ओमप्रकाश वाल्मीकि का गद्य लेखन

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    दिसंबर - 2019
श्रेणी ओमप्रकाश वाल्मीकि का गद्य लेखन
संस्करण दिसंबर - 2019
लेखक का नाम कर्मेन्दु शिशिर





आलेख

 

ओमप्रकाश वाल्मीकि

 

 

हिन्दी में दलित-विमर्श की शुरुआत भले नवजागरण काल में हुई हो लेकिन इसकी स्वतंत्र पहचान और एक आंदोलन का स्वरूप आँठवें-नवें दशक से ही बनना शुरू होता है। तब से लेकर आज तक के कालखंड में विपुल मात्रा में दलित रचनाएँ सामने आयीं और विविध विधाओं में आयीं। इस दौरान अनेक नई दलित पत्रिकाएँ और नये-नये प्रकाशक उभरे और सबसे बड़ी बात यह कि एक विशाल नया पाठक समुदाय भी शामिल हुआ। प्रारंभिक जद्दोजहद के बाद इस इलाके से आये अनेक रचनाकारों और उनकी रचनाओं को सार्वजनिक स्वीकृति भी मिली। बेशक यह स्वीकृति कोई कृपांक नहीं थी बल्कि यह इस आंदोलन की सर्वोत्तम रचनात्मक उपलब्धियाँ थीं। इससे हिन्दी में एक भिन्न जीवन और समाज का ऐसा अदीठ यथार्थ आ मिला जो इससे पहले इस रूप में मौजूद नहीं था। सबसे सकारात्मक बात यह हुई कि इससे न सिर्फ समकालीन हिन्दी की रचनात्मकता का विस्तार हुआ बल्कि इसके पूर्व के साहित्यिक इतिहास और परंपरा को भी नये सिरे से देखने-समझने और विश्लेषित करने की शुरुआत हुई।

दलित विमर्श के इस रचनात्मक संक्रमण पर अगर आप गौर करें तो यह बात स्पष्ट होती है कि इसके सृजनात्मक साहित्य को जिस तरह धीरे-धीरे ही सही लेकिन एक साहित्यिक स्वीकृति मिली, वह स्थिति इसके वैचारिक और आलोचनात्मक लेखन को लेकर नहीं बन सकी। नि:संदेह इसकी भिन्न वैचारिकता को लेकर कोई संभ्रम या हिचक नहीं रही होगी, क्योंकि इस मामले में प्रगतिशील आंदोलन के बाद हिन्दी लगातार उदार और लोकतांत्रित होती गई है। सरसरी तौर पर देखने पर ऐसा लगता है कि उनके वैचारिक और आलोचनात्मक लेखन में आलोचनात्मकता कम और आक्रामकता ज्यादा है। आंदोलन के प्रारंभिक दौर में आयीं तीखी प्रतिक्रियाओं को स्वाभाविक मानकर नजरअंदाज किया जा सकता है। लेकिन एक बात तो स्वीकार करनी पड़ेगी कि घनीभूत घृणा और सघन गुस्से का चाहे जो भी जस्टीफिकेशन हो, ऐसे तेवर और मन:स्थिति में कोई विचार या आलोचना नहीं हो सकती। महान् से महान् क्रांतिकारी लेखकों, विचारकों के लेखन में भी यह अंतर्भुक्त होता है, मुखर नहीं होता। ऐसी प्रवृत्ति अंतत: एक प्रतिक्रियावादी निषेध की ओर ही ले जाती है। तब से लेकर आज तक एक लंबा वक्त गुजरा है। आवेग थमा है, काफी कुछ निथर कर सामने आया है। इसलिए उनके वैचारिक और आलोचनात्मक लेखन की भी गहरी और ईमानदार छानबीन होनी चाहिए।

