शचीन्द्र आर्य की दो कविताएं

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    अक्टूबर - 2019
श्रेणी शचीन्द्र आर्य की दो कविताएं
संस्करण अक्टूबर - 2019
लेखक का नाम शचीन्द्र आर्य





कविता

 

 

 

धानेपुर का किला

दरअसल यह धानेपुर का किला नहीं हमारी नानी का घर है।

 

हम सुबह-सुबह छत से नीचे उतर रहे हैं और नानी

फूले की बटुली में अरहर की दाल को चुरते हुए देख रही हैं।

 

बिना ब्लाउज अपने शरीर पर साड़ी लपेटे, ऐसी बूढ़ी औरतों को

सबने ख़ूब देखा है,

उनमें दिखने वाले चेहरे जैसी ही हमारी नानी दिखती थीं। सपाट,

साधारण और वृद्ध।

 

अम्मा रात भर मयके में रुकने के बाद

इस सुबह वापस चल पड़ेंगी।

क्या उन्हें नानी का घर धानेपुर याद नहीं आता होगा?

अपने मामा के यहाँ जाना, हर शाम पानी बतासे खाना।

 

याद उन्हें इस घर की भी बहुत आती होगी।

सामने इस बहुत ऊँचे इमली के पेड़ पर चढऩे से लेकर

बगल में चाची के यहाँ लगे पेड़ से अमरूद तोडऩे की याद तक।

 

2.

 

माँ का बचपन हमेशा उसके बच्चों में छिपा रहता है।

वह कुछ भी बताने की हिमायती कभी नहीं रहतीं।

हमारे पास भी उन स्मृतियों के पुख्ता चिन्ह नहीं हैं,

सिर्फ थोड़े से कयास हैं। थोड़ा कल्पना का पुट है।

 

हमारी मौसी हमारी अम्मा से बड़ी थीं या छोटी, कभी पूछ नहीं पाया।

ससुराल में पीटे जाने के बाद वह कभी ठीक नहीं हो पायीं। एक दिन

मर गईं।

नाना भी इसी में रच गए।

 

वह हमारे वहाँ आने पर हर बार छत डलने और उसी वक़्त बारिश

आ जाने की बात क्यों बताते रहे, हम उनके चले जाने के बाद भी

समझ नहीं पाये।

 

3.

 

कभी लगता, हमारे ननिहाल में बस एक किले की ज़रूरत थी।

किला होता, तो उसके रखरखाव के लिए कुछ मुलाज़िम होते।

एक बड़ा सा दरवाज़ा होता। गश्त लगाते पहरेदार होते।

उन्हीं पहरेदारों में से कोई हमारे मामा के सलफ़ास खाने से पहले

पहुँच जाता और वह रुक जाते।

 

इतना ही नहीं, उनके होने से बहुत कुछ बचा रहता।

 

ससुराल में प्रताडि़त होने पर मौसी भाग कर किले में आ जातीं।

नाना की हैसियत तब अपनी बेटी को घर पर रख लेने की होती।

 

मामा पेड़ पर क्यों चढ़ते,

क्यों उनके पैर में लचक आती,

उनकी जगह कोई और चढ़ता।

 

क्यों नानी तब हर बीफय खुटेहना बाज़ार करतीं।

तब बड़े-बड़े खेत होते। घर में अनाज होता।

जैसे यह किला कहीं नहीं है,

वैसे अब हमारा नानी घर भी कहीं नहीं है।

* * *

 

आत्मालाप के क्षण

जब कहीं नहीं था, तब इसी कमरे में चुपचाप बैठा हुआ था।

जब कहीं नहीं रहूँगा, तब भी इसी कमरे में चुपचाप बैठा रहूँगा।

 

इस कमरे में क्या है, यह कभी किसी को नहीं बताया।

एक किताबों की अलमारी, एक किताबों से भरा दीवान

और एक किताबों से अटी पड़ी मेज़।

 

किताबें मेरे लिए किसी दुनिया का नक्शा या खिड़की

कुछ भी हो सकती थीं, अगर उन्हें पढऩे का वक़्त होता।

 

इन्हें पढऩे का वक़्त

खिड़की के बाहर बिखरी दुनिया को देखने में बिता दिया।

 

जो भी मेरे सपने हुए, वह इसी खिड़की से होते हुए मेरे भीतर दाखिल

हुए होंगे।

नौकरी, छुट्टी, लिखना, घूमना, तुम्हारे साथ बैठे रहना, किसी बात

पर हँसना।

 

