मनुष्य और प्रकृति के सहकार को शब्दबद्ध करती कहानियां

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    अक्टूबर - 2019
श्रेणी मनुष्य और प्रकृति के सहकार को शब्दबद्ध करती कहानियां
संस्करण अक्टूबर - 2019
लेखक का नाम शशिभूषण मिश्र





पुस्तक

 

अशोक अग्रवाल समग्र

 

 

कथा के आनंद को अबाधित पूर्णता देने वाले कथाकार के रूप में अशोक अग्रवाल की कहानियों को उदाहृत किया जाना चाहिए। वह कथानक को विस्तार देने के बजाए 'बोध की विश्वसनीयता’ के कथाकार हैं। उनके कथाकार की प्रतिबद्धता जितनी जीवन की निस्संग गवाही के प्रति है उससे कहीं अधिक जीवन के मार्मिक साक्षात्कार के प्रति है। लेखक का अपनी रचना के प्रति नैतिक दृष्टिकोण का होना जरूरी है; इस मामले में अशोक अग्रवाल की कहानियां अपने नैतिक आधार से कभी भी विलग नहीं होतीं। उनके कथा लेखन का विस्तार 1968 से 2017 तक है। उनके प्रारंभिक कहानी संग्रह- 'उसका खेल’ और 'संकरी गली में’ 1968 से 1978 के बीच लिखी गयी कहानियाँ हैं। इसके बाद 'उसके हिस्से की नींद’ प्रकाशित हुआ जिसमें कुल जमा बारह कहानियां हैं। 1988 से 1994 के बीच लिखी गयी कहानियों को 'मामूली बात’ संग्रह में संकलित किया गया है। 'मसौदा गाँव का बूढ़ा’ उनका अद्यतन कहानी संग्रह है जिसमें 1995 से 2007 तक लिखी कहानियाँ हैं।

अशोक अग्रवाल की कहानियों में 'कथा के विकास और उसकी परिणति’ के बीच व्यतिक्रम लगभग न के बराबर मिलेगा। इसके चलते ये क्षैतिजिक विस्तार की राह नहीं पकड़तीं बल्कि कथ्य को लम्बवत दिशा में ले जाती हैं। यह उनका अपना कथा-शिल्प है जिसे वह अधिसंख्य कहानियों में गोड़ते-बोते हैं। कथा के भीतर अवांतर कथाओं  की उपस्थिति यहाँ नगण्य है। ज्यादातर कहानियाँ शीर्षकीय छाया के भीतर ही विकसित होती हैं। इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि कहानी के विषय और उसमें उपजने वाले विचारों के बीच एक सहज सामंजस्य यहाँ मिलता है। वह प्रक्रिया और परिणति पक्ष के बीच संतुलन की बराबर कोशिश करते हैं; इस संतुलन के कारण ही इन कहानियों का प्रवाह भंग नहीं होता। कहना न होगा कि इस समय लिखी जा रही कई कहानियों में विचार इतने ज्यादा गुम्भित होते हैं कि उनसे कथा का प्रवाह भंग होने लगता है। मेरी समझ से कथा की प्रवहमयता को  कथानक की सहजता से बरकरार रखा जा सकता है और अशोक अग्रवाल के यहाँ कथा की प्रवहमयता उसके कथानक की एक जरूरी विशेषता बनकर उभरती है।

