अग्रगामी बुद्धि व बेकार, बुज़दिल प्रगति बाधक अज्ञान के बीच गंभीर संघर्ष

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    अगस्त : 2019
श्रेणी अग्रगामी बुद्धि व बेकार, बुज़दिल प्रगति बाधक अज्ञान के बीच गंभीर संघर्ष
संस्करण अगस्त : 2019
लेखक का नाम बी बी उपाध्याय





पहल विशेष

मूल्यांकन

 

 

 

उदारवाद, परिवर्तन और ''द इकोनोमिस्ट’’ के 175 वर्ष

 

लंदन से प्रकाशित साप्ताहिक द इकोनोमिस्ट ने सितंबर 2018 में 175 वर्ष पूरे किए। किसी पत्रिका के लिए इस लंबी अवधि के परिवर्तन से अक्षुण्ण रह प्रकाशित होना महत्वपूर्ण उपलब्धि है। इस पत्रिका के 15-21 सितंबर 2018 के मुद्रित अंक में प्रकाशित लेख ''द इकोनोमिस्ट ऐट 175’’ (हिंदी अनुवाद : द इकोनोमिस्ट के 175 वर्ष) के केन्द्र में अतीत व भविष्य के वैश्विक परिवर्तन की चिताएं हैं। वैसे तो इस पत्रिका के कलेवर में समयानुसार अनेक अभीष्ट परिवर्तन हुए हैं लेकिन इस पत्रिका के अभ्युदय का उदारवादी/सर्वस्रोतवादी (लिबरलिज्म/इक्लेक्टिसिज्म) दर्शन कमोबेश अप्रभावित रहा। परिवर्तन अपरिवर्तनीय स्थिति है जिससे मुक्ति संभव नहीं है। परिवर्तन यथास्थिति को विछिन्न कर अनेक संशयों/दुविधाओं  का जनक होता है। परिवर्तन के प्रभाव की समझ हेतु ब्रिटिश हास्य/व्यंग्यकार स्टीफन फ्राई के समलैंगिकता पर केंद्रित व्यंग्य को उद्धृत करना अभीष्ट होगा। ब्रिटेन में समलैंगिक होना कभी दंडनीय अपराध होता था। वहां जिस दिन इसे विधिक स्वीकार्यता मिली वहां का एक नागरिक ब्रिटेन से पलायन की घोषणा कर देता है। उसके दोस्तों व फ्राई के बार-बार आग्रह पर उसके पलायन के निहितार्थ स्पष्ट होते हैं कि भविष्य में ब्रिटेन में समलैंगिकता अनिवार्य न कर दी जाये। भविष्य व उसके परिवर्तन से जुड़ी दुश्चिंताएं साहिर लुधियानवी के इन शब्दों में अभीष्ट अभिव्यक्ति पाती हैं: गुजस्ता जंग में पैकर जले मगर इस बार अजब नहीं वे परछाइयाँ भी जल जायें।

ऐसी चिंताओं को समेटे ''द इकोनॉमिस्ट के 175 वर्ष’’ लेख में इस पत्रिका के मुख्य सरोकारों का अतीत से वर्तमान तक का विहंगावलोकन किया गया है तो भविष्य में संभावित परिवर्तनों की चिंताओं का अवगाहन भी किया गया है। इस लेख से पूर्व अगस्त-सितंबर 2018 के इस पत्रिका के अंकों में उन बौद्धिकों के सिद्धांतों  का संक्षिप्त विवरण दिया गया जिन्होंने इस पत्रिका की उदारवादी नीति को किसी न किसी रूप में प्रभावित किया। विगत 30 वर्षों में उदारवादियों की छवि उनकी नीतियों के चलते सन् 2008 में घटित बाजारी क्रैश से धूमिल हुई। पुरोगामी बौद्धिकों के विचार अभी भी प्रासंगिक हैं और हम पाते हैं कि उदारवाद ही व्यावहारिक/साध्य है। जान मेनार्ड कीन्स आजीवन उदारवादी संस्कृति के हिमायती रहे तथा आर्थिक ह्रास से जनित सामाजिक बर्बादी की रोक हेतु मंदी के दौर में राज्य-हस्तक्षेप के पैरोकार थे। वाम व दक्षिणपंथ की सोच कि कल्याणतंत्र (वेलफेयर-स्टेट) समाजवादी सृजन है के विपरीत यह उदारवादी सृजन है ताकि व्यक्ति अपनी पूर्ण क्षमता के विकास हेतु स्वतंत्र हो।

व्यवहारिकता के कारण उदारवाद का फलक बहुत विस्तृत है। इसमें ''बहुमत की निरंकुशता’’ (टिरेनी आफ दि मेजारिटी) के विरोधी जान स्टुअर्ट मिल हैं जिन्हें उदारवाद का पिता कहा जाता है। फ्रांस के विषण्ण उदारवादी विचारक आलेक्सी द टाक्विल हैं जिनकी चिंता थी कि प्रजातंत्र और स्वतंत्रता का सामंजस्य नहीं हो सकता। आस्ट्रिया के निर्वासित शूम्पीटर, कार्ल पोपर तथा फ्रेडरिक ह्येक हैं जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता हेतु 20 वीं सदी के सर्वसत्तावाद के धुर विरोधी थे। इंटरनेट के विकेंद्रीकरण हेतु ये तीनों ही सक्रिय होते। युद्धोतर उदारवादी इसाइया 'बर्लिन, जान राल्स तथा राबर्ट नोजिक’ हैं जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सोद्देश्यता को स्थापित बनने में संघर्षशील रहे। बर्लिन का मानना था कि अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के चलते उन्हें तर्क या वार्ता हेतु मंच न प्रदान करना (नो प्लेटफार्म) उनकी अभिव्यक्ति की आजादी की कीमत पर होगा। अनुदार प्रगति के दूत रूसो, माक्र्स तथा नीत्से हैं जिनका क्रमश: मैक्सीमिलियन राब्सपियरे, जोसेफ़  स्टालिन व माओ जेदांग, तथा अडोल्फ हिटलर द्वारा भयावह परिणति हेतु आह्वान किया गया।

वर्तमान उदारवादियों को आज का समय ज्यादा कठिन व चुनौतीपूर्ण लग सकता है लेकिन इन्हें अपने अग्रदूतों से सीख लेना पड़ेगी। मिल व टाक्विल को युद्ध व क्रांतियों से  नसीहत मिली तो कीन्स, बर्लिन, पापर व आस्ट्रियाई विचारकों को सर्वसत्तावाद से जूझना पड़ा वे अगर आज उपस्थित होते तो इन चुनौतियों के टालने के बजाय अपनी कमर कसते और दुनिया को सुन्दर बनाने में जुट जाते। लेकिन द इकोनोमिस्ट इन्हें देवतुल्य नहीं बनाता है। टाक्विल ही का लें जो रेड इंडियन के अमेरिकी नरसंहार की तो कड़ी निन्दा करते हैं लेकिन फ्रांसीसियों के अल्जीरियाई नरसंहार के उचित मानते हैं। जेम्स मिल ब्रिटिश प्रजातान्त्रिक स्वतंत्रता हेतु भारत को अयोग्य मानते हैं। द इकोनॉमिस्ट ने अपने संस्थापक विल्सन की नीतियों से भी विचलन किया है।

