सातवें दशक की शक्ल

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    सितम्बर - 2018
श्रेणी सातवें दशक की शक्ल
संस्करण सितम्बर - 2018
लेखक का नाम सत्यपाल सहगल





क़िताबें

 

 

 

 सातवें दशक की शक्ल और पंजाब का हिंदी सीन

 

अपने संस्मरण-संकलन 'स्मृतियों का बाइस्कोपकी भूमिका 'ये संस्मरणमें शैलेन्द्र शैल अपनी संस्मरण-लेखन यात्रा की शुरुआत और विकास का जिक्र करते हैं। बिल्कुल पहला संस्मरण लिखवाया गया था कुमार विकल पर और 'पहलमें छपा। दूसरा 'सातवें दशक का इलाहाबाद और उसका साहित्यिक माहौलनया ज्ञानोदय में छपा इसी तर्ज़ पर। दोनों के संपादक न केवल उनके मित्र हैं, बल्कि, इन पहले दो संस्मरणों का अभिन्न हिस्सा भी हैं। यूं ये संस्मरण एक प्रकार का साझा प्रयास बनते हैं; अपने विषय के प्रति प्रेरित होने, उसे समझने, लिखने और छपने को लेकर, और कुल मिला कर परस्पर-मित्र-मंडली का स्मरण हैं। लिखने का यह जो सिलसिला शुरू हुआ तो फिर इसमें संस्मरणकार का परिवार भी शामिल होता गया। इस प्रकार इन संस्मरणों का प्राथमिक मूल्य यारबाशीपन और पारिवारिकता ठहरता है जो इन संस्मरणों में आये बहुत से पात्रों का चारित्रिक गुण भी है। कुमार विकल की तो बहुत सी कवितायें या तो मित्रों के बारे में हैं या उनको समर्पित हैं। पर यह संयोग मात्र नहीं है कि ये यार-परिजन हिंदी साहित्य या अन्य कलाओं की दुनिया के जगमगाते नक्षत्र भी हैं। इस प्रकार मैत्री की गलियों से गुजरते हम एक साहित्यिक परिवेश और युग के सामने भी आ खड़े हाते हैं। इन रचनाओं की सबसे बड़ी साहित्यधर्मी और समाजशास्त्रीय मूल्यवत्ता भी यही है। इन संस्मरणों के माध्यम से पंजाब और एक शहर यानी इलाहाबाद के आपसी रिश्तों पर भी रोशनी पड़ती है- वह शहर जो पिछली सदी के सातवें दशक में हिंदी का प्रमुखतम केंद्र था। अंतत: यह कृति एक ऐतिहासिक और सामाजिक दस्तावेज़ बनने की संभावना उपस्थित करती है। एक जरूरी किताब बन जाती है, जिसे लिखा जाना चाहिए था। यह एक लेखकीय उपलब्धि तो है ही, हिंदी साहित्य-समाज की एक प्राप्ति भी है। पुस्तकें लिखी ही नहीं जाती, सामाजिक शक्तियों के द्वारा लिखवाई भी जाती हैं। अगली पंक्तियों में हम उन शक्तियों की पड़ताल भी कर सकते हैं और साथ ही, इन संस्मरणों के बहाने से, अपनी सोच को कुछ व्यापक साहित्यिक-सामाजिक मुद्दों की ओर भी ले जा सकते हैं।

