सियासी यथार्थ से जूझती स्मृतियों की मर्मस्पर्शी दास्ताँ

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    अगस्त : 2019
श्रेणी सियासी यथार्थ से जूझती स्मृतियों की मर्मस्पर्शी दास्ताँ
संस्करण अगस्त : 2019
लेखक का नाम प्रियम अंकित





क़िताबें/मूल्यांकन

रिनाला ख़ुर्द

 

 

स्मृतियाँ विचलित करती हैं। अगर स्मृतियाँ किसी ऐसी त्रासद घटना से आवेशित हों जिसने लोगों के जीवन को, उस जीवन में रचे-बसे भूखंड के सांस्कृतिक भूगोल को और उस भूगोल में समाविष्ट किसी देश की राष्ट्रीय संचेतना को बुरी तरह झकझोर दिया हो, तो इन स्मृतियों के झटके आने वाली कई पीढिय़ों के दिलो-दिमाग पर गहरी छाप छोड़ते जाते हैं।  भारत के इतिहास में सन 47 का बंटवारा ऐसी ही एक त्रासद घटना है जिसकी स्मृतियाँ आज सत्तर बरस बाद भी भारत और पाकिस्तान के जनमानस को रह-रह कर कचोटती हैं। हिन्दी साहित्य में कहानी और उपन्यास ही वह विधाएं है जिनमे बँटवारे की त्रासदी को और उसकी भयावह स्मृति को व्यतीत होते समय के विभिन्न अंतरालों पर ठिठक-ठिठक कर असरदार और भावप्रवण अंदाज़ में अभिव्यक्त किया गया है। बँटवारे के 70 साल बीत जाने पर भी, जब कहने वाले यह कहते हैं कि 70 साल का समय किसी भी स्मृति को धुंधलाने के लिए काफी से भी ज़्यादा है, हिन्दी कथा साहित्य में बँटवारे की यह स्मृति आज भी धुंधली नहीं पड़ी है और इसकी जीवंत मिसाल है ईशमधु तलवार का नया उपन्यास रिनाला खुर्द।

वास्तव में इस उपन्यास का ताना-बाना स्मृतियों से ही बुना गया है। इस उपन्यास के हर अध्याय का आरंभ किसी मानीखेज़ शेर या किसी कविता की पंक्तियों से होता है जो यादों या स्मृति के एहसास से लबरेज हैं। यहाँ वाचक की माँ की स्मृतियाँ है। ज़ाहिर है जहाँ माँ होगी, वहाँ बचपन भी होगा। अत: यहाँ वाचक के बचपन की स्मृतियाँ भी हैं। और उसके प्रेम (नरगिस/सलमा) की स्मृतियाँ हैं। इन स्मृतियों का केंद्र है भारत का विभाजन। वाचक के बचपन के गांव बगड़ की सांस लेती स्मृतियाँ है। लेकिन बगड़ स्मृतियों का एक पड़ाव है, जिसके पीछे वाचक की माँ का गाँव अविभाजित भारत का रिनाला खुर्द है और आगे विभाजन के बाद का वह पाकिस्तान जहाँ पहुँचकर बगड़ की नरगिस सलमा बन जाती है।

