कुतुब एक्सप्रेस

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    सितम्बर - 2018
श्रेणी कुतुब एक्सप्रेस
संस्करण सितम्बर - 2018
लेखक का नाम हरीचरन प्रकाश





समीक्षा/कुतुब एक्सप्रेस (कहानियां)

रामकुमार तिवारी

 

 

 

 

 

राजकुमार तिवारी के कथा संग्रह 'कुतुब एक्सप्रेसकी कहानियों के असंहत भूदृश्य में एक साथ इतना कुछ घटित, अघटित और विघटित होता है कि उसे एक सांचे में रखकर बांचना न केवल कठिन है वरन् अपर्याप्त भी। फिर भी, कुछ घट-तौली करते हुए यही कहना चाहूंगा कि हमारे समय की भगदड़ में थोड़ा थम कर, थोड़ा रुक कर और समय की छूटती हुई परछाइयों से गुजर कर संसार के समय में से एक समयहीन बिन्दु पानी की लालसा से भरे रामकुमार अपनी कथा यात्रा पर निकले हैं। वस्तुत: 'कुतुब एक्सप्रेसकी कहानियों का लेखक जिस प्राथमिक संसार में से अपनी रचनाओं का द्वितीयक संसार रचता है, उसमें जितना वह पाठकों को सम्बोधित करता है, उतना ही स्वयं को भी।

रमेश चंद्र शाह ने लिखा है ''रामकुमार की ये कहानियां विशुद्ध कौतूहल और कथा-रस की मांग करने वाले पाठक को भी उतना ही लुभाने-रमाने वाली कहानियां है जितना की जीवन के छुपे मर्म की तलाश करने वाले की। यह जितना आसान लगता है, सुनने में, उतना आसान है नहीं : विज्ञापन और प्रबन्धन से पटे इस युग में अपनी संवेदनशीलता और पक्षधरता ही नहीं, अपनी भाषिक बाजीगरी और बहुज्ञता की नुमाइश लगाने का प्रलोभन किस कदर सर्वग्रासी हो चुका है, इसके नमूने आए-दिन प्रगट होते रहते हैं हमारे सामने। और उनकी क्षणभंगुरता भी। कल हमें चमत्कृत कर देने वाली कहानी आज हमें अपनी उसी चमक से बिदका देती है : रीझ को भी खीझ में बदलते देर नहीं लगती। बेशक हमारे सहज मात्रा-ज्ञान को इस तरह से ठगे जाना बर्दाश्त नहीं होता : भले हमे ठगने वाला कोई लेखक क्यों न हो।

ऐसे में ये कहानियां अपनी आवश्यक सहजता से ही हमें सहमा देती है: वे हमें किसी तरह की आड़ नहीं सुलभ कराती। उनका मजा लेते हम इस कदर दिन-दहाड़े दु:स्वप्नों से घिर जाते हैं जैसे जो कुछ हमारे सामने और भीतर घट रहा है, उसके लिए ये पात्र और कथास्थितियां नहीं, खुद हमीं जिम्मेदार हैं। अंधेरे में छिपे आकार जिस तरह उत्तरोत्तर उजागर होते जाते हैं हमारे अधजगी आंखों के आगे, उसी तरह इन रचनाओं का मर्म भी...

कुछ कुछ जीवन सा, कुछ कुछ मृत्यु सा...

हमारे भीतर उभरने लगता है। हमारा कुतुहली कवच छिन जाता है और हम घिर जाते हैं अपने ही भीतर उठती इन कहानियों की प्रतिध्वनियों से...।’’

रामकुमार की कहानियों का समाज केवल मनुष्य द्वारा नहीं बनता है, उसकी एक विशिष्ट परिस्थितकी है जहां प्रकृति एक अतिपात्र की तरह व्याप्त है और वह कहानियों की एक समानान्तर सामाजिकी रचती है। यहां राजकुमार प्रकृति और मानवीय स्मृति के परस्पर अनुपूरक भूदृश्यों को न केवल तलाशते हैं, वरन् रचते भी हैं। यह प्रकृति प्रणालीबद्ध उपवनकामी प्रकृति नहीं है, वरन् निर्बन्ध वनगामी है जहां दिन का बूझ हुआ रात को अबूझ हो जाता है। हर कहानी का एक नायक है जिसका अंतसपुरुष साथ-साथ चलता है, कभी प्रकट की तरह तो कभी अप्रकट की तरह।

