वैकल्पिक भारत की खोज

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    जून 2019
श्रेणी वैकल्पिक भारत की खोज
संस्करण जून 2019
लेखक का नाम हितेन्द्र पटेल





मूल्यांकन

 

 

 

 

आज बहुत सारे बुद्धिजीवियों को लगता है कि देश की हालत बहुत खराब है। उन्हें यह भी लगता है  कि भारत के नवनिर्माण का एक जो राष्ट्रीय स्वप्न उन्नीसवीं सदी में बना और जिसे स्वतन्त्रता आंदोलन के दौर में एक तीन स्तरों - राजनैतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक - पर विस्तार दिया गया उसे आज भुला दिया गया है। इस विस्मृत स्वप्न के प्रति सम्मान रखकर लिखी गई इस पुस्तक में वामपंथी आलोचक-चिंतक रवि भूषण को यह महसूस हो रहा है कि ''इक्कीसवीं सदी के भारत का यह समय किसी भी तरह से सुंदर नहीं है।’’ जबकि सोचा यह गया था कि एक साम्राज्यवादी शक्ति के विरुद्ध एक सफल आंदोलन के बाद ऐसा नहीं होना चाहिए था। इस न बन सके भारत के न बनाने के कारणों पर लेखक ने यह पुस्तक वैकल्पिक भारत की तलाश लिखी है।

इस पुस्तक की स्थापना है कि उन्नीसवीं शताब्दी में मार्क्स के साथ साथ दादाभाई नौरोजी जैसे ''आर्थिक राष्ट्रीयता’’ के प्रबल पक्षधर से लेकर विवेकानंद (जिन्हें लेखक ने ''स्वप्नदर्शी और क्रांतिकारी विचारक माना है) तक भारत की निर्धनता के लिए अग्रेज़ी शासन के शोषण पर बल था। मार्क्स से नौरोजी के संभावित मिलन की ओर भी लेखक का ध्यान गया। लेखक भारतीयों के शोषण के लिए ड्रेन ऑफ वेल्थ (संपत्ति के अपक्षय ) को भारतीय विद्वानों - दादाभाई नौरोजी, जस्टिस रानाडे, रोमेश चन्द्र दत्त, जी वी जोशी, पी सी राय, मदनमोहन मालवीय, डी ई वाचा, गोपालकृष्ण गोखले और सुरेन्द्रनाथ बनर्जी आदि - की चिंता के मूल में रेखांकित करते हैं। इन लोगों को लेखक ने ''भारतीय राष्ट्रवाद के जनक’’ के रूप  में देखा है। उनके अनुसार इन लोगों ने अपनी लेखनी से  ''आर्थिक राष्ट्रवाद की आधारशिला रखी।’’ इससे देशवासियों को मुक्ति दिलाने के लिए ही स्वशासन की ओर बढने की प्रेरणा मिली । इस राष्ट्रवादी प्रोजेक्ट के साथ जब गांधी जुड़े तो जनता भी आयी (इसपर इस पुस्तक में अधिक चर्चा नहीं है) और उसी के साथ आए गुजराती और मारवाड़ी पूंजीपति। ये भारतीय पूंजीपति लोग 1942 के पहले तक कांग्रेस के साथ खड़े नहीं हुए। जब यह स्पष्ट हुआ कि यही भारत के शासक होंगे पूंजीपति लोग मिलकर 1944 में एक बाम्बे प्लान लेकर आए जिसके साथ कांग्रेस का पूरा समर्थन जुट गया। देश में जो विदेशी पूंजी के विरुद्ध माहौल बना उसके लिए 1928-1932 के दौर को लेखक ने महत्त्व दिया है जिस समय भगत सिंह से लेकर प्रेमचंद की देश के बारे में चिंताएँ आपस में जुड़ी हुई दिखलाई पड़ती हैं।