उपन्यास में स्मृति की अविरल धारा का रूपक है सरस्वती नदी। यह वही नदी है, जो सतह के ऊपर तो लुप्त हो चुकी है, लेकिन सतह के भीतर कहीं गहराई में आज भी वह भारत और पाकिस्तान के लोगों के दिलों में बह रही है, उनको आपस में जोड़े हुए है। कथावाचक विश्वविद्यालय में भूगोल का अध्यापक है और विलुप्त हो चुकी सरस्वती नदी की खोज से संबंधित अध्ययनों और उपक्रमों में वह पूरे जोश-खरोश से शामिल है। उपन्यास में सरस्वती नदी फकत एक भौगोलिक सत्ता नहीं है। यह मानव जीवन की वह भावनात्मक और संवेदनात्मक सरिता है, जो नफरत की तमाम दीवारों को भेद कर मनुष्य को मनुष्य के करीब लाती है। उपन्यास में यह नदी नदी बनकर नहीं, बल्कि पुल बनकर आती है, जो सियासत के खूनी और अवसरपरस्त शिकंजों से जूझती भारत और पाकिस्तान की आम जनता को आपस में जोड़ती है। वास्तव में विभाजन की पीड़ा को वही समझ सकता है, जिसने अपनी जड़, अपनी ज़मीन से उखडऩे का, वहाँ से विस्थापित होने का दंश झेला हो। उपन्यास में वाचक की माँ, यानि चाईजी ने विभाजन और विस्थापन का यह दंश झेला है। हर माँ अपनी संतानों की परवरिश को अपने अनुभवों से गूँथती है। इसलिये माँ का दर्द संवेदनशील संतानों के लिये पराया नही रह सकता, वे भी अंतत: उसके दर्द में शरीक होती हैं। इसलिये वाचक भी चाईजी के दर्द को शिद्दत से महसूस करता है, चाईजी की पीड़ा उसकी पीड़ा बन जाती है और इसीलिये सरस्वती नदी की खोज उसके लिये महज़ अकादमिक क्षेत्र मे उन्नति पाने का ज़रिया भर न रहकर जीवन का लक्ष्य बन जाती है - एक ऐसा लक्ष्य जो उसे कला, संस्कृति और संवेदना के उन स्रोतों तक पहुँचा सके जो सियासत की कुटिल कलाबाज़ियों के फैलाये कुहासे के बावजूद तमाम सरहदों के झरोखों से प्रेम के प्रकाश को फैला रहे हैं। बुल्ले शाह, वारिस शाह से लेकर नूरजाहाँ, मंटो, परवीन शाकिर, नुसरत फतेह अली खान जैसी शख्सीयतें इस खोज में वाचक की हमसफर बन जाती हैं।

उपन्यास का शिल्प कई स्थलों पर 'सिनेमैटिक’ हो चला है। उदाहरण के लिये उपन्यास की शुरूआत सिनेमा में प्रयुक्त होने वाली 'ड्रीम सीक्वेंस’ की तक़नीक की याद दिलाती है। यहाँ यथार्थ, कल्पना और स्मृतियाँ आपस में गुत्थ्म-गुत्थ होकर गड्ड-मड्ड हो जाती हैं और स्वप्न का आकार ले लेती हैं। हिंदी सिनेमा में 'ड्रीम सीक्वेंस’ की पहली असरदार अभिव्यक्ति राज कपूर की फिल्म 'आवारा’ के गीत 'घर आया मेरा परदेसी...’ की दृश्यात्मक प्रस्तुति से मानी जाती है। फिल्म के मुख्य किरदार की स्मृतियों को टटोले बगैर इस 'ड्रीम सीक्वेंस’ के महत्व को समझना असंभव है। इसी तरह रिनाला खुर्द उपन्यास के आरंभ में जो ड्रीम सीक्वेंस है, उसे समझने के लिए इस उपन्यास के वाचक की समृतियों को टटोलना ज़रूरी हो जाता है। और वाचक की स्मृतियों को टटोलने के लिये उसकी चाईजी की स्मृतियों को टटोलना ज़रूरी हो जाता है। पूरा उपन्यास मानो यथार्थ के दबाव में कसमसाती स्मृतियों की मर्मभेदी दास्ताँ को दर्ज़ करता है। इस दृष्टि से देखें तो यह एक अनूठा उपन्यास है, क्योंकि यहाँ स्मृतियाँ तो हैं लेकिन उनका जंजाल नहीं है, इसीलिये यह उपन्यास अपने छोटे से कलेवर में जो कुछ भी कहता है वह काफी ठोस और सघन है। अमूर्तन के दाँव-पेंच को झेलते वाक़ए उपन्यास में कहीं नहीं मिलेंगे।