हिन्दी में दलित विचारकों का यह मानना है कि उनकी वैचारिकी का उत्स, आधार और प्रेरणा भीमराव अंबेडकर का लेखन है। किस लेखक या विचारक उत्स, आधार या प्रेरणा कौन है, इससे भला किसी को क्या एतराज हो सकता है। किसी का कार्ल माक्र्स हो या गाँधी! इस आधार पर किसी लेखक या विचारक के लेखन का मूल्यांकन नहीं होगा। यह किसी लेखन की श्रेष्ठता या सही होने का कारक नहीं हो सकता। दलित लेखन के आसंग में अगर हम भीमराव अंबेडकर के साहित्य को कालक्रम से पढ़ते हुए विचार करते हैं तो उनमें एक तरह की गतिशीलता मिलती है। बिना इस गतिशीलता के मौलिकता संभव ही नहीं हो सकती। उनमें दूसरी बात गौर करने वाली यह है कि उनके वैचारिक लेखन की प्रकृति निषेध और नकार की नहीं, आलोचनात्मक विश्लेषण की रही है। वे धर्म-ग्रंथों, दर्शन, समाज, इतिहास अथवा राजनीति का बारीक विश्लेषण करते हुए विभिन्न कारकों के यथार्थ का अनुसंधान करते हैं। समाज के ताने-बाने का ऐतिहासिक यथार्थ खोलते हैं, उसमें धर्म, अर्थ या राजनीति की भूमिका का आकलन करते हैं और तंत्र के विभिन्न कारकों को आमने-सामने खड़ा कर देते हैं। तीसरी बात जो सबसे अधिक महत्वपूर्ण है कि उनके राजनीतिक जीवन से अलग सिर्फ उनके वैचारिक लेखन पर गंभीरता से विचार करें तो वे खुद को दलित मानकर विचार विश्लेषण नहीं करते, बल्कि एक निरपेक्ष और तटस्थ सत्यान्वेषी विचारक की तरह विश्लेषण करते हुए तथ्य-तर्कों और पूरी रैशनलिटी के साथ सामाजिक यथार्थ की तलाश पूरी कर लेते हैं। बिना तटस्थ, निरपेक्ष और रैशनल हुए आपकी वैचारिकी में स्वीकार्यता नहीं आ सकती। यही कारण है कि उनमें राजनीतिक और सामाजिक सवालों पर जो आवेग और आक्रोश दिखाई देता है, वह उनके वैचारिक लेखन में नहीं है। गंभीर चिंतनपरक मामलों में वे बड़े समर्थ विचारक की तरह एकदम प्रशांत और गंभीर लगते हैं। इसलिए उनकी वैचारिक विरासत के वाहक का दावा करना जितना आसान है, सचमुच वैसा होना बहुत कठिन। इसलिए आत्मनिरीक्षण करना होगा कि उनके विचारों का विकास और अपने समय, समाज, सृजन या साहित्य में विन्यस्त करने की समझ और सलीका हम कैसे विकसित करें!

इस आलोक में दलित विमर्श के विपुल वाङमय से ऐसे साहित्य और साहित्यकार को हिगराना एक कठिन कार्य है। मेरा उस साहित्य से वैसा परिचय का सुयोग भी नहीं हुआ। सरसरी तौर पर जितना उलट-पलट पाया हूँ उस आधार पर मैं इतना जरूर कह सकता हूँ कि तमाम अवरुद्ध गतिरोधों के बावजूद दलित वैचारिकी में नये इलाके के तलाश की भरपूर संभावनाएँ हैं। जिनके लेखन से मैं गुजर पाया उसमें तुलसीराम, मोहनदास नैमिशराय, कँवल भारती और ओमप्रकाश वाल्मीकि के वैचारिक लेखन ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया। तब यह जरुर है कि हिन्दी में दलित वैचारिकी के लगभग तमाम मुद्दे और आधार एक हैं। उनके नैरेटिव भले अलग हों, निशाना एक है, और निश्चित है। उनके वार करने के हथियार और तरीकों में भी समानता है। जाहिर है ऐसे में उनके वैचारिक निष्कर्षों में भी एकरूपता मिलती है। समान तथ्य-तर्कों वाली ऐसी आलोचनात्मक वैचारिकता और एकरूपता से एक किस्म का ठहराव पैदा हो जाता है। शायद यह भी एक कारण हो कि दलित वैचारिकी एक लंबी यात्रा के बाद गोया किसी बंद दरवाजे के पास आकर ठिठक गई हो। आप समय, समाज, संसार में बनी विविध विधाएँ, सृजन, साहित्य-सब कुछ को सिर्फ और सिर्फ 'जाति’ के नजरिये से विश्लेषित कर नहीं समझ सकते। यथार्थ हमेशा समय समग्रता में विन्यस्त होता है। यही कारण है कि दलित वैचारिकी के इलाके सीमित हो गये। निश्चित विरोध, निश्चित समर्थन की आवृत्ति एकरसता में बदलती गई और नये-नये वैचारिक क्षितिज की संभावना ही निर्मूल होती गई। चाहे हम जिस पर भी विचार करें, हमें इन तमाम बातों का ख्याल रखना होगा।

