गौरीनाथ की कहानियाँ

  • 160x120
    अक्टूबर - 2019
श्रेणी गौरीनाथ की कहानियाँ
संस्करण अक्टूबर - 2019
लेखक का नाम स्मृति शुक्ल





पुस्तक/समीक्षा

 

 

गौरीनाथ ने अपने अनुभवों और अन्तर्दृष्टि से समाज के उस वर्ग के जीवन को अपनी कहानियों में रचा है जो प्रकृति को अपनी शरण स्थली मानते हुए, तमाम तरह के अभावों, भूख, गरीबी और शोषण को झेलते हुए भी खुश रहने का झूठा प्रयास करते हुए किसी तरह अपने अस्तित्व को बचाये रखने का उपक्रम कर रहा है। गौरीनाथ की कहानियाँ विशिष्ट स्थानिकता से उपजी हैं। दरअसल ये एक क्षेत्र विशेष की होते हुए भी उस संपूर्ण सर्वहारा की कहानियाँ हैं जो स्वतंत्रता के बाद जीवन संघर्षों के ताप से अपनी जिजीविषा को प्रज्जवलित किये हुए हैं। गौरीनाथ की कहानियाँ जल, जंगल, जमीन की जातीय स्मृतियों से बुनी गई हैं। कहानीकार ने लिखा है कि ''कहानियाँ लिखना कठिन और कष्टकर जरूर है लेकिन यह मेरी जिन्दगी का सबसे प्रिय, सुखद और श्रेष्ठ कर्म है। एक बेहतर समाज का जो सपना है, न्याय की जो चाहत है, उसके लिए जो हमारी लड़ाई है - उसमें मेरी सहभागिता मेरी कहानियाँ ही तय करेंगी। यह खुद तो मैं नहीं कह सकता कि मेरे लिखे में कैसा क्या है, पर मेरी कोशिश रहती है कि पसीने से भीगे मेहनतकश आम जनता के दुख, दैन्य, संघर्ष और आक्रोश के साथ ही उसके जीवन में जो थोड़े सुख और उम्मीदों के क्षण-बिन्दु होते हैं- उनको भी उकेरूँ। वर्ग-शत्रु के असली चेहरे भी दिखाऊँ। थोड़ी स्नेह वात्सल्य की बातें, थोड़े चुहल-व्यंग्य, थोड़े हँस ठ्टठे भी हों...।’’

गौरीनाथ किस्सागोई अंदाज में अपनी कहानियाँ रचने में सिद्धहस्त हैं चाहे उनकी कहानी 'पैमाइश’ (पहल, 100) की सन्यासिन हो या 'दुरंगा’ के झबरू बाबा या 'पहचान’ कहानी का हुबिया चोर, सभी दादी-नानी की 'किसा’ (किस्सा) के जीते-जागते पात्र हैं। पाठक को कहानी पढ़ते हुए किस्सा सुनने जैसा अहसास होता है। किन्तु जब कहानी के भीतर का सच सामने आता है तो उसे ऐसा लगता है कि अचानक किसी ने उठाकर उसे खाई में फेंक दिया है। कहानी के पात्र भी ऐसे कि आप चकित हुए बिना नहीं रहेंगे। हुबई पेशे से चोर है, लेकिन संवेदनाओं का धनी इंसानियत से भरा पूरा। व्यक्तित्व विपर्यर्य के ऐसे चरित्र, जिनके हृदय की परतों की छानबीन गौरीनाथ इसलिये कर पाते हैं क्योंकि वे अनिवार्यत: ऐसे पात्रों की सोहबत में रहे हैं। गौरीनाथ की कहानियों की पीठिका और आन्तरिक स्थितियाँ जीवन और समाज के गहरे अन्तर्सूत्रों से जुड़ी हैं। जिस मिरचैया नदी के किनारे गौरीनाथ पैदा हुए वह किस्सों की खान है। गौरीनाथ के अग्रज साथी मोती बुढ़वा उनके प्रथम किस्सा गुरु हैं। जिनसे उन्होंने आल्हा-ऊदल, चंदा-लोरिक, कुँवर विजयभान, सामा-चकेबा, जट जटिन के किस्से सुने। चरवाहों, मल्लाहों का भी गुरु ऋण उनके उपर है, लेकिन इसी गाँव में सामंत घरानों के लोगों की बंदूक भी सीने पर झेलने का अनुभव गौरीनाथ को है। इस घटना में निर्दोष गौरीनाथ की जान तो बच गई लेकिन उसके बाद की गई रातें अनिद्रा में कटीं क्योंकि हर रात अपने दु:स्वप्नों में वे इन्हीं बंदूकों के साये में घिरे रहने लगे।