रामकुमार की कहानियों में एक आन्तरिक बिलगाव है और बाह्यान्तरित विस्थापन है जो हासिल होता है उनकी कहानी 'पत्ते की तरहमें। यह कहानी एकदम से उठती है अपना आदि और अन्त, सब झिटक कर। एक चलती-रुकती बस है और उसमें बैठे-चलते आदमी है। उन्हीं में से एक का नाम रमन है जो इस का पर्यवेक्षक है। वह कहानी को गौर से देखता है, कुछ यात्री सो रहे हैं, तो कुछ ऊंघ रहे हैं। उसकी नजर उस आदमी पर अटकती है जो सो नहीं रहा था, जाग रहा था। यहां रामकुमार सोने और जागने को अलग-अलग रेखांकित करते हैं, क्योंकि कोई जरूरी नहीं कि हर शख्स जो सो नहीं रहा है, जाग ही रहा है। लेकिन इस 'आदमी की आंखों में थकान, रात और नींद का कोई अंश नहीं है।इसी मुकाम से वह आदमी परछाईं सा अचानक उठता है और जंगल के अंधेरे द्वारा गढ़ा हुआ एक आकार हो जाता है, उसी समय यह परछाईं रमन के मन के अंधेरे में उतर कर पैठ जाती है।

वस्तुत: उपरोक्त प्रकार का अंतसपुरुष रामकुमार के कथामानस की अनिवार्य उत्पत्ति है। इस अंतसपुरुष का एक छायालोक है जो उनकी कहानियों को अतिरिक्त आयाम देता है। दिलचस्प बात यह है कि यह प्रतिभास व्यक्तियों में ही नहीं, वरन् वस्तुओं में भी लक्षित होता है। अप्रत्यक्ष की आभा के बिना उनका काम नहीं चलता और वह उस आत्मलोक की यात्रा करने से परहेज नहीं करते हैं जिसके कारण उनके साहित्य और आलोचना की बहुप्रचलित कसौटियों पर कसा जाना कुछ कठिन है। उनकी कहानियां ऐन्द्रिक अनुभवों की अतीन्द्रिय अनुभूति कराती है।

कहानी 'धरती पर रहते हुयेमें वह काल से उस बिन्दु में छलांग लगाते हैं जहां वह पूरी कायनात को अबोध विस्मय की भाषा में देख सकें। जहां देखते ही देखते कुछ ही पलों  में सेमल पेड़ आकाश में घुल गया है और उसके फूल आकाश में टंके हुए दिख रहे हैं। इस पूरी कहानी में वह भीतर से बाहर और बाहर से भीतर की ओर जाते हैं। बाहर की वह जगह  बेलगहना है जहां के रेस्ट हाउस में रखे पानी के घड़े में वह इस तरह से उतरते हैं जैसे कोई आत्मा के खाली होते हुए सरोवर में उतरे। स्वयं कहानीकार के शब्दों में 'घड़े का लगभग एक चौथाई भाग गीले रंग का है और ऊपर के तीन चौथाई के आस-पास का खाली और सूखे रंग का। इतने विविध रंगों में भी हर रंग के दो रंग हैं - एक गीला भरा हुआ और दूसरा रीता, सूखा हुआ।

मैं ढक्कन उठाकर घड़े में झांकता हूं, रीते-सूखे के बहुत नीचे भरे तरल में चेहरा मुझे देखता है। चेहरे के बगल में ऊपर की छत नीचे हिलती है, जिसे देखते-देखते मैं अपने पास आ गया हूं, इस समय इस कायनात से समरस होता हुआ, सांस लेता हुआ।

संसार के समय में समयहीन के उपरोक्त अवतरण का यह खेल बहुत देर नहीं चल पाता है। बेलगहना के रेलवेस्टेशन पर आने-जाने वालों की चहलकदमी है। इन्हीं में से एक आदिवासी सोमारु है जो आज तक ट्रेन में नहीं बैठा इसलिए उसमें सवारी करने से हिचकता है। वह बस से जाना चाहता है, लेकिन ट्रेन इस कहानी का जरूरी हिस्सा है। रामकुमार की कहानियों का एक सामान्य गुण यह है कि उसमें व्यक्तियों के अलावा एक वस्तु-विशेष की भी प्रधानता होती है। इस वस्तु की ऐसी अनुवर्ती उपस्थिति होती है कि कहानी में वह एक चरित्र की तरह दिखती है। इसलिए यदि किसी कहानी में साइकिल नुमायां होकर आई है तो उसका एक साइकिल-चरित भी है। वह ट्रेन को उस केलाइडोस्कोपिक दृष्टि से देखते हैं जहां 'रुके अंधेरे में रोशन खिड़कियां भागी चली जा रही हैं।