यह बात लगभग मान्य है कि ओमप्रकाश वाल्मीकि बतौर एक कथाकार अपनी पीढ़ी में ऐतिहासिक रूप में एकदम प्रतिष्ठित हैं। उनकी कहानियों पर लिखते हुए मैंने उनके रचनात्मक उत्कर्ष और उपलब्धियों को आकलित करने की भरसक कोशिश की है। उसी आकर्षण का विस्तार उनके गैरकथात्मक लेखन तक हुआ। यह सब देखते हुए लगता है कि बेशक उनका जीवन बहुत लंबा नहीं रहा लेकिन लेखन की निरंतरता के कारण उनका गैरकथात्मक लेखन भी बहुत है जिससे गुजरते हुए उनके कठिन श्रम, अध्यवसाय और समर्पण का कुछ-कुछ अंदाज हो जाता है। इसमें शोधात्मक लेखन है, सैद्धांतिक, वैचारिक और आलोचनात्मक भी। उनका विषय विस्तार उनकी रूचि वैविध्य को भी प्रमाणित करती है। लेकिन उनके समग्र लेखन के केन्द्र में है जाति-दंश! उनका कथा सहित्य भी इसी के विविध अनुभवों से भरा है। यही उनकी मूल चिंता थी और उनका एक ही लक्ष्य था- जाति श्रेणीगत सीढ़ी के सबसे नीचले पायदान पर खड़े समुदाय की मुक्ति। वे इसी नजरिये से ही जीवन, समाज और साहित्य को देखते थे। उनकी यह एकनिष्ठ सक्रियता ऐसी कि उनके जैसे समर्थ सृजनात्मक कथाकार ने बिल्कुल भिन्न प्रकृतिगत और स्वरूपगत विधाओं में काम किया और पूरे समर्पण से किया। उन्होंने इस सामाजिक संरचना के ब्राह्मणवादी तंत्र को समझने के लिए हिन्दू और बौद्ध धर्म ग्रंथों, इतिहास, समाजविज्ञान, राजनीति और साहित्य की दूर-दूर तक यात्राएँ की। इस कारण उनके ऐसे लेखन का स्वरूप अकादमिक स्वरूप वाला बन गया था।

उनके पूरे गैरकथात्मक लेखन से गुजरते हुए उनके विपुल और व्यापक अध्ययन का सहज ही अनुमान होता है। जाहिरन भिन्न बौद्धिक इलाकों में दखल के पीछे उनका उद्देश्य के प्रति समर्पण और सघन सरोकार ही है क्योंकि वे एक सोद्देश्य रचनाकार थे। उन्होंने जाति-दंश के तप्त ताप को निजी स्तर पर सहा था और उन्हीं अनुभवों के अंगार पर चलकर लेखन की ओर आये थे। अपनी आत्मकथा 'जूठन’ के अलावे अपनी इन आलोच्य पुस्तकों में भी उस पीड़ादायक अनुभवों की अभिव्यक्ति की है। उनके वैचारिक लेखन के विषय, उनकी चिंताएँ इससे अलग नहीं। उनका मूल उद्देश्य भी यही था कि निचले पायदान पर बद से बदतर जिन्दगी जीने वाले जनसमुदायों को मुक्ति मिले। वे इस समाज के अतीत की तलाश करते हैं, वे यह जानना चाहते हैं कि यह समाज कैसे बना? उसे किस तरह दीर्घावधि तक इस तरह जीने पर विवश किया गया। इसलिए वे बार-बार विभिन्न धर्म-ग्रंथों, इतिहासकारों और विभिन्न विचारकों के पास जाते हैं। उनके विपुल उद्धरणों के साक्ष्य से वे यह बतलाना चाहते हैं कि यह व्यवस्था समाज के वर्चस्ववादियों की देन है। संस्कृति और धर्म संपोषित इस वर्णवादी व्यवस्था का अपरिवत्र्तनीय सिलसिला है। इसीलिए वे ऋग्वेद से चलकर गोहाना के अग्निकांड और झज्जर दलित हत्याकांड तक आते हैं और उस सिलसिले को रेखांकित करते हैं। उनकी कोशिश है कि एक बेहतर भाईचारे और मानवीय मूल्यों में यकीन करने वाले इस वंचित समुदाय की पीड़ा सुने जाने, इनसे जुड़े और वर्चस्ववाद का खात्मा हो। एक समान न्याय वाले मानवीय मूल्यों पर आधारित समाज बने। लिखते हैं- ''दलित नैतिकताएँ ईश्वरीय नहीं हैं। वे रोजमर्रा के जीवन की अच्छाइयों और बुराइयों पर आधारित जीवन की मानवीय संवेदनाएँ और अनुभूतियाँ हैं। वे ज्यादा लोकतांत्रिक और समाज-सापेक्ष हैं, जो समय के साथ बदलना चाहता है और मानवीय मूल्यों के प्रति सजग है।’’ (मुख्यधारा और दलित साहित्य पृ-61)

