काली धार के बागी और बीहड़

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    अगस्त : 2019
श्रेणी काली धार के बागी और बीहड़
संस्करण अगस्त : 2019
लेखक का नाम सूरज पालीवाल





क़िताबें/मूल्यांकन

 

कालीधार/महेश कटारे

 

 

 

 

महेश कटारे लगभग चार दशक से लिख रहे हैं। अब तक उनके 9 कहानी संग्रह तथा दो खंडो में एक वृहद् उपन्यास 'कामिनी काय कांतारे’ प्रकाािशत हो चुके हैं। वे हिंदी के ऐसे कथाकार हैं जो लगातार गांव में रहते हैं और खेती करते हैं। गांव से उनका रात-दिन का अनन्य संबंध है। रेणु ने एक बार लिखा था कि 'गांव जाता हूं तो हरिया जाता हूं’ यानी वहां से कहानियां ले आता हूं पर महेश कटारे तो गांव में ही रहते हैं इसलिये वे गांव की आत्मा से भी परिचित हैं और उन परिवर्तनों से भी जो गांव में निरंतर और तेजी से घटित हो रहे हैं । कहना न होगा कि हिंदी में ग्राम कथा लिखने वालों की संख्या पहले भी कम थी और अब धीरे-धीरे कम होती जा रही है। इसलिये गांव में कहा जाता है कि 'जो थोड़ा पढ़ लिया वह हर (हल) से गया और जो ज्यादा पढ़ लिया वह घर से गया’ पर यह कहावत कटारे जी पर लागू नहीं होती। एक दिलचस्प बात महेश कटारे की कहानियों और उपन्यासों में है कि स्त्री-पुरुष संबंधों की मध्यवर्गीय कुंठा को वे गांव लेकर नहीं गये जैसे कई ग्राम कथा लिखने वाले कथाकार गांव का ऐसा दृश्य प्रस्तुत करते हैं जैसे गांव में स्त्री-पुरुष संबंधों की कोई गरिमा है ही नहीं। उनको पढ़कर लगता है जैसे गंाव में काम संबंधों की लिजलिजी दुनिया ही निवास करती है। महेश कटारे इससे बचे हैं और बचे इसलिये हैं कि उन्हें गांव के सामाजिक रिश्तों में जमीन और परस्पर लेन-देन के जमीनी संबंध अधिक महत्वपूर्ण दिखाई दिये हैं ।

महेश कटारे का 2019 में नया उपन्यास 'काली धार’ प्रकाशित हुआ है, जो उनके अचंल की मन:स्थिति का बेबाक चित्र प्रस्तुत करता है। उनके पास कहने को बहुत कुछ है, उस बहुत कुछ में से वे कुछ-कुछ यानी प्रतीकात्मक रूप से अपने पाठकों को बताना चाहते हैं। बताना इसलिये चाहते हैं कि वे जिस अंचल में रह रहे हैं वह अंचल डाकुओं के कारण अधिक बदनाम है। रेल या बस से गुजरते हुये जैसे ही चंबल का इलाका आता है तो लोग या तो सहम जाते हैं या खिड़कियों से बाहर देखना शुरू कर देते हैं। ऐसा क्या है चंबल और उसके अंचल में कि वह दुनिया की नजरों में अपराध कर्म से जुड़ा माना है लेकिन वह अंचल अपने को न तो अपराधी मानता है और न अपराध कर्म में लिप्त। महेश कटारे ने उपन्यास की शुरूआत ही इसी प्रसंग से की है 'यूं वह और दिनों की तरह-सा ही दिन था। उस दिन कोई बड़ा हादसा नहीं हुआ। कहीं धरती नहीं कांपी, कोई दिग्गज न हिला, न तूफान आया न आंधी। कोई धमाका नहीं हुआ न कोई नेता मरा और न श्रीमंत। यानी वह साल के तीन सौ पैंसठ दिन और बारह महीनेां के बीच का एक औसत दिन था। चंबल के ऊंचे-नीचे आंचल की बस्तियों में समय बारहमासी सीढिय़ों पर यूं ही चढ़ता-उतरता रहता है। गुजरघार और तंवरघार के बीच फैले ये बीहड़ एक तरह से नो मेंस लेैंड की मानिंद हैं, जहां दिन में मवेशी और चरवाहे घूमते हैं तो रात में भेडिय़े और डकैतों के गिरोह। दिन में भेडिय़े प्राय: अपनी मांदों में सरक जाते हैं तो डाकू अपना ठिकाना पकड़ लेते हैं। सदियों के संग-साथ ने दिन और रात के बीच एक विचित्र-सी समझदारी विकसित की है कि यहां के रहवासी दिन में न भेडिय़ों की मांद के मुंह पर आग जलाते हैं, न जंगली जीव आदमी पर आक्रमण करते हैं।’ यह एक प्रकार से समन्वय की दुनिया है, जो परस्पर सहयोग और विश्वास से चल रही है। चंबल के निवासी एक दूसरे पर अविश्वास करके नहीं चलते बल्कि सामने वाले को अपना मानकर निर्भय रहते हैं। इसलिये डाकू मानसिंह यहां दाऊ मानसिंह हो जाते हैं। उपन्यास में जब-जब भी उनका जिक्र आता है तब-तब वे दाऊ मानसिंह के नाम से ही लिखे पुकारे गये हैं। यही नहीं महेश कटारे यह भी बताते हैं कि यहां इन्हें डाकू नहीं बल्कि बागी कहा जाता है। एक दूसरे प्रसंग में रेशम को समझाते हुये लाला भभूतीलाल कहते हैं 'देखो! तुम्हारे और हमारे दोनों के पेशा ऐसे हैं, जो चालाकी बिना नहीं चल पाउते। पर चालाकी से मन कों राहत नहीं मिलती। राहत तो उसी ठौर है, जहां आदमी कलेजा निकाल के धर दे। चार जने भरोसा कर लें, आंख मूंद के जिसकी बात पै। वैसे तो ये दुनिया है। सब कोई कमजोर की ही पूंछ दबावे है। तहसीलदार को इलाके के बड़े-बड़े सलाम करें पर कलैक्टर तहसीलदार की मां-बहन कर देते है। इलाके में बस बागी ही ऐसे हैं, जो काहू की दाब में नहीं। दाऊ मानसिंह चाहें तो महाराज सिंधिया का हुकुम न मानें। अरे भाई, तुम महलन के राजा हम चंबल की धार के। तब ही तो यहां हर आदमी बीहड़ में कूदबे को तैयार रहात हैं।’

