ठिगना बेल और अयान

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    अक्टूबर - 2019
श्रेणी ठिगना बेल और अयान
संस्करण अक्टूबर - 2019
लेखक का नाम द्वारकेश नेमा





कहानी

 

 

बरामदे में अख़बार के फिंकने की आवाज़ हुई। अयान बैठक में था। आवाज़ सुनते ही उठा और अख़बार लेकर वापिस आ गया। उसने खिड़की पर पड़े हुए पर्दों को दोनों ओर सरका दिया। यह जानते हुए कि उसे कल और उसके पहले की खबरें मालूम हैं, तो भी उसने अख़बार खोला। खबरों के शीर्षक देखता हुआ आखिरी पेज तक पहुँच गया। कोई भी नयी खबर नहीं मिली। न्यूज चैनॅल्स में उन्हों देख-सुन चुका था। बासी-तिबासी थीं। जो नयी थीं, उनसे कल की शाम रौनक हो चुकी थी। उनसे बात पर बात निकली थी और नगर भ्रमण हो गया था। इसके सिवाय ऐसी एक भी खबर नहीं थी जिसे वह अख़बार में देखना-पढऩा चाहे। सबेरे के समय का सूरज ठण्डा था। बादल छाये थे। हल्का-सा अँधेरा था। खिड़की से उसने चारदीवारी से सटे हुए बेल के कुपोषित ठिगने पेड़ पर से एक आदमी को पत्ते ढूँढ़-ढूँढ़कर खोंटते हुए देखा। उसे अच्छा नहीं लगा। दृश्य से बचने के लिए उसने बैठक की स्थिति बदल दी। अब सामने दीवाल थी जिस पर कैलेण्डर और तीन खण्डों वाली रैक थी, हस्तशिल्प उद्योग द्वारा बनाई कुछ मूर्तियाँ वहीं रखी थीं। ऊपरी रैक में कुल जमा पाँच पुस्तकें थीं जिनके आवरण फट-फटू गये थे। एक मोटी किताब थी जिसे केवल अयान ही बता सकता था कि ये किताब 'भारत की खोज’ है। रैक के पास ही विश्व प्रख्यात चित्रकार विन्सेट वॉन गॉग की पेंटिंग 'सूरजमुखी की अनुकृति’ लटकी थी। वह पेंटिंग उसे उसके दोस्त माधव की जन्मदविस को भेंट की थी। वे दिन देश में बौद्धिक चर्चा के दिन थे। साँसों में तरह-तरह के विवाद अन्दर-बाहर होते रहते थे। उसकी आँख पेंटिंग पर जा टिकी। उसे पहले दिन जैसा आनंद नहीं मिला। हालाँकि वह अभी बूढ़ा नहीं हुआ था। उम्र के चौथे दशक के शुरुआती वर्षों में था। उसके सामने खाली समय पड़ा था। जिसे भरने के लिए उसने प्राथमिकता के अनुसार कार्यक्रमों की सूची बनाना शुरु किया। उसे भानु याद आया। अख़बार क्या कहता है, यह जानने के लिए उसने गोदी में पड़े अख़बार को फिर उठाया। प्रथम से अंतिम पृष्ठ तक दोबारा-तिबारा भानु की न्यू न्यूज पेपर एजेंसी की आगजनी वाली खबर को उसने ढूँढ़ा। अख़बार के पक्षपाती होने का उसका विचार और पुख्ता हुआ। गुस्से से उसने उसे फेंक दिया। आवाज़ सुनकर रत्ना ने आकर पूछा - ''क्या हुआ?’’

''ये अख़बार है!’’ उसने उँगली से दूर पड़े अख़बार की ओर इशारा करते हुए उत्तर दिया।

''इसे उठाऊँ या पड़ा रहने दूँ?’’ रत्ना ने पूछा।

अयान खुद उठा। अखबार के पन्नों को समेटा, उन्हें क्रमवार जमाया। इस बीच उसका गुस्सा उतरने लगा।

''इसे मँगाना बंद कर दो। टी.वी. तो है।’’ पत्नी ने सलाह दी।

''लेकिन टी.वी. अख़बार नहीं है।’’ इसके अलावा उसे तर्क नहीं सूछा।

रत्ना ने मुँह बनाया और अन्दर चली गई। उसके विचार-पटल पर भानू की जलती हुई दुकान और अजय कुमार कौंध गये। अजय के बारे में उसने सुन रखा था कि वह गाहे-ब-गाहे ही काँलेज में दिखता था। लेकिन उसे हाजिरी पूरी मिला करती थी। उसने नेतागिरी जमा रखी थी। पढ़ाकुओं का मानना था कि वह अवश्य फेल होकर रहेगा। लेकिन सबके अनुमान को धत्ता बताते हुए वह उत्तीर्ण हुआ, बल्कि प्रथम श्रेणी पाकर उसने सिद्ध किया वह क्या चीज़ है! पढ़ाकुओं के मुँह उतर गये।

अयान और अजय कुमार एक ही मुहल्ले के थे। दोनों के मकान ज्यादादूर नहीं थे, लेकिन दोनों के सम्बन्ध मधुर नहीं थे। सामने पडऩे पर दोनों एक दूसरे को अभिवादन करने से कन्नी काटते थे। क्षण भर के लिए वे एक दूसरे पर उड़ती दृष्टि डालते और एक दूसरे को पार कर ऐसे निकल जाते जैसे रेलवे की दोहरी पटरियों पर अप-डाउन गाडिय़ाँ।

अजय कुमार के प्रति उसमें कोई पूर्वाग्रह नहीं था। कम से कम आगजनी के पहले तो नहीं ही। मोहभंग के पीछे सिर्फ एक ही कारण था - बेल का अपोषित ठिगना पेड़।