इस आसंग में उन्होंने एक ऐसा काम किया, जिस पर आज तक किसी लेखक का ध्यान नहीं गया। उन्होंने माथे पर मैला ढोने वाले भंगी समाज पर 'सफाई देवता’ नाम से एक शोधपरक उल्लेखनीय किताब लिखी। उस समाज के विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न नामों से मौजूदगी को ऐतिहासिक साक्ष्यों के साथ प्रस्तुत किया। उनके नारकीय जीवन को ही नहीं, उनके सांस्कृतिक जीवन का भी इतिहास प्रस्तुत किया। इस समुदाय को शूद्र वर्ण में भी जगह नहीं मिली। ये अन्त्यज थे पंचमवर्ण वाले। इस समुदाय के उत्पीडऩ के इतिहास से गुजरना अत्यन्त यातनादायी और हृदयविदारक है। इस खोजपूर्ण पुस्तक में उन्होंने समकालीन समय के पाखंड और झूठ को भी बेपर्द किया है। हमारी सभ्यता और विकास के दावों का पाखंड खुल जाता है। मोटे तौर पर यह हमारी सांस्कृतिक विरासत का शर्मनाक अभिशाप है। हमारे मनुष्य होने पर कलंक! यह पुस्तक उनके गैरकथात्मक लेखन की और हमारी समकालीन हिन्दी की एक उपलब्धि है। इससे परिचित होना हमारे मनुष्य होने की, सामाजिक नागरिक होने की शर्त होनी चाहिए।

 

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सवाल यह नहीं है कि कोई विचारक अपने विचार की परिधि का कितना विस्तार करता है। सवाल यह है कि वह अपने वैचारिक विषय के साथ कैसा बौद्धिक सलूक करता है। कोई विचार या निष्कर्ष सही हो या गलत, उससे सहमति हो या असहमति लेकिन अगर उसमें गंभीर बौद्धिक सलूक रहेगा तो वह साहित्य की वैचारिकी का ऐतिहासिक हिस्सा बना रहेगा। अब इस लिहाज से ओमप्रकाश वाल्मीकि के साहित्यिक आलेखों को देखें तो वे आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल, भारतेन्दु-युग, छायावाद से आधुनिक काल तक कहीं कुछ नहीं छोड़ते। सब पर अपनी बेझिझक आलोचनात्मक टिप्पणियाँ जड़ते हुए तेजी से आगे बढ़ते चले जाते हैं। सरहपा, तुलसीदास, कबीरदास, रैदास, मीरा अथवा भारतेन्दु, वे किसी पर निर्णायक टिप्पणियाँ करते हुए आत्मसंशय अथवा अपवाद की गुंजाइश तक नहीं छोड़ते। ''कबीर और रैदास में जो विद्रोह दिखाई पड़ता है वह भी आत्मा-परमात्मा के गुंजल्क से बाहर नहीं निकल पाया। कबीर के सामाजिक विरोधभासों से सभी परिचित हैं। स्त्री के प्रति उनकी सोच जग जाहिर है। गगग सिद्धों के लिए नारी साधना का एक साधन है और उपभोग का भी। संतों ने नारी को साधना में बाधक मानकर हेय दृष्टि से देखा है।’’ (दलित साहित्य अनुभव, संघर्ष एवं यथार्थ पृ- 63) अब सिद्धों पर राहुल सांक्रत्यायन, हजारीप्रसाद द्विवेदी से धर्मवीर भारती और अनेक आधुनिक शोधार्थियों ने बहुत सारा काम किया है। सरहपा या दूसरे सिद्धों की रचनाओं अथवा साधनाओं पर काफी कुछ लिखा गया है। कबीर पर तो हजारीप्रसाद द्विवेदी से पुरुषोत्तम अग्रवाल के बीच दर्जनों देशी-विदेशी विद्वानों और विचारकों ने एक-एक पक्ष पर बहुत गहनता से विचार किया है। कबीर के इस प्रसंग पर अब डिबेट यही तक इसी रूप में रूका हुआ नहीं है। अब उस गहन, बारीक और विपुल अध्ययन के बीच अगर इस तरह की टिप्पणियों को अहमियत नहीं मिलती तो इसके कारण अपने बौद्धिक सलूक में ढूँढने होंगे। आगे बहुत तैयारी से हस्तक्षेप करना होगा।

