काव्यशास्त्र और कविता पर कविता का संश्लेष

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    अगस्त : 2019
श्रेणी काव्यशास्त्र और कविता पर कविता का संश्लेष
संस्करण अगस्त : 2019
लेखक का नाम शंभु गुप्त





कविता रहस्य/कृष्ण कल्पित

 

नई गीता है/नया धर्मयुद्ध/नया महाभारत/नया काव्यशास्त्र

 

कृष्ण कल्पित के 'कविता-रहस्य’ को हम जब पढऩा शुरू करते हैं, तो अब तक की दुनिया-भर की तमाम साहित्यिक और साहित्यशास्त्रीय प्रथाएँ और परम्पराएँ साथ चलना शुरू हो जाती हैं। शास्त्र हो या कविता ये आगे की ओर चलते हुए ही अच्छे लगते हैं। कृष्ण कल्पित कहते हैं कि आज का समय धृतराष्ट्र की तरह अन्ध-दृष्टि(यों) से भरा पड़ा है, ऐसे समय एक संजय और 'गीता’ की ज़रूरत है! कल्पित एक रूपक खड़ा करते हैं, जैसे गीता में कृष्ण ने कहा था कि 'यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत!’... ठीक वैसे ही कल्पित कहते हैं कि- ''यदा-यदा हि काव्यस्य...!’’ आगे पूरी किताब यह तीव्र अनुगूँज छोड़ती चली है कि- 'ग्लानिर्भवति...’! इस क्रम में उन्होंने लिखा कि- ''यह नई गीता है/ नया धर्मयुद्ध/ नया महाभारत/ यह नया काव्यशास्त्र है!’’                        

समकाल का अंधकार और उसी में से उजाले की किरण की तरह कविता का पैदा होना; यह इस पुस्तक की सबसे प्रिय स्थापना है। इस पुस्तक के सातों अध्यायों में अनगिनत सूत्रों में वे समकाल के इस अँधेरे का ख़ाका खींचते हैं। कई बार असन्तुलन और अतिकथन का शिकार होते हैं। कविता और कामिनी (स्त्री) तथा उसके अवयवों के साम्य-निरूपण की दरबारी और चाटुकार कवियों की परिपाटी की चपेट एक ऐसा ही उदाहरण है, जहाँ पता नहीं, कौन-सी समकालीनता उन्हें मौज़ूद नज़र आती है! स्त्री एक मनुष्य है, उसे इस तरह एक उपमान/अप्रस्तुत की तरह प्रयोग में लाना उसकी अस्मिता की अवहेलना है। यह एक रूढ़ रूपक है, जिसमें उपमेय से ज़्यादा उपमान की तरफ़ ध्यान जाता है! जैसे एक सूत्र में कहा गया है कि- ''कविता-काया-कामिनी/ ज़ोर-ज़बर ना आय/ ऐसे भी चित-चोर हैं/ नज़रों से ले जाय!’’ यहाँ प्रस्तुत से ज़्यादा अप्रस्तुत इतना 'ज़बर’ है कि सारा ध्यान सबसे पहले उसी पर जाता है। लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि कल्पित हमारे यहाँ के परम्परागत काव्यशास्त्र-विवेचन में गहरे व्याप्त यौनिकता को बराबर उभारते चले हैं। भारतीय परम्परा में काव्यशास्त्र-विवेचन भी काव्य की ही तरह आस्वाद्य है। यहाँ काव्यत्व पर्याप्त है; विशेषत: शृंगार रस के संघटन में। जहाँ शृंगार रस है तो वहाँ स्त्री भी है और स्त्री यहाँ प्रमुखत: 'परकीया’ है! स्वकीया भी होगी, लेकिन उसके प्रति रवैया मूलत: परकीया वाला ही है। काव्यशास्त्र-विवेचन में प्रसंग चाहे कुछ भी हो, 'प्रासंगिक’ है, स्त्री-देह और उसका उपभोग/आस्वाद! काव्यशास्त्रकारों और उनके आश्रयदाता सामंतों को स्त्री का यह यौनिकीकरण अत्यन्त प्रिय है; जहाँ मौक़ा मिला है, उन्होंने ऐसा किया है और होने दिया है। 'परकीया’ के मूल में ही सेक्सिज़्म की धारणा निहित है। ...कृष्ण कल्पित परम्परागत भारतीय काव्यशास्त्र के इस यौनिकता पर बराबर निगाह रखे हुए हैं और इसे बार-बार रेखांकित करते हैं। कभी-कभी वे इसकी चपेट में आते हैं और रौ में बह जाते हैं। यह उनकी कमी और कमज़ोरी कही जा सकती है। लेकिन अधिकांश स्थलों पर वे इसकी अनुगूँज/इसके सिद्धांतपरक मन्तव्य को ग्रहण करते हुए आज के विशिष्ट सन्दर्भ में उसे पुनव्र्यख्यायित करते हैं। यह एक भिन्न स्थिति है। यहाँ परम्परा का संग्रहण भी है और उसका पुनरवलोकन भी। संस्कृत से लेकर अवहट्ट और हिन्दी के रीतिकालीन काव्य-सिद्धान्त-निरूपण तक की पूरी परम्परा सेक्सिज़्म से भरी पड़ी है। कल्पित अपनी बात की पृष्ठभूमि के बतौर इस परम्परा का आधार ग्रहण करते हैं और फिर अपने विवेक और समकालीनता की चलनी और कसौटी पर इसे जाँचते हुए इसका पुनराकलन करते हैं। इस पुनराकलन में कई बार पुनरावृत्ति भी होती है तो कई बार उसे उलांघ उसका पुनर्संस्कार भी सामने आता है। 