लेखक का स्पष्ट मत है कि ''वर्तमान भारत की समस्त समस्याओं के लिए कांग्रेस प्रमुख रूप से जिम्मेदार है। (पृ. 79) यह समझौतावादी और सुधारवादी रास्ते पर अग्रसर होती रही। साम्राज्यवाद के साथ निरन्तर संघर्ष के बदले समय समय पर किया गया समझौता भारत की भारत की समस्त बदहाली का प्रमुख कारण है। (पृ. 75)  1947 में लेखक के अनुसार जो हुआ वह सत्ता का हस्तांतरण था। जब भारत स्वाधीन हो रहा था तो नेहरू के लिए देश का मानचित्र स्पष्ट नहीं था। माउण्टबेटन ने आज़ादी पहले दी और उसके बाद बंद लिफाफे में भारत का मानचित्र दिया। लेखक ने यह स्पष्ट रूप से लिखा है कि कांग्रेस कमिटी के जिन तीन लोगों ने भारत विभाजन के विरोध में गांधी का साथ दिया - खान अब्दुल गफ्फार खान, जयप्रकाश नारायण और राममनोहर लोहिया - वे सभी सत्ता से लड़े उसका हिस्सा कभी नहीं बने ।

लेखक ने इस पुस्तक में इस बात का उल्लेख बार बार किया है कि वामपंथी शक्तियों ने क्रांतिकारी भूमिका का पालन नहीं किया। समाजवादी चेष्टाओं के असफल होने को लेकर भी दुख प्रकट किया गया है।

आज़ादी के बाद के दौर पर दृष्टिपात करते हुए लेखक ने इसे तीन चरणों में बांटा है - नेहरू युग, इंदिरा युग और भूमंडलीकरण का दौर। पहले दौर में देश ने विज्ञान और प्रोद्योगिकी के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति की लेकिन इसका लाभ गरीबों को न मिल सका। भारत जैसे पिछड़े समाज को दलाल और वित्तीय पूंजी द्वारा नियंत्रित बाज़ार में झोंक देना किसी भी तरह से काम्य न था।  नेहरू युग के बाद दलालों का सत्ता वर्ग पर नियंत्रण होने लगा और सत्तर के दशक में दलाल पूंजीपति सत्ता वर्ग पर  पूरी तरह से हावी हो गए। इसी दौर में साम्राज्यवादी सूचना केंद्र के रूप में राजनैतिक उद्देश्यों से दूरदर्शन का विकास हुआ। दूरदर्शन के सहारे  भूमंडलीकरण के दौर में उपभोक्तावादी संस्कृति का निर्माण हुआ जिसने ''जीवन का मर्म छीन लिया।’’ इससे भारतीय समाज में  दलाल संस्कृति के लिए मार्ग प्रशस्त हुआ।

रविभूषण ने वामपंथ के अवसरवाद और सुविधापरस्ती के कारण उभरे 1967 के नक्सलवादी आंदोलन के प्रति सकारात्मक दृष्टि रखी है। वे मानते हैं कि इस आंदोलन ने कला, साहित्य और संस्कृति पर ''अमिट छाप छोड़ी।...हजारों युवकों और युवतियों ने स्वतंत्र भारत में उसी तरह से अपनी आहुति दी, जिस प्रकार परतंत्र भारत में क्रांतिकारियों ने दी थी।’’ (पृ 81)

लेखक ने 1993 के बाद हिन्दी प्रदेशों में भाजपा की हिन्दुत्व की राजनीति को शक्तिशाली बनने के प्रक्रिया पर विस्तार से लिखते हुए यह यह निष्कर्ष निकाला है कि यह इसलिए संभव  हुआ क्योंकि वामदलों ने अपना दायित्व पूरा नहीं किया। इस दौर में उन्हे लगता है कि राष्ट्रवादी स्वप्न का अवसान हो रहा है और अब इस स्वप्न को नया जीवन देने के लिए, एक वैकल्पिक भारत को गढऩे के लिए क्रांतिकारी वामपंथी शक्ति की जरूरत है जो विदेशी पूंजी के पूरे वैश्विक तंत्र से तो लगातार लड़े ही राजनैतिक लड़ाई को आर्थिक और सांस्कृतिक लड़ाइयों से अलग करके न देखे। उन्होने दो बड़ी शिकायतें रखी हैं। सबसे बड़ी शिकायत यह है कि राष्ट्रीय आंदोलन के दौर के आर्थिक और सांस्कृतिक आंदोलन पक्ष को भुलाकर सत्ताधारी वर्ग ने इस महज एक राजनैतिक आंदोलन बना दिया। नये भारत का जो स्वप्न देखा गया था वह सिर्फ राजनैतिक स्वाधीनता पाने से ही पूरा मानने को गलत मानते हैं।

