मर के भी चैन न मिला तो कहाँ जाएँगे..

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    अप्रैल २०१३
श्रेणी आलेख
संस्करण अप्रैल २०१३
लेखक का नाम मृत्युंजय







नवें दशक की कविता पर कुछ नोट्स



इस आलेख में मैंने नब्बे दशक के इर्द-गिर्द लिखी गयी कविताओं के साथ उस दौर की हकीकी जमीन पर ठहरने की कोशिश की है। कोशिश यही है कि कवियों पर नहीं, बल्कि कविताओं में उभरे देश-काल पर अपने को केन्द्रित करूँ। कारण यह कि मुझे निजी तौर पर एक खास दौर की कवितायें पढऩा और उनमें डूबना हमेशा हिन्दी कविता की पीढिय़ों की बहस से बेहतर लगता है। दूसरे हमारे गिर्दो-पेश में बदलाव इतनी तेजी से आ रहा है कि किसी 'पीढ़ी' का समय-निर्धारण और मुश्किल हुआ है। 'पीढ़ी' बदलते-बदलते, कविता कई-कई बार बदल जा रही है। एक पीढ़ी के कवियों की एक दशक में लिखी हुई कविताओं का सुर उन्हीं कवियों की अगले दशक में लिखी गयी कविताओं के सुर से भिन्न है। यह 'दशक' भी देखने का कोई कोई पुख्ता तरीका नहीं, पर जैसा कि हर तकसीम के पहले तर्क दिया जाता है, यह सुविधा के लिए है। तीसरे इस 'नब्बे दशक' की कविताओं को एक साथ एक काव्यात्मक परिघटना के रूप में देखने की सुविधा यों है कि राजनीतिक-सामाजिक परिवर्तनों में हम इस दौर को बखूबी चीन्हते हैं।

मुबाहिसे हुए और तय पाया गया कि अस्सी के दशक की कविता में फूल-पत्ती-चिडिय़ा-बच्चे बारम्बार मौजूद हैं। न सिर्फ नक्कादों ने, बल्कि खुद अस्सी दशक की कविता के हरावलों ने इसे माना। असल में यह सवाल कविता की जमीन का था। सत्तर के दशक में आन्दोलनों की धधक और राजनीति ने कविता में कठोर यथार्थ के प्रति कई नजरिये विकसित किये थे- पहला था अराजकतावादी नजरिया और दूसरा क्रांतिकारी वाम का। राजकमल चौधरी और धूमिल दोनों धाराओं के प्रतिनिधि कवि कहे जा सकते हैं। अलावा इसके रघुवीर सहाय की सत्तातंत्र और समाजी ढांचे की 'आधुनिक' आलोचना थी और केदारनाथ सिंह की जीवन के छोटे पक्षों के कैनवास पर गाँव के सहारे रचा पैनोरमा। ध्यान रहे कि इसी वक्त बहुत समय से कविता लिख रहे प्रगतिशील कवियों के संग्रह भी चर्चा में आए। अस्सी दशक की कविता को यह सब विरासत में मिला। अस्सी के दशक की कविता पर नक्सलबाड़ी के आवेग के असर की चर्चा की गई है। इससे पिछले दौर में सर्वेश्वर की कविता में प्रतिरोध और आवेग के क्रमश: बढ़ते जाने की अगली कड़ी के रूप में हम गोरख, आलोकधन्वा, कुमार विकल और वीरेन डंगवाल की कविताओं को चिन्हित कर सकते हैं। दूसरी बात यह कि इस आंदोलन के दमन ने आठवें दशक की कविताओं में जीवन-मूल्यों को सुरक्षित कर लेने, जीवंत सचाईयों को बचा लेने और उन्हें कविता में दर्ज करने का काव्य-बोध भी पैदा किया। 'सत्तर के दशक की दिशा जो गाँव-कस्बा-शहर थी, अस्सी के दशक में बदलकर यह शहर-कस्बा-गाँव की दिशा' हो गयी।
कहने का आशय यह कि अस्सी के दशक में आवेग, शामिलपने, गतिशीलता और वाह्य की जगह स्थिरता, सजगता, ठहराव और अभ्यंतर काव्य-बोध में ज्यादा शामिल हैं। आन्दोलनों के बर्बर दमन के बाद लगे धक्के के समय में यह कविता जीवन के स्रोतों की तलाश की ओर जाती है। अस्सी दशक के दो महत्वपूर्ण कवि आलोचकों ने अपनी पुस्तकों में की गयी टिप्पणियों में बारम्बार यह रेखांकित किया है कि उनकी कविता, अलग है। वह जीवन के राग-रंग, कविता में उनके पुनर्वास, राजनीति के जीवन में घुलने की कविता है। यह कविता के फलक को बड़ा करती है। इन कवियों के मुताबिक इन्होंने जीवन में राजनीति को घुला दिया, संवेदनाओं का विस्तार किया, नारों और राजनीति और आवेगमयता की जगह थिर, संवेदित और क्षैतिज विस्तार की कविता लिखी। आंदोलनों के दमन और सत्ता के लगातार और क्रूर होते जाने का प्रतिरोध रचने के लिए ये कवि जीवन की बहुलता में गए। मध्यवर्गीय समाज के बारीक जीवनानुभवों में राजनीति के असर को देख पाना और उसी के सहारे प्रतिरोध रचने की कोशिश, इस दशक की कविता के लिए शक्ति का मूल उत्स था। अरुण कमल की 'अपनी केवल धार' कविता जैसे इस सैद्धांतिकी का बखान है। राजेश जोशी की बहुचर्चित कविता 'बच्चे काम पर जा रहे हैं' जीवन में अब तक किनारे पर रह गए बोधों, भावों और संवेदनों को एक राजनीतिक ताकत में बदल देती है। उसी दौर की वीरेन डंगवाल की एक और कविता 'नदी' का जिक्र करना यहाँ मानीखेज होगा, जिसमें नदी के परम्परागत सुखमय बिम्ब को बाढ़ की विभीषिका से बदल दिया गया है। कहने का कुल आशय यह कि छोटी-छोटी चीजों के मार्फत राजनीति रचने का एक क्रम इस दौर की कविता में दर्ज है।