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शास्त्र-सिद्धान्त-निर्माण की प्रक्रिया, शास्त्र का संशोधन-संवद्र्धन एक निरन्तर गतिशील रहने वाली प्रक्रिया है। इसमें निरन्तर जोडऩा-घटाना जारी रहना चाहिए, इसमें निरन्तर अद्यतन रहने की स्फूर्ति रहनी चाहिए। यह स्फूर्ति स्वत: हो तो और भी अच्छा। इसके लिए ज़रूरी है कि कविता अपनी विषय-वस्तु, संरचना और पहुँच में अद्यतन रहे। समकालीन यथार्थ का अभिज्ञान, यथास्थिति का अस्वीकार और उसे उलांघने वाली अग्रगामी जीवन-दृष्टि का आधान, कविता की अंतर्वस्तु और अभिव्यक्ति-प्रणाली में नवोन्मेष, कथ्य और शिल्प की गहराई, व्यापकता और बहुलता; ये सब चीजें काव्य-सृजन को समकालिक और अद्यतन बनाती हैं। वर्तमानकालिकता किसी भी सृजन की प्राथमिकता होती है। वर्तमानकालिक होना वस्तुत: सार्वकालिक होना है। मोटे तौर पर यही माना जाता है कि वर्तमान समस्त काल-चेतना की मूल धुरी है। अतीत और भविष्य इस के इर्द-गिर्द चक्कर काटते हैं। वर्तमान नवोन्मेषी होगा तो भविष्य की संभावनाएँ आमूलचूल रूप से बदल जाएँगी। कृष्ण कल्पित अपनी विशिष्ट विस्फोटक शैली में इस बात को कुछ इस तरह कहते हैं- ''कविता का क्षेत्र कोई अतिशय-पवित्र क्षेत्र नहीं होता/ यह एक युद्ध-भूमि का नाम है/ जहाँ हर नये कवि को किसी पुराने कवि का वध करना होता है!’’

एक कवि की यह जो साहसिकता है, उसका अनिवार्य और स्वाभाविक सम्बन्ध कवि के स्वयं के आचरण और प्रतिबद्धता से है। कल्पित इस पुस्तक के अन्त में धीरे-धीरे परिपक्वता की ओर बढ़ते हुए एक विस्तृत सूत्र में मुक्तिबोध, ज्यां पॉल सात्र्रेे, मक्सिम गोर्की, कार्ल माक्र्स और लाओ त्से के हवाले से लेखकों से बाक़ायदा यह सवाल उठाते हैं कि 'पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है’/'तय करो, तुम किस ओर हो’। ज्यां पॉल सात्र्रे का यह कथन गहरी तवज्जो की माँग करता है कि- Writing is already a definite political position..’’ यानी जो कुछ भी आप लिख रहे हैं, वह आपके राजनीतिक दृष्टिकोण/स्टेंड का अधिसूचक है। यदि आप लेखन-कर्म से जुड़े हैं, तो 'राजनीति-विहीन’ हो ही नहीं सकते! कृष्ण कल्पित का यह नया काव्यशास्त्र प्रकारान्तर से काव्य-रचना की नैतिकता का निर्माण करता प्रतीत होता है।

एक लेखक के राजनीतिक स्टेंड का उसकी इतिहास-दृष्टि से सहजात सम्बन्ध होता है। ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और वह सिक्का है, समकाल या कि वर्तमान! अपने समक्ष उपस्थित समकालीन जीवन के विभिन्न राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, भौतिक-आधिभौतिक आयाम और उपायाम। ये आयाम और उपायाम  इकहरे नहीं होते। ये काल, वस्तु और विषयी तीनों के संश्लेष का परिणाम होते हैं। इनके संश्लेष की प्रक्रिया बहुत आन्तरिक और गुपचुप तरीके से चलती है; यह केवल तब नमूदार होती है, जब इसकी फ़ सल पककर तैयार हो लेती है! यह एक बेहद जटिल और संश्लिष्ट प्रक्रिया है। इस पूरी प्रक्रिया में वर्तमान के नेतृत्व में इतिहास आगे बढ़ता चलता है। कल्पित अपने एक सूत्र में सही ही यह स्थापना देते हैं- ''सभी अमर कविताएँ इतिहास की कारगुज़ारियों/ वर्तमान की विसंगतियों/ और भविष्य की आशंकाओं के त्रि-पिटक में रहती आती हैं //    //और हर कवि त्रि-लोक का वासी होता है!’’    

वर्तमान का कितना महत्व है, यह इस नए काव्यशास्त्र में लगातार बहस का मुद्दा बना है। हर कवि की यह महत्वाकांक्षा होती है कि वह अपने जीते-जी महत्व पा जाए! इसके लिए वह निरन्तर प्रयत्नशील रहता भी है। लेकिन वर्तमानकालिक कोई यों ही नहीं हो जाता! इसके लिए उक्त प्रक्रिया में उसे दक्ष होना होता है। जो कवि इस प्रक्रिया को जितनी गहराई, विस्तार और अंतरंगता से पहचान पाता है, अपने अभ्यास में उतार पाता है, वह उतना ही 'आज’ का कवि कहलाता है। कल्पित यहाँ 'कालजयी’ सम्बन्धी धारणा का एक नया संस्करण ईज़ाद करने की कोशिश करते हैं। कालजयी दरअसल वह है, जो अपने समकाल में, जितना हो सकता हो, वर्तमानकालिक हो! जो अपने समकाल में लोकप्रसिद्ध न हुआ हो, न हो सका हो, उसका कालजयी होना संदिग्ध ही होता है। कालिदास के उदाहरण से कल्पित यहाँ अपनी बात कहते हैं कि कालिदास कालजयी इसलिए हैं कि वे अपने समकाल के प्रति सन्नद्ध थे, वे 'वर्तमानजयी’ थे- ''कथं वर्तमानकालस्य कवे: कालिदासस्य कृतौ बहुमान: //    //कालिदास स्वयं को 'वर्तमानकाल’ का कवि कहते थे जो अब तक वर्तमान रहते/ आते हैं’’

जो आज का नहीं है, वह कब का है, पता नहीं!

