बदरंग जीवन में रंग भरने के सपनों का आख्यान

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    अक्टूबर - 2019
श्रेणी बदरंग जीवन में रंग भरने के सपनों का आख्यान
संस्करण अक्टूबर - 2019
लेखक का नाम सूरज पालीवाल





क़िताबें

'हम यहां थे’-मधु कांकरिया    

 

मधु कांकरिया

 

मधु कांकरिया का पहला उपन्यास 'खुले गगन के लाल सितारे’ सन् 2000 में प्रकाशित हुआ था । उपन्यास का विषय स्त्री लेखन के दृष्टिकोण से कहूं तो सामान्य न होकर चुनौतीपूर्ण था। मधु कांकरिया ने इस चुनौती को इसलिये स्वीकार किया कि उनके अपने ही घर में उनके बड़े भाई की पढ़ाई नक्सलवाद के दौर में अधूरी छूट गई थी, जिसका मलाल पूरे परिवार को हमेशा रहा। कोलकाता उनकी जन्म स्थली भी है और कर्मस्थली भी इसलिये उन्होंने सत्तर-अस्सी के दशक की हलचलों को घर में देखा-सुना । वे गंभीर बहसें भी सुनीं, जिन्हें उनके भाई और उनके दोस्त किया करते थे और तभी यह प्रश्न मन में आता कि ये कैसे युवक हैं जो अपने जीवन से अधिक ध्यान देश और प्रदेश के भयावह राजनीतिक वातावरण को बदलने में दे रहे हैं? तब सार्वजनिक पूंजी का दौर था, निजी पूंजी की अर्थव्यवस्था की कहीं कोई चर्चा नहीं होती थी। इससे पहले बैंकों का राष्ट्रीयकरण और पूर्व महाराजाओं के प्रिवीपर्स खत्म किये जा चुके थे। युवाओं के अंदर एक प्रकार की बेचैनी थी, निजी स्वार्थ और निजी कैरियर जीवन के प्रतिमान नहीं बने थे । तब प्रतिरोध को लोकतंत्र के विकास के लिये आवश्यक माना जाता था, तब विकास का मतलब कोरपोरेट जगत का विकास नहीं था बल्कि आम जनता का विकास था, जो हाशिये के समाज से होकर आता था।

मधु कांकरिया को यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि उनका वैवाहिक जीवन सुखद नहीं रहा और पारिवारिक जीवन मारवाडिय़ों के परंपरागत समाज में बीता । यह विडंबना है कि जिस बंगाल मेंं नवजागरण बहुत पहले हो गया था, उसी बंगाल में रहते हुये मारवाड़ी उस ताप से लगभग अछूते थे। वे बंगाल में रहते हुये राजस्थान की आभासी दुनिया को सच मानकर जीते थे इसलिये स्त्री शिक्षा के प्रति उनकी कोई रुचि नहीं थी, घर में बेटी को बोझ तो नहीं माना जाता था लेकिन उसकी शिक्षा भी हो यह उनके संस्कार नहीं मानते थे। मधु कांकरिया की विडंबना यह थी कि अपने ढाई साल के बेटे के साथ पति और ससुराल को छोड़कर अपने छोटे-से घर में आ गईं। पिता थे नहीं और मां के लिये यह गहरी पीड़ा का विषय था कि उनकी बेटी का वैवाहिक जीवन असफल रहा। इस पीड़ा को उन्होंने जितना झेला उतना ही उनका अनुभव जगत विस्तार पाता गया। घर में अकेले बड़े भाई ऐसे थे, जिन्होंने उनका साथ दिया और हर कदम पर उनकी हौसला अफजाई की, ये वही भाई थे जो मार्क्सवाद से प्रभावित थे। मैं जब उनके उपन्यास 'हम यहां थे’ को पढ़ रहा था, तब मेरे मन में यह सवाल बार-बार आ रहा था कि यदि भाई मार्क्सवादी न होकर केवल मारवाड़ी व्यापारी होते तो मधु कांकरिया का जीवन जैसा आज है, वैसा शायद ही होता। मार्क्सवाद जीवन और जगत को देखने की स्वस्थ दृष्टि देता है, जिसका प्रभाव मधु कांकरिया के जीवन और रचना जगत में देखा जा सकता है। वे मार्क्सवादी नहीं हैं लेकिन उसकी विरोधी भी नहीं है इसलिये उनकी रचनाओं का आकाश विस्तृत है, घर-परिवार की सीमाओं का जो बार-बार अतिक्रमण होता है, उसके सूत्र इसी मार्क्सवाद के प्रभाव में देखे जा सकते हैं।

