मणि मोहन की कविताएं
कविता
नींद रात के डेढ़ बजे नींद ने कहा मुझसे अब सो भी जाओ!
मैंने कहा अभी कुछ देर और मुझे जगना है यह जो अधूरी सी कविता है इसे पूरी करना है!
और फिर मैं अकेला थोड़े जाग रहा हूँ इस वक़्त :
रजनीगंधा, रातरानी, मनकामनी और हरसिंगार भी तो जाग रहे हैं !
लो सुनो तो जरा! इस परिन्दे की आवाज़,
बाहर अभी तक जाग रही है टिटहरी !
और फिर अभी तुम भी तो जाग रही हो अपनी उनींदी आँखें लिए मेरे साथ!
यह रात कहीं नींद है कहीं चीखें कहीं दहशत पर सबसे भयावह बात है कि यह बिना स्वप्न की रात है!
जरूरत फ़ौरी जरूरत थी हथियारों को गलाकर विशाल बुत बना लिया कल की कल देखेंगे इस बुत को गलाकर फिर हथियार बना लेंगे!
सिवा एक नाम के एक दिन किसी जरूरी काम से अपना शहर छोड़ कर निकल जाता है एक आदमी किसी दूसरे शहर की यात्रा पर ...
फिर एक दिन अचानक लौटता है किसी देर रात वाली ट्रेन से अपने शहर ... सुनसान प्लेटफॉर्म पर कोई नया ही नाम लिखा देखकर वह घबरा जाता है वापिस मुड़ता है ट्रेन में सवार होने के लिए पर तब तक यह ट्रेन भी छोड़ देती है प्लेटफॉर्म
थक हार कर बैठ जाता है यह आदमी पत्थर की पुरानी बैंच पर कुछ जानी पहचानी सी लगती है उसे यह बैंच फ़र्श भी जाना पहचाना सा प्लेटफॉर्म पर सोए हुए बेघर लोग और भिखारी भी उसे जाने पहचाने से लगे प्लेटफॉर्म पर स्थायी रूप से रहने वाले कुत्तों का झुंड भी उसे देखकर पूँछ हिलाने लगा अक्सर पाए जाने वाला वह पागल भी एक खम्बे से टिके हुए कुछ बड़बड़ाते हुए दिखा जान में जान आयी उसकी कुछ भी तो नहीं बदला उसके शहर में सिवा एक नाम के - नाम मे क्या रक्खा है! वह बड़बड़ाया और अपना झोला उठाकर प्लेटफॉर्म से बाहर निकल गया।
एकलाप ख़ुद के अलावा बस कोई एक जो कविता पढ़, सुनकर उदासी में भी मुस्करा दे
बस कोई एक कविता जिसे गहन विषाद में डूबने से बचा ले ख़ुद के अलावा बस कोई एक जो डटा रहे हार का जश्न मनाते हुए
बजबजाते शोर के बीच कुछ ज्यादा तो नहीं माँग रहा अपनी कविता से।
एब्सर्ड नई कार खरीदने जाओ शोरूम पर इन दिनों तो खरीदार को एक बड़ी सी चाबी देते हुए तस्वीर खींची जाती है फिर यही तस्वीर धीरे धीरे दोस्तों के बीच वायरल हो जाती है .... किसी किताब के लोकार्पण या किसी पुरस्कार की तस्वीर के साथ इसकी तुलना बेहद असंगत लग सकती है पर क्या कीजे कि इस वक्त बस यही दृश्य बिम्ब बन रहा है ज़ेहन में... और इस अपराध के लिए आप चाहें तो इस कविता को एब्सर्ड कह सकते हैं!
दन्तकथा दन्तकथा कहती है कि एक रात में पूरा हुआ था इस मंदिर का निर्माण
दन्तकथा यह भी कहती है कि उस रात गाँव के बाशिंदों को चक्की पीसने की मनाही थी बावज़ूद इसके किसी ने चला दी थी चक्की और मुख्य कारीगर बदल गया था पत्थर की मूर्ति में
पत्थर के शिल्प में तब्दील यह कारीगर दूर से ही दिखता है शिखर के एकदम करीब
दन्तकथा तो दन्तकथा है पर इतना तो तय है कि शिखर पर पहुंचकर पत्थर हो जाना मनुष्यता की सबसे बड़ी त्रासदी है दन्तकथा भी तो यही कहती है।
बारिश यह इस मौसम की पहली बारिश है और पेड़ नहा रहे हैं एकदम अकेले परिंदों से पूछ रहे हैं बार - बार आखिर कहाँ चले गए दुनिया के तमाम नंग धड़ंग बच्चे?
हवा से पूछ रहे हैं बार - बार ये बारिश आखिर इतनी उदास क्यूँ है?
समय यह हमारा समय है क्रूरता और दरिंदगी से लबालब भरा हुआ इसे देखते हुए एक लाचार ख़ामोशी हावी हो जाती है ज़ेहन पर
सभी के पास एक भाषा है इसे अभिव्यक्त करने के लिए बस एक कवि है जो चुपचाप देख रहा है शून्य में कि उस बच्ची के साथ अभिव्यक्ति की भाषा भी दरिंदगी की शिकार हुई ।
कम शब्दों में बड़े अर्थ खोलती कविताओं के लिए ख्यात कवि मणि मोहन की कविताएं 'पहल’ में पहली बार। इसके पूर्व कुछ अनुवाद प्रकाशित हुए हैं। गंजबसौदा में अंग्रेज़ी के प्राध्यापक हैं। संपर्क- मो. 9425150346
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