महेश कटारे यह बताना भी नहीं भूलते कि इस इलाके में ठाकुर और बागी दोनों प्रतिष्ठित है इसलिये 'बीहड़ की हर जाति ठाकुर होने या दिखने के लिये लालायित रहती है। ठाकुर यानी शक्तिशाली, ठसकदार, जिसके हाथ में और मुंह में निर्णायक शक्ति हो। इसलिये डकैत चाहे जिस जाति का हो, आम आदमी उसे ठाकुर कहकर ही संबोधित करता है। यहां प्रतिष्ठित डाकू बागी कहा जाता है। अर्थात् देस के राजा से अलग जिसकी अपनी सत्ता हो। ऐसा होता भी है यहां बागी गिरोहों के अपने-अपने क्षेत्र हैं, जिनमें उनका कहा कानून है और उनका निर्णय न्याय, क्योंकि दंड के लिये उन्हें किसी विधान, वकील, जज की जरूरत नहीं होती। तुरंत न्याय और तत्काल दंड । बागी अपने समय का ठाकुर होता है। एक मनोवैज्ञानिक सच यह भी है कि ठाकुर कहे जाने पर अहं तुष्ट होता है और शक्तिशाली भीतर से कहीं मुलायम हो उठता है। मोहर सिंह गैंग का प्रमुख निशानेबाज सदस्य मनीराम जाटव भी अपनी जाति में ठाकुर कहलाता था। दूसरी गरीब-गुरबा जातियां भी उसे ठाकुर कहकर ही बोलती थीं। वह भी अपनी शक्ति की सीमा में ठाकुर की ही तरह बोलता, भोगता और बख्शता था।’ ठाकुर होने का मतलब बड़प्पन के साथ निर्भय होकर रहना भी है। इसलिये चंबल के अंचल में सामान्य आदमी को कोई परेशानी नहीं है, न बागियों से और न गांव के लोगों से।  उपर्युक्त कथन के बाद भी महेश कटारे का मन नहीं भरा इसलिये वे फिर अपने अचंल के बारे में लिखते हैं 'हमारे यहां डाकू नहीं बागी होते हैं। बागी चोरी-चकारी नहीं करते, बदला लेते हैं। हां, खर्चा-पानी के लिये सेठ-साहूकारों से वसूली जरूर की जाती है। पहले डाका डालते थे। सुना है, बात का धनी होता है बागी। नीति न्याय के मामले में मानसिंह का नाम मशहूर है। ...  हमारे अटारी वाले टीचर वर्मा जी कहते थे कि चंबल के उद्गम पर गायों, बछड़ों का चर्म धोया जाता था। चंबल को शाप लगा है कि इसके पुत्र एक दूसरे के खून के प्यासे रहेंंगे। हमारी तरफ  कहते हैं कि जिसका कोई जानलेवा दुश्मन नहीं, उसका जीवन ही बेकार है।’