अस्सी के दशक तक नैरेटिव की, सपने की, बदलाव की और प्रतिरोध की एक आस जिन्दा थी। दुनिया में दो ध्रुव हुआ करते थे। समस्याग्रस्त ही सही, दूसरा ध्रुव एक सपने की जमीन बनता था। अस्सी के दशक की कविता की आधारभूमि यही सपना है। हालांकि दूसरा ध्रुव पहले जैसा मजबूत नहीं रहा पर उसके होने भर से ढाढस था। 'एक कमजोर कांपती हुई कोमल जिद' इसी भूमि पर खड़ी थी। फूल-चिडिय़ा-पत्ता-बच्चा का कविता में आना कविता की भूमि को विस्तारित करता था, और हकीकतों के बरक्स अपना यूटोपिया बनाता था। इस काव्य-यूटोपिया में अभी भी बहुत सी चीजें थीं, जिन पर अपना कंधा टिकाया जा सकता था। कविता जिनकी 'संगतकार' बन सकती थी।
लेकिन इस क्षैतिज विस्तार वाली कविता की अभ्यंतर की यात्रा का शीराजा नब्बे की हकीकतों को चित्रित करने के लिए पूरा न पड़ा। नब्बे के दशक में प्रवेश करते ही बात बदल-बदल गयी। दुनिया में राजनीतिक स्तर पर दो ध्रुव थे, उनमें से एक बिखर गया था। एक ध्रुवीय दुनिया में सपने की रही-सही आस भी चूर हुई। भारतीय राजसत्ता ने अपने सारे मुखौटे फेंक दिए और भूमंडलीकरण, उदारीकरण, निजीकरण की जनद्रोही नीतियों के एक्सप्रेस हाइवे पर निकल पड़ी। एक ध्रुवीय दुनिया के साथ ही क्रूर होते जाते सत्तातंत्र के बरक्स इसी दशक में अस्मिताओं का उभार हुआ। भारतीय शासक वर्ग ने बदलाव की उनकी ताकत को भांपते हुए उनके प्रतिनिधियों की सत्ता में हिस्सेदारी को सुनिश्चित किया। तीसरे भूमंडलीकरण की भयावह पूंजीपरस्त नीतियों को ढंकने के लिए साम्प्रदायिकता एक आधुनिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल की जाने लगी। बाबरी मस्जिद का टूटना भारतीय राजनीति में साम्प्रदायिक फासीवाद के स्थाई महत्व को हासिल कर लेने का सूचक था। पूरी की पूरी मुख्यधारा की राजनीति थोड़ा दाहिने खिसक गई। यही वह जगह है जहां से TINA ( There is no alternative) फैक्टर ख्यालों में, कविताओं में, सपनों में दाखिल होता है। नब्बे की कविता की जमीन यही है।
कविता राजनीति का सीधा अनुवाद नहीं होती। राजनीतिक सचाईयां उस पर असर डालती जरूर हैं पर हम यह मांग किसी दौर की कविता से नहीं कर सकते कि उसने फलां-फलां घटना पर क्या लिखा। इसका क्लासिकल उदाहरण निराला हैं। निराला ने देश की आजादी या विभाजन पर कुछ नहीं लिखा। देश के आजाद होने से पहले उनकी कविता में नेहरू  और कांग्रेस मॉडल की आलोचना जरूर मिलती है, पर आजादी-विभाजन के दौर में वे कुछ नहीं लिखते। अचानक हम देखते हैं कि आवेगमय, बदलावपसंद और राजनीतिक निराला भरे गले से शरण माँगते-खोजते सामने आते हैं। उनके प्रपत्ति गीतों की करुणा उनके टूट जाने और बीच की घटनाओं से उपजे बोध का बखूबी बयान करती है। इसी बोध को सहेजे हुए हमें नब्बे के दशक में हो रहे समाजी बदलावों को कविता की आंख से देखने का जतन करना चाहिए। मैंने अपने तईं कोशिश की है कि इस आलेख में कविताओं को काट-छांट कर किसी ढांचे में फिट करने की बजाय उनके भीतर की हलचलों को महसूस कर पाऊँ।
देवीप्रसाद मिश्र के पहले संग्रह की पहली ही कविता इस लिहाज से गौरतलब है। 'प्रार्थना के शिल्प में नहीं' कविता को नामवर जी ने 'परम्परा के साथ नए संबंध की स्थापना' के लिए महत्वपूर्ण माना था। कविता का कहना है कि- देव-देवताओं, हम आपसे/जो कुछ कह रहे हैं/प्रार्थना के शिल्प में नहीं। (देवी प्रसाद मिश्र) यह कविता दम-$खम से पुरानी पद्घतियों और काव्य-बोध से अपने आपको अलग करने की घोषणा के रूप में पढ़ी जा सकती है। बन रही एक नयी सामाजिकता को आंकने के लिए नए बोध की जरूरत कवि को लगती है। इस संग्रह में कवि छोटे-छोटे दुखों को आंकता है, सत्ता तंत्र की हकीकतों के भयावह बोध से वह लैस है। वह 'आततायी उल्लास से घिरी सती की चीख' की तरह इस सदी की शिनाख्त करता है। टुकड़े-टुकड़े दुखों का संघनित होना हम इस कविता में देख सकते हैं। इस संग्रह का पूरा एक भाग परम्परा पाठ को समर्पित है। जिक्रतलब बात यह है कि देवी प्रसाद मिश्र इस परम्परा पाठ में बौद्घ धर्म से अपने प्रतीक चुनते हैं। अस्मिताओं के उदय और साम्प्रदायिकता के बढ़ते खतरे, दोनों के लिहाज से हिन्दी साहित्य और समाज में भी यह जमीन एकाधिक बार परखी जा चुकी थी। चालीस के दशक में हजारी प्रसाद द्विवेदी और अंबेडकर ने