किस्सागोई में सुर और ताल
क़िताबें
सहेला रे - मृणाल पाण्डे
उदारीकरण के बाद हाशिए पर रह रहे समाजों में केंद्र में आने की चेतना प्रबल हो जाती है, यह एक सामान्य नियम है, जिसकी बानगी दलित और स्त्री विमर्श के रूप में देखी जा सकती है। बाद में आदिवासी विमर्श तथा अब तृतीय लिंगी विमर्श भी साहित्य में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। मृणाल पांडे के उपन्यास 'सहेला रे’ की समस्या को भी मैं इसी संदर्भ में देखना चाहता हूं। यह महज संयोग नहीं है कि सामंतवाद के वैभवशाली दिनों में कोठों पर रह रही तवायफों के जीवन और उनके दुहरे संघर्षों पर फिल्म निर्माण के साथ उपन्यास कहानियों भी लिखी जाने लगी हैं। यह समय उनके वैभवपूर्ण जीवन को प्रशंसात्मक नजरों से देखने का नहीं है अपितु यह देखने का है कि जब औरतें घर की देहरी भी नहीं लांघती थीं तथा घर के अंदर भी पर्दे में रहती थीं तब ये तवायफें उसी समाज के संभ्रांत घरों में अपने रागों की खनक और घुंघरुओं की धमक के साथ सम्मान पाती थीं। तब ये देह का व्यापार न कर अपनी कला के बल पर शोहरत पाती थीं। बनारस, लखनऊ और कलकत्ता नृत्य और संगीत की राजधानी हुआ करते थे, उन्हें सुनने और देखने वाले भी आम नहीं बल्कि दौलतमंद लोग हुआ करते थे, वे केवल तवायफों के सौंदर्य ही नहीं बल्कि उनके गायन की बारीकी और नृत्य की भंगिमाओं के पारखी भी हुआ करते थे। बड़े से बड़े उस्ताद इन तवायफों को सिखाने जाते थे, सिखाना भी बाजारू नहीं बल्कि गंडा बांधकर अपनी शिष्याओं को दीक्षा दिया करते थे शिष्याएं भी अपने उस्तादों के कारण ही जानी जाती थीं। संगीत में आज भी गुरु और शिष्य की परंपरा उतनी ही बलवती है, कोई भी गायक और नृत्यकर्ता गाने और नृत्य प्रस्तुत करने से पहले अपने उस्ताद का नाम लेकर कानों पर उंगली रखना नहीं भूलता। यह स्वस्थ परंपरा है, जो उर्दू अदब में अब भी मौजूद है। यही नहीं शास्त्रार्थ के समय में अपने गुरु का नाम लिए बिना किसी महापंडित को भी शास्त्रार्थ करने की अनुमति नहीं मिलती थी इसलिए जिनके गुरु नहीं होते थे उन्हें निगुरा कहा जाता था, वही निगुरा आज लोक में एक गाली के रूप में प्रयुक्त होने लगा है। निगुरा होना एक प्रकार का अभिशाप था, जो तमाम कला और कलाकारों में उसी रुप में विद्यमान था। 1857 में अंग्रजों द्वारा शासन व्यवस्था अपने हाथों में लेने के बाद कोठों में चलने वाले मुजरों और महफिलों पर केवल रोक ही नहीं लगाई अपितु उन्हें आपराधिक कर्म भी घोषित कर दिया। जो कला सामंती व्यवस्था में अपने उत्कर्ष पर थी, अब उसका ढलान आरंभ हो गया था। 'सहेला रे’ उपन्यास की कथा भी इसी समय की है, इसलिए उपन्यास के मुखपृष्ठ पर लिखा गया है 'इस कथा को पढ़कर संगीत के एक स्वर्णकाल की स्मृति उदास करती है...।’ स्वर्णकाल की स्मृति तो गौरवान्वित करती है लेकिन उसके पतन की कथा उदासी का कारण बनती है। दरअसल, अंग्रेजों को यह सूचना मिली कि कोठों का संबंध स्वाधीनता सैनानियों से भी है, कोठे स्वाधीनता सैनानियों के छुपने और आर्थिक आधार का केंद्र बन गये हैं तो अंग्रेजों ने इन कोठों को प्रतिबंधित कर इनमें होने वाले कला आयोजनों को आपराधिक घोषित कर दिया। जाहिर है कि कोई भी सरकारी आदेश धीरे-धीरे अपना असर करता है इसलिए यह संभव नहीं था कि एक साथ सारे कोठे बंद हो गये हों, संभ्रांत लोगों ने कोठों पर जाना बंद कर दिया हो या गायकी की उस्ताद बाइयों ने गाना बंद कर दिया हो। पर इतना तो तय है कि क्रमश: उनकी रौनक फीकी पड़ती चली गई। उपन्यास का समर्पण इन पंक्तियों के साथ है, जिसका अर्थ पूरे उपन्यास में धीरे-धीरे खुलता है- 'सहेला रे, आ मिलि गाएं, सप्त सुरन के भेद सुनाएं जनम जनम का संग न भूलें, अबकी मिलें तो बिछडि़ न जाएं सहेला रे...’ उपन्यास की सूत्रवाहक विद्या है जो विश्वविद्यालय में प्रोफेसर है और 'बीते समय की गायकी को ऐतिहासिक किस्सागोई में पिरोने का शोध’ कर रही हैं। विद्या स्वयं संगीत की मर्मज्ञ है। संगीत में गहरी समझ उसे अपने नाना और दादा से मिली। मां का रुझान भी संगीत के प्रति कम नहीं था लेकिन गांधीवादी पति ने उनके इस शौक को पनपने नहीं दिया 'तुम्हारी मां का पीहर खासकर तुम्हारे नाना मरहूम पं. अंबादत्त त्रिपाठी परंपरावादी भले रहे हों, पर हठधर्मी नहीं थे। बोलते वे भी कम थे लेकिन तुम्हारे वैज्ञानिक पिता के विपरीत सहज और परिहासप्रिय विद्वत्परंपरा के जीव थे, उनकी संक्षिप्त बतकही का भी अपना रस था। पुराने ग्रंथों पर आधारित दुर्लभ शोध से पाई सांगीतिक सामग्री को मेरे पिता और पुतुल के दादा जैसे अड्डेबाज सुजनों से शेयर करने में भी उनको कभी कोई को$फ्त नहीं महूसस हुई और न ही घरानेदार परंपरा के सुयोग्य मुसलमान उस्तादों से अपने घर की होनहार लड़कियों को संगीत की तालीम दिलवाना उनको निषिद्ध प्रतीत हुआ। उधर यदि शहर की दंतकथाओं को सच माना जाये तो उनके अनुसार तुम्हारे वैज्ञानिक पिता के औरंगजेबी परिवार में तो किसी ने बाथरुम तक में गाने नहीं गाये होंगे। हो सकता है यह अंतिम बात चंद दिलजले भंवरों द्वारा एक अतीव सुंदरी, लेकिन पकड़ से परे कमनीय रुपसी के पतिकुल की बाबत खिसियाहट में फैलाई गप्प हो। सिर्फ मिस त्रिपाठी के दर्शन पाने को तुम्हारे नाना यानी प्रोफेसर साहिब से नोट्स दुरुस्त करने के बहाने ऐसे कई भ्रमर सुनगुन करते उन दिनों तुम्हारे ननिहाल के चक्कर नॉनस्टॉप काटते देखे भी जाते थे जो बाद में कई दंतकथाओं को शहर की अड्डेबाजी महफिलों के रेगुलर खबरिया दरबारी बनकर हम तक लाते रहे। बहरहाल सच जो हो, यूनिवर्सिटी की इन खट्टे अंगूरवाली लोमडिय़ों का दल काफी अर्से तक तुम्हारे रुक्ष मिजाज के पिता की तुम्हारी मां सरीखी सर्वगुणसम्पन्ना कन्या से बनी युति को बेमेल घोषित कर, तुम्हारे पिता को कई योग्यतर अभिलाषियों की आशा पर तुषारापात करने का दोषी मानता रहा। इस लंबे उद्धरण का एक ही मतलब है कि विद्या की मां सुंदर और कमनीय तो थी हीं साथ ही संगीत में भी उनकी रुचि कम नहीं थी लेकिन भारतीय परिवारों में स्त्री के हुनर को पारिवारिक जिम्मेदारियों की भेंट चढ़ाने की