गांधी स्मृति

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    अगस्त : 2019
श्रेणी गांधी स्मृति
संस्करण अगस्त : 2019
लेखक का नाम सुभाष गाताडे





पहल विशेष

दक्षिणपंथियों द्वारा नाथूराम गोडसे को महामंडित करने के अवसर पर

 

 

 

 

कितनी दूर, कितनी पास?

 

दर्द ओ ग़म-ए-हयास का दरमां चला गया

वो खिज्र-ए-असर-ओ-ईसा-ए-दौरां चला गया

हिन्दू चला गया ना मुसलमां चला गया

इन्सां की जुस्तजू में इक इन्सां चला गया

                                - मज़ाज

 

30 जनवरी 1948। शाम पांच बजकर 15 मिनिट का वक्त हो रहा था।

गांधीजी बेहद तेजी से बिड़ला हाउस के प्रार्थना सभागार की ओर जा रहे थे। उन्हें थोड़ी देरी हुई थी। उनके स्टाफ के एक सदस्य गुरूबचन सिंह ने अपनी घड़ी निकालते हुए कहा कि ''बापू आज आप को थोड़ी देरी हो रही है। गांधीजी ने हंसते हुए जवाब दिया था कि जो देरी करते है उन्हें उसकी सज़ा अवश्य मिलती है।’’

किसको यह गुमान था कि चन्द कदम दूर मौत उनके लिए मुन्तज़िर खड़ी है।

दो मिनट बाद ही अपनी बेरेटा पिस्तौल से नाथूराम गोडसे ने उन पर गोलियां दागीं और गांधी जी ने अन्तिम सांस ली।

गांधी हत्या को याद करते हुए प्रस्तुत आलेख में ''कुलदीप नैयर का संस्मरण उद्धृत किया गया है, जो उन दिनों 'अंजाम’ नामक अखबार में काम कर रहे थे।

''जब मैं पहुंचा तो वहां कोई सिक्योरिटी नहीं थी। बिड़ला हाउस का गेट हमेशा की तरह खुला था। उस समय मैंने जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल को देखा। मौलाना आज़ाद कुर्सी पर बैठे हुए थे ग़मगीन। माउंटबेटन मेरे सामने ही आए। उन्होंने आते ही गांधी के पार्थिव शरीर को सैल्यूट किया। माउंटबेटन को देखते ही एक व्यक्ति चिल्लाया - गांधी को एक मुसलमान ने मारा है। माउंटबेटन ने गुस्से में जवाब दिया - यू फूल, डोन्ट यू नो। इट वॉज़ ए हिंदू! मैं पीछे चला गया और मैंने महसूस किया कि इतिहास यहीं पर फूट रहा है। मैंने ये भी महसूस किया कि आज हमारे सिर पर हाथ रखने वाला कोई नहीं है।

बापू हमारे गमों का प्रतिनिधित्व करते थे, हमारी खुशियों का और हमारी आकांक्षाओं का भी। हमें ये जरूर लगा कि हमारे ग़म ने हमें इकट्ठा कर दिया है। इतने में मैंने देखा कि नेहरू छलांग लगाकर दीवार पर चढ़ गए और उन्होंने घोषणा की कि गांधी अब इस दुनिया में नहीं है।

गांधी हत्या का तत्काल यह असर हुआ कि दंगे रुक गए। अल्पसंख्यकों पर जारी हमलों का सिलसिला रुक गया था। हिन्दोस्तां में ही नहीं बल्कि पाकिस्तान में भी।’’

आप गए हैं 'गांधी स्मृति’

गांधी का इन्तकाल हुए इकहत्तर साल बीत चुके है। यह गांधी के जन्म का 150 वां साल भी है। पूरे देश में यह साल मनाया जा रहा है।

इस पृष्ठभूमि में एक अदद सवाल पूछना समीचीन हो सकता है कि गांधी स्मृति - जो दिल्ली के तीस जनवरी मार्ग पर स्थिति है/जिसे पहले बिड़ला हाउस के नाम से जाना जाता था/ - जहां गांधी ने अपनी जिन्दगी के आखिरी 144 दिन गुजारे और उसी जगह पर 30 जनवरी की शाम हिंदुत्ववादी आतंकी गोडसे ने उनकी हत्या की थी - कितने लोगों ने देखा है? मेरे मित्र एवं प्रसिद्ध बुद्धिजीवी अपूर्वानन्द इस प्रश्न को अपनी कई सभाओं में उठा चुके हैं। उनका यह भी कहना है कि दिल्ली के तमाम स्कूलों में उन्होंने यह जानने की कोशिश की, और उन्होंने यही पाया कि लगभग 99 फीसदी छात्रों ने इस स्थान के बारे में ठीक से सुना नहीं है और वहां जाने की बात तो दूर रही।

आखिर ऐसी क्या वजह है कि दिल्ली के तमाम स्कूल जब अपने विद्यार्थियों को दिल्ली दर्शन के लिए ले जाते हैं, तो उस जगह पर ले जाना गंवारा नहीं करते, जो गांधी के अंतिम दिनों की शरणगाह थी। जहां रोज शाम वह प्रार्थनासभाओं का आयोजन करते थे और जहां उन्होंने अपने जीवन की आखिरी लड़ाई लड़ी थी - आमरण अनशन के रूप में ताकि दिल्ली में अमन चैन कायम हो जाए। कभी एक दूसरे के कंधे से कंधा मिलाकर लड़ रहे लोगों को एक दूसरे के खून का प्यासा होते देख उन्होंने अन्त तक कोशिश की और कम से कम यह तो दावे के साथ कहा जा सकता है कि उनकी कुर्बानी ने इसे एक हद तक पूरा भी किया था।

ऐसी यात्रा कम से कम छात्रों के लिए अपने ही इतिहास के उन तमाम पन्नों को खोल सकती है और वह जान सकते है कि आस्था के नाम पर लोग जब एक दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं तो क्या हो सकता है। छात्र अपने इतिहास के बारे में जान सकते है कि धर्म और राजनीति का सम्मिश्रण किस तरह खतरनाक हो सकता है। वे जान सकते हैं कि गोहत्या पर सरकारी कानून बनाने को लेकर उनके विचार क्या थे और देशद्रोह की बात को वह किस नज़रिये से देखते थे?

यह बात अब इतिहास हो चुकी है कि सितम्बर 1947 को महात्मा गांधी कोलकाता से दिल्ली पहुंचे थे। जहां उन्होंने अपने इसी किस्म के संघर्ष के बलबूते विभिन्न आस्थाओं की दुहाई देने वाले दंगाइयों को झुकने के लिए मजबूर किया था। 4 सितम्बर की शाम कोलकाता के हिन्दू-मुस्लिम-सिख नेताओं को सम्बोधित करते हुए - जो 72 घंटे से चल रही गांधी की भूख हड़ताल से आपसी समझौते तक पहुंचे थे और उन्होंने कोलकाता को दंगों से दूर रखने का आश्वासन गांधी को दिया था - गांधी ने साफ कहा था -

''कोलकाता के पास आज भारत में अमन चैन कायम होने की चाबी है। अगर यहां छोटी सी घटना होती है तो बाकी जगह पर उसकी प्रतिक्रिया होगी। अगर बाकी मुल्क में आग भी लग जाए तो यह आप की जिम्मेदारी बनती है कि कोलकाता को आग से बचाएं।’’

रेखांकित करनेवाली बात यह है कि कोलकाता का यह 'चमत्कार’ कायम रहा। भले ही पंजाब या पाकिस्तान के कराची, लाहौर आदि में अभी स्थिति बदतर होने वाली थी, मगर कोलकातावासियों ने अपने वायदे को बखूबी निभाया था। कोलकाता में मौजूद उनके पुराने मित्र सी. राजगोपालाचारी - जो बाद में देश के पहले गर्वनर जनरल बने - ने लिखा है 'गांधी ने तमाम चीजों को हासिल किया है। अगर कोलकाता में उन्होंने बुराई पर जो जीत हासिल की है उससे आश्चर्यजनक चीज़ तो आजादी भी नहीं थी।’

याद रहे दिल्ली से पाकिस्तान जाने का उनका इरादा था ताकि वहां अल्पसंख्यकों पर हो रहे हमलों के खिलाफ वह आवाज बुलन्द पर सकें। दिल्ली के इस अंतिम प्रयास में जब वह मुसलमानों की हिफाजत के लिए सक्रिय रहे तब हिन्दूवादियों ने उन पर यह आरोप लगाए थे कि वह 'मुस्लिमपरस्त’ हैं, तो उन्होंने सीधा फार्मूला बताया था : भारत में मैं मुस्लिमपरस्त हूं तो पाकिस्तान में हिन्दूपरस्त। अर्थात् कहीं कोई अल्पमत में है और इसी वजह से उन पर हमले हो रहे हैं तो वह उसके साथ खड़े हैं। ऐसे लोगों को वह नौआखाली की अपनी कई माह की यात्रा का अनुभव भी बताते जहां वह कई माह रुके थे और मुस्लिम बहुमत के हाथों हिन्दू अल्पमत पर हो रहे हमलों के विरोध में अमन कायम करने आपसी सद्भाव बनाने की कोशिश कर रहे थे।

शाहदरा स्टेशन पर उन्हें लेने नवस्वाधीन मुल्क के प्रथम गृहमंत्री वल्लभभाई पटेल पहुंचे थे। 12 जनवरी की प्रार्थनासभा में जब वह अगले ही दिन से अपने आखिरी अनशन की शुरूआत करने वाले थे, उन्होंने लोगों को बताया था कि सितम्बर में जब वह दिल्ली पहुंचे थे तो दिल्ली के हालात कितने खराब थे। उन्होंने बताया था कि हमेशा हंसमुख रहने वाले पटेल का चेहरा थोड़ा उतरा हुआ था। उन्होंने गांधी को बताया था कि दिल्ली के हालात दिन ब दिन खराब होते जा रहे हैं, पाकिस्तान से आए हिन्दू एवं सिख शरणार्थी मुसलमानों के घरों, प्रार्थनास्थलों पर हमले कर रहे हैं, उन पर कब्जा कर रहे हैं। मेहरौली के दरगाह पर हिन्दुओं ने कब्जा कर लिया है और खादिमों को वहां से भगा दिया है। उसी वक्त उन्होंने फैसला लिया था कि वह दिल्ली में ही रहेंगे और जब तक दिल्ली में शान्ति कायम नहीं होती तब तक आगे नहीं जाएंगे। और वह वहीं डटे रहे। उसके बाद 144 दिनों की उनकी कोशिशें - जब वह शरणार्थी शिविरों में गए, तमाम दंगापीडि़तों से मिलते रहे और अन्त में दिल्ली में अमन कायम करने के लिए उन्होंने जनवरी माह में आमरण अनशन किया था, अपनी जिन्दगी की अंतिम भूख हड़ताल की थी।