प्राकृतिक परिवेश और प्रकृति-जीवन के अन्वेषण में इन कहानियों का महत्व असंदिग्ध है। मनुष्य और प्रकृति के संबंधों को लेकर जितनी प्रयोगशीलता और आत्मीयता यहाँ है वह अन्यत्र मिल पानी कठिन है। मनुष्य और मानवेतर जीवन के बीच वरीय साझेदारी को यह कथाकार बड़ी कुशलता से संभव बनाता है। 'मसौदा गाँव का बूढ़ा’, 'आहार घोसला’, 'बाइसवां साल’, 'हरा तोता’ जैसी कहानियाँ इस वरीय साझेदारी का उम्दा उदाहरण हैं। अशोक अग्रवाल की कहानियों में कथानक का मुक्तकामी विस्तार दिखाई देखा है -'मसौदा गाँव का बूढ़ा’ और 'आहार घोसला’ इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय हैं। इन दोनों कथाओं में प्रकृति,पशु-पक्षी और जीवों की अनूठी दुनिया ओर छोर $फैली है। प्रकृति की मूल प्रवृत्ति ही मुक्तकामी होती है, इसलिए मुक्तकामी शिल्प में ही उसे बेहतर प्रस्तुत किया जा सकता है। 'मसौदा गाँव का बूढ़ा’ को जंगलों के पोर-पोर में बसी रहस्यमयता को भेदते हुए उसमें बसी आदिमगंध को महसूसने की कथा के रूप में और 'आहार घोसला’ को मनुष्य और पक्षियों के बीच अनूठे रिश्ते को जीने की कला के रूप में पढ़ा जा सकता है। अग्रवाल के पात्रों में प्रकृति के अनूठेपन को बारीकी से अवलोकने की जितनी हुलस है उतनी ही हुलस उनके साथ सहकारी रिश्ता निभाने की है। उनके यहाँ मानव और मानवेतर के रिश्ते को जिस गहरी संलग्नता से शब्दबद्ध किया गया है उसे नजरअंदाज करना संभव नहीं है।

'मसौदा गाँव का बूढ़ा’ विपन्नता की दुश्वारियों और प्रकृति जीवन को एक साथ गूंथ कर लिखी गयी कथा है। मसौदा गाँव की एक युवती को शहर से अपनी बीमार मौसी को देखकर वापस आने में अँधेरा हो जाता है जिसके चलते उसे एक अनजान युवक से मदद मांगनी पड़ती है। वह युवक उसकी  मदद करता है और उसे घर तक अपनी साइकल में बिठाकर छोड़ता है। उस युवक का यह परोपकार-भाव था या युवती के शरीर को छूकर उस तक आती कोई अछूती महक का असर, जो भी हो वह अनजानी उमंग,ऊर्जा और स्फुरण से तरंगित हो उठा। हिलती डुलती उचकती साइकल आज उसे सेमल के फूल सी हल्की लग रही थी। युवा मन के भावों का बहुत ही स्वाभाविक विश्लेषण कथाकार ने किया है। अशोक अग्रवाल के रचे चरित्रों में भलमनसाहत और सहयोग की भावना स्पष्ट देखी जा सकती है। घर पहुँचने पर ओसारे पर बैठे पिता से वह उसे मिलवाती है और कृतज्ञ भाव से भोजन करने और रात में वहीं ठहरने के लिए कहती है। अँधेरे में डूबा अस्त व्यस्त खपरैल का घर,बिना किवाड़ों की कोठरी, फूस की खपच्चियाँ, आँगन की ढही पड़ी कच्ची भीत जैसे कई दृश्य घर की तंगहाली के गवाह थे। आपसी बतकही के बीच कहानी स्त्री और पुरुष की मानसिकता, मनोविज्ञान और परिपक्वता-स्तर के अंतर को भी दर्शाती है। हालांकि अपनी ग़रीबी के बारे में युवती द्वारा कही गयी बातें कई बार अस्वाभाविक प्रतीत होती हैं; यदि ये बातें नैरेटर के माध्यम से आतीं तो बेहतर होता। कहानी का उत्तरार्ध पक्ष पूर्वार्ध की कथा से पृथक है। सुबह होने पर युवक अपने घर के लिए निकलने को होता है तो बूढ़ा भी उसे कुछ दूर छोड़कर आने के बहाने उसे जंगल की ओर ले जाता है। जंगल में प्रवेश करते ही बूढ़े की काया में जैसे वन देवता का वास हो आया था। वन्य पौधों और लताओं के कोमल नवजात बिरवों को वात्सल्य भाव से दुलारता और सूखे दरख्त देखकर बुझ जाता। बूढ़ा कहता जा रहा था - 'जंगल से बड़ा मसखरा कोई नहीं,जितनी दफा आओ राह गुमा देता है...जंगल जब कानों में फुसफुसाए तो मन गुमा जाता है।’ कहानी जंगल के अबाध सौन्दर्य में डूबती उतराती पाठक को एक अनूठे दृश्य के बीच ले जाकर छोड़ देती है। कहानी का अंत जिस रहस्यमयता में होता है उससे पाठक किसी निष्कर्ष तक नहीं पहुँच पाता।

