मुल्ला नसीरुद्दीन चुप हैं

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    अगस्त : 2019
श्रेणी मुल्ला नसीरुद्दीन चुप हैं
संस्करण अगस्त : 2019
लेखक का नाम उदयभानु पांडेय





पहल शुरुआत / कहानी-एक

 

 

मैं बड़े अरसे से मुल्ला नसीरुद्दीन को जानता हूँ। आप तारीख और साल मत पूछिये; ये सारी चीजें वाहियात हैं क्या आप जैसे दानिशमंद और मेरे जैसे बे-वकूफ कभी समझ सके हैं कि दुनिया का सारा इतिहास  झूठ का एक बड़ा पुलिंदा है? लेकिन, या मेरे मौला, यही इतिहास हमें तब से लड़ाता रहा जबसे हम लोगों ने लिखना पढऩा सीखा। और हम भारत के लोग! खुदा बचाये हम और आप जैसे अहमकों से। हमें तो लगता है कि बेकार की लड़ाई और फलसफे को लेकर हम लोग जितना वक्त जाया करते हैं वह सच्चे इतिहास में (अगर सच्चा इतिहास नाम की कोई चीज़ है तो) अद्भुत है। यह मुल्ला कम्बख्त ऐसा गुदगुदाता है कि इसे अच्छे स्वभाव वाले बलरामुरिए किशोर हरामी चीज़ कहते हैं, बुज़ुर्ग लोग मुल्ला फाज़िल या ज्ञानी पुरुष बोलते हैं और असम के ट्रायबल लड़के डेंजर मानू कहते है। मझोला कद, कसा हुआ फुर्तीला बदन और दमकती हुई पेशानी। दाँतों की सेहत एकदम चुस्त, दुरुस्त्। पसंदीदा खाना- मलीदा, जूहा बंगाल के चावल के साथ अरहर की खूब गाढ़ी दाल जिसमें घी, लहसुन और हींग का तड़का हो। चिकेन शाहजहानी नहीं, यूपी के राजपूतों की तरह सलीके से बनाये गए बकरे का गोश्त और बलरामपुर की स्टाइल में राँधा गया मछली का कबाब। मुल्ला की हर चीज़ है नायाब या उसे चाहें तो मौलिक कह सकते हैं। दाँत इसलिए सेहतमंद कि पहलवानों और सरदारों से ज़्यादा दूध पीते हैं और जब कहीं बड़ा खाना होता है तो सबसे बाद अवध की स्टाइल से ज़्यादा दूध पीते हैं और जब कहीं बड़ा खाना होता है तो सबसे बाद अवध की स्टाइल में बनी अरहर की दाल पियेंगे। वही इनका लास्ट कोर्स है। जब यूपी का कोई दोस्त किसी हिंदुस्तानी को ''बिहारी’’ कहकर छेड़ेगा तो बोलेंगे, ''जनाब, आप खुद बिहारी हो कर बिहारियों का मखौल करते हैं!’’ मुल्ला नसीरुद्दीन ज़िंदादिली से लबरेज़ इंसान हैं और दरियादिल इतने कि भूखे के सामने अपनी थाली छोड़ सकते हैं। लेकिन, होशियार! उनकी जुबान! माशा अल्लाह जब तंज़ का इस्तेमाल करेगी तो सामने वाला खड़े-खड़े जमपुरी चला जायेगा और जाने से पहले पानी भी नहीं माँगेगा। सबसे ज़्यादा फिकरे मुल्ला मियाँ बिरहमिनों पर कसेंगे लेकिन अगर कोई उदयभानु पांडेय के खिलाफ एक ल$फ्ज़ भी बोला तो उसका चेंचा पकड़ लेंगे। अपनी एक अदद बीबी और केवल दो औलादों से खुश हैं। उन्हें कभी भी किसी ने किसी और औरत पर निगाह डालते या ऐसी हरकत करते नहीं देखा जिससे आप उन्हें आशिक़मिजाज़ या हुस्नपरस्त कह दें।