दिसम्बर माह में अपने एक मित्र को लिखे पत्र में, जो गांधी स्मृति में बने म्यूजियम में रखा है, गांधी ने बिड़ला हाउस में रहने के अपने निर्णय के बारे में लिखा है -

''दिल्ली एक मुर्दा शहर है। फिर एक बार दंगे शुरू हुए हैं और 'भंगी कालोनी’ (जैसा कि 'वाल्मिकी बस्ती’ को उन दिनों जाना जाता था - लेखक) शरणार्थियों से भरी थी। सरदार पटेल ने इसलिए तय किया कि मेरे रुकने का इन्तज़ाम बिड़ला हाउस में करेंगे... दिल्ली में टिकने के पीछे मेरा मुख्य उद्देश्य मुसलमानों को थोड़ी बहुत सांत्वना प्रदान करना था। इस मकसद को वहां रह कर ठीक से पूरा किया जा सकता था। मुसलमान दोस्तों को यहां पहुंचना अधिक सुरक्षित लगता था।’’

लगभग एक माह बाद दिल्ली के मुसलमानों का एक समूह उनसे वहां मिलने पहुंचा, जिन्होंने 'इंग्लैण्ड जाने में मदद’ करने के लिए गांधी से गुजारिश की थी। दरअसल वह पाकिस्तान जाना नहीं चाहते थे मगर हालात जैसे जैसे बदतर हो रहे थे, भारत में रहना मुश्किल हो रहा था। गांधी को लगा कि वह पराजित हो रहे हैं। और फिर उन्होंने एक बार आमरण अनशन करने का फैसला लिया था।

अपनी जिन्दगी का लम्बा हिस्सा उपनिवेशवादी ताकतों के खिलाफ संघर्ष में बिताने वाले गांधी उस वक्त एक अलग किस्म के संघर्ष में उलझे हुए थे। वह अपने ही लोगों के खिलाफ खड़े थे, जो एक दूसरे के खून के प्यासे हो चुके थे। जिस गांधी के नाम की जय कभी पूरे हिन्दोस्तां में लगती थी। वहां अब गांधी मुर्दाबाद के नारे लग रहे थे। बिड़ला हाउस के बाहर शरणार्थी गांधी की कोशिशों का विरोध कर रहे थे।

यह बात छात्रों को बताने की जरूरत महसूस क्यों नहीं की गई कि सत्य और न्याय की हिफाजत के लिए कभी अकेले ही खड़े रहना पड़ता है और अपनी जान की बाजी भी लगानी पड़ती है। यह ऐसा सबक है जो न केवल सार्वजनिक जीवन बल्कि व्यक्तिगत जीवन में, अध्ययन में, नयी नयी बातों के अन्वेषण की तरफ झुकने के लिए छात्रों को प्रेरित कर सकता है। आज के वक्त में जबकि उन्हें बुनियादी मसलों से दूर करके हिन्दु-मुस्लिम डिबेट में उलझाए रखा जा रहा है, बकौल रवीश कुमार उन्हें दंगाई बनाने के प्रोजेक्ट पर लगातार काम हो रहा है। ऐसे समय में यह सरल सी लगनेवाली बात कितनी जरूरी दिखती है।

इन्सानियत की तवारीख/इतिहास में कितनी सूनी हो जाएगी अगर अपने उसूलों की हिफाजत के लिए जहर का प्याला पीने वाले महान दार्शनिक सुकरात या चर्च के आदेश पर जिन्दा जला दिए गए ब्रूनो - जिन्होंने बाइबिल के इस सिद्धांत को चुनौती दी थी कि सूर्य पृथ्वी के इर्दगिर्द नहीं घूमता है बल्कि पृथ्वी सूर्य के इर्दगिर्द घूमती है - या हिन्दु-मुसलमानों के बीच आपसी सद्भाव बना रहे, धर्म के नाम पर राष्ट्र का निर्माण नहीं हो सकता - इस उसूल के लिए, जिसकी सच्चाई अब बार बार प्रगट हो रही है, हत्यारे की गोली झेलने वाले गांधी हो, इन सभी का जिक्र उनके पन्नों से हटा दिया जाए।

रविन्द्रनाथ टैगोर का वह गीत गांधी को बहुत प्रिय था कि

'यदि डाक सुने और ना रे तो एकला चलो एकला चलो एकला चलो रे’ अर्थात

'अगर तुम्हारी आवाज़ का साथ देने के लिए कोई नहीं है तो अकेले ही आगे बढ़ो’

पौधे की तरह अल्पसंख्यक का जीवन!

आखिर 20 वीं सदी के इस महान शख्स - जिसने हमारी आजादी के आन्दोलन की अगुआई की तथा अपने अंतिम दिनों में अपने ही बहुसंख्यक लोगों के खिलाफ संघर्ष किया तथा अपनी जान तक दे दी - उसकी मृत्यु के स्थान को देखने से हम क्यों बचते आए हैं?

गांधी की सुनियोजित हत्या से एक जागरूक कहलाने वाले समाज की एक सचेतन दूरी अपने समाज के बारे में कई प्रश्न खड़े करती है। क्या हम उस घटनास्थल पर पहुंचने से इस वजह से बचते हैं कि हम उन तमाम असुविधाजनक प्रश्नों का सामना नहीं करना चाहते, जो वहां जाकर हमारे या हमारे करीबियों के बीच में ही उठा करते हैं, ऐसी बातों को सार्वजनिक दायरे से उठाने के जोखिमों से आप वाकिफ हों।

याद कर सकते हैं कि गांधी हत्या के महज चार दिन बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर पाबन्दी लगानेवाला आदेश जारी हुआ था - जब वल्लभभाई पटेल गृहमंत्री थे - जिसमें लिखा गया था कि 'ऐसे संगठनों के सदस्यों की तरफ से अवांछित, यहां तक कि खतरनाक गतिविधियों को अंजाम दिया गया है। यह देखा गया है कि देश के तमाम हिस्सों में इनके सदस्य हिंसक कार्रवाईयों में - जिनमें आगजनी, डकैती और हत्याएं शामिल हैं - मुब्तिला रहे हैं और वे अवैध ढंग से हथियार एवं विस्फोटक भी जमा करते रहे हैं। वे लोगों में पर्चे बांटते देखे गए हैं, और लोगों को यह अपील करते देख गए हैं कि यह आतंकी पद्धतियों का सहारा लें, हथियार इकट्ठा करें सरकार के खिलाफ असन्तोष पैदा करें।’

27 फरवरी 1948 को प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को लिखे अपने खत में - जबकि महात्मा गांधी की नाथूराम गोडसे एवं उनके हिन्दुत्ववादी आतंकी गिरोह के हाथों हुई हत्या को तीन सप्ताह हो गए थे - पटेल ने लिखा था।

'सावरकर के अगुवाई वाली हिन्दू महासभा के अतिवादी हिस्से ने ही हत्या के इस षडयंत्र को अंजाम दिया है ... जाहिर है उनकी हत्या का स्वागत हिन्दूवादी संगठनों के लोगों ने किया जो उनके चिन्तन एवं उनकी नीतियों की मुखालफ़ त करते हैं।’

उन्हीं पटेल ने 18 जुलाई 1948 को हिन्दू महासभा के नेता श्यामाप्रसाद मुखर्जी को लिखा था :

''...हमारी रिपोर्टे इस बात को पुष्ट करती हैं कि ऐसे संगठनों की गतिविधियों के चलते ...मुल्क में एक ऐसा वातावरण बना जिसमें ऐसी त्रासदी (गांधीजी की हत्या) मुमकिन हो सकी। मेरे मन में इस बात के प्रति तनिक सन्देह नहीं कि इस षडयंत्र में हिन्दु महासभा का अतिवादी हिस्सा शामिल था। ऐसे संगठनों की गतिविधियां सरकार एवं राज्य के अस्तित्व के लिए खतरा है। हमारी रिपोर्ट इस बात को पुष्ट करती है कि पाबन्दी के बावजूद उनमें कमी नहीं आयी है। दरअसल जैसे जैसे समय बीतता जा रहा है इनके कार्यकर्ता अधिक दुस्साहसी हो रहे हैं और अधिकाधिक तौर पर तोडफ़ोड़/विद्रोही कार्रवाईयों में लगे हैं। गांधी से आप की लाख वैचारिक असहमतियां हो सकती हैं। मगर आप इस सत्य से कैसे इन्कार कर सकते है कि साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए कुर्बानी देकर उन्होंने एक तरह से समूचे उपमहाद्वीप में अमन कायम किया था। उनकी हत्या के बाद भारत के अन्दर ही नहीं बल्कि पाकिस्तान के अन्दर अल्पसंख्यकों पर हमले बन्द हुए थे। सरहद के दोनों ओर तमाम मासूमों की जान बची थी।

और जैसा कि हम पहले ही जिक्र कर चुके हैं आजादी के बाद उनकी पहल पर चली कोशिशों का ही नतीजा था कि नवस्वाधीन मुल्क में कई जगहों पर मासूमों का खून बहने से रुका था।

कोलकाता की मिसाल आप के सामने है।

2 अक्टूबर 1947 - जो गांधी का आखिरी जन्मदिन साबित हुआ - उस दिन सी. राजगोपालाचारी ने - जो सितम्बर माह में उनकी पहल पर कायम शांति से वैसे भी गदगद थे - उन्हें कोलकाता से ही निकलने वाले दो मुस्लिम अख़बारों के सम्पादकीय भेजे थे, जिनका लुब्बोलुआब यही था कि किस तरह गांधी की कोशिशों से शहर में कायम साम्प्रदायिक सद्भाव का माहौल अभी भी बरकरार है जबकि देश के शेष हिस्सों में उन्माद उरूज़ पर है। 'मॉर्निंग न्यूज’ नामक अखबार ने कहा था -

''कोलकाता गांधीजी द्वारा अंजाम दी गयी उन अतिमानवीय कोशिशों को कभी नहीं भूलेगा जब उन्होंने शहर में संयम/स्थिरबुद्धिता कायम करने में सफलता हासिल की थी जबकि उन दिनों उसके तमाम नागरिकों से उसने फौरी बिदाई ली थी।... अपने करिश्माई व्यक्तित्व के बलबूते उन्होंने अपनी वास्तविक महानता का परिचय दिया था जब उन्होंने कोलकाता के अपराधियों के भी हृदयपरिवर्तन करने में सफलता मिली थी.. आज गांधीजी जब 79 वें साल में दाखिल हो रहे हैं और उनके नाम तमाम कामयाबियां दर्ज है। उन्हें इस बात को लेकर अत्यधिक सुकून हो सकता है कि उन्होंने दुनिया की सबसे शक्तिशाली सैन्यशक्ति के सामने उसी तकनीक का प्रयोग सफलता से किया...’’

