एक खिड़की इसी दीवार में खुल जायेगी

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    अक्टूबर - 2019
श्रेणी एक खिड़की इसी दीवार में खुल जायेगी
संस्करण अक्टूबर - 2019
लेखक का नाम तरसेम गुजराल





शंकर की कहानियाँ - 'जगो देवता जगो’

 

जगो देवता जगो

 

 

अस्सी के दशक के आसपास जो कथाकार हिन्दी कहानी में व्यापक ऐतिहासिक चेतना और यथार्थ की स्पष्ट समझ के साथ, स्वचेतना और जनचेतना को अभिव्यक्त कर पाये, शंकर का नाम उनमें उल्लेखनीय है।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश का सूत्र संचालन जनप्रिय नेता जवाहरलाल नेहरू के हाथ में आ गया। वह स्वप्नदर्शी जरूर थे परन्तु गांधी की 'अंतिम जन’ तक पहुँचने की प्रतिबद्धता वैसी नहीं थी। उस उदारता में ऐसी शक्तियाँ भी पनपती चली गईं जो स्व-हित को जनहित पर तरजीह देती थीं। लिहाजा उस लहर को जगह मिलती चली गयी जिससे आगे जाकर भारत अलग तथा इंडिया अलग नज़र आने लगा - याने एक देश में दो देशों की दुनिया - एक सुखासीन दूसरी रोजी-रोटी के लिए संघर्षशील। शंकर की कहानियाँ इस दूसरी दुनया की विपदाओं को सामने लाती हैं। एक संयत ढंग से उनके स्वप्न भी उभारती हैं।

जिस 'इंडिया’ की बात की जा रही है, उसकी हवा को ठीक से पहचानते हैं शंकर। 'जगो देवता जगो’ कहानी में अंकित करते हैं - ''देश एक दूसरी हलचल की गिरफ़्त में था। शासन के पीछे अपनी सक्रियता रख रहे व्यापारी, उद्योगपति, कारोबारी, बिल्डर, सट्टेबाज, ब्लैक मार्केटियर अपनी अप्रत्यक्ष भूमिका से ऊबकर अब सीधे और खुले रुप में सामने आकर शासन की गद्दी पर काबिज हो जाने और उसे अपने तरीके से चलाने के लिए सुगबुगा रहे थे। उन्हें यकीन था कि अब आने वाला समय उनका है। करोड़ों लोगों की ज़िन्दगी हो या समाज की दिशा, अब सब कुछ वे ही तय करेंगे।’’

'जगो देवता जगो’ की कहानियाँ यदि नए विजन, नए दर्शन, नई दिशा खोजने से पहले वर्तमान को, साधारण जन को, उनके अनुभवों को साफ-साप दिखानें में काफी मदद करते हैं।

शंकर की कहानी 'ध्वजा’ देखें। 'सद्दू ने गरदन में घंटी लटकायी और कंधे पर ध्वजा रखी। घंटी अपने वजन से झूलने लगी। वह यज्ञस्थली से बाहर निकल कर सड़क पर आ गया।’ ध्वजा धर्म की है, उसे उठाकर धर्म प्रचार हेतु सड़कें नापते हुए जगह-जगह जाना है। यही उसका काम है। यही नौकरी। यही अपने और परिवार की पेट-पूजा का साधन। इस काम को जिस नेकनीयती, पवित्रता और धार्मिक बोध के साथ करना था, उसकी हिदायत दी गयी थी ''महाराज ने कहा था, यह धर्म की ध्वजा है। इसको स्पर्श करती हवा जहाँ तक जायेगी, वहाँ तक अधर्म का नाश होगा। ध्वजा किसी भी स्थिति में नीचे नहीं झुके, धरती का स्पर्श नहीं करे - इसका अपमान होगा तो असुरों का प्रताप बढ़ेगा। जो इसका अपमान करेंगे, वे अधर्म के भागी होंगे।’’ महाराज सद्दू का एक्स रे निकाल चुके थे। सदानंद लक्ष्मी मोटर रिपेयरिंग वक्र्स में काम करता था। एक सुबह शहर से लापता हो गया। पता चला कि वह सदानंद से सादिक हो गया।