जड़ में चेतन की प्राणप्रतिष्ठा के उनके यह अभिनव प्रयोग अपने आप में बहुत मोहक हैं। मोहक हैं, ऐसा कुछ कहना है कि आकाश और वातास के बीच झूमता हुआ सेमल व्योम में घुल गया है। पानी का घड़ा, पानी की बिनुपानी, गीले और सूखे रंग से चित्रकारी कर रहा है। अन्धेरे में अन्धेरे का बाध दिखता है जो अन्धेरे में ओझल होने तक दिखता है। परन्तु यह किसकी धरती है और इस सबके साथ उन अनागरिक आदिवासियों की क्या संगति है जो नीम-बेहोशी की हालत में चले जा रहे हैं। बेलगहना के रेलवे स्टेशन पर अनिश्चय और आशंका से भरे सोमारू के माथे पर आदिवासी, इस ज्ञान परम्परा से अनभिज्ञ है। कथाकार एक भिज्ञ संवेदनशील प्राणी है जो आदिवासी को मनुष्य के रुप में पहचानने का यत्न करता है। इसलिए वह उसके शोषित जीवन के बारे में सहानुभूतिपूर्वक रुचि लेता है। परन्तु आश्चर्य है कि कथाकार के सहानुभूतिपरक प्रश्न, सोमारु को विस्मय से भर देते हैं। उसके चेहरे पर अनिश्चित, भय और आशंका के भाव आते हैं। कथाकार को भय है कि जल्दी ही यह चेहरा कुचलकर सपाट, भावशून्य हो जाएगा। कहानी में आदिवासी समाज के मर्म का स्पर्श करते हुए भी कथाकार की दृष्टि उस कुहासे को नहीं दिखाना चाहती है जो समाज की राजनीतिक चेतना पर छाई हुई है। सामाजिक-राजनीतिक सुगबुगाहट जो बाद में यत्र-तत्र प्रतिरोध का वातावरण तैयार करने में सफल हुई, के प्रति कथाकार में एक अनमनापन है। वस्तुत: रामकुमार के कथाकार में एक गहरा लगाव उस आदिम सौन्दर्य चेतना के प्रति है जिसके कारण वह उन स्थलों का चयन करता है जहां आधुनिक सभ्यता के उपकरण पूरी तरह से समाज की भौगोलिकी के मालिक नहीं हैं और जहां उसके पात्रों में उनके प्रति बच्चों जैसी कौतूहलपूर्ण दृष्टि बची हुई है। कथाकार अपनी एक भावभूमि से अवगत है। स्वयं उसी के शब्दों में ''मैं नाटक के शो में एक पात्र का अभिनय करता हुआ-सा ट्रेन से उतर जाता हूं। जीवन के शो में अपने पीपे और गठ्ठर के साथ सोमारु उतर जाता है।’’ यह एक स्वसमर्पित, किन्तु मुख्यधारा के मध्यवर्गीय चरित्र का ईमानदार उद्गार है।

रामकुमार तिवारी के चरित्र समाज की मुख्यधारा में ड्रिफ्टवुड की तरह बहते से दिखते हैं और कभी-कभी अचानक धारा के किसी कौतुक की तरह खड़े हो जाते हैं और फिर ढह कर बहने-उतराने लगते हैं। इसी बेबस समय के अन्दर उनका मनुष्य स्वतंत्रता के वह क्षण-द्वीप संजोए हुए हैं जिसमें किसी एक घटना-कारणवश अंत:स्फोट करके वह अनिश्चित स्वतंत्रता की ओर छलांग लगा देता है। दो वक्त का खाना और नशे की चार गोली मजूरी तय करके 'पत्ते की तरहका वह नेपाली लड़का बेजुबान गुलामी करता है। उसके विनिमय में मुद्रा का आधार नहीं है वरन् उसकी मूलभूत आवश्यकताएं हैं और जिस दिन उसे जबरन नहलाया जाता है तो वह सब कुछ छोड़-छाड़ कर इसी स्वतंत्रता के क्षण-द्वीप में गायब हो जाता है।