अमरकांत को अपना कथा गुरु मानने वाले गौरीनाथ के कहानीकार बनने की कथा कम दिलचस्प नहीं है - गौरीनाथ की पहली कहानी 1995 में 'हंस’ में प्रकाशित हुई थी। फिर 'महागिद्ध’ कहानी 'उत्तरशती’ में छपी। गौरीनाथ को ख्याति पंकज विष्ट के संपादन में निकली 'आजकल’ में छपी कहानी 'नाच के बाहर’ से मिली। अब तक उनके तीन कहानी संग्रह 'नाच के बाहर’, 'मानुस’, और 'बीज-भोजी’ प्रकाशित हो चुके हैं।

गौरीनाथ की कहानियाँ उस कालिकापुर पलार के जीवनानुभव की कहानियाँ हैं जो प्रकृति के अंचल में, बाँसवन के समीप, कलमबाग से लगी हुई बस्ती है। कालिकापुर पलार, जहां कहानीकार की जड़ें हैं वहाँ की अनुभव स्मृतियाँ कभी उनका साथ नहीं छोड़तीं। दरअसल गौरीनाथ की कहानियों में बबन (गौरीनाथ का घरेलू नाम) आज भी जिंदा है। इसी बबन के अनुभव संसार में रची बसी हैं ये कहानियाँ। इन कहानियों में प्रकृति अपने नैसर्गिक रुप में डोल रही है। हरा भरा जंगल, मिरचैया नदी, बाँसवान, गोभी की गाछ, नदियों का जल, पटसन के सुनहले खेत, हरे भरे पौधों पर लटकती लाल-लाल मिर्ची, तोते की खुली चोंच, अड़हूल के फूल और धान के दूब हैं। इस सुन्दर रंग-बिरंगी प्रकृति के बीच घोर गरीबी में मडुआ-मकई की रोटी नमक मिर्ची के साथ खाते लोग हैं, साहुड़ नीम या चिरचिरी की दातौन करते, खेत-बथान में जी-तोड़ परिश्रम करते, मछलियाँ पकड़ते, जठराग्नि को शांत करने के लिए छोटी-मोटी चोरी करते या चरवाही करते लोग हैं। निर्धनता के गहन अंधकार में जिजीविषा की लौ को प्रज्जवलित करते हुए इन लोगों के जीवन संघर्ष और कठोर यथार्थ की कहानियाँ रचने वाले गौरीनाथ के साथ अतीत की स्मृतियाँ साथ चलती हैं। हाशिये के समाज के दुखतंत्र की इन कहानियों में दु:ख तमगों की तरह नहीं आये हैं वरन वे शक्तियाँ, वे चेहरे, वे कारक भी नुमाया हैं जो तमाम विकास और समृद्धि के दावों के बीच अपनी सत्ता कायम रखते हैं। इनसे आम आदमी लहूलुहान है, उसका दम घुट रहा है, वह किसी तरह अपनी जिंदगी की जद्दोजहद में डूबता-उतराता पार उतर रहा है। गौरीनाथ की कहानियों के पात्रों में तमाम तरह की उलझनें हैं, कमजोरियाँ हैं, छोटे-छोटे स्वार्थ हैं लेकिन इन सभी के बीच उनमें इंसानियत है। रागबन्ध हैं। प्रेम की स्निग्धता है और वहाँ निहित सच्ची मानवीयता इन कहानियों को अर्थवत्ता प्रदान करते हैं।