गैरेज मालिक ने सदानंद को निकाल बाहर किया था। किसी ने जमानत नहीं दी कि रिक्शा चला सके। दर-दर ठोकरों के सिवा कुछ था नहीं। हबीब ने तरस खाकर मस्जिद में मीनारों पर रोशनी रखने और पहरेदारी का काम ही नहीं दिलवाया, मस्ज़िद के पिछवाड़े कोठरी भी दिलवा दी। सौ रुपये और चार पंसेरी चावल भी।

महाराज का प्रस्ताव सदानंद को मुनाफे वाला लगा। डेढ़ सौ रुपया और पूरा मन चावल।

कमंडल से जल निकाल कर पूरे परिवार को शुद्ध किया और कहा - ''तुम आज से पवित्र हुए... सम्हालो ध्वजा और पूरे नगर की परिक्रमा करो। दुनिया को दिखा दो, तुमने धर्म की प्रतिष्ठा ऊँची कर दी।’’

मस्ज़िद के पास उसे मौलाना साहब दिख गये। मौलाना ने उसे रोजी दी थी, जिलाए रखा। वह उनको अभिवादन देना चाहता है, किन्तु उन्होंने नज़रें फेर लीं। चलता चला गया वह। दुपहर का दोना पाकर सातवीं धर्मचौकी पर मिलना था। प्रबंधक महाराज ने उसकी तरफ दोना फेंका। आठ पूडिय़ां और गमकती सब्जी। चार पुडिय़ां निगल कर बाकी दोने को लपेट कर घर के लोगों के लिए जेब में डाल दिया। फिर आगे ध्वजा को बेंच के सहारे टिका कर गटागट पानी पी लिया।

घंटे भर में दिन गुजर जाना था। महाराज को दिन भर का ब्यौरा देकर भंडार से चावल सिजा लेना था। आगे उसे फंसी हुई जीप नज़र आयी। अंदाजा था कि पहाड़ी वाले मिशन की होगी। जीप टस से मस नहीं हो रही थी। एक मेम ने दस का नोट देकर मदद करने को कहा।

उसने फुर्ती से ध्वजा को डंडे से अलग किया। ध्वजा कमर में बांध ली। डंडे को चक्के के पास लगा दिया। जोर लगाने से ड्राइवर के चलाने पर जीप सड़क पर आ गयी। झटके से मिल्क पाउडर का ड्रम नीचे आ गिरा। मिल्क पाउडर बिखर गया। मेम ने प्रसन्न होकर पाव रोटी का पैकेट दिया। ड्रम वापिस रखवा लिया गया।

जीप के जाने पर सद्दू ने ध्वजा कमर से अलग खींची। जमीन पर गिरे मिल्क पाउडर जल्दी से ध्वजा पर बटोरा और गांठ बांध ली।

सद्दू हाशिये पर पड़ा उपेक्षित सामान्य जन है। उसका पहला और सबसे बड़ा मसला अपने और अपने परिवार के लिए रोटी है। हिन्दू धर्म या मजहब उसके लिए साधन है, साध्य नहीं। हबीब ने काम दिया तो उसका एहसानमंद। महाराज ने शुद्धि स्नान करवा कर ध्वजा उठवायी तो उसके प्रति निष्ठावान। धर्म की ध्वजा की महिमा उसे अच्छी तरह बता दी गयी। परन्तु पानी पीने के लिए ध्वजा को बेंच के सहारे टिका लिया। जीप को धक्का लगाने के लिए दस रुपए मिले तो ध्वजा कमर में बांध ली। जीप से गिरा हुआ मिल्क पाउडर नज़र आया तो ध्वजा कमर से अलग खींच कर मिल्क पाउडर ध्वजा पर बटोर लिया।