'हम यहां थे’ उपन्यास को पढ़ते हुये यह अहसास लगातार बना रहता है कि मधु कांकरिया इसकी मुख्य पात्र दीपशिखा के रूप में खुद मौजूद हैं। यह बात दूसरी है कि कोई कथाकार अपने निजी या बाहरी जीवनानुभवों को ज्यों का त्यों नहीं लिखता। थोड़ी हेर-फेर कथा को विस्तार देने या रोचक बनाने के लिये जरूरी है इसलिये कथा को बंगाल में गल्प कहा गया है जिसे आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी परिहास की मुद्रा में गप्प भी कहते हैं। यह गप्प का ही प्रभाव है जो कथा को रोचक बनाता है, वरना कोई किसी के निजी और दुखद अनुभवों को क्यों पढऩा-सुनना चाहेगा? यदि मैं यह कहूं कि निजी अनुभवों के कारण ही उपन्यास दीपशिखा के साथ घटी हर घटना को मार्मिक बना देता है, तो यह कहना गलत नहीं होगा। उपन्यास दीपशिखा पर केंद्रित है। उसकी परेशानी यह है कि 'दो उजले भाइयों के बीच काली कन्या’ होने के कारण पति ने उसे त्याग दिया है। वह अपने ढाई साल के बेटे को लेकर मां के घर आ गई है। भारतीय परिवारों में हर लड़की ऐसा ही करती है । पति से पहले मां का घर ही उसे संरक्षण देता है और बाद की स्थितियों में भी वही घर उसका साया संरक्षण करता है। पर उपन्यास में जिस विडंबना को उकेरा गया है, वह विडंबना मां के घर और मां के व्यवहार से ही शुरू होती है। मारवाड़ी जैन परिवार में पली-बढ़ी मां अपने से अधिक समाज की चिंता करती हैं और समाज कोलकाता में आकर भी आधुनिक नहीं बन पाया है। यह नहीं है कि बंगाली परिवारों की आधुनिकता से वे परिचित नहीं हैं पर उसे अपने घर में नहीं लाना चाहते। राजस्थान के छोटे-छोटे कस्बों से व्यापार के लिये कोलकाता आये मारवाडिय़ों की मानसिकता अब भी छोटे कस्बों के नागरिकों जैसी ही बनी हुई है। इसलिये आदमी बाहर कुछ भी करे पर घर में वह परंपरावादी मारवाड़ी ही बना रहता है। दीपशिखा की परेशानी का कारण मां का संस्कारगत व्यवहार ही है। मां के इस व्यवहार से दुखी दीपशिखा कहती है 'घर के सामंती परिवेश और नाकेबंदियों ने मेरी आत्मा को दाग दिया है। जैसे शादी क्या टूटी, दुख का मुझ पर अधिकार सिध्द हो गया। जीवन ही दागदार हो गया जिसे पूरी दुनिया से छिपाना है मुझे।’ इस दाग को छिपाने का आदेश मां का है, जो मानती है कि दुनिया को इसकी खबर नहीं लग पाये। लेकिन संस्कारों में जकड़ा मन यह सोच पाने में असमर्थ रहता है कि कब-तक छुपा सकती हो, एक दिन तो बात खुलेगी ही। मध्यवर्ग बड़ी से बड़ी परेशानियों को इसलिये सह जाता है कि पड़ौसी और रिश्तेदारों को मालूम नहीं लगे, पर ऐसा होता नहीं है। जिस घटना को हम ज्यादा छिपाते हैं, वह उतनी ही तेजी से लोगों के बीच फैलती है। दीपशिखा के विरोध करने पर मां का क्रोध सातवें आसमान पर चढ़ जाता है 'मैं डरती नहीं हूं पर अपने हगे-मूते पर मिट्टी कौन नहीं डालता है, लोगों के बीच तो मुझे उठना-बैठना पड़ता है, किस-किसको सफाई देती फिरूंगी। तुम तो घर में घुसी रहती हो, क्या हुआ जरा-सी देर कमरे में रह गई तो कौन छोटे बाप की हो गई, खुद से तो इतना भी नहीं होता और चाहती है कि मैं दुनिया के सामने जलील होऊं। यह तो सोचो कि यदि लोगों को सच्चाई पता चल गई तो क्या बची रहेगी हमारी धाक। बैठ पाऊंगी पड़ौसियों के बीच, ताना मार-मार छलनी नहीं कर देंगे मुझे?’

मां की परेशानी का कारण पड़ौसी हैं, न कि दीपशिखा की तकलीफें। कई बार बाहर की परेशानियों से अधिक घर की परेशानियां अधिक तोड़ती हैं, दीपशिखा के साथ भी यही हो रहा है। मां की हिदायतों ने उसका जीवन अपने ही घर में नरक कर दिया है। वह कहती है 'जब से मैं अपना सामान लेकर यहां आ गई हूं, अम्मा ने मुझे दर्जन भर हिदायतें दे रखी हैं-मैं खुद को सबसे छिपाकर रखूं। मैं न फोन उठाऊं और न ही घंटी बजने पर दरवाजा खोलूं। और जहां तक संभव हो ड्राइंगरूम में भी कम से कम बैठूं, मेहमानों और पड़ौसियों से भी नहीं मिलूं जिससे लोगों को भनक भी न पड़े कि मैं अपना घरबार छोड़कर यहां आ गई हूं।’ यदि अम्मा की इन हिदायतों को पूरी तरह माना जाये तो घर जेल जैसा नहीं हो जायेगा। जेल जैसा हो या नरक जैसा अम्मा को इस बात से कोई मतलब नहीं वे जो चाहती हैं घर में वैसा ही होता है और नहीं होता तो उनका विकराल रूप देखने योग्य होता है। अम्मा के इस विकराल रूप से सब डरते हैं। जिन पड़ौसियों से वे सचेत रहती हैं कि घर की कोई बात वे नहीं सुन पायें, उन्हीं पड़ौसियों को वे अपने क्रोध के सामने भूल जाती हैं । यही कारण है कि भैया लोग भी उनसे डरते हैं और भाभी तो उनके सामने कुछ कह ही नहीं पातीं। उपन्यास पढ़ते हुये मुझे इस बात का बार-बार अहसास हो रहा था कि घर में दो भाभियां हैं पर एकाध सामान्य प्रसंग को छोड़कर उनके बारे में कोई चर्चा पूरे उपन्यास में नहीं है। यह ठीक है कि उपन्यास के केंद्र में दीपशिखा है पर जब भाई और घर में आने जाने वाले अन्य लोगों का जिक्र है तो भाभियों का क्यों नहीं? क्या मारवाड़ी परिवारों में बहू को अपनी बात कहने का भी अधिकार नहीं है? मधु कांकरिया ने इसे स्पष्ट करने के लिये अम्मा के अनुभव को साझा किया हैं 'गांव में अजीब दस्तूर कि धनी बाहर हो तो पत्नी को नहाने में पानी बर्बाद नहीं करना चाहिये, साबुन नहीं बर्बाद करना चाहिये और माथा तो नहाना ही नहीं चाहिये। एक तो पति का विछोह ऊपर से घरवालों की सख्ती। सालों बाद धनी आ भी जाता तो रात से पहले मिलना नहीं होता, राम-राम कर कटता दिन। औरत की प्रीत का कोई मोल नहीं था। रोते-रोते आंसू न सूखते, सबको कमाने और पाई-पाई बचाने का भूत। मैं ठहरी थोड़ी ठाट-बाट से रहने वाली और राजस्थान में भी उस जगह की जहां पानी की इतनी किल्लतें नहीं थी, इस कारण मुझसे राजस्थान की भीषण गर्मी में बिना नहाये रहा नहीं जाता। इस कारण जब भी पानी पीने जाती एक लोटा पानी चुराकर अपने कमरे में रख लेती, पूरे दिन में चार-पांच लोटे पानी जमा कर लेती और फिर रात को चोरी से नहा लेती।’ यह अम्मा का अपना अनुभव है, जिससे सीख लेने की जरूरत थी। कहा जाता है कि बुरी सास की बहू बहुत बुरी भी हो सकती है और अच्छी भी। अम्मा कैसी हैं इसे बताने की आवश्यकता इसलिये नहीं है कि दैनंदिन जीवन में उनका जो रूप है, वह अच्छा नहीं है। अपनी बहुओं के प्रति उनका रुख जाहिर है कि अच्छा तो नहीं रहा होगा, पर मधु कांकरिया ने उसे बताना उचित नहीं समझा। 