एकबार वह अपने दोस्त उदयभानु पांडेय से बोले कि आप हिंदीवाले बेकार में बंगालियों को महिमामंडित और रोमैंटिसाइज़ करते हैं: जैसे जुल्फे बंगाल और पतली कमरिया लम्बे केस बंगालिनिया वगैरह वगैरह। अच्छे बालों के शौकीन मुल्ला नसीरुद्दीन ने एक असमिया लड़की से शादी की और उसके बाल इत्ते सुंदर कि जीबनानंद दास तक उस पर अलग से कविता लिख सकते हैं। उनकी मातृभाषा बांग्ला है लेकिन वह असमिया में कलम तोड़ कर लिखते हैं और जब बोलना शुरू करते हैं तो लगता है माँ सरस्वती ने स्वयम् असमिया बोलना उन्हें सिखाया। अंग्रेज़ी तो उन्हें रोटी/भात देती है लेकिन वे उर्दू और हिंदी भी इतनी महारत के साथ बोलते हैं कि कालेज के उर्दू के प्रोफेसर साहिबान जलन के साथ कहते हैं ''लो ऐंड बिहोल्ड, मुल्ला इस स्पीकिंग हिंदी ऐंड उर्दू विलैनसली (गौर फरमाइये, मुल्ला हिंदी और उर्दू किसी खलनायक वाले अंदाज़ में बोलते हैं।) यानी कि बड़ी धाँसू भाषा बोलते हैं। लेकिन अगर आप उदयभानु पांडेय से पूछें तो वह छूटते ही जवाब देंगे कि शेक्सपीअर का बाप भी ऐसी भाषा नहीं बोल सकता। अगर अंदा•ो बयाँ का मज़ा लेना है तो मेरे यारजानी मोहतरम मुल्ला को सुनिए।

लेकिन ऐसा धाँसू वाग्मीवीर (वाग वीर नहीं) जब चुप हो जाये तब दिल पर हाथ रख कर सोचिए कि शायद सब कुछ ठीकठाक नहीं है।