कालजयी सम्बन्धी इस बहस का सबसे खूबसूरत पक्ष यह है कि इसके मूल में संघर्ष, आत्मसंघर्ष, प्रतिरोध, अग्रगामिता, भविष्य-दृष्टि, इतिहास-बोध जैसे तमाम प्रत्यय किसी अंतर्वस्तु की तरह अंतर्निहित हैं। सचमुच की वर्तमानकालिकता लगभग हर दौर में गिने-चुने लोगों में ही पाई जाती है, बाक़ी के लोग तो लगभग लकीर के फ़ कीर बने रहते हैं। कृष्ण कल्पित ने संस्कृत की एक उक्ति से समर्थन से अपने एक सूत्र में एक बहुत ही मार्के की बात यह कही है; ''लौकिकानां हि साधूनामर्थं वागनुवर्तते ऋषीणां पुनराद्यानां वाचमर्थोनुधावति (साधारण साधुओं की वाणी अर्थ का अनुसरण करती है, किन्तु ऋषियों की वाणी का अनुसरण अर्थ करता है!)!’’

नए काव्यशास्त्र की अपनी इस मुहिम में अन्त तक पहुँचते-पहुँचते कल्पित समकालीन हिन्दी-कविता के बारे में एक विस्फोटक अभिमत यह व्यक्त करते हैं कि ''निराला, मुक्तिबोध, शमशेर, त्रिलोचन, नागार्जुन के बाद की समकालीन हिन्दी-कविता अपर्याप्त कविता लक्षित होती है। भाषा, शब्द-सम्पदा, शैली, रूप, कथन, और सौन्दर्य सब में यह अपर्याप्तता नज़र आती है।’’ इस प्रसंग में वे अन्त में अपने अभिमत को इस निष्कर्ष तक पहुँचाते हैं कि ''मुझे लगता है हिन्दी-कविता को एक और निराला की प्रतीक्षा है’’।

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इस पुस्तक में कृष्ण कल्पित की यह धारणा सामने आती है कि काव्य पहले है, काव्य-शास्त्र बाद में। काव्यशास्त्र एक नियमावलि या अनुशासन है, जो हवा में नहीं बनता। इसका आधार या स्रोत काव्य होता है। काव्यशास्त्र दरअसल एक अज़ीब शै है। जिस काव्य-सृजन की उपजीव्यता में यह पैदा होता और फलता-फूलता है, उसी को आगे चलकर बेतरह नियंत्रित करने की चेष्टा करता है। कृष्ण कल्पित हर बार इसका उत्खनन करते देखे जाते हैं; चाहे वह बीते ज़माने की बात हो, या एकदम आज की; वे काव्यशास्त्र को उसकी हद बताने से बित्ता-भर नहीं चूकते। जैसे कि आठवीं शताब्दी में रीति सम्प्रदाय के प्रवर्तक आचार्य वामन ने अपने ग्रन्थ 'काव्यालंकारसूत्रवृत्ति’ में अपनी इस धारणा के आधार पर कि 'कीर्ति स्वर्ग का फल है और अकीर्ति अंधकारमय नरक की दूती’, जब यह कहा कि ''कीर्ति को प्राप्त करने और अकीर्ति के नाश के लिए श्रेष्ठ कवियों को 'काव्यालंकारसूत्रवृत्ति:’ को हृदयंगम करना चाहिए’’ तो तपाक् से वे यह कहना नहीं चूकते कि सुकवियों को ऐसा करना ज़रूरी नहीं है, अलबत्ता जो कुकवि हैं, उन्हें तो यह ज़रूर से ज़रूर ही हृदयंगम करना चाहिए- ''सुकवि पढ़ें या न पढ़ें/ कूकवि पढ़ें ज़रूर/ नए काव्य का शास्त्र है/ समय बहुत ही क्रूर!’’                            

कल्पित अनगिनत बार 'सुकवि’ और 'कुकवि’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते दिखाई देते हैं, जैसे ये कोई मुहावरे हों, या किसी टकसाल में ढले सिक्के; और उन्हें समकालीनता के घेरे में भी बाँध रखते हैं! कई बार कुकवियों की वे ऐसी ख़बर लेते हैं कि मानो आज की कविता की मुख्यधारा पर उन्होंने क़ब्ज़ा कर लिया हो और बस अब 'समकालीन’ कविता की इतिश्री होने ही वाली हो! एक सूत्र में तो वे यहाँ तक कह देते हैं कि मुक्तिबोध की 'अँधेरे में’ का प्रोसेशन याद आने लगता है- ''पाँच-सात अपवाद के बाद समकालीन हिन्दी-कविता बहुत सारे खराब कवियों-/ कांवडिय़ों का एक विशाल जुलूस है, जो डोमाजी उस्ताद के नेतृत्व में जयपुर,/ दिल्ली, भोपाल, इलाहाबाद, लखनऊ, बनारस, पटना होते हुए धीरे-धीरे/ वैद्यनाथ-धाम की ओर बढ़ रहा है’’।