21 वीं सदी हेतु उदारवाद का पुर्नआविष्कार

द इकोनॉमिस्ट की शुरुआत ''मुक्त व्यापार, मुक्त बाजार व सीमित सरकार’’ जैसी उदारवादी सोच के समर्थन में स्काटिश व्यापारी जेम्स विल्सन द्वारा सन् 1843 में की गयी। आज उदारवाद आर्थिक, राजनैतिक व नैतिक घटकों को समेटे विस्तीर्ण मत/वाद हो चुका है जिन्हें भिन्न प्रतिपादक भिन्न महत्व देते हैं। इनका विस्तृत फलक गलतफहमी पैदा करता है। अमेरिकी, उदारवाद को वाम-पक्षीय तानाशाही राज्य से जोड़ते हैं तो फ्रांसीसी, इसमें मुक्त बाजारी कट्टरवाद देखते हैं। जिस भी रुप में देखें उदारवाद आक्रमित है। ऐसे लोगों के वर्चस्व से जिन्हें उनके निंदक बिना किसी हठ के उदारवादी अभिजात कहते हैं यह आक्षेप जन्मा है। विश्व व्यापार का भूमंडलीकरण; विस्थापन की ऐतिहासिक उच्च दर; और अमेरिका की तत्पर साम्राज्यात्मक शक्ति के उपयोग पर आधारिक उदारवादी वैश्विक व्यवस्था जैसे बदलाव अभिजात वर्ग के प्रयास से उत्पन्न व संपोषित हुए। इन सब उपलब्धियों को अभिजात वर्ग अपनी पीठ थपथपाकर बदलाव के प्रति अपने खुलेपन व उनसे अनुकूलन को श्रेय देता है। गरीबों के बड़ी संख्या के विपरीत यह वर्ग प्रत्यक्षत: ज्यादा लाभान्वित हुआ, कई बार तो उनकी कीमत पर।

लोकलुभावन राजनीतिज्ञ व आन्दोलन स्वयं को इस अभिजात वर्ग का विरोधी परिभाषित कर चुनावों में जीतें दर्ज की हैं: ट्रम्प की हिलेरी व नाइजल फराज की डेविड कैमरन पर जीत। वे इन कुलीनों को सामान्य जन के सरोकारों से निरपेक्ष, निरंकुश राजनैतिक सत्यवादिता से ग्रस्त होने का आरोप लगाकर उपहास उड़ाते हैं तथा अपने मतदाताओं को इनसे नियंत्रण वापस पाने का अवसर देने का वादा करते हैं। इसी बीच उदीयमान शक्तियां - रूस जो ढलान पर होकर भी खतरनाक है - उदारवादी वैश्विक व्यवस्था को बदलने की चुनौती दे रही हैं। एकदलीय तानाशाह चीन निकट भविष्य में दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति होगा। इस तरह कभी मुश्किल से प्रश्नांकित होने वाला उदारवादी प्रजातंत्र का आर्थिक प्रगति से संबंध जांच की कसौटी पर है। जब इस सिद्धांत को अपना बचाव करने की चुनौती है इसके हिमायती द इकोनॉमिस्ट का यह लेख अभीष्ट है। इस पत्रिका से संबंद्ध पत्रकार एडमंड फासेट द्वारा चिन्हित चार तथ्यों पर खरा उतरते उदारवाद ने स्वयं को क्रमश: सफलतापूर्वक पुर्नआविष्कृत किया है। चार तथ्य हैं: 1. समाज में सही द्वन्द ने प्रतिस्पर्धा एवं उर्वर बहस का पैदा होना, 2. सामाजिक गतिशीलता, 3. संकेन्द्रित सत्ता पर अविश्वास तथा 4. व्यक्ति के राजनीतिक, वैयक्तिक व आर्थिक अधिकारों का सम्मान। उदारवादी, प्रगति के न तो माक्र्सवादी आदर्शलोकीय अन्त्यावस्था (यूटोपियन टीलोस) अर्थात रामराज्यीय भविष्य के स्थायित्व मेें विश्वास करता है और न रूढि़वादियों के स्थायित्व व परंपरा में। उदारवादी सामाजिक बदलाव हेतु आन्दोलित सुधारवादी होते हैं। आज उदारवाद को यथास्थिति व कुलीनता से पलायन कर सुधारवादी भाव पुन: प्रज्वलित करना होगा। विल्सन के उदारवाद का आविर्भाव फ्रांस व अमरीका की क्रांति के परिणामस्वरूप औद्योगिकरण की हलचल में हुआ। इसे जान लाक व एडम स्मिथ की बौद्धिक विरासत मिली जिसे जान स्टुअर्ट मिल व इस पत्रिका के दूसरे संपादक वाल्टर बजेहाट जैसे विक्टारियन बौद्धिकों से और निखार मिला। उदारवादी आंदोलन व विचारक पूरे यूरोप व अमेरिकी महाद्वीप में हुए लेकिन इसका केंद्र विश्व की आर्थिक व राजनैतिक शक्ति का प्रधान ब्रिटेन था।

उदारवाद वर्तमान में अपनी राजनैतिक प्रजातान्त्रिक अनुभूति से जन्मजात नाभिनालबद्ध नहीं है। बजेहाट व मिल गोरे थे जो अश्वेतों व सभी संपत्तिहीन गोरे पुरुषों को भी मताधिकार देने के विरोधी थे क्योंकि उन्हें बहुत की निरंकुशता का भय था। दोनों ही स्त्री मताधिकार के पक्षधर थे लेकिन द इकोनोमिस्ट इसका विरोधी था। साम्राज्यवाद का ेलेकर द इकोनोमिस्ट संशय में था व सन् 1862में इसकी दलील थी कि उपनिवेश हमारे लिए इतने ही मूल्यवान होंगे यदि वे स्वतंत्र होंगे। हां, असभ्य जातियों की अगुआई, संरक्षण व शिक्षण की देनदारी होनी चाहिए। 20 वीं सदी के उदारवादी बाजारी विफलता को सीमित करने हेतु क्रमिक कराधान व बुनियादी समाज-कल्याण तंत्र को आवश्यक हस्तक्षेप मानते थे जबकि विल्सन व 19 वीं सदी की द इकोनोमिस्ट इसको अनुचित मानते थे। इससे मतभेद पैदा हुआ। जान मेनार्ड कीन्स के समर्थक उदारवादी, मंदी के दौर में व सामाजिक सुरक्षा हेतु राज्य हस्तक्षेप के समर्थक थे जो फ्रेडरिक ह्येक के समर्थक राज्य हस्तक्षेप में खतरनाक राज्य अतिसंधान का खतरा देखते थे। द इकोनॉमिस्ट ने सिद्धांत के साथ साथ वर्तमान की सीमाओं में व्यावहारिक पक्ष अपना, दोनों मतों को समयानुसार अंगीकार किया। इसने 1930 की मंदी व द्वितीय विश्व युद्ध के बाद महत्वपूर्ण राज्य हस्तक्षेप हेतु कीन्स की वकालत की तो थैचर व रीगन के विनियंत्रण व निजीकरण हेतु राज्य अतिसंधान का विरोध किया।