मुल्ला नसीरुद्दीन ठीक इसी तरह चुप हुए थे जब असम आंदोलन अपने शबाब पर था। उसके एक हफ्ता पहले उन्होंने उन बंगाली मुसलमानों पर एक हलका हमला बोला था जो घरों में लिहटिया, ढकैया, मोमिनसिंघिया वगैरह बोलते हैं लेकिन अपने को असमिया कहते हैं। खबरदार! ऐसी बातें पूर्वोत्तर भारत में कहना या लिखना बच्चों का खेल नहीं है। ये सब बड़ी नाज़ुक मसलोंवाली बातें हैं। इन्हें कहने लिखने के लिए मर्दों वाला, नहीं नहीं, गाज़ीमर्दों वारा जिगरा चाहिए। एक भोले भाले असमिया बाबू ने जब जिरह करना चाहा तो मोहतरम मुल्ला ने बड़ी शायस्तगी के साथ फरमाया, ''देखिए डाँगरिया (महोदय), हमारी माँ बंगालिन थी, इसीलिए हम बंगाली हैं लेकिन मेरे बच्चों की माँ असमिया है तो हमारे बच्चे अपने आप असमिया हो गए। अगर हम झूठ को बार-बार दुहराएँ तो वह सच नहीं होगा।’’ अब डाँगरिया का श्रीमुख देखने लायक था। लेकिन यह भी सच है कि अल्लाह ने जिस इंसान को अपने पूरे हुनर के साथ बनाया वह अपना विवेक जल्दी या अक्सर खो देता है नहीं तो इस दुनियाँ में इतनी जंगें न होतीं। कम से कम कर्बला और कुरुक्षेत्र की लड़ाइयाँ तो कतई न होतीं। कुछ दिनों के बाद नेली में कहर बरपा हो गया था। लेकिन इस हादसे की आशंका किसी को नहीं थी यानी आम आदमी यह उम्मीद नहीं कर पा रहा था कि हिंसा इस तरह भड़क उट्ठेगी। उसके बाद धीरे-धीरे आग ठंडी पडऩे लगी थी हालाँकि कई सरकारी मुलाजिमों ने अपनी नौकरी खोई थी और बहुत सारे आंदोलनों ने अपने प्राणों की आहुति भी दी थी। असम समझौते के बाद हालात अपने आप सुधर गए थे। तब मोहतरम नसीरुद्दीन मुल्ला ने उदयभानु पांडेय से कहा था, ''ख़ुदा का रहम-ओ-करम है, अब बात बनती लग रही है।’’ और फिर वह पहले की तरह कम लेकिन खास मौकों पर अपनी चुटीली शैली में बोलने लगे थे। वह कभी बंगाल की तीन चार बोलियों में बोलते, कभी कामरुपिया बोलकर सबको हँसा कर लोटपोट कर देते। जब वह भोजपुरी बोलते तो लगता कि काशिका, बल्ली और निखालिस भोजपुरी उसकी मातृभाषाएं हैं। मुल्ला मियाँ को यही अफसोस होता कि इस शहर में तुलसीदास वाली अवधी बोलने वाले लोग कम थे। उनके दोस्त यानी उदयभानु पांडेय भूलकर भी अवधी का एक ल$फ्ज भी मुँह से नहीं निकालते थे और इस स्नाबरी से खफा होकर मुल्ला साहिब मैमनसिंघिया स्वराघातों के साथ उन्हें गरियाते, ''दुर हाला, इमान दम्भी होको लागे नि?’’ (दुर साला, इतना दंभी क्यों होना चाहिए?)

जब हाईकोर्ट ने यह निर्णय सुनाया कि अयोध्या में ज़मीन का बंटवारा हो गया और थोड़ा होमवर्क करके हिंदू मुसलमान दोनों अपने पूजा स्थल बना लें तो मुल्ला निहाल हो गए थे, ''अब अल्लाह ने चाहा तो अपने मुल्क में अमन चैन ज़रूर आ जाएगा।’’

मोहतरम मुल्ला को साम्प्रदायिक कहना गुनाह-ए-अज़ीम होगा। एक बार जब वे गोरखपुर से लौटे तो यूपी के मुसलमानों पर बहुत खफ़ा हुए थे। ''अरे, ताज़िया वगैरह निकालो, इतने बड़े आदमी की शहादत के लिए मातम मनाओ, लेकिन जिस तरह से यूपी के मुसलमान ढोल ताशे बजाते हैं मुझे इस बात का आश्चर्य होता है कि बहुसंख्यक हिंदू और अल्पसंख्यक सिख और ईसाई लोग कैसे यह सब बर्दाश्त कर लेते हैं! हद हो गई बेवकूफी की!! क्या खुदा या ईश्वर बाजे की आवाज़ सुनकर आप को जन्नत दे डालेगा?’’

उदयभानु पांडेय ने खिलते हुए कहा, ''आप को यह मालूम होना चाहिए कि हिंदू भी पूरे जोश खरोश के साथ मुहर्रम में शिरकत करते हैं।’’

''इन दैट केस, मुस्लिम्स शुड हैव मोर रीज़न टो रेस्पेक्ट दी सेेंटीमंन्ट्स ओफ दियर कंट्रीमेन’’, मोहतरम मुल्ला ने तमतमा कर उत्तर दिया था।