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यह ठीक है कि नया काव्यशास्त्र लिखना कोई हँसी-मज़ाक़ नहीं, लेकिन काव्यशास्त्र लिखना आज की एक बहुत बड़ी आवश्यकता है। चारों ओर जैसे एक अराजकता, अनैतिकता, अननुशासन, उपरामता, अप्रतिबद्धता का माहौल अन्तव्र्याप्त है! इस माहौल को यथोचित दिशा देने, एक अंतर्दृष्टिपूर्ण प्रतिबद्ध सृजनशीलता की अहमियत की स्थापना के लिए एक नया कव्यशास्त्र लिखा जाना ज़रूरी है; कल्पित को लगा कि इस मामले में उसे कुछ करना चाहिए- ''भटक रहा था सुबकता/ बच्चा कोई अनाथ/ काव्यशास्त्र को मिल गया/ कल्पितजी का साथ!’’                          

लेकिन काव्यशास्त्र लिखने का यह काम शुरुआत में जितना मज़ेदार प्रतीत होता है, धीरे-धीरे बहुत कष्टसाध्य और दुरूह होता चलता है। कल्पित ने इस किताब के कई सूत्रों में कई तरीके से इसकी दुरूहता और कष्टसाध्यता का उल्लेख किया है। जैसे एक जगह वे कहते हैं कि ''(काव्य) शास्त्र भूतों का डेरा/खाला का घर नाय!’’, या एक ''बीहड़-बन’’ है, जिसमें मैं गुम गया हूँ , एक और जगह कहते हैं कि ''काव्यशास्त्र के मायने/कल्पित कवि की मौत/देह झुलसती आग में/दिल पर चले करौत!’’ यहाँ तक कि एक जगह तो वे यह तक लिख जाते हैं कि इस मरदूद काव्यशास्त्र ने तो मुझे अधमरा ही कर दिया है, कविता ने जितना मुझे जीवित रखा, यह उतना ही मुझे मारे दे रहा है! लेकिन वाबजूद इस सबके कल्पित नहीं माने तो नहीं ही माने! बोले कि आधा तो मर ही चुका हूँ, अब भलाई इसी में है कि पूरा का पूरा ही मर लिया जाए! पूरा मर लेना ही अब मुक्ति का रास्ता है- ''आधा मृत मृत से बुरा/मुझको पूरा मार!’’ जहाँ तक 'मरने’ की बात है, तो यह मरना ठीक वैसा है, जैसे बिहारी के एक दोहे में 'डूबना’ ही पार उतरना है और ख़ुद कल्पित के एक सूत्र में मर जाना ही जीवित रह जाना है।      

काव्यशास्त्र लिखना तो बहुत दूर की बात; काव्यशास्त्र से जुड़ी सामग्री, किताबों, लेखों इत्यादि को पढ़ पाना और समझ पाना भी एक अतिरिक्त सामथ्र्य और रुचि का मामला होता है। भाषा, व्याकरण, तकनीक, प्रविधि, तात्विकता और न जाने कौन-कौन-सी शुष्क चीजों से लगातार दो-चार होना पड़ता है। कल्पित की ही इस किताब में भारतीय, पश्चिम एशियाई तथा यूरोपीय कुछ साहित्यशस्त्रीय परम्पराओं को लिया गया है, तो पढ़ते-पढ़ते ही हलक़ सूखने लगता है, चीजें सिर के ऊपर से निकलने लगती हैं। जब पढऩे में ही यह हाल है तो नए ज़माने के हिसाब से इसका पुनर्लेखन करना कितना नागवार गुज़रा होगा! निश्चय ही कृष्ण कल्पित ऐसा कर पाए तो कुछ तो इसलिए कि संस्कृत की उनकी नींव बहुत मजबूत थी। उन्हें संस्कृत साहित्य, भाषा और काव्यशास्त्रीय परम्परा का बहुत ही गहरा और व्यापक ज्ञान है। जिसे 'घोंटकर पीना’ कहा जाता है, लगभग वही स्थिति है। यही स्थिति उनके अरबी, फ़ारसी और उर्दू के साहित्य, भाषा, काव्यशास्त्र के ज्ञान की है। पाश्चात्य साहित्य-शास्त्र की भी एकदम पक्की जानकारी, गहरी पैठ उनकी है। और सबसे महत्वपूर्ण बात, समकालीन हिन्दी कविता के सन्दर्भ में, उसे, सबसे ज़्यादा प्रभावित करती आती दुनिया की इन तीनों सर्वप्रमुख काव्यशास्त्रीय परम्पराओं का संश्लेषण। जहाँ-जहाँ ये परस्पर टकराती हैं, परस्पर वैपरीत्य में हैं; हाथ के हाथ उसका भी रेखांकन। यह जैसे कोई पुस्तक नहीं, एक-दूसरे से घुलती-मिलती, टकराती, कभी अपना-अपना अलग और कभी सम्मिलित रास्ता बनाती तीन बारहमासी नदियों का अनवरत आगे बढ़ता संगम हो, जिसके सम्मोहन से बचना लगभग नामुमकिन हो! यह जैसे एक चक्रव्यूह है, जिसे भेदकर भीतर घुसना जितना कठिन है, उससे ज़्यादा कठिन उसे तरतीब से क़ाबू करते हुए बाहर निकल आना है! यह इतनी ख़तरनाक किताब है कि थोड़ा-सा चूके और अकबकाहट के अलावा कुछ हाथ नहीं आएगा! मुझे पक्के तौर पर यह लगता है कि जितना धैर्य, इत्मीनान और तद्वत्ता इसके रचयिता ने इसे लिखते समय बरती होगी; उससे कई गुना ज़्यादा धैर्य और तसल्ली से, पढऩे वाले को इसे पढऩा होता है; ऐसा नहीं होगा तो सिर के ऊपर से सर्र-से यह निकल जाएगी और पता भी न चलेगा! इसमें बहुत-सारी कमियाँ, कमज़ोरियाँ, अंतर्विरोध बाक़ायदा हैं; जैसे कि उत्तर-आधुनिकता के बारे में बहुत चलताऊ और सुनी-सुनाई बातें कह दी गई हैं, पौर्वात्य और पाश्चात्य परम्पराओं को बड़े रेटरिक, नोस्टेल्जिया और रोमान भरे अंदाज़ में पेश किया गया है, पाठ की स्वायत्तता और लेखक के व्यक्तित्व के बारे में परस्पर विरोधी बातें कही गई हैं, लेखक के व्यक्तित्व को थोड़ा ग्लैमराइज़ भी किया गया है; आदि-आदि। शायद लेखक इन पर फिर कभी पुनर्विचार करे। 