 जंगलों के अबाध और अराजक उपभोग ने गंभीर पर्यावरणीय संकट को जन्म दिया है जिसे 'जलसूंघा’ कहानी में संजीदगी से उठाया गया है। इस कहानी से यह समझ विकसित होती है कि प्रकृति को अधिक से अधिक जानने-समझने की आवश्यकता है। इस सन्दर्भ में जलसूंघा बाबा के मानीखेज अनुभव को टांक रहा हूँ- 'पाने की इच्छा मन में हो तो याचक भाव से उसके समीप जाना चाहिए, चाहे फिर नीम हो या माटी... खाली यष्टिका से तू धरती की कोख़ में छिपे जल को पकड़ लेगा? यह यष्टिका तो जलधाराओं की धड़कनों को सुनने का छोटा उपकरण भर है। इसे जीवन में अपने आसपास हो रही प्रकृति की हलचलों से सीखना होगा। कीड़े-मकोड़े, तितली, पक्षी, दीमक, सांप, नेवला, वनस्पतियाँ और सभी तरह की माटी..सभी उसके गुरु हुए।’ (जलसूंघा,आधी सदी का कोरस, पृष्ठ-68) यहाँ स्पष्ट कर देना जरूरी होगा कि अशोक अग्रवाल की कहानियों का स्वर समस्यामूलक होने से अधिक अन्वेषणमूलक है। इस अन्वेषण के साथ कई लोक-प्रचलित अनुभव गुत्थमगुत्था हैं। पूर्वदीप्ति शैली में लिखी इस कहानी की शुरुआत में ही नैरेटर के पिता अमराई बेचे जाने की मंशा को सख्ती से दरकिनार कर देते हैं। उनका दो टूक जवाब है कि, 'अमराई के पेड़ हमारे पुरखों ने लगाए हैं। अपने जीते जी उनका सौदा न करूंगा।’ पेड़-पौधों,तालाबों और खेतों को प्राण-पण से चाहने वाले काका और प्रकृति के कण कण को सुनने-गुनने वाले जलसूंघा बाबा की अगली पीढ़ी तक आते आते उस गाँव से इमली, बेर,आंवला,जामुन के पेड़ गायब हो गए हैं।  गरमी के दिनों में भी जो आंसूताल जलराशि से आबाद रहता था वह भी सूख चुका है। कुएं-बावडिय़ां-तालाब-पोखर पाट दिए जाने से वर्षा का जल धरती के भीतर पहुंचना बंद हो गया है जिससे भूमिगत जल दिनोदिन नीचे जा रहा है। जब पेड़-पौधे, फल पानी सब सिमट गए तो चिरई चुनगुन कहाँ रहें! इस गाँव की हकीक़त को कोई कहानी समझे तो समझता रहे मुझे यह आज के गाँवों का प्रतीक लगता है। प्रकृति जीवन में रची बसी इस कहानी में पारिस्थितिकीय संकट के कारण और समाधान को फार्मूले के रूप में खोजने की कोशिश यदि आप करेंगे तो निश्चय ही निराशा हाथ लगेगी। धरती के भीतर छिपी जलराशि को पहचानने की वैज्ञानिक और देशज पद्धतियों की यहाँ भरमार है। इस कहानी के साथ यह प्रश्न बावस्ता है कि क्या देशजता और उसकी कार्य पद्धति विकास-प्रतिगामी होती है? क्या दूसरे देशों की नकल करके ही हम विकास कर सकते हैं? देशज ज्ञान को पिछड़ा समझे जाने के दुष्परिणाम आज हमारे सामने हैं। कहानी अंत तक इस सवाल को बेसबब नहीं छोड़ती आँख मूंदकर प्राचीन पद्धतियों को नकारने में जो संकट है वही संकट उनके अन्धानुकरण में है। वैकल्पिक जीवन पद्धति प्रस्तावित करने में इस कहानी की उपादेयता असंदिग्ध है।