मधु कांकरिया ने अम्मा के स्वभाव और मारवाड़ी परिवारों की स्थितियों का लेखा-जोखा करते हुये यह भी बताया कि अम्मा को किसी दूसरे के दुख से कोई मतलब नहीं था। वे वही करतीं जो उन्होंने सोच लिया था। पारिवारिक संस्कारों के प्रति इतनी कट्टर कि तिनके के बराबर इधर से उधर होना स्वीकार नहीं था। उपन्यास में कई ऐसे प्रसंग हैं जिनमें उनकी सकारात्मक भूमिका हो सकती थी, पर वह उनके स्वभाव के कारण संभव नहीं हो सकी। वे चाहती तो जयंती की बेटी कल्याणी की सहायता कर सकती थीं, लेकिन दीपशिखा की उसके प्रति हमदर्दी को भी उन्होंने ठीक नहीं समझा। उपन्यास में कामवालियों के टपरों और उनकी आर्थिक स्थिति को विस्तार से बताया गया है, जिसे बताने की यहां आवश्यकता नहीं है। मुझे लगता है हर जगह उनकी यही स्थिति है, दूसरों का घर साफ  रखते-रखते उनका अपना घर गंदा ही रहता है। जिन स्थितियों में वे रहती हैं, उन पर न तो हमारा ध्यान जाता है और न हम ध्यान देना ही चाहते हैं। अम्मा जैसी औरतों के मन में उनके प्रति कोई संवेदना नहीं है। कहना न होगा कि अम्मा तो हमारे मध्यवर्गीय उम्रदराज औरतों की प्रतिनिधि पात्र हैं जिनके माध्यम से कामवालियों के पक्ष को रखा गया है। अपने ही घर के दो तल्ले ऊपर परित्यक्ता सुलक्षणा का भाई उस पर जिस प्रकार के अत्याचार कर रहा था, इससे किसी को कोई मतलब नहीं था, अम्मा को भी नहीं। मूड़ी वाले को थोड़ी देर के लिये घर में बैठा लेने को भी अम्मा उचित नहीं मानती। दरअसल, अम्मा का स्वभाव ही ऐसा हो गया है कि उन्हें अपने अलावा किसी का सुख-दुख दिखाई ही नहीं देता। तब दीपशिखा सोचती है 'सूने दिमाग में फिर उगा एक सवाल-भैया कहते हैं, पहले कुछ बन जाओ तब लडऩा सत्य, सौंदर्य और न्याय की लड़ाई पर इस प्रकार हर दिन मरते-मरते मेरी प्रतिरोधी क्षमता क्या बच पायेगी अंत तक? तब-तक तो शायद जो सुंदर और मानवीय है मेरे अंदर, उसका भी सफाया हो जायेगा। शायद पता भी नहीं चलेगा और मैं भी हो जाऊंगी अम्मा की अगली कड़ी... हो ही नहीं जाऊंगी बल्कि हो ही गई हूं।’ यह दीपशिखा का आत्ममंथन है, जो छोटी-छोटी घटनाओं और अम्मा के स्वभाव के कारण उसे अपने ही समाज से विरक्त कर रहा है।