रविभूषण ने माहेश्वर के हवाले से उनके सूत्र - एक नए राष्ट्रवाद की जरूरत का हवाला दिया है। इसके सहारे से उन्होने कहा है कि वामपंथ की राजनीति में राष्ट्रवाद और आर्थिक राष्ट्रवाद का प्रश्न गौण है। इस देश को एक नए आर्थिक राष्ट्रवाद की जरूरत है। इस नए राष्ट्रवाद की दो शर्तें हैं - विदेशी पूंजी का देश से उन्मूलन तथा संपत्ति का न्यायपूर्ण विभाजन। सब्यसाची भट्टाचार्य की पुस्तक (जिसका हिन्दी अनुवाद  माहेश्वर ने किया था ) के हवाले से रविभूषण ने बहुत सुंदर निष्कर्ष निकाले हैं। इस क्रम में वे कवि नागार्जुन द्वारा 1979 में प्रयुक्त 'राष्ट्रीय मार्क्सवाद’ की ओर भी मुड़ते हैं।   

लेखक की दूसरी बड़ी शिकायत यह है कि इस देश को अंग्रेजों ने जितना नहीं बांटा उतना इस देश में राजनेताओं ने वोट की राजनीति के कारण बाँट दिया। 

इस पुस्तक का एक प्रमुख स्थल है जहां लेखक ने बेनीपुरी और रामविलास शर्मा के हवाले से कम्युनिस्ट आंदोलन की विफलता पर विचार किया है। 1967 के कम याद किए जाने वाले एक प्रसंग को उद्धृत करते हुए लेखक ने रामविलास शर्मा की चेतावनी को समीचीन बताया है। 1967 में जब कांग्रेस का वर्चस्व टूटा था और जनसंघ ने संसद में तीसरे बड़े दल के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज की थी उसी समय 'फासिस्ट तानाशाही का खतरा: वामपक्ष का दायित्व’ नाम से आलोचना  में छपे आलेख में यह कथन आया था  - ''भारत में यदि फासिस्ट तानाशाही कायम होती है तो इसकी ज़िम्मेदारी सबसे पहले वामपंथी पार्टियों पर होगी, और इन वामपंथी पार्टियों में सबसे ज़्यादा कम्युनिस्ट पार्टी पर।’’ लेखक ने इसके आगे लिखा है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ 1974 में जीवंत और अधिक सक्रिय हुआ। संघ को शक्तिशाली बनाने में समाजवादियों की कम भूमिका नहीं रही है। लोहिया और जयप्रकाश ने भारतीय जनसंघ को नया जीवन दान दिया। (पृ. 162) लेखक के अनुसार ''संघ अपने स्वभाव और चरित्र में ही फासिस्ट है।’’ और साथ ही वे यह मानते हैं कि फासीवाद का संबंध आज सट्टेबाज पूंजी से है। भारतीय पूंजीवाद के ठहराव ने सांप्रदायिक फासीवाद को प्रभावित ही नहीं, विस्तारित भी किया है। इसमें कांग्रेस की भूमिका सर्वोपरि रही है।’’ (पृ. 171)

लेखक ने अपनी चिंताओं का एक तरह से समाहार 'इक्कीसवीं सदी में भगत सिंह’ में करने की कोशिश की है। उन्होंने पाठकों और अपनी तरह के सोचने विचारने वाले संवेदनशील लोगों के लिए एक प्रश्न रखा है - ... इक्कीसवीं सदी का भारत 'हिन्दू राष्ट्र’ बनेगा या वास्तविक अर्थों में धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र बना रहेगा? महात्मा गांधी, भगत सिंह, अंबेडकर, जवाहरलाल नेहरू और राममनोहर लोहिया में से किसके विचार इक्कीसवीं सदी के भारत के लिए महत्त्वपूर्ण हैं?’’ बीसवीं शताब्दी में भगत सिंह ने क्रांति का केवल एक अर्थ लिया था - ''जनता के लिए जनता की राजनीतिक शक्ति हासिल करना।’’ (पृ. 201)

लेखक का स्पष्ट मत है कि राजनीतिक दलों को क्रांति से कभी कोई मतलब नहीं रहा। वे भी शायद भगत सिंह की तरह क्रांति के लिए क्रांतिकारी पार्टी को जरूरी मानते हैं जिसमें क्रांतिकारी बुद्धिजीवियों की भूमिका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। इन क्रांतिकारी बुद्धिजीवियों (जिन्होंने अपने को बूज्र्वा व पेटी बूज्र्वा वर्ग की परंपराओं से अपने को अलग कर लिया हो) के इर्द गिर्द अधिक से अधिक सक्रिय मजदूर - किसान और छोटे दस्तकार राजनीतिक कार्यकर्ता जुडते रहेंगे।