अशोक अग्रवाल प्रकृति-संपदा और लोक-पक्ष के चितेरे कथाकार हैं। पेड़-पौधों से लेकर पशु-पक्षियों, कीट-पतंगों, जीव-जंतुओं का अलक्षित संसार इनमें अटा पड़ा है। अंजीर, कचनार, गूलर, अर्जुन, पीपल, ढाक, पलाश, बेल, बट, राजजम्बुक, अश्वत्थ, अनार, अमरूद, शहतूत, शीशम, नीम, बरगद, गुड़हल, आम, की जाने कितनी प्रजातियाँ; धरती में छितराई जामुनें, नीम के नन्हें नन्हें स$फेद फूलों की कसैली गमक, कंदमूल की धवल गोठियाँ , पीत रंगों में रंगी निबौरियाँ, गुलदुपहरिया के फूलों की पीली लतरें, पोखरों में खिली जलकुम्भियाँ,मोरपंखों-सी $फैली सुनहरी श्यामल कांस की झाडिय़ाँ, अनगिन तितलियों के घेरे, मीठी अंजीर के स्वाद चख रही गिलहरियाँ आपके दृश्यपटल से कभी ओझल नहीं होंगी।

यहाँ जांघिल,कठफोड़वा,फुर्र फुर्र करती गौरैया, फुदकती बुलबुल, महोखों की कूंज, श्यामा हुदहुद की चाल, तीखी और लाल चोंच वाली शुरगुल, पीले गालों वाली राममंगरा, तुम्बीनुमा गोल बया का घर, सरपट केले और कांस की पत्तियों को चोंच में दबाए उड़ता नर बया, बालू और कंकडों में अंडे पारती टिटहरी और आसमान में उड़ती बगुलों की कतारें हैं। आज कितना दुर्लभ हो गया है 'आहार घोंसला’ की काकी जैसा व्यक्तित्व जिन्हें पक्षियों का इंतज़ार रहता था, जिनके घर के आसपास मिट्टी के सकोरे, कटे मटके पानी से लबालब रहते थे ताकि कोई पक्षी प्यासा न रह जाए। कितनी दुर्लभ हो गई है संवेदना की वह बेल जिसे हमारे पुरखों ने अपने श्रम जल से सींचा था। हमारी सुख सुविधाओं ने जाने कितने पक्षियों की प्रजातियाँ लील लीं। यह जितनी बड़ी प्राकृतिक त्रासदी है उससे कहीं बड़ी सांस्कृतिक त्रासदी। यह समाज में निरंतर बरता जाने वाला सांस्कृतिक अपराध है जिसकी कथाकार बराबर नोटिस लेता है। ये कहानियां नृजातीय विषयवस्तु का उत्खनन करते हुए अन्तर अनुशासनिक शोध के लिए जरूरी सामग्री उपलब्ध कराती हैं।

अशोक अग्रवाल लोकजीवन को रचनाशीलता के केंद्र में रखकर लेखन करने वाले कथाकार हैं। श्रमशील लोकजीवन की अन्तरंग और अचूक पहचान को संभव बनाने वाली ऐसी ही एक कहानी 'नीड़’ का जिक्र करना चाहूँगा जो ईंट के भ_े में मजूरी करने वाले चरित्र नत्थू के बहाने समाज की संवेदना की टोह लेती है। वह जहां काम करता है वहां उसके रहने का कोई ठिकाना नहीं है इसलिए थोड़ी दूरी पर स्थित रेलवे प्लेटफार्म के किसी कोने पर वह अपना अड्डा बना लेता है। वहाँ उसे किसका साथ मिलता! सो तीन भिखमंगों की मंडली में वह चौथा जुड़ जाता है पर उनके प्रभाव में उसने अपना काम नहीं बदला। दिन भर सब अपनी रोजी की तलाश में निकल पड़ते और शाम प्लेटफार्म के दाहिने सिरे पर पीपल के नीचे चिलम के धुंए के साथ उनकी मंडली एकसाथ होती तो पूरा ब्रह्माण्ड तरंग में आ जाता। कहानी में एक तरफ दरिद्रता की चुनौती है तो दूसरी तरफ मलंग जिन्दगी।