जो जातिवाद अब कानून की परिभाषा में अपराध हो गया है, अम्मा उसे छोडऩे को तैयार नहीं है। सफाई कर्मचारी के आने पर अम्मा का रूप देखने योग्य होता था, पूरे घर को वे सिर पर उठा लेतीं। एक दिन दीपशिखा घर पर ही थी कि सफाई कर्मचारी आया तो अम्मा जोर से चिल्लाई 'साड़ी उठा लो, साड़ी उठा लो। मैं समझी नहीं, हड़बड़ी में मैंने अपनी साड़ी ऊपर उठा ली। अम्मा ने माथा पीटते हुये कहा -अरे गधी अपनी नहीं, हॉल में सूखती हुई साडिय़ों को ऊपर उठा लो। जमादार मिनट भर खड़ा रहा फिर वह डाइनिंग हॉल में सूखती हुई साडिय़ों के निचले सिरे से बचते-बचाते हुये बाथरूम की ओर निकल गया। वहां भी अम्मा ने उसे फिर रोका। सारी बाल्टियां बाहर निकाली गईं, पानी से भरी बाल्टियां, जिन्हें बाहर करते हुये खुद अम्मा और भाभी हांफ रही थीं। बाथरूम में दो पानी से भरी टंकियां थीं, उन पर पॉलिथीन लगाया गया, गंदे कपड़ों से भरे डगरों को बाहर लाया गया, फिर जमादार को भीतर घुसने की अनुमति मिली। यह सब देख मैं कुढ़ गई। अम्मा का सारा व्यवहार ऐसा जैसे वह इनसान नहीं कोई भयानक गंदगी हो। क्या सोचता होगा जमादार? और तभी मुझे ख्याल आया कि हम तो उसका नाम भी नहीं जानते, जो भी आता उसका यही नाम होता-भंगी  या जमादार ।’ अम्मा को कहा तो वे फनफना उठीं 'ओ राम जी सुनो इसकी बात! खुद तो जिंदगी भर दुश्मन बनी रही, अब बहुओं को भी दुश्मन बना रही है। सब घोल-घाल के पी गई। अरे भंगी है, उससे दूर नहीं रहूं तो क्या उसे अपने सिर पर मुतबाऊं? चली है गांधी बनने!’ यह अम्मा का एक और भिन्न रूप है, जो अपने जैसे ही आदमी से गंदगी तो साफ करा लेती हैं लेकिन उसे आदमी मानने को तैयार नहीं होतीं। गांधी जी का नाम इसलिये लिया कि गांधी 'शौचालय को मंदिर मानते थे’ इसलिये उसकी साफ-सफाई भी स्वयं करते थे। यह ठीक है कि अम्मा गांधी नहीं बन सकतीं पर इंसान को इंसान तो समझ सकती हैं। कोई कितना भी स्वच्छता की बात कर ले पर गांधी तो आज भी मानक हैं, इसलिये भारत सरकार ने भी स्वच्छता अभियान के 'लोगो’ में गांधी जी का चश्मा रखा है। चश्मा प्रतीक है उस आदमी का जिसके आश्रम के बराबर में हरिजन बस्ती होती थी और एक बालिका गोद ली तो वह भी हरिजन की ली ताकि समाज में बगैर प्रवचन किये संदेश चला जाये। हम प्रवचन तो बहुत देते हैं पर स्वयं वैसा आचरण नहीं करते। दीपशिखा जैसी लड़कियां करना भी चाहती हैं तो घर का वातावरण वैसा नहीं है। दीपशिखा की मजबूरी यह है कि वह किस-किससे लड़े और किस-किसका विरोध करे? अम्मा से वैसे ही उसका छत्तीस का आंकड़ा है, पति ने क्या छोड़ा कि अम्मा की सारी इज्जत चली गई। मधु ने हरिजन के आगमन के प्रसंग को शायद इसलिये लिखा है कि वे बताना चाहती हैं कि जो औरत अपनी दुखी बेटी के साथ नहीं है वह और किसी के साथ भी नहीं हो सकती। यह तो गनीमत है कि अब पश्चिमी ढंग के शौचालय बन गये हैं वरना खुड्डियों के जमाने में तो सफाई कर्मचारियों की जो दुर्गति थी, वह शर्मनाक थी ।

उपन्यास में दीपशिखा के निजी संघर्षों के साथ एक बहुत ही महत्वपूर्ण तथ्य उभरकर आया है कि जब बाबरी मस्जिद टूट रही थी, तब बंगाल का मध्यवर्ग और व्यापारी उत्तर भारत की तरह सांप्रदायिक हो गया था। उस समय ज्योति बसु की मार्क्सवादी सरकार थी लेकिन सांप्रदायिकता धीरे-धीरे अपनी जड़ें जमाने लगी थीं। इसके मूल में चाहे कारण जो भी रहे हों पर यह तो सच है कि दुर्गा पूजा जैसे धार्मिक आयोजन बगैर सरकारी सहयोग के नहीं हो सकते थे। ज्योति बसु के शासन काल में ही सड़कों पर नारे गूंजते थे 'सौगंध राम की खाते हैं, हम मंदिर वहीं बनायेंगे।’ दीपशिखा बताती है 'रफ्ता-रफ्ता वह दिन भी आया जब 6 दिसंबर, 1992 को खूनी इतिहास लिखा गया और बाबरी मस्जिद के तीनों गुंबद ढहा दिये गये। ठीक 6 दिसंबर को मेरी बुआ की लड़की की शादी थी, उनके बड़े जमाई अपनी शाखा के सर संघ संचालक थे, शाम करीब पांच बजे उन्होंने छोटे भाई से पूछा, मस्जिद तो अभी तक ढहा दी गई होगी। उनकी बातों के टुकड़े मेरे कानों में भी पड़ रहे थे। उस समय मैं कुछ भी समझ नहीं पाई थी, बाद में देर रात जब टी.वी. पर घोषणा हुई तो मुझे चमका-उन्हें टी.वी. की घोषणा के पहले ही कैसे अनुमान हो गया कि मस्जिद ढह गई होगी।’ मधु कांकरिया इस उध्दरण में यह स्पष्ट कर देना चाहती हैं कि मस्जिद का ढहना पहले ही तय हो गया था, बाकी सब नाटक था। बहुसंख्यक हिंदुओं के देश में यह ऐसा अवसर था जब न्यायपालिका और कार्यपालिका को धता बताकर सरेआम मस्जिद तोड़ी गई, जिसे बाद में हिंदुओं की बड़ी जीत के रूप में प्रचारित किया गया, आज भी किया जा रहा है । दीपशिखा बताती हैं कि 'शहादत के बाद मिली इस विजय की खुशी में हमारे घर में खीर-पूड़ी बनी थी। अतुल ने छककर उड़ाई खीर-पूड़ी।’ पर भैया जो कम्युनिस्ट विचारधारा के थे उन्होंने 'उस दिन प्रतिवाद में घर में खाना ही नहीं खाया। वे विचलित थे, खौल रहे थे।’ पर भैया जैसे बहुत कम लोग रहे होंगे, जिन्होंने इस घटना को देश के भविष्य के लिये अच्छा नहीं माना होगा। बंगाल में आज सांप्रदायिक उभार जोरों पर हैं, पिछले लोक सभा चुनावों में वाम और कांग्रेस का लगभग सफाया ही हो गया, और आगे विधान सभा के चुनावों में ममता बनर्जी ने जिन हथियारों से वाम और कांग्रेस का सफाया किया था, उन्हीं हथियारों से भाजपा उनका सफाया करने के लिये तैयार बैठी है। यदि ऐसा नहीं है तो क्या कारण है कि भाजपा ने बंगाल में अचानक अपनी नींव मजबूत कर ली? सड़कों पर भाजपा अध्यक्ष की रैली में जय श्री राम के नारे गूंज रहे थे और उस भीड़ के सामने पुलिस कुछ कर नहीं पा रही थी। मधु कांकरिया के इन संकेतों को गंभीरता से पढ़ा जाना चाहिये कि बंगाल में सांप्रदायिक उभार अन्य प्रदेशों की तरह बाबरी मस्जिद तोडऩे की तथाकथित बहादुरी के बाद से ही जड़ें जमाने लगा था, जिसका परिणाम 2002 में महानगर पालिका में कम्युनिस्टों की हार के रूप में देखा जा सकता है।