उपन्यास के तीन मुख्य पात्र हैं - वाचक, चाईजी और नरगिस या सलमा। उपन्यास में वाचक के चरित्र का विकास उसकी माँ (चाईजी) और उसके बचपन के प्रेम ( नरगिस/सलमा) की यादों के साये तले होता हुआ दिखता है। चाईजी की स्मृतियाँ रिनाला ख़ुर्द से जुड़ी हुई हैं, जो अब विभाजन के बाद पाकिस्तान में है। खुद की जड़ें अब पड़ोस में पहुँच गयी हैं। पड़ोस भी ऐसा, जहाँ जाने के लिये पासपोर्ट के साथ-साथ वीज़ा भी लगता है। ज़रा महसूस कीजिये उस व्यक्ति की तड़प को जिसकी जड़ें उसकी आँखों के सामने बिला गयी हों और वह जानता हो जहाँ वह बिलाई हैं, आज वह उसका पड़ोस है, जो सियासत द्वारा खड़ी की गयी लोहे की कँटीली झाडिय़ों के उस पार है, जहाँ जाना अब सहज नहीं है और जहाँ जाने पर सियासी खूँरेजी के शिकंजों में जकड़े जाने का खतरा हमेशा बना रहता है। बगड़ में चूल्हा-चौकी में पसीने-पसीने पिसती चाईजी की पीड़ा ऐसी ही तड़प से उपजी है। चाईजी की स्मृतियों में बार-बार वह बक्सा आता है, जो वह बंटवारे के दंगों के दौरान वहाँ से भागते हुए अपने साथ ले जाना चाहती थीं लेकिन भागने की ज़ल्दबाज़ी और कशमकश में उनके पिता नें (वाचक के नाना ने) उन्हें यह बक्सा साथ में लाने नहीं दिया। उस बक्से में चाईजी की रचनायें और वे रिसाले थे जिनमें उनकी रचनायें छपी थीं। सचमुच चाईजी का समूचा रचनात्मक व्यक्तित्व मानो उसी बक्से में क़ैद होकर वहीं छूट गया था, बगड़ में चाईजी, वह चाईजी नहीं रहीं, जो रिनाला खुर्द में हुआ करती थीं - रचनात्मक चेतना से लबरेज। चूल्हा-चौके के धुएं में उनकी रचनात्मकता घुट कर रह गयी। काश विभाजन न हुआ होता! बँटवारा कितनों की रचनात्मकता को डँस कर निगल गया, चाईजी की वेदना में इसे देखा जा सकता है।

बचपन में बगड़ में बिताये गये दिनों के दौरान कथावाचक का किशोर वय का प्रेम उस उम्र की सहजता की तरह ही निर्मल है। नरगिस मुसलमान है और वाचक हिंदू। लेकिन प्रेम की सहजता और निर्मलता धर्म और जात-पात की दीवारों से अनजान है। मासूम प्रेम की बानगी देखिये, जो शायद हमारे—आपके जैसे तथाकथित समझदार लोगों को हास्यास्पद लगे, लेकिन इस मासूमियत का जोड़ हमारी समझदारी में कहीं नहीं मिलता -

''नरगिस, बुरो नांय माने तो एक बात खैबा चाहूँ।’’

वो बोली - ''कह’’

मैंने कहा - ''नरगिस, तू मोकू भोत मलूक लगे।’’

''तो’’

''तो कांई, मैं तोसू ब्याह करबा चाहूँ।’’

नरगिस चौंकी - '' ऐं ऽऽऽ! ब्याह? तू पहले बड़ो तो हो जा।’’ और वह ज़ोर से हंसी।

मैने कहा - ''अरे यार, तू नांय समझेगी।’’

इसे नादानी कहना है तो कह लीजिये, लेकिन इस नादानी के आगे कितनी बौनी है हमारी दानिशमंदी! सोच समझ वालों को थोड़ी नादानी दे मौला !

यह प्रेम मिट्टी की खुशबू से सराबोर है। लोक रंग की छटाएं बिखेरती निर्दोष संवेदनायें हैं, जो मेवाती लोकगीतों और स्थानीय बोली की सहजता में रची पगी हैं।              लेकिन शहर से लौट कर वाचक को पता लगता है कि नरगिस की शादी हो गयी और वह पाकिस्तान चली गयी - ''पाकिस्तान में शादी होने का मतलब था कि नरगिस से मिलने के अब सभी रास्ते बंद।’’ वाचक के लिये अब नरगिस की स्मृतियाँ ही शेष रह जाती हैं। स्मृतियाँ, जो विलुप्त हो गयी या पीछे छूट गयी या खो गयी चीज़ों को दिलो-दिमाग में ज़िंदा रखती हैं। जैसे विलुप्त हो गयी सरस्वती नदी, या पीछे छूट गया चाईजी का रिनाला खुर्द या वाचक की खोई हुई नरगिस। या फिर वह भूखण्ड जो कभी हमारे देश का हिस्सा था लेकिन अब हमसे अलग होकर एक दूसरे देश में तब्दील हो चुका है। सरस्वती नदी हो, चाईजी हों या नरगिस या फिर पाकिस्तान। स्मृतियों के धागे इन्हें जोड़े हुए हैं।

