बापू : तीन स्मृति कवितायें
श्रेणी | बापू : तीन स्मृति कवितायें |
संस्करण | अगस्त : 2019 |
लेखक का नाम | चंद्रकांत पाटील / मराठी से अनुवाद : निशिकांत ठकार |
पहल विशेष / मराठी कविता
पहली स्मृति कविता
तितली के पीछे अल्हड़पन में दौडऩे की उम्र थी वह हाथ पकड़ कर चल रहा था पिता का खामोश थे हम दोनों हैदराबाद का कोई-सा अनजाना बाग़ था बाग़-ए-आम या नामपल्ली याद नहीं आता अब
कतार में लगी कुछ थोड़ी-सी मोटरकारों और अनगिनत दोपहियों के बीच राह निकाल कर आ गए थे मैदान पर
मैदान लबालब भरा मायूस चेहरों का जंगल ही था कांपती आवाजों की सरगोशियां थी
एक के बाद एक शख्स पधारता मंच पर बेचैन हो कर कभी सिसकियाँ भर आती थी बोलते-बोलते कभी लफ्जों की उड़ती थी चिंगारियां ध्वनिक्षेपक से इतने सारे लोग क्यों इकट्ठा हो गए हैं? किस लिए इतने आंसुओं का बहाव? किस लिए इतने दु:ख के बादल इस भरेपूरे माहौल में?
पता नहीं था तब दु:ख माने क्या होता है? मौत माने क्या होता है? क़त्ल माने क्या होता है? इतने सारे लोग एक ही नाम क्यों ले रहे है?
फिर पता चला बरसों बाद मेरे हाथ पर पिता की पकड़ दृढ़ क्यों होती जा रही थी हर एक सिसकी के साथ
बापू, मैं उस बदनसीब पीढ़ी का प्रतिनिधि हूँ जिसने सुना पहली बार आपका नाम आप की हत्या के बाद
और अब इतने बरसों बाद काल की धार के किनारे पर खड़ा हूँ तो सुनाई दे रहा है वही और वैसा ही
अब हिंसा के माने अस्मिता की बेली पर लहलहा उठा जंगली फूल
बापू यह आप ही का वतन है!
दूसरी स्मृति कविता
अनगिनत बार गया हूँ दिल्ली राजघाट पर जा कर आप की समाधि के दर्शन नहीं कर पाया पहली बार जब गया था दिल्ली दोस्त के साथ अब बयालीस बरस बीत चुके हैं पहला दिन तो काम में ही बीत गया रात में पहाडग़ंज पर नाटक देखा सामने निमन्त्रितों की पंक्ति में सिर्फ आडवाणी जी और उनका पूरा परिवार था पीछे टिकट लिए आये सिर्फ नौ लोग नाटक लेकिन लाजबाब था
कल सिर्फ राजघाट पर हो आना और जाना इतना ही तय था
दूसरा दिन कुछ अजीब ही निकल आया होटलें, दुकाने, रेल, यातायात सब कुछ बंद पता नहीं उत्स्फूर्त था या अनामिक डर से दंगे के पहले की दिल्ली दिखाई दे रही थी रास्तों पर वह दिन इंदिरा जी का पहला स्मृतिदिन था बाद में पता चला और एक दिन गुजारने जितनी रकम नहीं थी बेहिसाब दिल्ली में कोई नहीं था पहचान का तब
फिर काफी बरसों बाद गया राजघाट पर प्रवेशद्वार से ही आल्हादक सुंदरता ने आत्मगंभीर बना दिया
पत्तों की सरसराहट के नर्मदिल नग्में गुनगुनानेवाले पेड़ों ने अज्ञात से लाई गूढ़ हवाओं ने अभिभूत कर डाला परिवेश की निरामयता ने सम्मोहित किया
बापू, आपकी समाधि के पास आँखों को बंद कर रुका रहा काफी देर तक आत्मशुद्धि, प्रेम, करुणा, सहिष्णुता - ये आपके मनचाहे फूल थे आँखें खोल कर देखने पर पता चला उन्हीं फूलों का निर्माल्य बन कर बिखरा पड़ा था उसकी समाधि पर
कितना अजीब और पेचीदा तजुर्बा ऊपर ऊपर सब बेहद खुशनुमा और भीतर गहराई में दु:ख का बादल गहता जाता
बापू, इस तजुर्बे को भी संभाल कर रखा जिंदगीभर के लिए!
तीसरी स्मृति कविता
देशांतर से आये मेहमान परिंदों जैसा मैं आ गया हूँ इस अनजान देश में और हुसल गया हूँ पेड़ों से ढँक गए एक बंगले के बंद फाटक के सामने इसी निवास से किया था आप ने इन्साफ के जद्दोजहद का आगाज करीब सवासौ साल पहले
यहीं पर देखे थे आपने सपने वर्णद्वेषी दुनिया को बदल डालने के उथले इतिहास के बोझ तले दबे बेसहारा समूह के सुप्त विद्रोह का यहीं उगा था आपकी आत्मा में असहकारिता का अनन्य बीज समयांतर में उसी का बन गया था विराट महावृक्ष
बापू, मैं खड़ा हूँ यहाँ जोहान्सबर्ग के आपके निवास के सामने जहाँ कभी किसी समय आपके कदमों के निशाँ उभरे थे आत्मविश्वास के साथ यहां की हवा ले आई है मेरे पास इतिहास की गूढ़ गंध आँखों के सामने से धीरे से सरक रहा है अदभुत अतीत मैं खोलने की कोशिश में प्रमेय को की कहाँ से आई होगी आप की कृश काया में प्रबल प्रतिरोध की नैतिक ताक़त पराई जमीन पर
आप नहीं थे मसीहा नबी संत महंत थे खालिस शफ्फाक ईमानदार इंसान आपके भीतर था अहसानों अक्ल का अनबुझ अद्वैत आपके करम का साया था समूचे मानवजाति पर
आप के लिए प्रेम ही सत्य था बहुधर्मी देश ही बस्ती थी ईश्वर की आपको कभी कबूल नहीं थी सत्य के बिना सत्ता समता के बिना समाज और नैतिकता के बिना नेता
बापू, मुझे लिखनी थी आपकी जिंदगी से प्रेरित हुए
कृष्णावर्णी लौहपुरुष के बुत के सामने बैठ कर मानव मुक्ति की उजली कविता
लेकिन इस आजाद प्रजातांत्रिक देश में मेरा पेन पाकिट घड़ी मोबाइल सब कुछ लूट लिया है नुक्कड़ पर मटरगश्ती कर रहे चार बेरोजगार युवाओं ने अहिंसक तरीके से
और मैं भ्रम में पड़ गया हूँ कि मैं कहाँ हूँ? कहीं अपने ही वतन में तो नहीं ना?
चंद्रकांत पाटील मराठी हिन्दी में समान अधिकार रखते हैं। पहल से उनका नाता काफी प्राचीन है। जिन महानुभावों ने पहल को श्रेष्ठ साहित्य उपलब्ध कराया उनमें निशिकांत ठकार, चंद्रकांत पाटील, सतीश कालसेकर को याद करते हैं। गांधी पर गुर्जर की विवादास्पद लंबी कविता 'गांधी मले भेटला’ पहल ने प्रकाशित की थी।
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