बस्तर से कविताएं
कविता बस्तर से
द वर्जिन लैंड तीन दरवाज़ों वाला गाँव
1.
जहाँ पेड़ों पर संकेत की भाषा में उगती हैं सीटियाँ तनी हुई गुलेल छूटते ही मांगती हैं नागरिकता का प्रमाण पत्र तीर-धनुष, कुल्हाड़ी पूछते हैं कितना लोहा है तुम्हारी जुबान पर चाकू की धार से उंगलियों का रक्त रिसते ही लगाना होता है अंगूठा उसके संविधान पर किसी मुहर की तरह पहले दरवाजे की चाभी फिंगरप्रिंट के बिना नहीं खुलती मुझे याद है मेरा दूर का भाई कई दफा घूम आया है विदेश बिना किसी वीज़ा और पासपोर्ट के
2.
शहर के जरा सा मुंह फेरते ही तिरंगे का रंग उडऩे लगता है। प्रभात फेरी के साथ 'भारत माता की जय’ उनके कानों तक स्पष्ट पहुँचती है। हेलीकॉप्टर की आवाज से चौंक कर जाग जाता है छ: माह का बच्चा, जिसके बाप को नहीं पता पहिये के विकास की कहानी। जंगल की डाक पर जब तक नहीं लिखा होगा तुम्हारा नाम तुम सही पते पर कभी नहीं पहुँच सकते। स्पाईक होल नई खेल विधि है खुद के नाम से एक मुट्ठी मिट्टी फेंक कर चाहो तो पंजीयन करवा सकते हो तुम भी कि दूसरे दरवाज़े की चाभी स्क्रीनटच की तरह खुलती है
3.
कुकर में भात नहीं पकता रपटों पर सब्बल के घाव पक कर मवाद से भर गए हैं बिजली के तारों में विभागीय झटके नहीं आते। छिंद तोड़ते बच्चों के कानों तक पहुँचती है बाण्डागुडा के स्कूल में पढ़ाई जा रही 'वीर जवान तुम आगे बढ़े चलो’ वाली कविता बच्चे बढ़ते हैं गाय के झुंड की ओर बकरी, मुर्गी, सुअर की बाड़ी की तरफ मातागुड़ी वाली देवी की आँखों में रतौंधी है। मन्नत का भार बकरे के भार से हर बार ग्राम-मिलीग्राम कम पड़ जाता है। जूतों की धमक के साथ टूटता है गाँव के भीतर का सन्नाटा टूटती हैं औरतें, टूटते हैं पुरुष, बच्चों को टूटना नहीं आता! बच्चों को कोई नहीं बांधता यहाँ गले में ताबीज़। उन्हें भरा जाना है एक दिन खाली कारतूस में बारूद की तरह। दो दिन के बच्चे को सूखी छाती से चिपकाये औरतें भागती हैं शहर की ओर लकड़ी का बोझा सिर पर लादे औरतें जानती हैं पोलियोड्राप से नहीं दोनी भर मंडिया पेज से बची रहेंगी भविष्य के पैरों में जान। औरतें बदलती हैं धान को चावल में, रुपयों को दैनिक सामानों में पुरुष ढोता है सारा बोझ पहले दरवाजे की चौखट तक पुरुष राह तकते हैं सीमा रेखा पर औरतों के लौट आने की ताकि धुंगिया चबा सके उनकी जीभ। अर्जुन की आँखें ही भेद सकती हैं इस रहस्मयी तिलस्मी संसार की दुनिया को लौट आने की किसी संभावना के बिना पहुँचा जा सकता है उस पार कि तीसरे दरवाजे की चाभी यमराज के चाभी के गुच्छे में से कोई एक है।
4.
हॉड़-माँस के पुतले ही नहीं देवता भी यहाँ थर-थर काँपते हैं गाँव की परिधि पर रहस्यों की पोटली बांध कहीं खो जाते हैं वे लोग। जहाँ आधा बागी-आधा बच्चा पूछता है मुझसे आपको डर तो नहीं लग रहा! वह चिंता भी करता है और सतर्क भी रहता है पानी का लोटा थमाते हुए उसके हाथ 'अतिथि देवो भव’ की मुद्रा में होते हैं। मैं पूछती हूँ उससे कई सवाल। वो रहस्यमयी मुस्कान के साथ अपने हाथ की गुलेल मेरी हथेलियों पर धर देता है मैं डर के मारे काँपने लगती हूँ वह हँसता है गुलेल का भार तुम जैसे शहरी लोगों की हथेलियां नहीं उठा सकतीं। तुम अपने काम करो, हम अपना! उस वक्त मुझे उसकी आँखों में पाश की कविता एक चमकीली आग सी चमकती नजर आती है उस बच्चे ने नहीं पढ़ा है जबकि 'हम लड़ेंगे साथी उदास मौसमों के खिलाफ’ मेरी हथेलियाँ भारी हैं अब तक घर की खिड़की से दिखता है उस गाँव का सबसे ऊंचा पेड़ रात के सन्नाटे को चीरती है उनके मांदर की आवाज. ऐसे तो छ: किलोमीटर दूर है 'मनकेली गोरना’ पर बिना अनुमति के प्रवेश वर्जित है वहाँ कम होते आक्सीजन के अनुपात से अनुमान लगाया जा सकता है कि पेड़ों के उस झुरमुट में कुछ लोग अभी भी हवा के दम पर जिंदा हैं अद्भुत है 'द वर्जिन लैंड तीन दरवाजों वाला गाँव’ और वहाँ के लोग वहाँ की हवा वहाँ का संविधान अपनी सजगता में थर थर काँपती तनी हुई गुलेल और वहाँ के सावधान बच्चे!