विन्सेन्ट वॉन गॉग का कथन है कि - ''एक व्यक्ति जिसे लम्बे समय तक लहरों पर उछाला गया हो, कभी अपने ठिकाने भी पहुँच जाता है। एक व्यक्ति जो किसी काम का नहीं है, बेरोजगार और नाकारा है, वह भी कभी ऐसा सही काम पा जाता है, जो अंतत: उसके होने को अर्थ दे सके।’’ गौरीनाथ के व्यक्तित्व पर यह कथन पूरी तरह खरा उतरता है। सहरसा-सुपौल के तमाम मुश्किलों भरे जीवन को जीते हुए उन्होंने जो अनुभव बटोरे वही उन्हें साहित्यिक परिदृश्य में कहानीकार के रुप में स्थापित कर सके। गौरीनाथ की कहानियाँ भारत के उस हिस्से का यथार्थ हैं जो सम्पन्न वर्ग की चमक-दमक, भौतिकता की चकाचौंध और बाजार वाद के मायावी संसार में संभवत: अलक्षित रह जाता यदि इन कहानियों के माध्यम से उसे लक्षित न किया जाता। इन कहानियों में विन्यस्त यथार्थ उस साधारण वर्ग का यथार्थ है जो छोटे किसान, या श्रमिक हैं, उनकी असहायता, विकलता, उनके संघर्ष के साथ उनकी छुद्रताएँ, छोटे-छोटे स्वार्थ भी इन कहानियों में सूक्ष्मता से उभरे हैं।

'दुरंगा’ कहानी के झबरू बाबा के पास अनुभवों का विराट खजाना है। अकाल और सूखे की हृदय विदारक कथा को सुनाने वाले झबरु बाबा की कथा का नायक वह बूढ़ा है जो अपने शरीर के रक्त की आखिरी बूँद तक चटाकर अपने पोते की अकाल में रक्षा करता है। इस कहानी को सुनाने वाले झबरू बाबा का असल चरित्र कुछ और है, वह दुरंगा है।

दरअसल गौरीनाथ की कहानियाँ भावात्मक स्मृति की कहानियाँ हैं। जीवन की तमाम आपा-धापी के बीच तनिक विश्राम और अतीत को पुन: जीने की लालसा या स्मृति के द्वारा पुन: संबंधों को जोडऩे की आकांक्षा के साथ रची इन कहानियों में विषाद के गहन कुहासे के बीच जीवन की निरंतरता बोध और आस्था की लौ टिमटिमाती है। गौरीनाथ नैतिकता के मोहपाश में बँधकर अपनी कहानियों के पात्र नहीं रचते वरन वे अनैतिक से अनैतिक कर्म करने वाले पात्र के अंतरंग में मौजूद सत् को खोज लाते हैं। जीवन उनके सपनों में रचा बसा है। उन्होंने अपनी कहानियों में जीवन के मर्म को रचा है इसलिये उनकी कहानियों में घटनाएँ जड़ नहीं हैं, पशु-पक्षी, नदी पहाड़ तक मूक नहीं हैं, वस्तुएँ ठोस नहीं हैं वरन इन सभी में संवेदनाओं की तरलता है। गौरीनाथ को विधिवत कहानीकार के रूप में पहचाना गया था उनकी कहानी 'नाच के बाहर’ से। नाच के बाहर एक दलित युवती खंजन की कथा है जो नारी की स्वभाविक आकांक्षा के कारण ऊँची जाति वाले बाबू साहब से प्यार कर बैठी है। लेकिन बाबू साहब स्वार्थी और दगाबाज हैं। वे प्रेम का नाटक कर खंजन को धोखा देते हैं। गाँव में होने वाले नाच में भी जालिम सिंह और मुँगा की प्रेम कथा है जिसमें उच्च जाति का जालिम सिंह दलित वर्ग की युवती मुँगा से प्रेम करता है। उसका प्रेम सच्चा है और वह मुँगा-मुँगा रटते स्वयं प्राण त्याग सकता है, सामाजिक लांछना सह सकता है, परिवार का विरोध झेल सकता है लेकिन मुँगा को नहीं छोड़ सकता। आखिर में जालिम सिंह घर छोड़कर मुंगा को लेकर जंगल की ओर निकल जाता है। दर्शक नाच के इस दृश्य को डूबकर देख रहे हैं और इस प्रेम कहानी में पूरी तरह से निमग्न हैं लेकिन असल जिंदगी में खंजन की स्थिति इससे ठीक विपरीत है। गौरीनाथ ने इस कहानी का शीर्षक 'नाच के बाहर’ सम्भवत: इसलिये दिया है कि खंजन बाबू साहेब से प्रेम करती है लेकिन यथार्थ के ठोक धरातल पर वहयह अनुभव करती है कि असल जिंदगी में वह इस नाच से बाहर है।