मधु कांकरिया ने उपन्यास को दो हिस्सों में बांटा है । एक में निजी संघर्ष हैं, जो घर से शुरू होते हैं, ऐसे संघर्ष जिनका बाहरी दुनिया से कोई संबंध नहीं था। 'अम्मा के उत्पात बढ़ते जा रहे थे, घर प्रेशर कुकर की तरह खौलता जा रहा था और मेरी उदासी मुझे समझदार बना रही थी’। घर के संघर्ष दैनंदिन जीवन की कलह से शुरू होते हैं, जिनका प्रभाव मन पर गहरे रूप में पड़ता है लेकिन जब बाहरी परिवर्तनों की अनदेखी की जाती है तो प्रभाव और घातक हो जाते हैं। अम्मा को यह नहीं मालूम था कि वे जो कर रही हैं, उससे घर किस घुटन में जी रहा है? उन्हें नहीं मालूम कि भैया एक ओर घर से परेशान हैं तो दूसरी ओर उदारीकरण के बाद की व्यापारिक स्थितियों से। क्योंकि उदारीकरण के बाद चीन की उत्पादित वस्तुओं ने बाजार को कब्जे में करना शुरू कर दिया था जिसके कारण छोटे कारखाने बंद होने शुरू हो गये थे 'इन दिनों भैया की फैक्टरी के उत्पाद की मांग लगातार कम होती जा रही थी, क्योंकि फिलिप्स वाले लगातार अपने बिजनेस को सिकोड़ते जा रहे थे, क्योंकि उन्होंने अपनी फैक्टरी तक चाइना में खोल ली थी। यहां जो काम महीनों में नहीं होता वहां चुटकियों में हो रहा है। जमीन खरीदनी हो, लाइसेंस लेना हो, रजिस्ट्रेशन कराना हो, सब कुछ एक ही खिड़की से तुरंत संभव था। हमारे अस्तित्व को खतरा लगातार बढ़ता जा रहा था क्योंकि भैया की फैक्टरी फिलिप्स को ही माल सप्लाई करती थी । एक तरफ धंधे की मार, खुले बाजार की खुली अर्थव्यवस्था का अजगर निगलने को तैयार, ऊपर से घरेलू कलह। हताशा और पराजय की भावना ने मुझे भी उदास कर दिया था । सच, इस घर के झगड़े में भैया और मेरी सारी ऊर्जा स्वाहा हो रही थी।’ उपन्यास की खास बात यह है कि दीपशिखा की अपनी परेशानियों के साथ सामाजिक परिवर्तनों और चिंताओं को जिस रूप में उभारा गया है, उसमें दीपशिखा के अपने संघर्ष सार्वजनिक चिंताओं में घुलमिल जाते हैं।