ठण्ड की जकडऩ से कसमसाती एक शाम जब नत्थू अपने साथियो के लिए चूल्हे में रोटियाँ सेंक रहा था तभी एक भिखारिन कांपती हुई उसके बगल में आ खड़ी हुई, उसे क्षणभर भी यह सोचने में समय न लगा कि औरत की आँखों में क्या है! उसने चूल्हे से कुछ लकडिय़ाँ सेंकने के लिए दीं और और जब उसने देखा कि उसके पेट से चिपका एक बच्चा है तो उससे रहा न गया और उसने उसके लिए रोटियां भी सेंक दीं। पूरी रात वह उसी चूल्हे के पास बच्चे को लिए हुए लेटी रही। करुणा से लबालब नत्थू की आँखों में उसे जो सहानुभूति और अपनापा दिखा था वह उसके अब तक के जीवन अनुभव से इतर था। उसके बाद से वह औरत भीख मांगने के बाद शाम को नत्थू के सुरक्षित ठिकाने पर पहुँच जाती। नत्थू की मण्डली ने आते ही उस भिखारिन (संती) को ताड़ लिया। ताड़ते भी क्यों न! पुरुष समाज का बहुसंख्य अकेली स्त्री को किसी पुरुष के पास देखकर उसके चरित्र का आकलन करने में देरी नहीं करता और चरित्रहीनता का चिरप्रचलित मानदंड उस पर चस्पा कर देता है। उस शाम भी ऐसा ही कुछ हुआ। शराब के नशे और चिलम के धुएं में मस्त होकर मंडली के एक भिखमंगे ने संती के औरतपने पर अधिकार ज़माने की कोशिश की। प्रतिरोध में संती ने जलते चूल्हे की लकड़ी निकाली और उसके मुँह पर चिपका दी। वह दहाड़ती-चीखती सन्नाका खाई मंडली पर झपटी- 'संती को रंडी समझा किया...मगंती है संती, तो क्या? इस-उस भड़ुए के आगे टांग खोल देगी?’ नत्थू मुंह बाए संती को देखता रह गया। (आधी सदी का कोरस, पृष्ठ-29) हर दिन जाने कितनी निगाहों को पढऩे वाली संती ने भांप लिया था कि कम से कम नत्थू उसका साथ जरूर देगा और ऐसा ही हुआ। कुछ ही दिनों में संती और उसका बच्चा गोगो नत्थू की अनकही जिम्मेदारी बन गए।  वह बार बार सोचता कि आखिर उनसे उसका रिश्ता ही क्या है? एक दिन उसने चुपचाप उनसे दूर जाने का निश्चय किया किन्तु जैसे ही उसने दो तीन स्टेशन पार किये गोगो की स्मृति से विकल हो उठा। वह अपने भीतर के सवालों से घिर चुका था - 'संती उसे धोखेबाज समझेगी और गोगो...? इनके बिना क्या धरती माता उसे आसरा देंगी?’ लगाव की अपरम्पार डोर से हिलगे नत्थू को वापस आना पड़ा। संती और गोगो के साथ वह एक नए जीवन के अनजान रास्तों  पर निकल पड़ता है। प्रेमचंद की परंपरा का प्रभाव कहानी में स्पष्ट परिलक्षित होता है। संती के रूप में हम आत्मबल से लबरेज एक जुझारू स्त्री की छवि देखते हैं। कहानी पढ़ते हुए हमारे भीतर बहुत कुछ बदलता है। नत्थू की नैतिकता और द्रवणशील उदारता हमें बहुत गहरे तक अपने बारे में सोचने के लिए बाध्य करती है। सभ्य और पढ़े-लिखे होने का तमगा टाँगे हम अपने भीतर झाँक पाते हैं। कहानी के मा$र्फत यह एक सभ्यतागत यात्रा है।