जो परंपरा है, विद्या की मां भी उसी परंपरा की शिकार बनी। हो सकता है विद्या की खोज अपनी मां के त्याग और अंदर छुपी बेचैनी से ही निकली हो। कई बार घर के वातावरण और मां की लगातार उपेक्षा से बच्चे विशेषकर लड़कियां विद्रोही हो जाती हैं। विद्या विद्रोही तो नहीं है पर अलग रास्तों पर चलने और अलग रास्ते बनाने की जिद उनके अंदर गहरे तक पैठी हुई है। विद्या के भाई संजीव के लिए राधा दादा ने कहा था 'उसके चेहरे के पीछे तुम्हारे ननिहाल की बदौलत मिला एक गजब का परिहास रसिक मन छुपा था। तुम्हारे बाबूजी अकृत्रिम रुप से सज्जन किंतु अविकल रुप से गंभीर जीवन माने जरूर जाते थे पर संजीव को यह भाव तुम्हारी अम्मा की महीन परिहास रसिकता से मिला था जिसको तुम्हारे बाबूजी भी मिटा नहीं सके। पुराने परिवारों और पुराने संगीतकारों को लेकर उनके कमेंट जो बेहद गूढ़ लेकिन पुरमजाक होते थे, आज भी मुझे याद है।’ संजीव के लिये कहे इन वाक्यों को यदि विद्या के ऊपर लागू किया जाये तो सच साबित होते हैं। यानी विद्या के अंदर जो संगीत की परंपरा को जानने और उसके पतन को लेकर जो बेचैनी है वह ननिहाल और मां के संस्कारों से मिली है, जो समय आने पर खुलकर सामने आ रही है। उपन्यास की शुरुआत भी विद्या के पत्र से होती है। विद्या ने पहला पत्र अपने पारिवारिक मित्र राधा प्रसाद को लिखा जो बड़े प्रकाशक भी हैं और संगीत के मर्मज्ञ भी। उन्होंने लिखा - 'तुमको पता ही होगा कि काफी समय से सांगीतिक थियेटर के इतिहास पर खोजबीन का काम करती रही हूं। उनके शुरुआती दौर की फिर उसके भी शुरुआती वक्त की तरफ जाने वाली कई राहें हठात् खुलती जाने से मन अब उन सबको साथ-साथ जोडऩे-टटोलने के लिए बड़ा छटपटा रहा है। दिक्कत यह कि इतनी महत्वाकांक्षी योजना को मौजूदा फेलोशिप के विषय में ही समाहित करने का हर रिवाइज किया प्रपोजल नखत पर नखत और तारे पर तारा ठोंकने की आदी शिक्षा विभाग की बाबूशाही बिन पढ़े रद्द कर देगी। इसीलिए समय रहते नये सिरे से शोध के लिए एक ही राह बचती है : प्रकाशन की दुनिया से एडवांस रॉयल्टी ले अपनी जमा-पूंजी मिलाकर शुरू किया जाये।’ विद्या अपनी तरह से काम करना चाहती हैं क्योंकि सरकारी अनुदानों और शोध परियोजनाओं में जिस प्रकार की बंदरबांट चल रही है, उसके कारण कई ऐसे मूल विषय छूट रहे हैं जिन पर लंबे समय तक काम करने की जरूरत है। बाबूशाही या लालफीताशाही का आलम यह है कि देश के लब्धप्रतिष्ठित संस्थानों के पिछले दस वर्षों के आंकड़ों को देखा जाये तो कोई बड़ी उपलब्धि या ऐसा शोध नजर नहीं आता जिसे देखकर लगे कि शोधार्थी ने सर्वथा नये और उपेक्षित विषय पर मेहनत कर भविष्य के लिये कुछ अमूल्य परिणाम दिये हैं। पुस्तकों और तमाम तरह की सुविधाओं से भरे पड़े शोध संस्थानों की स्थिति इतनी बुरी कर दी गई है कि वहां बैठकर महत्वपूर्ण काम करने की सोच भी नहीं सकता। अब विश्वविद्यालयों में भी जो लाखों-करोड़ों की परियोजना मिलती हैं, उनका हिस्साबांट पहले ही हो जाता है। प्रतिष्ठानों में पदों की उठापटक