ये चंबल का चरित्र है जो बदला लेने के लिये बागी बन जाने को भी बुरा नहीं मानता। इसलिये बागी हो जाना यहां आम बात है । लोग अपनी बात और लंगोट के पक्के होते हैं। अपनी बात के लिये जान ले भी सकते हैं और दे भी सकते हैं। जो लोग हजारों साल जीने की इच्छा में अनंत संपत्ति अर्जित करते हैं, सब कुछ छोड़कर क्या खाना है, कितना आराम करना है, कितना पानी पीना है और कितने तरह का अन्न खाना है, कौन-सा फल कब खाना है और कब नहीं के साथ घड़ी देखकर टहलते और योग करते हैं, वे चंबल के जीवन को नहीं समझ सकते। बागियों के पास बहुत बड़ी संपत्ति नहीं होती, वे चाहते तो अर्जित कर सकते थे पर उनका उद्देश्य यह नहीं है और न बागी बनने के पीछे अनाप-शनाप लूट की भूख ही है। बागियों का जीवन बहुत सुरक्षित और महिमामय भी नहीं होता, जंगल-जंगल वे जिस प्रकार भटकते हैं, उसके पीछे कोई न कोई ऐसी घटना घटित हुई होगी जिसने उन्हें बागी बनने के लिये मजबूर किया होगा। महेश कटारे बागी लाखन सिंह की घटना का वर्णन करते हैं। लाखनसिंह पिता की मृत्यु के बाद ऊंट पर आड़तियों का माल ढोता था, जीवन आराम से बीत रहा था। पर एक दिन इलाके के ठाकुर महीपतसिंह ने क्रोध में उसे लात मारी और मां की गाली दी। लात तो वह सह भी लेता पर मां की गाली तो बर्दाश्त नहीं होती इसलिये 'सीने में बदले की धधकती आग ने जड़ जमा ली। महीपत सिंह के द्वार पर जवाब दे पाना संभव नहीं था सो गाली का हिसाब करने की चेतावनी देकर घर लौटा। मां की गाली का घाव लेकर अपमान के साथ जीना कठिन था अत: मां के पांव छूकर लाखन बीहड़ में उतर गया।’ बीहड़ लाखन जैसे लोगों को आश्रय भी देता था और स्वाभिमान के साथ जीने के लिये प्रेरित भी करता था। उससे पहले के बागी भी ऐसी ही घटनाओं के कारण बीहड़ में कूदे थे। चंबल की एक और विशेषता कि दुश्मनी छुपकर नहीं की जाती और न पीछे से वार किया जाता है इसलिये लाखन ने महीपत सिंह को ललकारते हुये चि ठ्ठी भेजी 'लड़ैया (सियार, डरपोक) नाईं लुगाई की घंघरिया में काये दुबकौ रहत है? असल ठाकुर की औलाद है तो नेंक बाहर निकल के बताव।’ कहना न होगा कि लाखन और महीपत सिंह दोनों ही ठाकुर हैं और दोनों ही तोमर हैं पर ठाकुर है तो अपमान कैसे सहें? इसलिये दुश्मन को ललकार कर उसे सामने आने की चुनौती देता है लाखन। महीपत सिंह भी ठाकुर थे इसलिये उन्होंने भी चि ठ्ठी का जवाब चि ठ्ठी से ही दिया 'जेठ बदी आठें को बारात में गोहद के आगे वाले गांव बिल्हैटी में जाय रहा हूं ... खोंस (उखाड़) लियो का खोंसेगा। आगे फिर गाली लिखी।’ उसी बरात के जनवासे में लाखन ने यह कहते हुये महीपत को गोली मारी कि 'हमारी और काऊ से दुश्मनी नहीं है ... हमें अपनी बेइज्जती को बदलो लेनो है ... कोऊ बीच में न आवे। और गोलियां बोलने लगीं। आधी घड़ी में ग्यारह लोग लाशों में बदल गये थे।