हम सब जानते हैं, कि पंजाब एक समय पर हिंदी लेखन का बड़ा गढ़ रहा है, गुणवत्ता के नज़रिए से और किसी सीमा तक परिमाण की दृष्टि से भी। यह पंजाब संयुक्त पंजाब था। यह कहानी भारत-पाक विभाजन के पहले से शुरू होती है। चंद्रगुप्त विद्यालंकार, भीष्म साहनी, उपेन्द्रनाथ अश्क, चंद्रकांत बाली या यशपाल आदि के बारे में सोचें; हिंदी के ये दिग्गज, इन सबकी जड़ें, आज़ादी के पहले के पंजाब में रही हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी मोहन राकेश, रवीन्द्र कालिया, कुमार विकल, विनोद शाही, तरसेम गुजराल, सतीश जमाली, सुरेश सेठ, भूपेन्द्र बराड़ अदि के रूप में हिंदी के सृजनात्मक और आलोचनात्मक लेखन में योगदान देने वाले पंजाब-पृष्ठभूमि के लेखकों की लम्बी कतार है। यूं ये अलग से राजनैतिक-सामाजिक विश्लेषण का मामला है, कि एक ख़ास समुदाय के ये इतने सारे लोग हिंदी में क्यों लिख रहे थे जबकि इनकी माँ-बोली हिंदी नहीं थी। सच्चाई यह भी है कि भारत-पाक विभाजन के बाद चंड़ीगढ़ बचे संयुक्त पंजाब की राजधानी बना और पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ का सद्य-निर्मित हिंदी विभाग हिंदी-गतिविधियों का गढ़। एक तो इसलिए की यह प्रान्त की राजधानी में स्थित था; दूसरे तब पंजाब विश्वविद्यालय ही क्षेत्र का एकमात्र विश्वविद्यालय था। बात सन् 1957 के आसपास की है। इन्द्रनाथ मदान पंजाब विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के पहले अध्यक्ष बने। फिर सन् 1962 के आसपास आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का चंडीगढ़ विश्वविद्यालय में आगमन होता है। हिंदी विभाग और इस पूरे क्षेत्र के लिए वह एक ख़ास मरहला, एक विशेष युग बन जाता है। न केवल तमाम तरह के हिंदी विद्वान और लेखक चंडीगढ़ आने लगते हैं, बल्कि, द्विवेदी जी के निर्देशन में पढ़ कर बहुत से विद्यार्थी पूरे क्षेत्र में फैलने लगते हैं। वह एक अपेक्षाकृत छोटा लेकिन बहुत उर्वर काल था इस इलाके के लिए और उनकी अनुगूंज आज भी पंजाब विश्वविद्यालय या इस प्रांतर में सुनी जा सकती है। हकीकत यह है कि पंजाब विश्वविद्यालय का हिंदी विभाग आज तक उस समयावधि के प्रभामंडल से बाहर नहीं आ सका है और उसकी प्रतिष्ठा और पहचान में आचार्य द्विवेदी का समय अविच्छन्न रूप से जुड़ गया है। शैलेन्द्र शैल न केवल उस समय, आचार्य द्विवेदी के अध्यक्ष होने के दौरान, हिंदी विभाग के छात्र थे, बल्कि, बकौल उनके, आचार्य द्विवेदी और डॉ. इन्द्रनाथ मदान के प्रिय विद्यार्थी भी थे और छात्र जीवन के बाद भी उनका परस्पर सम्बंध बना रहा। उस समय जो साहित्यिक माहौल चंडीगढ़ में बन रहा था, उसके उभरते सितारों में कुमार विकल, गंगा प्रसाद विमल, परेश या खुद शैलेन्द्र शैल जैसे लोगों के नाम भी लिए जा सकते हैं; यह अलग बात है कि शैल बाद में वायुसेना की सेवा करते सक्रिय साहित्यिक जीवन से थोड़ा दूर चले गए, लेकिन भावनात्मक रूप से अपनी साहित्यिक मित्र-मंडली में पहले से भी ज्यादा डूबते चले गए। वे अपने संबंधों से कभी बहुत अंतर पर नहीं गए और न ही अपनी स्मृतियों और गज़ब की स्मरण-शक्ति से, जिसका परिणाम ये संस्मरण हैं। इस तरह ये संस्मरण पंजाब, पंजाब विश्वविद्यालय और यहाँ के हिंदी माहौल के एक अत्यंत महत्वपूर्ण खंड का एक प्रकार का पुनर्सृजन हैं। ऐसा कार्य इससे पहले हुआ हो, इसकी जानकारी नहीं है। यह कार्य होना चाहिए था, इस बात पर सभी हामी भरेंगे। यही वह सामाजिक जरूरत है जो इन संस्मरणों को लिखने के पीछे कार्य कर रही हो सकती है। पर इतना ही नहीं। कालांतर में व्यापक हिंदी साहित्यिक-सत्ता-संतुलन में दिल्ली से आगे, पंजाब आदि का पलड़का कुछ नीचे ही गया है, जिसके कारण बहुतेरे हैं और अलग अध्ययन का विषय हैं। ये संस्मरण उस छूट गए स्पेस को फिर से ग्रहण करने का एक प्रयास हैं, ऐसा भी कहा जा सकता है। यह कोशिश कितनी सफल है या होगी, यह आकलन का विषय है, पर ज्ञानपीठ ने इस पुस्तक को छाप कर इस मांग को एक स्वीकृति तो दे दी है। इसके लिए प्रकाशन-संस्थान और उसके कर्ता-धर्ता धन्यवाद के पात्र हैं।

इस प्रकार किसी पुस्तक का निर्माण ही नहीं, उसकी प्रकाशन-पृष्ठभूमि और उसके प्रकाशन-समय का विचारणीय प्रसंग भी बनता है, पुस्तक के महत्व को जानने के लिए। प्रस्तुत सन्दर्भ में कुल मिलाकर ये यह बनता है : ये संस्मरण हिंदी-दुनिया में पंजाब और चंडीगढ़ के स्वर्णिम क्षणों की पुनस्र्मृति की एक कोशिश है। हिंदी साहित्य की आधुनिक परम्परा में, पंजाब और चंडीगढ़ का एक शानदार अतीत भी रहा है। यहाँ उसी विगत के कुछ पन्ने खुलते हैं। केवल वृहत्तर हिंदी समाज के लिए ही नहीं, खुद पंजाब और चंडीगढ़ के लिए भी इन पन्नों को देखना मूल्यवान है। संयुक्त पंजाब के एक ख़ास दौर में, ख़ास कर विभाजन के बाद, यहाँ हिंदी पठन-पाठन की स्थिति कैसी थी, इसका पता यहाँ से लिया जा सकता है। इसके कुछ प्रमुख किरदारों, ख़ासकर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ. इन्द्रनाथ मदान और कुमार विकल के कुछ आत्मीय और निजी पलों को अपनी आँखों के सामने प्रत्यक्ष किया जा सकता है। नए-नए बनते नगर चंडीगढ़ के आरंभिक वर्षों की एक गंध यहाँ सूंघी जा सकती है। यह भी पता चलता है कि यहाँ से यश:प्रार्थी और अर्थप्रार्थी लेखक कैसे हिंदी और दूसरे प्रदेशों की ओर निकलते रहे और फिर कैसे वे वहां के होकर रह गए। रवीन्द्र कालिया, मोहन राकेश, सतीश जमाली, उपेन्द्रनाथ अश्क और उनके पुत्र नीलाभ जैसे लेखक इस तथ्य का ज्वलंत उदाहरण थे। अश्क परिवार, कालिया और जमाली और खुद शैल के माध्यम से पंजाब का एक ख़ास इलाका, जालंधर के आसपास का, कैसे ठेठ हिंदी-केंद्र इलाहाबाद का न केवल अंग बन गया, बल्कि उसके साहित्यिक विकास और इतिहास का अभिन्न हिस्सा भी हो गया। ख़ास कर कालिया और अश्क के रूप में। क्या इनके बिना स्वतंत्रता के बाद के इलाहाबाद की हिंदी साहित्यिक दुनिया की पहचान संभव होगी? हिंदी कथाकारों की एक ख़ास पीढ़ी के शीर्ष स्तम्भ थे कालिया; और दूधनाथ सिंह और ज्ञानरंजन जैसे अन्य लेखकों के साथ ही जुन्डली बने थे; और अपने तरीकों से तत्कालीन हिंदी की दुनिया को गढ़ रहे थे और संवार रहे थे। अश्क, जो पहले से वहां जमा थे, निजी ख़ास ढंग से हिंदी की दुनिया से माथापच्ची करते थे। इन लेखकों की तत्संबंदी सफलता-असफलता मूल्यांकन का विषय है। इन्हीं के साथ इलाहाबाद के हिंदी-पुस्तक-प्रकाशन व्यवसाय में भी पंजाबी मूल के उद्यमियों का दखल रहा है। दरअसल खुद कालिया, अश्क और जमाली प्रकाशन-व्यापार से भी संलग्न रहे हैं। यह दिलचस्प था, लेखक भी और बिजनेसमैन भी। इस प्रकार यह एक छोटा पंजाब था इलाहाबाद में; विभाजन के बाद के सालों, अब शायद वहां ऐसा कुछ नहीं है। कितना पानी बह गया है इस बीच में सतलुज और गंगा में! संस्मरण लेखक शैल अब इसके बाद में दिल्ली में बैठकर लिख रहे हैं और यह पुस्तक दिल्ली से छपती है। सीन अब दिल्ली शिफ्ट हो गया है। खुद रवीन्द्र कालिया दिल्ली आ गए थे। सतीश जमाली वापिस पंजाब चले गए। ज्ञानरंजन जबलपुर आ गए। नीलाभ अश्क भी आख़िरी सालों में दिल्ली में ही थे। इस प्रकार ये संस्मरण सत्तर के दशक के इलाहाबाद के टूटने की कहानी भी हैं।