मकान खरीद कर जब अयान रहने लगा तब उसकी आँख मरणासन्न बेल पर पड़ी। गर्मी के दिन थे। इने-गिने पत्तों से वह साँसे ले रहा था। चार-पाँच दिन की अवधि के दौरान उसने देखा कि जो कुछ पत्ते शेष बचे थे, उन्हें ढूँढ़-ढूँढ़कर खोंटा जा रहा है। साथ-साथ रोपे गये पेड़ों में इकलौता बेल ही ऐसा था जो औरों की तुलना में काँटेदार होने के बावजूद उठ नहीं सका। किसी ने भी उसकी किसी भी डाल पर 'पत्ते तोडऩा मना है’ की सूचना नहीं लटकाई। अघोषित रुप से वह सार्वजनिक था। वह उसके मकान की चारदीवारी से एक फुट दूरी पर रोपा गया था। उसके तने के मोटे होने की सम्भावना का पूरा-पूरा ध्यान रखा गया। किसी ने भी नहीं सोचा था कि कल वह सींकिया और ठिगना होकर रह जायेगा। अयान को मुहल्ले वाले असंवेदनशील लगे। उसे बचाने के लिए उसने फेंसिंग लगवाई। पेड़ को उसके अंदर लिया। बरसात शुरू होने के कुछ पहले कोंपलों का फूटना शुरू हुआ। शिवभक्तों को दलील देकर शुरु-शुरु में उसने रोका-टोका। सब ठीक-ठीक चल पड़ा। सावन का महीना आते ही भक्त बिफर पड़े। उनकी टोली का नेतृत्व अजय कुमार ने ही किया। फेंसिंग तोड़ उसे फिर सार्वजनिक कर दिया।

अजय कुमार, शहर भर में अच्छा-खासा दबदबा रखने वाले लेखाराम का बेटा था। दो स्कूल और कला से लेकर विज्ञान तक के विषयों के पाठ्यक्रम चलाने वाले महाविद्यालय का वह नामवर संचालक था। अजय से उलझने के बजाय उसने बेल के प्रति उदासीन होने का विकल्प चुना।

न्यू न्यूज पेपर के सामने हुए फसाद के हुड़दंगियों में उसने अजय कुमार को पहिचान लिया था। देवा को वह कल ही फोन कर बता चुका था। देवा ने आगजनी का कारण पूछा था जो उसे पता नहीं था।

देवा के घर के रास्ते में यू शेप का छोटा सा बाज़ार पड़ता था- चक्की आटा मार्केट। उसके अन्दर आड़ी पाँत में भानु की दुकान थी। वह प्रगतिमान पत्रिका का नियमित पाठक था। पत्रिका अनिश्चितकालीन थी। नये मकान में आने के पहले जिस न्यूज पेपर स्टॉल से वह पत्रिका लिया करता था, वह घर से बहुत ही दूर पडऩे लगा था। पत्रिका निकलना कब बंद हो जाये, इसका कोई ठिकाना नहीं था। इसलिए वह वार्षिक ग्राहक भी बनना नहीं चाहता था। देवा ने उसकी तकलीफ समझी। ढेर सारे कामों के बीच उसने समय निकाला और अयान को भानु की दुकान पर ले गया। अयान ने अपनी पसन्द की पत्रिकाओं के नाम बताये। जिन्हें भानु बेचता नहीं था। फिर भी भानु ने उनको बुलाने और दुकान पर रखने के लिए ना नहीं की। देवा के कथनानुसार भानु की शब्दावली में 'ना’ शब्द कभी कहीं विलुप्त हुए डायनोसौर की तरह था। भानु ने अयान को भरोसा दिलाया कि वह उन्हें जैसे भी हो सकेगा, पत्रिकाएं लाकर देगा। अयान ने उस पर भरोसा इसलिए भी किया क्योंकि देवा की श्रेष्ठ दुकानदारों की सूची में भानु शिखर पर था। उसके लिए यह रहस्य का विषय था। दो-चार बार क्या! कई बार उसने देवा और उसकी बतौलिये यार-दोस्तों की मंडली को भानु की दुकान के सामने चटखारे लेते हुए पाया था। दो-चार बार उसे भी उसमें शामिल होने का मौका मिला था। वह चुप्पा किस्म का प्राणी था। शहर की खबरों के लिए वह ख़बार के ऊपर निर्भर था। सामान्यत: बतौलियों के बीच राजनीति पर चुटकुलेबाजी चला करती थी। उनके चुटकुलों के निशाने पर अधिकतर सत्तारूढ़ सरकार और कमोबेश सरकार विरोधी होते थे।

''लोकतंत्र का अर्थ निकलता है - बहुसंख्यक की सरकार।’’

''यदि दलों की संख्या बहुसंख्यक हो तो...’’

''तो तोड़-फोड़ की सरकार...’’

''बिना वोटों वाली भी होती है - एक- इने-गिने अल्पसंख्यक गुण्डों की सरकार। दो झटपट-झटपट न्याय करने वाली सरकार।’’ बड़ी देर से सधी हुई अयान की चुप्पी टूटी।

''आया करो यार।’’ कहते हुए उस छोटे से जमघट में एक बंदा उछला और अयान से लिपट गया। अपनों के बीच उसने अयान की पहचान बढ़ी दी। देवा दृश्य की नाटकीयता पर हंसा।