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कल्पित ने इस पुस्तक के 'पुरोवाक्’ के अन्त में लिखा है कि ''यदि किसी को 'कविता-रहस्य’ को शास्त्र मानने में कोई ऐतराज़ हो तो वह इस कृति को कविता के बारे में एक सुदीर्घ कविता मानकर पढ़ सकता है।’’ शास्त्र से परहेज़ होने के कारण कुछ लोगों को यह पद-निबन्धन ज़्यादा मुफ़ीद लग सकता है। हिन्दी में कुछ समय से कविता पर कविता लिखना भी एक काव्य-वस्तु बनी हुई है। प्रकारान्तर से 'कविता पर कविता’ काव्यशास्त्र का ही एक प्रभाग है। चाहें तो इसे काव्यशास्त्र का एक नया संस्करण भी कह सकते हैं।

लेकिन 'कविता पर कविता’ मोटे तौर पर अनुशासनात्मक के स्थान पर आलोचनात्मक और प्रतिक्रियामूलक ही ज़्यादा रही हैं। यह लिखी गई कविता की छवि निर्मित करती है, जो प्रकारान्तर से उस पर एक आलोचनात्मक टिप्पणी जैसी ही होती है। इस सम्बन्ध में संजय चतुर्वेदी की कविताएँ याद आती हैं जो 'पहल’ तथा दूसरी पत्रिकाओं में छपी थीं। इनमें 'कविता के बदलते स्रोत’ सबसे ज़्यादा मारक थी। इस कविता में 'सखी सरोवर’, उसमें फैली 'जलकुंभी’, इस जलकुंभी के 'छोटे बड़े धोखे’, 'सखियों के फैलते विष’ जैसे रूपक हैं। यहाँ एक 'सखी-वर्ग’ है, उसके बीच चलता 'सखावाद’ है, जो न जाने किस-किस यादृच्छिक आधार पर अधिकांश पुरस्कारों, सम्मानों, फैलोशिप, विदेश-यात्रा, अध्यक्षता, रिसोर्स पर्सन, बीज वक्ता इत्यादि का निर्णय/निर्धारण करता है! लगभग पन्द्रह साल पहले संजय चतुर्वेदी ने ये कविताएँ लिखी थीं। हिन्दी में ऐसी कविताओं का अरसे से अकाल-सा चल रहा था, कृष्ण कल्पित ने बड़े पैमाने पर आज इस अभाव की पूर्ति की है। कल्पित की निगाह में कई बड़े कवि भी हैं। कल्पित की विशेषता है कि वे किसी भी कथित 'बड़े’ आदमी की दबास में नहीं आते। जो उन्हें करना होता है, करते हैं; जो जिस तरह से जिसे कहना होता है, बेहिचक और बेखौफ़  कह देते हैं। औपचारिकता, दुनियादारी और देखा-देखी की राह से उन्हें दुश्मनी है। हिन्दी की बहुत-सारी समकालीन कविता के बारे में उनकी सामान्य टिप्पणियाँ पीछे हमने देखीं। यह अतिकथन नहीं है, पर कटु सच्चाई है कि कृष्ण कल्पित जैसे लोग आज बहुत मुश्किल से मिलते हैं जो यह कह सकें कि- ''काव्य-नगर में बस गए/ नाट बाज़ीगर भांड/ जिसमें रहते थे कभी/ कवि महाकवि प्रकाण्ड!’’ ऐसा वे किसी आवेश या प्रतिक्रियावाद के तहत नहीं तर्क के साथ ही कहते हैं। हिन्दी-कविता एक ग़ायब-कला है, अपनी ही तलाश में भटकती एक खोई हुई आवाज़ है, जो अपनी ही जड़ों से कट गई है! वे कहते हैं कि यह एक ''कविता-विहीन समय’’ है, एक ऐसा ''दरिद्र दौर’’; जिसमें ''मसखरे, विट, प्लवक, शौभिक, भांड, जम्भक, हलकट, मवाली, नर्तक, गायक इत्यादि कवि के रूप में मशहूर हो जाते हैं’’। निराला की प्रतीक्षा इसीलिए उन्हें हैं। 