हाल के वर्षों में यह पत्रिका स्वदेश में स्थिर कीमतों व राजकोषीय नियंत्रण तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मुक्त व्यापार व निवेश तथा बाजार अनुकूल ''वाशिंगटन सर्वसम्मति’’ नामक नीति निर्धारण काकटेल का समर्थक रही है। जीवन शैलियों व विचारों की विविधताओं के प्रति उदारवादी सम्मान से पूर्वाग्रहों को काफी कम किया है : धार्मिक व नृजातीय अल्पसंख्यकों के विरुद्ध, लड़के लड़कियों को विद्यालय जाने के समान अवसर वाले प्रस्ताव के विरुद्ध, समलैंगिकता के विरुद्ध, तथा एकल जनक (सिंगल पैरेंट्स) के विरुद्ध। युद्धोपरान्त आई उदारवादी वैश्विक व्यवस्था ने संघर्षों को पूर्व की किसी संधि योजना के मुकाबले बेहतर नियंत्रित किया है। लेकिन गड़बडिय़ां भी हुई हैं - इराक युद्ध (यह पत्रिका इसकी पक्षधर थी), मध्य-पूर्व में असफल हस्तक्षेप, वैश्विक वित्तीय संगट, जलवायु परिवतन की चुनौती का असफल निदान।  आत्म-निर्णय व आर्थिक समृद्धि से परे आमजन की धार्मिक व नृजातीय अस्मिता से जुड़े मूल्यों को उदारवादी विचारकों ने महत्व नहीं दिया। इन असफलताओं ने उदारवाद में एक और पुनर्आविष्कार आवश्यक कर दिया है। युद्धों, वित्तीय संकट, तकनीकी वर्चस्व की अर्थव्यवस्था, प्रवासी प्रवाह तथा चिरकालिक असुरक्षा ने इन उदारवादियों की निगरानी रहते, अंशत: इन्हीं द्वारा समर्थित नीतियों के चलते बहुतों को डांवांडोल/गैर-आबाद किया है। वे तथ्य इनके परिवर्तन के कारक रूप छवि को क्षति पहुंचाते हैं, तथा इनके ऐसे कारक बनने की तत्परता इससे नष्ट हो सकती है। इन्हें ऐसे भय से पार पाना होगा। मिल्टन फ्रीडमैन ने कहा : ''19 वीं सदी उदारवादी, मामले की तह तक जाने के भाषाई अर्थ में और सामाजिक संस्थाओं में बड़े बदलाव के पैरोकार के राजनीतिक अर्थ में, क्रांतिकारी थे। ऐसा ही इनके आधुनिक उत्तराधिकारियों को होना होगा।’’

मुक्त बाजार और अधिक

ब्रिटिश राजनीतिक सर जान बावरिंग का कथन : ''जीसस क्राइस्ट मुक्त व्यापार है और मुक्त व्यापारी जीसस क्राइस्ट है’’ इस चट्टान (सिद्धांत) के लिए था जिस पर द इकोनोमिस्ट की नींव पड़ी थी और यह अनायस नहीं था। ब्रिटेन में भूस्वामी आयातित अनाज पर सीमा-शुल्क के जरिये अपने अनाज की कीमतें ऊंची रखते थे। स्वतंत्रता हेतु गठित ऐन्टी-स्लेवरी लीग की भांति इस शुल्क के विरुद्ध जनान्दोलन हेतु ऐन्टी-कार्न ला लीग का गठन हुआ जिसमें गरीबों के साथ संभ्रान्त उदारवादी विचारक व प्रगतिशील व्यापारी भी शामिल थे। जेम्स विल्सन को विश्वास था कि इस जनान्दोलन से व्यक्तियों और वर्गों तथा इस राष्ट्र और अन्य के बीच ईष्र्या, विद्वेष का अन्त होगा। इस शुल्क की समाप्ति से विकसित वैश्विक व्यापार से मुक्त व्यापार को मिले बढ़ावे से असाधारण संपत्ति का सृजन हुआ जिसकी परिणति प्रथम विश्व युद्ध में हुई। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विकसित वैश्विक व्यापार का महायुग, शीतयुद्ध की समाप्ति पर और पल्लवित हुआ और परिणामत: गरीबी में अत्यधिक कमी आई। लेकिन अनैतिक नेतृत्व की संरक्षणवादी राजनीति के कारण पराजित क्षेत्रवासियों में विद्वेष, ईष्र्या विद्यमान रहे। कार्न कानून की समाप्ति से शुल्क में आया एकपक्षीय ह्रास अस्थायी होता था क्योंकि उपभोक्ता समूहों की असंगठित कृतज्ञता की तुलना में परराष्ट्रीय प्रतिद्वंदता के जोखिम से सृजित उत्पादकों का संकेन्द्रित असंतोष ज्यादा शक्तिशाली होता था जिसके चलते शुल्क दुबारा लागू हो जाते। इस समस्या से निवृत्ति हेतु सन् 1947 में गैट (जनरल एग्रीमेंट आन टैरिफ्स ऐन्ड ट्रेड) के सृजन से बहुपक्षीय व्यापार समझाते के आधुनिक युग का सूक्षपात हुआ जिससे गैट में शामिल सदस्यों का समझौते के अनुबंध में धर्मच्युत होना कठिन हो गया। सन् 1995 में गैट बदलकर डब्ल्यू.टी.ओ. हो गया जिसके लगभग सभी देश सदस्य हैं। इसमें छलकर्ता देश को दंड हेतु और कड़े नियम हैं। वकील, वास्तुकार या विमान कंपनी जैसी सेवाओं में मुक्त व्यापार, लाभार्जन को 6 गुणा या इससे भी ज्यादा बढ़ायेगा। डब्ल्यू.टी.ओ. की, कुछ भी तय नहीं जब तक कि सब कुछ तय नहीं, की नीति ने दशकों से सवाओं का कारनामे को लंबित रखा है। इसके चलते यह चीन जो सन् 2001 में इसका सदस्य बना कर अंकुश लगाने में असफल रहा है जिसमें चीन इसके नियमों को अक्सर भाषा में नहीं तो भाव में धता बताकर अपनी पसंद की तकनीक विदेशी निवेशकों से ब्लैकमेल करता है तथा अपने उद्योगों को प्रच्छन्न सहायता देता है। ऐेसे में डब्ल्यू.टी.ओ. में और भी तात्विक सुधार की ठोस जरूरत है लेकिन इससे भी आवश्यक है कि इसका वर्तमान स्वरूप बना रहे क्योंकि अमेरिका जो इसका बड़ा समर्थक था इसकी चीन की अवहेलना पर दृढ़ता से आक्रामक है।