इस जमीन की पड़ताल की थी। कवि इस परम्परा में जिस तत्व के सर्वाधिक नजदीक अपना दर बनाता है, वह है दु:ख। यही उसके परम्परा पाठ का आधार है। पूरे संग्रह में दुखों के बढ़ते दबाव को आप बारम्बार महसूस करेंगे। पर उनके कारणों की शिनाख्त शायद इस कविता का क्षेत्र नहीं है। छटपटाहट इस कविता का मूल तत्व नहीं। स्थितियों के प्रति एक गहरी वितृष्णा और क्षोभ का बोध काव्य-संसार में घुला-मिला सा है। इस बात को उर्वर प्रदेश-2 में कवि के वक्तव्य से भी और समझा जा सकता है, जहां वह भारतीय शक्ति, संरचना के सामने अपने आपको निहत्था पाता है। यूटोपिया का प्रतिसंसार उसमें ऊर्जा नहीं भर पाता। इसलिए हकीकतों पर तीखी टिप्पणी करने के बावजूद परिदृश्य की पूरी समझ कविताओं में नहीं उभरती। यों कवि की अपनी स्थिति कविता की जमीन से बाहर दिखती है। इस दौर की कविता अगर संपूर्णता का वितान रचना भी चाहती है. तो वह खंडित ही मिलता है। दुखों के दागों से भरा हुआ मन इस संपूर्णता के अर्थ पर सवाल खड़ा करता है। पीछे की कविता में यह शायद नहीं है।
अस्सी के दशक के कवियों के काव्य-संसार में दु:ख नहीं है, ऐसी बात नहीं पर कुमार अम्बुज की कविता नए वक्त के असहनीय दुखों को पुरानी काव्य-भाषा और मुहावरों में संभव करती है। यह उसकी शक्ति भी है और सीमा भी। अस्सी के दशक की कविताओं के निभ्र्रांत बढ़ाव (एक्सटेंशन) की तरह नब्बे की कविता को देखना मुश्किलतलब विचार है। कुमार अम्बुज की कविता अस्सी के दशक से जुड़ाव और अलगाव, दोनों को दर्ज करती है और नयी बदली हुई समाजी स्थितियों को कविता में घुलाती है। उसकी कोशिश है आतंक भरे समय में नीचे दबी रचनात्मकता को अपना आधार बनाना। राजसत्ता की चहुंओर भयावहता के जिस खाके का जिक्र हम ऊपर कर आये हैं, उसको 'दौड़' शीर्षक कविता में दर्ज करते हुए कुमार अम्बुज लिखते हैं - मुझे पता नहीं मैं कबसे एक दौड़ में शामिल हूँ/***/मुझे ठीक-ठीक नहीं मालूम मैं भीड़ के साथ दौड़ रहा हूँ। या भीड़ मेरे साथ/***/मैं दौड़ रहा हूँ बिना यह जाने कि कौन है मेरा प्रतिद्वंद्वी/***/जब मैं शामिल हुआ था दौड़ में मुझे दिखाई देती थीं कई चीजें/खेत, पहाड़, जंगल, मैदान/*** तलुए सूज चुके हैं सूख रहा है मेरा गला/जवाब दे चुकी हैं पिंडलियाँ/*** हद यह है कि मैं बिलकुल नहीं दौडऩा चाहता/एक धावक की तरह पार नहीं करना चाहता यह छोटा सा जीवन/हद यही है कि फिर भी मैं अपने आपको दौड़ता हुआ पाता हूँ/थकान से लथपथ और बदहवास/(कुमार अंबुज)/ इस दुख को व्यक्त करने का दूसरा तरीका रूमान और प्रेम की जमीन से इनके सामने जाने में था, जिसका उपयोग हमें पंकज चतुर्वेदी की कविताओं के पहले संग्रह में भरपूर मिलता है। अपनी एक कविता में वे बंद दरवाजों को खोलने के लिए जो चाहिए, उसका पता बताते हैं - 'एक अंजुरी प्रकाश चाहिए मुझे/कि जिसकी महक से उन्मत्त होकर/जिसकी ऊष्मा से पिघलकर/जिनके उन्माद संगीत से आहत होकर/चरमराकर टूट जाएंगे दरवाजे' (पंकज चतुर्वेदी)। पर ये दरवाजे किसी भी कीमत पर खुलते नहीं  लगते। इन पर इतिहास और संस्कृति की गहरी वार्निश चढ़ी है। उस 'एक अंजुरी प्रकाश' के स्रोत की शिनाख्त करते हुए हम इस संग्रह के रूमान की ओर देख पाते हैं। लेकिन इस तरह की कविताओं में रास्ता न दिखने की बेचैनी ही इन्हें अस्सी दशक से आगे की कविता बना देती है - 'इतना सब करने के बाद/लेकिन जब तुम रोने लगे एक दिन/तब मुझसे रोया नहीं गया/तब मुझे लगा/कि हम सब कितने असहाय हैं' (पंकज चतुर्वेदी)।
इस टोन की कविता अस्सी के दशक में शायद ही मिले, जिसमें कर्ताभाव सिरे से गायब हो। नब्बे के दौर में मुख्यधारा की वाम राजनीति में भी स्वतन्त्र कर्ताभाव के लिए जगह कम छोड़ी गयी थी। मध्यवर्ग, जो कविता का आधार वर्ग बन चला था, में भारी बदलाव देखने को मिल रहे थे। यह मुक्तिबोध के जमाने वाला मध्यवर्ग नहीं रह गया था कि कवि उनसे सवाल पूछ सके- 'अब तक क्या किया?' वाया 'समझदारों का गीत' अब यह वर्ग उपभोक्ता था। भूमंडलीकरण को लेकर आशान्वित और चिंतित। नए सवाल जो कि भारतीय सामाजिक संरचना को सिरे से बदल रहे थे, के खिलाफ मजबूत, प्रभावी संघर्ष की जगह एक खास किस्म का पिछलग्गूपन ही हावी था। साम्प्रदायिकता से लडऩे का काम भारत की बहुलता, क्षेत्रीयता और तथाकथित धर्मनिरपेक्ष क्षत्रपों पर छोड़कर, मुख्यधारा वाम की ताकतें उनके बीच के अंतर्विरोध साधने में मगन थी। मुक्तिबोध की एक कविता में जमीन में दबी हुई धुकधुकियों के आत्मालोचन का सहारा लें तो मुश्किल यह थी कि हम कम क्रांतिकारी थे। साम्प्रदायिकता को एक आधुनिक परिघटना मानकर उसके खिलाफ जनगोलबंदी विकसित करने की बजाय पिछलग्गूपना और सरकारी धर्मनिरपेक्षता ही उस दौर के आदर्श बने रहे। तो कविता स्थितियों की भयावहता को एकदम सटीक आंकते हुए भी कर्तापने के बोध से ही दूर जा छिटकती है। दूसरे शब्दों में आख्यान के अंत की बात जो देवी प्रसाद मिश्र महसूसते हैं, वह कुमार अम्बुज की कविता में भी विन्यस्त है।