स्वाधीन अनिश्चितता और पराधीन सुरक्षा के बीच का द्वन्दात्मक चयन रामकुमार की कहानी 'रहने की जगहमें भली-भांति महसूस होता है। इस कहानी में विकास के नए प्रतिमानों से जो असंतुलन पैदा हुआ है वह कथा के मुख्यतम पात्र दिनेश और मुख्यतर पात्र वह आदमी अथवा अंतसदिनेश के अंर्तद्वन्द के रुप में सामने आता है। मसला बहुत साधारण है कि दिनेश को मकान बनवाने के लिए जमीन चाहिए, जो मिल गई और खास बात यह है कि कहानी के आरंभ में ही मिल गई। यह खबर अचंभित छाया दिनेश ने चाय की गुमटी के पास हवा में लटके-लटके सुनी-कही और चुपचाप दिनेश की नजरो से ओझल हो गया। दिनेश ने अपने को इतना ताजादम महसूस किया कि उसकी पानी की पीक 'सरकारी अस्पताल की टूटी दीवार के उस पार तक गई।दिनेश के घर का कैलेण्डर भी मकान की तस्वीर के साथ हवा में कुलांचे भर रहा था। इस वर्णनातीत उत्साह के बाद ही दिनेश को लगता है कि उस आदमी के उठंगे पायजामें की तरह उसका पायजामा भी तंगी का शिकार है। दूसरे दिन दोनों की मुलाकात पेड़ों की पौध बेचने वाले के सामने होती है। अभी इस पौध के पास कोई जमीन नहीं है। अंतसदिनेश नीम की एक पौध की ओर देखता है और आश्चर्य व्यक्त करता है कि लोग बिना जमीन के स्वामित्व के क्यों पैदा हो जाते हैं। पेड़ों का भी अपनी पृथ्वी पर कोई स्वामित्व नहीं है इसलिए वह मनुष्य के स्वामित्व की आरी से कट जाते हैं, उजड़ जाते हैं।

इसके बाद कहानी में पर्यावरण और विकास की अपेक्षाओं के बीच विवाद, लिख कर दर्ज होता है क्योंकि इस मुकाम पर कहानी स्थितियों में घटित होने के बजाय लेखकीय संवादों में घटित होती है। अच्छी बात है कि यह वाचाल विमर्श थोड़ी देर तक ही होता है और कहानी अपनी मनोजीवनी में फिर से लौट आती है।

दिनेश के मकान का नक्शा पास हो गया। एक दिन उसका अपना मकान हो भी गया, लेकिन मकान का सपना लुप्त हो गया। कभी-कभी उसे लगता था कि वह खुद से अलग होकर कोई और जीवन जी रहा है। वह आदमी बदहवास होकर भाग रहा है, फिर भी दिनेश की नजरों के आखिरी सिरे पर अटका हुआ है। एक दिन मूसलाधार बारिश और भूस्खलन के दिन, उस आदमी की नीली बद्धी वाली चप्पल उल्टी पड़ी हुई दिखाई देती है। उसे लगता है कि कहीं वह आदमी जमीन में उल्टा न धंस गया हो। दिनेश को शहर में जगह-जगह टूटी हुई चप्पलें दिखाई देती हैं और उसे लगता है कि शहर में दंगा-फसाद हो गया है। किन्तु, शहर में न तो कोई दंगा-फसाद हुआ है और न चप्पलें बिखरी हुई पड़ी हैं। हुआ केवल इतना है कि भूस्खलन से खिसकी हुई जमीन ने मनुष्य द्वारा पृथ्वी को नष्ट करके किए जा रहे भूअर्जन को एक दु:स्वप्न का आइना दिखाया है। अन्ततोगत्वा, यही आइना उसे बताता है कि साये जैसा चलता हुआ आदमी, वह स्वयं है।

वस्तुत: इसी पूरी कहानी में एक आर्कटिपिकल बेचैनी है। ऊपर से देखने पर लगता है कि कथाकार आधुनिक विकास और तद्जनित आकांक्षाओं के माडल पर सवाल उठा रहा है, परन्तु कहानी उससे कहीं गहरे की पड़ताल करती है। रामकुमार इस कहानी के माध्यम से आदमी तथा उसके द्वारा निर्मित सामाजिक संगठनों तथा घर-परिवार और सम्पत्ति के रिश्तों की तत्वमीमांसक तहकीकात करने का प्रयास करते हैं। इस प्रयास हेतु वह जागतिक अवस्थाओं का मनोपरिवर्तन करता है।