कहानी का मतलब है कि तुम समकालीन यथार्थ को सामाजिक अस्तित्व से काटकर प्रस्तुत नहीं कर सकते तथा अन्तर्विरोधों को नकारने का कोई मतलब नहीं रह गया।

शंकर की दो कहानियाँ 'फरिश्ते’ और 'सत्संग’ प्रदर्शन में धर्मनिष्ठा की कहानियाँ हैं परन्तु ठोस धरातल का स्पर्श करते ही उसका रंग और सुगंध उड़ जाती है। एक तीसरी कहानी इसी संग्रह में है, 'जगो देवता जगो’ जो समाज का अंतर्विभाजन करने वाली राजनीतिक कथित लोकतांत्रिक की वस्तुस्थिति को सामने लाती है। राजनीति का वर्चस्वकारी मकसद धर्म की चादर ओढ़ कर ध्वंस को जन्म देता है।

'फरिश्ते’ कहानी का भाई जी और महामना सामने एक बूढ़े आदमी की गठरी को छिनता हुआ देख रहे हैं। बूढ़ा आदमी गठरी बचाने के लिए जूझ रहा है। इधर अनुमान लग रहा है कि गठरी में कोई अनमोल धन तो होगा नहीं। उसमें सत्तू, चूड़ा, चबेनी, नमक, गुड़ ही हो सकता है।

इस बीच उचक्का बूढ़े को धकिया कर गठरी छीन भागने में सफल हो गया। तब भाई जी ने कहा कि आगे बढ़ें और बूढ़ें की गठरी बचा लें। दोनों मुस्तैद हुए। बूढ़ा हो रहा था कि उसकी नतिनी की रस्म तय है। उसे पहुँचना है परन्तु गठरी..? दोनों बूढ़े आदमी की गठरी लौटा कर देने का आश्वासन देकर उचक्के के पीछे भाग लिए। बूढ़े को इंसाफ दिलाने के लिए कटिबद्ध। दोनों ने पुरजोर हिम्मत से पीछा किया। उचक्के को गठरी फेंक निकलना पड़ा।

अब गठरी खुली सामने पड़ी है। उन्हें लगा कि सत्तू, चबैना सब बिखर गये होंगे। झाड़ी की तरफ देखा तो हैरान रह गये। चाँदी के गहने, साडिय़ाँ, घी के डिब्बे वगैरा भरे थे। महामना भौंचक।

महामना ने फालतू सामान हटाना शुरू कर दिया। भाई जी ने साडिय़ों और गहनों को देखकर कहा कि यह कुछ अच्छे हैं। संकोच भी था कुछ छूटने टूटने का डर भी। महामना ने एक साड़ी उठायी और अपने कंधे पर रख ली। भाई ने भी ऐसा ही किया। कंगन, पायल, हंसुली, नथुनी बंटते रहे। हस्तगत होते रहे। मंगटीका पर दोनों की नज़र थी। उसके टुकड़े भी नहीं हो सकते हैं। दोनों अधिकार जता रहे थे। बहस भी हुई। महामना का तर्क भारी था। मंगटीका कब्जे में कर लिया।

मानवता के नाते बूढ़े को दिया आश्वासन धरा रह गया। एक लुटते हुए आदमी के प्रति संवेदना की धारा निज प्रलोभन में सूख गयी। सिद्धांत व्यवहार की कठोर जमीन पर टिक न पाये। धर्म की लाठी छल और बल से निर्धारित होने लगी। यही है यथार्थ की कठोर जमीन।

'सत्संग’ कहानी में सत्संगियों के लिए पूरी बस तैयार है। उम्रदराज सज्जन कह रहे हैं कि इतना बड़ा अवसर है यह। लगातार तीन दिनों तक प्रवचन सुनना। धर्म-कर्म और लोक-परलोक का ज्ञान ले आना। इस ज्ञान पर चलने के लिए आतुर लोगों को ले जाने का नेतृत्व संभालने वालों का मानव प्रेम मार्ग बिल्कुल सूना नज़र आता है।

