हम कागज़ नहीं दिखायेंगे
श्रेणी | हम कागज़ नहीं दिखायेंगे |
संस्करण | मार्च - 2020 |
लेखक का नाम | वरूण ग्रोवर, हुसैन हैदरी, पुनीत शर्मा |
शुरुवात
सड़क की कविता सड़क पर कविता
'हम कागज़ नहीं दिखायेंगे’ प्रतिरोध का 'एंथम’ बन चुकी है। इंटरनेट की दुनिया में इसे खूब साझा किया गया है। युवा कवि और गीतकार वरूण ग्रोवर ने इसे लिखा है। शिक्षा से इंजीनियर वरूण फिल्म-लेखक और गीतकार हैं। 'दम लगा के हईशा’, 'न्यूटन, 'मसान’, 'सुई धागा’, 'सोनचिरैया, 'सेक्रेड गेम्स’ जैसी अनेक फिल्मों और वेब-सीरीज़ में उन्होंने लिखा है।
1.
हम कागज़ नहीं दिखाएंगे तानाशाह आके जायेंगे, हम कागज़ नहीं दिखाएंगे। तुम आंसू गैस उछालोगे, तुम ज़हर की चाय उबालोगे, हम प्यार की शक्कर घोलके इसको, गट-गट-गट पी जायेंगे, हम कागज़ नहीं दिखाएंगे।
ये देश ही अपना हासिल है, जहां राम प्रसाद भी बिस्मिल है, मिट्टी को कैसे बांटोगे, सबका ही खून तो शामिल है, ये देश ही अपना हासिल है, जहां राम प्रसाद भी बिस्मिल है, मिट्टी को कैसे बांटोगे, सबका ही खून तो शामिल है, तुम पुलिस से ल_ पड़ा दोगे, तुम मेट्रो बंद करा दोगे, हम पैदल-पैदल आएंगे, हम कागज़ नहीं दिखाएंगे। हम मंजी यहीं बिछाएंगे, हम कागज़ नहीं दिखाएंगे। हम संविधान को बचाएंगे, हम कागज़ नहीं दिखाएंगे। हम जन-गन-मन भी जाएंगे, हम कागज़ नहीं दिखाएंगे। तुम जात-पात से बांटोगे, हम भात मांगते जायेंगे, हम कागज़ नहीं दिखाएंगे।
2
शिक्षा से चाटर्ड एकाउंटेन्टट। हुसैन हैदरी इंदौर के रहने वाले हैं, अब मुंबई में फिल्म लेखक और गीतकार। प्रतिरोध के इन दिनों में उनकी कविताएं जनता के बीच काफी लोकप्रिय हुई हैं।
सड़क पर सिगरेट पीते वक़्त जो अजां सुनाई दी मुझको तो याद आया के वक़्त है क्या और बात ज़हन में ये आई मैं कैसा मुसलमां हूं भाई?
मैं शिया हूं या सुन्नी हूं मैं खोजा हूं या बोहरी हूं मैं गांव से हूं या शहरी हूं मैं बाग़ी हूं या सूफी हूं मैं क़ौमी हूं या ढोंगी हूं
मैं कैसा मुसलमां हूं भाई? मैं सजदा करने वाला हूं या झटका खाने वाला हूं मैं टोपी पहन के घूमता हूं या दाढ़ी उड़ा के रहता हूं मैं आयत कौल से पढ़ता हूं या फ़िल्मी गाने रमता हूं मैं अल्लाह अल्लाह करता हूं या शेखों से लड़ पड़ता हूं मैं कैसा मुसलमां हूं भाई
मैं हिंदुस्तानी मुसलमां हूं।
दक्कन से हूं, यू.पी. से हूं भोपाल से हूं, दिल्ली से हूं कश्मीर से हूं, गुजरात से हूं हर ऊंची-नीची ज़ात से हूं मैं ही हूं जुलाहा, मोची भी मैं डाक्टर भी हूं, दर्जी भी मुझमें गीता का सार भी है इक उर्दू का अख़बार भी है मिरा इक महीना रमज़ान भी है मैंने किया तो गंगा-स्नान भी है अपने ही तौर से जीता हूं इक-दो सिगरेट भी पीता हूं कोई नेता मेरी नस-नस में नहीं मैं किसी पार्टी के बस में नहीं
मैं हिंदुस्तानी मुसलमां हूं।
खूनी दरवाज़ा मुझमें है इक भूल-भुलैयां मुझमें है मैं बाबरी का एक गुंबद हूं मैं शहर के बीच सरहद हूं झुग्गियों में पलती गुरबत मैं मदरसों की टूटी-सी छत मैं दंगों में भड़कता शाला मैं कुर्ते पर खून का धब्बाम मैं मैं हिंदुस्तानी मुसलमां हूं।
मंदिर की चौखट मेरी है मस्जिद के किबले मेरे हैं गुरुद्वारे का दरबार मेरा येशू के गिरजे मेरे हैं सौ में से चौदह हूं लेकिन चौदह ये कम नहीं पड़ते हैं मैं पूरे सौ में बसता हूं पूरे सौ मुझमें बसते हैं मुझे एक नज़र से देख ना तू मेरे एक नहीं सौ चेहरे हैं सौ रंग के हैं किरदार मेरे सौ कलम से लिखी कहानी हूं मैं जितना मुसलमां हूं भाई मैं उतना हिंदुस्तानी हूं
मैं हिंदुस्तानी मुसलमां हूं।
3
पुनीत शर्मा मिज़ाज से इंदौरी हैं। पढ़ाई के बाद एक रेडियो स्टेशन में काम किया। अब मुंबई में फिल्म-संसार में लेखन। संजू, बरेली की बर्फी, रिवॉल्वर रानी जैसी फिल्मोंं में गाने लिखे हैं। सोशल मीडिया पर प्रतिरोध का मुखर स्वर हैं उनकी कविताएं।