यही वह बिंदु है जहां से हम इस दशक के विभिन्न कवियों के संग्रहों में आयी बहुलता की जमीन को समझ सकते हैं। इस पूरे दशक में अलग-अलग जमीनों की तलाश का काम हिन्दी कविता के कंधे पर आन पड़ता है। अस्सी की कविता की जमीन साफ थी- एक विराट यूटोपिया के तले जीवन के फैले हुए पैनोरमा में फूल-पत्ते-चिडिय़ा-बच्चे हों, उनके छोटे-छोटे क्रियाकलापों में राजनीति का सूक्ष्म अंतर्गुम्फन हो। पर आगे हुआ यह कि जीवन की बदलती गतिकी को चीन्ह पाने में यह सूक्ष्मता असफल होने लगी। बदलती परिस्थितियों के दबाव से पुराना काव्य-ढांचा चरमराने लगा। नब्बे की कविताओं में आपको फुर्सत नहीं मिलेगी। वे एक बार फिर गति में हैं। नित नए बदलते और गतिशील होते समाज की हकीकतों से वे वाबस्ता हैं, भले ही उसको ठीक से समझ न पा रही हों। यों एक असहायता बोध भी इस कविता में दर्ज मिलेगा। भारत पर नब्बे के दशक की हकीकतों के असरात को ये कवितायें बखूबी महसूस करती हैं। यहाँ इस दौर की कविताओं का साझा बनता है, पर पुराने यूटोपिया के अभाव में ये अलग-अलग दिशाएँ लेती हैं। इन कविताओं में यथार्थ का सामना करने की भूमियाँ अलग-अलग है।
मसलन एक जगह है लोक। अस्सी के दौर की तुलना में इस दौर में हिन्दी कविता में लोक की जगह काफी है। बद्रीनारायण की कविता इस दु:ख की पड़ताल करते हुए लोक की जमीन पकड़ती है। वहाँ से शायद ऊर्जा मिले या इन नई स्थितियों की 'क्रूरता' के सामने खड़े होने का थोड़ा साहस। कोई ऐसी जगह जहां से मौत से 'आइस-पाइस' खेली जा सके। लेकिन कवि का यह रोमानी बोध उसके 'निपट अकेलेपन' के पासंग में भी नहीं ठहरता। बद्रीनारायण और बोधिसत्व के पहले संग्रहों में यह बात एक सी है कि दोनों कवि लोक के पास जाते हैं, लोक-भाषा से अपनी कविता का खाका बुनते हैं। यथार्थ की जटिलता की अभिव्यक्ति के लिए वे बरास्ते लोक वहाँ तक पहुंचना चाहते हैं। इन संग्रहों में भूमंडलीकरण और अन्य भयावह परिघटनाओं के खिलाफ लोक एक शरण्य की तरह उभरता है, पर आवयिवक संबंध उससे कम ही बन पाता है। उस दौर में गाँवों में हो रहे भूमंडलीकरण के प्रभावों को या तो यह कविता ठीक से पहचानती नहीं या फिर उसका पूरा चित्रण इन कविताओं में मिलता नहीं। उसी दौर में डंकल आदि की आमद हो रही थी और तैय्यारी इस बात की थी कि ग्रामीण जीवन का कोई चिन्ह आगामी संततियों के नक्शे से मिटा दिया जाये। कृषि पर हमलों का यह संगठित दौर इस कविता में दर्ज नहीं। इन कविताओं में दर्ज लोक का दु:ख 'आम की मंजरियों में पाला मारने' का दु:ख नहीं है। यहाँ लोक के सहारे मध्यवर्ग पर भूमंडलीकरण के बढ़ते प्रभावों का अंकन है। 'हर लड़ाई में/मेरे साथ/मेरे चेतना के सभी गाँव हारते हैं' कहता हुआ पंकज चतुर्वेदी की कविता का नायक इस दशक की कविताओं के नायक के गाँव या लोक के साथ सम्बन्धों को ठीक ही चिन्हित करता है। ये दिलचस्प है कि बद्रीनारायण अपने बाद के कविता संग्रह में आगे बढ़कर इसकी सैद्धांतिकी की दिशा लेते हैं। वे चिडिय़ा को व्याध के जाल से बचाने के लिए उनके अपने दार्शनिकों की जरूरत को रेखांकित करते हैं। हाशिये पर धकेल दी गई अस्मिताओं पर निगाह टिकाते हैं। बावजूद इस सुविचारित सैद्धांतिकी के काव्य-रूपान्तरण के, इन अस्मिताओं के दुख का समग्र खाका कविता में नहीं समा पाता। कहिए तो सिद्धान्त पक्ष पर ज़ोर बढ़ गया। दूसरी तरफ बोधिसत्व मध्यवर्गीय दुखों के चित्रण की और ही भाषा विकसित करते हैं, अस्मिताओं की तरफ भी आकृष्ट होते हैं। धीरे-धीरे उनकी कविताओं में लोक- 'भिखारीरामपुर' एक नौस्टेल्जिया रचता है। गाँव से दूर रहने की छटपटाहट और बेचैनी तो यहाँ कविता में दर्ज होती है पर गाँव कुल मिलाकर आलंबन ही रहता है। अष्टभुजा शुक्लकी 'चैत के बादल' इस लिहाज से दिलचस्प कविता है। इस कविता का लोक किसी मध्यवर्गीय दु:ख की व्याख्या के लिए नहीं है। उसके अपने ही दु:ख हैं जिनकी अभिव्यक्ति का माध्यम कविता को बनाता है। 