पर ये संस्मरण-संग्रह केवल यही सब नहीं है। पुस्तक में निर्मल वर्मा, संतूरवादक शिवकुमार शर्मा और प्रसिद्ध ज़ल गायक मरहूम जगजीत सिंह पर संस्मरण भी हैं। जैसा कि पहले कहा, लेखक के अपने निकट सम्बन्धी - माता, पिता, पत्नी और अभिन्न सहपाठी मित्र और अपने को लेकर भी यहां संस्मरण हैं। बहुत व्यक्तिगत सन्दर्भों के संस्मरणों को लेखक ने 'आत्मीय स्मृतियों की परिधि मेंखंड-शीर्षक दिया है। और ये सर्वाधिक रेखांकित करने योग्य भी हैं, यदि हम इन्हें संस्मरण-लेखन-कला और उसके प्रभाव कौशल के नज़रिए से देखें। प्रस्तुत संकलन के कुछ श्रेष्ठ संस्मरण इस खंड में पड़े हैं। यूं इन संस्मरणों से भी एक इतिहास बाहर निकाल आता है। लेखक की पत्नी उषा हिंदी विभाग पंजाब विश्वविद्यालय में ही उनकी सहपाठी थी और उन्हीं की तरह आचार्य द्विवेदी की शिष्य थी। लेखक के पिता संयुक्त पंजाब के प्रतिष्ठित कवि थे। माता-पिता दोनों संयुक्त पंजाब के उस हिस्से से सम्बन्ध रखते थे जो बाद में अलग होकर हरियाणा बना। बाद में पिता की नौकरी के चलते लेखक की अधिकतर शिक्षा-दीक्षा जालंधर के इर्द-गिर्द हुई और कुल मिलाकर वे आज के पंजाब का हिस्सा बन कर ही रह गए। इस प्रकार बहाने से इन संस्मरणों में संयुक्त पंजाब के उस इतिहास की एक झलक भी उपस्थित हो जाती है, जब पंजाब-हरियाणा दोनों इकट्ठा थे। शैल उस परंपरा का तत्व अपने खून में लिए हैं। इससे पंजाब के जटिल हिंदी परिवेश को समझने में एक मदद मिलती है। संयुक्त पंजाब में हिंदी के सम्मानजनक स्थान का एक कारण शायद यह भी था कि उस पंजाब का एक बड़ा हिस्सा हिंदी या हरियाणवी भाषी था और राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश से उसकी सीमाएं लगती थीं। वर्तमान पंजाब की मुख्य भाषा पंजाबी है और धीरे-धीरे वहां हिंदी पृष्ठभूमि में जाती नज़र आती है। पर पंजाब में हिंदी की स्थिति को लेकर यह यथार्थ का केवल एक पक्ष है; इसके और भी पहलू भी होंगे, जिनका अन्यत्र अध्ययन किया जा सकता है।