यह अलग बात है कि कोलकाता की इन ख़बरों से गांधी कतई प्रसन्न नहीं हुए थे क्योंकि दिल्ली, पंजाब तथा देश के कई हिस्सों में अभी भी आग लगी हुई थी। और इसी उद्विग्नता में उन्होंने उन्हें मिल रही बधाइयों का जवाब देते हुए कहा था 'मुबारक बाद से बेहतर होता उन्हें शोक संदेश दिए जाते।’’

गांधी की मृत्यु शीर्षक से नाटक रचनेवाले महान हंगेरियन नाटककार नेमेथ लास्लो ने अपने नाटक में इस अवसर पर गांधी का एक स्वगत भाषण पेश किया है :

मुझे अपने जीवन के 78 वें जन्मदिन पर बधाइयां मिल रही हैं। मगर मैं अपने आप से पूछ रहा हूं इन तारों का क्या फायदा? क्या ये सही नहीं होता कि मुझे शोक संदेश दिए जाते? एक वक्त था जब मैं जो भी कहूं, लोक उस पर अमल करते थे, आज मैं क्या हूं? मरुस्थल में एक अकेली आवाज़। जिस तरफ देखूं सुनने को मिलता है कि हिंदुस्तान की यूनियन में हम मुसलमानों को बर्दाश्त नहीं करना चाहते। आज मुसलमान हैं, कल पारसी, ईसाई, यहूदी, तमाम यूरोपीय लोग। इस तरह के हालात में इन बधाईयों का मैं क्या करूँ?

नाटककार ने लिखा है कि गांधी ने ''यह साबित कर दिखाया है कि परिशुद्ध औजारों और नैतिक श्रेष्ठता के हथियारों से भी कोई ऐतिहासिक विजय पा सकता है। एक विशाल साम्राज्य को मुक्त करा सकता है, और औपनिवेशिकता की प्रक्रिया को उलट सकता है।’’ एक गुलाम राष्ट्र तथा ट्रासिल्वैनिया में रहने वाले अल्पसंख्यकों - हंगेरियनों की तुलना करते हुए नेमेथ लास्लो ने कहा कि अल्पसंख्यक का जीवन एक पौधे की तरह है, जबकि बहुसंख्यक राष्ट्र एक शिकारी जैसा होता है।

गांधी के मृत्युस्थल से निरंतर रही हमारी इस दूरी की गहरी विवेचना जरूरी है जो पूरे समाज को किसी गहरी कमी या असाध्य बीमारी की तरफ इशारा करती दिखती है, जो निरपराध/निरपराधों के हत्यारे की खुलेआम भत्र्सना करने के बजाय अचानक तटस्थ रुख अख्तियार करती है और बेहद शालीन, बुद्धिमत्तापूर्ण अन्दाज में हत्यारे के 'सरोकारों’, उसकी 'चिन्ताओं’ में झांकने लगती है।

यह अकारण नहीं कि हिन्दुत्व अतिवादी नाथूराम गोडसे - जो आतंकी मोडयूल का अगुआ था जिसने महात्मा गांधी की हत्या की - का बढ़ता सार्वजनिक महिमामण्डन हमारे समय की एक नोट करने लायक परिघटना है।

नया इंडिया, नया हीरो?

''...हमारे युग का नाटक, सज्जनों, यह दरअसल एक चित्र है, किसी एक व्यक्ति का नहीं, वह एक समूची पीढ़ी के दुर्गुणों का समुच्चय है जो पूरे शबाब पर है।’’

कुछ समय पहले 'आल्टन्यूज’ ने नाथूराम गोडसे पर एक स्टोरी की थी जहां गोडसे के हिमायतियों की बड़ी तादाद को उजागर किया था। लोग यह कहते हुए नजर आये थे :

''गोडसे को ईश्वर ने भेजा था’’, ''गांधी को फांसी दी जानी थी’’, ''गांधी को मारने के गोडसे के वाजिब कारण थे।’’ ''मैं इस बात को दोहराता हूं कि मैं गोडसे का फैन हूं, फिर क्या हुआ?’’

याद करें उसके हिमायतियों की तरफ से इस ''महान देशभक्त’’ के मंदिरों का देश भर में निर्माण करने की योजना भी बनी है।’’ वैसे यह बात चुपचाप तरीके से लम्बे समय से चल रही है। वर्ष 2015 में हिन्दु महासभा ने गोडसे के जीवन पर एक बेवसाइट भी शुरू की। संसद के पटल पर भाजपा के सांसद साक्षी महाराज ने गोडसे को 'देशभक्त’ के तौर पर संबोधित किया था। 2014 के संसद के चुनावों में भाजपा की तरफ से प्रत्याशी रहे व्यक्ति ने यह लेख लिख कर खलबली मचा दी थी कि 'गोडसे ने गलत निशाना साधा था उसे गांधी को नहीं बल्कि नेहरू को मारना चाहिए था।’ जैसी कि उम्मीद की जा सकती है, भाजपा - जो कुछ समय से गांधी का भी गुणगान करती रही है - ने अपने इन दो 'होनहारों’ के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की।

महाराष्ट्र एवं पश्चिमी भारत के कई हिस्सों से 15 नवम्बर के दिन - जिस दिन नाथूराम को फांसी दी गयी थी - हर साल उसका 'शहादत दिवस’ मनाने के समाचार मिलते रहते हैं। मुंबई एवं पुणे जैसे शहरों में तो नाथूराम गोडसे के 'सम्मान’ में सार्वजनिक कार्यक्रम भी होते हैं। लोगों को यह भी याद होगा कि वर्ष 2006 के अप्रैल में महाराष्ट्र के नांदेड़ में बम बनाते मारे गए हिमांशु पानसे और राजीव राजकोंडवार के मामले की तफ्तीश के दौरान ही पुलिस को यह समाचार मिला था कि किस तरह हिन्दुत्ववादी संगठनों के वरिष्ठ नेता उनके सम्पर्क में थे और आतंकियों का यह समूह हर साल 'नाथूराम हौतात्म्य दिन’ मनाता था।  दरअसल चीजें इतना बेधड़क आगे बढ़ रही हैं कि गोडसे के सम्मान में पोस्टर मिलना राजधानी में भी आम हो चला है।

'निश्चित ही गोडसे कोई अपवाद नहीं है नायक को 'गढऩे’ की हिन्दुत्ववादियों की अन्तहीन सी लगनेवाली कवायद और जनता के एक मुखर हिस्से में उनकी स्वीकार्यता का।

मिसाल के तौर पर दो साल पहले शंभूलाल रैगर नाम के एक 'नये नायक’ से हम सभी रूबरू हुए हैं।

किसी भी साधारण व्यक्ति के लिए यह जानना सुन्न करनेवाला हो सकता था कि सैकड़ों की तादाद में लोग - जो किसी दक्षिणपंथी तंज़ीम से ताल्लुक रखते थे - केवल इस हत्यारे की हिमायत में सड़कों पर उतरे बल्कि उन्होंने उसके मानवद्रोही कारनामे को सही ठहराया, जहां वह एक निरपराध व्यक्ति को अपनी कुल्हाड़ी से मारता दिखता है और उसका वीडियो भी जारी करता है, और किस तरह पांच सौ से अधिक लोगों ने 'उसके परिवार की सहायता के नाम पर उसके बैंक खाते में लगभग 25 लाख रुपये भेजे। इतना ही नहीं बाद में रामनवमी के दिन निकलने वाली झांकी में भी शंभूलाल जैसे दिखनेवाले व्यक्ति को बिठा कर उस रक्तरंजित प्रसंग को अभिनीत किया या।

शंभूलाल के इस महिमामण्डन ने इसे लगभग दो दशक पहले के एक अन्य प्रसंग की याद दिलायी जब कुष्ठरोग निवारण में मुब्तिला एक पादरी ग्रैहम स्टीन्स एवं उसके दो बच्चों - फिलिप और तिमोथी को उड़ीसा के मनोहरपुर में नींद में ही पचास से अधिक लोगों ने जिन्दा जला दिया। जिस हत्यारे गिरोह की अगुआई रविन्दर पाल सिंह उर्फ दारा सिंह कर रहा था। इस हत्यारे पर एक मुस्लिम व्यापारी शेख रहमान और अन्य ईसाई पादरी अरुल दास की हत्या करने के भी आरोप लगे थे। ग्रैहम स्टीन्स एवं उसके बच्चों की हत्या के जुर्म में उसे उम्र कैद की सजा सुनायी गयी थी। अगर शंभू द्वारा अफराजुल की हत्या को 'लव जिहाद’ का मुद्दा बता कर 'औचित्य’ प्रदान किया गया था तो स्टीन्स की हत्या को 'धर्मांतरण’ के नाम पर 'सही’ ठहराया जा रहा था।

जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध

अगर 'गांधी स्मृति’ को लेकर हमारे बढ़ते स्मृतिलोप के प्रसंग की ओर फिर लौटें तो क्या यह कहना वाजिब होगा कि इसमें हमें हिंसा/जनसंहार की घटनाओं को लेकर भारतीय समाज की अपनी गहरी बेरुखी/असम्पृक्तता दिखती है, जो बड़े-बड़े जनसंहारों को भी ज•ब करती आयी है। उल्टे ऐसी हिंसा के अंजामकर्ताओं को हम गौरवान्वित करते आए हैं, हृदय सम्राट के तौर पर नवाज़ते आए हैं और कभी-कभी तो सत्ता की बागडोर भी सौंपते आए हैं।