मेरा ख़याल है कि कृष्ण कल्पित को इस पुस्तक को लिखने का जो विचार जँचा, इसे चुनौती की तरह लिया, तो इसके पीछे शायद यही मंशा उनकी थी कि उन कारणों को तलाशा जाए, जो हिन्दी-कविता की ऐसी दुर्गति के लिए उत्तरदायी हैं? काव्यशास्त्र की विश्वव्यापी परम्परा इसमें शानदार और आधारभूत रूप से मददगार साबित होगी! पार्थ और सार्त्र की यह जुगल-बन्दी और द्वन्द्वात्मक परस्परानुकूलता- ''ये पूरबिया पार्थ है/तुम पश्चिम के सात्र्र!’’- इस पूरी परियोजना की केन्द्रीय धुरी है- ''फिर आऊँगा करूँगा/ पूर्ण अधूरा शास्त्र/ पार्थ यहीं पर ठहरना/ तुम भी रुकना सात्र्र!’’

'काव्य की ग्लानि’ समकाल की सबसे बड़ी समस्या है। काव्य की ग्लानि असल में अकेले काव्य की ग्लानि नहीं है, वह काव्य में निहित जीवन-दृष्टि, विषय-वस्तु, भाषा और शिल्प की भी ग्लानि है, अत: समस्या गम्भीर और बहुआयामी है। 'काव्य-धर्म’ की स्थापना कैसे हो; समकालीनता के सन्दर्भ में इस पर विस्तृत विचार पीछे किया गया। कुकाव्य और कुकवियों का कैसा आलम आज छाया है, इसकी इससे अच्छी शिनाख्त और क्या होगी कि 'डोमाजी उस्ताद’ आज नेतृत्व में है! आज से साठ साल पहले मुक्तिबोध की 'अँधेरे में’ के जुलूस में जो डोमाजी उस्ताद औरों की तरह अपने में उपस्थित था, कल्पित के 'कविता-रहस्य’ तक आते-आते अब वह 'बहुत सारे खराब कवियों-कांवडिय़ों’ के 'एक विशाल जुलूस’ का 'नेतृत्व’ कर रहा है!

पता नहीं, यह निर्वचन कहाँ तक उपयुक्त है और यह आकलन कितना उचित कि इसका पूरा ठीकरा आलोचना के सिर फोड़ा गया है! और, आलोचना भी कौन-सी? नामवारीय आलोचना! पहले तो एक सूत्र में कल्पित ने इस कथित मौखिक आलोचना के बारे में यह कहा कि- ''नामवरों की बात में/ बात बात में बात/ कोई तो आख़िर कहे/ कहने लायक बात!’’ इसके बाद एक और सूत्र में तो सीधे-सीधे ही यह कह ही तो दिया- ''उनके बोलने पर मत जाइए/ नामवर सिंह कविता-मर्मज्ञ हैं/ जिन्होंने पिछले पचास वर्षों से आर्यावर्त में आलोचना का तम्बू तान रखा है//   //यह नामवर का ही कमाल है कि पिछली आधी-शताब्दी से हिन्दी-कविता हिन्दी-/ आलोचना की अनुगामिनी बनी हुई है/ नामवर सिंह के बाद हिन्दी-कविता को किसी पूरे आलोचक की प्रतीक्षा है//   //आलोचक के मातहत/ कवि कहानीकार/ सजा हुआ है आइये/ हिन्दी का दरबार!’’                                                     

जब यह किताब छपकर आई और नामवरजी की निगाह इस पर पड़ी तो डीडी-1 के पुस्तक-चर्चा वाले अपने लोकप्रिय धारावाहिक स्तम्भ में एक उल्लेखनीय किताब के रूप में विधिवत इसकी चर्चा उन्होंने की। अपने वक्तव्य में उन्होंने कहा कि- ''कृष्ण कल्पित ने 'कविता-रहस्य’ लिखकर कमाल का काम किया है। इस नये काव्यशास्त्र में कल्पित ने न केवल पुराने को नया किया है बल्कि कविता के बारे में कुछ नई और मौलिक अवधारणाएँ भी प्रस्तुत की हैं। गद्य-पद्य में लिखा गया यह नया काव्यशास्त्र भारतीय पाण्डित्य परम्परा की नई कड़ी है।’’ [कृष्ण कल्पित द्वारा प्रेषित मोबाइल के मैसेन्जर पर भेजे गए सन्देश से]।