माँ पर लिखे संस्मरण, 'माँ का पेटीकोट  को 'आत्मीय स्मृतियों की परिधि सेखंड का ही नहीं, इस संग्रह का सर्वोत्तम संस्मरण कहा जा सकता है। यह आकलन थोड़ा दिलचस्प कहा जाएगा। यह संस्मरण पुस्तक की मुख्यभूमि-पंजाब और इलाहाबाद का हिंदी-जगत, नहीं है, जैसा कि शुरू से कहा जा रहा है; और न ही सबसे पहले लिखा गया संस्मरण है। शायद इसी एक संस्मरण को लिखने के लिए संयोग बना आरै पहल संपादक ने उन्हें उन्का पहला संस्करण कुमार विकल पर लिखने को कह कर शैल के संस्मरण-लेखन की शुरुआत करवा दी। फिर एक दिन यह संस्मरण लिखा गया जो उनका अवचेतन संभवत: सदा से लिखना चाहता रहा होगा। यूं शायद कौन रचनाकर्मी होगा, जो अपनी माँ पर एक संस्मरण न लिखना चाहता हो। बहरहाल, यह संस्मरण कहानी का मिजाज लिए है और पेटीकोट इस संस्मरण का केन्द्रीय मोटिफ बन जाता है; कुछ फ्रायडीयन संकेत लिए हुए। यह संस्मरण जितना माँ के बारे में है, उतना उनके पेटीकोट के बारे में। वे तमाम घटनाएं जो लेखक की माँ के जीवन से जुड़ी हैं, जिनका यहाँ उल्लेख है, वे सब पेटीकोट के निरंतर बिम्ब से परस्पर गुथी जाती हैं। हरियाणवी-पंजाबी परिवेश में एक सामान्य और विनम्र मध्यवर्गीय जीवन की रचना यहाँ हुई है। ध्यान से देखने पर पायेंगे कि दूसरे संस्मरणों से, इस संस्मरण की भाषा और कथन-शैली ही अलग है। इस भाषा में माँ की अनकही उदासी तैरती रहती है और लेखकीय चेतना पर पड़ी उसकी गहरी लकीरें धड़कती रहती हैं। यह भी कहना होगा कि इस उदासी भरी लेखकीय टोन की छूअन बहुतेरे संस्मरणों में है। बहरहाल, संस्मरण भावुकता से रहित है लेकिन हूक से नहीं। एक दर्द जिसे लिखने वाले ने देर तक सब्र में रक्खा है, इस संस्मरण को एक मद्दिम आवेग और आंच देता है, जो द्रुत आवेग से कहीं ज्यादा प्रभावी है। इस प्रकार यह संस्मरण कम और एक सम्पूर्ण सृजनात्मक रचना अधिक प्रतीत होता है। संस्मरण की पहली और आखिरी पंक्ति में पेटीकोट की उपस्थिति है। पेटीकोट में माँ की छवि लेखक पर इस कदर क्यों तारी है? माँ का यही बिम्ब क्यों? इस प्रकार यह एक अद्भुत संस्मरण बन जाता है, जो हमारी विश्लेषणात्मक जिज्ञासा और कल्पना को जगाता है। इसका विषयगत गठाव, आवयविक संतुलन और अभिव्यक्ति की मासूम सादगी के बीच से गुजरते अतीत में पढ़ी, भूली और याद अनेक महान कहानियों का स्मरण हो आता है। संस्मरण में कुछ भी ऐसा नाटकीय नहीं है, वही घर-परिवार की रोजमर्रा की सुख-दु:ख कहानियाँ और इनके साथ एक बेटे का माँ से एक ख़ा, अंतरंग और निजी सम्बन्ध, परिवार के लिए एक औरत का गणनारहित संघर्ष यहाँ भी पूरे संस्मरण पर डोलता रहता है, जो हम सब में एक अपराधबोध पैदा करता रहता है और जिससे पूरी तरह से मुक्त शायद ही हम हो पाते हों; खासकर उस कस्बाई-मध्यवर्गीय सामाजिक पृष्ठभूमि में, जहाँ से संस्मरण-लेखक आया है। यही इस संस्मरण की प्रमाणिकता है, जिससे यह संस्मरण, संस्मरण-लेखन-कला की सर्वोच्च उपलब्धि की ओर बढ़ता नज़र आता है।

पुस्तक के पहले खंड, 'साहित्य की परिधि सेमें सम्मलित, कुमार विकल पर लिखे संस्मरण 'कुमार विकल की जीवन यात्रा...से शैल के संस्मरण लेखन-यात्रा की शुरुआत हुई थी। विकल के बारे में, आकार में, इससे बड़ा संस्मरण शायद हिंदी में दूसरा न हो और शायद ही और कहीं इतली दुर्लभ जानकारियाँ उसके बारे में मिले। और शायद ही अन्य ऐसा संस्मरण हो जहाँ सातवें दशक के चंडीगढ़ के परिवेश की ऐसी जानकारी हो। हालाँकि एक स्तर पर यह संस्मरण अधूरा लगता है; विकल के भावात्मक और मनोवैज्ञानिक पक्ष पर लेखक कुछ और प्रकाश डाल सकता था। इस संस्मरण में विकल और कुछ अन्य साहित्यिक मित्रों के पत्रों से कई अंश प्रयोग किये गए हैं और यह जानना विस्मयकारी है कि विकल मित्रों को कभी पत्र भी लिख देते थे और वे साहित्यिक रूप से मूल्यवान भी होते थे। यह कहना इसलिए भी कि विकल के बारे में यह ख्यात था कि वे तो अपनी कविता भी कागज़ पर न लिखकर चेतना में ही गढ़ते रहते थे। विकल की एक लगभग सम्पूर्ण जीवनरेखा इस संस्मरण से उभर आती है और उसकी बहुत सी प्रसिद्ध कविताओं के स्रोत भी यहां पता चलते हैं। शैल विकल के उन कुछ अन्तरंग मित्रों में से एक रहे हैं, जो उसकी किशोरावस्था से उसके परिचय में थे। इसलिए यह संस्मरण एक प्रकार से कवि विकल के जीवनगत और काव्यगत विकास का एक साक्ष्य भी प्रस्तुत करता है, जो कविता के साथ विकल के जटिल रिश्ते को दिखाता है। जहाँ एक ओर विकल अपनी कविता को लेकर उदासीन था, वहीं दूसरी और महत्वकांक्षी भी। शैल ने कुमार विकल की प्रारंभिक कविताओं में से एक 'देवदास की आखिरी रात...से उदाहरण लेकर यह संकेत करने की कोशिश की है, कि हो सकता है कि विकल के अल्कोहलिक हो जाने का एक बड़ा सूत्र यहाँ इस कविता में छिपा हो। दिलचस्प यह भी है कि विकल ने इस कविता को कभी नहीं छपवाया। बहुत बरसों बाद, विकल के देहांत के भी बाद में, रवीन्द्र कालिया ने स्मृति के आधार पर या विकल के पुराने दोस्तों की मदद से इसको लिखवाकर नया ज्ञानोदय में छपवाया। शायद विकल ने खुद इस कविता को इसलिए नहीं छपवाया क्योंकि वे इसके भीतर छुपी अपनी अनुमानित या वास्तविक कमजोरी से भागना चाहते थे; उसे स्वीकार नहीं करना या प्रकटाना नहीं चाहते थे। बहरहाल यह संस्मरण हिंदी पट्टी के उन पाठकों के लिए काफी कीमती साबित हो सकता है जो विकल की कविता से प्यार करते हैं और उसके व्यक्तित्व या जीवन-विकास को जानने की जिज्ञासा रखते हैं। यह संस्मरण माँ पर लिखे संस्मरण से अलग तरीके से लिखा गया है। यह केवल विकल की याद नहीं है; उसी के साथ तत्कालीन पूरी मित्र-मंडली की याद है और विकल का जो चित्र इसमें से उभर के आता है उसमें दूसरे पात्रों का योगदान भी देखा जा सकता है।  साथ ही; कुछ अन्य यादें और कुछ समय के साथ धूल में लिपटी यादों को खंगालने का काम; मात्र स्मृतियों का स्वत:प्रवाहित रेला नहीं, उन्हें क्रम और व्यवस्था में ढालने का प्रयास भी है यहां। कहीं बहुत आत्मीय और कहीं वस्तुनिष्ठ होने का आभास, यह संस्मरण  भी कथा-रचना की कुछ महक लिए है। कुमार विकल द्वारा शैल को जो पत्र लिखे गए और जिनका इस्तेमाल यहाँ हुआ है, उस कारण से यह संस्मरण विलक्षण और ऐतिहासिक महत्व का हो गया है। इस प्रकार हम पाते हैं कि अपने इस संस्मरण में लेखक ने संस्मरण-लेखन की एक अलग ही शैली दिखलाई है। जहाँ संस्मरण की सामग्री-लेखक के भीतर के स्मृति-कक्ष के साथ उससे बाहर के स्रोतों से भी अर्जित की गयी है।