रामकुमार की कहानी 'कुतुब एक्सप्रेसएक रमणीक किन्तु स्मृति शेष ग्राम-स्थल के वर्णन से आरम्भ होती है। इस गांव की सघन सामुदायिकता को दर्शाने के लिए वह जिस भाव भाषा का अनुसंधान करते हैं वह उद्धरणीय है ''सुबह सूरज इतने धीरे-धीरे निकलता था कि जब तक कि सभी गांव वाले देख न लें, वह पूरी तरह से निकलता नहीं था।’’ इस कहानी में ट्रेन की अनुवर्ती उपस्थिति है और यह कहानी ट्रेनचरित भी है जिसमें उस 'बैरी रेलियाका बुन्देलखंड की भाव-भूमि में समकालीन प्रत्यारोपण है जिसकी लोकगाथा अंग्रेजी औपनिवेशिक साम्राज्य के दिनों में पैदा हुई थी। गांव से कोस भर दूर हरपालपुर रेलवे स्टेशन से रात के तीन बजे गुजरने वाली पैसेंजेर गाड़ी की छुक-छुक गांव के उस संगीत का हिस्सा थी जो वहां की बंसवारी में बजता था। यह पैसेंजर गाड़ी बैरी नहीं थी। गांव की बैरी रेलिया तो आने वाली कुतुब एक्सप्रेस थी। कुतुब एक्सप्रेस दिल्ली जाती थी। देखते-देखते कुतुब एक्सप्रेस गांव वालों की चेतना पर छा गई जो दिल्ली तक जाती थी। लेकिन, दिल्ली एक दु:स्वप्न साबित हुई। कुतुब एक्सप्रेस एक लकड़बग्घा थी जो नौजवानों को अपने जबड़े में खींच कर, दिल्ली ले जाकर खपा देती थी। गांव के गांव सूने हो गए। गांव में होने वाली मौनिया नाच की लय भंग हो गई। कथाकार यह बताते हैं कि मौनिया नाच उन लोगों का नाच था जो गांव के सामाजिक पायदान में निम्नतर या निम्नतल स्थान पर थे। गांव की इस सामाजिक-संस्कृति का शोकगीत लिखते हुए रामकुमार मौनिया नाच की एक दारुण पैरोडी प्रस्तुत करते हैं, जिसमें उछलती हुई मांस पेशियों का जवान नहीं, वरन दिल्ली से लौटा उसका अस्थिपंजर नाचता है। रामकुमार ने उस स्थिति की ओर संकेत किया है जहां आजीविका का सामाजिक जीवन की संस्कृति के साथ कोई संबंध नहीं रह जाता है। परन्तु, उसकी कहानी में एक ऐसा नास्टैलजिया है जिसकी समीक्षा होनी चाहिए। यह सवाल तो पूछते ही बनता है कि अगर गांव इतना ही रमणीक और स्वनिर्भर था तो इतनी बड़ी संख्या में नौजवानों ने खासकर मौनियो नाच नाचने वाले वर्ग के नौजवानो ने पलायन क्यों किया। कथा की सौन्दर्य-दृष्टि से इस प्रश्न के उत्तर की अपेक्षा है।