21 वीं सदी में अधिकांश उत्पादकता वृद्धि व समृद्धि सृजन अत्यंत ऊर्वर नगरों में केन्द्रित होगा। विश्व के सबसे विशाल 50 महानगरों (कोनरबेशन) में कुल आबादी का 7 प्रतिशत व सकल उत्पादन का 40 प्रतिशत केन्द्रित होगा। ओ.ई.सी.डी. के अनुसार ऐसे नगरों व निर्धन क्षेत्रों के बीच उत्पादकता अंतराल पिछले दो दशकों में औसतन 60 प्रतिशत तक बढ़ा है तथा जो और बढ़ रहा है। इससे कुछ ही संपत्ति स्वामियों को बड़ा अप्रत्याशित छप्पर-फाड़ लाभ मिलता है। लोगों की ऐसी बड़ी संख्या जो इन बेहतर आय देने वाले नगरों में प्रवेश से वंचित रहते हैं उनके संपन्नता के अवसर घटते हैं जिसके कारण अर्थव्यवस्था विमंदित होती है। अनेक शहरों में विकास के अधिकार के सामूहीकृत होने से संपत्ति बोध को क्षति पहुंचती है। रिक्त प्लाटों के मालिक भी विकास के अधिकार में कटौती से समृद्ध होते हैं; आसमान छूती संपत्ति मूल्य से प्राप्त अप्रत्याशित लाभ पर आयत भारी कर, गैर-पिछवाड़ावाद (निम्बीइज्म - नाट इस माई बैकयार्ड) को लाभकर रणनीति नहीं रहने देगा। समस्या है तो इन भूस्वामियों को भूमिकर हेतु तथा अपने अप्रत्याशित लाभ को त्यागने हेतु सहमत करने की।

निगमी शक्ति का संकेन्द्रण एक पेंचीदा समस्या है। पैमाने का प्रतिफल/अनुमापी प्रतिफल (रिटर्न टू स्केल) और मजबूत नेटवर्क प्रभाव ने - जितने अधिक उपभोक्ता (यूजर) होंगे, उतना ही अधिक अगले उपभोक्ता की प्राप्ति होगी - डिजिटल तकनीकी आधारित विभिन्न उद्योगों में संकेन्द्रण को बढ़ाया है जो प्राय: अनियंत्रित रहा है। हर सेगमेंट में एक या दो भीमकाय फर्मों का दबदबा है : ग्रेट फायरवाल के एक तरफ खोज हेतु गूगल तथा संसर्ग हेतु फेसबुक तो दूसरी तरफ क्रमश: अलीबाबा व टेनसेंट। बेहतर अल्गोरिदम से लैस, अधिक और अधिक उपभोक्ताओं की आदतों से जुड़े आंकड़ों के संग्रहण द्वारा अवलंबी फर्में अपने उत्पाद का विभिन्न रूपों में और आकर्षक बनाने हेतु सुधार सकते हैं। इस तरह उद्योगों में केवल कुछ फर्मों का वर्चस्व होगा। यह ऐसी आर्थिक समस्या है जिसे नयी क्रांतिकारी बौद्धिक राय से हल किया जा सकता है। इसका हल पुराने कानूनों से नहीं हो सकता। कृत्रिम बौद्धिकता (आर्टिफिशियल इन्टेलिजेन्स) का फैलावा, ज्यादे डेटा की पहुंच वाली फर्मों को और शक्तिशाली बनायेगा। डेटा आधारिक शक्ति संरचना में बदलाव चाहे कितना भी लोकप्रिय हो, भूमिकर की भांति नये उग्र एकाधिकारी व्यापार विरोधी कानून (ऐन्टीट्रस्ट ला) व प्रतिस्पर्धा कानून का विरोध होगा। हेनरी जार्ज की भूमिका की वकालत करने वाली ''पावर्टी और प्रोग्रेस’’ 1890 में बाइबल को छोड़ अमेरिका में सबसे अधिक बिकने वाली पुस्तक थी। लेकिन भूस्वामियों की अपार राजनैतिक शक्ति ने वहां तथा अन्यत्र इस खतरे को विदा कर दिया। उदारवादी डेविड लायड जार्ज की इस पत्रिका के समर्थन से सन् 1990 में उनके ''पीपुल्स बजट’’ द्वारा उनका भूमिकर लागू करने का प्रयास असफल रहा।

खुले समाज में आप्रवासन

आप्रवासन राजनैतिक रूप में 21 वीं सदी जैसा ही प्रबल मुद्दा 20 वीं सदी में भी था। ''क्राइसिस आफ लिबरलिज्म’’ (1902) पुस्तक में फ्रांसीस समाजशास्त्री सेलिस्टिन बागल आधुनिक समाज में भी देशीयता व कट्टरता के बहु-उत्पादन पर आश्चर्य व्यक्त करते हैं। इसके बावजूद अमेरिका में वहां की आबादी में वृद्धों का अनुपात बढऩे से आप्रवासन हेतु भूख बढ़ी है। सन् 1965 में आप्रवासन के पक्षधर 7 प्रतिशत थे जो वर्तमान में 28 प्रतिशत है। ऐसे में किसी उदारवादी की आत्मतुष्टि उसकी वास्तविकता से अनभिज्ञ होने का प्रतीक है। आप्रवासन के प्रति आक्रोश से यूरोपीय यूनियन के 28 में से 6 देशों के अनुदार शासन का उदय हुआ। ब्रक्सिट व ट्रम्प इसकी आक्रोश की देन हैं। लेटिन अमेरिका में वेनेजुवेलाइयों तथा बांग्लादेश हेतु म्यांमार से रोहिंग्या का पलायन भी चिंताजनक है। इस वादविषय के और भी भेदकारी होने हेतु चार कारण है। 1. विस्थापितों की संख्या बढऩी है। गरीबी व जलवायु परिवर्तन के कुप्रभाव से उप-सहारायी अफ्रीका व दक्षिण एशिया के देसों से भारी संख्या में लोग विकसित देशों में पलायन हेतु बाध्य होंगे। 2. सन् 1951 के यू.एन. कन्वेंशन आन रिफ्यूजीस के बावजूद प्रवासन के प्रबंधन हेतु विश्व में कोई अच्छा तंत्र नहीं है। यह कन्वेंशन महत्वाकांक्षी व सिद्धांतत: उदार है। ऐसे में लोग संदिग्ध आधार पर शरणार्थी वैधता पाने की कोशिश करते हैं। 3. आधुनिक कल्याण-तंत्र द्वारा प्रवसन से जुड़े मुद्दे और जटिल बना दिये गये हैं जो कि एक सदी पूर्व नहीं था। अवैध अप्रवासी ऐसे तंत्र के लाभ से वंचित होगा लेकिन शरणार्थी लाभान्वित होगा। ऐसे व्यय का पूर्ण स्तर भले ही तुच्छ हो इसकी अन्यायी अनुभूति का स्तर इसकी लागत से गैर-अनुपातिक रूप से बड़ा होता है। ऐसे लाभों की निधि हेतु कर भुगतान के नागरिक चिढ़ते हैं क्योंकि उन्हें इसके परजन हिताय होने का एहसास होता है। 4. आप्रवासन के प्रति उदारवादी दृष्टिकोण में बदलाव आया है। उदारवाद का आरंभ राष्ट्रों के एक ऐसे यूरोप में हुआ जहाँ नस्लवाद बमुश्किल प्रश्नों के घेरे में था।