उसी तरह ओमप्रकाश वाल्मीकि जी का 1857 और हिन्दी नवजागरण पर एक आलेख है। इस एक लेख में उन्होंने इतने सारे नवजागरण के नायकों पर बेहिचक आलोचनात्मक टिप्पणियाँ की हैं कि उनके साहस पर आश्चर्य होता है। हिन्दी में नवजागरण विमर्श का एक विशाल इलाका है। इसके डिबेट की एक लंबी परंपरा मौजूद है। बावजूद ओमप्रकाश वाल्मीकि जी रूककर इस डिबेट में कहीं गंभीर हस्तक्षेप करते हुए नहीं दिखते। अब नवजागरण को लेकर आपकी जो भी समझ हो, आप उसे नकारें या स्वीकारें, लेकिन इसके लिए आपको उस विमर्श के बीहड़ में उतरना तो होगा। अब तक हुए विभिन्न अनुसंधान, अध्ययन और बहस से आपको गुजरना ही होगा। बिना ऐसा किये सिर्फ चलताऊ टिप्पणी कर यह आरोप नहीं जड़ सकते कि हमारे नैरेटिव को इस या उस कारण से महत्त्व नहीं दिया जा रहा। अब उन्होंने नवजागरण को देश के विभाजन से जोड़ा है। अब इसके लिए उनको नवजागरण साहित्य को तत्कालीन समय के राजनीतिक प्रसंगों, घटनाओं के सापेक्ष ऐतिहासिक क्रम से विश्लेषण करना होगा। तथ्य-तर्कों के आधार पर एक रैशनल नैरेटिव खड़ा करना होगा। ''धार्मिक कट्टरता, जड़ता हमारी चेतना को ढक लेती है और यही कारण है कि नवजागरण की तमाम उपलब्धियों को सीमित कर लिया है। नवजागरण से जन्में अंतर्विरोधों ने हमारी सोच को इतना प्रभावित किया है कि देश के दो टुकड़े हो गए।’’ (मुख्यधारा और दलित साहित्य पृ- 142) नवजागरण से लेखक क्या अर्थ ले रहा है और क्या समझ रहा है- बहस यहाँ से शुरू करनी होगी। इस तरह जगह-जगह अवधारणाओं की अस्पष्टता के कारण भी असंगतता आ जाती है। अब हिन्दी पत्रकारिता के सौ वर्षों के इतिहास का सरलीकरण देखिए- ''हिन्दी पत्रकारिता की जो स्थिति आज है, 100 वर्ष पूर्व भी वैसी ही थी, मात्र भाषा के मुहावरे बदले हैं।’’ आगे लिखते हैं- ''सरस्वती जैसी महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक पत्रिका के कीत्र्तिमान अपने आप में मील के पत्थर हैं, लेकिन उसका भी केन्द्रीय विचार-दर्शन भाववादी ही रहा है। आत्मा, परमात्मा, पुनर्जन्म, आत्मा का अमरत्व, परमात्मा का प्रत्यक्ष प्रमाण आदि विषयों पर विस्तार से सामग्री प्रकाशित होती रही है।’’ (उपर्युक्त पृ- 136) 'सरस्वती’ को लेकर इतने काम हुए हैं, शोध हुए हैं, उसकी रचना-विवरणी तक उपलब्ध है, बावजूद इस तरह की एकांगी, भ्रामक और हल्की टिप्पणी इतने बड़े लेखक ने कैसे लिख दी? जाहिर है आपने मूल स्रोत-सामग्री की गहरी छानबीन नहीं की है। अगर की है तो जो लिख रहे हैं उसके साक्ष्य तो रखने चाहिए थे? यह सब इतना आसान नहीं होता। व्यापक विषयों पर हम टिप्पणी तभी कर सकते हैं, जब हमारे अध्ययन की सरहद वहाँ तक जाती हो।