चंबल के डाकुओं में बदला लेने की प्रवृति तो थी, इसके लिये ही वे बागी बनते थे पर बिला वजह किसी को परेशान करना, किसी की हत्या करना या किसी गरीब पर जुल्म ढहाना उनके स्वभाव में नहीं था। वे अपने शत्रु के प्रति हर प्रकार की घृणा से भरे रहते थे लेकिन किसी अनजान या निर्दोष पर कभी बंदूक नहीं उठाते थे।  महेश कटारे एक घटना का जिक्र कर और स्पष्ट करते हैं 'शिवपुरी तथा ग्वालियर जिले के मोहना के बीच की डांग में अमृतलाल की तूती बोलती थी। प्रसिद्ध है कि किसी शूटिंग के सिलसिले में शिवपुरी आई सुप्रसिद्ध फिल्म अभिनेत्री मीना कुमारी व उनके साथियों की घबराहट को अपने व्यवहार से शांत किया। मीना कुमारी से कुछ फिल्मी गीत व उनकी कुछ शायरी सुनी तथा सम्मानपूर्वक शिवपुरी तक पहुंचने का मार्ग प्रशस्त किया।’ ये चंबल के ठाठ हैं जहां असुरक्षित भी सुरक्षित हो जाता है। मुझे लगता है कि मीना कुमारी आजीवन इस घटना को भूल नहीं पाई होंगी। इस प्रकार की अनेक घटनाएं हुई होंगी, जिनकी आवाजें चंबल के बीहड़ों में अब भी गूंजती होंगी।  पर चंबल से अनजान लोगों ने उसे समझने की कभी कोशिश नहीं की, अब जब महेश कटारे उसके एक-एक पृष्ठ पर लिखी गाथाएं बांच रहे हैं, तो चंबल के प्रति मन उमड़ता है और लगता है कि उस बीहड़ में कुछ दिन उनके साथ रहकर देखा जाये। और यह भी देखा जाय कि ठाकुर बनने की हवस में छोटी जातियों के लोगों की चंबल में क्या स्थिति थी और है। जाहिर है कि जिन बागियों के बारे में महेश कटारे बता रहे हैं, उनके अलावा जनता के दुख-दर्द भी रहे होंगे, उनकी उपेक्षा करके इतिहास तो लिखा जा सकता है पर उपन्यास नहीं।

उपन्यास में कई अन्य महत्वपूर्ण प्रसंग हैं, जिनकी चर्चा बाद में करूंगा पर यह तो सच है कि महेश कटारे की दृष्टि चंबल के बीहड़ों और बागियों पर अधिक है। वे चंबल के जन-जीवन को उसके माध्यम से देखना और दिखाना चाहते हैं। यही नहीं वे जब चंबल के चोरों और बागियों के बारे में लिख रहे होते हैं या जातियों की उच्चता का वर्णन कर रहे होते हैं तो ज्यादा सहज लगते हैं। उदाहरण के रूप में उपन्यास का आरंभ पंचू द्वारा अपने बेटे गजुआ को चौर कर्म सिखाने की घटना से होता है। यह प्रसंग लंबा है और लगता है जैसे उपन्यासकार चोरी की तैयारियों और चोरों द्वारा किये गये सारे प्रयोगात्मक अवयवों को दिखाना और बताना चाहता है। पंचू अपने बेटे गजुआ को चोरों के नियम बताते हुये कहता है 'जब तलक अपनी जान पै न बन आवै तब तक हमारे लयें चिरैया के प्रान ईसुर की धरोहर हैं। मानुष से चींटी तक की जान पै हक्क अकेले परमात्मा का। दूजी बात कि पराई बहन, बेटी अपनी सगी के बराबर। सच्चा चोर सच्चे जोगी के बराबर है। दोनों अपने सत पै टिके हैं। सत से गिरे कि करा-धरा सब ख्वार है।’ तथा 'आलस, नींद और खांसी दुश्मन हैं अपने धंधे की।’ इस प्रसंग में महेश कटारे का मन इतना रमता है कि वे इस प्रसंग को बहुत लंबा खींच देते हैं। यह सही है कि चौर कर्म से अधिकांश लोगों का कोई परिचय नहीं होता पर उपन्यास चौर कर्म की शिक्षा के लिये थोड़े ही लिखा जा रहा है, उसे तो उसकी बानगी देनी चाहिये थी। इसी प्रसंग में वे कई नामी चोरों का परिचय कराते हैं जैसे 'मवसिया-निवासी झुंडपुरा, तहसील अंबाह, जिला मुरैना अपने समय का नामी चोर था। शातिर इतना कि उसके कारनामों की दंतकथाएं ग्वालियर, भिंड, मुरैना और खास तौर पर चंबल के गांव-गांव में प्रचलित थीं। कहा जाता है कि वह भांति-भांति के स्वांग धरने में माहिर था। चोरी-उसके लेखे कोई अपराध न होकर बस आजीविका थी।’ महेश कटारे चोर का परिचय देने में चोरी को अपराध न मानने के लोक विश्वास को कई बार कहते हैं, वे अपने पाठक को बराबर यह विश्वास दिलाना चाहते हैं कि जिस चोरी को चंबल के बाहर अपराध माना जाता है वह चंबल में लोगों की आजीविका है। बहरहाल वे मवसिया का और परिचय देते हैं ओैर बताते हैं कि 'थक-हारकर ग्वालियर महाराज ने गांव-गांव डोंडी पिटवाकर ऐलान करवाया-मवसिया जहां कहीं हो, सुने! अगर वह अपने को बड़ा हुनरमंद, तीसमारखां समझता है तो महल में चोरी करके दिखाए। दिखा देगा तो उसके पहले के सभी जुर्म माफ कर दिये जायेंगे। शर्त यही रहेगी कि आइंदा वह कहीं चोरी न करेगा।’ मवसिया चोरी के मामले में इतना दक्ष था कि वह महल से रानी का मोतियों वाला हार उड़ा लाया वह भी उस समय जब महाराज स्वयं रानी की सेज पर ही थे। तिलका चोर तो मुरैना के पुलिस अधीक्षक की भेंस ही खोल लाया था। ये चुुनौतीपूर्ण चोरियां हैं, जो चंबल के लोगों की जबान पर रहती हैं।  