एक बूढ़ी औरत जो अनजाने में बस में चढ़ गयी उसे नीचे उतरने का हुक्म सुनाया गया। बुढिय़ा गिड़गिड़ा रही है कि वह किसी तरह चढ़ गयी, अब नीचे उतर न पायेगी। फर्श पर बैठ जायेगी। नौजवान ने उसे घसीट कर दरवाजे पर ठेल दिया। बुढिय़ा जमीन पर गिर गयी।

एक देहाती युवक ने अपनी गर्भवती पत्नी को ठेल-ठालकर बस में चढ़ा दिया और अब गट्ठर चढ़ा रहा था। उसे सख्ती से बता दिया गया कि रिजर्व बस है। वह भयभीत सा पत्नी को सावधानी से उतार कर उतर गया।

बस का आंतरिक माहौल पिकनिकी है। एक अधेड़ व्यक्ति ने टेप रिकार्डर चला दिया। ग़ज़ल की एक धुन हवा में तैरने लगा। हवा के झोंके ने जोर मारा तो बालों के कई गुच्छे लहराने लगे। जार्जेट और सिल्क की साडिय़ाँ सरसरायीं। कई टाईयाँ उड़ीं। कई सिल्कन कुर्ते छलछलाये।’

एक जगह बस रोकनी पड़ी तो बच्चे थाली में ककडिय़ाँ लिए आगे बढ़े। आठ आठ आने की ककड़ी बेच रहे थे। नौजवान ने तोलिया फैलाकर सभी की थालियाँ उलट लीं। दस का नोट निकाल कर उछाल दिया। 'लो बांट लो’। बच्चे कहते रहे - 'हमारे पैसे ज्यादा बनते हैं।’ आवाजें बस का पीछा करते-करते लुप्त हो गयीं। फिर सफर में डिस्को की धुन बजी। तराना छेड़ा गया।

वहाँ मंत्री के आने का अनुमान है। सर्विस कैरियर के लिए राजधानी की भीड़-भाड़ में बात करने की यह जगह मुनासिब लगी।

युवती की जांघ पर कोई चिकोटी काट रहा है।

खेत देखकर बस रुकवायी गयी। चने की हरी-भरी फसलें थीं। नौजवानों ने हरी-भरी कचरियाँ उखाडऩी शुरु कर दीं। अनपढ़ ड्राइवर चिल्ला उठा - 'ये किसी किसान की रोटियाँ हैं - भगवान के लिए उन्हें छोड़ दो।’ सड़क पर बस फिर रुकी। ड्राइवर को तलब किया गया। बताया गया कि टोले की औरतें मिट्टी-पूजन कर रही हैं - 'बस कुछ ही मिनटों की बात है। ये पूजा पूरी कर लें तो हम चल पड़ेंगे।’ सब्र कहाँ से आये? एक नौजवान ने ड्राइवर की बाँह पकड़ कर उसे उठाया और उसकी जगह हथिया ली। सामने रास्ता नहीं था, सिर्फ नाचते बजाते जन थे। नौजवान ने कार की कलाबाजियाँ सीखी थीं। वह बस को थोड़ा किनारे करते निकाल लेगा। आदमी को नहीं, बस तो बस डंडे और झालर को ही झटका देगा। अब उसके साथ आदमी भी लुढ़केगा या ऊपर उड़ेगा तो उड़े, इसमें उसका क्या कसूर।’

वही हुआ। 'जितनी तेजी से झालर और डंडा ऊपर की तरफ उठे थे, उससे भी ज्यादा तेजी से आदमी उड़ा।’

कहानी की अंतिम दो पंक्तियाँ हैं -

'बस झटके से निकलकर एक रफ्तार में थी, पीछे धूल और धुंए का एक बड़ा सा गुबार घिर रहा था।’