ऐसे मौकों पर भानु शान्त मन श्रोता बना ग्राहकी पर पूरा-पूरा ध्यान जमाये रखता था। दुकान मज़े से चलती रहती थी। चलने के भी पक्के कारण थे। किसी एक पत्रिका की सारी प्रतियाँ बिक जाने के बाद अगर कोई ग्राहक खरीदने की गारण्टी देता तो वह कहीं न कहीं से जुगाड़ लगाकर उसे ला देता। नयी पूरे दाम में, पढ़ी गई आधे में, जिसमें उसका कमीशन निल रहता। ऐसा भी नहीं था कि सारी अनुपलब्ध पत्रिका पर निल कमीशन का नियम लागू होता हो। एक-दो साल पुरानी पत्रिका के ज़रूरतमंद से तो वह चार-पांच गुने दाम वसूलता। ऐसे ग्राहक को वह पुरातत्व महत्व की पत्रिका बताकर ऐंठता था। यह चतुराई उसने नीलामी बिक्री में लगाई जाने वाली बोली से सीखी थी। ऐसी ही इक्का-दुक्का खामियों के बावजूद अयान को भानू भला मानुष ही लगा।

आगजनी की सूचना देवा को देने के बाद अयान को ऐसा कुछ लगने लगा था जैसे कि भानु के प्रति उसका कुछ न कुछ दायित्व बनता है। सूरज के उजाले के मान से वह देवा के सोकर उठने के समय का अन्दाज़ा लगा रहा था। तभी पत्नी ने चाय पेश कर दी। साथ ही बी.पी. की दवाई खत्म होने की सूचना दे दी। दवाई की दुकान से उसे पत्रिकाओं की पुरानी दुकान जाने की मजबूरी दिखाई देने लगी। उसने चाय की प्याली रोकी और मोबाइल पर समय देखा। मन ही मन देवा पर चिड़चिड़ाया। रत्ना ने भाँप लिया। सलाह दी कि मिस्-कॉल करो और उसको मौ$का दो। उसने ऐसा ही किया और दवा लाने के लिए उठा। 'प्रगतिमान’ पढऩा उसे महँगा लगा। अजय पर गुस्सा आया। प्रभावशाली व्यक्तियों के सन्दर्भ में उसने आगजनी और अजय कुमार को देखा। पुलिस को सूचित करने की इच्छा हुई। राइटिंग पैड भी उठाया। खर्रा लिखना शुरू किया - ''श्रीमान थानेदार साहब’’ लिखकर रुक गया। उसे ठीक से पता नहीं था कि चक्की आटा मार्केट पुलिस के किस क्षेत्र में पड़ता है।

देवा का फोन नहीं आया था। राइटिंग पैड एक ओर रख कर उसने खर्रे की भाषा कैसी होनी चाहिए? इस पर उसने दिमाग लगाया। घटनाक्रम की स्मृति कुरेदते हुए उसने अपनी रपट को आगे बढ़ाया।

''दिन के तीसरे पहर करीबन चार बजे मैं अपने दोस्त देवा से मिलने जा रहा था। दोस्त के घर का रास्ता आटा चक्की मार्केट से होकर जाता था। जब मैं बाजार के पास पहुंचा तब वहां राहगीरों और रहवासियों का जमावड़ा लगा था। भानु की दुकान पर असामाजिक किस्म के लोगों ने हमला बोल रखा था। छ:-सात युवक पत्रिकाओं को बुरी तरह फेंक रहे थे। एक अकेला भानु रोकने के लिए उनसे जूझ रहा था। भीड़ विरक्त भाव से घट रही घटना को ऐसे देख रही थी जैसे तमाशा हो। जो हो रहा है, उससे उसे कुछ भी लेना-देना न हो। मैं पत्रिकाओं के महत्व को जानता हूं। उसमें से मैं कई पत्रिकाओं का नियमित ग्राहक भी हूं। मेरे लिए यह विश्वास करना कठिन था कि भानु जैसे भले मानुष के साथ झगड़ा-झंझट भी हो सकता है। अचानक ही मुझे लगा कि एक अच्छे आदमी को बचाना चाहिए। आवेग के जोर से जैसे ही मैं आगे बढ़ा, वैसे ही एक आदमी ने मेरा हाथ पकड़, रोक दिया। वह सादे कपड़ों में सिपाही था। उसने अपनी पहचान उजागर की और कहा - 'दो के झगड़े के बीच नहीं कूदते। शिकार और शिकारी के बीच में नहीं आते। जो आता है, मारा जाता है।’ सुनकर मैं जहाँ का तहाँ ठिठक गया। उसने मुझे यह भी बताया कि सिपाही होने के बावजूद, सादे कपड़ों में अकेला होने के कारण वह खतरा मोल नहीं लेगा। उस सिपाही के पास खड़े एक युवक ने मुझे बताया कि जिस समय उपद्रवी लड़के दुकान पर आये थे तब वह वहीं था। उन्होंने 'आरोह’ नाम की पत्रिका के बारे में पूछा। उसका प्रवेशांक स्टैण्ड पर आया था। युवक के मुँह से मैं पत्रिका का नाम सुन रहा था। पिछले आठ-दस दिनों से भानु की दुकान पर जाना नहीं हो पा रहा था। दुकान में रखने-बेचने के लिए पाँच प्रतियाँ भेजी गईं थीं। एक बिक चुकी थी। नेता ने चारों प्रतियाँ खरीदना चाहीं। भानु ने उन्हें बेचने से इनकार कर दिया। दलील दी कि चारों प्रतियों के अग्रिम ऑर्डर उसे मिल चुके हैं और वे उन ग्राहकों के लिए आरक्षित हैं। साथ ही उसने यह भी कहा कि जितनी भी प्रतियों की जरूरत है, उतनी वह बुलाकर दे सकता है, अग्रिम भुगतान करने पर। इसके लिए वे तैयार नहीं हुए। बहस-मुबाहिसे में कहीं कोई बात नहीं बनी। वैसे अजय कुमार अडिय़ल है। उसे चार प्रतियों के अलावा उस आदमी का पता भी चाहिए था, जो एक प्रति खरीद चुका था। ''दुकानदार की भी अपनी नैतिकता होती है’’ भानु ने तंग हो, ताव में आकर उसे उत्तर दिया। इस पर वे भड़क उठे। युवक का कथन पूरा होते ही अयान का ध्यान युवक पर से हटा और दुकान की ओर गया। दुकान आग के हवाले हो चुकी थी। देखते ही देखते आजू-बाजू की दुकानें भी आग की चपेट में आ गईं। फायर ब्रिगेड का साइरन सुनाई दिया। उसको सुनते ही वे भाग निकले। थोड़ी ही देर में पुलिस आ गई। कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगाने से बचने के लिए तमाशबीनों, राहगीरों और आसपास के रहवासियों का खिसकना शुरू हो गया। उसे भी वहाँ और रुकना ठीक नहीं लगा।’’