एक लेखक के रूप में महेश कटारे की दृष्टि उन चोरों और बागियों की बहादुरी और नैतिकता के बनाये अपने मानदंडों पर थी तो दूसरी दृष्टि उन परिवर्तनों पर भी थी जो धीरे-धीरे चंबल के अंचल में हो रहे थे। एक समय तक ठाकुरों का राज जन-जीवन में भी था और बीहड़ में भी। आजादी के बाद परिवर्तन आया, दबे-कुचले लोग सिर उठाने लगे और अपने अधिकारों के लिये एकजुट होने लगे। जाहिर सी बात है कि बीहड़ में भी ये परिवर्तन दिखाई देने लगे। 'समय तेजी से पलटियां मारने लगा था। तब के समय में बीहड़ों की भूलभुलैयों, क्वारी, आसन, घोड़ा पछाड़, बेसली आदि मझोली और छोटी नदियों के लहरियादार घुमावों के बीच बसी जातियों, बस्तियों की बातों में देश या तो सिंधिया के राज्य में सिमट आता था या सिंधिया का राज्य फैलकर पूरा देश बन जाता था। यूं राजा और थे-धौलपुर, करौली, दतिया, पहाडग़ढ़ आदि। इनके अपने महल भी थे। किलों का अस्तित्व समाप्त हो गया था। अब कुछ तो खंडहरों या भुतिया जगहों में बदल गये थे।’ अब 'बीहड़ों में न बागी बचे थे, न बाघ। इक्का-दुक्का कहीं कोई शिकार कर ले या हो जाये, उसकी बात अलग है। बाघ न रहे तो भेडिय़े और सियार जरूर गांवों के आसपास आकर घूमने लगे थे। बीहड़ की भूमि पर वर्चस्व का बंटवारा होने लगा था। पहले क्षत्रियों का दबदबा था जिसमें से गूजर, अहीर जैसे उपक्षत्रियों ने अपना हिस्सा बंटाया। चंबल के आसपास तथा चंबल के प्रभाव वाली भूमि पर अभी भी क्षत्रिय सबल थे। उससे सटी भूमि पर मोहर सिंह व उसके पहले वाले सुल्तान, कल्ला, हरगोविंद के छोटे-छोटे इलाकोंं को मिलाकर एक बड़ा क्षेत्र उपक्षत्रिय गूजरों के वर्चस्व में आया। ... पहले चुप रहने वाली, चुप रहकर सहती आने वाली जातियों ने भी सिर उठाना शुरू कर दिया था। चंबल के पूर्वी भाग में भिंड जिले की विद्या जैसी लड़कियां मास्टरी से आगे डॉक्टरी तक पहुंचीं तो यमुना से मिलने वाले मुहाने तक चंबल के बीहड़ों में फूलन नाम की बाघिन दहाडऩे लगी। चंबल अपने पानी के पन्नों पर शोषण, अपराध और संघर्ष की कहानी नई स्याही से लिखने लगी थी।’ ये परिवर्तन का दौर है अब बागियों में काछी, मल्लाह, अहीर और नाई जैसी पिछड़ी जातियों ने अपना वर्चस्व बनाना शुरू कर दिया था। बघर्रा में इसी प्रभाव के तहत ठाकुर बलवान सिंह को मुन्नी बनिया ने जूतों से पीट दिया। गांव के लिये यह बड़ी घटना थी। महेश कटारे लिखते हैं 'बघर्रा के एक बनिया ने बीच-बाजार एक ठाकुर की जूतों से धुनाई कर दी।’ यह ठाकुरों के पतन की शुरूआत थी इसलिये खबर शर्म और चटखारों के साथ आसपास के गांवों में फैल गई। मंडी तक में यह खबर गनगना रही थी। उपन्यास में इस बात को बताना भी महेश कटारे नहीं भूले कि बनिये ने परिस्थितिवश जूते मार तो दिये पर डरा बनिया ही। वह यह नहीं सोच पा रहा था कि अब क्या करे? इसलिये अपने बड़े भाई के पास पहुंचा और कहा 'कछू गड़बड़ है गई तो कूद जाऊंगो बीहड़ में ...।’ तब उसके भाई ने आश्चर्य के साथ कहा 'ऐं? तें बागी बनेगो? अबै तक कोऊ बनिया भयौ है बागी? कौन के गिरोह में रहेगो? ठाकुर चार दिन में टपकाय (मार) लेंगे । खैर, जो भयौ सो तो है गयो। हां तोय थोड़ी समाई रखने चाहिये हती। आपने आप ठाकुर ही निबट लेते आपुस में।’