हिंदुस्तान से मेरा सीधा रिश्ता है, तुम कौन हो बे क्यूँ बतलाऊँ तुमको कितना गहरा है, . तुम कौन हो बे
तुम चीखो तुम ही चिल्लाओ कागज़ ला लाकर बतलाओ पर मेरे कान ना खाओ तुम बेमतलब ना गुर्राओ तुम ये मेरा देश है इससे मैं चुपचाप मोहब्बत करता हूँ अपनों की जहालत से इसकी हर रोज़ हिफ़ाज़त करता हूँ तुम पहले जाहिल नहीं हो जो कहते हो चीख के प्यार करो इतना गुस्सा है तो अपने चाकू में जा कर धार करो और लेकर आओ घोंप दो तुम वो चाकू मेरी पसली में ग़र ऐसे साबित होता है तुम असली हो और नकली मैं
हिंदुस्तान से मेरा सीधा रिश्ता है, तुम कौन हो बे क्यूँ बतलाऊँ तुमको कितना गहरा है, तुम कौन हो बे
जा नहीं मैं तुझ को बतलाता कि क्या है ये धरती मेरी, किन शहरों से, किन लोगों से, मैंने पायी हस्ती मेरी, किन फसलों में लहराता था, वो अन्न जो हर दिन खाया है, क्या मैंने इस से पाया है और क्या मैंने लौटाया है,
जा नहीं मैं तुझ को बतलाता कि कैसे प्यार जताता हूँ, वो कौनसा वादा है इससे, जो हर इक रोज़ निभाता हूँ, वो कौनसा कस्बा था जिस से मेरी माँ ब्याह के आयी थी, किस बेदिल एक मोहल्ले में मैंने चप्पल चटकाई थी,
किस रस्ते से हो कर के मेरी बहन लौटती थी घर को, किन कवियों का नमक मिला है इस कविता के तेवर को, क्या वो बोली थी जिस में मुझ को दादी ने गाली दी, और इश्क़लड़ाने को दिन में किन बागों ने हरियाली दी,
जिनसे उधार था भइया का, वो कौनसी पान की गुमटी थी, किस के मशहूर अखाड़े में पापा ने सीखी कुश्ती थी, किस स्कूल में मेरे यार बने, किस गली में मैंने झक मारी किस खोमचेवाले ने समझी थी मेरी जेब की लाचारी
अरे जाओ नहीं मैं बतलाता, और तुम भी मत बतलाओ ना मैं अपने घर को जाता हूँ, तुम अपने घर को जाओ ना, देखो! मैं तो बतला भी दूँ, पर वतन ही बेकल है थोड़ा जो उसके मेरे बीच में है, वो इश्क़पर्सनल है थोड़ा
तुम नारों से आकाश भरो धरती भर दो पाताल भरो पर मुझ को फ़र्क नहीं पड़ता ये सस्ता नशा नहीं चढ़ता तुम जो हो भाई हट जाओ अभी देश घूमना है मुझ को ''इस वतन के हर इक माथे का हर दर्द चूमना है मुझ को’’ तुम धरम जो मेरा पूछोगे तो हँस दूँगा कि क्या पूछा तुम ने ही मुझ से पूछा था इस देश से मेरा रिश्ता क्या जो अब भी नहीं समझ पाए तो कुछ भी आगे मत पूछो तुम कैसे समझोगे आख़िर ये प्रेम की बातें हैं ऊधो
हिंदुस्तान से मेरा सीधा रिश्ता है, तुम कौन हो बे क्यूँ बतलाऊँ तुमको कितना गहरा है, . तुम कौन हो बे।।
छब्बीस जनवरी का लड्डू
लड्डू खा कर सोच रहा हूँ नौकरी कल जाने वाली है मंदी घिर आने वाली है डॉलर सर पर नाच रहा है शेयर बजार में सन्नाटा है बैंकों की हालत है खस्ता खड्डे में है अर्थव्यवस्था
लड्डू खा कर सोच रहा हूँ
चार प्रांत में बाढ़ है आई नाव कहीं भी पहुँच न पाई चार प्रांत में पड़ा है सूखा उन्हें न पानी किसी ने पूछा पैसा सारा बहा चुके सब मूरत ऊँची लगा चुके सब
लड्डू खा कर सोच रहा हूँ
टीवी में चीख़ें ही चीख़ें अख़बारों से ख़बरें ग़ायब वॉट्स-एप है ज्ञान का सागर फ़ोन में डूबी नज़रें ग़ायब प्रोपोगंडाचहुं ओर है बहुत शोर है, बहुत शोर है
लड्डू खा कर सोच रहा हूँ
जन्नत में इक ढोल बजा है और विकास का राग छिड़ा है बंदर सारे भांग पिए है नशे में धन-धन नाच रहे है जेब मदारी ने भर ली है ज़मीं सियारों ने धर ली है
लड्डू खा कर सोच रहा हूँ एक राष्ट्र का सपना देकर राष्ट्र के टुकड़े कर डाले है ''धर्म की रक्षा’’, ''राष्ट्र-सुरक्षा’’ भूत दिमाग़ में भर डाले है सदियों तक अँधेर रहेगा ओखली में यूँ सर डाले है
लड्डू खा कर सोच रहा हूँ
इतनी ज़्यादा बद-हाली में सालगिरह मनवा ली मुझसे ख़ून से लथ-पथ लौटा जो घर तो कमीज़ धुलवा ली मुझसे अब ज़मीर को नोच रहा हूँ लड्डू खा कर सोच रहा हूँ झंडा क्यूँ फहराया मैंने जन गण मन क्यूँ गाया मैंने
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