उपन्यास के दूसरे हिससे में  'वन मित्र परिषद’ की ओर से अविस्मरणीय आदिवासी यात्रा  है, जो आदिवासियों के जीवन के अभावों से रूबरू कराती है। आदिवासियों के जीवन को देखकर दीपशिखा को अपना महानगरीय जीवन क्षुद्र लगने लगा। यह उसके जीवन में आश्चर्यजनक परिवर्तन था, जिसे पुलिस द्वारा पकड़े जाने पर वह अपनी गवाही में कहती है 'बिशुनपुर में मैंने जो देखा वो कोलकाता का विलोम था। कोलकाता में मैंने ऐसे कई परिवार देखे थे जहां पति-पत्नी के बीच तीन-तीन गाडिय़ां थीं और यहां देखा दो मेहनतकश बादशाहों के बीच एक पतलून... सिर्फ एक पतलून... जगह-जगह से उधड़ी, पैबंद लगी पतलून ... जो भी एक बाहर जाता उसे पहन इज्जत ढांप लेता... कोलकाता में मैंने देखा एसी चेंबर में जूते पहने कुत्ते का बच्चा। यहां मैंने देखा पेट की आग से मरते अपने नौनिहालों को बेचने को विवश आदिवासी, जहरीली जड़ों को चूसने को मजबूर लोग, थोड़े से पत्तों के लालच में जान से हाथ धोती आदिवासी युवती।’ दीपशिखा का यह बयान मध्यवर्गीय छोटी-छोटी लेकिन निजी समस्याओं से वृहत्तर दुनिया की बड़ी समस्याओं से जुडऩे के कारण संभव हो पाया। यदि वह कोलकाता में रहती तो सारी जिंदगी अपने ही दुखों से दुखी होती रहती, जिनका कोई उपाय नहीं था। अधिकांश मध्यवर्गीय समाज इसी प्रकार की सीमित दुनिया में जीता है और समझता है जैसे कोई बड़ा काम कर रहा है। जो लोग अपनी सीमाओं का विस्तार करते हैं, वे इतिहास में कोई ऐसा काम कर जाते हैं जो समाज को बदलने में सहायक होता है। जंगल कुमार और दीपशिखा आदिवासियों के दुख-तकलीफों को दूर करने के लिये ऐसे महत्वपूर्ण कामों से जुड़ जाते हैं। दीपशिखा का यह कथन उसके वृहत्तर संघर्षों का प्रमाण है 'सफलता-असफलता कुछ नहीं होती। असली चीज होती है आपके जीवन का ताप कितनों तक पहुंचा। जीवन का अर्थ है अपने पीछे कुछ निशान छोड़ जाना।’ यह बड़े जीवन की कल्पना है, यह तभी संभव है जब व्यक्ति अपने हितों से ऊपर उठकर व्यापक जनता के दुखों से जुड़ जाता है। कई बार कई लोग भावुक होकर इस प्रकार के प्रयत्न करते हैं लेकिन अंतहीन अंधेरों और प्रताडऩाओं को देखकर डर जाते हैं और फिर से अपनी सीमित दुनिया में लौट आते हैं। पर दीपशिखा ऐसा नहीं करती, जंगल कुमार के समझाने पर वह दृढ़ता से उत्तर देती है 'काश, मैंने बिशुनपुर और आपको नहीं देखा होता तो शायद यहां भी सुख ढूंढ़ती। पर वहां से लौटकर मेरे सोचने की दिशा बदल गई है। सोचती हूं तो पाती हूं कि यहां ही कौन-सी लय-ताल है, कौन-सा घर है, यहां रहकर भी रहती कहीं और हूं। घर में घर और आदमी में आदमी ही खोजती रहती हूं। देखिये जिंदगी का ज्यादा विश्लेषण करना नहीं जानती, बस इतना भर जानती हूं कि मैं भविष्यहीन हूं, स्वप्नविहीन हूं और आप स्वप्नदृष्टा हैं, इसलिये मुझे आपका साथ चाहिये। एक मौका मिला है जिंदगी को बड़े उद्देश्य से जोडऩे का, शायद वहां रहकर कुछ हो जाये। यहां तो बेकार ही आत्मशून्यता में घिस रही हूं, आपके साथ एक बड़े उद्देश्यपूर्ण जीवन जीने का संतोष तो मिलेगा।’ यह दीपशिखा का पक्ष है, जिसे वह कोलकाता लौटकर जंगल कुमार के सामने रख रही है। जंगल कुमार उसे समझाते हुये कहते हैं 'वहां तुम एक सुरक्षा के घेरे में हो। सुख-दुख मेंं साथ देने वाला परिवार है। घर है। यहां जंगल का सन्नाटा है।’ बात सही है एक सामान्य स्त्री को ऐसे ही समझाया जा सकता है पर जंगल कुमार को यह नहीं मालूम कि आदिवासियों के अभाव और संकट देखकर दीपशिखा महानगरीय सामान्य स्त्री नहीं रही, उसका मन अपनी ही छोटी-सी दुनिया से उकता गया है, यहां घर में सुरक्षित रहकर अब उसे घुटन होती है। घुटन तो लंबे समय तक बर्दाश्त नहीं की जा सकती इसलिये वह अपना ही सुरक्षित घेरा तोड़कर बाहर निकलना चाहती है।

यह उसके जीवन का बड़ा संकल्प है, कहना न होगा कि वह मेधा पाटेकर या अरुणा राय नहीं है लेकिन वह कुछ भी न होकर कुछ होने के लिये कटिबद्ध है। दीपशिखा का यह संकल्प इसलिये और महत्वपूर्ण है कि वह जैनियों के छोटे-सेे व्यापारियों के घर में जन्मी है, जहां अहिंसा और अपरिग्रह को परमोधर्म माना जाता है, लेकिन उसी की धज्जियां उड़ाते हुये उसने अपने ही परिवार और रिश्तेदारों को देखा है। गांधी जी की मान्यता के अनुसार किसी को दुख पहुंचाना भी हिंसा ही है। इस प्रकार की हिंसा का शिकार वह अपने पति और अपनी मां से न जाने कितनी बार हो चुकी है, इसलिये वह अब इस नकली आवरण को उतारकर बाहर पैर रखना चाहती है। वह जंगल कुमार को फिर जवाब देती है  'घर है मेरा ... यह सच है पर सत्य यह भी है कि जिंदगी अपने दम पर जी जाती है जंगल कुमार। सत्य यह भी है कि इसी घर में मैं अपने लिये मुकम्मल घर तलाशती रही हूं। जीवन में जीवन खोजती रही हूं। बचपन में दो छातों के ऊपर चद्दर तानकर छोटा-सा घर बना उसके भीतर दुबक जाती थी, सबसे छिपकर... सुकून की तलाश में... आज तक उसी तरह दुबकना और घर बनाना जारी है। लगता है घर कहीं और है और आज भी मैं किसी विस्थापित तिब्बती जैसा जीवन जी रही हूं। खुद को थोड़ा बहुत जो भी पाया है मैंने, जंगलों के इन्हीं सन्नाटों में ही पाया है। पहली बार लगा जैसे इन्हीं सन्नाटों में देवता संवाद कर रहे हैं मुझसे और पूछ रहे हैं-कौन हो तुम? आप नहीं समझ पायेंगे इन महानगरों की माया को, जिस अनुपात में ये फैलते जा रहे हैं, लोगों के मन सिकुड़ते जा रहे हैं। ये बड़े-बड़े महानगर इंसान को घिस-घिसकर इतना छोटा कर देते हैं कि फिर वह कोई बड़े सपने देखने के काबिल ही नहीं रह पाता।’ 

