सुप्रिया अम्बर की कविताएं
कविता
गालियां
क्यों लड़कियों! क्यों तुमने नहीं सीखा अब तक गाली बकना? हमारी भाषा का अभिन्न हिस्सा है गालियां ये लड़कियां ही कैसे अछूती रह गई इस शिक्षा से? यह तो प्रश्न है उनके संस्कारित और सुशील होने पर
सुन! हर एक लड़की सुन की सीख लेना वो सारी गालियां जो तुम पर बके जाने से तू ही आँखें चुरा कर निकलती है मोहल्ले से की कहीं किसी ने देख तो नहीं लिया तुझे गालियां सुनते हुए
- बक गालियां क्यूंकि जैविक हक है उन पर तेरा तेरे ही जननांगों, प्रजनन अंगों को भोगने को भोगती पुरुष की विक्षिप्त लालसा को दर्शाता है ये गालियां तो! शर्म तुझे क्यों आती है?
- जब भी कोई बकता है किसी माँ बहन और बेटी के जनांगों वाली गाली झपट लेना उससे अपना अधिकार और देना उसे जवाब में वो सब कुछ सुना जो शोभता है केवल तुझ पर ध्यान बस रखना कि लय न टूटे!
- ज़रूरत है उस वैज्ञानिक और साहित्यिक शोध की जो रचे वह भाषा जिसमें वर्णन हो पिता, भाई और पुत्र के संभोगरत जननांगों के नग्न दृश्य का
- इस तरह से यह तय हुआ की मेरे जनांगों पर गाढ़ी हुई गालियां मेरी बेटी, मेरी माँ, मेरी बहन और मैं बकूँगी धीरे धीरे अभ्यस्त हो जाएंगे हम बकने के, तुम सुनने के।
बक गालियां की तेरे मुंह से सुनकर दिशाहीन जुलूसों को मिलेगा मार्ग।
सीख गाली बकना वैसे ही जैसे भूल गई तू गुनगुनाना मार फिर से ठहाकों वाली हंसी कर तिरस्कार अपनी ख़ामोशी का कि इसी ने बनाया है तुझे गुलाम
अंदाजा नहीं तुझे अपने शाशक की नपुंसकता का जो तेरे शर्माने मात्र से बना हुआ है पराक्रमी
कविता-2
सबसे खूबसूरत लड़कियों के चेहरे गल गए है तेज़ाबी अम्ल से
सबसे ताकतवर लड़कियां मार डाली जाएंगी गर्भ में
सबसे शिक्षित लड़कियां कर रही है किसी के अहम् को संतुष्ट
सबसे दबंग लड़कियां लड़ रही है कुश्ती आटे की परात से
प्रेम में डूबी लड़कियां बलि चढ़ गई हैं ऑनर किलिंग की
सबसे पराक्रमी लड़कियों का ब्याह हुआ बुज़दिलों से
और सबसे कायर पुरुष कर रहे हैं शासन सभी तरह की स्त्रियों पर
कविता-3
भूखी औरतें राशन और किराना की खदानों में पसीने से लिपी पुती ये औरतें आपकी थाली में कड़क रोटियां परोसती ये औरतें
सालों से भूखी हैं ये औरतें
सात मिनट में गई कर सात रोटियां बना लेने का अचूक कौशल है इनके हाथों में ये इतनी हुनरमंद हैं कि बर्दाश्त न कर सकने वाली पीड़ाओं को भी रसोई का पाबन्द बना रखा है
कुकर और कढ़ाई की आंच को कभी तेज़ कभी धीमा करते करते बहुत काबिल हो गई हें ये औरतें
ये सीख गई हैं कि कितनी सीटी सुनना है और कब फट जाना है आप ही नहीं समझ रहे जनाब कि भूखी हैं ये औरतें
जिन्हें आप ठंडी छांछ समझ रहे थे उफनता हुआ दूध हो गई हैं वही औरतें आप समझ नहीं रहे की कैसे सटीक बैठता हैं इनका हर अंदाज़
कब की भूखी हैं ये औरतें चालीस, पचास, बावन और साठ की ये औरतें इनकी माँ का देहांत हो गया है अब तो भूखी ही रह जाएंगी ये औरतें
सुप्रिया अंबर एक श्रमजीवी चित्रकार हैं। वे भारतीय कला की एक थीसिस पर काम कर रही हैं। एक बार पहल के मुख्यपृष्ठ पर भी अपनी कलाकृति को लेकर आईं। इस बार उनकी कुछ क्षुब्ध कविताएं। संपर्क - 9425544328, जबलपुर
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