उदारवादियों को जो कि खुद भी कहीं के नागरिक होते हैं उनके किन्हीं अन्य विश्वासों के बरअक्स उनकी आप्रवासन के प्रति सकारात्मक सोच उन्हें उनके सह-नागरिकों के प्रतिरोध में खड़ा कर देती है। आज के वाम तथा कई अमरीकी उदारवादियों द्वारा नागरिक अस्मिता पर नस्ल, लिंग,यौन-प्रवृत्ति आधारित समूही अस्मिता को तरजीह दिये जाने से यह प्रतिरोध और उग्र हुआ है। देशभक्ति तो रही दूर सांस्कृतिक प्रतिमान लागू करना इनकी कुदृष्टि का पात्र बनता है। 19 वीं सदी की धारणा कि अप्रवासी नये देश की भाषा को आत्मसात करेगा ऐसे कदरदानी हेतु दमनात्मक है। इसी सोच के प्रभाव में कई अमरीकी विश्वविद्यालयों ने ''अमेरिका जातीय मिश्रण है (अमेरिका इज अ मेल्टिंग पाट)’’ वाक्यांश को लघुअतिक्रमण माना है। वैसे यह वाक्यांश बहुसंख्यकों की नजर में अहानिकर है लेकिन अल्पसंख्यकों हेतु आक्रामक संदेश वाला है। प्रवाह के और संयमन हेतु जन-समर्थन बढ़ाने की राह ढूंढने के साथ उदारवादियों को अपनी आप्रवासन संबंधी महत्वाकांक्षी मांग को संयमित करनी होगी। उन्हें यह स्वीकार करना होगा कि जातीय व सांस्कृतिक समरूपता को अन्य जन उनसे अधिक महत्व देते हैं तथा संघर्ष के इस स्रोत से छुटकारा भी नहीं पाया जा सकता। इन उदारवादियों को इन प्रवासियों के आगमन से चिंतित लोगों हेतु इस आगमन ही में मूर्त लाभ के स्रोत ढूंढने होंगे। लोगों की आप्रवासन को नापसंद करने के पीछे प्राय: उनकी अपने जीवन पर नियंत्रण खोने की प्रतिकूल अनुभूति का भाव है। इस नियंत्रण के पुनस्र्थापन हेतु प्रवासन के नियंत्रण के लिये बने कानून स्पष्ट एवं पूरी निष्पक्षता एवं निष्ठुरता से लागू होने चाहिए। राज्य के हस्तक्षेप पर नियंत्रण हेतु प्रवासियों का ई-वेरीफिकेशन होना चाहिए। ब्रिटिश अकादमिक अलेक्जेंडर बेट्स व पौल कोलियर ने ''रिफ्यूज’’ (2017) में शरणार्थियों के अन्तर्राष्ट्रीय कानून में पूर्ण पुन:कल्पन की पैरवी की है।

लाभ के वितरण का प्रश्न भी महत्वपूर्ण है। वर्तमान में प्रवासन से अर्जित लाभ प्राय: प्रवासी पाते हैं। अर्थशास्त्री गैरी बेकर प्रवासी वीजा की नीलामी का सुझाव देते हैं तथा इससे अर्जित आय को मेजबान देश को हस्तांतरण की पैरवी करते हैं। इरिक पोसनर व ग्लेन वील ने अपनी पुस्तक ''रैडिकल मार्केट्स’’ में हर नागरिक को एक प्रवासी का प्रतिभू बनाए जाने व इससे जनिक दायित्वों के निर्वहन हेतु प्रभावी की आय का हिस्सा प्रतिभू को दिये जाने की वकालत की है। एक कम चरम उपाय है कि प्रवासियों से संतुलित कर वसूल कर ''इनक्लूजन फन्ड’’ बने जो प्रवासियों के अधिसंख्य वाले क्षेत्र में व्यय हो। इन प्रवासियों की आय से कटौती करने के बजाय वह राज्य ही इन्हें कम दे। उदारवादियों की नीति के एकदम विपरीत गल्फ स्टेट्स प्रवासियों को नागरिकता नहीं देते। योगदान की दस वर्षीय अवधि के पश्चात ही अमेरिका अधिवर्षता लाभ देता है। फ्रांस उपहार स्वरूप टोस्ट उन्हें देता है जो रेसीन को कुशलतापूर्वक उद्धृत करते हैं। अन्य लाभ कुछ समय के लिए स्थगित तया कम किए जा सकते हैं। इनमें से कुछ या सभी का उदार आदर्शवादी विरोध कर सकते हैं। इतिहास गवाह है कि प्राय: तेज प्रवासन की अवधि उपरांत उपजी तीखी प्रतिक्रियायें ऐसे उदार आदर्श, तथाकथित प्रवासी व पूर्व में आये प्रवासियों को क्षति पहुंचाती हैं। आधी छोड़ सारी को धावै जैसे बहुत ऊंचे आदर्श उन्नति में बाथक होते हैं। अनेकवादी समाज अंततोगत्वा और अधिक बहुलतावाद अंगीकार करता है। यदि उदारवादी साध्यता की सीमा का अतिक्रमण करेंगे तो अल्पावधि से मुक्त संचरण के लक्ष्य को क्षति पहुंचाएंगे।