अयान ने अपने सर्वे पर गम्भीरतापूर्वक गौर किया। सादे कपड़ों वाले सिपाही द्वारा बताये गये खतरे की सम्भावना को तलाशा। हर तरह से उसने अपने आपको आगजनी से अछूता पाया तो नैतिकता पालन की खातिर उसने आटा चक्की मार्केट क्षेत्र के थानेदार को पत्र लिखा। 'माननीय’ और 'सर’ का प्रयोग किया। एक वाक्य में सूचना दी। आटा चक्की मार्केट की आगजनी में लेखाराम के लड़के अजय कुमार और उसकी गेंग का हाथ है। प्रेषक के रूप में अपने नाम की जगह डाला- पुलिस मित्र। पत्र तह कर लिफ़ाफे में डाला। पता लिखा, बाजार जाते समय पोस्ट बॉक्स में डालने का निश्चय किया।

दायित्व निर्वाह से मिली मुक्ति और शान्ति को वह अनुभव कर ही रहा था, तभी देवा का $फोन आ गया। अयान ने उसे जता दिया कि अख़बार के रवैये से वह खुश नहीं है। नाराज़ ही नहीं गुस्से में भी है। उसने दावे के साथ कहा कि आगजनी की खबर को कल के अख़बार में भी जगह नहीं मिलेगी। बासी मानकर छोड़ दिया जायेगा। सारा मामला दबाये जाने पर दबकर रह जायेगा। उसे देवा की दीर्घ हूँऽऽ सुनाई दी और फिर ''देखो देखते हैं!’’ अयान भावना के बहाव में था। उसने लिफ़ा$फे की गोपनीयता उजागर कर दी।

''पोस्ट बॉक्स में डाल दिया क्या?’’ देवा के स्वर में चिन्ता थी। अगले वाक्य के बीच कुछ अन्तराल में उसने अनुमान के सहारे उसका अश्रव्य तक़िया कलाम 'मेरे बुद्धूराम’ सुना और ऊंची आवाज़ में ''फालतू में मुसीबत क्यूँ मोल ले रहा है तू?’’

''ज़रूरी है इसलिए।’’ जिस प्रोत्साहन की अयान देवा से अपेक्षा कर रहा था, वह उसे नहीं मिला। बल्कि थानेदार को सूचित करने के इरादे से वह उसे खिन्न होता हुआ लगा। अगले दो-तीन और वाक्यों से उसे आभास हो गया कि अजय कुमार के पिता लेखाराम का वह बहुत ही अदब-लिहाज करता है।

''लेखाराम के आगे ये भानु है कौन?’’ बोलकर देवा ने अयान को चौंका दिया। उसे दबाने और हतप्रभ करने के लिए उसने एक और राज खोल दिया कि ''आरोह पत्रिका में लेखाराम की शैक्षणिक संस्था पर लेख छपा है।’’ इसी के साथ ही उसने एक प्रश्न दाग दिया। ''पढ़ा तूने?’’ अयान अचकचाकर रह गया। 'नहीं’ बोलते नहीं बना। देवा समझ गया।

कभी-कभी अख़बार के नगर-दर्शन पृष्ठ पर लेखाराम का नाम सरकार प्रायोजित कार्यक्रमों में छपता था। लेकिन अयान की स्मृति में टिका नहीं। जिससे उसने मकान खरीदा, उसने भी नहीं बताया। देवा ही ऐसा पहला आदमी निकला, जिसने हंसी-हंसी में उससे कहा था - ''अच्छा तो तुम लेखाराम जी के मुहल्ले में जा रहे हो?’’ उसी से उसे पता चला कि लेखाराम के लड़के-लड़कियों के अलग दो स्कूल और दो कॉलेज चल रहे हैं। ऊपर उसकी अच्छी धरपकड़ है। खूब कमा रहा है, पर गरीब विद्यार्थियों का ध्यान रखता है। फीस माफ़ कर देता है और कॉपी-किताब का भी जुगाड़ करा देता है।

देवा के कथन का अयान पर जबरदस्त प्रभाव पड़ा। विस्तृत ब्यौरे में गये बग़ैर लेखाराम के प्रति उसमें सम्मान का भाव पैदा हुआ था।

''हलो-हलो’’ कर अयान ने देवा को फोन बंद करने से रोका। अन्दर से 'कौन है? देवाजी!’ का अन्दाजा लगाते हुए रत्ना आ गई। वह लेखाराम से क्रुद्ध भी थी और क्षुब्ध भी। यहाँ तक कि बेल और फेंसिंग के मामले को लेकर अयान से भी। उसकी दृष्टि में फेंसिंग तोडऩा एक तरह से उसके घर पर हमला था। घर से ज्यादाअच्छे उद्देश्य पर। बगैर लेखाराम की शह के अजय कुमार ऐसा कदम नहीं उठा सकता था, जिससे कि गिरोह बनाकर तोड़-फोड़ करने आ जाये। अयान भी लेखाराम के दबदबे के चलते चुप होकर देखता रह गया। इसके लिए वह देवा को भी दोषी मानकर चलती थी। देवा ने ही अयान को लेखाराम को प्रणाम करना सिखाया। लेखाराम की कार को अयान रंग-नम्बर से पहिचान लेता। देखते ही हाथ जोड़कर प्रमाण कर बैठता। कार की पिछली सीट खाली दिखने पर झेंपी हँसी से आसपास देखते लगता - कहीं कोई मुहल्लेवाला देख तो नहीं रहा।