तुम्हारी जगह ही तुम्हारी चेतना है
1.
तुम छोड़ दो अपनी जगह और भूल जाओ अपनी आवाजें उतारकर फेंक दो छानियों पर टँगा दांदर कि मछलियां खेत के मेड़ों पर फुदकर नहीं आने वाली तूम्बा को लटका आओ सल्फी की किसी टहनी पर हमेशा के लिए भूल जाओ चिपड़ी में उड़ेल कर महुए का रस, ताड़ को दु:खी होने दो इस बात के लिए कि तुम्हारा बेटा बाँधना भूल जाएगा अपनी शादी पर उसकी पत्तियों का बना मौड़
2.
तुम भूल जाओ हथेलियों में झोकर पानी पीना यहाँ तक कि उन दो हथेलियों की दो उंगलियों को भी जिन्हें रोटी के टुकड़े पकडऩे में कम और आदिमकाल से हाथो में पकड़े अपने धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाने के लिए ज्यादा इस्तेमाल किया तुम भूल जाओ जंगल की उन पत्तियों को चबाना जिनको जीभ पर धरते ही बदल जाता था मन का मौसम भूल जाओ चिडिय़ों की भाषा में आने वाली आपदाओं के संकेत शिकार के वक्त बुदबुदाने वाले मंत्र! मृतक के पैरों में चावल की पोटली बांध कर विदा करने की परम्परा! कि मरने के बाद भी अपने प्रिय को भूखा न देख पाने की पीड़ा तुम्हें किसी और मिट्टी में उगने नहीं देगी तुम्हारी स्थानीयता ही तुम्हारी सँस्कृति की चेतना है।
3.
तुम भूल जाओ एक दिन पेन परब पर तिरडुडडी की छनक एक दूसरे के हाथों को भींच कर पकडऩे की आदत कदम से कदम मिलाकर चलने का कड़ा अनुशासन। तुम्हारे कंधे मजबूत जरूर हैं पर इतने भी नहीं कि तुम उठा सको हर गाँव-हर घर के देवता को अपने कंधों पर शहर तक साबुत। जंगलों के देवता अपनी जगह नहीं बदलते।
4.
तुम्हारे देवता मंदिरों में नहीं झाड़ के झुरमुट के नीचे, पहाड़ की ऊंची चोटी पर चौकन्ने विराजते हैं तुम्हें जहर देकर नहीं मारा जा सकता गला रेतकर नहीं की जा सकती तुम्हारी हत्या। जंगल से हटा देना सबसे आसान तरीका है तुम्हें जड़ से नष्ट करने का तुम भूल जाओ एक दिन वह सब कुछ जिनके होने से तुम्हारे होने की गंध आती है।
5.
तुम खटो कारखानों में, शहर की गलियों में देर रात तक लौटो तुम्हें आदि बनाया जा रहा है दस से पाँच का वाली फैक्टरी की अलार्म धुन का पतला चावल पचाएँगी तुम्हारी आँते खाओगे, पीओगे एक दिन थककर मर जाओगे शहर के किसी कब्रिस्तान में दफन हो जाओगे बिना किसी मृत्यु-गीत के उस दिन पूरी दुनिया की मछलियां तड़प कर मर जाएंगी। पहाड़ भरभराकर गिर जायेंगे चंदन की सारी लकडिय़ां भाग जाएंगी जंगल से सारे आंगा देव नंगे होकर भटकेंगे बूढ़ा देव अचानक बदल जाएंगे शिवलिंग में। धोती-कुर्ता पहनें ताँबा के लोटे से सूर्य देवता को जल चढ़ाते कई-कई मंत्र हवा में घुल-मिल जाएंगे जिनमें तुम्हारी गन्ध कहीं नहीं होगी।
सभ्यता का स्पीड ब्रेकर
1.