नया सामाजिक अनुबंध

19 वीं सदी में बिस्मार्क जो किसी की नजर में उदारवादी नहीं हैं, ने जर्मनी में कल्याण-तंत्र (वेलफेयर स्टेट) की शुरुआत की। 20 वीं सदी में विश्व के श्रमिक संघ इसके लिए संघर्षरत रहे। मुसोलिनी ने इस फासीवाद रंग दिया। लायड जार्ज का 1909 का पीपुल्स बजट या एफ.डी.आर. का न्यू डील, सभी आधुनिक कल्याण-तंत्र के स्पष्ट उदारवादी ढांचे में सृजित हुए। इसे जेम्स विल्सन घृणित मानते। कुछ उदारवादी व अधिकांश रूढि़वादियों दो अनिष्टों में इसे कमतर रूप में अनिच्छापूर्वक अपनाया, जिससे तत्काल फासीवाद व अन्तत: समाजवाद के अतिवादी, हानिकारक पुनर्वितरण संकल्प से मुक्ति मिली। इससे स्वतंत्रता बढ़ी, निर्बाध उद्यम फले-फूले और प्रगति को विस्तार मिला। अल्पवयस्कों को शिक्षा, वृद्धों को पेंशन, गरीबों, दिव्यांगों व बेरोजगारों को आर्थिक मदद और सभी के स्वास्थ्य कल्याण जैसे दायित्व राज्य के अधीन करने हेतु विभिन्न जगहों के अनुरूप विवरण में भिन्न बड़े सुधारों की मांग की हैं।

मध्य 20 वीं सदी की महिलाओं की अपेक्षा आज वेतनभोगी महिलाओं की संख्या बढ़ी है। कहीं ज्यादे गृहस्थियां आज एकल जनक/अभिभावक आधारित हैं। ओ.ई.सी.डी. के अनुसार विकसित देशों के श्रमिक दल का 60 प्रतिशत ही स्थायी रोजगारी है। सबसे महत्वपूर्ण, स्वास्थ्य सेवाएं मंहगी होती जा रही हैं और लोगों की उम्र भी कहीं ज्यादे बढ़ी है। ज्यादे सरकारी धन व्यय करनेवाले हिस्से का कल्याण-तंत्र निर्वाह करने का प्रयास किया है लेकिन यह अपर्याप्त रहा है (बढती प्रत्याशित आयु के सापेक्ष अधिवर्षता आयु की वृद्धि में मंदी) या अलोकप्रिय रहा है (राज्य पेंशन पर आश्रित लोगों में अधिवर्षता आयु में वृद्धि की नापसंदगी)। कार्य-क्षेत्र में बदलाव के साथ अनुकूलन हेतु लोगों की मदद के प्रयास बहुत अपर्याप्त रहे हैं। जनकत्व अवकाश (पैरेन्टल लीव) की बढ़ती आवश्यकता और बदलती शिशु-चर्या की बढ़ती कीमत व वृद्ध पर व्यय, इनको संपोषित करने वाले श्रमिकों की संख्या में गिरावट के चलते आसमान छुएंगी। यदि आज अधिवर्षता आयु का न बढऩा महंगा है तो कल यह विध्वंसकारी होगा। और यदि श्रमिकों की उत्पादकता नहीं बढ़ी तो कम-विध्वंसक व्यय का भुगतान भी कठिन होगा।

एक बड़ी चुनौती है, सबसे जरूरतमंदों की पेंशन लाभ संकेन्द्रित कर पेंशन भुगतान में लगातार वृद्धि को नियंत्रित करने की। लेकिन सबसे अधिक सुधार की जरूरत है अन्य सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के पुंज में विकारों को निराकृत कर उन्हें सुदृढ़ करने की - बेरोजगारी बीमा, राशन-कार्ड (फूड स्टैम्प) आदि। गत कुछ वर्षों में बिना किसी शर्त के सबको देय यू.बी.आई. (यूनिवर्सल बेसिक इन्कम) महत्वपूर्ण है। इसकी बिलाशर्त देयता में दक्षिणपंथ को लालफीताशाही व राज्य दखलंदाजी के खात्मे का संतोष दिखता है तो वामपंथ को इसमें पुनर्वितरक, समतामूलक, कल्याणकारी व मुक्तिकारक मूल्य दिखते हैं। यू.बी.आई. को समर्थन से दबाव समूहों, लोक अभियानों व अयोजनाबद्ध परीक्षण का बहुजनन हुआ है। लेकिन उदारवादी यू.बी.आई. से लाभ में दो प्रतिकूलताएं देखते हैं : एक सैद्धान्तिक प्रतिकूलता यह है कि इससे आत्मनिर्भरता को हानि होगी तथा व्यवहारिक प्रतिकूलता द्वारा या तो आंख फोड़ करों का बोझ बढ़ेगा या फिर लक्ष्यित सच्चे लाभार्थी की मदद में कटौती होगी।

आज की कल्याण योजनाओं की जगह एक और संतुलित फिर भी क्रांतिकारी विकल्प ऋणात्मक आयकर है जिसकी हिमायत मिल्टन फ्रीडमैन द्वारा की गई थी। ब्रिटेन व अमेरिका में प्रचलित इस व्यवस्था में सुनिश्चित न्यूनतम आय से कम अर्जित करने वालों को कम हुई धनराशि राज्य द्वारा दी जाती है। इस व्यवस्था से अमीरों को वंचित रखने के कारण यह यू.बी.आई. की अपेक्षा कम खर्चीली है। ऐसी योजना वर्तमान में कई तरह के बेगार विशेषकर परिचर्या (केयरिंग) से जुड़े श्रमिकों हेतु ज्यादा सार्थक होगी।

यह तो सुधारों की शुरुआत भर है। कल्याण-तंत्र की भांति कर-व्यवस्था भी बदलते समय के साथ हमकदम न हो पाने के कारण फिसड्डी हो गई है। सुधार जो हुए भी गलत राह पर हुए। पूंजीगत कर की दर कम हुई है। अधिक आय पर आयकर दर में भी कमी आई है। संपत्ति कर की दर में विकसित देशों में ह्रास हुआ है। वैट भी प्रतिगामी कर है। 21 वीं सदी की अर्थव्यवस्था में पूरी कर-प्रणाली को उलटना होगा। लघु-कौशल श्रमिकों पर वेतनकर व रोजगारकर के आयकर में संविलयन द्वारा करों के बोझ को घटाना होगा। पूंजीगत कर व श्रमिक कर क बीच अंतर का घटाव पूंजी के प्रति झुकाव का प्रतिकार करेगा और यदि पूंजी-निवेश को निगम-कर के सापेक्ष अपलिखित किया जायेगा तो इससे निवेश हतोत्साहित नहीं होगा। उत्तराधिकार कर भी पुनर्लागू करना होगा। कर-वंचन के सारे मार्ग अवरुद्ध करने होंगे। भूमिकर में संपत्ति-कर का विलय करना होगा। कार्बन व अन्य नकारात्मक बाह्य-कारकों (नेगेटिव इक्सटर्नेलिटीज) पर कराधान सही दिशा में कदम होगा। ऐसा दुनियां में ये कार्य संपन्न होने होंगे जब रूढि़वादियों पर उदारवाद अपनाने हेतु उन पर समाजवादी आतंक का साया नहीं है। इसी तरह द्वितीय विश्व-युद्ध उपरांत वजूद में आई अंतरराष्ट्रीय उदारवादी व्यवस्था का संरक्षण भी जरुरी है क्योंकि निर्माण में ज्यादा संरक्षण चुनौतीपूर्ण है वह भी जब आर्थिक खुशहाली व निजी संपत्ति हेतु समर्पित उदारवादियों को एकजुट रखने वाला समाजवादी या कहें साम्यवादी हौआ/जूजू अस्तित्व में नहीं है।