'मोही, छछन्नी, अघी' चैत के बादल सिर्फ गरजने वाले हैं, फसलों के लिए उपयोगी नहीं हैं। संस्कृत के पंडित, अष्टभुजा शुक्ल के दिमाग में इस कविता को लिखते वक्त 'रे रे चातक सावधान मनसा मित्र क्षणं श्रूयताम्' वाली कविता जरूर ही रही होगी। यह कविता लोक के दुखों को बेहतरीन तरीके से विश्लेषित तो करती है पर उसका कोई आख्यानक रूप सामने नहीं लाती। दूसरी कवितायें ग्रामीण जीवन की आधार-भूमि से होने के बावजूद टूटा हुआ दृश्य ही बना पाती हैं। आगे उनके 'पद-कुपद' उस खीझ और आक्रोश की मार्फत व्यंग्य व्यक्त करते है, जो स्थितियों की भयावहता और विकल्पहीनता से उपजे हैं।
इस सिलसिले में नब्बे की कविता में छंदों के प्रयोग पर नजर डालना दिलचस्प बात होगी। खासकर दो कवितायें, अष्टभुजा शुक्ल और संजय चतुर्वेदी ने पुराने छंद रूपों में अधुनातन प्रयोग किये। दोनों के छंद, व्यंग्य की गहरी छटा से जगमगाते हैं, पर करुणा की धार इनमें ज़रा कम ही है। संजय चतुर्वेदी ने 'प्रकाशवर्ष' से आगे बढ़ते जुए स्थितियों की भयावहता से लडऩे के लिए छंद का माध्यम लिया। एक गहरी तिक्तता का बोध उनके इन छंदों को पढ़कर होता है। मानो दुनिया से दुखी एक कवि सब कुछ गड़बड़ाता हुआ देख रहा हो, उसके सामने कोई विकल्प न हो और वह श्राप, पूरे दिल से श्राप दे रहा हो। पर यह बाद की बात है। संजय चतुर्वेदी के पहले संग्रह में निराशा के भरे-पूरे मैदान का भीषण डर है, पर जिसमें कम से कम 'एक आदमी आता है, सुबह की दौड़ लगाने'। यह आशा का छद्म स्रोत था, जो अपनी गति को प्राप्त हुआ और निराशा घनीभूत होती हुई 'ऐसी परगति निज कुल घालक' तक आगे पहुँची।
नब्बे के कवियों में परिवार बारम्बार आता है। परिवार सबसे पुरानी संस्था है, जहां हर तरफ से हार कर आदमी पहुंचता है। ऐसा नहीं कि घर-परिवार पीछे की कविता में है ही नहीं। पिता पर रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर और केदारनाथ सिंह सहित अस्सी के दशक में भी कई बेहतरीन कवितायें लिखी गयीं। पर नब्बे के दशक के कवियों में परिवार या पिता-मां थोड़ा दूसरी तरह से आते हैं। 'एक अदद भीगी हुई रात' के अँधेरे में यहाँ मां-पिता साझीदार की तरह आते हैं। कवि मां-पिता को अपने दुखों के गिर्द ले आता है। उसकी अपनी हार और दु:ख इतने ज्यादा हैं कि पिता की कोई स्वतन्त्र छवि इन कविताओं में कम ही उभरती है। अगर उभरती भी है तो ज़्यादातर दर्द के आईने से देखी हुई तस्वीर।
उसकी भी तस्वीर है अखबारों में/मेरे ही साथ छपी/मैं बैठा वह लेटा/चार बाई पाँच में वह पिता मैं बेटा (लाल्टू) पिता ने कहा/मैंने तुझे अभी तक/विदा नहीं किया/तू मेरे भीतर है/शोक की जगह पर (गगन गिल) ओ मेरे पिता/बीत गए तुम/रह गए हम/तुम्हारे कैलेण्डर की उदास तारीखें (एकांत श्रीवास्तव) वे नहीं जानतीं कि कितनी बार मैंने आत्महत्याओं के निर्णय मुल्तवी किये हैं/वे नहीं जानतीं/एक ऐसा भी वक्त था जब मां मेरे बारे में सबकुछ जानती थीं। (देवी प्रसाद मिश्र) माँ छाल है... माँ चिपकी तरह की छाल-पर पेड़ पूरे हैं हुई/जब भी चली है कुल्हाड़ी/पेड़ या उसकी शाखाओं पर/माँ ही गिरी हैं सबसे पहले/टुकड़े होकर टुकड़े - (हरीश चंद पाण्डेय) हम सिर्फ सोचते रहेंगे/लेकिन अकस्मात एक दिन मां आ जायेगी/स्थगित करती हुई कुछ और समय के लिए/हमारे पश्चाताप! (कुमार अम्बुज)
इन कविताओं में आये मां और पिता आमतौर पर अपनी कमजोर संततियों के लिए सहारा हैं, वे नहीं हैं तो खोने का गम, सहारा छिनने का दर्द है। वे दु:ख की इस घड़ी में उनकी उन संततियों के साथ हैं, जिनके सामने का विकल्प मिट-पुंछ गया है। आत्महत्या को अपने मन में धारे उनका यह बेटा उनकी तरफ भी उदास निगाहों से देखता है और दूसरे दुखों को भुलाने के लिए अपना सर उनकी गोद में टिका देता है। वह अपनी गलतियों के बाद, थकान के बाद, दुनिया की हकीकतों से सर टकराने के बाद इस जगह पहुंचता है। यह अलग बात है कि वहाँ भी उसको सुकून नहीं मिलता। माँ की जो छवि हरीशचंद्र पाण्डेय उकेरते हैं, वह दुख की ही निगाह से दर्ज की गई तस्वीर है। यहाँ भी परिवार संस्था की समझ की बजाय, कवि का ध्यान उसमें माँ की भयावह स्थिति पर ही केन्द्रित होता है। दूसरे, यह बेटे की नजर से देखी गई माँ की तस्वीर है। यह परिवार संस्था को एक अखंड इकाई के रूप में देखती है। परिवार के अंतर्विरोध यहाँ गायब हैं। कुमार अंबुज की कविता में भी कवि की अवस्थिति वही है। यह अनायास नहीं कि सुखी पिता-माता की छवि इन कविताओं से लगभग नदारद है। परम्परा से संबंध को अगर हम इस रोशनी में देखना चाहें, तो यह एक दिलचस्प बात हो सकती है। कहना यह है कि परिवार नाम की संस्था में स्त्रियों के शोषण की जगहें तो इस कविता में दर्ज हैं, पर ढाँचे के रूप में उसका चित्रण या प्रतिकार यहाँ कम ही दिखता है।