''आपने 'अरोह’ पढ़ी?’’ रत्ना ने अयान के हाथ से फोन लेकर स्पीकर मोड़ पर किया। देवा का जवाब था - ''नहीं।’’ ''क्या ये नहीं माना जा सकता कि लेखाराम के दबाव के चलते खबर को छोड़ा गया है?’’

''अटकलों से किसी को नहीं होका जा सकता, रत्ना जी।’’ देवा के बोलने में हंसी का पुट था। उसे लगा रत्ना कुछ बोलेगी। ''सुनिये’’ उसने रत्ना को रोका। ''अयान की नाराजगी अख़बार से उतनी नहीं है जितनी की अजय से।’’

''नहीं।’’ अयान ने रत्ना के हाथ से मोबाइल लेकर ऊँचे स्वर में आपत्ति की। ''खबर का ब्लैक आउट है। इसके बहाने पुलिस चुप्पी साध सकती है!’’

देवा से इनकार करते नहीं बना। ऊपर से उसे लेख का सारांश बताना पड़ा।

लेख शैक्षणिक क्षेत्र में चल रही धाँधलेबाजी पर था। कुछ विषयों की माँग और भाव ऊँचे चल रहे थे। इन विषयों के पाठ्यक्रम में प्रवेश पाने की मारामारी चल रही थी। कई शैक्षणिक संस्थाओं ने इन विषयों को अपनी कमाई का जरिया बना लिया। मनचाहे विषय के पाठ्यक्रम में प्रवेश दिलाना, अच्छे अंकों से परीक्षा में पास कराना, मेधावियों की सूची में लाने जैसे काम, अपात्रों से अनाप-शनाप पैसे वसूल कर गारंटी से किये जाने लगे। ''नैतिकता को लोचदार होना चाहिए’’ वाली कार्यशैली के पक्ष में लेखाराम की संस्था भी थी।

''लेखाराम अब भी आपके लिए अदब-लिहाज के काबिल हैं?’’ रत्ना ने प्रश्न किया।

''क्यों नहीं है।’’ देवा ने तमक कर उत्तर दिया। ''अयान भी मानेगा कि यह ठीक है। हम ये क्यों नहीं देखते कि हमारे भले के लिए उसने हमें क्या दिया, क्या दे रहा है और आगे चलकर कितना क्या देगा। दूध का धुला अगर कोई आदमी है तो हमें दिखाकर बताये कोई! प्रतिवाद करने के लिए अयान का दिमाग़ पृथ्वी की गति से घूमा। हर बार उसे भयंकर डर ही दिखा। हारकर उसने आत्मसमर्पण जैसा कर दिया। ''नहीं मिला ना?’’ देवा ने व्यंग्य किया। लेखक को लेखाराम की केवल कमाई ही कमाई दिखी। उसका किया एक भी अच्छा काम नहीं दिखा। उसकी आँख के तारे सिकुड़े हुए हैं - इसलिए। और देवा ने नाटकीय विराम लिया। ''लेखाराम के आगे ये भानु की क्या औकात है - पत्रिकाओं को बेचने से इन्कार करने वाला। बाज़ार में बैठा और बाज़ार के नियम तोड़ता है। अजय को गुस्सा नहीं आयेगा? सोचो आयेगा या नहीं?’’

हवा के परदे पर अयान को उत्तर की प्रतीक्षा में देवा का मुस्कुराता हुआ चेहरा दिखा। उसकी जानकारी में आये, लेखाराम द्वारा बनवाया गया सामुदायिक भवन, रोटरी पर लगवाई हुई पनिहारिन, बाज़ार क्षेत्र में प्याऊ, उजाड़ बाग को हरा-भरा करना। देवा के कथन को नकारने लायक तर्क उसे नहीं मिले। कुछ देर तक अयान से देवा को उत्तर नहीं मिला तो उसने फोन बंद कर दिया।

बाज़ार खुलने के समय अयान बी.पी. की दवाई लेने निकला। लिफ़ाफ़ा घर पर ही पड़ा रहने दिया। जानबूझकर वह आटा चक्की बाज़ार का रास्ता छोड़, लम्बे रास्ते से गया।

बाज़ार से जब अयान लौटा तब उसे भानु बाहर फोल्डिंग चेअॅर पर बैठा मिला। उसके साफ-सुथरे कपड़े कालौंच से रंगे थे। चेहरे पर कालौंच की हल्की-सी परत चढ़ी हुई थी। रत्ना उसके पास ही खड़ी थी। वह कुछ बोल रहा था। उसे देख नमस्ते की मुद्रा में उठ खड़ा हुआ। अयान ने अभिवादन का उत्तर दिया। भानु को अन्दर बैठक में न बैठाने पर उसने रत्ना को झूठमूठ की नाराज़गी दिखाई। भानु ने रत्ना का बचाव किया। अपने कपड़ों और शरीर पर लगी कालौंच को दिखाते हुए बताया कि इस गत में उसका बाहर ही बैठना ही ठीक है। वैसे लक्ष्मी जी ने बहुत कहा, लेकिन उसे भी कुछ देखना चाहिए! बस इसीलिए!