शंकर धर्म के नाम पर पाखण्ड की धज्जियाँ उड़ा रहे हैं। सत्संगियों का बस में अनजाने चढऩे वाली बूढ़ी स्त्री के प्रति व्यवहार, गर्भवती स्त्री के प्रति व्यवहार, ककड़ी बेचने वाले लड़कों के प्रति व्यवहार और अंतत: रुकावट मंजूर न करते हुए बस की कलाबाजीपूर्ण ड्राइव, सत्संगियों की हृदयहीनता, संवेदनहीनता मानवता के प्रति तिरस्कार कहानी में स्पष्ट हैं।

'सत्संग’ कहानी बताती है कि हमने क्या कुछ खो दिया है; कितना कुछ खो दिया है।

'जगो, देवता जगो’ इस नाते रेखांकित करने वाली कहानी है। पंडित जी उपेक्षित पात्र हैं। मैदान के लगभग बीचोंबीच निर्जन पड़ा मंदिर और मंदिर से सटा खंडहरनुमा छोटा सा मकान। इसी परिदृश्य में किसी सपने के टुकड़े की तरह उड़ते-उड़ते अपनी पत्नी और बच्चों के साथ पंडित रामदत्त मौजूद थे।

उन्हें डरा कर धकिया दिया गया कि भू माफिया के लोग जमीन हथिया कर दुकान-गोदाम खोलने की फिराक में थे। हथियारबंद गुंडों की मदद से जहाँ चाहें दीवार उठा दें, जहाँ चाहें गिरा दें। मजबूरन पलायन करना पड़ा।

जाकर खाली पड़े डरावने बौरहुआ, मंदिर में डेरा डाला। पुरुषार्थ के दम पर उपेक्षित पड़े कुएं से पानी खींचा और मंदिर में उजाला कर दिया। धीरे-धीरे मन्दिर के आसपास ठेले, दुकानें जम जाने से लहर-बहर हो गयी।

एक रात नगर सेठ सागरमल दो बक्से और सूटकेस पंडित जी की कोठारी में डाल गये कि उन्हें सरकारी छापे से धन बचाना था।

इस सुरक्षा कवच से गदगद होकर धनपति ने पंडित जी के नहीं चाहते हुए भी मन्दिर का कायाकल्प कर डाला। वहाँ खूब बड़ा उत्सव मनाया गया, जिसमें नेता, अफसर, व्यवसायी, वकील, डॉक्टर सभी शामिल हुए।

धन का बहाव और राजनीति के प्रभाव ने पूजा स्थल के मकसद बदल दिये। 'शहर की फिजां बदल गयी थी। शहर में नेताओं का आना-जाना बढ़ गया था। सभी पार्टियों के उम्मीदवार मैदान में उतरने की तैयारी में थे। सड़कों पर गाडिय़ों की दौड़ बढ़ गयी थी। प्रचार पहले ही चल रहा था कि रोटी, गरीबी, बेरोजगारी तो हमेशा की चीजें हैं, वे कभी भी ठीक हो जायेंगी। इस बार धर्म और संस्कृति पर संकट आया हुआ है।’

साम्प्रदायिकता संभ्रांत वर्ग की राजनीतिक आकांक्षाओं की मदद के लिए भी है। धर्म का सिर्फ चोला रहता है। कारोबार वर्चस्व का चलता है। पूंजी और राजनीति ने केवल मंदिर को ही उपनिवेश नहीं बनाया। साधारण से पंडित जी का परिवार भी तबाह कर दिया। बिटिया और बेटे को उड़ान के पंख मिल गये। घर और संस्कार की जड़ें बांध न पायीं। बेटी छली गयी। बंबई में जिसके पास थी वह उसी शहर का व्यापारिक घराना था। बेटे देवदत्त के पांव भी बिदक चुके थे। रेल सुरक्षा पुलिस ने जिस कार पर गोली चलायी, उसमें देवदत्त मारा गया। धन कुबेरों ने उसकी बली ले ली।

आवारा पूंजी लाभ का हर अवसर, हर कोना खोज लेती है। मंदिर के पास की गुमटियों और झोपड़ीनुमा दुकानों की जगह एयर कंडीशन्ड मार्केट कॉम्प्लेक्स की योजना ले आये। पंडित जी ने कहा - 'कईयों को बिना रोजी-रोटी का करके कौन सा धर्म बढ़ेगा?’