इस दौर में साम्प्रदायिकता पर लिखी कुछेक चर्चित कविताओं की संगत से हम यहाँ समझने की कोशिश करेंगे कि नब्बे के दशक की कविता पर इस परिघटना ने क्या निशानात छोड़े और कविता ने इस चुुनौती के प्रति क्या रुख अिख्तयार किया। अनिल सिंह की कविता 'अयोध्या', अयोध्या के भीतर एक आम शहर को खोजती है। तबाही के बीज जिस शहर से फैलाये गए हों, उस शहर का यों साधारणीकरण एक कवि के काव्यात्मक साहस का परिचय देता है। पर इस साहस की बुनियाद क्या है? हकीकत का दूसरा पहलू, जिसे उभारने के लिए इस कविता को आलोचकों की सराहना मिली, वह कितनी कमजोर जमीन है। पूरी कविता एक धीमा सुर साधती है और उस शहर की रोज़मर्रा की दुनिया को रेखांकित करती है। यह रोज़मर्रा की दुनिया, ईश्वर, अल्लाह, भागदौड़, मुश्किलों और खाते-पीते जिंदा लोगों से आबाद है। इस सुर से अयोध्या को परिभाषित करने की जद्दोजहद कविता के आखिर में एक रक्षात्मक बोध पैदा करती है। 'क्या कोई भी नरभक्षियों के हवाले कर सकता है इसे/अगर वह रहता है सचमुच किसी शहर में?' यह सवाल कवि की, मनुष्यता में आस्था से ज्यादा उसके इस विश्वास की ओर इशारा करता है कि अयोध्या बची रहेगी। वह सांप्रदायिकता का शिकार नहीं होगी क्योंकि उसमें लोग रहते हैं। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। ऐसा होना भी नहीं था। क्योंकि समय के रथ पर चढ़कर यथार्थ आगे बढ़ रहा था। यह कविता उसे पीछे से पकडऩे की कोशिश करती है। 'भेडिय़ों का शिकारगाह नहीं है यह शहर', 'चालू राजनीति का गर्भपात नहीं है अयोध्या', ये ही दो चुस्त और अलग से दिखने वाले वाक्य कविता की संरचना की फांक को सबसे ज्यादा बयान करते हैं। मद्घम सुर में बढ़ रही कविता में ये दोनों वाक्य खीझ और तिलमिलाहट से भरे हैं। ये वाक्य जिस का नकार करते हैं, उसकी भयावहता भी ठीक समझते हैं। चालू राजनीति की शिकारगाह अयोध्या की हकीकतों को छोड़कर कविता दूसरी अयोध्या रचती है। सवाल तब यह कि इस दूसरी अयोध्या में, रोज़मर्रा की जिंदगी को पहली अयोध्या से अलगाया जा सकता है? कविता का पेंच यही है। भुलावा देती हुई यह कविता हमारे सामने आधी हकीकत ही उजागर कर पाती है।
बोधिसत्व की 'पागलदास' हिन्दी कविता कथा के छूट रहे सूत्र को जोड़ती हुई एक ट्रेजिक आख्यान रचती है। ब$कौल नेमि जी, यह कविता स्वामी पागलदास पखावजवादक की मार्फत 'सचाई, न्याय और मर्यादा जैसे मूल्यों को रोकने में एक कलाकार की असहायता' को दर्ज करती है। यही मूल्य 'अयोध्या' कविता के ढांचे में 'रोज़मर्रा की जिंदगी' के रूप में कहे गए हैं। यह कविता हकीकतों को दर्ज करने में अधिक सजग है। वह इन मूल्यों की हत्या देख पाती है। बाबरी मस्जिद को ढहाए जाने का यह काव्यात्मक चित्र नब्बे के कविता के सुर से तब एकमेक हो उठता है जब कवि मूल्यों, सद्भावनाओं आदि की हत्या के कठिन यथार्थ को उदासी की गहरी स्याही से रंग देता है। कविता हत्यारों के बारे में कुछ नहीं बोलती। वह हत्प्राण के बारे में है। पागलदास न्याय, सत्य, मर्यादा जैसे मूल्यों को पोसते हैं, और उनके ही लोगों की मौजूदगी में उनका वध हुआ। वे चाहते थे कि 'बची रहे मर्यादा अयोध्या की'। यह मर्यादा और कुछ नहीं, एक विशिष्ट मूल्य-बोध था, जो सांप्रदायिकता से टकराकर टूट-बिखर रहा था। कविता इस बोध की शिनाख्त करते हुए, इसके प्रति मोह रखती है। मुक्तिबोध की कविताओं में कलाकार की एकांत में हत्या के दृश्य के बाद यह, कलाकार की अपने लोगों में हत्या का दृश्य था। उसकी यही ट्रेजिक नियति थी। कविता का आयतन इसके आगे नहीं है, और इसकी मांग भी बेजा ही है, पर जिस भाव-बोध से यह कविता उठान लेती है, वह पुराना है। हकीकत के इस परिदृश्य को देवी प्रसाद मिश्र बिलकुल दूसरे और जरूरी छोर से उठाते हैं। इतिहास से रब्त-जब्त रखती उनकी कविता सांप्रदायिकता पर सोचने के पुराने ढांचे से थोड़ा इतर वितान पसारती है। अपने समय के सवालों के हल खोजने के लिए इतिहास के