अपने अंतिम अध्याय में लेखक ने 'राष्ट्रवाद और अभिव्यक्ति की आज़ादी’ के प्रश्न पर देश भर में विभिन्न प्रकार के राजनीतिक दबावों के संदर्भों में ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्रों में उपजे संकट पर अपनी टिप्पणी की है जिसमें यह स्पष्ट है कि वे मोदी सरकार के इस समय में इतिहास पर सम्यक और विवेकशील दृष्टि पर बढ़ते दबाव को बहुत बड़े संकट के रूप में देखते हैं।

इस पुस्तक में एक प्रखर वामपंथी विचारक की चिंता को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। ये प्रश्न लेखक को बेचैन करते हैं कि आखिरकार वो राष्ट्रवाद कहाँ खो गया जिसने देश की संघर्षशील जनता के लिए बेहतर जीवन का संकल्प लिया था। आज एक ''हृदयहीन’’ (हार्टलेस) राष्ट्रवाद लेखक को हावी होता दीखता है। एक तरह से इस पुस्तक में लेखक ने अपनी दृष्टि से इस स्वप्न के पराभव की कथा (नैरेटिव) तैयार किया है। उनकी दृष्टि आइडियोलोजिकल है और इस पूरी कथा में मूल रूप से दायी हैं वे राजनैतिक शक्तियाँ जिनके कंधों पर यह दयित्व था कि वे इस स्वप्न को साकार कर सके। इस पुस्तक के विभिन्न आलेख 1993, 1995, 1998 से लेकर 2015-16 तक लिखे गए हैं। जाहिर है इसको एक स्वतंत्र पुस्तक के रूप में देखने से कुछ असुविधा होगी। लेखक ने कुल मिलाकर एक ऐसे रूप में लिखा है जिसमें विद्वान से लेकर आम पढ़ा लिखा भी समझ सकता है। समाज विज्ञान में एक बात कही जाती है  जिसे प्रोब्लेमेटाइज़ करना कहते हैं। जिसको सरल रूप में इस तरह समझा जा सकता है कि जो हुआ उसमें विभिन्न बिन्दुओं पर चीजें भिन्न भिन्न दिशाओं में जा सकती थीं। जिन विकल्पों में से जो वास्तव में हुआ वह इतिहास में स्थान पा जाता है और जो हो सकता था पर हो न सका गौण रह जाता है। विद्वानों का एक काम किसी भी कथा के उन बिन्दुओं पर लौटकर जो हुआ उसके इतर जो हो सकता था उसकी कथा भी बनाना माना जाता है। साथ ही जो हुआ वैसा ही क्यों हुआ उसकी भी पड़ताल जरूरी होती है। इस पूरे उपक्रम में रविभूषण के नरेटिव में एक किस्म की समस्या है। वे किसी न किसी रूप में एक वामपंथी आख्यान को ही आखिरकार बचाना चाहते हैं। उनकी कथा में बिपनचन्द्र से लेकर प्रभात पटनायक उपस्थित हैं। जो अंतर वह बना पाते हैं वह है हिन्दी श्रोतों के सहारे उस आख्यान को एक लोकप्रियता दे देते हैं। इस आख्यान में वामपंथ  और दक्षिणपंथ की बाइनरी बनी रही है और राष्ट्रीयता के विमर्श को किसी न किसी तरह बचाने की चेष्टा है। इस सीमा को समझने के लिए दो उदाहरण देना अनुचित न होगा। राहुल सांकृत्यायन ने आज़ाद भारत में बनते हुए भारत के लिए एक स्वप्न देखा था। राहुल सांकृत्यायन की आज की राजनीति (प्रकाशक - आधुनिक पुस्तक भवन, कलकत्ता) का प्रकाशन 1949 में हुआ था। इसका द्वितीय संस्करण 1951 में आया। उस पुस्तक को इस पुस्तक के साथ रख कर देखने से यह स्पष्ट हो जाएगा कि स्वप्न-भंग तय था। नेहरु के आभामण्डल का एक पक्ष यह भी है कि उसकी आलोचना करते हुए भी उस फ्रेम से बाहर निकालना सम्भव नहीं हो पाता। रविभूषण ने इस पुस्तक में पूरी ईमानदारी से स्वप्न - भंग की कथा कही है लेकिन उस फ्रेम से बाहर वह निकल पाए हैं ऐसा कहना मुश्किल है। इस पुस्तक में एक घटना का उल्लेख हुआ है जिसमें यह कहा गया है कि जब यूनियन जैक को उतारा जा रहा था तो माउण्टबेटन ने जवाहरलाल नेहरु से अनुरोध किया था कि देश में इस समय कोई आयोजन न हो। नेहरू ने मान लिया था। इस तरह के संकेत बहुत सारे हैं जिसके आधार पर राष्ट्रीय नेतृत्व की आलोचना संभव थी पर उस ओर लेखक ने कम ध्यान दिया है।