इस बीच अयान ने भाँप लिया कि भानु उसे चश्मदीद गवाह बनाने की नियत से आया है। उसके लिए भानु ऐसा अच्छा दुकानदार था जो हर-हमेश ग्राहकों का ख़याल रखा करता था। वह गवाह बन सकता था। अदालत में बोल सकता था कि उसने अपनी आँखों से हुड़दंगियों को अख़बार-पत्रिकाएँ फेंकते और आग लगाते हुए देखा। बस यहीं तक। इसके आगे कुछ नहीं। लेखाराम का लिहाज करते हुए वह बोलेगा कि उसने हुड़दंगियों में शामिल अजय कुमार को नहीं देखा। पर वकील के द्वारा बार-बार एक ही प्रश्न ''और क्या देखा, और क्या देखा’’ किये जाने से वह डर गया। एक बार वह गवाही देते समय ऐसे ही प्रश्न में फंस चुका था। भानु उसका अपना नहीं है। देवा का कहा हुआ - ''लेखराम के आगे भानु की क्या औकात है?’’ उसके दिमाग़ में बैठा था। वह नहीं चाहता था कि भानु खुले में बैठा रहे। आते-जाते रहवासी उसे उसके यहाँ बैठा हुआ देखें।

''चलिये अन्दर ही बैठा जाये!’’ अयान ने प्रस्ताव रखा।

''यहीं ठीक है।’’ भानु ने अयान से कुर्सी पर बैठने का इशारा किया। ''बैठिये।’’

तब तक रत्ना दूसरी फोल्ंिडग चेअॅर लेकर आ गई और उसे खोलकर अयान के सामने रख दी। मजबूरन अयान को भानु के साथ बैठना पड़ा।

''जो नुकसान होना था सो हो गया।’’ भानु ने अनासक्त भाव से कहा। ''पर दूसरी विपत्ति सामने खड़ी है। वकीलों का कहना है कि पत्रिका के स्टॉक में रहते हुए वह देने से मना नहीं कर सकता। चलो मान लिया किन्तु उसको तो कर सकते हैं जो आरक्षित करा ली गई हों!’’

''उनके लिए इसका प्रमाण देना पड़ेगा। वो भी मामला अगर अदालत में गया तो!’’

''वो तो सब स्वाहा हो गये।’’ भानु ने अपने माथे को हथेली से रगड़ा। ''अब ये भी बताइये कि सच-सच बोलना अपराध तो नहीं है?’’

''इसके लिए भी प्रमाण चाहिये।’’

''आगजनी क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे में आती है।’’

''यह हिंसा के दायरे में आती है।’’

भानु ने दीर्घस्वर में ''हूँ’’ की और सोच में पड़ गया। तभी रत्ना एक हाथ में स्टूल और दूसरे में चाय-बिस्कुट की ट्रे लेकर आ गई। भानु वर्तमान में आया। कुछेक क्षणों तक वह अयान का चेहरा टकटकी लगाये देखता रहा। अयान को ऐसा लगा जैसे कि भानु उसकी आत्मा की शल्य-क्रिया कर रहा हो। ''चाय ठण्डी हो रही है’’ बोलकर रत्ना ने वातावरण को हल्का-सा किया।

जाते समय भानु अयान को सूचनार्थ बताता गया कि पांच में से एक पत्रिका कोई एक ग्राहक खरीद चुका है। उसे प्रकाशक का पता नहीं मालूम। पत्रिका का पहला अंक था। नमूने के बतौर स्टैण्ड पर रखने के लिए उन्हें भेजा गया था।

भानु के जाते ही अयान ने देवा को फोन लगाया। पूछा कि उसने भानु को उसके घर का पता क्यों दिया। देते समय उसने यह क्यों नहीं सोचा कि जिस कॉलोनी में वह रहता है, उसी में लेखाराम और उसका बेटा अजय कुमार भी रहता है। देवा ने दृढ़तापूर्वक पता देने की बात से इनकार किया। साथ ही यह खुशखबरी के अन्दाज़ में सुनाया कि पुलिस ने आगजनी को शॉर्ट सर्किट से होने वाली दुर्घटना माना। भानु ने आजू-बाजू वाले दुकानदारों ने भी यही माना। अयान ने चैन की सांस ली।

उसी शाम लेखाराम का लग्गू यार-दोस्तों के साथ दो बार उसके घर के सामने से निकला। देवा से मिली जानकारी उसे संदेहजनक लगी। उसने इसे देखा-दिखावा के बतौर लिया। पहली बार उसने हमेशा की तरह लेखाराम को नमस्कार किया खाली गया। लेखाराम का चेहरा सामने सीधा अकड़ा हुआ सा था। उसे उसकी अपनी ओर होती हुई आँख भर दिखी। उस समय वह गमलों के पौधों को पानी देकर बेल के पास खड़ा, उसकी दयनीय स्थिति पर मौन विलाप कर रहा था।

अगले दिन सामने से आती हुई कार में लेखाराम दिखा। भीड़ के कारण कार की गति पैदल चलने वालों के बराबर थी। अयान ने तत्पर नमस्कार किया और स्वीकार्य होते हुए पाया। इतना ही नहीं हुआ, उसी दिन की शाम बेलनाकार लोहे के खाँचे से बेल को ढक दिया गया। साथ ही रख-रखाव समिति की एक तख्ती लटका दी गई जिसमें रहवासियों को पत्तियाँ तोडऩे मना किया गया था। क्योंकि उन्हें तोड़ा जा सकता था। अयान का इस ओर ध्यान नहीं गया। उसके सोच-विचार में बेल नहीं था। था 'आरोह’ पत्रिका में छपा लेख जिसे वह एकदम पढऩा चाहता था। वह परेशान था। पत्रिका किसी न्यूज एजेन्सी के यहाँ उसे मिली नहीं। अलबत्ता इतना ज़रूर हुआ कि उसे मेरिट सूची में आये हुए एक विद्यार्थी का नाम मिला, जो लेखाराम की शैक्षणिक संस्था का था। पढ़ाई-लिखाई में औसत। आखरी परीक्षा में उसने कमाल कर दिखाया। ओलम्पियनों जैसी ऊँची कूद लगा गया। ''अख़बार में जब मेरिट सूची प्रकाशित हुई थी तब वह कहाँ था!’’ अयान सिर पकड़कर सोचता रह गया।