रामकुमार की चरित्रों में इतनी रुचि है कि व्यक्ति और वृतान्त के रचाव और बनाव से उनकी कहानी स्वयं में एक चरित्र के रुप में ढल जाती है। कहानी 'देशकालको पढ़ कर ऐसा लगता है कि उसका अपना एक जैव व्यक्तित्व है और उसमें जो कुछ हो रहा है, उसी का किया-धरा है। कहानी अपनी शुरुआत के लिए डी.पी. की साइकिल अगर दो हाथ आगे जाती है तो एक हाथ दायें-बायें। सड़क में यथास्थान शालीनतापूर्वक पड़े हुए गड्ढे फुदक कर उनके पास आ जाते थे। किसी भी जड़-चेतना से टकराना जितना डी.पी. की नियति है, उतनी ही किसी भी गड्ढे और भैंस की है। ऐसी ही एक टक्कर से उन्हें उबारने के लिए कहानी जयंत को सामने लाती है। जयंत के आते ही कहानी अपना रास्ता बदल देती है और रामकुमार की प्रिय भाव-भूमि जिसमें समय-कीलित और समय-अनवरत के बीच संवाद जैसा कुछ घटित होता है, पर विचरने लगती है। रामकुमार की कहानियों का समय एकरेखीय भी है और वलयाकार भी। दोनों के इस द्वंद से वह बहुत सी तस्वीरें खींचते हैं। यह द्वंद, कहानी को अपनी मेल-मुलाकात खुद करने का कुछ अवकाश देता है। कहानी जयन्त को पांव-पांव वहां ले जाती है जहां जे.पी. सक्सेना नाम के मास्टर साहब साइकिल की तीलियों में हाथ फंसा कर जामुन के पेड़ तले सो रहे हैं। हाथ इसलिए फंसाया है ताकि साइकिल चोरी न हो और अड़सठ किलोमीटर प्रतिदिन चलाने के लिए साइकिल इसलिए खरीदी है ताकि बस के किराए का खर्चा बचा सकें। अगर दो सौ अठारह रुपये में साइकिल न खरीदी होती तो अब तक चार सौ छयासी रुपया आठ आना, बस वालों को दे चुके होते। समय, अलसाया हुआ जामुन के पेड़ तले लेटा हुआ था। वह अंगड़ाई लेता हुआ उठा और कहानी की झोली में मनुष्य की मनुष्य से अनन्त जान-पहचान की सम्पदा भर कर जिस रास्ते आया था उसी रास्ते वापस चला गया।

साइकिल इस कहानी का अनुवर्ती चरित है, उसकी सुलभ सवारी है स्मृतियों की पगडंडी में उसकी अच्छी गुजर है। आगे साइकिल को पिंटू मिलता है जो उसे हाथ में पकड़े पकड़े चलता है। पिंटू की शादी एक बार तय होकर टूट गई थी, फिर हुई ही नहीं। इसके बाद पिंटू उस क्षेत्र में आने वाली हर बारात का पथ-प्रदर्शक बन गया। पता नहीं पिंटू अब कहां है, उसके पापा जी के मकान पर किसी दूसरे की नेमप्लेट लगी है। लोग ही नहीं बदले हैं जगह भी थोड़ी बदल गई है। पापा जी के ठीक सामने श्रीवास्तव साहब का मकान है। मकान उस समय अधबना था जब उसके एक हिस्से में छात्र-किरायेदार के रूप में रहने आया। उस अधबने मकान से सड़क, सिनेमा की रील तरह चलती हुई दिखाई देती थी और एक कोना अगाध आकाश भी, जिसमें चिडिय़ों की पांत तैरती हुई दिखाई देती थी। इसी सड़क और आस्मान के बीच जयंत की आंखें धोखा खा गई। साइकिल के पंखों पर तिरती हुई एक परी दिखी। रामकुमार पदार्थ जगत के भौतिक व्यापार से बहुत देर संतुष्ट नहीं रहते। उस शरीर से उन्हें संकोच है जिससे कुछ अशरीरी उपलक्षित न किया जा सके। साइिकल सवार सलवार कुर्ता और ओढऩी वाली लड़की उन्हें उड़ती हुई परी दिखती है।

पलक झपकते ही यह साइकिल सुन्दरी जयन्त के सामने भेस बदल कर खड़ी थी। वह वहीं और वास्तविक है। इस समय कहानी और जयन्त, स्वप्न और सच की गोधूलि-वेला-भूमि पर खड़े हैं।

सरस्वती पूजा के दिन, पीले फूल से लदे पेड़ के नीचे साड़ी पहन कर वह खड़ी है। बसन्त बिगराय रहा है। नाभि के गह्वर के देहगंध पीते हुए जयंत को लगता है कि न तो यह स्वप्न भंग करने लायक है और न सच को बेपर्दा करने की जरूरत है।

जयंत अपने समय में वापस लौटता है। कोई बताने वाला नहीं कि परी और उसका घर कहां गया, गोकि मकान वहीं का वहीं है। नेमप्लेट बदल चुकी है। उसके सामने से एक छोट बच्चा आहिस्ता आहिस्ता साइकिल चलाते-चलाते निकल गया।

रामकुमार की कहानियों में प्रत्ययन का कौतुक है। उसकी कहानियों के बाघ, पहाड़, पेड़ और झरने केवल वही नहीं है, वरन् उनके होने से पहले भी थे और उनके होने न होने के बाद भी रहेंगे। 'देश कालकी परी भी पुरुषप्रिया मानुषी का वासंतिक प्रत्यय है जो उस क्षण में होने के पहले भी थी और बाद में भी रहेगी।