मेरा ख्याल है यह सब उनका इलाका नहीं था क्योंकि उन्होंने हिन्दी कहानी अथवा प्रेमचंद को लेकर जो कुछ लिखा है उसमें प्रेमचंद को लेकर उनके आलेखों की बड़ी चर्चा हुई थी। हिन्दी कहानी के विकास पर भी उनका लिखा आलेख काफी संतुलित, संयमित और व्यापक अध्ययन पर आधारित है। लेकिन प्रेमचंद पर खासतौर पर उनकी 'कफन’ कहानी को लेकर लिखी गई कड़ी आलोचना बहुत विवादास्पद हुई थी। हम वाल्मीकिजी की स्थापनाओं से सहमत हों या नहीं, लेकिन उन्होंने आवेगहीन होकर बड़ी गंभीरता से अपने नजरिये को रखा है। हम यह कोई इस बात पर भी सवाल नहीं उठा सकते कि कौन किस नजरिये से देखें, समझे या चीजों को विश्लेषित करे। अधिक से अधिक हम सब एक-दूसरे की सोच के लिए लोकतांत्रिक स्पेस लें या दे सकते हैं। ओमप्रकाश वाल्मीकि जी साहित्य के हर पक्ष पर जाति के नजरिये से ही विचार करते हैं, विश्लेषित करते हैं। इससे तो एतराज नहीं लेकिन संभव है यह जगह अपेक्षित न हो। जीवन, समाज और साहित्य की व्यापकता और विविधता में शायद ऐसा संभव नहीं। उनका एक लेख है 'प्रेमचंद की कहानी 'कफन: एक पुनर्मूल्यांकन’ इस लंबे लेख में उन्होंने बहुत विस्तार में जाकर अपने पक्ष-विपक्ष के तमाम आलोचकों से बहस किया है। यह महत्त्वपूर्ण लेख है। उसको पढ़ते हुए यह बात स्पष्ट होती है कि मूल विवाद साहित्य अथवा कहानी के देखने के नजरिये को लेकर है। वे अथवा उनके पक्ष के आलोचक साहित्य के यथार्थ और जीवन की यथातथ्यता में कोई भेद नहीं करते। प्रेमचंद से विवाद के मूल में यही है। उन्होंने प्रेमचंद का यह कथन भी उद्धृत किया है- ''कहानी में वस्तु ज्यों-की-त्यों रखी जाए तो वह जीवन-चरित्र हो जायेगी। शिल्पकार की तरह कहानीकार का यथार्थवादी होना आवश्यक नहीं है।’’ (दलित साहित्य: अनुभव, संघर्ष एवं यथार्थ पृ- 114) कहानी की शुरुआत भारत अथवा हिन्दी में नहीं हुई। यह पश्चिम से संभवत: फ्रेंच साहित्य से शुरू हुई। इसके प्रतिमान भी वहीं से बने और उसमें जोड़-घटाव अथवा बदलाव हर भाषा में हुए होंगे। उन प्रतिमानों के अनुसार हम जीवन के अनुभवों को चाहे जिस तरह रख दें, वह साहित्य नहीं हो सकता। जीवन के यथार्थ अनुभवों के साथ रचनाकार की सृजनात्मकता जुड़कर उसे रचना के अंतर्वस्तु में रूपांतरित कर उसे सार्वजनिक और सार्वकालिक बना देती है। चेखव ने जितनी कहानियाँ लिखी कोई जरूरी नहीं कि रूसी जीवन में हू-ब-हू वैसा घटित हुआ ही हो। अंग्रेजी के एक आलोचक ए. एस. आनंदमूत्र्ति उस कहानी को अलग नजरिये से देखते हैं। वे दलित से इसका संबंध मानते ही नहीं। उनके अनुसार यह कहानी भूख की है। अलाव में चुराकर लाये गये आलू पक रहे हैं और अंदर झोपड़ी में बुधिया प्रसव-पीड़ा में कराह रही है। घीसू और माधव पके-अधपके गर्म आलू को इस तेजी से खा रहे हैं कि दूसरा ज्यादा न खा जाय। उधर आलू की जलन से उनकी भूख की जलन ज्यादा तेज है। दोनों एक-दूसरे को बुधिया को देखने के लिए भेजना चाहते हैं, जिससे वे ज्यादा आलू खा सकें। दोनों एक-दूसरे की इस चालाकी को समझते हुए अपने-अपने तरीके के बहाने ढूँढते हैं और इस तरह दोनों मिलकर आलू के तीसरे हिस्सेदार जो बुधिया के पेट में पल रहा था- उसे मार डालते हैं। हम बाध्य नहीं कर सकते कि आनंदमूत्र्ति ने 'कफन’ कहानी को इस नजरिये से क्यों देखा? वे हमारे नजरिये से क्यों नहीं देखते? इस तरह के हठ साहित्य की समझ को अवरूद्ध ही करेंगे।