समय तेज़ी से बीतने लगा। भूले-भटके ही आटा चक्की वाले बाजार के रास्ते से उसका आना-जाना हो पाता था। कभी भी उसे भानु की दुकान का शटर उठा हुआ नहीं मिला। आजू-बाजू की दुकानें पहले जैसी चलती हुई मिलीं। पुरानी न्यूज एजेन्सी से वह पत्रिकाएँ वगैरह लाने लगा था।

तीन-चार महीने हो गये। इतने लम्बे अन्तराल में भानु और आरोह पत्रिका अयान के दिमाग़ से उतर गईं। या कहें विस्मृति के कोने-अतरे में कबाड़ की तरह फिंक चुकी थीं। बेल की नन्हीं-नन्हीं टहनियों में कोपलें फूटने लगी थीं। उसने उन्हें अनमने मन से देखा। खुशखबरी सुनाने के लिए मन आन्दोलित नहीं हुआ।

एक दिन अचानक, बहुत दिनों बाद देवा का फोन आया। वह शाम का समय था। भानू के पगला जाने की सूचना थी।

''स्टैण्ड पर आरोह पत्रिका रखने की क्या ज़रूरत थी?’’ देवा ने गुस्से से प्रश्न किया। संक्रामक रागे की तरह देवा का गुस्सा अयान को भी लगा।

''उसे ऐसा नहीं करना चाहिए।’’ अयान जैसे न्यायाधीश की भूमिका में आ गया। 'रोजी-रोटी’ को लेकर उसने दुकान का दो गुणित तीन मीटर के क्षेत्रफल को ध्यान में रखते हुए रियायत की।

''ब्लैकमेलर।’’ देवा लगभग गरजा और फोन बंद कर दिया।

बिना विलम्ब किये अयान भानु की दुकान की तरफ दौड़ पड़ा। दूर से ही उसे दुकान दिख गईं। नामपट्ट अब भी धुँआरा का धुँआरा था। दुकान अब खाली खोखा थी। पास पहुँचा तो भानु कुर्सी से उठकर उसका स्वागत करने आया। दुकान यानि खोखे में एक स्टैण्ड रखा हुआ था। उसके तीनों खाँचों में पत्रिका लगी हुई थी, जो पत्रिका जैसी कतई नहीं लग रही थीं। एक स्टूल पर बड़ा चिमनी लैम्प रखा हुआ था। जिसकी बत्ती ऊँची उठाई गई थी। चिमनी धुआँ उगल रही थी। खोखे में पुराने ज़माने का पीला-पीला सा उजाला भरा हुआ था।

''आरोह खरीदने आये हो?’’ गले मिलने के तुरन्त बाद भानु ने पूछा। ''अभी हाँ-ना करिये। उम्मीद से ज्यादातेज़ी से बिक रही है।’’

''लेकिन-’’

''स्टैण्ड पर जो लगी है वो मूल की फोटोकॉपीज हैं। मूल रद्दी की दुकान पर मिली। मूल्य पत्रिका के मूल मूल्य से दुगुना रखा गया है। एक ही अंक छाप कर प्रकाशन बंद हो गया। पत्रिका ऐंटिक हो गई है। आपके लिए भी मूल्य दुगुना रहेगा। मूल मूल्य केवल उन चार के लिए है जिन्होंने आगजनी के पहले पत्रिका बुक करा ली थी।’’ मूल्य का स्पष्टीकरण देकर भानु मुस्कुराया।

तभी दो ग्राहक आ गये। अयान ने स्टैण्ड से एक कॉपी निकाल ली। बाज़ार में कुछ खरीददारों के हाथ सुयोग लगा। उन्होंने ग्राहकों के साथ मोबाइल फोन से फोटो खींचना चाही। भानु से अनुमति मिल गई। अयान ने अपना चेहरा ढंककर प्रत्याशित खतरे से बचना चाहा। भानु ने उसके चेहरे से उसका हाथ हटाते हुए कहा - ''नहीं। 'प्रगतिमान’ के पढ़ैया। नहीं।’’ दोनों की आँखें मिलीं। अयान ने भानु को ऐसे देखा जैसे पहली बार देख रहा हो। भानु देवा वाला भानु नहीं था। ''बगैर नाम की रसीद के साथ $फोटो को मोबाइल के बैंक में जमा होने दो। इसके लिए ये जमाकर्ता मोबाइलधारी स्वतंत्र हैं?’’

''नहीं है।’’ अयान ने हिचकते हुए उत्तर दिया।

''यह प्रमाण है।’’ भानू ने अयान की बात काटी।

दोनों के बीच हुए संवाद को सुनते ही मोबाइलधारियों ने उसकी और फोटो खींच डालीं।

घर जाकर अयान ने लेख पढ़ा और दहल गया। हवा में उसे अजय कुमार की गंध आई। उसे बेल की सुरक्षा का ख़्याल हो आया। वह उठा और उसे देखने पहुँच गया। स्ट्रीट लाइट के उजाले में उसे उतनी कोंपलें नहीं दिखीं जितनी वह दो-चार दिन पहले देख चुका था। सुनिश्चित होने के लिए उसने रत्ना को मोबाइल या टॉर्च लाने के लिए कहा। टॉर्च के उजाले में उसने देखा, दो-चार दिन पहले देखी गई तीन कोंपलों वाली डंडी खांटी जा चुकी थी। तख्ती भी मिली नदारद। चिन्तित और उसे बूझती सी रत्ना आकर उसके पास रुकी रही।

''इस बेल को देखो रत्ना।’’ अयान ने बेल पर तलाशीदार रोशनी डाली। ''देखा?’’ बेल को ही दिखाते हुए उसने पूछा। ''ये बेल कभी बढ़कर पेड़ बनेगा भी? देखो! बताओ!’’