शैल की इस संस्मरण-लेखन-शैली का प्रयोग पुस्तक में अन्यत्र भी पसरा है। किताब में ऐसे और बहुत सारे संस्मरण है जहाँ लेखक ने पत्रों के माध्यम से संस्मरण को उकेरा है। आखिर पत्र भी तो एक स्मृति हैं; जहाँ संस्मरणकार एक समय विशेष को न लेकर पूरे जीवन को ले रहा हो, और इस बीच स्मृति के लक्ष्य पात्र और लेखक के बीच में नौकरी और दूसरी स्थितियों ने दूरी पैदा कर दी हो, वहां पत्र ही उस दूरी के बीच में पुल का काम कर सकते थे। इस प्रकार हम उस दुनिया में भी घूम आते हैं, जहाँ हाथ से पत्र लिखे जा रहे थे और खूबसूरत पत्र लिखे जा रहे थे। इस प्रकार यह एक और युगीन पहलू है इस किताब का। कहीं-न-कहीं यहाँ इस बात का रेखांकन होता है, कि साहित्यिक जीव होकर भी लेखक रक्षा सेवाओं में कार्यरत था और वहां पत्र आपस में जुड़े रहने की बड़ी अनिवार्यता के रूप में प्रगट होते थे। संस्मरण के मध्य में पत्र लाकर शैल की यह रचना खुद हाथ से लिखे पत्रों का भी एक संस्मरण बन जाती है, मित्र ही इस दुनिया से नहीं चले गए, जिन्हें याद किया गया है, बल्कि हस्त-लिखित पत्र-मात्र भी इस दुनिया से चले गए हैं। शैल ने यादें ही नहीं, अपने दोस्तों के पत्र भी सहेज कर रखे और आज वे यहाँ एक सामग्री के रूप में इस्तेमाल हो रहे हैं। पत्रों के अलावा जरूरत अनुसार लेखक ने सम्बंधित रचनाकारों की रचनाओं से उद्धरण भी लिए हैं, कुछ उद्धरण अन्य स्रोतों से भी, अपने संस्मरणों के रूपायन में, इस प्रकार शैल के इन संस्मरणों में कहीं छोटी-मोटी रिसर्च का तत्व भी है। मशहूर और मरहूम गज़ल गायक जगजीत सिंह पर लिखे संस्मरण में यह खूबी खूब दिखती है।

संस्मरणकार ने अपने संस्मरणों को तीन खण्डों में बांटा है; दूसरा खंड है, 'संगीत की परिधि से। पहले दोनों खण्डों के लगभग सभी संस्मरणों में प्राय: पत्रों और पुस्तक-अंशों का प्रयोग हुआ है, संस्मरणों को खड़ा करने में, ये संस्मरण निर्मल वर्मा, सातवें दशक के इलाहाबाद, रवीन्द्र कालिया, ज्ञानरंजन, इन्द्रनाथ मदान, सतीश जमाली, पं. शिव कुमार शर्मा आदिके बारे में हैं। निर्मल वर्मा और पं. शिव कुमार पर लिखे संस्मरण अपेक्षाकृत लघु हैं. पर अंतत: इन संस्मरणों की धुरी पिछली सदी का सातवां दशक ही ठहरता है। इन संस्मरणों के माध्यम से हम पीछे लौट जाते हैं और सातवें दशक में घुस जाते हैं। मात्र इन संस्मरणों के शीर्षकों पर मत जाइए; इनमें उल्लिखित चरित्रों के अलावा, इन संस्मरणों में कुछ और लोग भी उपस्थित हैं। इलाहाबाद से विशेषत: दूधनाथ सिंह। पंजाब से बहुतेरे; डॉ. रमेश कुंतल मेघ, परेश, जितेन्द्र मोहन से लेकर आचार्य द्विवेदी की संतों, गंगा प्रसाद विमल से लेकर नीलाभ अश्क, नौकरशाह और घोर साहित्यिक-जीव प्रवीन शर्मा और शैल की पत्नी उषा से लेकर, कुमार विकल की पत्नी सुदर्शना और उनकी मुहबोली बहन निरुपमा दत्त के साथ, विकल के अन्तरंग मित्र नरेन्द्र ओबेरॉय, सत्यपाल गौतम, और उल्लेखों की कमी भी नहीं है और संस्मरणों के परदे में घुसे इन दूसरे पात्रों की भी एक लम्बी सूची बनायी जा सकती है। इस प्रकार बात फिर वही आ ठहरती है। चंडीगढ़, पंजाब और इलाहाबाद का हिंदी साहित्यिक परिवेश. कुछ और मित्रों को भी याद किया गया है। यथास्थान उनका भी उल्लेख होगा। जैसा कि पहले भी कहा गया है, पंजाब और चंडीगढ़ के हिंदी इतिहास के नज़रिए से शैल का काम बहुत महत्वपूर्ण है। बहुत सी दुर्लभ जानकारियां या फिर ऐसी सूचनाएं जिनकी भनक तो लगती रहती थी, लेकिन जो कहीं प्रत्यक्षदर्शी की कलम से लिखित रूप में नहीं थी, यहां मिलेंगी; मसलन डॉ. इन्द्रनाथ मदान अपने कनिष्ठ या छात्र-अतिथियों से छुप कर कैसे बाथरूम में जाकर रम या जिन का पेग लगा लिया करते थे। उन जैसी बोहिनियम प्रकृति का अध्यापक पर उसी के साथ अत्यंत प्रभावी साहित्यिक नेतृत्व देने वाला शायद ही बाद के वर्षों में पंजाब में उभरा हो। इसी प्रकार सतीश जमाली की याद। लेखक ने जालंधर में उसके छात्र जीवन से लेकर उसकी जीवनयात्रा की समाप्ति तक की मार्मिक कहानी उनसे सम्बंधित संस्मरण में समेट दी है। एक टिपिकल लेखकीय त्रासद कहानी। हिंदी में यह कथा शायद ही अन्यत्र कहीं दर्ज़ हो। अब तो खैर सतीश जमाली का नाम ही बहुत से लोग भूल गये होंगे।