अशोक अग्रवाल की  कहानियाँ कहन के मुखर सांचे का अनुसरण नहीं करतीं। सादगी भरे कहन के भीतर वह जिस तरह कथ्य का विकास करते हैं, वह उल्लेखनीय है। कथा की इस रहन में दुबकी पड़ी हैं अनेक अनेक स्मृतियों की पगडंडियाँ, बतरस से सराबोर भाषा और लोक शब्दों की पूरी सम्पदा। इन कथाओं में वह मिठास में घुली भाषा का ऐसा रसायन तैयार करते हैं जिसके प्रभाव से पाठक ख़ुद-ब-खुद बंधता चला जाता है। बोलती-बतियाती इन कहानियों में अदम्य ऊर्जा उमगती दिखाई देती है। अशोक अग्रवाल की कथा-भाषा में अंकुराई कोपलों की हरीतिमा है, असमाप्य आकर्षण और लालित्य है। इन कथाओं की आधारभूमि माटी की तरह भुरभुरी है जिसमें विचारों को उगने का पूरा अवकाश मिलता है। रचनात्मक प्रक्रिया में अनुभव और संवाद की बड़ी भूमिका होती है। इन दोनों तत्वों का सफल और प्रभावी निर्वाह ये कहानियाँ अंत तक करती हैं।

इन कहानियों में मानवेतर जीवन के प्रति करुणा का लबालब परिसर ही नहीं जीवन का साझापन भी है। इस साझेपन को 'कोरस’ जैसी करुणा आप्लावित कहानी में देखा जाना एक पीड़ादायी अनुभव है। पूरी कहानी में सांकल खटखटाता संकट है जिसमें चितसिंह, मेहरदीन, बाईखान और मानसिंह चौतरफा घिरे हैं। यह राजस्थान के रेगिस्तानी इलाके के पशुचारण समाज और मवेशियों के सामने जल संकट को केंद्र में रखकर लिखी गयी त्रासद जीवन गाथा है जहां गावों की ढाणियाँ में रत्ती भर पानी नहीं बचा है, धरती सूखे की मार से दरक गयी है, बावडिय़ों में गाद बची है, मवेशियों की कौन कहे, मानुख पानी के लिए तरस रहा है। ऐसी विभीषिका में किता गाँव से चितसिंह,जाउन्द गाँव से मानसिंह, म्याजलरा गाँव से मानसिंह और पोखरण के गुड़ी गाँव से बाईखान अपने डोर-डांगरों  को लेकर पानी की तलाश में अलग अलग जत्थों में निकल कर सदराऊ में इकठ्ठा हुए थे। यह वही  इलाका है जहां बड़ी वाली नहर का पानी कई छोटी छोटी शाखाओं में बंटता है और मवेशियों की प्यास बुझती है। पर यहाँ घास का एक तिनका न था और नहर से आठ कोस दूर जाकर कुछ घास मिल पाती। गाएं मारे प्यास के इतना पानी पी लेतीं कि वहीं ढेर हो जातीं। बड़ी बड़ी आँखे फाड़े निष्पंद पड़े मवेशियों का यह दृश्य रोंगटे खड़े करने वाला है- 'मेहरदीन घुटनों के बल झुका जमीन पर गिरी गाय के मुंह में रोटी का टुकड़ा ठूंसने की भपूर कोशिश में जुटा है। गाय का पेट  गुब्बारा बन गया है। उसके देखते देखते गाय के मुंह से एक हिचकी के साथ पानी बाहर निकला... कोरों से लार बहनी शुरू हुई और गर्दन एक तरफ लुढ़क गयी... दो दिन से लगातार पानी ही पानी पी रही थी... घास का एक तिनका नहीं... भूख लगती तो फिर नहर में मुंह मारने पहुँच जाती। सोना के मुंह से पानी अभी भी लार की तरह रिस रहा था। कुछ और गायें चलती हुई सोना के पास आयीं और वहीं खड़ी हो गयीं- बिना हिले-डुले पत्थर की बड़ी बड़ी मूर्तियों की तरह, सोना की ओर टकटकी लगाए।’ (आधी सदी का कोरस, पृष्ठ-19) कहानी दिखाती है कि एक पखवाड़े से ऐसी कोई रात नहीं आई जब चारों चूल्हे एक साथ हँसें-खिलखिलाए हों। सूखे इला$के में पशुपालकों की दशा के साथ मवेशियों के मिटने की पीड़ा को वह जिस तरह दर्ज करते हैं, वह उनके कथाकार की विदग्धता का प्रमाण है।

