मृत्युंजय प्रभाकर की कविताएं

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    अक्टूबर - 2019
श्रेणी मृत्युंजय प्रभाकर की कविताएं
संस्करण अक्टूबर - 2019
लेखक का नाम मृत्युंजय प्रभाकर





कविता

 

 

आलोकधन्वा

एक मजबूत

दरख़्त नाम है

आलोकधन्वा

 

कविता की ज़मीन पर उपजा

एक शानदार दरख़्त

जिसकी शाखें यहाँ-वहाँ बिखरी हैं

 

एक बुलंद और बेख़ौफ़

आवाज़ का नाम है

आलोकधन्वा

 

पटना की उत्तप्त सड़कों पर

जो गूंजती रही निर्वरत

गुज़िश्ता पचास सालों से

 

महज़ एक बुद्धिजीवी का नाम नहीं है

आलोकधन्वा

एक गुरु, एक सचेत नागिरक

एक दोस्त और एक बेजोड़ कॉमरेड का नाम है

जिसने पीढिय़ाँ बनाई हैं

 

उसके नखरों पर मत जाना

उसके सामने तो फेल हो जाएं

बॉलीवुड की सारी स्वप्न परियां

 

बिजलियाँ गिरती हैं जब वो अदा से

फेंकता है अपनी जुल्फों को पीछे

सत्ता और साम्राज्यवाद को चुनौती देता हुआ

 

और वह उसकी ज़ुबान की सरगोशियां

जैसे मुरकियां बड़े गुलाम अली ख़ान की

ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर आती हुईं

 

महज़ एक कवि का नाम नहीं है

आलोकधन्वा

हमारे वक़्त की तासीर है वह!

 

(आलोकधन्वा के जन्मदिन पर लिखा गया। आलोकधन्वा को ही समर्पित)

 

ख़लिस

न न यह तुम नहीं हो

मेरी आत्मा का ही कोई घाव है

अनादिकाल से रिसता हुआ

चला आ रहा है जो

 

हज़ारों तारीखों से उलझा

लाखों स्मृतियों में दर्ज

कोई बावड़ी मीठी सी

यह मेरे सीने का मर्ज

न न यह तुम कहाँ हो

तुम तो हो भी नहीं सकते

यह तो मेरी ही बेचैनी है

बेवजह तुम्हें तलाशती हुई सी

 

यूं भटकते हैं ये पैर ज्यूँ

सूर्य के रथ के चक्के लगे हों

तीव्र और तीव्र और तीव्र

चक्कर पर चक्कर पर चक्कर

 

इनकी कोई मियाद नहीं

इनका कोई वास नहीं

इनकी कोई गंध नहीं

इनका कोई स्पर्श भी नहीं

 

दूर सागवान और शीशम

दूर गुलमोहर और बकुल

दूर बहुत दूर से आती हुई

कोई चिडिय़ा सी जान

 

न न उसकी कोई याद नहीं

कोई दंश नहीं, कोई क्षोभ नहीं

जो था उसका गुमान भी नहीं

जो न था उसका अफसोस भी नहीं

 

यह तो दिल है खालिस

खाली पर बंद लिफाफे सा

जिसके न अंदर कोई इबारत

न ही बाहर कोई चिन्ह!

 

गुफ़्तगू

एक ये बेतरह नादां दिल

एक यह बुझा सा चाँद

जाने कब से एक-दूसरे से

किए जा रहे हैं शिकवे

 

हमने दोनों को ही बाज-दफ़ा

सरगोशियों में चुपके से

आहें भरते देखा है

सिसकियां भरते देखा है

 

कभी वो देर रात मिलते हैं

एक-दूसरे के कंधों पर हाथ दिए

कभी थामे एक-दूसरे का हाथ

तो कभी साथ पर बेइंतहा तन्हा

 

कम्बख्त उन क्षणों में जब

हर तरफ अबोला पसरा होता है

हवा भी सरकने से रहती है गाफिल

तब भी उनकी चुप्पी बोलती है

 

पसरती है सन्नाटों के पार

जैसे दूर-बहुत दूर गूंजती है

किसी को पुकारती हुई

दिल से निकली पनीली आवाज़

 

वह फैलती ही जाती है

सतह से परे और फलक के पार

अंतत: पार करती हुई हर दीवार

नुमाया होती कानों के अदृश्य पर्दों पर

 

तब महसूस होता है जैसे

कानों के बेहद पास, बिल्कुल पास

किसी ने बजाई हो झांझ

करताल बजाता निकला हो समूह

 

 

इस शोर में पता नहीं चलता

बेतरह नादां दिल और बुझे हुए चाँद ने

आपस में क्या-क्या गिले किए

कितने-कितने नाज उठाए

 

मेरी आँखों में ठहर जाता है

वह दिलफरेब मंजर

सिर्फ और सिर्फ

बेतरह फीके रंग की तरह!

 

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