ओमप्रकाश वाल्मीकि जी 'कफन’ कहानी को लेकर यही तक नहीं रूकते वे प्रेमचंद की निजता तक जाते हैं। वे लिखते हैं- ''प्रेमचंद के भीतर भी एक संस्कारशील आदर्शवादी आर्यसमाजी बैठा था। जो यदा-कदा अपनी नैसर्गिक आदर्शवादिता को पूरी छूट देकर धर्म और राष्ट्र को एक-दूसरे का पर्याय मानने लगता था।’’ (उपर्युक्त पृ- 110) इसे लेकर वे इतने संवेदनशील और हठीले हैं कि अंत में लिखते हैं- ''मेरा यह मानना था कि 'कफन’ कहानी में अतिरंजित यथार्थ के साथ प्रेमचंद ने हजारों साल की हिन्दू मानसिकता को ही स्थापित किया है। जिसमें एक दलित के प्रति पूर्वाग्रह ही सुदृढ़ हुआ है।’’ (उपर्युक्त पृ- 117) वाल्मीकि जी को ऐसा मानने की पूरी आजादी है। उनको 'कफन’ कैसी लगी, ऐसी लगने की भी छूट है लेकिन ऐसा ही हमको या दूसरे को भी लगे, यह हठीला दावा करने का हक किसी को नहीं है। किसी रचना के समझने का हर जगह 'जाति’ का नजरिया ही हो, यह जरूरी नहीं। किसी दलित संगीतकार अथवा दलित क्रिकेटर के संगीत या खेल का आकलन हम किस आधार पर करेंगे! लेकिन 'जाति’ के इस नजरिये को लेकर वाल्मीकि जी इतने बद्धमूल हो जाते हैं कि वे इतिहास, समाज या राजनीति को ही नहीं, दर्शन विचार को ही नहीं, साहित्य में भी हर बात पर हर जगह इस्तेमाल करते हैं। इस क्रम में वे अर्थ-संधान के लिए रचना के सतह की परतों को उधेडऩा भी जरूरी नहीं समझते। अब 'गोदान’ के मातादीन और सिलया के इस प्रसंग पर उनकी टिप्पणी देखिये-

'' 'और तुम्हारा खाना कौन पकाएगा?’

'मेरी रानी, सिलिया।’

'तो ब्राह्मण कैसे रहोगे?’

