर में ताजा घुसपैठ की ख़बरों के साथ अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प की मध्यस्थता का प्रस्ताव इस विडम्बना को एक ब्लैक कॉमेडी में बदल रहा है या कि एक अभूतपूर्व ट्रेजडी में यह तो समय ही बतायेगा’।

'कश्मीर और कश्मीरी पंडित’ ग्यारह अध्यायों, सैकड़ों संदर्भों, अनुक्रमणिका और कालक्रम को लगभग चार सौ पृष्ठों में संजोया गया ग्रंथ है। 'कश्मीर और कश्मीरी पंडित’ जैसे एक बेहद गम्भीर विषय पर लिखना अपने आप में कोई कम दुष्कर कार्य नहीं था। खासकर ऐसे समय में जब इस तरह के खतरनाक विषय को छूना ही आग में हाथ डालने जैसा कार्य हो। अशोक कुमार पाण्डेय ने इस खतरनाक विषय को चुनकर आग में हाथ डालने जैसा कार्य ही किया है उन्होंने इस आग में न केवल स्वयं को जलाया है अपितु स्वयं कसे इस आग में जलाकर उन्होंने जो कुछ भी हिंदी जगत को दिया है अपने आप में अतुलनीय है।

हिंदी में इस तरह के लेखन का वैसे भी बेहद अभाव रहा है। ऐसे विषयों के लिए हमें बार-बार अंग्रेजी की ओर ही मुंह ताकना पड़ता है। कभी किसी रामचंद्र गुहा की ओर तो कभी किसी अन्य की ओर। अशोक कुमार पाण्डेय ने 'कश्मीरनामा’ और अब 'कश्मीर और कश्मीरी पंडित’ जैसी दुर्लभ कृतियों के माध्यम से जो उम्मीदें हिंदी जगत में जगाई हैं इसे हिंदी साहित्य की एक विरल उपलब्धि ही मानी जायेगी।

अशोक कुमार पाण्डेय ने 'कश्मीर और कश्मीरी पंडित’ के माध्यम से अभिव्यक्ति के तमाम ख़तरे उठाते हुए एक ऐसे अंधेरे और भूतहे खण्डहर में घुसकर कुछ अत्यंत दुर्लभ तथा मूल्यवान नीलकमलों की खोज की है जो आज के संदर्भ में बेहद जरूरी है, जिसके लिए वे नि:संदेह बधाई के पात्र हैं। अशोक कुमार पाण्डेय के लिए उनकी यह कृति भले ही आधी-अधूरी प्रतीत हो, पर सचाई यही है कि यह किताब अपनी पूरी संरचना में ही नहीं अपने पूरे मिशन में भीएक सफलतम कृति है। यह एक ऐसा मुकम्मल दस्तावेज है जिसके बिना कश्मीर और कश्मीरी पंडित को समझ पाना कभी सम्भव न हो पाता।

    

 

 रमेश अनुपम पहले भी पहल के अंकों में प्रकाशित हो चुके हैं। रायपुर में रहते हैं।

संपर्क- मो. 9425202505, 6264768849

 

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