क्या हमारी यह बेरुखी इस वजह से उपजी है क्योंकि इस हत्या को औचित्य प्रदान करने में कहीं न कहीं हम खुद शामिल रहते आए हैं जो विभिन्न रूपों में अभिव्यक्त होती रही है। 'आज़ादी तक तो सबको साथ ले चलने की बात ठीक थी, मगर आज़ादी के बाद खास समुदाय की हिमायत क्यों की जाए’, 'गांधी महान शख्स रहे हैं, हमारी आज़ादी के आन्दोलन के अगुआ रहे हैं, मगर 55 करोड़ का हठ करके उन्होंने कुछ लोगों को नाराज तो किया था’ 'गोडसे के मानवद्रोही कारनामे का औचित्य प्रदान करनेवाले या उसमें कुछ तर्क ढूंढऩेवाले लोग सार्वजनिक जीवन में भी रहते आए हैं।

एक तरीका इस मानवद्रोही कारनामे को लेकर तटस्थ दिखने का होता है, जो निश्चित ही कहीं न कहीं हत्या की बहस के संदर्भ में हमारे लिए यह जरूरी है कि हम 'अच्छे और बुरे की बाइनरी/द्विविधता’ से परे जाएं। उनकी दलील रफ्ता रफ्ता सार्वजनिक अवधारणा और सापेक्षतावाद की तरफ बढ़ती है:

'अगर किसी को गांधी के महिमामण्डन का अधिकार है, तो निश्चित ही बाकियों को उनकी आलोचना करने का अधिकार है या उनका जो हश्र हुआ उसकी प्रशंसा करने का अधिकार है? अगर आज हम रावण/राम नहीं/की कहानी के काल्पनिक पक्ष को बयां करते हुए किताबें लिख सकते हैं तो निश्चित ही हम उन लोगों के विचारों के साथ भी जी सकते हैं जो गोडसे को पूरी तरह खराब नहीं मानते थे।’’

स्तंभकार/सम्पादक महोदय यह भी जोड़ते हैं -

''गोडसे के बारे में सबसे गलत बात थी कि उसने महात्मा से बहस करने और भारत की जनता को अपनी तरफ मोडऩे के बजाय उन्हें गोलियों से खतम कर दिया। मगर वह ऐसा समय था जब जनता गांधी की दीवानी थी और वह दूसरों की बात सुनने के लिए तैयार नहीं थी। गोडसे के विचार गांधी की लोकप्रियता के आगे टिक नहीं सकते थे और इसी निराशा ने उसे हत्या की तरफ ढकेला।’’

संघ के एक सुप्रीमो थे राजेन्द्र सिंह उनसे जब पूछा गया कि गांधी के हत्यारे गोडसे के बारे में वह क्या सोचते हैं तो उनका जवाब था :

''गोडसे अखंड भारत के दर्शन से प्रेरित था। उसके मन्तव्य अच्छे थे पर उसने अच्छे उद्देश्य के लिए गलत मेथड इस्तेमाल किया।’’

क्या यह कहा जाना वाजिब होगा कि नैतिक सापेक्षतावाद का यही वह जड़मूल चिन्तन है जो किसी 'महाभारत’ में अपने ही आत्मीयों के खिलाफ अस्त्र उठाने के लिए विवश किसी 'अर्जुन’ के द्वंद्वों से रूबरू होने के बजाय उसे यह समझा देता है कि यह आसन्न हिंसा दरअसल हिंसा है ही नहीं।

गांधी स्मृति से हमारी दूरी महज भौतिक नहीं है बल्कि मानसिक भी है।

लाज़िम है कि हम इतना तो जानते हैं कि 30 जनवरी को गोडसे की गोली से गांधी मारे गए, जिसे आज़ाद भारत की पहली आतंकवादी कार्रवाई के तौर पर जाना जाता है और हमें अधिक से अधिक इतना याद रहता है कि उसके पहले 20 जनवरी को गांधी को मारने का प्रयास उसी आतंकी मोडयूल ने किया था, जब उन्होंने बिड़ला हाउस पर बम फेंका था और जिस असफल कार्रवाई में मुब्तिला मदनलाल पाहवा इसमें पकड़ा गया था।

अधिकतर पढ़े लिखे लोग भी इस हक़ीकत से परिचित ही नहीं रहते हैं कि तीस के दशक के मध्य से ही जब आज़ादी का आन्दोलन अपने उरूज पर था तभी से हिंदुत्ववादी जमातें गांधी हत्या के षडयंत्र में मुब्तिला थीं और उन्हें मारने की एक दो नहीं बल्कि छह कोशिशें हुई थीं, जिसमें दो कोशिशों में नाथूराम गोडसे खुद शामिल था।

फिर स्वतंत्रता सेनानी भिलारे गुरुजी को कौन जानेगा। जिन्होंने गोडसे की एक ऐसी ही कोशिश को विफल किया था, जब वह छुरा लेकर गांधी को मारने दौड़ा था।

भिलारे गुरुजी को जानना क्यों जरूरी है?

''पंचगणी में महात्मा गांधी की प्रार्थना सभा में आने की सभी को अनुमति मिली थी। उस दिन, उनके सहयोगी उषा मेहता, प्यारेलाल, अरुणा आसफ अली और अन्य प्रार्थना में उपस्थित थे। हाथ में खंजर लिए गोडसे गांधी की तरफ भागा और कहा कि उसके कुछ सवाल है। मैंने उसे रोका, उसका हाथ मरोड़ा और उसका चाकू छीना।’’

भिखु दाजी भिलारे (जन्म 26 नवंबर 1918) जिनका 98 साल की उम्र में निधन हुआ। तब न केवल जीवन के तमाम क्षेत्रों से जुड़े लोग और अलग-अलग राजनीतिक धाराओं से सम्बद्ध लोग हजारों की तादाद में उनके अंतिम संस्कार में शामिल हुए बल्कि मुख्यधारा के मीडिया ने भी इसकी खबर पाठकों को दी। यह मुमकिन है कि अपनी युवावस्था में राष्ट्रीय सेवा दल से सम्बद्ध रहे भिलारे गुरूजी - जैसा कि लोग उन्हें प्रेम और आदर से सम्बोधित करते थे - जो 1942 के झंझावाती दिनों में क्रांतिकारी नाना पाटील की अगुआई में सतारा जिले में बनी समानान्तर सरकार में सक्रिय थे और जिन्होंने विधायक के तौर पर जवाली विधानसभा की 18 साल तक नुमाइन्दगी की - लगातार सामाजिक-राजनीतिक कामों में सक्रिय रहे।

तयशुदा बात है कि अधिकतर लोग उनकी जिन्दगी के उस साहसिक कार्य के बारे में नहीं जानते होंगे - जब उन्होंने मुल्क के इतिहास में एक नाजुक वक्त में गांधीजी की जान बचायी थी, तब आजादी करीब थी और तेजी से बदलते घटनाक्रम में गांधीजी अहम भूमिका निभा रहे थे। यह 1944 का साल था जब गांधी पुणे के नजदीक हिल स्टेशन पंचगणी (मई 1944) पहुंचे थे, जब वहां 15-20नौजवानों का एक दस्ता चार्टर्ड बस में पहुंचा। इन नौजवानों ने उनके खिलाफ आवास के सामने विरोध प्रदर्शन किया मगर जब गांधी ने उन्हें वार्ता के लिए बुलाया तो वे नहीं आए, उसी वक्त यह हमला हुआ था।

गांधी के प्रपौत्र/परपोता तुषार गांधी अपनी किताब 'लेट अस किल गांधी’ में इस घटना का जिक्र करते हैं। वह बताते हैं कि किस तरह प्रार्थना सभा में नेहरू शर्ट, पाजामा और जैकेट पहने नाथूराम गोडसे, हाथ में खंजर लिए गांधीजी की तरफ लपका था।

भिलारे गुरूजी और मणिशंकर पुरोहित ने गोडसे को कब्जे में किया। गोडसे के साथ जो दो युवा थे, वह वहां से भाग गए।

गांधीजी को मारने का पहला प्रयास (25 जून 1934)

...दरअसल 25 जून 1934 को पुणे के कार्पोरेशन के सभागार में वह भाषण देने जा रहे थे। कस्तूरबा उनके साथ थीं। इसे संयोग कहा जा सकता है कि गांधी और कस्तूरबा जिस कार में थे, उसी किस्म की एक अन्य कार भी इसमें थी। इत्तेफाक से गांधी जिस कार में जा रहे थे, उसमें कोई खराबी आ गयी और उसे पहुंचने में विलम्ब हुआ।

पहली कार ऑडिटोरियम पहुंची और स्वागत समिति के सदस्य यह मानते हुए कि गांधीजी पहुंच गए हैं, तुरंत उनकी अगवानी के लिए दौड़े तब एक बम कार पर फेंका गया। इस धमाके में नगरपालिका का प्रमुख अधिकारी और कुछ अन्य कर्मचारी घायल हुए। हमलावर भाग निकला और फिर इस मामले की जांच और गिरफ्तारी का कोई रेकार्ड उपलब्ध नहीं है।

महात्मा के तत्कालीन सेक्रेटरी प्यारेलाल अपनी किताब 'महात्मा गांधी : द लास्ट फेस’ में इस बात का उल्लेख करते हैं कि बम को गांधी विरोधी हिन्दू अतिवादियों ने फेंका था। उन्होंने लिखा था कि ''इस बार उनकी कोशिश सुनियोजित थी।’’ कहने का तात्पर्य था कि इसके पहले की उनकी कोशिशें ठीक से नियोजित नहीं थीं और उनमें समन्वय का अभाव था। प्यारेलाल ने यह भी लिखा है, ''इन लोगों ने गांधी, नेहरू और अन्य कांग्रेसी नेताओं की तस्वीरों को अपने जूतों में रखा था। गांधी के फोटोग्राफ को निशाना बनाकर वह गोली चलाने का अभ्यास करते थे। ये वही लोग थे जिन्होंने 1948 में महात्मा गांधी की हत्या की जब वे दिल्ली में अमन कायम करने की कोशिश कर रहे थे।’’