भूमंडलीकरण, बाजार वाद और पूँजीवाद ने तरह-तरह के लुभावने मुखौटे लगाकर हमें ठगा है। पूंजी की व्यावसायिक वृत्ति गाँवों में भी पहुँच चुकी है जिसका नैतिकता से कोई लेना देना नहीं है। गौरीनाथ ने अपनी कहानी 'महागिद्ध’ में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के शोषण को बेनकाब किया है। पूँजीवाद के महागिद्धों से जूझते और अपने पेट की रोटी के लिए जतन करते आम आदमी की लहुलूहान आत्मा को और उसकी विवशता को दिखाती यह कहानी विचार और संवेदना के संतुलन की कहानी है। गौरीनाथ ने सभ्यता में मौजूद अन्तद्र्वन्द्वों और अंतर्विरोधों को पहचाना है। जिस कालिकापुर के उलझे हुए सामाजिक ताने-बाने को गौरीनाथ अपनी कहानियों के माध्यम से प्रकट करते हैं पाठकों को उस पृष्ठभूमि में जाना भी आवश्यक है।

'मौके’, 'निर्बंध’, 'दुनियादार’, 'सीढ़ी’ आदि कहानियाँ का अनुभव फलक वैविध्य पूर्ण है। 'मौके’ इंसानी फितरत, उसकी चालाकी और दोमुँहेपन को अभिव्यक्त करने वाली कहानी है। इन कहानियों को पढऩा, पीड़ा के गहन समंदर में हौसले की छोटी सी कश्ती के सहारे उतरकर पार लगने को महसूसना जैसा है।

गौरीनाथ के कहानी संग्रह 'मानुस’ में संकलित सभी कहानियाँ मनुष्य के भीतर की गहन मानवीयता को उभारने वाली हैं। 'भरोसा’ कहानी 'मुसहर’ समाज की भुखमरी की कहानी है। मुसहर जो मेहनती हैं। ग्यारह मुसहरों का दल एक दिन में पोखर खोदने का दावा करता है लेकिन काम न मिलने की वजह से अब चोरी-चकारी करके पेट भर रहे हैं। इसी समाज के शुभमलाल की बेटी ललिया एक युवती है। चूल्हा जल जाने की फ्रिक में ललिया के माँ-बाप उसे मालिक की ड्योढ़ी भेजना चाहते हैं। ललिया जानती है कि ड्योढ़ी में कुत्ता सा गुर्राता मालिक का बेटा विनोदवा उसे जैसे चाहे नोचेगा-खसोटेगा। ललिया का प्रेमी लूरबा जिसे सब आलसी समझते हैं, अजगर कहते हैं उसके प्रति ललिया को भरोसा है कि वह काम करके कुछ कमाई अवश्य करेगा जिससे घर का चूल्हा जल सकेगा और लूरबा उसके भरोसे पर खरा उतरता है। 'विश्वास’ कहानी पंडित मुरलीधर शर्मा और उसकी बेटी स्वर्णा की कहानी के साथ उस वर्ग के चार-पाँच नवयुवकों की कहानी है जिसे निम्न वर्ग कहा जाता है। ये आवारा, अपराधी जाहिल और काहिल से लगने वाले युवक 'पंडित मुरलीधर शर्मा’ की प्रसिद्धि सुनकर उनसे मदद माँगने आते हैं। मुरलीधर ऐसे आवारा युवकों को अपने घर में घुसने देना नहीं चाहते, न ही उनकी कोई मदद करना चाहते हैं। स्वर्णा इन लोगों की मजबूरी के पीछे छिपी इनकी सच्चाई को परख लेती है और घर वालों के विरोध के बाद भी इनकी सहायता करना चाहती है। वह अपने पिता से कहती है कि ''जहाँ तक उन युवकों की बात है, तो लगता है आपने गौर से उनकी आँखों में नहीं झाँका। दरअसल आप तो वाह-वाह करने वाले अपने संगीत प्रेमी रसिक जन, कार्यक्रम प्रबंधक, कैसेट कंपनियों के मैनेजर-डायरेक्टर, पुरस्कार देने वाले आकाओं को ही पहचानते हैं। शायद उन्हें भी नहीं, सिर्फ उनकी वाह-वाह वाली आवाज-अंदाज और चेक की राशि, जिसे झपटने के लिए आपके बेटे पीछे खड़े रहते हैं। काश, आप जरा गौर से उन कमबख्तों की आँखों में देख पाते। वहाँ पारे सा जो कुछ झिलमिला रहा था उसको आप देख पाते।’’ दरअसल 'मानुस’ संग्रह की सभी कहानियाँ मनुष्य के बाह्य व्यक्तित्व को भेद कर इंसानियत को सार्थक करने वाली उन्हीं संवेदनाओं की खोज करती हैं जो परिस्थितियों के घने कुहासे में छिप गये हैं।