यहाँ मैं आप लोगों से माफी माँगना चाहूँगा। शायद मैं चुप्पी की दास्तान को लंबा खींच रहा हूँ जो कि मुख्तसर होना चाहिए। लेकिन जीवन जटिल होगा तो उसकी कहानी को भी लंबा होना पड़ेगा? इसलिए चुप्पियाँ भी कभी कभी बहुत लंबी हो जाती हैं। इंसाफ की बात कही जाय तो देश विभाजन के पहले और उसके तुरंत बाद भी चरमपंथी हिंदुओं ने भी चुप्पी साध ली थी। अगर हिंदुस्तान का सही और गहरा इतिहास कभी लिखा गया तो उस चुप्पी का ज़िक्र ज़रूर होगा। जब $कायदे आज़म ने मुसलमानों के लिए अलग मुल्क ले ही लिया, केवल इस बिना पर कि हिंदुस्तानी कौम एक नहीं है, तब हिंदुओं को जोर-शोर से यह आवाज़ उठानी थी कि तब इस मुल्क में जिसे भारत कहते हैं कोई मुसलमान नहीं रह सकता। इंसाफ की बात तो यही है। लेकिन हिंदू और दूसरे गैर मुसलमान चुप रहे। यह हुई बड़प्पन की बात और सारे परिवार भी इसी वजह से एक साथ रह लेते हैं। हक, यानी वाजिब हक, को लेकर भी लोग, दानिशमंद लोग चुप हो जाते हैं। ऐसे मौन को वही कौम साथ सकती है जो परम वैष्णव हो यानी जिसका व्यक्तित्व सूफियाना हो। इसीलिए मुल्ला नसीरुद्दीन इस बात की चर्चा अपने जिगरी दोस्त उदयभानु पांडेय से ही किया करते हैं। ऐसी बातें सबसे नहीं कही जा सकती हैं। बावेला खड़ा हो जाएगा।

नसीरुद्दीन एक और बात अपने अभिन्न मित्र से कभी कभार कहते हैं। वह यह कि दरिद्रता से जूझने के लिए भारत में सारे धर्मावलंबियों के लिए परिवार नियोजन अनिवार्य कर दिया जाये। कोई पोंगापंथी सनातनी हिंदू, रोमन कैथलिक ईसाई या मुसलमान को यह कहने का अधिकार नहीं कि भ्रूण हत्या पाप है और आपकी संतानें ईश्वर प्रदत्त वरदान हैं। अगर चाहते हो कि हमारी संतानें भिखारी या डाकू न बनें तो परिवार नियोजन सबके लिए होना चाहिए। गर हमने यह बात न मानी तो कौरवों और यदुवंशियों की तरह हम लोग आपस में लड़कर मर जायेंगे।

कद्रदान, मेहरबान, हमारेक़िस्से के हीरो मुल्ला नसीरुद्दीन के बारे में ज़्यादा सवालात मत पूछिएगा। उनका धर्म तो आप जान ही गये, भाषा के लिहाज से वे बंगाली हैं और असमिया लड़की से शादी की है तो यह ज़ाहिर है कि वह आसाम या पूर्वोत्तर भारत में रहते होंगे। लेकिन मैं आप लोगों से यह गुज़ारिश करना चाहूंगा के वे एक इंसान से ज़्यादा एक मेटाफर (रुपक) हैं और खुदा- शैतान, राम-रावण की तरह हर काल और हर स्थान में बास करते हैं। उदयप्रकाश के पात्र टेपचू की तरह वे मर कर भी जीवित हो जाते हैं। इसी लिए नसीरुद्दीन साहिब ढाका, मैमनसिंघ और असाम की चर्चा तो करते ही हैं, वह बलरामपुर की मछलियों के कबाब की भी चर्चा करते हैं। ऐसी बात नहीं कि उनके हिस्से में ग़म नहीं,लेकिन वह अवतारी पुरुष हैं और कहते हैं, ''जो ग़म मिला उसे गमें ज़ाना बना दिया।’’