'मैं ब्राह्मण नहीं, चमार ही रहना चाहता हूँँ। जो अपना धरम पाले,

वही ब्राह्मण है, जो धरम से मुँह मोड़े, वही चमार है।’

प्रेमचंद की यह परिभाषा हिन्दू पूर्वग्रहों पर आधारित है। जो उनकी और रचनाओं में भी दिखाई देती है। यहाँ यह कहना भी असंगत नहीं होगा कि मातादीन जिसके पूर्णत: बदल जाने की बात प्रेमचंद करते हैं वह भी पूर्ण सत्य नहीं है। उनके उपरोक्त संवाद में ब्राह्मण का श्रेष्ठ भाव समाप्त नहीं होता।’’ (उपर्युक्त पृ- 124) पहली बात यह कि किसी सृजनात्मक कृत्ति में किसी चरित्र का कथन हमेशा कृत्तिकार का नहीं होता। यह कथन प्रेमचंद का मानकर विचार करने के पहले उस चरित्र का मानकर देखना होगा। यह कथन उस मातादीन का है, जिसके मुँह में हड्डी डालकर सिलिया का पिता हरखू उसे चमार बना चुका होता है। वहाँ हरखू के कथन पर गौर कीजिए ''तुम हमें ब्राह्मण नहीं बना सकते, मुदा हम तुम्हें चमार बना सकते हैं। हमें ब्राह्मण बना दो, हमारी बिरादरी बनने को तैयार है। जब यह संभव नहीं है तो फिर तुम चमार बनो।’’ हरखू जब यहाँ खुद को ब्राह्मण बना देने की बात करता है तो क्या वह ब्राह्मण ही श्रेष्ठता से पूर्वग्रहग्रस्त है? वाल्मीकि जी प्रेमचंद के इस पूरे प्रसंग को 'सनसनीखेज’ कहते हैं। मातादीन के कथन की ऊपरी परत को उकेरिये, उसमें जन्मना ब्राह्मण की श्रेष्ठता का निषेध है। यहाँ कर्मणा किसी ब्राह्मण के भी चमार होने का अर्थ स्पष्ट ध्वनित है। फिर आप हरखू और मातादीन के संवादों को साथ रखकर विचार कीजिए। उसमें एक सापेक्ष संगति दिखाई देगी। फिर इन कथनों के कथा आसंग में इनके स्वाभाविक यथार्थ को भी आप प्रश्नांकित नहीं कर सकते। किसी कृति की बहुआयामिता पर बिना विचार किये किसी निष्कर्ष की हड़बड़ी से बचना चाहिए।

इस सबके बावजूद वाल्मीकि जी के प्रेमचंद संबंधी पूरे लेख से गुजरने के बाद यह बात सप्रमाण कही जा सकती है कि वे समग्रता में प्रेमचंद के महत्त्व को पूरी समझ और उदारता के साथ स्वीकार करते हैं। ''प्रेमचंद की रचनाएँ जितनी सहज और सरल हैं, उतना ही उनका प्रभाव गहरा है। यह सहजता जीवन की जटिलताओं से उभरी है। इसलिए उसका सीधा संबंध जीवन की जिजीविषा से जुड़ता है।’’ वे आगे लिखते हैं- ''प्रेमचंद का अध्ययन करना दलित ही नहीं, बल्कि प्रत्येक उस व्यक्ति के लिए जरूरी है, जो साहित्य को मनुष्य की चिंताओं के लिए जरूरी मानता है। समाज के विकास में साहित्य की भूमिका कितनी महत्त्वपूर्ण है, यह प्रेमचंद को पढऩे के बाद ही समझ में आता है। प्रेमचंद जितने प्रासंगिक अपने समय में थे, उससे ज्यादा आज हैं। यही उनकी विशिष्टता भी है और पहचान भी।’’ (उपर्युक्त पृ- 137) इसलिए कोई सहमत हो या असहमत लेकिन यह बात स्वीकार करनी होगी कि ओमप्रकाश वाल्मीकि के ऐसे आलोचनात्मक लेखों में एक तरह की विचारोत्तेजकता है, दृष्टि की मौलिकता है और संतुलन भी। वे कहीं आवेगशील नहीं होते बल्कि वे पूरा लोकतांत्रिक स्पेस देते हैं। इसलिए उनके आलोचनात्मक महत्व की स्वीकार्यता असंदिग्ध है।

 

संपर्क- 9431221073, 9643117674

 

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