दूसरा उदाहरण है अटल बिहारी बाजपेयी को इन्दिरा गांधी द्वारा फासिस्ट कहे जाने का। आज इस बात पर लोग किंचित आश्चर्य से भर उठेंगे कि अटल बिहारी बाजपेयी को फासिस्ट उस समय सदन में खुद प्रधानमंत्री ने कहा था। आज एक अंतर बनाया जा रहा है - आथोरीटेरियानिज़्म और फ़ासिज़्म के बीच। शायद 1920 से 1970 के बीच के इतिहास को दुबारा लौट कर देखने से स्पष्ट होगा कि राष्ट्रवाद पर जो बहस होती रही है उसको एक ऐसे नरेटिव में पूरी तरह से एकांगी रूप में देखा गया। जब तक इस पूरे नरेटिव को रेखांकित न किया जाएगा हर बात के अंत में दोष दूसरे पक्ष पर मढ़ा जाता रहेगा। इस पुस्तक में लेखक की छट्पटाहट तो स्पष्ट है  और यह बहुत ही जेनुइन है लेकिन फ्रेम कुल मिलाकर विचारधारात्मक है अकादमिक नहीं है। इसमें इस बात का उत्तर नहीं है कि जिस जनता पर सारा दारोमदार है उसने आखिरकार कैसे 'फासिस्ट’ को चुन लिया। जो लोग तुरंत हिटलर का उदाहरण देते हैं उनको जर्मनी की स्थिति और भारत की स्थिति में अंतर को याद दिलाना चाहिए। भारत में जो लोग फासिस्ट कहे जाते हैं उनके आंतरिक इतिहास को भी इस बहस में लाया जाना चाहिए। वरना भारतीय लोकतन्त्र की कहानी का एक पुराना पाठ ही दोहराया जाता रहेगा। जब तक राजनीतिक सत्ता इस पाठ के साथ रहेगी तब तक यह सुरक्षित रहेगी। जैसे ही सत्ता दूसरी ओर जाएगी सब कुछ खतरे में दिखलाई देगा।

इस आलोचना का उद्देश्य एक महत्त्वपूर्ण आलोचक-चिंतक की पुस्तक के महत्त्व को कम करना नहीं है। इस पुस्तक में ही ऐसे बहुत सारे संकेत-सूत्र हैं जिसके सहारे भारतीय राष्ट्रवादी स्वप्न की वैकल्पिक कथा भी कही जा सकती है। इस पुस्तक को हिन्दी समाज पढे और इससे बहस करे, यह जरूरी है।           

 

रविभूषण जी ने हिन्दी आलोचना की सम्पदा को भरने का काम किया है। पाठ का गहरा अध्ययन-विश्लेषण करने वालों में आज लगभग अकेले हैं। कुछ अंकों पूर्व मलयज पर और अब देवीशंकर अवस्थी पर उनका लिखा प्रकाशित हुआ है। सिलसिला जारी रहेगा, उनके पास एक सूची है। 2018 में रविभूषण के दो ग्रंथ आये। एक रामविलास शर्मा का महत्व और दूसरा वैकल्पिक भारत की तलाश। इसमें से एक खंड की आलोचना इसी अंक में अन्यत्र छपी है। रविभूषण जी का पराक्रम यह है उनसे सहमति असहमति रखने वाले विद्वान-अध्यापकों-पत्रकारों को जब उन पर लिखने का अवसर मिलता है, उनका दम फूल जाता है। हिन्दी में आलोचना के साहस का यह हाल है। रविभूषण जी के वैकल्पिक भारत की तलाश की आलोचना हिन्दी के बाहर की दुनिया के एक दिग्गज इतिहासकार लेखक हितेन्द्र पटेल ने तैयार की है।

 

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