उदार वैश्विक व्यवस्था हेतु समर

उदार वैश्विक व्यवस्था के सुनहरे क्षण की हेकड़ी को व्यक्त करने वाला दस्तावेज यदि काएई है तो वह फ्रांसिस फूकुयामा का सन् 1989 का लेख ''द एंड आफ हिस्ट्री’’ है। बर्लिन की दीवार ढहने से पूर्व लिखित इस लेख में फूकुयामा अपने ही प्रश्न - क्या विश्व शासन के चरम, रूप पाश्चात्य उदार प्रजातंत्र के सार्वजनीकरण से रू-ब-रू है? का उत्तर हां में देते हैं।

उपरोक्त प्रश्न सन् 2018 में कितना असामान्य है। विगत 30 वर्षों से दुनियां की सबसे सफल अर्थव्यवस्था तथा अगले 30 वर्षों तक सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने वाला चीन उत्तरोत्तर अनुदारवादी होकर भी उदीयमान विश्व में प्रशंसनीय है। मुस्लिम जगत व अन्यत्र की एकता उदार मूल्यों की जगह युद्ध या युद्ध के डर से सुदृढ़ पंथ और संप्रदायिक बंधन द्वारा पोषित होते हैं। इस पत्रिका के सह-संगठन ''इकोनोमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट’’ के सन 2017 के 167 देशों के प्रजातांत्रिक पैमाने के मूल्यांकन में आधे से अधिक फिसल रहे हैं। इसमें अमरीका भी है जहां के राष्ट्रपति लोकतंत्री के मुकाबले तानाशाह को ज्यादा महत्व देते हैं। यह चिंताजनक है।

नाटो व डब्ल्यू.टी.ओ. के साथ साथ इनके संपोषण में अमरीकी भूमिका का डोनाल्ड ट्रंप द्वारा खारिज़ होना असामान्य है। लेकिन ऐसा करने वाले वे पहले अमरीकी नहीं हैं। सन् 2002 में जब सितंबर 2001 की घटना अमरीकी दिमाग में ताजा थी वहां की 30 प्रतिशत आबादी चाहती थी, कि अमेरिका अपनी समस्याओं से सरोकार रखे तथा अन्य देशों को अपनी समस्याएं खुद हल करने देना चाहिए। सन् 2016 आते आते यह संख्या 57 प्रतिशत हो गयी। इस वृद्धि में अफगानिस्तान इराक तथा अन्यत्र इसके पीड़ादायक उलझाव की भूमिका हो सकती है। नयी पीढ़ी आश्चर्यजनक रूप से प्रतिशोधी रूस व उत्थानशील चीन से बेपरवाह है। संभव है कि अगला राष्ट्रपति इसके विपरीत नीति अपनाये। वह डब्ल्यू.टी.ओ. व नाटो जैसी अंतरराष्ट्रीय संधियों को महत्व दे। पर्यावरण से जुड़ी चिंताओं को महत्व दे। लेकिन ऐसा होता दिखता नहीं है। यूरोपियन या किसी अन्य लोकतांत्रिक देश द्वारा जैसे दायित्व के निर्वहन की भी उम्मीद नहीं है। अगर ऐसा कुछ होता भी है तो भी चीन एक विचलित करनेवाली चुनौती है। शी जिंगपिंग द्वारा सत्ता का केंद्रीकरण व इस पर अनिश्चितकाल तक सत्तारूढ़ रहने की मंशा इस चुनौती का महत्वपूर्ण हिस्सा है। शी जिनपिंग बड़े बदलाव के प्रतीक हैं जिसे केन्द्रीकृत सत्तावादी तंत्र व डिजिटल तकनीकी के गठजोड़ ने संभव किया है। किसी अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की कल्पना, इस उम्मीद पर कि चीन भविष्य में उदारवादी होगा बेवकूफी भरा होगा।

21 वीं सदी के उदारवादियों को 20 वीं सदी की दो सीख याद रखनी होगी। दो विश्व युद्धों के बीच लीग आफ नेशंस की असफलता ने दर्शा दिया कि कृतसंकल्प राष्ट्रों की सैन्य-शक्ति के समर्थन बिना उदारवादी आदर्श बेकार हैं। साम्यवाद की पराजय प्रतिबद्ध संधियों की शक्ति की गवाह है। अमरीका के यूरोपीय और एशियाई मित्रराष्ट्रों को ज्यादे और वह भी ज्यादे बुद्धिमता से अपने शस्त्रागार की वृद्धि और सैनिकों के प्रशिक्षण पर व्यय करना होगा। उन राष्ट्रों जिनके पास चीन की महत्वाकांक्षा से चिंतित होने के कारण हैं, से स्वस्थ वर्तमान संधियां नयी संधियों के निर्माण की राह प्रशस्त करेंगी। शीत-युद्ध के दौरान पश्चिम और सोवियत संघ के बीच आर्थिक संबंध नहीं ही थे। 21 वीं सदी की बड़ी आर्थिक शक्तियां भी बड़े पैमाने पर एकीकृत हैं। नियम आधारित व्यापार व आर्थिक-तंत्र की सहकर्म द्वारा मरम्मत, सुधार व संपोषण से सृजित लाभ बहुत विशाल है। इस भाव से चीन की युआन को अंतरराष्ट्रीय तेज होगा। इसके द्वारा समर्थित एशियन इन्फ्रास्ट्रक्चर बैंक अन्तरराष्ट्रीय वित्त के लिये इसका अतिरिक्त योगदान होगा। यूरेशिया स्थित स्थलों को जोडऩे वाला इसका ओबोर (वन बेल्ट वन रोड) आधारतंत्र उपयोगी होगा लेकिन पश्चिम को इसकी आड़ में चीन की प्रच्छन्न सामरिकता पर निगाह रखनी होगी।

इस ध्येय को प्राप्त करने वाली शक्ति न पूर्णतया सामरिक होगी, न ही पूर्णतया आर्थिक होगी। इसे मूल्यों वाली शक्ति भी होना होगा। वर्तमान में पश्चिम इस मोर्चे पर अस्त-व्यस्त है। ट्रंप में रंचमात्र भी मूल्य नहीं हैं। पर-राष्ट्र में उदार मूल्यों के समर्थन की बात तो रही दूर, यूरोपीय राजनीतिज्ञ स्व-राष्ट्र में भी इन मूल्यों के संपोषण की कसौटी पर हैं। एक दशक पूर्व जान मैक्केन ने ''लीग आफ डेमोक्रेसीज’’ का प्रस्ताव दिया था। विश्व को अन्तरराष्ट्रीय संबंधों हेतु ऐसी दृष्टि की जरूरत है जिससे सदस्य राष्ट्र उदार प्रजातांत्रिक मूल्यों के पक्षधर हों तथा इन मूल्यों हेतु एक दूसरे की जवाबदेही भी तय करें। यदि ये उदार देश अंतर्मुखी बन अपनी शक्ति या सक्रियता की इच्छाशक्ति का त्याग करते हैं तो वर्तमान तो नष्ट होगा ही शायद उनका भविष्य भी।