इसीलिये जब वाचक को सरस्वती नदी की खोज से संबंधित एक डेलेगेशन का हिस्सा बनकर पाकिस्तान आने का निमंत्रण मिलता है तो उसे लगता है मानो मुँह माँगी मुराद पूरी हो गयी हो। अब उसके सामने स्मृति रूपी सरिता के बहाव के साथ चलने का एक अचूक अवसर सामने था। ज़ाहिर है इस अवसर को स्वीकार करना ही था।

विदेश जाने के लिये वीज़ा अनिवार्य है। वाचक का भी वीज़ा बनता है। लेकिन पाकिस्तान पँहुचने पर वाचक को यह एहसास होता है कि भले ही वह वीज़ा प्राप्त करके इस धरती पर पँहुचा है, यह धरती विदेश बिल्कुल नहीं है। भारत और पाकिस्तान तो एक जैसी धरती है। उपन्यास के एक अध्याय का शीर्षक ही है - एक जैसी धरती। दोनो तरफ की आवाम भी एक जैसी है। बहुमंज़िले मॉलों और होटलों ने विकास का जो भ्रमजाल फैलाया है और जिसने स्थानीय वैशिष्टय को रौंद डाला है, उसकी गिरफ्त में भारत और पाकिस्तान दोनों आ चुके हैं - ''नहर से हम लौटे तो हमने देखा कि लाहौर की सड़कों पर बड़े-बड़े बहुमंज़िले मॉल और होटल खड़े हो गये हैं। चकाचौंध कर देने वाले रेस्तरां हैं। लक्ष्मी चौक है, पटियाला मैदान है, दयाल सिंह बाग है, शिमला पहाड़ी है। ये ऐसे नाम हैं जो उर्दू की धरती पर हिन्दी की याद दिलाते हैं। हम आपसी बातचीत में जैसे आम तौर पर बोलते हैं, वैसे ही बोल रहे थे, लेकिन हमारे मेजबान हमसे कहते - ' आप लोगों की उर्दू बहुत अच्छी है।’ हम उनकी उर्दू पर शक़ करते। लंबी जुदाई के बाद किसी अज़ीज को देखो तो वह और प्यारा लगता है। हम पाकिस्तान को वैसे ही देख रहे थे और पाकिस्तानी हमें।’

आजकल सर्जिकल स्ट्राईक का बड़ा हल्ला है। उपन्यास पढिय़े को यह सवाल ज़रूर उठेगा कि यह सर्जिकल स्ट्राईक का हल्ला किसके खिलाफ है? परायों के खिलाफ कि अपनों के खिलाफ?

दोनों तरफ की वही आवाम है, वही लंपटई है, वही वी.आई.पी. सँस्कृति है, वही साधरणता है, असाधारणता भी वही है, शोषण भी वही है, स्त्री-विरोधी सोच भी वही है और स्त्री-मुक्ति का स्वर भी वही है, सामंती सोच भी वही है, तरक्की पसंद तहरीक़ भी वही है और सियासत की शातिराना चालों में लिपटा उन्माद भी वही है।