पंडित जी के सामने 'एक बसी हुई दुनिया खत्म हो गयी। वह उसे बचा न पाये।’

प्रेमचंद ने बड़ा वाजिब कहा है - 'हिन्दु अपनी संस्कृति को कयामत तक सुरक्षित रखना चाहता है, मुसलमान अपनी संस्कृति को। दोनों ही अपनी संस्कृति को अभी तक अछूती समझ रहे हैं। यह भूल गये अब न कहीं मुस्लिम संस्कृति है न कहीं हिन्दू संस्कृति, न कोई अन्य संस्कृति। अब संसार में केवल एक संस्कृति है और वह है आर्थिक संस्कृति।’

'बत्तियां’ कहानी में, 'कस्बा दंगे की आग में जल रहा था। जितने घर जलाये जा चुके थे और कितनी दुकानें-गुमटियांँ लूटी जा चुकी थीं। इसका हिसाब लगाना मुश्किल था। जहाँ-तहाँ हुईं छुरेबाजी और किसी के पीट-पीट कर मार दिये जाने के मामले ऊपर से थे। फिर एक ही मुहल्ले से एक साथ दस-बारह लोगों को जबरदस्ती पकड़ कर ले जाये जाने और इसके बाद उसकी लाशों की बरामदगी ने स्थिति को और भी बदतर बना दिया था।’

तिस पर कर्फ्यू कस्बे को जैसे बेजान कर चुका हो। 'जब दिन में ही चहल-पहल की जगहों पर मुर्दानगी छायी रहती हो, तब रात तो फिर रात है। चारों और अंधेरा था।’

ऐसी वीरानगी, बदहाली में पुलिसवालों को सिर्फ एक जगह रोशनी नज़र आयी। वहाँ वह बूढ़ी औरत हाथ में लालटेन लिए दरवाजे पर खड़ी थी। एक नौजवान जिसे अपने दोनों लाथों से खींच लेना चाहता था। बूढ़ी अपने बेटे साजिद का इंतजार कर रही थी। वह उसे रोशनी दिखाना चाह रही है। शमीम उसका उसका दूसरा बेटा जानता है कि साजिद अब नहीं लौट कर आने वाला। वह उसे काम में लगाना चाहता है। दशहरे के मेले पर उन लोगों को खिलौने बना बेचने हैं। दंगाग्रस्त इलाका कर्फ्यू और कंधे पर अपने जिगर के टुकड़े को खाने का दुख की गठरी, तब भी वह बांस की फोफियां छील रही है। लालटेन की रोशनी तेज कर देने से एक तेज रोशनी फैल रही है।

बुनावट और परिदृश्य 'ठिकाने’ कहानी का भी ज्यादा अलग नहीं। शहर में वारदातें शुरू होने के बाद कर्फ्यू लगा दिया गया। एहतियातों के बावजूद दंगा फैलता गया। 'अब तक कई तरफ घरों और दुकानों में आग लग चुकी थी। छोटे-छोटे बच्चों की स्कूल बस जलायी जा चुकी थी।’ विवरण प्रस्तुत करते हुए कथाकार की नज़र मामूली आदमी के त्रस्त होने, आफत में आने, नुकसान पर ध्यान केन्द्रित रहता है - 'सब्जी बेचने वालों के शेड जलाये जा चुके थे। फुटपाथ पर खड़ा एक ठेलेवाला भाग नहीं पाया था और मौत के घाट उतारा गया था। दूध बेचकर लौट रहे बूढ़े ग्वाले को उसी की सायकिल में बांधकर जलाया गया था।’