रामकुमार, अपनी कहानियों के मिजाज को व्यक्त करने के लिए कहानी की स्थल-आकृतियां बड़ी तन्मयता से गढ़ते हैं। कहानी 'घर किसी भी दिशा में थावह कहते हैं 'चमन का घर किसी एक दिशा में नहीं रहता था। वह चमन के चलने और पहुंचने पर निर्भर करता था।... आज जब चमन घर पहुंचा तब घर धन्नू के रोने की दिशा में था।

उपरोक्त वाक्य जिस अकेन्द्रीयता की निर्मिति करता है, वही इस कहानी का कथ्य है। घर एक सधी हुई दिनचर्या का सुरक्षित और सुभीते वाला घेरा होता है। अगर यही घेरा अनिश्चित दिशाओं और दूरियों में प्रतिस्थापित होने लगे तो जीवन और उसके सरोकारों की केन्द्रीयता अस्थिर हो जाती है। इस अस्थिर केंद्रीयता के कारण घर-बाहर का बिलगाव पैदा होता है। रुटीन के अवसाद से ग्रस्त चमन का कुछ ऐसा ही रिश्ता दफ्तर से भी है। यह अवसादग्रस्त सम्बन्ध सिगरेट के अनुवर्ती चरित द्वारा व्यक्त होता है जिसके धुंधलके में चमन का दफ्तर से मानसिक बिलगाव दिखता है। सिगरेट ही वह पुल है जिस पर चलकर उसका दोस्त कमलेश उस तक पहुंचता है।

घर का वातावरण ही घर की दिशा है। घर उसी के अनुसार ही फैलता और सिमटता है। पत्नी की उग्रता के शान्त होने और बच्चों के रोने में सिमटने के साथ घर भी सिमट कर गृहस्थी के खूंटे के पास दुबक कर बैठ जाता है। इस खूंटे से छह रस्सियां बंधी हैं, चमन, पत्नी मालती, तीन बेटे दीपू, संत्तू, धन्नू और सबसे छोटी मुुन्नी। खूंटे की सबसे लम्बी रस्सी चमन के गले में बंधी हुई है और उस रस्सी की दिशा में पूरा शहर है, रात के नशे में इस शहर को खोजते-खोजते चमन आखिरकार घर की दिशा में गिर जाता है। घर से अंधेरा बह-बह कर बाहर जा रहा था और रात को गाढ़ा कर रहा था।

कुछ ऐसा प्रतीत होता है कि रामकुमार परिवेश को एक जैविक इकाई के रुप में देखते हैं और उसके क्रिया-व्यापार को मोहाविष्ट भाषिक संरचनाओं के द्वारा प्रकट करते हैं। परन्तु यहां यह ध्यान देने योग्य है कि उनका यह मोह कहानी की सामाजिक संरचना को बीच-बीच में विस्थापित करता रहता है। कहानी में व्यक्त किए गए सारे रिश्ते इन भाषिक संरचनाओं के पड़ाव से गुजरते-गुजरते कभी-कभी प्रखर होते हैं, तो कभी-कभी धुंधला भी जाते हैं।

इस कहानी का मूल विचार वह परछाई-अस्तित्व है जो सबके पास है और सबके साथ है। आवाज की केवल अनुगूंज नहीं होती है वरन् उसकी एक परछाईं भी होती है तो बीमार मालती के कराहने में पीछे से आती है और दफ्तर के दरवाजों के खुलने के आगे-आगे चलती है। परछाइयों का एक समग्र प्रवाह है जिसमें घरेलू जंजाल, बुखार, दवा, ब्रेड, गुस्सा और मारपीट सभी किसी कचड़े की तरह निस्सहाय तिर रहे हैं। एक ऐसी ही परछाईं चमन का दोस्त कमलेश है जो कहानी के अंतिम प्रस्तर में एक अतियथार्थवादी अनुभव का सहभागी हो जाता है।

रामकुमार की कहानियों से गुजरते हुए अधिकतर यह लगता है कि वह घटनाप्रेमी कहानीकार नहीं हैं। उनके यहां जो अघटना है वह यथार्थ में गुम्फित घटनापूरित संभावना है जैसे 'आदमी चल रहा है... गाडिय़ों से बचते कुचलते।वह यह नहीं मानते कि घटनाओं में ही आख्यान की आत्मा बसती है। सघन,संवेदी, ज्ञानेन्द्रियग्राही और वातावरण से आच्छादित घटनाओं और अघटनाओं से रामकुमार के सौन्दर्यपूर्ण अनुबन्ध की कुछ झांकिया संग्रह की अन्तिम कहानी 'ईजा, फिर आऊंगामें देखने को मिलती है।