ठाकुरों को असली जवाब फूलन ने दिया। बारह ठाकुरों के द्वारा बलात्कार किये जाने का प्रतिशोध फूलन ने बेहमई गांव में एक साथ बीस ठाकुरों को गोलियों के घाट उतारने से लिया। मल्लाह जाति तो ठाकुरों की रैयत थीं इसलिये ठाकुर जो भी करें सो ठीक। ठाकुरों को यह नागबार गुजरा कि मल्लाह की मोंड़ी होकर बदले की बात कर रही है। लेकिन बचपन में विवाह, पति के अत्याचार और फिर ठाकुरों द्वारा किये गये सामूहिक बलात्कार से फूलन का मन फुंफकार उठा, जिसकी परिणति ठाकुरों की सामूहिक हत्या के रूप में हुई। भिंड, मुरैना और जालौन यानी मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के लगते हुये अंचल के लिये इस प्रकार की घटना आम लोगों के लिये अप्रत्याशित थी तो ठाकुरों के लिये शर्मनाक। फूलन पर अत्याचार जातिगत आभिजात्य का ही प्रतिफल है वरना जिस अंचल में बहन, बेटियां सुरक्षित हों और बड़े से बड़ा बागी डाकू भी उन्हें गलत नजर से नहीं देखता हो वहां इस प्रकार की घटना दुखद है। दुखद घटना होना स्थान सापेक्ष है, पूरे देश के लिये यह दुखद है पर चंबल तो ठाकुरों का है, वहां ठाकुरों का वर्चस्व है, वे जो चाहें सो करें। इसलिये फूलन मल्लाह की क्या हिम्मत कि ठाकुरों का विरोध करे? पर फूलन के अंदर साहस भी इन्हीं ठाकुरों ने दिया था, बचपन से जो अभाव और शर्मिंदगी छोटी जातियां झेलती आई हैं, फूलन ने उसी का जवाब दिया था। इसलिये 'यू.पी., एम.पी., राजस्थान तक ठाकुरों का खून उबलने लगा। अठारह औरतों का एक साथ विधवा होना ठाकुरों को तो क्या, अन्य जातियों को भी नहीं पच रहा था।’ पूरे इलाके में सनसनी फैल गई। सनसनी इस बात की नहीं थी कि फूलन के साथ ठाकुरों ने सामूहिक बलात्कार किया, सनसनी इसकी थी कि फूलन ने मल्लाह और स्त्री होकर ठाकुरों का सामूहिक कत्लेआम किया। फूलन ने एक प्रकार से ठाकुरों को चुनौती दी थी और यह तय किया था कि ठाकुरों के वर्चस्व का समय अब समाप्त हो गया है। अब छोटी जातियां बीहड़ में राज करेंगीं। महेश कटारे लिखते हैं  'बीहड़ों पर राजपूतों का प्रभाव ढीला होने लगा था। बंदूक के ट्रेगर पर अब मोहर सिंह की उंगली का दबाव बन गया था। चंबल के इतिहास में संख्या की दृष्टि से यह सबसे बड़ा गिरोह हुआ जो साल के दो-चार खास अवसरों को छोड़कर प्राय: दो और कभी-कभी तीन हिस्सों में बंटकर रहता था। एक वजह शायद यह रही हो कि राजपूत जातियां पढ़-लिखकर अथवा पढऩे-लिखने के लिये शहर की ओर बढ़ रही थीं और उस खाली जगह को मध्य जातियों के ठाकुर, जैसे-गूजर, अहीर, जाट आदि भर रहे थे। मोहर सिंह गूजर जाति से था। इस जाति से लाखन के समय में भी सुल्तान तथा बाद में कल्ला, पहारा, हरगोविंद जैसे डाकू गिरोह बने थे, पर बीहड़ों और जंगलों में जो वर्चस्व मोहर सिंह ने स्थापित किया, वह एक प्रकार से राजपूतों की जगह इन ठाकुरों का उदय कहा जा सकता है। यहां एक अजीब बात है कि जिस जाति का जंगल और बीहड़ों पर वर्चस्व होता है, वही राजनीति में भी प्रभावी होती जाती है। तो इधर मोहर सिंह को मुखिया का नाम मिला था ओैर दिल्ली में श्रीमती इंदिरा गांधी गद्दी संभाल रही थीं।’

इंदिरा गांधी का उल्लेख कर महेश कटारे यह बताना चाहते हैं कि 1967 के आसपास मध्यजातियों का उदय राजनीति में हुआ था। डॉ. राम मनोहर लोहिया ने गैर कांग्रेसवाद के साथ बीच की जातियों का आह्वान किया था जिसका परिणाम उत्तर प्रदेश में चौधरी चरण सिंह और बिहार में कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व में पहली बार गैर-कांग्रेसी सरकारें बनीं। ये दोनों नेता बीच की जातियों से थे। इसलिये कुछ हद तक यह सच है कि बीहड़ों में वर्चस्व वाली जाति राजनीति में भी शक्तिशाली हो जाती है।