''मानुस’’ कहानी की चन्ना के माध्यम से गौरीनाथ ने एक श्रमशील स्त्री की जो कथा कही है वह बहुअर्थीय है। एक निम्न वर्ग की मेहनतकश स्त्री चन्ना अपनी परिस्थितियों से तो संघर्ष कर ही रही है साथ ही एक अकेली स्त्री होने का कष्ट उठाकर अपने बच्चे पाल-पोस रही है। उसके हृदय में नारी सुलभ आकांक्षाएँ हैं, दैहिक जरूरतें हैं लेकिन मर्यादा और नैतिकता के झूठे अवगुंठन में लिपटी चन्ना अपनी इन भावनाओं को अभिव्यक्त नहीं कर पाती और इस बेचैनी में ऊब-चूभ होती रहती है।

गौरीनाथ की एक महत्वपूर्ण कहानी है 'अन्है’। अन्है मछली की एक ताकतवर प्रजाति है जो नदी के कीचड़ में छुपकर बैठती है, जिसे पकडऩा आसान नहीं होता। बच्चन मास्टर जो गा बजाकर या ट्यूशन करके अपनी जीवनचर्या चल रहे हैं, अरसे से उनकी तमन्ना है कि वे 'अन्है’ मछली खायें। एक बार वे ट्यूशन पढऩे वाले बच्चों से अन्है मछली पकड़वाते हैं। बच्चे भी उनकी इस दावत में शामिल हैं। इन्हीं में से एक बच्चा पूछता है कि मास्टर जी कुछ लोग अन्है को साँप क्यों कहते हैं? बच्चन भाई उत्तर देते हैं कि जो लोग इसे साँप कहते हैं वे हमें भी मानुस नहीं समझते। तो क्या हम राक्षस हैं? दरअसल अन्है मछली माटी के लोगों की मछली है।’’ गौरीनाथ ने अन्है के ब्याज से एक रूपक रचते हुए समाज में व्याप्त वर्ग भेद को बड़ी गहरायी से उभारा है। उन्होंने ताकतवर अन्हैं को सर्वहारा वर्ग की मछली माना है।

'बीज-भोजी’ संग्रह की कहानियाँ किसानों के उस जीवन संघर्ष और यथार्थ की कहानियाँ हैं जिसमें दुख दर्द की लकीरें साफ उभर कर आई हैं। किसान का जो यथार्थ त्रिलोचन की कविता में मौजूद है वही यथार्थ गौरीनाथ की कहानियों में है। 'एक एकाउन्टेंट की डायरी’ में शीर्षक कहानी का नायक एक अजीब बीमारी से घिर गया है। उसे फुरसत के क्षणों में सब जगह मिट्टी की गंध आने लगती है और आँखों के सामने गेहूँ-धान के शीश झिलमिलाने लगते हैं। आज उसके पास भौतिक सुख सुविधा के सारे साजो-सामान हैं लेकिन वह अपने उस अतीत को नहीं भूला जिसमें उसके किसान पिता को फसल के लिए कर्जा लेना पड़ता था। कभी कर्जा न चुकाने के कारण उनकी जमीन हाथ से निकल गई और उन्हें कीटनाशक पीकर आत्महत्या करनी पड़ी, माँ भूख से मरी और बहन ने अपनी इज्जत लुट जाने पर कलमबाड़ी में आम के पेड़ से लटक कर आत्महत्या कर ली थी।