ज़ल गायक जगजीत सिंह पर लिखा संस्मरण दुर्लभ संस्मरणों की श्रेणी में आएगा। शैल के अलावा इस संस्मरण को कौन लिख सकता था? जगजीत सिंह आज पूरे दक्षिण-एशियाई समुदाय का प्रिय गायक है, लेकिन कोई हिंदी में लिखने वाला शैल जैसा समर्थ लेखक उसका सहपाठी रहा होगा, यह तो बहुत बड़ा उपहार है हिंदी पाठक-वर्ग के लिए। इस प्रकार यह संस्मरण जगजीत के छात्र जीवन का एक ऐसा नायाब दस्तावेज बन जाता है, जिसकी बहुत सी बातें शायद स्वर्गीय जगजीत या उसके परिजन-मित्रों को भी भूल गयी हों। यह संस्मरण शैली की तरफ से हिंदी को उसका ख़ास तोहफा है: पता नहीं क्यों वे इन जानकारियों को एक अरसे तक छुपाये रहे। और कौन जानता है कि और कितनी मालूमात उनके भीतर अभी मौजूद हैं? अगले संस्मरण -लेखन या इन्हीं संस्मरणों के विस्तार से आकार पाने को आतुर? शैल की एक खासियत यह है कि जहाँ भी संभव हुआ है, उन्होंने अपने स्मृति-पात्रों की पूरी जीवन-रेखा खींचने की कोशिश की है। जाने-अनजाने ये संस्मरण एक संक्षिप्त साहित्यिक या कलात्मक जीवनी जैसे बन गए हैं। दो-एक अपवादों को छोड़ कर। उदाहरणार्थ निर्मल वर्मा और पं. शिव कुमार शर्मा से सम्बंधित संस्मरण। इन दोनों से लेखक का सम्बन्ध बहुत सीमित ही रहा। पर जाहिर है लेखक की उनको लेकर कशिश काफी गहरी है; ख़ास कर निर्मल वर्मा को लेकर। सच्चाई यह है कि इस संस्मरण का बड़ा हिस्सा पढ़े गए निर्मल वर्मा के बारे में है। या उनके कथात्मक-पात्रों या उनके संवादों के बारे में है। या फिर यह संस्मरण लेखक की उस चाहत के बारे में है जिसमें वह अपने प्रिय लेखक से मिलना चाहता है। और अंतत: यह मौका भी आता है। इसी प्रकार की बातें पं. शिव कुमार शर्मा के बारे में लिखे संस्मरण के बारे में भी कही जा सकती हैं। लेखक उनके संगीत का प्रशंसक है और बाद में जीवन-घटना-क्रम उसको यह मौका देता है कि वह उनके सान्निध्य में कुछ समय गुजारे और उनको नजदीक से अवलोकित करे। इस प्रकार यह संस्मरण एक महान संगीतकार के जीवन के कुछ प्रायवेट लम्हे हमारे सामने लाता है। यहाँ यह बताना भी जरूरी है कि शैल ने शर्मा जी के संगीत सम्बन्धी अंग्रेजी में लिखे संस्मरणों की किताब 'जर्नी विद द हंड्रेड स्ट्रिंगज-माय लाइफ इन म्यूजिकका हिंदी अनुवाद भी किया है, जो ज्ञानपीठ ने ही छापा है। इससे यह बिंदु उभरता है कि कैसे उनको लेकर उनके लगाव और प्रभाव काफी सघन थे और संपर्कों के छोटे होने के बावजूद संस्मरण-लेखक के लिए जरूरी आधार काफी पुख्ता थे, मामला वही आ ठहरता है; शैल तलस्पर्शी लगावों का संस्मरणकार है। कहीं ये लगाव बहुत प्रत्यक्ष हैं और कहीं अप्रत्यक्ष।

'आत्मीय समृतियों की परिधि सेखंड में मां के अलावा पिता, पत्नी, अभिन्न मित्र बलदेव और खुद को लेकर संस्मरण हैं। पिता को लेकर लिखा गया संस्मरण 'पिता की बाईसिकलवास्तव में साईकल के बहाने पिता और पिता के बहाने पिता की साईकल, साईकल के साथ पिता और पूरे परिवार के सम्बन्ध, उसके खोने और फिर पाने का संस्मरण है। पूरे ग्रन्थ में यही एकमात्र ऐसा संस्मरण है जो जरा शरारती भाव लिए है; थोड़ा हास्य, चुहल और मनोरंजन; खासकर परिस्थितियों से पैदा। यद्यपि, करते-न-करते यह संस्मरण भी छठे-सातवें दशक के एक सामान्य मध्यवर्गीय परिवार के संघर्षों का बयान बन जाता है, जहाँ सुविधायें किश्तों पर आती हैं और जहाँ साईकल एक बड़ी ख़ास अलामत है, परिवार के लिए। अपने पिता को लेकर शैल थोड़ा मजे का भाव रखते हैं और यह संकलन में अन्यत्र भी प्रगट होता है। शैल के पिता अपने समय के एक ऐसे कवि थे, जो जरा महत्वाकांक्षी प्रकृति के थे। एक कवि के रूप उनके बारे में राय बनाते हुए, शैल कुछ तटस्थ पोजीशन ही लेते हैं; यद्यपि पुत्र के रूप में वे उनके संघर्षों के प्रति सहानुभूति के भाव से भरे नज़र आते हैं। कुल मिलाकर यह संस्मरण भी एक रोचक कहानी में तब्दील हो जाता है, जिसकी गठान पर शैल का नियंत्रण काबिले-तारी है, यह एक आकार में छोटा पर तराशा हुआ संस्मरण है। 'आत्मीय स्मृतियों की परिधि सेखंड के लगभग सभी संस्मरण कथा-कला के श्रेष्ठ पक्ष लिए हैं। संभव है, शैल के भीतर एक कवि ही नहीं, एक कथाकार भी सदा सन्निहित रहा है, जो इन संस्मरणों के माध्यम से उझक-उझक कर सामने आता है।