पेंशन पाने के बाद मुल्ला नसीरुद्दीन अपने गाँव चले गए। उदयभानु पांडेय ने उन्हें लाख कहा कि इसी शहर में अपना एक छोटा-मोटा आशियाना बना लें लेकिन वह न माने; बोले कि मैं अपने गाँव के ख़सपोश मकान में रहूँगा जिसके सामने का दुवारा पूरे आधा बीघे में है और पीछे की फुलवारी पूरे एक बीघे की। दूध का शौक है इसलिए इंशाअल्लाह एक गौशाला भी बनाऊँगा। आप की तरह मैं कूढ़-मगज़ नहीं कि लेखक बनकर अपना वक्त जाया करूँ। नबद्द्वीप नस्ल का जूहा चावल अपने खेतों में पैदा करूँगा और घर का घी और जूहे का चावल आप के लिए लाऊँगा। अगर आपने स्नाब की तरह सलूक किया तो कहूँगा, ''दुर हाला!’’ और इस पहाडिय़ा शहर के इतिहासकार बताते हैं कि जब नसीरुद्दीन ट्रक से उतर कर अपने जिगरी दोस्त से हाथ मिलाने आए तो उदयभानु पांडेय की आँखें भर आईं। मुल्ला ने कहना चाहा कि, ''दुर हाला’’ लेकिन उनकी आवाज़ थोड़ी काँप गई। उनके दोस्त ने मन ही मन सोचा कि इसे तो मैं स्थितिप्रज्ञ समझता था लेकिन ये कमबख्त इतना जज़बाती कैसे निकल गया। यह ''हाला’’ (साला) भी मेरी तरह सेंटीमेंटल फूल है।

जबसे इस मुल्क में सियासती नौटंकियों की बाढ़ आयी देश के सारे बुज़ुर्ग परेशान हो गए हैं। नसीरुद्देन साहिब के गाँव के उनके एक पड़ोसी ने फोन पर बताया कि चचा मुल्ला नसीरुद्दीन आजकल एकदम चुप हैं। लोग बाग कहते हैं कि उनकी इस चुप्पी की खबर से इस शहर के सारे प्रौढ़ और बुज़ुर्ग लोग चिंतित हो उठे हैं। जम्हूरियत के लिए चुप्पी एक खतरनाक अलामत है। देहाती मसला है कि पहले सुनो, फिर गुनो, तब धुनो। लेकिन जब तक कोई धुन लेता है और फेफड़ों की कसरत करता है तब तक हमारे समाज की सेहत भली-चंगी रहती है। चुप्पी और प्रजातंत्र का रिश्ता साँप और नेवले का है। अगर ये पास रहने लगे तो देवता कुपित हो जाते हैं,क़िस्मत फूट जाती है और मुल्क तबाह-बरबाद हो जाता है। लेकिन खबर आयी है कि मुल्ला नसीरुद्दीन चुप हैं। या मेरे मौला, इस मुल्क को अब बचा ले। आमीन!!!

 

उदयभानु पाण्डेय एक लंबी और निरंतर उथलपुथल वाले एक अहिन्दी राज्य असम के ट्रायबल इलाके डिफू के बाशिंदे हैं। हिन्दी पट्टी से निकलकर उन्होंने इसे पूरी तरह अपनाया। वे न दिल्ली आये और न अपनी जन्मभूमि लौटे, चालीस वर्षों से वहीं है। कार्बी कथाएं और असम की कहानियां उपलब्ध कराई। उदयभानु पाण्डे की पहली किताब ''मिस पांतगिया इज़ ब्यूटीफुल’’ राइटर्स वर्कशॉप कलकत्ते से आई। उनकी कुछ कृतियां साहित्य अकादमी और वाणी और भारतीय ज्ञानपीठ से भी छपी है। 2019 में उनकी आत्मकथा अंग्रेजी में आई जो जीवनकथा, वंशावली के साथ एक अनोखी शैली भी है। उदयभानु पाण्डेय इज़ ग्रेट एण्ड अनबीटन।

संपर्क -कार्बी अंगलांग, असम-782462, मो. 9435722902

 

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