'पंखा’, 'उत्तराधिकारी’, 'आहार घोसला’, 'बारह दिन’, 'सोख्ते’, 'चिडिय़ा ऐसे मरती है’, 'सिर्फ एक आकाश’ ऐसी कहानियां हैं जिनमें सहजीवन की आकांक्षा और सामूहिकता की चेतना विस्तार पाती है। नैतिकता, सदाशयता, पर दु:खकातरता, सहयोग जैसी मूल्यनिष्ठ प्रतिज्ञाएं अशोक के कथा-लेखन का आधारबिंदु हैं। इनके द्वारा सिरजे चरित्रों में एक ओर संवेदना का तरल और पारदर्शी आलोक है तो दूसरी ओर मासूमियत और निष्कपटता की स्निग्ध चांदनी है।  इन कहानियों पर टिप्पणी करते हुए प्रसिद्ध आलोचक कर्मेंदु शिशिर लिखते हैं -''अशोक अग्रवाल की मूल प्रवृत्ति पर बात करें तो उनके भीतर एक ख़ास तरह की मासूमियत है। अपने चरित्रों से इस तरह निष्पक्ष, निष्कपट और खुला सलूक कम कथाकार कर पाते हैं।’’

आदिवासियों का अपनी प्रकृति और परिवेश से अटूट रिश्ता रहा है किन्तु विकास के चालाक मानदंडों ने उनकी सांस्कृतिक विरासत को हाशिए पर लाकर खड़ा कर दिया है। भोले भाले भारिया आदिवासियों के विस्थापन की पीड़ा को दर्ज करती कहानी 'हरा तोता’ जहां एक ओर आदिवासियों के जीवन संकट को दिखाती है वहीं दूसरी ओर सरकारी व्यवस्था में मेहनतकश और ईमानदार आदमी की विवशता को भी दिखाती है। कहानी दिखाती है कि हमारे सरकारी महकमों  में 'भाऊ’ जैसे अधिकारी किस तरह कुण्डली मारे बैठे हैं जिनकी वजह से सरकारी योजनाएं अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँच पातीं। ऐसी व्यवस्था में अनिरुद्ध जैसे ईमानदार और कर्मठ युवा कुछ करना भी चाहें तो उनका बस नहीं चलता है। सरकारी विभागों की कार्य संस्कृति को लक्षित करती कई कहानियां इन संग्रहों में मौजूद हैं। इस सन्दर्भ में 'शिकंजा’, 'सोख्ते’, 'तंत्र’, 'कूड़ेदान’ कहानियाँ उल्लेखनीय हैं। हमारे समय के जरूरी कथाकार धीरेन्द्र अस्थाना इन्हें 'मन की भीतरी पर्त तक एक गहरी बेचैनी’ पैदा करने वाली कहानियों के रूप में देखते हुए टिप्पणी करते हैं कि, 'अशोक अग्रवाल की कहानियां घर, परिवार और समाज के आपसी द्वन्द्वात्मक और तनावपूर्ण संबंधों से गुजरते हुए व्यवस्था के उस अंदरूनी इलाके में प्रवेश कर जाती हैं जहां तमाम क्रूरताएं और षड्यंत्र अपने चेहरे पर आक्रमण के लिए निकलने से पूर्व का चिकना, लुभावना,आत्मीय और आकर्षक, 'मेकअप फाउंडेशन’ लगा रहे होते हैं।’

