इस कँपकँपाने वाली ठंडी में
बर्रै या बिच्छू सब नदारद हैं लेकिन झनझना रही हैं अँगुलियाँ पानी में हाथ डालने का मन नहीं करता मन करता है कि आग में खड़ा हो जाऊँ इस कँपकँपी ठंडी में
मुँह से शब्दों की जगह सिर्फ भाप निकल रही है मुट्ठियाँ बँधी हैं किसी पर छोड़ दूँ इन्हें तो वह भी न हिलेगा न डुलेगा ऐसी सुन्न कर देने वाली ठंडी है
कुहरा है ऐसा कि सफेद अँधेरा है जिसमें सब कुछ गायब है अपना ही बायाँ हाथ दाहिने को नहीं पहिचान पाता
पुराना अस्थमा उभर आया है— जानलेवा! खँखार रहा हूँ और थूक रहा हूँ यह सूखी खाँसी नहीं है खूब बलगम भरा है भीतर एक बूढ़े देश का चाहता हूँ कि जिस पर थूकूँ ठीक उसी पर पड़े बलगम कमजोर आँखों से जोर लगाकर देखता हूँ इस कँपकँपाने वाली ठंडी और सब कुछ सफेद कर देने वाले कुहरे में
चूहे
खाकर फूले जैसे ढोल जाने कैसे खुल गई पोल बिल में कैसे घुसड़ें बोल बढ़ई भइया पुट्ठे छोल
संविधान की कसमें खाए धर्मग्रंथ के पन्ने खाए नीति कूट अवलेह बनाए लाज हया सब पी गए घोल! टू जी थ्री जी खूब डकारे पचा गए पशुओं के चारे बड़े बड़े भूखण्ड निगलकर उगल रहे अब काला कोल
पूँछ पकड़कर मुसहर खींचे थोड़ा आगे थोड़ा पीछे गई सुरंग कहाँ तक नीचे पाजामों के नाड़े खोल उठ बँसुले तू थू-थू बोल बढ़ई भइया पुट्ठे छोल
मुहाने पर नदी और समुद्र
एक
वह क्या था जो नदी में था समुद्र में नहीं था
वह क्या था जो समुद्र में था नदी में नहीं था
वह क्या था जो नदी और समुद्र दोनों में नहीं था
और वह क्या था जो नदी और समुद्र दोनों में था
दो
नदी अपने पूरे पानी से लिख रही थी — समुद्र
समुद्र अपने पूरे पानी से लिख रहा था — नदी
पर ऐसा क्यों था कि दोनों का कहीं नामोनिशान नहीं था
तीन
उधर नदी मुड़ मुड़कर देखती थी अपनी लम्बाई और चली गई दूरी
इधर समुद्र आकाश की छाती से साध रहा था अपनी छाती
नदी थक रही थी चल चलकर समुद्र थक रहा था पड़े - पड़े
चार
नदी की सतह को चीरती हैं नौकाएँ अन्तस् में तैरती हैं मछलियाँ
नदी के धरातल में कचोटते हैं ककरहे और घोंघे और सीपियाँ
समुद्र की सतह पर घूमते हैं नौसैनिक, मछुवारे और जलदस्यु अन्तस् में हहराती है बाडवाग्नि ऊभ-चूभ करते हैं कछुए और डॉल्फिन और तिमिङ्गल जबकि धरातल में जमा रहते हैं रत्न
पाँच
नदी देखती है समुद्र को अपलक
समुद्र देखता है नदी को अपलक
लेकिन उद्दाम लहरें हैं कि कोई अक्स ही नहीं उभरने देतीं किसी का
छ:
नदी ऊपर से नीचे गिरती रही लगातार बदलती रही अपना रूप-स्वरूप और बहती रही
दिशाहीन रहा समुद्र समूचा जोर लगाकर चाह रहा था बहना लेकिन गरज-तरज कर रह जाता अपनी मर्यादाओं में कौन समझता उसका कहना और उछलना
नदी, नदी थी तो समुद्र, समुद्र
सात
मुहाने पर नदी, नदी नहीं रहती समुद्र, समुद्र नहीं रहता दोनों मिलकर बनाते हैं पानी की एक महा कलछुल
पर कोई ठठेर है पहाड़ी सात समुन्दर पार जो लगाता रहता है रोज इसकी बोली
आठ
नदी के किनारे किनारे बहुत से आश्रम थे बगुलाभगतों के
करार तोड़कर कभी कभी स्वयं घुस जाती थी नदी पर्णकुटियों में तथाकथित मुनियों के चरण-परस को अधीर बहुत से तपलीन ऋषि डूब गए सदेह नदी के उफान में जिनके नाम से नहीं चल सका कोई गोत्र
मृगाक्षी नदी दृष्टि डालती हुई चलती थी दृश्यों पर जबकि प्रतीक्षारत समुद्र एकटक निहारता रहता था नदी का रास्ता
समुद्र के तन में मन में बसी थी नदी
नदी के तन में मन में कहीं नहीं था समुद्र मुहाने के अलावा
नौ
पागल हब्सी की तरह नदी कभी ताबड़तोड़ तमाचे मारती है समुद्र के गाल पर
कभी चढ़ जाती है समुद्र की पीठ पर नदी कभी पटक देती है समुद्र को पानी पर तो पलट जाता है समुद्र फिर नदी फिर समुद्र फिर समुद्र फिर नदी....
दस
नदी की सभ्यता आँकी गई घाटियों के आधार पर
घाटियों के आधार पर ही लिखा गया उसका इतिहास
जबकि नदी का भूगोल पानी से था बना और समुद्र का भी
ग्यारह
समुद्र के खुले मुँह में कभी बालू झोंक देती है नदी तो समुद्र बंद कर लेता है अपना मुँह
समुद्र के कानों में कभी चिल्लाती है नदी तो अँगुली डाल लेता है समुद्र अपने कानों में
समुद्र की त्वचा पर कभी फैक्टरियों के शीरे और प्रयोगशालाओं के एसिड उड़ेल देती है नदी
समुद्र उदासीन कर देता है उन्हें अपनी लवणता से
बारह
पानी का एक तूफान टकराता है पानी के दूसरे तूफान से तो विलीन हो जाता है पानी
दिखाई देता है फेन ही फेन
तेरह
नदी! तुम्हारा पानी मत्स्यगंधा है या पवित्रकारक मृदु है या कठोर? अपना टिकट, रसीद और आई डी प्रूफ दिखाओ तुम्हारा हरापन इतना कम क्यों है इतनी चिड़चिड़ी क्यों हो कोई असाध्य बीमारी है क्या तुम्हें ?
वापस जाओ नदी लौट जाओ कोई खैराती अस्पताल नहीं है समुद्र
चौदह
हे अनन्तता के अहंकार! कितनी तुच्छ है तुम्हारी सिन्धुता?
तुम तो वही हो न जिसे पी लिया था कुम्भज अगस्त ने चुल्लू में भरकर और कुल्ला कर दिया था जगह-जगह विन्ध्याटवी में उन गड्ढों में जाकर देखो अपना अक्स
नदी के लिए अब वापस जाना संभव नहीं
* * * |