इस्तेमाल का फन उनकी कविताओं में पहले भी है। यह कविता मुसलमानों की अनैतिहासिक, गलत और दुष्प्रचारित आक्रांता छवि को नष्ट करने के लिए लिखी गई है। उन्हें जीवंत मानुष समुदाय के रूप में देखती-दिखाती यह कविता शुरुआत में डॉक्टर ताराचंद की नामी किताब 'इंफ्लूएन्स ऑफ इस्लाम' का ही बढ़ाव मालूम देती है। कविता बाद में एक राजनीतिक समुदाय के रूप में भारत में उनकी 'आधा ज़िबह हुए बकरे की तकलीफ' और 'तूफान में फंसे जहाज़ के मुसािफरों की तरह एक दूसरे को भींचे रहने' की त्रासदी का भी उल्लेख करती है। कविता का मूल बोध मुसलमान समुदाय को सहज-सामान्य समुदाय मानने पर है, और ज़ोर इस बात पर कि उनके होने से गंगा-जमुनी तहजीब है।
इन तीनों कविताओं की आधारभूमि सांप्रदायिकता की एक खास समझ की ओर इशारा करती है। यह खास समझ भारतीय राजसत्ता की भी समझ का हिस्सा रही आई है। 'सर्वधर्मसमभाव' को सांप्रदायिकता के खिलाफ कारगर हथियार की तरह पेश करती यह समझ, पुराने मूल्यों, गंगा-जमुनी तहजीब और भाईचारे की बात करती है। यह भीषण है कि बाद के राज्य प्रायोजित नरसंहारों ने इस पूरी कल्पना की हवा निकाल दी। इस सैद्घान्तिक 'सर्वधर्मसमभाव' का व्यावहारिक राजनीति में हुआ उपयोग गौरतलब है। उस समय की राजनीतिक व्यवस्था में सांप्रदायिकता को रोकने का काम मुख्यधारा के वामपंथियों ने लालू-मुलायम मार्का सर्वधर्मसमभाववादियों पर छोड़ दिया। गुजरात नरसंहार के बाद अब इतिहास में यह साबित हो चुका है कि 'सर्वधर्मसमभाव' वाली विचारणा में ही गड़बड़ थी। ऐसी सभी ताकतें मुसलमानों को वोट-बैंक में घटाकर, सांप्रदायिकता के जिन्न को जिलाए रखना चाहती हैं। तथाकथित आधुनिक राज्य, सांप्रदायिकता का आधुनिक इस्तेमाल करता है। इसके खिलाफ कारगर रणनीति 'सर्वधर्मवर्जयेत' की होती। प्रसंगवश जब मुख्यधारा की राजनीति और यहाँ तक कि मुख्यधारा वाम की राजनीति भी सांप्रदायिकता से सर्वधर्मसमभाव के फार्मूले से ही निपटती रही। राज्य से धर्म के अलगाव का रास्ता राजनीति में भी नहीं आया। कविता में भी यही ध्वनि मिली। गुजरात नरसंहार के बाद लिखी कविताओं में सांप्रदायिकता की परिघटना की ज्यादा बेहतर समझ नुमाया होती है, पर इस सन्दर्भ में विस्तृत बात करने का मौका इस आलेख की सीमा के भीतर नहीं आता।
इन हालातों में, जहां यथार्थ के घटाटोप को भेदा नहीं जा पा रहा हो, ताकत देने वाले जन-आंदोलन हाशिये पर हों और चुनौतियाँ अकूत, तब ऐसे में एक तरफ कवितायें नई जमीन की खोज के लिए छटपटाती हैं और ठीक उसी समय 'बचाने' को एक काव्य-मूल्य की तरह पाती हैं। हरीशचंद पाण्डेय 'कसाई को सबसे नेक आदमी' में बदल दिए जाने के खेल को महसूस करते हैं और बकरी को जिबह करने से पहले उसी कसाई द्वारा बकरी की गर्दन को सहलाया जाना भी। उनकी एक कविता में जीवन की छोटी-छोटी महत्वपूर्ण घटनाओं को, 'घड़ीसाज की चिमटी से सहेज लेने' का इसरार है। जीवन के छोटे-छोटे जिजीविषा भरे बेहतर अंशों को बचा लेने की एक बेचैनी बारम्बार इन कविताओं में दर्ज है। किवाड़, लोढ़ा, हंडा जैसे प्रतीक किसके हैं? वे किस दुनिया से आये हैं? एक पुरानी पारिवारिक दुनिया, जो इन कविताओं के ख्वाब में रिसती है, उसका हकीकत से सम्बन्ध टूट-टूट गया है। इनसे 'एक पूरी उम्र और स्मृतियाँ' नत्थी हैं। पर इस दुनिया के नहीं रहने के खतरे को इन कविताओं ने पहचाना। इस सन्दर्भ में बद्री नारायण की चर्चित कविता 'प्रेमपत्र' का जिक्र काबिले-गौर है। लोकलय साधती यह कविता जीवन के एक मूल्य के तौर पर प्रेमपत्र को पहचानती है। प्रेम के संकटों को भांपती है। कविता में बारम्बार संसार द्वारा प्रेम आदि कोमलतम पर कठोर का हमला रेखांकित किया गया है। पर यह पहचान कविता का सिर्फ एक भाग निर्मित करता है। कविता अंत में कवि के हस्तक्षेप के साथ अपने को खोलती है - 'मैं निपट अकेला/कैसे बचाऊंगा...'