इन सबकी कल्पना मैंने यहीं इसी कमरे में

मेज़ पर कोहनी टिकाये हुए पहली बार कब की, कुछ याद नहीं

आता।

 

यहीं एक छिपकली के होने को अपने अंदर उगने दिया वह मेरी

सहयात्री थी।

वह अक्सर ट्यूबलाइट के पास दिखती। घूम रही होती।

उसे भी सपने देखने थे।

उसके सपने बहुत छोटे थे। किसी कीड़े जितने छोटे। किसी फुनगे

जितने लिजलिजे।

मैंने भी अपने छिपकली होने की इच्छा सबसे पहले उसे देख कर ही

की थी।

कुल दो या तीन इच्छाओं और छोटे से जीवन को समेटे हुए वह मेरी

आदर्श थी।

जैसे आदर्श वाक्य होते हैं, वह इस ज़िंदगी में किसी कल की तरह

अनुपस्थित थी।

 

सोचा करता, तुम भी छिपकली होती, मैं भी तब छिपकली हो आता।

हम किसी सीमातीत समय में चल नहीं रहे होते। बस दीवार से

चिपके होते।

 

इसके बाद एक-एक करके मैंने मेज़, खिड़की, छत, किताब के पन्ने

और स्याही होने की इच्छा को पहली बार अपने अंदर महूसस किया।

जिस उम्र में सबके मन अपने कल के बहुत से रूमानी स्पर्शों से भरते रहे,

मैं अपनी अब तक की असफलताओं पर गौर करते हुए एक आत्मकेंद्रित

व्यक्ति बनता रहा।

 

इन्हीं पंक्तियों में मुझे अपनी कल होने वाली असफलताओं के सूत्र दिख

गए।

मैं वहाँ हारा, जिनमें लडऩा या उतरना मैंने तय नहीं किया।

जो जगहें मैंने तय की, उसमें कभी कोई नहीं मिला। मैं अकेला था।

 

यह किसी रहस्य को जानने जैसा नहीं था,

सब यहाँ इस कमरे में आकर उघड़ गया था।

 

यह रेत से भरी नदी के यकायक सूख जाने जैसा अनुभव रहा।

रेत थी। सूरज था। उसकी सीधी पड़ती किरणों से तपता एहसास था।

 

मेरी कोमलतम स्मृतियां, जिनसे कभी अपने आज में गुज़रा नहीं था, वह

झुलस गयी थीं।

क्यों हो गया ऐसा? क्यों वह आगामी अतीत स्थगित जीवन की तरह

अनिश्चित बना रहा?

सब इस कदर उथला था, जहाँ सिर्फ अपने अंदर उमस से तरबरतर भीगा

रहता।

वह नमक भरा समंदर होता, तब भी चल जाता। वह कीचड़ से भरा

दलदल था।

 

उस पल यह कमरा, कभी न सूखने वाली नमी की तरह मुजे अपने अंदर

महसूस होता।

आत्मालाप के क्षणों में टूटते हुए कितनी बार इसने मुझे देखा। देखकर

कुछ नहीं कहा।

मैं कभी नहीं चाहता था, कोई मुझे कुछ कहे। कोई कह देता तो मेरे अंदर

कहाँ कुछ बचता।

 

शायद इन पंक्तियों को पढ़कर भी वह कभी न समझ सकें,

क्यों इस खाली कमरे में छत पंखे को बिना चलाये बैठा रहता।

यहाँ ऐसे बैठे रहने और इसकी तपती ईंटों से निकलने वाला ताप

मेरे अंदर के आंसुओं को पसीने में बदल देता

और देखने वाला आसानी से धोखा खा जाता।

 

मैं शुरु से यही धोखा देना सीखना चाहता था।

एक धोखेबाज़ की तरह जीना मुझे हमेशा से मंजूर था।

 

* * *

शचीन्द्र आर्य पैंतीस वर्षीय युवक हैं, दिल्ली विश्वविद्यालय में ग्रामीण परिप्रेक्ष्य में आधुनिकता और शिक्षा पर शोध कर रहे हैं। इकनामिक एण्ड पाजिटक्ल वीकली में भी कुछ लेख छपे। 'हंस’ में 'चुपघर’ कहानी प्रकाशित हुई है। संपर्क - 9971617509

 

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