ऐसे गुमसुम हालात में  दो परछाइयाँ अपनी-अपनी जगह बुत बन गईं। दूसरी परछाई ने पहचाना - गुरमीत बुआ। पहली को भी पता चल गया - जमालुद्दीन। बुआ अपनी खोयी भैंस ढूढऩे निकली है। जमालू को अपनी मशीन की चिंता है।

बुआ के बेटे कीरतन की जान दंगाइयों ने ले ली।

शंकर के पात्र भयानक और त्रासद स्थितियों में भी सांस नहीं छोड़ देते। जीवन संग्राम में फिर से लडऩे के लिए मुस्तैद हो जाते हैं।

बुआ की भैंस और गुरमीत की फेंकी गयी मशीन मिलने पर दोनों लौट रहे हैं।

बुआ कहती है - सुन, तू मशीन भैंस की पीठ पर लटका दे और पीछे से हाथ लगाये रख। मैं रस्सी पकड़े चलूँगी। जमालू की मशीन दुबारा बनने वाली नहीं। बुआ की चिंता है, 'दूध बिकेगा नहीं। यह कर्फ्यू हमें तोड़ देगा।’

जमाल को ख्याल आया कि दूध स्टेशन पर बिक सकता है। बुआ जमाल को बाल्टी में दूध लेकर स्टेशन जाने का सुझाव देती है। संकट दर संकट में जीवन की सुबह की तलाश यही तो है।

पिछड़ा हुआ वर्ग और भी पिछड़ता चला गया है। पूंजीपति लूटने और शोषण के लिए ही बना है और दलाल, नौकरशाह उसकी मदद के लिए उसके पीछे आ जाते हैं। विवश लोगों को लूटने के लिए। किंतु जब वे समझ जाते हैं कि उनके पास खोने के लिए कुछ नहीं, पाने के लिए पूरी दुनिया है, तब वे एकजुट होकर पूरी ताकत लगा देते हैं और सामने खड़ी बाधाओं को चीर कर निकल जाते हैं। इसी बुनियाद पर रची गयी है शंकर की कहानी 'पहिए’। गोभी लेकर मंडी पहुँचने वाली बैलगाडिय़ाँ रोक ली गयीं। भारी सर्दी है। वे पहले पहुँचने के लिए काफी जल्दी निकले हैं ताकि गोभी के सही दाम मिल सकें। 'बैलगाडिय़ाँ बेरियर पर रोकी जायें यह तो नयी-नयी बात शुरू हो रही है।’ चेक-पोस्ट वालों ने कहा है कि बैलगाडिय़ाँ तभी छोड़ी जायेंगी जब हर गाड़ी से दो-दो गोभियों की बंध मिलें।

गाड़ीवान हिसाब समझ रहे हैं कि कितनी गोभियाँ जायेंगी। इससे पूर्व व्यापारी के आदमी आये थे - 'उन्होंने खेत में ही गोभियों को एकमुश्त बेच देने का लालच दिया - इसमें से जो मंडी में दो बजे रात तक तक पहुँच जायेंगे, उन्हें इनाम में पांच रुपये अलग से। जो तीन बजे तक पहुँचेंगे, उन्हें चार रुपये। चार बजने पर दो रुपये- यह हिसाब भी स्वार्थ के हिसाब से था।’ वे हिसाब का मर्म समझ रहे हैं - भाइयो कि वे हमारी ही चीजों के मालिक बन जायें और हम उनके गुलाम। हम सालों और युगों से भी यही तो करते आ रहे हैं। व्यापारियों ने नयी-नयी चीजें हथियाने में हमें भी हथिया लेना चाहा। हमने उन्हें तो दो टूक जवाब दे दिया। लेकिन अब यह एक दूसरी बिरादरी सामने आ खड़ी हुई है।’

(जगो देवता जगो/पृ.सं.-36)