गांधी को मारने की दूसरी कोशिश में नाथूराम गोडसे भी शामिल था। पुणे से पंचगणी रवाना होने के पहले गोडसे ने अपने पत्रकार दोस्तों के सामने डींग हाकी थी कि गांधी को लेकर कोई महत्वपूर्ण खबर जल्द ही उन्हें पंचगणी से मिलेगी। जोगलेकर, जो गोडसे द्वारा सम्पादित अखबार 'अग्रणी’ से जुड़े थे, उन्होंने इस बात की ताईद की। ए डेविड, जो पुणेे से निकलने वाले अखबार 'पुणे हेराल्ड’ के सम्पादक थे उन्होंने कपूर आयोग के सामने गवाही देते हुए कहा कि महात्मा को मारने की कोशिश उस दिन पंचगणी में हुई थी।

सितम्बर 1944 में जब जिन्ना के साथ गांधी की वार्ता शुरू हुई तब उन्हें मारने की तीसरी कोशिश हुई।

उन दिनों महात्मा गांधी मोहम्मद अली जिन्ना के साथ वार्ता की तैयारी में जुटे थे। हिन्दू महासभा इसके विरोध में थी। नाथूराम गोडसे और एल जी थत्ते इसके खिलाफ खुलकर अभियान चला रहे थे। उन्होंने ऐलान किया था कि वह किसी भी सूरत में गांधी को रोकेंगे। वार्ता के सिलसिले में जब सेवाग्राम आश्रम से निकलकर गांधी मुम्बई जा रहे थे, तब नाधूराम और थत्ते की अगुवाई में अतिवादी हिन्दु युवकों ने उन्हें रोकने की कोशिश की। उनके साथ बंगाल के कुछ युवक थे। उनका कहना था कि गांधीजी को जिन्ना के साथ वार्ता नहीं करना चाहिए। उस वक्त भी नाथूराम के कब्जे से एक खंजर बरामद हुआ था। इस हमले में डा. सुशीला नायर ने कपूर जांच आयोग के सामने गवाही दी थी।

गांधी की हत्या की चौथी कोशिश जून 1946  में हुई जिस ट्रेन में वे पुणे की यात्रा कर रहे थे, उसमें तोडफ़ोड़ करने की कोशिश की गयी। 'पुणे के रास्ते में गांधीजी को ले जाने वाली ट्रेन - जिसे गांधी स्पेशल कहा जा रहा था - नेरूल और कर्जल स्टेशनों के बीच दुर्घटना का शिकार हुई। ड्राइवर का कहना था कि रेलवे के ट्रेक पर बड़े बोल्डर रखे गए थे जिसमें साफ इरादा था कि ट्रेन को पटरी से उतारा जाए। ट्रेन उन बोल्डरों से टकरायी, अलबत्ता ड्राइवर की सावधानी से बड़ी दुर्घटना होते होते बची क्योंकि उसने पहले ही ट्रेन को धीमा किया था।

गांधीजी को मारने की पांचवी कोशिश (20 जनवरी 1948) में वही समूह शामिल था जिसने अंतत: 30 जनवरी को उनकी हत्या की। इसमें शामिल था मदनलाल पाहवा, शंकर किस्तैया, दिगम्बर बडग़े, विष्णु करकरे, गोपाल गोडसे, नाथूराम गोडसे और नारायण आपटे। योजना बनी थी कि महात्मा गांधी और हुसैन शहीद सुरहावर्दी पर हमला किया जा। इस प्रयास में मदनलाल पाहवा ने बिडला भवन स्थित मंच के पीछे की दीवार पर कपड़े में लपेटकर बम रखा था, जहां उन दिनों गांधी रुके थे। बम का धमाका हुआ, मगर कोई दुर्घटना नहीं हुई, और पाहवा पकड़ा गया। समूह में शामिल अन्य लोग जिन्हें बाद के कोलाहल में गांधी पर गोलियां चलानी थीं, वे अचानक डर गए और उन्होंने कुछ नहीं किया। उस रात मदनलाल पाहवा- जिसे पुलिस ने दबोच लिया था - जब होटल में पुलिस को लेकर गया जहां सभी आतंकी रुके थे। पुलिस ने होटल से एक पत्र तथा कुछ कपड़े बरामद किए, जिसमें हत्या के प्रयास में महाराष्ट्र के लोगों की संलिप्तता साफ उजागर हो रही थी। हालांकि नाथूराम गोडसे और आपटे के गिरोह द्वारा महात्मा को मारने के इसके पहले कई प्रयास हुए थे, और होटल से बरामद कपड़ो पर एनवीजी (नाथूराम विनायक गोडसे) लिखा था, इसके बावजूद पुलिस ने इन सबूतों पर ठीक से काम नहीं किया।

इस आतंकी गिरोह के सदस्य अपने घरों को लौट आए। गोडसे और आपटे, बम्बई के रास्ते पुणे लौटने के बाद भी महात्मा गांधी को मारने के अपने इरादे पर सक्रिय रहे। वह वहां से ग्वालियर के लिए रवाना हुए, जहां उन्होंने डा परचुरे और दंडवते की मदद से बेरेटा आटोमेटिक पिस्तौल और ग्यारह गोलियां का इन्तज़ाम किया और 29 जनवरी को वह दिल्ली पहुंचे तथा स्टेशन के रिटायरिंग रूम में रूके।

गांधी को मारने की छठीं और आखिरी कोशिश 30 जनवरी को शाम पांच बजकर 17 मिनट पर हुई जब नाथूराम गोडसे ने उन्हें सामने से आकर तीन गोलियां मारीं। हिन्दू महासभा और उसके अनुयायियों ने मिठाइयां बांट कर महात्मा की हत्या की खुशियां मनायीं। 31 जनवरी 1948 को दस लाख से अधिक लोग दिल्ली में इकट्ठा हुए ताकि राष्ट्रपिता के अंतिम दर्शन किए जाएं। उनकी हत्या में शामिल सभी पकड़े गए, उन पर मुकदमा चला और उन्हें सजा हुई। नाथूराम गोडसे एवं नारायण आपटे को सज़ा ए मौत दी गयी, (15 नवम्बर 1949) जबकि अन्य को उमर कैद की सज़ा हुई।

बहुत कम लोग जानते हैं कि देस के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू तथा गांधी के पुत्रों ने गोडसे एवं आपटे को मिली सज़ा ए मौत का विरोध किया था। उनका तर्क था कि फांसी की सज़ा को लेकर गांधी का सख्त विरोध था लिहाजा ऐसी कोई भी सज़ा उनके उसूलों के खिलाफ होगी। दूसरी अहम बात यह थी कि चाहे गोडसे हों या आपटे हों या उनके आतंकी मोडयूल में शामिल बाकी लोग, यह सभी बुनियादी तौर पर प्यादे या अंजामकर्ता कहें जाएंगे, जबकि घटना के असली मास्टरमाइंड या असली प्लानर पहुंच से बाहर ही रहे हैं। इस हत्या के लगभग दो दशक बाद बने जीवन लाल कपूर आयोग की रिपोर्ट इसी बात की बखूबी ताईद करती है।

अगर हम इन छह कोशिशों पर नजर डालें जिसमें बम फेंकने से लेकर ट्रेन को भी बेपटरी करने की योजनाएं दिखती हैं तब हम देख सकते हैं कि भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने के लिए आमादा ताकतें कितनी हिंसक तैयारियों में कितने पहले से मुब्तिला थीं। भले ही इस हत्या को किसी युवक के गुस्से के तौर पर प्रोजेक्ट करने में हिन्दुत्व की जमातों को सफलता मिली है, मगर हक़ीकत यही थी कि वह गांधी को निशाना बनाकर अपने इरादों की बुलन्दी के बारे में ऐलान कर रहे थे कि किसी भी सूरत में वह हिन्दू राष्ट्र के अपने सपनों को साकार करके रहेंगे।

इस बात को गहराई से समझन ेके बाद ही हम तीस्ता सीतलवाड़ की इस बात से असहमत हो सकते हैं जिसका जिक्र वह अपने द्वारा संपादित किताब की प्रस्तावना में करती हैं कि गांधी की हत्या महज आज़ाद हिस्दोस्तां की पहली आतंकी कार्रवाई मात्र नहीं थी बल्कि वह युद्ध का ऐलान था और अपने इरादे का बयान था। वे ताकतें, जिन्होंने... इस हत्या का षडयंत्र रचा, इस कार्रवाई के जरिए उन्होंने भारत के हिन्दू राष्ट्र के निर्माण के प्रति अपनी लम्बी प्रतिबद्धता का ऐलान किया और यह भी बताया कि किस तरह हिन्दुत्ववादी संगठन धर्मनिरपेक्ष, जनतांत्रिक भारतीय राज्य के विचार के साथ और उन सभी के साथ जो इन सिद्धांतों  की हिमायत करते हैं, निरंतर युद्धरत रहेंगे। यह देखना अभी बाकी है कि वह किस हद तक जाने के लिए तैयार हैं। गांधी तथा साम्राज्यवाद के खिलाफ खड़ा राष्ट्रीय आन्दोलन जिन बातों की नुमाइन्दगी करता था उन सभी की समाप्ति का भी हत्या के माध्यम से संकेत दिया जा रहा था। स्पष्ट है कि ऐसी जमातों के लिए आदर्श राजनीति व्यवस्था के तौर पर नागरिकता की समानता और गैरभेदभावपूर्ण जनतांत्रिक प्रशासन की बातें हमेशा ही नागवार गुजरती रही हैं।

ध्यान रहे कि इस पूरी साजिश सें सावरकर की भूमिका पर बाद में विधिवत रोशनी पड़ी। गांधी हत्या को लेकर चले मुकदमे में उन्हें सबूतों के अभाव में छोड़ दिया गया।