इन संस्मरणों में पत्नी उषा का उल्लेख जगह-जगह पर है, यद्यपि उसका पत्नी रूप ही ज्यादा सामने आया है, प्रेयसी रूप नहीं, वह अपरिभाषित ही रह गया है। शायद उस बारे में कहने को शैल के पास कुछ अधिक न हो, पर जीवन संगिनी के रूप में उसके प्रति एक गहरी संवेदना शैल के इन संस्मरणों में बार बार झलकती रहती है। कह सकते हैं कि एक अर्थ में, उषा सम्बन्धी विशिष्ट संस्मरण 'दर्द आयेगा दबे पाँव...उषा की याद को पूर्णतया संजोने का काम करने के लिए ही लिखा गया है, यद्यपि इसका मुख्य फोकस उषा की मृत्यु की प्रक्रिया पर ही है। एक ठंडेपन के साथ; पर उसके पीछे की तपिश धीरे-धीरे खुलती जाती है। सातवें दशक के चंडीगढ़ की तस्वीर खींचने में भी उषा की इस कहानी का अपना योगदान है। शैल की तरह वे भी आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की विद्यार्थी थीं और चंडीगढ़ निवासनी भी। जो और जगहों पर भी प्रकट हुआ है, एक संस्मरणकार के तौर पर यहाँ शैल का बड़प्पन यह है, कि वे अपने संवेदनों को भावुकता या प्रलाप या अति संवेदना में नहीं बदलते। उनकी संस्मरण कला की बड़ी विशेषता के तरीके से इसे देखा जाएगा। उषा को लेकर लिखा संस्मरण 'दर्द आयेगा दबे पाँव...इसका अच्छा उदाहरण है, मां पर लिखे संस्मरण के अलावा। संस्मरण कुछ बेहद दिलचस्प किस्से लिए है; यथा, हिंदी की उच्चतर पढ़ाई के दौरान उषा और शैल के बीच में एक प्रतियोगिता थी और शादी से कहीं बहुत पहले शैल उसे पढ़ाई में पीछे छोड़ देना चाहते थे। उसमें वे सफल हुए और वही उषा बाद में उनकी हमसर बनी। यद्यपि मुख्यत: यह संस्मरण उषा के आखिरी सालों के बारे में ही है, जब वह बहुत गंभीर बीमारी से जूझ रही थी; इस प्रकार से यह संस्मरण उषा की लघु जीवन भी बन जाता है, जहां एक कुशल कथाशिल्पी की तरह लेखक ने फ्लेश बैक पद्धति का प्रयोग किया है। ध्यान देने की बात है कि संस्मरणकार ने 'आत्मीय स्मृतियों की परिधि सेखंड में इस संस्मरण को सबसे पहले रखा है; मां वाला संस्मरण इसके बात है। इससे लेखक के भावात्मक जीवन में उषा की जगह का पता चलता है। पर ऐसा लगता है कि संस्मरण में लेखक ने कहने लायक सब कुछ नहीं कहा। शायद सब कुछ कहा नहीं जा सकता था या अभिव्यक्ति-प्रणालियां सक्षम नहीं हो पाती थी। गहरे लगाव बहुत बार वाणी को बाधित करते हैं, उसे मुखर या प्रगल्भ बनाने के स्थान पर।

'किस्से मेरी मयनोशी केऔर 'आप कौन सा प्लेन उड़ाते हैंसंस्मरण शैल के अपने बारे में ही हैं। इनका केंद्रीय पात्र लेखक स्वयं है। 'मयनोशी...जितना शैल की मयनोशी की कहानी है उतनी ही एक पूरी पीढ़ी की शराबखोरी की भी, जिसका अंकन संग्रह के अनेक संस्मरणों में है। क्या सातवें दशक की शक्ल के साथ मयनोशी या कोई दूसरा नशा अभिन्न रूप से नहीं जुड़ा है? इस नशाखोरी के पूरे किस्से तो इस संस्मरण में आये घटना-वृत्तों और दूसरी साहित्यिक चर्चाओं और गपशप में आये बखानों से भी कही अधिक विद्रप हैं। इसी संस्मरण में कुमार विकल की मयनोशी की तस्वीर उभरी है, ख़ासकर। पर संस्मरण और भी जाने-माने और कम ख्यात मयबातों की कहानियों में भी भरा है। मयबाज़ी के कथानक तो दिलचस्प ही होते हैं, मयबाजों का अंत ही बुरा होता है। इस प्रकार यह संस्मरण एक पूरी पीढ़ी को समझने में मददगार बनता है। शैल लिखते हैं; ''हम सभी मध्यवर्गीय ब्राह्मण परिवारों से थे और अपने वर्ग की कुंठाओं एवं वर्जनाओं से ग्रस्त थे। शराब पीने से आरम्भ करके हम कहीं न कहीं इससे मुक्ति पाना चाहते थे। यह हमारी उस समय की सोच थी जो कालांतर में सही नहीं निकली।’’ (पृष्ठ 146) कहना न होगा कि संस्मरण-लेखन-क्षमता की नज़र से यह संस्मरण बहुत सफल है और पाठ रस-सराबोर है। ''आप कौन सा प्लेन उड़ाते हैं’’ शैल के वायुसेना जीवन के आरम्भिक और अंतिम पलों को समेटने वाला संस्मरण है। हिंदी में शायद ही कोई दूसरा ऐसा सुघड़ और टकसाली संस्मरण हो जो वायुसेना ट्रेनिंग और वायुसेना स्टेशन के भीतर के माहौल, खास कर युद्ध के समय का प्रमाणिक विवरण देता हो। इस संस्मरण से यह भी पता चलता है कि सामान्य नागरिक में वायुसेना-परिवेश को लेकर कितनी कम या भ्रामक जानकारियाँ हैं। संस्मरणकार शैल की सधी हुई कलम का यह एक और बेहतर नमूना है। 'दोस्त बलदेव: सारी दुआएं बेअसरशैल के अभिन्न, बचपन के सहपाठी-दोस्त और गैर-साहित्यिक प्राणी बलदेव के बारे में लिखा गया एक ऐसा संस्मरण है, जो हममें से बहुत से अपने कुछ मित्रों के बारे में लिखना चाहते होंगे। यह संस्मरण भी शैल के अन्य कई संस्मरणों की तरह मुख्य पात्र की एक छोटी सी जीवनी ही है। बलदेव स्कूली जीवन से उनके गहरे दोस्त रहे, उन्हीं की तरह सेना में ही सेवा करते रहे और एक गंभीर बीमारी से हार कर दुनिया छोड़ गए। इस संस्मरण की बड़ी विशेषता है बचपन के और स्कूली जीवन के सजीव वर्णन, निव्र्याज संवेदना और लगावों का संतुलित प्रस्तुतीकरण।