उपन्यास में एक प्रसंग बड़ा महत्वपूर्ण है, जो बीहड़ और बागियों की अधिक चर्चा के कारण दब गया है। वह है बघर्रा के बालमुकुंद मिसुर का, जिनकी बेटी इस अंचल से पहली डॉक्टर बनी है। जिस इलाके में पांचवीं कक्षा के बाद लड़कियों की शादी कर दी जाती हो, वहां अपनी इच्छा से डॉक्टरी की पढ़ाई पूरी करना न केवल विद्या के लिये बल्कि मिसुर महाराज के लिये भी बड़ा निर्णय था। यद्यपि आरंभ में माता-पिता ने उसे समझाया भी था कि 'नहीं बेटी! रामायण, महाभारत, सावित्री वट कथा, सात सोमवार, लक्ष्मीपूजन की कथा से भी आगे तथा चि_ी पत्री से ऊंची पढ़ाई हो चुकी। गांव की बेटियों को तो छोड़ो, कई बेटों से ज्यादा पढ़ गई तुम। कौन नौकरी करनी है ... अपनी देहरी आंगन तक की ही तो बात है और ज्यादा ही मन है तो सुनते हैं कि प्राइवेट पढ़ाई भी हो जाती है।’ यह संस्कारगत समझाना-बुझाना था पर जब विद्या और उसके मौसा ने आगे पढऩे-पढ़ाने की जिद की तो मिसुर महाराज तैयार हो गये। उनकी यह अकेली बेटी थी, इसलिये अब उन्होंने तय कर लिया था कि जो भी हो वे विद्या को आगे पढ़ायेंगे। मिसुर जी सामान्य आदमी थे, पंडिताई में अब गुजर-बसर ही हो सकती है, बहुत पैसा पंडितों को कोई नहीं देता। लाखों रुपये दूसरे कामों में खर्च कर जिजमान पंडित के आगे निरीह और दयनीय हो जाता है। मिसुर जानते हैं कि पंडिताई के बल पर वे विद्या को आगे नहीं पढ़ा सकते लेकिन उन्होंने निश्चय कर लिया है कि छोटी जोत की खेती और घर में रखे जेबर को बेचकर वे विद्या को पढ़ायेंगे। उन्होंने वैसा ही किया। यह बघर्रा जैसे छोटे-से गांव के मिसुर महाराज के लिये बड़ा और महत्वपूर्ण निर्णय था। विद्या डॉक्टर बन कर पहली बार गांव आई तो गांव की औरतें अपने बच्चों का इलाज कराने के लिये विद्या के घर पर उमड़ पड़ीं। गांव की लड़की डॉक्टर बने तो कौन अपना और अपने बच्चों का इलाज कराना नहीं चाहेगा?  इस घटना से एक ओर मिसुर महाराज और मिसुरानी प्रसन्नता से फूले नहीं समाये तो दूसरी ओर महेश कटारे भी। वे अपनी खुशी में यह भी बताते हैं कि गांव में हर घर में लोग बीमार हैं पर दूर अस्पताल जाने और पैसा खर्च करने के चक्कर में वे जड़ी-बूटियों से ही काम चला लेते हैं। चिकित्सा और शिक्षा आज भी गांवों के लिये चांद-तारों की तरह है, जिनके पास पैसा है वे सुविधाओं का लाभ उठा लेते हैं और जो अभावों में हैं वे गांव में ही पड़े सड़ते रहते हैं। 