उनके पैरों की जूतियाँ मीलों चलने के बाद भी मुँह फुला कर नहीं बैठ जाती बल्कि उनके तलवों की कठोरता के भीतर से छालों की तरह उफ़न आई कोमलता पर थोड़ी देर इतरा लेती हैं दो जोड़ी हरी वर्दी, एक जोड़ी जूता एक जोड़ी चप्पल
एक शीशी तेल, एक नहाने का साबुन, एक कपड़ा धोने का साबुन, दो सर्फ पैकेट, एक किलो फल्लीदाना का बोझ उठाते उनके कंधे उचक कर मुस्कुरा देते हैं पहाड़ी नदियाँ दो-चार दिनों में एक बार उनकी देह की गंध पा कर बौरा जाती हैं चार बंदूकों की आड़ में वह बहाती हैं अपने शरीर का कसैलापन, कपड़ों पर लगे दाग डिटर्जेंट पाउडर के साथ उड़ा देती हैं जंगल में धोती सुखाती फिर बनाती हैं बीत्ते भर लुंगी के कपड़े से उन दिनों के लिए सुरक्षाकवच वो सीख गई है अच्छी तरह हिसाब लगाना एक लुंगी की लंबाई-चौड़ाई समझने लगी हैं अब उनकी उंगलियां साड़ी के प्लेट्स उतनी तेजी से नहीं बना पाती हैं जितनी तेजी से दबाती हैं वह बंदूक की लिबलिबी (घोड़ा) धनुष-बाण, गुलेल उनके इशारों पर दौड़ते हैं उनकी हंसी जंगल को बचाती है ठूँठ होने से
2.
उनके भीतर भरा जाता है गुस्से का सिलेंडर उन्हें सिखाया जाता है लडऩा व्यवस्था के खिलाफ, सामाजिक अन्याय के खिलाफ वे लड़ती हैं जी जान से ऊँच-नीच की परवाह किये बिना पर उन्हें कभी नहीं पढ़ाया गया कामरेड अनुराधा गांधी की जीवनी वाला पाठ किसी साजिश के तहत उन्हें बंजर बनाया जा रहा है वह भूल चुकी है सृष्टि के प्रारंभ की कथा। उनकी सतर्क भाषा के भीतर वर्जित है प्रेम, शादी बच्चा जैसे शब्द! उनकी देह उन लोगों के लिए उत्सव की तरह है जिनकी पाँच उंगलियों के बीच वे फँसा देना चाहती हैं अपनी पाँच उंगलियाँ किसी सुरक्षित खाँचे का भरम समझ कर। उन्हें तो यह भी याद नहीं कि उनके कंधे पर जो बंदूक टंगी है उसमें असली बारूद है। शक होता है देवताओं की नीयत पर कोई ईश्वर इतना पक्षपाती कैसे हो सकता है
3.
उनके नाम से कांपता है जंगल के बाहर का आदमी उनके नाम से दर्ज होते हैं थानों में कई-कई खूंखार अपराध वसूली से लेकर, हत्या तक का मामला झीरम घाटी जैसे नर संहार में भी उनकी बंदूक बिना रुके धाँय-धाँय चलती रहती है। उनका पता बताने वालें के लिए ईनाम घोषित है, जन-अदालत हो छापामार या जनमलेशिया उनके बाजुओं के शौर्य से जगमगाता है उन्हें देखकर सोचती होंगी गाँव की सारी औरतें औरतों को उनके जैसा ही होना चाहिए उन जैसी औरतों के लिए बेहद जरूरी होता है इन जैसी औरतों का संग वह जो भी बन जाएँ- जो भी हो जाए उनकी उपेक्षा की पीड़ा पर कोई पुरुष नहीं धरेगा नर्म, मुलायम, ठंडा हाथ वह चाहे जितनी हिंसक हो जाएँ चाहे जितनी स्वार्थी, नहीं थोड़ पायेंगी लिंग से बने हुए ब्रेकर संसार की सारी भाषाएँ एक होकर भी व्यक्त नहीं कर सकती उनका दर्द उनकी चुप्पी गंभीर विषय के विमर्श का हिस्सा नहीं बन सकती उनके पास ऐसी कोई भाषा ही नहीं कि लिखित में दर्ज करवा सकें अपनी शिकायत। उनकी गुलेल की कच्ची गोटियों से कुछ नया नहीं होने वाला जरूरत है एक दूसरे के सीने में उतनी आग इकट्ठा करने की कि जितनी काफी हो एक लिंग जला कर राख करने के लिए।
पूनम विश्वकर्मा मूलत: आदिवासी विमर्श से जुड़ी है। बस्तर के बीजापुर में शिक्षिका हैं. लिटरेरिया को कोलकता, भारत भवन भोपाल, कवि संगम बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में कविता पाठ कर चुकी हैं। संपर्क- बीजापुर
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