मालूम हो कि गांधी हत्या के सोलह साल बाद पुणे में हत्या में शामिल लोगों की रिहाई की खुशी मनाने के लिए एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया था। 12 नवम्बर 1964 को आयोजित इस कार्यक्रम में शामिल कुछ वक्ताओं ने कहा कि उन्हें इस हत्या की पहले से जानकारी थी। अख़बार में इस खबर के प्रकाशित होने पर जबरदस्त हंगामा मचा और फिर 29 सांसदों के आग्रह तथा जनमत के दबाव के मद्देनजर तत्कालीन केन्द्रीय गृहमंत्री गुलजारीलाल नन्दा ने सुप्रीम कोर्ट के एक रिटायर्ड जज जीवनलाल कपूर की अध्यक्षता में एन्क्वायरी कमीशन गठित किया। कपूर आयोग ने हत्या में सावरकर की भूमिका पर नए सिरे से निगाह डाली। आयोग के सामने सावरकर दो सहयोगी अप्पा कासार-उनका बाडीगार्ड और गजानन विष्णु दामले, उनका सेक्रेटरी भी पेश हुए, जो मूल मुकदमे में बुलाए नहीं गए थे। कासार ने कपूर आयोग को बताया कि किस तरह हत्या के चन्द रोज पहले आतंकी गोडसे एवं दामले सावरकर से आकर मिले थे। बिदाई के वक्त सावरकर ने उन्हें एक तरह से आशीर्वाद देते हुए कहा था कि 'यशस्वी होउन या’ अर्थात कामयाब होकर लौटो। दामले ने बताया कि गोडसे आरै आपटे को सावरकर के यहां जनवरी मध्य में देखा था। न्यायमूर्ति कपूर का निष्कर्ष था ''इन तमाम तथ्यों के मद्देनजर यही बात प्रमाणित होती है कि सावरकर एवं उनके समूह ने ही गांधी हत्या को अंजाम दिया।

''हम अपनी आवाज को अधिक से अधिक ऊंचा करके भारत के लोगों को बताना चाहते हैं कि गांधीजी का गुजरना पाकिस्तान के लिए भी उसी किस्म का दुख भरा सदमा रहा है जितना भारत के लिए। हम ने लाहौर जैसे विशाल शहर में व्यथित निगाहें, नम आंखें और दुर्बल आवाजें सुनी हैं, जिस पर यकीन करना मुश्किल है। हमने नागरिकों की तरफ से स्वत:स्पूर्त हड़तालों और बन्द का आयोजन होते देखा। (पाकिस्तान टाईम्स, 2 फरवरी 1949)

गांधी हत्या : मिथकों का ध्वंस जरूरी!

प्रश्न उठता है कि गांधीजी के इन आतंकी हत्यारों ने अपने आपराधिक कारनामे को जिस तरह वाजिब ठहराया? उनका दावा था कि एक, गांधी जी ने मुसलमानों के लिए अलग राज्य के विचार की हिमायत की और इस तरह वह पाकिस्तान निर्माण के लिए जिम्मेदार थे। दो, कश्मीर पर पाकिस्तान के आक्रमण के बावजूद गांधीजी ने आमरण-अनशन किया ताकि पाकिस्तान को दी जाने वाली 55 करोड़ रुपए की धनराशि दी जा सके।

तीन, मुसलमानों के कथित अडिय़लपन के पीछे गांधी जी के 'तुष्टीकरण’ की नीति का हाथ है।

ऐसा कोई भी शख्स जो उस कालखण्ड से परिचित है बता सकता है कि यह तमाम आरोप बेबुनियाद हैं और तथ्यगत तौर पर गलत हैं। दरअसल साम्प्रदायिक सद्भाव के जिस विचार की हिमायत गांधी ने ताउम्र की वह संघ, हिन्दू महासभा के हिन्दू वर्चस्ववादी विश्व नजरिये के बिल्कुल प्रतिकूल था। जहां हिन्दुत्व की ताकतों के कल्पनाजगत में राष्ट्र एक नस्लीय/धार्मिक संरचना थी। गांधी और बाकी राष्ट्रवादियों के लिए वह एक इलाकाई संरचना थी। एक ऐसा इलाका जहां अलग अलग समुदाय और समष्टियां साथ रह रही हों।

इसमें अहम बात यह रही है कि भारत के बंटवारे के लिए गांधी का विरोध उसूलन था क्योंकि उनका मानना था कि धर्म के आधार पर किसी राष्ट्र का निर्माण नहीं किया जाना चाहिए। एक भूभाग में रहनेवाले लोग - फिर वह जिन भी आस्थाओं से सम्बद्ध हों, सम्प्रदायों से जुड़े हों - वही एक राष्ट्र का निर्माण करते हैं। उनका प्रसिद्ध वक्तव्य है कि 'मुल्क का बंटवारा मेरी लाश पर होगा।’ बाद में उन्होंने भारी मन से ही कांग्रेस के फैसले के लिए अपनी सहमति प्रदान की। कांग्रेस नेतृत्व की भी मजबूरी थी कि जिस तरह इस उपमहाद्वीप में साम्प्रदायिक राजनीति ने अपनी शक्ल धारण की थी तथा जितनी तेजी के साथ उत्तर पश्चिम के सूबों में - जहां मुसलमानों की बहुतायत थी - वहां हालात काबू से बाहर जाते दिख रहे थे, इसके लिए कांग्रेस नेतृत्व ने व्यावहारिक फैसला लिया कि भारत का बंटवारा हो।

जहां तक बटवारे को सिद्धांतत: चिन्हित करने की बात है तो यह गांधी की नहीं बल्कि सावरकर थे, जिन्होंने 1937 में हिन्दू महासभा के सम्मेलन में अध्यक्षीय भाषाण देते हुए हिन्दुओं और मुसलमानों के अलग राष्ट्र होने की हिमाकत की थी, जब पाकिस्तान का प्रस्ताव सामने भी नहीं आया था।

रही बात 55 करोड़ की तो उसके सम्बधित तथ्य यह है कि जब बंटवारे को लेकर शर्त, देनदारियां तय हो रही थी तभी यह भी तय हुआ था कि पाकिस्तान को 75 करोड़ की राशि दी जाएगी, जिसमें से 20 करोड़ रुपए तो दिए भी जा चुके थे। बाद में जब पाकिस्तान समर्थित घुसपैठियों ने कशमीर वाले हिस्से पर आक्रमण किया तब बाकी भुगतान रोका गया था। भारत के तत्कालीन गर्वनर जनरल लार्ड माउंटबेटन का मानना था कि चूंकि करार पहले हो चुका है, इसलिए भारत को इस राशि का भुगतान करना चाहिए। नैतिक आधारों पर गांधी को भी यह बात ठीक लगी थी, लेकिन गांधी के इस स्टैण्ड का ताल्लुक उनके आखिरी अनशन से लगाना एक तरह से तथ्यों से खिलवाड़ करना है। 12 जनवरी की शाम गांधी ने जब अपने आमरण अनशन का ऐलान किया था तब उन्होंने दिल्ली तथा बाकी भारत में साम्प्रदायिक सदभाव कायम करने को ही केन्द्र में रखा था।

जाने माने सर्वोदयी नेता चुन्नीभाई वैद्य, जिन्होंने गांधी हत्या पर फैलाए गए झूठ का लगातार पर्दाफश किया है, इस भूख हड़ताल तथा 55 करोड़ रुपए की बात को जानबूझ कर घालमेल किए जाने के बारे में लिखते हैं :

- गांधी ने 12 जनवरी को जब अपने अनशन का ऐलान किया तब इसका उन्होंने उल्लेख नहीं किया था। अगर उनकी वह शर्त रहती तो वह उसका उल्लेख अवश्य करते।

- अनशन के मकसद को लेकर 15 जनवरी को पूछे सवाल के जवाब में भी वह इस बात का उल्लेख नहीं करते।

- भारत सरकार द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति में भी इसका उल्लेख नहीं मिलता।

- डा राजेन्द्र प्रसाद की अगुआई वाली कमेटी ने जिसने गांधी को अपना अनशन तोडऩे के लिए मनाया उसने भी अपने बयान में इस बात का जिक्र नहीं किया कि इसके बारे में गांधी द्वारा कोई शर्त लादी गयी थी।

हम गांधीजी को मारने के चौदह साल के इतिहास पर नज़र डालें - जो 1934 से शुरू होकर 1948 तक चला - यह साफ हो जाता है कि उन्हें मारने का षडयंत्र बहुत पहले ही रचा जा चुका था। हिन्दुत्व ब्रिगेड के कर्णधारों और उसके प्यादों की नफरत भरी राजनीति के लिए वह बाधा बने थे। लिहाजा उनको मारने के लिए कई तरकीबें उन्होंने रची थीं। 1949 में उनकी हत्या के बाद उसे गोडसे तथा उसके आतंकी मोडयूल की इस कार्रवाई को तात्कालिक प्रतिक्रिया के तौर पर पेश करना एक तरह का बहाना रहा है ताकि हिन्दुत्व के मास्टरमाइंड इस अपराध की जिम्मेदारी से बचाये जा सकें। जीवनलाल कपूर आयोग की विस्तृत रिपोर्ट में हम इन तमाम साजिशों का ब्यौरा पढ़ सकते हैं।

निश्चित ही इसमें झारखण्ड के देवघर में पंडों द्वारा गांधी पर किए गए 'जानलेवा हमले’ का ब्यौरा शामिल नहीं है, जो उन्होंने उस वक्त किया था जब अस्पृश्यता निवारण के कांग्रेस के अभियान के दौरान गांधी वहां पहुंचे थे। अस्पृश्यता समाप्ति की गांधी की बातें या दलितों को मंदिर प्रवेश दिलाने के उनके प्रयास आदि से कथित ऊंची जाति के लोग वैसे ही क्षुब्ध रहते थे। 'फ्री प्रेस जर्नल’ लिखता है कि उन्हें देख कर नारे लगते थे 'धर्म खतरे में हैं’ (27 जून 1935)

मालूम हो कि देवधर स्थित बैद्यनाथ मंदिर में दलितों को प्रवेश दिलाने के गांधी के प्रस्ताव को लेकर सनातनी ताकतें इस कदर क्षुब्ध थीं कि उनके कार्यक्रम को आखिरी वक्त में बदलना पड़ा था। इसके बावजूद 26 अप्रैल 1934 की सुबह 2 बजे उन्हें काले झंडे दिखाए गए और उनकी कार पर हमला हुआ, गांधीजी किसी तरह उससे बच निकले। बाद में उन्होंने खुद कहा कि हमला 'जानलेवा हो सकता था।’ इस 'सनातनी गुंडागर्दी’ की चौतरफा आलोचना हुई लेकिन इस मसले पर अपने नियमित विरोध प्रदर्शनों के जरिए सनातनियों ने इस बात को रेखांकित किया कि वह 'हिन्दू धर्म’ की रक्षा कर रहे हैं। याद कर सकते हैं कि इस हमले से नेहरू खुद किस कदर नाराज हुए थे और उन्होंने ऐलान कर दिया था कि वह 'ताउम्र देवघर नहीं जाएंगे।’