इस कहानी में प्रकृति की अबाध अभिव्यक्ति है। उदाहरण के लिए देवदार के पेड़ों की यात्रा देखिए। पहली यात्रा कुछ यूं है 'यात्रियों की तरह दिख रहे हैं जो वादियों की अतल गहराईयों से चलते हुए आकाश की अतल ऊंचाइयों की ओर बढ़ते चले जा रहे हैं।और दूसरी यात्रा 'हम उतरते हुए घटित होती शाम को जगह-जगह से देख रहे हैं। हमारे साथ देवदार के पेड़ भी उतर रहे हैं। जिन देवदारों को ऊपर छोड़ कर आते वही देवदार चुपचाप न जाने कब सामने झूमते हुए मिल रहे हैं। देवदार सुबह पहले आदमी के साथ ऊपर चढ़ गए होंगे और अंतिम आदमी के साथ नीचे ऊतर जाएंगे।

यद्यपि इस सैलानी-साहित्य दृष्टि में वह मजदूर भी है जो 'पीठ पर बोरा लादे बढ़ता चला आ रहा है। बोरे को कपड़े की पटकी से साधे और पटकी को अपने माथे से अटकाए है। वह दोनों घुटनों पर हाथ रखे रोम-रोम से बल जुटाता चढ़ाई को तिरछे-तिरछे काटता आ रहा है। उसकी गर्दन की फूली हुई नसों और भाव शून्य चेहरे में कसे सख्त जबड़ों को देखकर मैं अवाक रह गया।

गजब का रेखाचित्र खींचा है यहां रामकुमार ने लेकिन लगता है कि यह विवरण उसकी कला के मिजाज के लिए कम पड़ जाता है तो कहानी उस मजदूर को लिये-दिये दु:स्वप्नों की एक ऐसी घाटी में लडख़ड़ा कर लुढ़क जाती है जहां मजदूर प्राणहीन हो जाता है और रोटी जीवधारी। कभी-कभी रामकुमार के यथार्थ की परछाईं उनके यथार्थ से बड़ी हो जाती है।

ताल में पड़ती पहाड़ों की परछाईं ताल में उन पहाड़ों के नहाने के मानिन्द है। गाढ़े अन्धेरे में चल रही बत्तियां उजाला नहीं फैलातीं वरन् उस अन्धेरे को जगह बताती हैं। चेतना के प्रवाह में मंथर गति से चलती हुई यह सैलानी-कहानी समसामयिकता का सम्मान करते हुए भी साहित्य को किसी प्रगल्भ समाजशास्त्रीय दृष्टि का अनुवाद होने से बचाती है। लौकिकता में अलौकिकता का अन्वेषण करते हुए रामकुमार चट्टान के अन्दर के पक्षियों की धड़कनों को सुनते हैं और उनकी पथरा गई उड़ानों को अनुभव करते हैं। गत-विगत-हत प्राणिजीवन के जीवाश्म का संधान करने के लिए उनकी विस्मित-पुराजैविक दृष्टि को शब्द दिख जाते हैं। पूरी कहानी प्रकृति और आदमी के बीच संवाद है जहां मानवीय चिंताएं मुखर विराम चिन्हों की तरह आती हैं।

लगता है कि रामकुमार का कथाकार यथार्थ की प्रचलित सामाजिक-साहित्यिक संरचनाओं से काफी कुछ मुक्त होना चाहता है इसलिए वह अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टि को मनुष्य और पारिस्थितिकी नाभिनालबद्ध सम्बन्धों की गतिकी से परिभाषित करना चाहता है।

 

 

हरीचरन प्रकाश मूलत: कथाकार है। अभी तक तीन कहानी संग्रह और एक उपन्यास प्रकाशित। आपकी एक कहानी पूर्व में पहल में प्रकाशित हुई। रामकुमार तिवारी अनूठे कथाकार हैं। पहल में कई बार प्रकाशित हैं। वे सूचियों के संसार में नहीं है। बिलासपुर में रहते हैं।

संपर्क- मो. 09839311661, लखनऊ

 

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