बेरियर मैन ने दफ्तर से आया आदेश सुना दिया, 'तुम लोग अब साहब से इजाजत लेकर आओगे, तभी बेरियर पार करोगे।’ क्योंकि झेलने वाले पात्र गाड़ीवान हैं, गाड़ीवानों के पास श्रुत किस्सों का भंडार रहता है, इसलिए कथाकार ने अपनी वैचारिक लड़ाई के लिए किस्सा चुना है - जब एक हाथी ने खरगोशों को आदेश सुना दिया - 'खरगोशो, तुम एक एक दूब मेरे पास रखते जाओ। तभी मैं तुम्हें आगे जाने दूँगा वरना रास्ते के इसी तरफ पड़े रहो।’ सारे खरगोश समझ गये कि रास्ता तो हाथी का नहीं, सबका है।... खरगोशों ने फैसला किया, हम दूब नहीं दें और एक साथ मिलकर हाथी को धकेलें, हाथी जरूर पलटा खायेगा।’ खरगोश सैकड़ों थे।

गाड़ीवानों को रोकने के लिए पहले लदे माल का चालान मांगा गया। फिर कहा गया कि क्या सबूत है कि गोभियाँ उन्हीं की हैं, चोरी की नहीं?

हलफनामे जैसा कागज भी तैयार किया गया, किंतु तभी नजर आया वह आदमी जो खेतों पर मोल-तोल करने आया था। शहर के व्यापारियों और चेक पोस्ट वालों की मिलीभगत पकड़ी गयी - 'असल मरम को पकड़... असल मरम को। ये हमसे गोभियों की बंध भी पायें और हमें रोककर समय पीछे जाने वाली ट्रकों का मंडी हमसे पहले पहुँचायें। इन्होंने दुहरी जुगत भिड़ायी है। हम पर दो-दो तरफ से मार है, भाइयो...।’

'पन्द्रह-सोलह जनों की टोली एक झटके के साथ सड़क पार कर चेक-पोस्ट काउंटर के सामने आ खड़ी हुई। काले कोट की आँखों ने भाँपा, अभी घंटे भर पहले जिनके जहाँ-तहाँ बिखर गये होने की उम्मीद थी, वे एक साथ सैलाब की तरह खड़े थे। उनके चेहरे सख्त थे। इनकी आँखों में तीर जैसा यह पैनापन कैसे आ गया?’ (पृ.सं.-42)

जो पूरी रात जागकर खुले में ठंड झेल कर पहले पहुँचे थे, भेदभाव नहीं सह सकते थे कि ट्रक पहले छोड़ दिये जायें।

'फिर एक हलचल हुई।

एक झंझावत उठा।

एक बिजली उठी

एक हवा उठी

एक धरती उठी

एक आसमान उठा।

अब हवा में सिर्फ बेरियर की टूटी और लहराती हुई रस्सी थी।

यह प्रतिरोध की कहानी है।

'जगो देवता जगो’ संग्रह की कहानियाँ पढ़कर आसानी से जान जाते हैं कि शंकर एक ऐसे कथाकार हैं जो जन-जीवन की बदहाली सहन नहीं कर पाते। टोले, गाँव, मुहल्लों को सामाजिक अलगाव या मजहब के नाम पर लड़वाने वाले आर्थिक विषमता को समझने नहीं देते। धर्म को सांस्थानिक शक्ल में बदलने की कोशिश रहती है, जिसका बड़ा और मारक प्रभाव मामूली आदमी को झेलना पड़ता है। गंभीर कथा रचना में उनका नाम उल्लेखनीय इसलिए भी है कि वे उखड़े हुए, पिछड़े हुए पात्रों को आधार बनाते हैं।

 

शंकर हिन्दी की प्रगतिशील परंपरा में ऊंचा हक रखने वाले वरिष्ठ कथाकार हैं। पहल के पुराने दौर में उनकी कई कहानियां चर्चा में रही। सराही गई। शंकर 'परिकथा’ जैसी अनूठी कहानी पत्रिका के संपादक हैं जिसमें बिलकुल नए कथाकारों को मंच मिलता है। तरमेस गुजराल पंजाब से आते हैं और जाने माने लेखक हैं।

 

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