तीस का दशक और गांधी हत्या के साजिश के बीज

निश्चित ही इसे महज संयोग नहीं कहा जा सकता कि 26 अप्रैल 1934 को देवघर में जानलेवा हमले का शिकार हुए गांधी उसके कुछ ही माह बाद पुणे में हत्या की साजिश के चपेट में आए। हम खुद देख सकते हैं कि तीस का दशक इस मायने में काफी अहम हो जाता है जब हिन्दुत्व वर्चस्ववादियों के बीच गांधी की हत्या की योजना बनने लगी थी, जो सनातन मूल्यों की दुहाई देते घूमते थे।

बिहार में सनातनी संगठनों की सक्रियताओं पर टिप्पणी पूरे देश की स्थिति पर कमोवेश लागू जान पड़ती है।

''वर्ष 1932 में हिन्दु सनातनी संगठन जनता को इसएि लामबन्द कर रहे थे ताकि अस्पृश्यता को हिन्दू धर्म का एकीकृत हिस्सा मान लिया जाए। वाराणसी की हिन्दू महासभा ने 16 नवम्बर 1932 को सरकार को बाकायदा पत्र लिखा था कि वह हिन्दू धर्म के आंतरिक मामलों में दखल न दे। मंदिर प्रवेश के मुद्दे पर संगठन को लग रहा था कि सरकार को चाहिए कि वह हिन्दुओं की भावनाओं की हिफाजत करे। भारत धर्म महामंडल के मुख्य कार्यालय की तरफ से मुल्क में मौजूदा असन्तोष को लेकर पत्र लिखा था, जिसमें उनकी अधिक चिन्ता ''हमारी पवित्र व्यवस्था’ के विघटित होते जाने को लेकर थी।

उसमें यह लिखा गया था :-

हिन्दू, सनातनी, वर्णाश्रमी ऐसे शब्दों के मायने यही निकलते हैं कि जो व्यक्ति वेदों, स्मृतियों, पुराणों तथा अन्य हिन्दू ग्रंथों पर यकीन करता हो। शिक्षा ईश्वरहीन और दोषपूर्ण शिक्षा के प्रभाव में आज हिन्दू शब्द का बिल्कुल अलग अर्थ हो गया है। उसे हम ब्राहमो, आर्य समाजियों और कथित समाज सुधारकों, राजनेताओं के बीच नास्तिकों और यहां तक कि गैर मुस्लिम और गैरईसाइयों के संदर्भ में समानार्थी के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है। वही खतरनाक गलती अक्सर सरकार के भी दिल में पैदा की जाती है कि हिन्दू आज भारत में कांग्रेस और ऐसे ही संगठनों के जरिए ब्रिटिश सरकार को जबरदस्त चुनौती दे रहे हैं... असली सनातनी हिन्दू जो वर्णाश्रम व्यवस्था का पालन कर रहे हैं वह कर्म के नियमों के अनुसार ही शान्तिपूर्ण बदलाव, सरकार के प्रति वफादारी के पक्ष में रहते हैं और किसी भी किस्म की क्रांति के समर्थन में नहीं रहते हैं।

सनातनी संगठन और हिन्दू वर्चस्ववादी जमातों के बीच वैचारिक एकता के सूत्र यहां आसानी से पढ़े जा सकते हैं। जिस तरह हिन्दू वर्चस्ववादी अंग्रेजों की कृपादृष्टि के कायल थे, वही हाल इन सनातनियों का था - जो तीस के दशक में अंग्रेजों के प्रति वफादारी के दावे कर रहे थे - दोनों यही चाहते थे कि अंग्रेज सरकार हिन्दू धर्म की मौजूदा स्थिति में दखल न दे। आज़ादी मिलने पर जब संविधान निर्माण की चर्चा चली तो इन्हीं हिन्दू वर्चस्वादी ने मनुस्मृति को आज़ाद भारत का विधान बनाने की पेशकश की थी।

इसमें कोई दो राय नहीं कि अस्पृश्यता के बारे में गांधी की मान्यताएं बेहद समस्याग्रस्त थीं। वंचित/पीडि़त जातियों अर्थात डिप्रेस्ड क्लासेस के लिए उन्होंने जिस नयी शब्दावली 'हरिजन’ का प्रयोग किया, वह अपने आप में सरपरस्ती/संरक्षणात्मक था, समानता के मूल्य पर टिका नहीं था।

याद करें कि तीस का दशक वह कालखंड है जब बर्तानवी उपनिवेशवादियों के खिलाफ भारतीय अवाम का संघर्ष उरूज़ पर था। न केवल कांग्रेस पार्टी बल्कि कम्युनिस्ट तथा सामाजवादी ताकतें ब्रिटिशों के खिलाफ आक्रामक मुद्रा में थीं। अम्बेडकर-पेरियार-मंगूराम-अछूतानन्द जैसे सामाजिक इन्कलाबियों की अगुवाई में भी सामाजिक मुक्ति के लिए संघर्ष तेज हो रहे थे और आवाम की इन तमाम सरगर्मियों से हिन्दुत्व वर्चस्वादी ताकतें - जो हिन्दु राष्ट्र के निर्माण का सपना संजोये थीं - कोसों दूर खड़ी थीं। बर्तानवी साम्राज्य की ताकतों के खिलाफ जनता की गोलबन्दी को मजहब के आधार पर या जाति-समुदाय के आधार पर बांटने के प्रयास में मुब्तिला थीं।

एक बात यह भी तय है कि वक्त के साथ, जैसे जैसे साझे राष्ट्रवाद का विचार समाज में जड़मूल हो रहा था, जहां गांधी एक अग्रणी व्यक्ति थे, हिन्दुत्व के योद्धाओं को लगने लगा था कि जब तक वह जिन्दा हैं तब तक हिन्दू राष्ट्र बनाने की उनकी परियोजना कभी सफल नहीं हो सकती। उनके लिए गांधी ही निशाने पर थे क्योंकि उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष के वही सर्वोच्च नेता थे और दूसरे, वह जिस विमर्श का इस्तेमाल करते थे - धर्म की जो भाषा वह प्रयोग करते थे - उसके चलते हिन्दू राष्ट्र के हिमायतियों के लिए यह स्पष्ट था कि हिन्दू एकता कायम करने का उनका विचार बहुत दूर तक नहीं जा सकता। रेखांकित करने वाली बात है कि गांधी के साथ उनका संघर्ष दो स्तरों पर था:

पहले, राष्ट्रवाद/राष्ट्रत्व के विचार को लेकर - क्या उसे साझा होना चाहिए या उसे धर्म आधारित होना चाहिए;

दूसरे हिन्दू धर्म का विचार-गांधी के लिए हिन्दू धर्म का अर्थ था ''सर्व धर्म सम्भाव’’ जबकि हिन्दुत्व के विचारकों के लिए उसके मायने बिल्कुल विपरीत थे। तीस का दशक भगतसिंह, राजगुरू और सुखदेव जैसों की शहादत के लिए (23 मार्च 1931) और उससे उपजे प्रचंड जनाक्रोश के लिए भी जाना जाता है, जिसका प्रतिबिम्बन कांग्रेस के कराची अधिवेशन में भी दिखाई दिया था जब कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज की बात बुलन्द की। कराची कांग्रेस - िजसकी अध्यक्षता वल्लभभाई पटेल ने की थी और जिसमें कांग्रेस के तमाम अग्रणी नेताओं ने हिस्सा लिया था और राज्य की धार्मिक तटस्थता की बात की थी।

कराची कांग्रेस के सत्र का विवरण प्रस्तुत करते हुए तीस्ता बताती हैं कि उनका नतीजा यह हुआ कि ''कांग्रेस ने बुनियादी अधिकारों और आर्थिक नीति को लेकर प्रस्ताव पारित किया जो पार्टी के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक प्रोग्राम को प्रतिबिम्बित करता था। ...पहली दफा, उसने यह परिभाषित करन ेकी कोशिश की कि आम भारतीय के लिए स्वराज का क्या मतलब है। इन प्रस्तावों के कुछ महत्वपूर्ण पहलू इस प्रकार थे : अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, प्रेस की स्वतंत्रता, संगठन की स्वतंत्रता, कानून के सामने समानता, सार्वजनीन वयस्क मतदान आदि पहलुओं को लेकर बुनियादी नागरिक अधिकारों की गारंटी; मुफत और अनिवार्य शिक्षा, लगान और कर में भारी कमी; कामगारों के लिए बेहतर हालात.. अस्पृश्चता पर कानूनी तरीके के हमले के लिए कानून का निर्माण।... इन सिद्धांतआधारित बयानों को बाद में भारत के संविधान में भी शामिल किया गया। इस बात को आगे बढ़ाते हुए वह यह भी लिखती है कि ''किस तरह कांग्रेस पार्टी के रचनात्मक कार्यक्रमों में साम्प्रदायिक एका का मसला प्रमुख था’’ और ''बहुसंख्यकवादी तथा अल्पसंख्यवादी साम्प्रदायिक ताकतें अपने संकीर्ण, नफरत पर टिके, साम्प्रदायिक एजेण्डे को आगे बढ़ाने में मुब्तिला थीं। उनके मुताबिक 'धर्मनिरपेक्ष और साझा भारतीय राष्ट्रवाद हिन्दू राष्ट्र के हिमायतियों के लिए गहरी चिन्ता का विषय था। कराची कांग्रेस के प्रस्तावों के माध्यम से जिस जनतांत्रिक और समानतावादी एजेण्डे को राष्ट्रीय नेतृत्व ने आगे बढ़ाया था उसके प्रति भी उनकी चिढ़ थी। 1934 में गांधी को मारने की जिन कोशिशों का आगाज़ हुआ वह एक तरह से राष्ट्रीयत्व की प्रस्तुति, जाति, आर्थिक तथा अन्य जनतांत्रिक अधिकारों को लेकर प्रस्तुत की जा रही समझ - जिसने हिन्दू राष्ट्र सावरकर और गोलवलकर ने ''राष्ट्रीयत्व’’ के बारे में जो लिखा है उसमें से अंश पेश करते हुए बद्री रैना, अपने आलेख ''गांधीज मर्डर एण्ड आरएसएस’’ में उसी किस्म की बात करते हैं।