वाचक की अप्रत्याशित भेंट अपने बचपन के खोए हुए प्रेम से होती है। नरगिस ने अपना नाम बदल लिया है। अब वह सलमा है। अब वह उभरती हुई पाकिस्तान की मशहूर लोकगायिका बन चुकी है। लेकिन नाम बदलने से सीरतें नहीं बदलती। सलमा के भीतर नरगिस ज़िंदा है। वह पाकिस्तान में अपने शौहर के साथ खुश नहीं है। उसका शौहर उस पर घिनौने अत्याचार करता है। वाचक और सलमा के दिलों में दफ्न बचपन का प्रेम पुनर्जीवित होकर हिलोरें मारता है और सामने तामीर होती है सुनहरी सपनों की दुनिया जहाँ सलमा का वीज़ा बनवा कर उसे हिंदुस्तान वापस आकर वाचक से विवाह करके एक सुखी जीवन का खाका तैयार होता दिखता है। लेकिन सियासत बड़ी वज़नदार चीज़ है। सपनों की यह कोमल और संवेदनशील दुनिया सियासत के इस भारी बोझ को सह नहीं पाती और भरभरा के ढह जाती है। सत्ता के शातिर सुए संवेदना के महीन तंतुओं से बुने गये इंसानी ख्वाबों को तार-तार कर देते हैं। कथावाचक को अपनी संवेदनशीलता की भारी क़ीमत चुकानी पड़ती है, उसे पाकिस्तान की जेलों की खाक छाननी पड़ती है और मेज़बानों की बड़ी जद्दोजेहद के बाद वह मुक्त होकर वापस भारत आ पाता है। वाचक के पाकिस्तान की जेल में बंद होने की खबर भारत पँहुचती है जिससे चाईजी सदमे में आ जाती और उन्हें अस्पताल में भरती होना पड़ता है। चाईजी को अस्पताल से तो छुटकारा मिल जाता है, परंतु वह इस सदमें से उबर नहीं पाती और स्वजनों की तमाम सेवा-सुश्रुषा और वाचक की तमाम शुभचिताएं उनकी मृत्यु को रोक नहीं पातीं। वाचक के भारत वापसी के बाद पाकिस्तान में सलमा भी अपने शौहर, अपने 'फ्यूडल लॉर्ड’ की क्रूरताओं को सह नहीं पाती और आत्महत्या कर लेती है। सरस्वती नदी और रिनाला खुर्द की तरह चाईजी और सलमा भी अब स्मृतिशेष हैं- ''मेरे और सलमा के बीच पाकिस्तान जाने के लिये चाईजी एक पुल की तरह थीं। पुल के नीचे एक नदी बह रही थी। मुझे लगा सरस्वती और हाकड़ा की तरह इधर नरगिस थी जो उधर जाकर सलमा हो गयी थी। सरहदों के नीचे आज एक और नदी दफन हो गयी थी। पुल भी टूट गया था। अब पता नहीं सरहद से कब किसी नदी के सोते फूटेंगे?’’

उपन्यास की प्रस्तावना में हमारे समय के महत्वपूर्ण और हिंदी के पाठको द्वारा सबसे ज़्यादा पड़े जाने वाले रचनाकर उदय प्रकाश की उपन्यास के बारे की गयी यह टिप्पणी बहुत मानीखेज है कि ''यह छोटा-सा उपन्यास अपने आकार से बड़ी कथा इसलिये भी कहता है, क्योंकि यह विभाजन के दशकों बाद की स्मृतियों का विचलनकारी वृत्तांत है।’’

उपन्यास हमारे समय की एक बड़ी त्रासदी की तरफ इशारा करता है कि भारत और पाकिस्तान समेत पूरी दुनिया के सियासी यथार्थ पर अब ऐसी ताक़तें क़ाबिज़ हो चुकी हैं जो सरहदों से नदियों के सोते फूटते देखना नहीं चाहतीं।         

सलमा ने कहा था कि ''पेड़ से चिपक कर ही रोना। इंसानों के सामने रोने से कोई फायदा नहीं।’’

रिनाला खुर्द उपन्यास के पाठकों के दिल में नीम के पेड़ से लिपट कर रोते कथावाचक की छवि लंबे समय तक बनी रहेगी।

 

 

युवा आलोचक प्रियम अंकित भारत विभाजन केन्द्रित उपन्यासों पर एक गंभीर अध्ययन पहल में प्रकाशित कर चुके हैं। ईशमधु तलवार का नया उपन्यास 'रिनाला खुर्द’ विभाजन की एक मार्मिक कथा है। प्रियम ने उस पर लिखा है। वे अंग्रेजी पढ़ाते हैं, आगरा में रहते हैं।

संपर्क - मो. 9359976161, आगरासंपर्क - मोबाईल न. - 9359976161

 

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