यह केवल दीपशिखा की भावुकता-भर नहीं है बल्कि उसका दृढ़ विश्वास है। केवल भावुकता होती तो वह कोर्ट के यह पूछने पर चुप भी रह जाती कि 'क्या कोर्ट को लिखकर दे सकती हैं कि यदि आपको छोड़ दिया जाये तो आप फिर कभी झारखंड और बिशुनपुर की ओर रुख नहीं करेंगी?’ वह चुप नहीं रहती बल्कि तल्ख आवाज में जवाब देती है 'हरगिज नहीं हुजूर। जब- तक पृथ्वी घूमती रहेगी, जब-तक कुम्हार का चाक घूमता रहेगा मेरा बिशुनपुर में रहना तय है।’  यह जवाब अदालत के कठघरे में खड़ी उस स्त्री का है जिस पर माओवादियों को सहायता करने का आरोप लगा था। 'पुलिस उसे माओवादी साबित करने की वैसी ही पुरजोर चेष्टा कर रही थी जैसी कभी अमेरिका ने इराक में केमिकल वेपन खोजने की पुरजोर चेष्टा की थी। दरवाजा तोड़कर पुलिस अंदर घुसी और उसके कमरे की तलाशी ली जिसमें पुलिस को उसकी एक डायरी मिली, उसमें तीन पंक्तियां एरिया कमांडर रणधीर भगत की सहानुभूति में लिखी हुई मिलीं ... जिससे उत्सुकतावश वह मिली थी ... बस इसी आधार पर गदगद पुलिस ने उसे माओवादी बताकर पोटा के अंतर्गत गिरफ्तार कर लिया था। थाने में घसीटकर ले गई थी पुलिस उसे, जहां उसका दुपट्टा खींचा गया और दो हफ्तों तक बेहरमी से टॉर्चर किया गया पर उसके बाद भी पुलिस उससे यह नहीं कबूल करवा पाई कि उसके संबंध माओवादियों से थे। बाद में उसे रांची के बिरसा मुंडा कारागार के महिला वार्ड में सेल के भीतर बनी सेल के अंदर जहां सामान्यत: खूंखार अपराधियों को रखा जाता है, वहां एकदम अकेले रखा गया था।’ माओवादियों की सहायता का नाम लेकर उस समय ही नहीं अब भी इस प्रकार जुनूनी आदमियों को पकड़ा जाता है, गत वर्ष ही सुधा उपाध्याय, गौतम नवलखा, अरुण फरेरिया और वरनोन गोंजालवेस को पुलिस ने गिरफ्तार किया, उन पर वही आरोप हैं जो दीपशिखा पर हैं। यही नहीं युवा अमित कोड़ा को इसलिये गिरफ्तार कर लिया गया कि 'उनके घर में कुछ कविताएं मिल गईं जो प्रेम कविताएं नहीं थीं, जिनमें सामाजिक अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाई गई थी। पुलिस को उसमें भी बगावत की बू आई और उसी आधार पर उसे माओवादी बताकर धर लिया गया। दरअसल, हर बंदा जो किसी न किसी रूप में गलत को गलत, लूट को लूट और हत्या को हत्या कहने की हिम्मत कर रहा था, उसकी हिम्मत को मारा जा रहा था जिससे अन्याय के विरुद्ध उठने वाली हर आवाज को कुचला जा सके।’ और यह सब माओवाद के नाम पर हो रहा था जो पुलिस, प्रशासन और राजनेताओं के पास एक औजार की तरह था, जिसका इस्तेमाल वे कारपोरेट घरानों को जमीन उपलब्ध कराने के लिये कर रहे थे। वरना ज्यादातर आदिवासियों और वहां काम कर रहे स्वयं सेवी संगठनों का माओवादियों से कोई संबंध नहीं था और कभी-कभी तो पुलिस और माओवादी दोनों ही ऐसे लोगों के विरोधी होते थे। वास्तविकता यह है कि आदिवासियों के हित में बोलना, उनकी जमीन को बचाये रखने की बात कहना, अन्याय और उत्पीडऩ के विरुध्द आवाज उठाना, भूख, बीमारी और अशिक्षा के बारे में कुछ कहना अपराध माना जाता था, इस अपराध में बहुत सारे लोग या तो जेलों में बंद कर दिये गये या माओवादी कहकर मार दिये गये।