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कृष्ण कल्पित वास्तविकता की पकड़ में बहुत माहिर हैं। जितना कसकर चीजों को वे पकड़ते हैं, उससे लगभग दुगनी बेमुरव्वती के साथ उन पर, उनके इस तरह होने/रहने पर प्रहार करते हैं। सब जानते हैं कि पिछले कई दशकों से हिन्दी आलोचना की क्या स्थिति रही है। आलोचना पर हर दूसरा कवि अपना गुस्सा निकालता रहा है। लेकिन जिस चलताऊ और सुविधावादी तरीके से आलोचना पर तंज़ उन्होंने कसे हैं, वे भारी सरलीकरण और देखा-देखीपन के शिकार हैं। कल्पित पिन-प्वाइंट तरीके से आलोचना को लक्ष्य करते हैं- ''जो आलोचना से आहत न हो/ उसे प्रशंसा से मार दो!’’ यह इस पुस्तक का पहला ही सूत्र है और इसमें आलोचना की चिन्ता की गई है! कविता की समकालिकता के समानान्तर कल्पित आलोचना की समकालिकता अथच समकालीन आलोचना पर भी पैनी नज़र बनाए रखे हैं। काव्य की ग्लानि के साथ-साथ आलोचना की ग्लानि इस पुस्तक का मुख्य कन्सर्न है। यों, कल्पित कहते हैं कि ''यदि आलोचना कविता की राख है तो/कविता आलोचना की ख़ाक है!’’; जिसमें आलोचना के प्रति यत्किंच उनका भेद-भाव व्यंजित होता है; किन्तु इस तरह की पहेली बुझाने में उन्हें कभी-कभी बड़ा सुख मिलता है! यह एक शग़ल है, जिसकी कभी-कभी उन्हें सनक चढ़ती है। एक जगह वे कवियों को पक्षी और आलोचकों को उनका शिकार करने वाले बहेलिये तक कह देते हैं, लेकिन हक़ीक़त यह है कि वे यह मानते हैं और एकदम सही मानते हैं कि ''लेकिन यह पत्थर की लकीर है कि/ आलोचना कविता का जीवन है!’’ कवि और भावक को वे एक सिक्के के दो पहलू-जैसा मानते हैं; जैसे कविता कोई दो समानान्तर तारों वाला वाद्य हो- ''कवि बिन भावक कुछ नहीं/ भावक बिन कविराज/ कविता जिसका नाम है/ दो तारों का साज़!’’ इसमें पेंच मगर यह है कि आलोचना तभी है, जब कविता है; यानी पहले कविता, फिर उसकी आलोचना! काव्य के बिना शास्त्र की कल्पना भी नहीं की जा सकती; यह ठीक वैसा है, जैसे बिना बीज डाले खेत को सींचते रहना! इस रूपक का एक अर्थ यह भी है कि आलोचना के बीज स्वयं काव्य-रचना में अंतर्निहित होते हैं।

...पिछले पचास साल से हिन्दी में आलोचना का तम्बू तना था, हिन्दी-कविता आलोचना की अनुगामिनी बनी हुई थी, सारे कवि और कहानीकार (कुछ को छोड़कर) आलोचक के मातहत सक्रिय थे, एक तरह से दरबार ही लगा था... क्या यह आलोचना फ़ र्ज़ी थी? क्या यह सि$र्फ एक 'खेमा’ था, जिसमें एक दरबार लगा था? क्या यह वह आलोचना नहीं थी, जो तेल के दीपक और मणि-प्रदीप का निर्णय करने में अक्षम थी? इस आलोचना द्वारा अनचीन्हे रहे आए बाबा नागार्जुन फिर भी मणि-प्रदीप बनकर कैसे उभरे? यानी कि कहीं कुछ बहुत-बड़ी गड़बड़ थी; आलोचना के नाम पर निन्दा और झूठी प्रशंसा का एक ऐसा खेल जारी था, जो कुकवि ही पैदा कर रहा था- ''जो एकाध आलोचक/ निन्दक दिखाई पड़ते हैं/ लगता है उनकी कु-कवियों से रज़ामंदी हो चुकी है!’’ पिछले दिनों कुछ ऐसा सिलसिला चला कि तर्काधार ग़ायब हो गए; सिर्फ पैरोड़ी की तरह निन्दा और स्तुति क़ायम रह गई! कल्पित ने इस पुस्तक की शुरुआत आलोचना की दुर्दशा से की थी और समापन के आसपास फिर उसी बिन्दु को लक्ष्य किया!

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सत्ता के साथ रचना/रचनाकार का सम्बन्ध इस पुस्तक में कल्पित का एक बड़ा मुद्दा है। वे सत्ता-व्यवस्था के रवैये के साथ-साथ लेखकों के रुख़ और आचरण की भी ख़बर लेते हैं। यह ताली दोनों हाथों से बजती है, हालाँकि सत्ता हमेशा यह चाहती होती है कि परिदृश्य में केवल वह रहे! उसके यहाँ स्पेस है, लेकिन तभी तक जब तक उसकी खैरख्वाही और जी-हुज़ूरी में कोई 'गुस्ताखी’ दर-पेश न हो! कवि गंग का उदाहरण प्रमाण है। एक बार वे ऐसा कर बैठे जिसका परिणाम यह हुआ कि उन्हें हथियों से चिरवा दिया गया! 