'काली धार’ केवल चंबल के बीहड़ों और बागियों का ही उपन्यास नहीं है, उसमें कुछ चीजें ऐसी हैं, जिन्हें प्राथमिकता के साथ उभारा जाना जरूरी था, पर ये उपन्यासकार पर निर्भर है कि वह किन मुद्दों को गहराई के साथ उभारना चाहता है और किन्हें हाशिये पर छोड़ देता है। उपन्यास में एक नवाब ठाकुर हैं, जिनका पूरा खानदान पाकिस्तान चला गया था। आजादी के समय मुसलमानों को यह सुविधा थी कि वे चाहें तो पाकिस्तान चले जायें और चाहें तो हिंदुस्तान में रहें। जिन्हें जाना था वे चले गये और जो यहां की धरती से प्रेम करते थे वे यहीं के होकर रह गये। ऐसे कितने नवाब और आम आदमी थे जिन्होंने तिरंगे के नीचे रहना ज्यादा पसंद किया। महेश कटारे प्रतीकात्मक रूप में ही यह बताते हैं कि नवाब साब के पिता अपनी दो पत्नियों ओैर बच्चों को लेकर पाकिस्तान चले गये, कहना न होगा कि अपने गांव से केवल नवाब साब के पिता ही नहीं गये होंगे और भी लोग गये होंगे, जिनका जिक्र उपन्यास में नहीं है। जो नहीं है, उसके बारे में कोई चर्चा भी क्यों हो? महत्वपूर्ण यह है कि नवाब ठाकुर यानी नवाब साब के बेटे जिन स्थितियों में अटारी आये और गरिमा के साथ रहे, वह रेखांकित किये जाने योग्य है। महेश कटारे लिखते हैं 'भारतीय संविधान के जन्म लेने से पहले ही आर के बाशिंदा बने नवाब ने घर इसलिये छोड़ा कि खानदान वाले उन्हें किसी पाकिस्तान नाम के मुल्क ले जाने को तुले हुये थे। अनजाने परदेस न जाने की सजा उन्हें यह मिली कि उस समय के हिसाब से जल्दबाजी में औने-पौने बेची गई जमीन-जायदाद से उन्हें फूटी कौड़ी तक नहीं दी गई। जायदाद उन दिनों परिवार के किसी एक शख्स के नाम होती थी, जो परिवार का मुखिया अथवा कोर्ट-कचहरी में दखल रखने वाला होता। उसे फरोख्ती का भी हक हासिल रहता था। नवाब ठाकुर के पिता का तीन बीवियों वाला भरा-पूरा परिवार था, पर अपनी मां के यह अकेले नूरे चश्म थे। ... जो भी हो, छोटे नवाब ने किसी पाकिस्तान को कतई अस्वीकार कर दिया तथा बेगम ने खांविद और बेटे के बीच बेटे की संरक्षा चुनी। बड़े नवाब अपनी दूसरी दो बीवियों का कुनबा समेट पाकिस्तान रवाना हो गये। नवाब ठाकुर की मां के पास कुछ गहने थे तथा मां के पिता की ओर से दहेज अथवा हक में मिली यह दो नदियों के मुहाने वाली पट्टी थी जिसे न उन्होंने कभी देखा था, न फसल अथवा उगाही के रूप में उससे कभी धेला भी वसूल हुआ था। बेगम या अम्मा ठाकुर ने इसी जमीन के दम पर भगोड़े शौहर का संग छोड़ा था। पाकिस्तान जाने वालों के लिये वह उम्र भर भगोड़े शब्द का ही इस्तेमाल करती रहीं।’ कहना न होगा कि देश विभाजन की त्रासदी के दौर में अपनी जगह से उजड़े नवाब साब और अम्मा ठाकुर के लिये यह बड़ी चुनौती थी पर उन्होंने इसे अपनी नेकनीयती और भलमनसाहत से पार किया। अटारी पहुंचते ही अमीना बेगम अम्मा ठाकुर हो गईं और यहां के ठाकुर धीर सिंह को राखी बंद भाई तथा पांच गांवों के पटवारी लाला भभूती प्रसाद को देवर बना लिया। यह उनकी दूरदृष्टि थी, जिसका लाभ उन्हें बाद तक भी मिलता रहा।

चंबल के पूरे समाज पर इस प्रकार की वृहद योजना के साथ लिखा गया शायद यह पहला ही उपन्यास है। महेश कटारे अपने इलाके, गांव और उनकी समस्याओं पर लिखते रहे हैं, वे कथा पंडित हैं इसलिये बीच में 'कामिनी काय कांतारे’ की ओर भी मुड़े  पर फिर उन्हें अपना ही इलाका और उसके लोग याद आये इसलिये 'काली धार’ जैसा उपन्यास लिखा, जिसमें बहुत बड़ी और छोटी-छोटी घटनाओं से अपने अंचल की अच्छाइयों और बुराइयों को साकार किया है। बीहड़ की एक-एक इंच जमीन और लोगों की एक-एक सांस से वे परिचित हैं इसलिये लिखते हैं 'बीहड़ में उतरना, मारना-मरना ऋतुचक्र की भांति है। कहीं, कम या अधिक हो जाता है। बीहड़ में कोई टीला, ढूह, शिखर छीजता है, ढहता है तो उसकी जगह उसके आसपास ही एक नया उभरने लगता है । बरसात होती है तो रास्ते बह जाते हैं। उनमें कटानें, खंदकें, खाइयां बन जाती हैं, फिर मौसम से अवसर पाते ही पुराने रास्ते संवारे जाते हैं, कहीं-कहीं नये भी खोजे जाते हैं ।’ ' चंबल की इसी शक्ति को कालीधार कहा जाता है। यह उपन्यास काली धार के  जन-जीवन की उदात्त, विरल, उपेक्षित तथा किंचित निरीह गूंजों का समन्वित स्वर है।

 

 

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