 

समर हेतु आवाहन

 

इस लेख में आज के समयानुसार उदारवाद में महत्वपूर्ण पुर्नआविष्कार की जरूरत बताई गई है। विकसित व विकासशील देशों को कर-प्रणाली व कल्याण-तंत्र को बराबर मजबूती से बेहतर रूप देने हेतु नये विचार लाने होंगे। लोगों के एक देश से दूसरे देश के परस्पर आवागमन को पुर्नपरिभाषित करना होगा। लेकिन इतिहास से सीख की अवहेलना कर नयी सोच की आवश्यकता नहीं होना है। 21 वीं सदी की चुनौतियां स्पष्टत: सर्वाधिक झिंझोडऩे वाला जलवायु-परिवर्तन तथा मानसिक अतिक्रांता नयी तकनीकी परिदृश्य-सर्वथा नयी होंगी। लेकिन इनसे उत्पन्न गैरबराबरी, असंतोष तथा संपत्ति व सत्ता का अस्वस्थ संकेन्द्रण कहीं से भी नये नहीं होंगे। ऐसे में पुराने 19 वीं सदी के गलाकाट प्रतिस्पर्धा कानून व भूमि तथा उत्तराधिकार कानूनों को पुन: उपयोग हेतु परखना होगा।

वर्तमान तकनीकी परिदृश्य में हर नागरिक को आजीवन नौसिखिया (लाइफटाइम लर्नर) होना है। ऐसे में दुर्गीकृत विश्वविद्यालयी शिक्षा पद्धति में आमूल परिवर्तन हेतु उदारवादियों को इसे ढहाना होगा। फ्रांस में इमैनुअल मैक्रन द्वारा लागू आमूल परिवर्तन की भांति पारंपरिक पार्टी ढांचे को उलटना होगा। हाल के वर्षांे में उदारवादी सुधार न्यायपालिका, केन्द्रीय बैंकों और गैर-जवाबदेह अधिराष्ट्रीय (सुप्रानेशनल) संगठनों द्वारा थोपे जा रहे हैं, विचारणीय विषय है। ऐसे ही सोशल मीडिया के अनुगूंज कोष्ठ (इको चैम्बर) में अस्मितावादी राजनीति का वर्चस्व है। तानाशाही शक्ति में बढ़ोतरी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुंठित करती है। फ्रीडम हाउस के अनुसार 13 प्रतिशत जनसंख्या ही ऐसे देशों में रहती है जहाँ प्रेस स्वतंत्र है।

द इकोनॉमिस्ट अपनी 175 वीं जयंती को अधोरेखांकित करता है सतर्कता से, आशावाद से, व संकल्प से। सतर्कता इसलिये है क्योंकि हमारे बुनियादी विश्वास जिन मूल्यों पर आधारित हैं, उनके वांछित पल्लवन हेतु आवश्यक सुधारों के अनुपात व महत्व की समझ अपर्याप्त लोगों को है। आशावाद इसलिए कि वे मूल्य आज भी प्रासंगिक है। संकल्प यह कि उदारवाद के बेहतर संपोषण हेतु जेम्स विल्सन का कथन : ''अग्रगामी बुद्धि व बेकार, बुजदिल प्रगतिबाधक अज्ञान के बीच गंभीर संघर्ष’’ इस सप्ताह के अंक के प्रथम पृष्ठ पर छपकर आगे के अंकों में प्रथम पृष्ठ पर छपता रहेगा।

उपरोक्त विवरण के आलोक में भारत के समक्ष चीन का पड़ोसी होने से चुनौतियाँ सर्वाधिक हैं। चीन अपने दार्शनिक गुरु कन्फ्यूशियस के कथन ''धरती पर एक सूरज एक शासक’’ को स्वयं हेतु चरितार्थ करने की राह पर है जबकि भारतवासी ''कोउ नृप होंहिं हमहि का हानी’’ की राह पर। अमेरिका के समतुल्य ए.आई. (आर्टिफिशियल इन्टेलिजेन्स)/एल्गॉरिथ्म शक्ति वाले चीन के डाटा कालोनियलिज्म के समक्ष भारत वैसे ही निहत्था है जैसे मुगलों के तोपखाना सैनिकों के समक्ष हिन्दू राजाओं की हाथी, घोड़े वाली पैदल सेना। चीनी प्रतिस्पर्धा का जवाब भारत प्रतिस्पर्धा का ह्रास करने वाली समस्त नीतियों के त्याग से दे सकता है।

द इकोनोमिस्ट के उपरोक्त लेख की चिंता के केंद्र में चीन के बढ़ते आर्थिक प्रभुत्व व उसकी एकतंत्रीय व्यवस्था के गठजोड़ के प्रजातांत्रिक/उदारवादी मूल्यों को होने वाली संभावित क्षति है। लेकिन जनवरी 2019 के अपने लेख में अर्थशास्त्र के नोबेल विजेता पाल क्रुगमैन का निष्कर्ष कि चीन आर्थिक संकट के मुहाने पर खड़ा है, विचारणीय है तथा द इकोनोमिस्ट की चिंता के बरअक्स राहत प्रदान करने वाला है। चीन के इस संभावित संकट के पीछे उन्हें दो कारण दिखाते हैं : पहला कारण है कि चीनी कंपनियां, अर्थशास्त्र की शब्दावली में कहें तो, पैमाने के ह्रासमान प्रतिफल (नेगेटिव रिटर्न टू स्केल) के दौर से गुजर रही हैं। अर्थात साधनों में वृद्धि करने के बावजूद उत्पादन घटने लगा है। दूसरा कारण है उनकी ''एक बच्चे की नीति’’ जिसने बहुत नुकसान किया है और इससे उत्पन्न जनसांख्यिकीय संतुलन (वृद्धों का बढ़ा अनुपात) से यूरोप व जापान की तरह चीन में भी काम करने वाली आबादी तेजी से सिकुड़ती जा रही है।

 

 

 

प्रज्ञाचक्षु बी.बी. उपाध्याय गंभीर विषयों पर लेखन करते हैं। 'द इकोनामिस्ट’ लंदन के 175 वर्ष पूरे होने पर उनकी लंबी भूमिका पर यहां लिखा है। उदारवाद को लेकर एक धारा प्रवाह काम इस पत्रिका का रहा है।

संपर्क - मो. 9415831895, आजमगढ़

 

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