प्रभात की कविताएं

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    अक्टूबर - 2019
श्रेणी प्रभात की कविताएं
संस्करण अक्टूबर - 2019
लेखक का नाम प्रभात





कविता

 

 

 

 

अपनी जमीन

 

चलो उठो गमछा फटकार कर

बहुत रह लिए लुटेरे व्यापारियों के राज में

अब उसी जमीन पर चलो

जिसमें रहने की तुम्हारी इच्छा

तुम्हारे जन्म से युगों पुरानी है

 

तुम्हारे पाँव पड़े ही कैसे कालीन पर

आखिर पैदा हुए हो तुम घास उगी जमीन पर

 

बहुत ठोक ली सौदागरों के घोड़ों के पैरों में नाल

बहुत कर ली अस्तबलों की देखभाल

बहुत रह लिए हीरे मोती के कंकड़-पत्थरों की सुरक्षा में उनींदे

बहुत कर ली सबसे कीमती जूतों की पालिश

बहुत चला लिए मनुष्यों के शिकारियों की नावों के चप्पू

 

बहुत सुन ली मद छकी कुमारियों की फटकार

बहुत खाली अहंकार के चाबुक की मार

बहुत खालिए पैसे के थप्पड़

बहुत मर लिए शर्म से गड़-गड़

तुम्हारे यहाँ रहते बढ़ रहा है लुटेरों का  गुमान

तुम्हारे यहाँ रहते घट रहा है इंसानी विरासत का मान

 

तुम्हारे अपने तुम्हें आवाज दे रहे हैं मिर्ची टमाटर की बाडिय़ों से

किसान आवाज दे रहे हैं धान खेतों से

चरवाहे आवाज दे रहे हैं करील की झाडिय़ों से

 

चलो कि तुम्हारी प्यारी सद्यप्रसूता है

चलो कि साँकल से बँधा तुम्हारा भाई बरसों से भूखा है

चलो कि तुम्हारी माँ अपनी अर्थी के कण्डे चुनने में लगी है

चलो कि तुम्हारे पिता ने शरीर पर राख मल ली है

 

चलो कि बाँसों के वन की हथिनी चिंघाड़ रही है

चलो कि कदली वन की बाघिन दहाड़ रही है

चलो कि माँदर बज रहा है

चलो कि मारू ढोल गरज रहा है

 

चलो कि अपनी धरती पर बवण्डर उठ रहा है

टिटहरी बोल रही है प्रभात

अँधकार छँट रहा है

 

मेरे भाई

खर्चे का हिसाब मत लगाओ

खर्चा किस चीज का होगा

उम्र खर्च हो तो रही है

इससे बड़ा खर्चा क्या करोगे

 

सोचो कि जिन्दा रहने की राह में

सबसे कठिन दिन कौन से आने वाले हैं

क्या चीज जिन्दगी के दिनों को कठिन बनाने वाली है

ग्रीष्म की लू का डर हो तो किसी बरगद की जड़ से होंठ लगा देना

मेरे भाई प्यास बुझ जाएगी

फिर भी हलक सूखे तो समझाना दिल को कि बारिश आने वाली है

बारिश के दिनों में न आए बारिश तो बारिश बनाने में लग जाना

पानी बेचने वाली कम्पनियों की शरण में किसी सूरत में मत जाना

कि पृथ्वी बचेगी तो बारिश से

पानी के लेबल लगी बोतलों से नहीं

 

अँधकार

इस गहन अँधेरे में तो परछाई भी नहीं बनती

कि कुछ दूर चलने में मेरी परछाई ही साथ दे

 

चमकता हूँ कौन आ रहा है पीछे

देखता हूँ आगे है कौन

मगर कोई हलचल नहीं

कोई आवाज नहीं

 

क्या सुदूर दिखेगा कभी कोई

सुनाई देगी ऐसी कोई आवाज

इधर ही आ जाते

मैं बाट जोह रहा था

रोशनी थामे खड़ा

अँधेरा है इतना घना

कि कोई आता होगा

तो उसे दिशा मिल जाएगी

 

हमारी धरती पर ये कैसा समय आ गयाहै

कि लोग हैं तो सही

पर मिलते नहीं

 

लोग जो मिलते हैं

रोशनी की चकाचौंध में

जहाँ रात में भी अँधेरे का नामोनिशान नहीं

उनकी मुलाकातें

धरती के अँधेरे को ऐसा डरावना बना देती हैं

कि दिल्ली में कोई हँसता है

तो मैं झारखण्ड में चौंक जाता हूँ

लगता है जैसे आधुनिकतम

हथियार ही हँस रहे हों

और झारखण्ड की तरफ  बढ़ रहे हों

 

सोचता हँू इतना सोचने में

मेरा कितना रस्ता कट गया है

कितना अभी बाकी है

 

कवि की शान में

चश्मा पहनता था वह कवि

अपनी अंतिम नींद ले रहा था

इसीलिए चश्मा आँख पर नहीं

चारपाई से लटके हुए हाथ में था

 

एक ही बात कहना चाहूँगा उसकी शान में

कवि था कवि की मौत मरा

किसी तानाशाह की तरह

बट्टे खाते की मौत नहीं मरा

 

वरवर राव के लिए

यह कौन सोया है समय की शिला पर बेसुध

बेघर लगता है कोई

इसकी रोटी का क्या इंतजाम है

इसके आसमानी कोट की जेब में कुछ कच्चे आम है

इसके पानी का क्या इंतजाम है

कजल बदली ने छींटा है अभी-अभी कुछ जल

पुलिस इसे जेल में डाल सकती है आतंकी समझ

जेल में डालने के लिए किसी को आतंकी समझे जाने की क्या जरूरत है

अब तो जनता के हक की बात करने वाले कवि, लेखक, पत्रकार

एक के बाद एक जेल में डाले जा रहे हैं

मारे जा रहे हैं सरे आम बड़ी आसानी से

 

ऐसा मत कहो वरना जाने वालों में तुम्हारा भी नम्बर आ जाएगा

 

क्या फर्क पड़ता है

जो जेल में नहीं है फिलहाल

और वे जो जनता के हक की बात करने वालों का साथ नहीं दे रहे हैं

और वे जो जनता के हक की बात करने नहीं दे रहे हैं

क्या एक दिन जाने वालों में उनका नम्बर नहीं आएगा

 

भोर के फूल

मौत के मुँह में जाना क्या होता है

तुम गए हो कभी

किसी प्रेम में पड़कर

मौत के मुँह में

वापस आने के लिए

 

मौत के मुँह से कौन वापस आता है भला

 

नहीं ऐसी बात नहीं है

मौत कोई ग्लोबल सोशल वेलफेयर

कम्पनी थोड़े ही है

कि जन सहायता के नाम पर

जमीनों, खदानों, लोगों को

खाए ही जाएगी खाए ही जाएगी

अपने स्टील के दाँतों से

 

मौत तो एक शाश्वत उदासी है

अगर लोगों ने ही ना फेंक दिए हों लोग

मार काट कर

और उसी बदबू में रहने की

आदी न हो गई हो सभ्यता

तो वह खुद तो जब आएगी

माँ की तरह आएगी

आँखें मूँदेगी अपने सफेद हाथों से हौले से

बदलेगी ऐसी धूल में

जिसमें खिल सकेंगे भोर के फूल

 

प्रभात की कविता दुनिया विरल विषयों से बनी है। कविताएं पहले भी पहल में प्रकाशित हो चुकी हैं।

 

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