आदिवासी यह मानकर चलते हैं कि 'जब-तक जमीन है, आस है और जब-तक आस है, सांस है, हमें जमीन से बेदखल कर सरकार हमें कंपनी वालों के लिये सस्ते श्रमिक बनायेगी। आप खुद ही देखिये आज हर घर से कोई न कोई शहरों की गंदगी से बजबजाती बस्तियों में मजदूरी कर रहा है। और यह भी कि हमारी जमीन हमारे लिये सिर्फ रोटी का जुगाड़ भर नहीं, हमारी कई-कई पीढिय़ों की स्मृतियों के दस्तावेज और हमारे माथे का मान भी है। हमारे संबंधों की जड़ें इसी धरती में गहराती हैं, इससे हम उखड़ गये तो जिंदगी से उखड़ गये।’ यह एक ऐसा सच है, जिसे आदिवासियों के बीच रहकर ही समझा जा सकता है। आदिवासी क्षेत्रों में सरकार ने ऐसा भय का वातावरण बना दिया है कि सुख सुविधाओं में रहने वाला कोई भी आदमी वहां जाने से बचता है। विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों में न जाने कितने शोध प्रबंध आदिवासी साहित्य पर लिखे जा रहे हैं पर उनमें से न कोई प्राध्यापक और न कोई शोधार्थी आदिवासियों की जिंदगी के अभावों से परिचित होना चाहता है। ये नकली शोध प्रबंध किसका भला कर पायेंगे, कहना कठिन है। पर यह मैं भलीभांति जानता हूं कि मधु कांकरिया उन लोगों के बीच गई थीं और लंबे समय तक जंगल कुमार जैसे किसी स्वयं सेवी संगठन चलाने वाले व्यक्ति के संपर्क में भी आई थीं। उपन्यास में बहुत सारे प्रसंग उनके अपने जिये और भोगे हुये हैं इसलिये शब्दों में ताप है, जिसकी गर्माहट उनकी ईमानदारी में देखी जा सकती है। उनका यह निष्कर्ष सही है कि पुलिस, प्रशासन और राजनेता मिलकर आदिवासियों को लूट भी रहे हैं और बड़ी लूट के लिये कारपोरेट जगत के लिये उनकी जमीनों पर कब्जा भी करवा रहे हैं, जो उनका विरोध करता है उसे माओवादियों की सहायता करने के नाम पर सफाया करवा देते हैं। मधु कांकरिया का यह निष्कर्ष भी सही है कि माओवादियों का काम तो ठीक है पर काम करने का ढंग ठीक नहीं है। उनके काम करने के ढंग से उनका सहयोगी रूप कम और आतंक अधिक झलकता है। आतंक काम करने की खुली छूट नहीं देता इसलिये माओवादियोंं के प्रति लोगों की सहानुभूति कम होती जा रही है, जिसका लाभ सरकार और उसकी पूरी मशीनरी उठा रही है। मीडिया की भूमिका इसमें नकारात्मक ही है। पिछले कुछ समय से मीडिया का जो रूप सामने आ रहा है, वह भयावह है। लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में स्थापित मीडिया अब किसकी पहरेदारी कर रहा है, किन सामाजिक मूल्यों को प्रसारित कर रहा है और किसके पक्ष में रात-दिन चिल्ला रहा है, यह कहने की जरूरत नहीं है। दुखद यह है कि आदिवासियों के दुख-दर्द सुनने वाला कोई नहीं है और जो हैं वे पुलिस के अत्याचारों की जकड़ में हैं। जो काम मीडिया को करना चाहिये वह काम उपन्यास कर रहा है, जो बताता है 'आसन्न चुनाव की अधिकांश फंडिंग इसी प्रोजेक्ट से आने वाली थी। आगे भी सिलसिला जारी रहने की भरपूर उम्मीद थी इसलिये दहशत और गुंडागर्दी के बल पर लगभग दस हजार एकड़ जमीन कंपनी के नाम रजिस्टर हो चुकी थी। प्रोजेक्ट वाले पूरे इलाके की नाकेबंदी कर दी गई थी। स्टेट पुलिस तैनात थी। बाहर वालों को, पत्रकारों को, मानवाधिकारी कार्यकर्ताओं को, शोधकर्ताओं को, सामाजिक कार्यकर्ताओं को ...  सभी को फेंसिंग के भीतर जाने से रोक दिया गया था। माओवादियों के ट्रेनिंग केैंप उड़ा दिये गये थे। जोर-जबरदस्ती करने वालों पर पुलिस फायरिंग के ऑर्डर थे । धारा 144 लगा दी गई थी। लोगों के बीच संवाद बंद थे। स्पेशल यूनिट की देखरेख में पूरे 24 गांव उजड़ चुके थे।’

'हम यहां थे’ उपन्यास शुरू से अंत तक तनाव में चलता है, आधे में निजी जीवन के तनाव हैं तो उत्तराद्र्ध में सार्वजनिक और जुनूनी जिंदगी के तनाव । कहना न होगा कि आदिवासियों के लिये संधर्ष करते हुये वह घुटन और संताप नहीं है जो कोलकाता में निजी और सुरक्षित जिंदगी जीते हुये था। दीपशिखा के व्यक्तित्व का यह रूपांतरण ही है, जो उसे परित्यक्ता स्त्री से दुखी मानवता के लिये एक बहादुर योद्धा की तरह लड़ती स्त्री के रूप में परिवर्तित करता है । यह सामान्य प्रक्रिया नहीं है, पर मधु कांकरिया को मालूम था कि यदि शुरू के पृष्ठों में कंजूसी की तो दीपशिखा का तेजस्वी रूप नहीं उभर पायेगा इसलिये उन्होंने विस्तार से मध्यवर्गीय जीवन की सीमित और ईष्र्या-द्वेष में लिप्त जिंदगी का भरपूर परिचय दिया है । इससे बाद की जिंदगी का उजला पक्ष अपने आप महत्वपूर्ण हो गया है । उपन्यास के अंत में जंगल कुमार के यह कहने पर कि 'कितनी उम्मीद के साथ  बुलाया था तुम्हेें पर कुछ नहीं हो सका’ का जवाब देती हुई दीपशिखा कहती है 'कितना कुछ तो हो गया जंगली बाबू! और आप कहते हैं कि कुछ नहीं हो सका। जिंदगी से बाहर खड़े होकर आज जब अपनी जिंदगी को देख रही हूं तो पा रही हूं कि महत्वपूर्ण यह नहीं कि हम कहां तक पहुंचे, महत्वपूर्ण यह है कि जीवन अकारथ नहीं गया। हम कहां से निकलकर कहां तक पहुंचे। मैं रोजी-रोटी की लड़ाई से मनुष्यता की लड़ाई तक पहुंच गई.. किचन की दुनिया से इंकलाब की दुनिया तक पहुंच गई! यही क्या कम है कि इस सरकार के लिये मैं भी इतना बड़ा खतरा हो गई हूं कि इसे मेरी आजादी को कैद करना पड़ा!’

 

 

 

मधु कांकरिया हमारी सबसे सक्रिय और विरल कथाकार हैं। उनके कथानक निर्भीक हंै और अन्डरवल्र्ड में वे बड़े साहस और कौशल के साथ प्रवेश करती हैं। उनकी बेचैनियों और प्रतिबद्धता का हम आदर करते हैं। सूरज पालीवाल का स्तंभ अब पहल के लिए अनिवार्य बन गया है।

संपर्क मो. 9421101128, 8668898600

 

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