शैल के इस संस्मरण-संग्रह का 'दोषयह है कि इसमें वैसी महीन साहित्यिकता, कल्पना-शक्ति या अत्यंत विलक्षण अभिव्यक्ति-शैली का इस्तेमाल नहीं है, जैसा कि आप हिंदी के कतिपय जाने-माने लेखकों के बहुचर्चित संस्मरणों में देख सकते हैं। पर यही शैल की शैली है। अपनी विषयवस्तु और अभिव्यक्ति को आकाश के नहीं, जमीन के करीब रखना। वे लिखते हैं: ''इनमें उन लम्हों का लेखा-जोखा है जिन्हें मैंने बहुत शिद्दत से जिया है। ...इन संस्मरणों को लिखते हुए मैं कैथारसिस की प्रक्रिया से गुजरा हूँ और शायद यही मेरा सबसे बड़ा हासिल भी है।’’ (पृष्ठ दस) इससे यह तो पता चलता ही है कि शैल के इन संस्मरणों के प्रेरक तत्व कहाँ छुपे हैं। पर यह कैथारसिस (विरेचन) वाला मामला थोड़ा संदेहास्पद है। यह संभव है कि मनोभावों की साहित्यिक अभिव्यक्ति उन्हें और सशक्त कर दे। हो सकता है कि हम उन्हें मजबूत करने के लिए या उनकी मजबूती को बनाये रखने के लिए ही लिखते हों। फिर इन संस्मरणों में केवल शिद्दत से जिए लम्हे ही नहीं हैं; कुछ शोध, कुछ अध्ययन, कुछ संयोजन और संपादन भी है। अर्थात कला और अकादमिक परिश्रम भी है। पाठक के दृष्टिकोण से कहा जा सकता है कि ये संस्मरण अत्यंत पठनीय और ज्ञानवर्धक हैं और यह बड़ी नियामत है; हालांकि यह कहा जाएगा कि संस्मरण विधा का यह एक आत्यंतिक लाभ है कि इसकी पठनीयता सुनिश्चित है, तो भी तुलनात्मक रुप से, शैल के इस संस्मरणों की पठनीयता का रास्ता काफी सीधा, सहयोगी और सुपरिचित है। पुस्तक टाईटल और उपखंडों के शीर्षकों तक में अतिरिक्त साहित्यिकता नहीं है और भाषाई प्रयोगशीलता से बचा गया है। हम इसे शैल के संस्मरणों का अनिवार्य चरित्र कहेंगे। ये संस्मरण अर्जित साहित्यिकता की बैसाखियों पर नहीं टिके हैं। न इसकी कहीं सचेतता और प्रयास है। संस्मरणकार ने अपने स्वाभाविक सृजनात्मक आधारों के मनमाने या अचिंतित उल्लंघन की कोई कोशिश नहीं की है। ऐसा कह कर, यहाँ दूसरे उल्लेखनीय और प्रशंसनीय संस्मरणकारों की अवमानना करने का प्रयास नहीं हो रहा है। इतना कहना ही है, कि शैल ने अपने संस्मरणों के लिए अपने खुद के उपकरण निश्चित किये हैं, जो दिखने में सरल-साधारण लग सकते हैं पर हैं नहीं। कुछ संस्मरणों को लेकर शिकायत की जा सकती है वहां अनुभव कुछ कम और विवरण अधिक हैं; जैसे, 'दोस्त हो तो मदान जैसा और दुश्मन भी हो तो मदान जैसाया किसी हद तक 'रवीन्द्र कालिया: गालिब सही सलामत हैजैसे संस्मरण। पहले भी उल्लिखित है, कि ऐसे कई संस्मरण हैं, जहाँ उन्होंने निजी के साथ सार्वजनिक सामग्री में भी अपने संस्मरणों को साधा है। यह शैल का अपना संस्मरण-उपक्रम है। इसको लेकर गुणीजन और बातें करते रह सकते हैं।

 

 

 

पंजाब विश्वविद्यालय चंडीगढ़ में हिन्दी प्रोफेसर। कविता आलोचना अनुवाद में दिलचस्पी। अंग्रेजी में भी अनुवाद काम। कविता संग्रह 'कई चीजेंप्रकाशित। पंजाबी के दलित-क्रांतिकारी कवि लाल सिंह दिल का अनुवाद की पुस्तक प्रकाशित।

संपर्क - मो. 09855608489, चंडीगढ़

 

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