तर्पण, चिडिय़ा ऐसे मरती है, मशरूम कट, मकर संक्रांति, नया खेल, उत्तराधिकारी, गेंद, पिकनिक, शिशु प्रार्थना, आदि  बाल मनोविज्ञान की अंदरूनी सतहों तक प्रवेश कर लिखी गयी कहानियां हैं। किशोर-वय की मन:स्थितियों को सपाट रेखाओं में न समझा जा सकता है और न ही व्यक्त किया जा सकता है फिर चाहे वह 'मकर संक्रांति’ की मधु हो; 'उत्तराधिकारी’ का शिवा हो; 'मशरूम कट’ का अमित हो; 'मामूली बात’ का अंशू हो; 'हिस्सेदारी’ का चिंकू हो; 'चिडिय़ा ऐसे मरती है’ का मयंक हो; 'पिकनिक’ का मृणाल हो; या 'शिशु प्रार्थना’ की रेणु हो। बाल मनोवृत्तियों के यहाँ कई अभिस्तर हैं। स्कूल में पढऩे वाले मित्रों की संगत से पडऩे वाले असर और उसके मनोवैज्ञानिक प्रभावों, आर्थिक मजबूरी में दूसरों के घर काम करने वाले बच्चों के मनोविज्ञान, घर में माता पिता और बच्चों के मध्य संवादहीनता के मनोवैज्ञानिक विकारों, खिलौनों के रूप में हिंसक हथियारों का बाल मनोविज्ञान पर पडऩे वाला प्रभाव, माता-पिता से दूर रिश्तेदारों के घर पर रहकर पढऩे वाले बच्चों की मनोदशा आदि अनेक स्थितियों को लेकर बाल-कहानियों का ढांचा बुना गया है।

अशोक अग्रवाल की कहानियों में बुजुर्गवार पीढी की तादाद काफी है पर इन वृद्ध चरित्रों में जीवन से रीते होने का बोध रत्ती भर भी नहीं है। ये वृद्ध वर्तमान से मुंह बिचकाने या युवा पीढ़ी से शिकायत रखने की बजाय आगे बढऩे वाले हैं-अपने बिताए समय के व्यामोह से मुक्त। 'वृद्धावस्था’ को जिन परंपरागत सांचों में ढालकर कहानियां लिखी गयी हैं, अशोक अग्रवाल उससे अलग राह बनाते हैं। इन कहानियों में पुरानी और नयी पीढ़ी के संबंध बेपटरी नहीं दिखाए गए हैं। यहाँ दोनों पीढिय़ों के बीच समझ और सोच का अंतराल तो है पर उनके सम्बन्ध एक सम्मानजनक दायरे में हैं जो किसी भी सभ्य समाज की अपरिहार्य जरूरत है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि अशोक अग्रवाल की कहानियाँ आदर्शोन्मुखी परंपरा का अनुगमन करती समाज के निर्माण का संतुलित, सहकारी और प्रकृति-चेतस रूप प्रस्तावित करती हैं।

 

 

 

 

अशोक अग्रवाल हिन्दी की शानदार यायावरी परंपरा को नयी शैली देने वाले, एक ऐसे कहानीकार रहे हैं, जिन्हें धीमे धीमे लोगों ने भुलाया, सूची वालों ने भी दरकिनार किया। अब उनकी कहानियों का समग्र आया है। शशिभूषण ने उनके साथ न्याय करने का प्रयास किया है। अशोक अग्रवाल ने सुप्रसिद्ध संभावना प्रकाशन की नींव डाली और हिन्दी के नये पुराने श्रेष्ठतम लेखकों को प्रकाशित किया और उचित मूल्य पर फैलाया पर बड़ी पूंजी के आगे वे बमुश्किल कुछ साल टिक सके। प्रकाशन गृह खंडहर हो गया, बचा है अशोक अग्रवाल का मौलिक लेखन।

संपर्क- सहायक प्रोफेसर-हिन्दी,राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,बांदा, मो. 9457815024

 

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