अयान को दिखाने के लिए रत्ना ने बेल को देखा और दिमाग़ लगाकर भी। उसे उसमें पगलाहट के कुछ लक्षण नज़र आये। $फोन के आने पर उसका फटाफट बगैर बोले चल देना, वहाँ से आकर पढऩे बैठ जाना और फिर बेल के सामने जाकर खड़े हो जाने को उसने संज्ञान में लिया। और अब। उसे लगा कि बी.पी. बढ़ गया। और न बढ़े इसके लिए उसने अत्यन्त मधुर और कोमल स्वर में कहा - ''देखा।’’ अयान के अनुमानित प्रश्न ''क्या?’’ का भी उसने उत्तर तैयार कर रखा - ''इसे खाद और पानी की ज़रूरत है।’’

लेख पढ़कर अयान जितना दहला, उससे कहीं ज्यादाअन्दर ही अन्दर खलबला उठा।

अयान छ: साल से विवाहित था। उसकी और रत्ना की ज़िन्दगी में हिस्सेदारी करने के लिए अभी तक संतान का पदार्पण नहीं हुआ था। पिता बनने की अयान ने अभी तक कोई योजना नहीं बनाई थी। न ही माँ बनने के लिए रत्ना ने दबाव डाला। किन्तु संतान की चाहत को एकदम नकारा भी नहीं। बस दोनों लापरवाह थे। तो भी लेख में वर्णित तथ्यों से वह डर गया। उसे लगा कि अगर उसके बेटा-बेटी होते और मेधावी होते तो लेखाराम के रहते आगे बढऩे से रह जाते। उनकी जगहें वह फिसड्डी छात्रों को बेच देता। मेधावियों की सूची में उसके बच्चों के नाम नहीं होते, ठुँस जाते फिसड्डियों के नाम। उसे झटका-सा लगा। अपने बेटे-बेटी के सदृश्य उसे अनेक-अनेक बेटे-बेटियाँ दिखे। वे न बोल पा रहे थे, न ही कुछ कह पा रहे थे। दो-तीन बार उसने उनसे कहा - ''बोलो, बोलो’’ कोई भी नहीं बोला। वे साधारण से भी •यादा, गये बीते हो गये थे - हीनभावना से ग्रस्त और विवश। उसे पहले उनकी फिर अपनी अकाल मृत्यु का अहसास हुआ। ''हे भगवान’’ उसके मुँह से निकल पड़ा।

''नहीं रत्ना नहीं।’’ उसने रत्ना द्वारा किये गये खाद-पानी के निदान को खारिज किया। ''तुमने उन डंठलों को नहीं ढूँढ़ा जो आठ-दस दिन पहले फूटी थीं। जिनकी टुनगियों पर तीन कोंपलें लालिमा लिए हुए चमक रही थीं। जिन्हें अब तक बढ़कर पत्ते बन जाना था। पत्तों वाली वे टुनगियाँ अब कहाँ हैं! उन्हें खोंट लिया गया है। उनके बगैर क्या ये बेल बढ़ेगा! कल पेड़ बन पायेगा!’’ उसने रत्ना को देखा। रत्ना को वह पगलाया हुआ ही लगा। वह उसकी बी.पी. और बढ़ाना नहीं चाहती थी। चुप रही। ''ये ठिगना ही रहेगा। ठिगना ही सूख मरेगा। इसी के समान वे सारे मेधावी, जो फिसड्डियों के कारण दरकिनार कर दिये गये हैं। जब ये मरेंगे तो हम भी मरेंगे ठिगने होकर।’’

रत्ना ने उसके कंधे पर हल्के से हाथ रखा। तभी उसे देवा का ध्यान आया। उसने उसे फोन किया। लेख के बाबत जानकारी दी। देवा से उसे यह उत्तर मिला कि लेखाराम उसकी ही कॉलोनी का रहवासी है। उसका लिहाज करना पड़ेगा।

''कैसा लिहाज?’’ वह देवा पर गरज पड़ा। ''बच्चों के आगे ये लेखाराम होता कौन है।’’ बोलकर उसने रत्ना की ओर देख कहा - ''पत्रिका की फोटोकॉपी बिक रही है।’’

''बेवकूफ।’’ उसके कानों में देवा की कड़कदार डपट पड़ी और तुरन्त ही देवा का फोन बंद हो गया।

वे दोनों भानु की नैतिकता के अनोखे मानदण्ड पर विचार करते लौट रहे थे। तभी बिजली चली गई। कॉलोनी अँधेरे में डूब गई। उसके कानों में बाइक की आवाज़ पड़ी और फिर तड़-तड़ की आवाज़ें सुनाई दीं और उनसे लगी-लगी झन्न-झन्न। जब तक वे समझें-समझें बाइक जा चुकी थी। टॉर्च की रोशनी में उन्हें खिड़की के काँच टूटे हुए मिले।

''लेखाराम।’’ अयान ने देखा और रत्ना को बताया।

 

 

संपर्क- द्वारकेश नेमा, एम-25, निरालानगर, भदभदा रोड, भोपाल-462003, दूरभाष- 0755-2774723

 

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