''गांधी की समाप्ति को एक तरह से हिन्दूवादी/फासीवादी शिविरों की 'राष्ट्रवादी’ जरूरत के तौर पर देखा गया। इस खेमे में तथा गांधी के नेतृत्ववाले कांग्रेस आन्दोलन के खेमे में विवाद का मुद्दा बना था। आज़ाद भारत को चिन्हित करनेवाली विशिष्टताओं को चिन्हित किया जाए। महासभा और संघ के नज़रिये में काफी अधिक समानता थी। किसी को महज सावरकर )1938, नागपुर सत्र) और गोलवलकर (वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइन्ड, 1938) के अंश पढऩे चाहिए।

सावरकर : ''जो बुनियादी राजनीतिक पाप, जो हमारे हिन्दू कांग्रेसियों ने किया... जिसे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के वक्त अंजाम दिया गया और जिस मिथक का वह पीछा उसके बाद लगातार किए जा रहे हैं वह है इलाकाई आधार पर भारतीय राष्ट्र के निर्माण का और वह इस कोशिश में ही कि.. आवयविक हिन्द्ू राष्ट्र के विकास को खतम किया जाए... हम हिन्दू अपने आप में राष्ट्र हैं क्योंकि धार्मिक, नस्लीय, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक नज़दीकियां हमें एक समरूप राष्ट्र में बांधती हैं।’’

गोलवलकर : ''इस विचार को पहली दफा फैलाया गया कि लोग राष्ट्रीय जीवन में प्रवेश करने वाले हैं, तय बात है कि राष्ट्र उन सभी से बनता था जो यहां रहते आए हैं और वह सभी लोग एक ''राष्ट्रीय मंच पर एकजुट होने वाले हैं और ''संवैधानिक तरीकों’’ से अपनी 'आज़ादी’ लेने वाले हैं। जनतंत्र की गलत धारणाओं ने इस नजरिये को मजबूती दी है और हम अपने आप को अपने पुराने आक्रांताओं और दुश्मनों के साथ जोडऩे लगे तथा जिसके लिए हमने एक बाहरी नाम भी धारण किया - इंडियन - और हमारे संघर्ष में उन्हें जोडऩे के लिए प्रयासरत रहे। इस जहर के नतीजे से सभी वाकिफ हैं... हम अपने ही हाथों से सच्ची राष्ट्रीयता को कमजोर कर रहे हैं।  ''वे सभी जो राष्ट्रीय अर्थात हिन्दू नस्ल, धर्म, संस्कृति और भाषा से ताल्लुक नहीं रखता है, वह स्वाभाविक तौर पर 'राष्ट्रीय’ जीवन के दायरे से बाहर हो जाता है। हम दोहराना चाहते हैं : हिन्दुस्तान में, हिन्दुओं की भूमि में, जहां हिन्दू राष्ट्र स्पंदित हो रहा है जो आधुनिक दुनिया में वैज्ञानिक राष्ट्र के पांच सारभूत आवश्यकताओं को पूरा करता है।’’

इस तरह सावरकर से लेकर गोलवलकर, देवरस तक और मौजूदा समय के 'सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों तक’ राष्ट्र का तसव्वुर एक निश्चित भूभाग के तौर पर नहीं किया जाता बल्कि एक नस्लीय/धार्मिक गढ़ंत; बवदेजतनबजद्ध के तौर पर किया जाता है। गांधी का दोष यही था कि उन्होंने कहा कि 'हिन्दू मुस्लिम एकता के बिना कोई स्वराज अधूरा होगा। और उन्होंने इसी बात की कीमत चुकायी।’’

गांधी से नफरत या गांधी से डर

.. जो शख्स तुम से पहले यहाँ तख्त नशीन था...

    उसको भी खुदा होने पे इतना ही यकीन था

                                 - हबीब जालिब

गांधी की हत्या हुए 71 साल बीत चुके हैं।

अगर धार्मिक लोगों की जुबां में भी बोले तो वह कहते हैं कि मृत्यु के बाद सारे बैर खतम हो जाते हैं। हिन्दुओं में तो बाकायदा संस्कृत सुभाषित है 'मरणान्ति वैराणि’

यह अलग बात है कि हिन्दुत्ववादियों के लिए यह बेमतलब सा है। उन्हें छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा कायम इस नज़ीर से भी कोई सरोकार नहीं है कि बीजापुर की आदिलशाही सल्तनत के सेनापति अफजल खान - जिन्होंने 10 हजार सैनिकों के साथ उन पर आक्रमण किया था और वार्ता चलाने के बहाने शिवाजी को खतम करने की उसकी योजना थी - उसके उस संघर्ष में मारे जाने पर शिवाजी महाराज ने पूरे राजकीय सम्मान के साथ उसका अंतिम संस्कार किया था और उसकी कब्र का भी निर्माण किया था। इतना ही नहीं कब्र की देखभाल के लिए भी उन्होंने नियमित फंड मिलता रहे इसकी भी व्यवस्था की थी। जिस महात्मा गांधी के जिन्दा रहते हिन्दुत्ववादियों की सियासत जोर नहीं पकड़ पायी थी और अंग्रेजों से लडऩे के बजाय वह जनता को आपस में बांटने में मुब्तिला थे और साथ ही साथ लगभग 15 साल से गांधी हत्या की साजिश में संलग्न थे और तरह तरह की हरकतें कर रहे थे, उस गांधी की मौत से भी उन्हें सुकून नहीं मिला है।

30 जनवरी 2019 को हिन्दू महासभा से जुड़ी पूजा शुक्ला एवं उसके सहयोगियों ने गांधी की प्रतिमा पर गोलियां दाग कर उसकी उस 'मौत को नए सिरे से अभिनीत किया’ वह प्रसंग हम सभी के सामने रहा है जिसमें 'महात्मा’ गोडसे के नाम से नारे भी लगे थे और उसकी मूर्ति पर माला भी चढ़ायी गयी थी। हिंसा के इस महिमामंडन को अधिक 'लाइव’ बनाने के लिए इन लोगों ने बाकायदा स्याही के गुब्बारे भी प्रतिमा के पीछे लगाए थे ताकि नकली गोलियां चलने पर प्रतिमा से खून भी बहता दिखे। इसका वीडियो बनाकर उसे काफी शेयर भी किया गया।

इस घटना की व्यापक भत्र्सना हुई, तेरह लोगों के खिलाफ मुकदमें भी दर्ज हुए। गांधी की इस 'नकली’ हत्या को एक तरह से 'न्यू इंडिया’ की झलक के तौर पर देखा गया, जहां आधुनिक भारत के निर्माताओं में शुमार किए जाती रही शख्सियतों - गांधी, नेहरू, पटेल, आज़ाद या अम्बेडकर आदि - के स्थान पर तरह तरह की विवादास्पद शख्सियतों को प्रोजेक्ट करने की कवायद तेज हो चली दिखती है। अगर यही सिलसिला चलता रहा तो विश्लेषकों का यह भी कहना था कि वह दिन दूर नहीं जब गोडसे को राष्ट्रीय हीरो के तौर पर पेश किया जाए।

इस पूरे घटनाक्रम पर रोहित कुमार - जो शिक्षाविद् हैं और जो पोजिटिव साइकोलोजी तथा साइकोमेटरिक्स में दखल रखते हैं - के आलेख में कुछ नए ढंग से सोचा गया है। उनका प्रश्न है कि उन्होंने गांधी की प्रतिमा पर इसलिए तो गोलियां नहीं चलायीं कि 'उन्हें लग रहा हो कि गांधी अभी जिन्दा हैं?’

उनका कहना है : 'यह हिन्दुत्व के चरमोत्कर्ष का वक्त है... गांधी को आधिकारिक तौर पर समाहित किया गया है और एक चश्मे तथा झाडू तक न्यूनीकृत किया गया है, इसके बावजूद इस व्यक्ति के बारे में जो बहुत पहले मर चुका है, उसके प्रति इस कदर नफरत क्यों?’... मुमकिन है वह नफरत के तौर पर दिखती है, मगर वह वास्तव में डर हो?’

फिर बिहेवियरल साइकोलोजिस्ट अर्थात स्वभाव संबंधी मनोविज्ञानियों के हवाले से वह बताते हैं कि नफरत और डर एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं। एक दूसरे का अनुगमन करता है। पीछे पीछे आता है। जैसे दिन के बाद रात आती है।

'सत्य और अहिंसा, जैसा कि हम जानते हैं, वह 'हथियार’ थे जिसके बलबूते महात्मा ने अपने 'युद्ध’ को लड़ा था। क्या यह मुमकिन है कि विगत पांच वर्षों में, हर बार जब हिन्दुत्ववादी संगठनों ने इन दो ताकतवर 'हथियारों’ को प्रयाग में देखा हो, उन्हें गांधी का भूत नज़र आया हो?’

फिर लेखक पूछता है कि जब 55,000 किसान अपनी मांगों के लिए पैदल मार्च करके मुंबई पहुंचे, हजारों लोग देश के तमाम शहरों में जुनैद नामक एक छोटे बच्चे की हत्या के खिलाफ - जिसे वह जानते तक नहीं थे - इकट्ठा हुए थे, ऐसी तमाम घटनाओं पर उन्हें क्या गांधी की मौजूदगी नज़र आयी थी? या जब यशपाल सक्सेना ने उनकी एकमात्र संतान अंकित सक्सेना की उसकी मुस्लिम प्रेमिका के परिवार द्वारा की गयी हत्या के बाद घटना को साम्प्रदायिक रंग देने से इनकार किया था। तब क्या उन्हें वहां गांधी नज़र आया था।

'क्या हर बार जब उनकी साम्प्रदायिक कारगुजारियां नाकाम होती हैं, तब हिन्दुत्ववादियों की गांधी के भूत से मुलाकात होती है? हिन्दू महासभा गांधी की प्रतिमा पर जितनी भी गोलियां चलवा दे, मगर वह उनके शब्दों के सत्य से जूझ नहीं सकतीं।

'जब भी मैं निराश होता हूं, मुझे याद आता है कि समूचा इतिहास यही बताता है कि हमेशा सत्य और प्रेम का तरीका ही जीता है। तानाशाह और हत्यारे रहे हैं, और कुछ वक्त तक, वह अजेय भी दिखते रहे हैं, मगर अन्त में वह शिकस्त पाते हैं। इसके बारे में हमें सोचना चाहिए - हमेशा।’

 

 

लेखक और सांस्कृतिक कार्यकर्ता सुभाष गाताडे दिल्ली में रहते हैं और देश भर में सक्रिय हैं।

संपर्क- मो. 9869940920

 

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