एकाउन्टेंट जिसने अपनी डायरी में दर्ज किया है कि राजभाषा में पत्र व्यवहार और अन्य कामों को करने के कारण उसे राष्ट्रपति पुरस्कार मिला है। वह लम्बे अरसे बाद आज भीतर से खुश है। तभी उसके साहब का फोन आता है कि विदर्भ यवतमाल में फिर किसानों ने आत्महत्या की है उन पर खर्च के आँकड़े चाहिए। इस खबर को सुनकर वह मिट्टी की गंध सूंघना चाहता है, सीमेंट की सड़कों के नीचे से खुरचकर थोड़ी मिट्टी खोदने में सफल होता है और मिट्टी सूँघकर देखता है कि लेकिन मिट्टी से महक गायब है। दरअसल यह कहानी भारत के औद्योगिक विकास, तकनीकी विकास, भूमंडलीकरण और उदारीकरण के बरक्स किसान जीवन की भयावह सच्चाइयों को उजागर करने वाली कहानी है।

समृद्ध वर्ग और भूस्वामियों की निरंकुश सत्ता शेष शोषित समाज के साथ किस तरह का रिश्ता रखती है अब यह किसी से छिपा नहीं है। गौरीनाथ के 'बीज-भोजी’ संग्रह की कहानियों के संबंंध में विपिन कुमार ने लिखा है कि ''ऐसे कठिन दौर में गौरीनाथ की कहानियाँ किसी टूरिस्ट का सफरनामा नहीं, बल्कि दैनिक जद्दोजहद में लगे किसान मजदूरों के सुख-दुख का मार्मिक आख्यान है। वे केवल गाथा नहीं लिखते बल्कि अपनी गँवई आँखों से शहर के भी रंग-ढंग देखते और सिहरते हैं। गौरीनाथ समकालीन कथालोक के अनूठे कथाकार हैं। 'बीज-भोजी’ किसान आत्महत्या और अभाव में हो रही मौतों की दुखभरी गाथा है। किसान होना किसी व्यक्ति के जीवट की मुकम्मल गवाही है। वह किसान अंत तक जूझता है और अंतत: कर्ज और भूख में डूबकर मर जाता है। यह हमारी सभ्यता के मृत होने की मुखर घोषणा है।’’

गौरीनाथ की कहानियों की भाषा में सरलता होने के कारण उनका कहानीपन बरकरार है। ये कहानियाँ किस्सागोई शैली के साथ समाज की उन कटु सच्चाइयों को उजागर करती हैं जिसे श्रमशील वर्ग लम्बे समय से झेल रहा है। जीवनदाता किसान आत्महत्या करने पर मजबूर हैं। इन कहानियों में भारत के बदलते हालत में आम आदमी के बद् से बद्तर होते हालातों, दबावों, यातनाओं संघर्षों के अनेक स्वर और अनेक मोर्चे हैं। दरअसल गौरीनाथ बहुत सघन और गहरे रूप में समाज के प्रति प्रतिबद्ध कहानीकार हैं. उनकी कहानी का शिल्प रैखिक शिल्प है इसलिये ये कहानियाँ अपने रचना-विधान में जटिल नहीं हैं। कालिकापुर पलार मे बोले जाने वाले देशज शब्दों की गमक से महकती ये कहानियाँ संवेदनात्मक सम्प्रेषण की दृष्टि से सफल हैं। गौरीनाथ की कहानियों के ठोस सामाजिक संदर्भ तथा समाजशास्त्रीय आधार हैं। गौरीनाथ ऐसे कहानीकार हैं जिन्हें उनकी कहानियों ने जीवन दिया है। वे कहते हैं ''कहानी ही एकमात्र ऐसी जगह है जहाँ वे अपनी तमाम छोटी-बड़ी भूमिकाएँ एक साथ अदा करते हैं। हाँ, कहने की सादगी का औजार उन्होंने अपने कथा-गुरु अमरकांत से पाया है। भाषा, कथन, संवेदना और विचार के संतुलित अनुपात के परिपाक से बुनी ये कहानियाँ अंधेरे में जीते हुए और प्रकाश की तरफ बढ़ते मनुष्य की सकारात्मक ऊर्जा की कहानियाँ हैं।

 

 

कथाकार और नये यात्री के रुप में गौरीनाथ ने एक बड़े पाठक वर्ग को आकर्षित किया है। वे हिन्दी-मैथिल भाषी हैं, मैथिल अैर हिन्दी की दो लोकप्रिय पत्रिकाओं के संपादक हैं, अंतिका प्रकाशन के संचालक हैं। उनकी कहानियों पर स्मृति शुक्ला, एक नयी लेखिका समीक्षा कर रही है। स्मृति हिन्दी अध्यापक हैं।

 

Login