। यहां कवि अपनी उस अवस्थिति को जाहिर करता है, जहां से उसे यह संकट ऐसा दीख पड़ता है। यह कविता के नायक का निपट अकेलापन ही है जो स्थितियों की भयावहता की ओर इशारा करता है। इसकी जड़ें उसकी 'टीना' फैक्टर में हैं, जिसकी चर्चा हम पहले कर आए हैं। अस्सी की कविता में यह 'निपट अकेलापन' मेरे देखे में नहीं है। अब कविता के नायक के पास और कोई रास्ता नहीं है। सब कुछ के नष्ट हो जाने के, प्रलय के दिनों में कवि इसी बची मगर छीजती हुई जमीन पर खड़ा देखता है कि उसके पास अब कहने के लिए कोई जगह नहीं बचने वाली है। बद्रीनारायण की कविता का यह दौर लगभग इसी तरह की भावभूति पर है। कुमार अंबुज के शब्दों में स्थितियां 'क्षत-विक्षत शव' बना देने वाली हैं, अब बस एक काव्यात्मक जिद का सहारा है कि मैं 'एक अकेले पुराने पेड़ के नीचे स्मृति की तरह' रहूँगा। उसकी कविता 'क्रूरता' के आने की भविष्यवाणी समकाल में घटित हो रही है, वह क्रूरता अधिक सभ्य, सामाजिक और सम्मत है। उसके आने का पता भी नहीं चलता। जो चीजें छीज रही हैं, वे हैं 'करुणा और श्रृंगार'। कवि की भविष्यवाणी की युक्ति (डिवाइस) यथार्थ के प्रति उसके अपने नजरिए को दिखाती है। कविता में समकाल और भविष्यवाणी की युक्ति से एक तनाव बनता है जो पाठक को नंगी हकीकत से थोड़ा संभाल कर मिलवाता है। संदर्भत: अपने 'क्रूरता' संग्रह में कुमार अम्बुज यहीं तक पहुंचते हैं। राजनीति धीरे-धीरे उनकी कविता में समय के साथ बढ़ी-विकसित हुई है। अपनी 'किवाड़' कविता में कवि पहले तो पुराने के होने, उसकी तसल्ली, उससे सुरक्षा बोध आदि को रेखांकित करता है पर कविता आखिर तक आते-आते 'प्रेमपत्र' की ही तरह समकालीनता में धंस जाती है। 'किवाड़', जो कि पुरानी और नई दुनिया को जोडऩे वाले माध्यम थे, जो कि इतने कमजोर भी नहीं थे, देखते-देखते नहीं रह गए, जिसकी कि आशंका कवि को थी। मुझे बस इसमें इतना ही जोडऩा है कि ये कवितायें इसी 'किवाड़' के मलबे पर बैठकर 'क्रूरता' का आना देख रही थीं।
संभवत: कह सकते हैं कि इस दशक के कविताओं का स्वर व्यवस्था के भीतर-भीतर सुधार और बदलाव तक महदूद रह जाता है। व्यवस्था के बाहर की दुनिया से व्यवस्था को बदलने या पलटने की भावभूति इस दौर के अधिकांश कवियों के काव्य-बोध में नहीं हैं। सांप्रदायिकता से लेकर सत्ता द्वारा फेंके गए दूसरे सवालों तक ही न तो बहुत साफ समझ इस कविता से विकसित हो पा रही थी, न ही उनसे संघर्ष का कोई रेडिकल रास्ता इन कविताओं में दर्ज़ है। पर कविता इन्हीं के बीच है। उस लता की तरह जो अपने तंतुजाल पसारते हुए भी बढऩे का रास्ता नहीं खोज पा रही है, पर जिसकी जड़ें जमीन में गड़ी हैं।
इस कविता का पैनोरमा अस्सी के दशक की कविता से निश्चय ही बड़ा पड़ता है और कवि अस्मिताओं के नए इलाकों में प्रवेश करते हैं। वर्ग की कोटि अब इस दशक में काव्यबोध में दूसरे रूपों में अभिव्यक्त हुई। यह लक्षण एक हद तक अस्सी में ही दिखने लगा था। उसकी पूर्ववर्ती कविता के काव्य-बोध में वर्ग की कोटि महत्वपूर्ण जगह रखती थी। अगर राजेश जोशी की बात मानें तो अस्सी दशक की कविताओं में 'क्षैतिज विस्तार' था। मेरी समझ में इस क्षैतिज विस्तार ने 'गहराई' को कमतर किया। इस 'संतुलन' की कीमत चुकानी पड़ी। नब्बे तक आते-आते तक 'क्षैतिज' के संतुलन का गुब्बारा फूटा और कवि फिर से नई और प्रामाणिक जमीन के लिए छटपटाने लगे। पुराने हालात रहे नहीं, दुनिया बदल गई थी, सो नए क्षेत्र तलाशे गए। कविता में वर्ग की कोटि तरल होकर अस्मितताओं में व्यक्त होने लगी। देखने की बात यह होगी कि क्या इन कविताओं में 'अस्मितावादी' रुझान विकसित हुए? या देखने की जगह क्या रही- वर्ग या अस्मिता? नब्बे के दशक में स्त्री और दलित अस्मिता को कई मजबूत स्वर मिले। कई कवियों के पहले-दूसरे संग्रहों में दलित-क्षेत्र और स्त्री-क्षेत्र का विस्तार दिखता है। यहाँ एक बात और गौर करने की है। सिर्फ पुरुष और गैर-दलित कवियों के काव्य-जगत में ही नहीं, स्त्रियों और दलितों की कविता की अलहदा दुनिया भी कविता के इलाके में वजूद में आ चुकी थी। इसके चलते कविता का लोकतंत्रीकरण हुआ। स्त्री और दलित समुदाय के दुखों को दर्ज करने की परम्परा हिन्दी कविता में रही आयी है, पर इस दशक की कविताओं में नई और खास बात है परकाया प्रवेश की कोशिश। कई कवियों ने इसकी कोशिश की। यहां सफलता-असफलता के सवाल से महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि ऐसा क्योंकर हुआ?
चूंकि इस आलेख की सीमाएं हैं, और स्त्री और दलित प्रश्नों पर उलझाव भी पर्याप्त है, इसलिए मैं इस आलेख को अभी इन्हीं महत्वपूर्ण सवालों पर खत्म करता हूं। आगे फिर कभी....




मृत्युंजय की पढ़ाई इलाहाबाद में हुई। अभी कुछ कविताएं और लेख ही छपे हैं। पंडित मल्लिकार्जुन मंसूर की आत्मकथा का हिन्दी अनुवाद 'रसयात्रा' प्रकाशित है। देवेंशा विश्वविद्यालय, कटक में अध्यापन।

 

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