सत्ता की आलोचना करने और उसकी जघन्यतम सज़ा पाने वाले मंसूर अल हल्लाज और सरमद फ़ क़ीर के उल्लेख भी इस किताब में आए हैं। अपने उसूलों के लिए अपनी जान पर खेल जाना एक मानवीय प्रकल्प है। कविता की दुनिया ऐसे ही मानवीय प्रकल्पों से आबाद होती है। कल्पित उर्दू शायर शाद अज़ीमाबादी की इस बात की साफ़  तनकीद करते हैं कि इन्सान का मशहूर होना ख़ुदा की देन है! दरअसल यह हम ही हैं जो डरते हैं और इसी डर के मारे गुमनाम रह जाना बेहतर समझते हैं- ''मुझे गुमनाम रहने दो कि मैं गुमनाम ही अच्छा / किसे लगता है अच्छा सरमद-ओ-मंसूर हो जाना!’’ गुमनाम रह जाना; और वह भी सि$र्फ इसलिए कि हम बचे रहें; इससे शर्मनाक बात भला और क्या होगी! कविता की दुनिया ऐसे लोगों के लिए नहीं है। आज के कवि/शास्त्रकार को इसकी क्या ज़रूरत पड़ गई कि मंसूर, सरमद, कबीर, नज़ीर, मीरां, कुंभनदास, बेदिल अज़ीमाबादी, मुक्तिबोध आदि को उसे बार-बार याद करना पड़ रहा है! उसे क्यों 'जोगी ध्यावै परम-पद’ की 'रीत’ लोगों को याद दिलानी पड़ रही है? ऐसा इस रीत में क्या है? इस रीत में है- ''अन्यायी के सामने/ झुके नहीं ये माथ/ तरफ तुम्हारी आ रहा/ बाबा गोरखनाथ!’’ लेकिन इस रीत पर चलना इतना आसान नहीं! इसके लिए ज़रूरी है, वीत-राग होना और वीत-राग होने के लिए ज़रूरी है, अपने लालच, लोभ, लिप्सा पर नियन्त्रण, इनका परित्याग और धैर्य, तटस्थता, निर्लोभ, अपरिग्रह इत्यादि का संधारण। आज जो उत्तर-आधुनिक, उत्तर-पूंजीवादी, नव-औपनिवेशिक, नव-साम्राज्यवादी वैश्विक संक्रमण सारी दुनिया पर तारी है वह एक सामूहिक परिघटना है। एक पूरा परिदृश्य है, जो रचना और आलोचना को जनोन्मुखता के रास्ते से विपथित कर सत्ता के साथ समायोजन के रास्ते पर ले आने के मक़सद से तैयार किया गया है। इस व्यूह को कैसे भेदा जाए? इसे भेदने की कुंजी निराला, कबीर, मीर, नज़ीर, मुक्तिबोध आदि में मिल सकती है- ''मैं कवि हूँ पाया है प्रकाश’’।

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इस पुस्तक में कवि के व्यक्ति/व्यक्तित्व और उसकी रचना के अंतर्संबंधों पर अनेकश: विचार किया गया है। राजशेखर के इस हवाले से कि ''स यत्स्वभाव: कविस्तदनुरूपं काव्यम्’’, कल्पित कहते हैं- ''काव्य में शब्दों के साथ-साथ कवि-व्यक्तित्व भी विन्यस्त/पैबस्त हो जाता है।’’ हालाँकि अन्यत्र वे इस अभिमत का एक विकल्प भी देते हैं कि हमें तो कविता से मतलब है, कविता निर्दोष होनी चाहिए; कवि चाहे दुर्गुणों की खान हो- ''कवि में चाहे नुक्स हो/ कविता हो बेदाग़’’। इन दोनों अभिमतों में पहला अभिमत अपेक्षाकृत ज़्यादा वैज्ञानिक प्रतीत होता है। ज़्यादातर लेखक इसी पैमाने पर कसे जाते हैं। यह 'लेखक की ईमानदारी’ से जुड़ा मसला है। 'राग-विराग’, 'योगी-भोगी’ शब्द-युग्म सुनने में भले लगते हैं, पर इनके निहितार्थ गड़बड़ हैं। मुक्तिबोध को कल्पित को यहाँ लाना था! क्या यह सम्भव है कि एक व्यक्ति, जो घोर बेईमान, अवसरवादी, लम्पट, मुसाहिबी से भरा, जातिवादी, तत्ववादी इत्यादि-इत्यादि है; वह अपनी कविता में घनघोर रूप से उदारता, ईमानदारी, मूल्य-निष्ठा, निष्पक्षता, न्याय-प्रियता इत्यादि-इत्यादि की कलात्मक स्थापना करता दिखाई दे? ऐसा किया जाना सम्भव है, बशर्ते कि आदमी हद दर्ज़े का हिप्पोक्रेट हो। भाषणों में ऐसा चल सकता है, कविता में नहीं। 

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कल्पित की यह किताब जितना काव्यशास्त्र है, उससे ज़्यादा, समकालीन कविता पर एक धारा-प्रवाह कविता। यह किताब काव्यशास्त्र और कविता पर कविता का संश्लेष (सिंथेसिस) है। दरअसल इसी संश्लेष ने इस किताब को एक रेयर कृति बना दिया है। कई हज़ार साल के काव्यशास्त्र को समकालीनता की कसौटी पर कसने से यह नया काव्यशास्त्र है। वाल्मीकि से लगाकर देरीदा और फूको तक, समूचे पूरब और पश्चिम को समेटता यह लम्बा काव्य-निर्णय है। इसमें भर्तृहरि और मुक्तिबोध की कमी खलती है। ये दोनों भी होते तो कुछ कमियाँ दूर हो लेतीं। कल्पित ने इसे काव्यशास्त्र के साथ-साथ कविता के बारे में एक 'सुदीर्घ कविता’ नाम दिया है, लेकिन मेरा विचार है कि यह कविता पर कविता के एक धारावाहिक/सीरियल की तरह है, जो कई-कई उपधाराओं में फूटता नदी के बेसिन का रूप लेता चलता है। पुस्तक का अन्तिम सूत्र इस बात की तसदीक़ करता है कि काव्यशास्त्रकारिता एक जगह आकर चुक जाती है, लेकिन काव्यकारिता का काम ऐसा है, जो कभी रुकने का नाम नहीं लेता- ''कवियों का कार्य कभी समाप्त नहीं होता’’। 

 

संपर्क- 21,  सुभाष नगर,  एनईबी ,  अग्रसेन सर्किल के पास,  अलवर (राजस्थान)

फ़ोन : 9414789779 , 8600552663 ,  ;  ई-मेल - shambhugupt@gmail.com

 

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