के बीच ऐसे लोगों को मुखिया बनाकर बैठा दिया जाता है जिनकी सोच शोध की न होकर कुंजियां लिखने तक सीमित होती है। विद्या चूंकि विश्वविद्यालय में प्रोफेसर है इसलिये उसे मालूम है कि विश्वविद्यालयों में अब अध्ययन-अध्यापन की नहीं बल्कि दूसरे तरह की दुनियावी बातें होती हैं, वह इन सबसे बचकर सांगीतिक इतिहास के उन पन्नों को रेखांकित करना चाहती है जो अपने वैभवशाली दिनों की स्मृति लिये अंधेरे में पड़े है। वह यह भी जानती है कि इस प्रकार के शोध सरकारी अनुदानों से नहीं हो सकते, बाबूशाही इस प्रकार के शोध की हिमायती नहीं है इसलिए वह राधा दादा को पत्र लिखती है। और संगीत के गहरे जानकार राधा दादा उन्हें तुरंत उत्तर देते हैं 'अलबत्ता यह तुम भली तरह जानती हो कि संगीत पर तुम्हारे काम को छाप कर मैं कोई अहसान नहीं कर रहा। एक अच्छी पुस्तक की पांडुलिपि घर बैठे मिलती हो तो मुझे हार्दिक खुशी ही होगी। और हां, रुपये-पैसे की चिंता से मैं तुमको मुक्त करता हूं। बस अपने बैंक का कोड भेज देना।’ रुपये पैसे की चिंता से मुक्त हुई विद्या के सामने कई अनसुलझे सूत्र हैं, जिन्हें सुलझाकर वह अपने शोध को आगे बढ़ाना चाहती है। पूरा उपन्यास पत्रों के माध्यम से ही आगे बढ़ता है। कहना न होगा कि एक-एक पत्र अपने आप में इतिहास है। मृणाल पाण्डे की संगीत में रुचि है,उन्हें उसकी कितनी जानकारी है यह तो नहीं कह सकता लेकिन सुगठित पत्रों में जिस प्रकार की सांगीतिक जानकारियां हैं, उससे यह विश्वास सहज ही उत्पन्न होता है कि उन्हें संगीत और उसके स्वर्णिम इतिहास की भरपूर जानकारी है। उपन्यास अपनी किस्सागोई के कारण पठनीय बनता है, किसी गंभीर विषय को जानने के लिए तो उस विषय पर लिखी हुई किताबों को पढऩा होता है। यही कारण है कि एक चौथाई उपन्यास पढ़ लेने के बाद यह समझ पाना मुश्किल था कि उपन्यास लेखिका किस पात्र के माध्यम से अपनी बात कहना चाहती हैं। उपन्यास के अंतिम पृष्ठ पर उपन्यास की जानकारी देते हुए कहा गया है कि 'केंद्र में हैं पहाड़ पर अंग्रेज बाप से जन्मी अंजलिबाई और उसकी मां हीरा दोनों अपने वक्तों की बड़ी और मशहूर गानेवालियां। न सिर्फ गानेवालियां बल्कि खूबसूरती और सभ्याचार में अपनी मिसाल आप। पहाड़ की बेटी हीरा एक अंग्रेज अफसर एडवर्ड के. हिवेट की नजर को भायी तो उसने उस समय के अंग्रेज अफसरों की अपनी ताकत का इस्तेमाल करते हुए उसे अपने घर बिठा लिया और एक बेटी को जन्म दिया, नाम रखा विक्टोरिया मसीह। हिवेट की लाश एक दिन जंगलों में पाई गई और नाज-नखरों में पल रही विक्टोरिया अनाथ हो गई। शरण मिली बनारस में जो संगीत का और संगीत के पारखियों का गढ़ था। यह कहना कुछ हद तक सच है कि हीरा और उसकी बेटी अंजलि उपन्यास में प्रमुख रुप से उभरकर आई हैं लेकिन क्या यह सच नहीं है कि हुस्नाबाई, उसकी बेटी अल्लारखी, उसकी बेटी हैदरी और उसकी बेटी अमाल भी सामानांतर रुप से उसी दुनिया को आगे बढ़ा रही हैं जिस दुनिया को जानने की इच्छा विद्या के मन में थी। विद्या सांगीतिक घरानों और उनके पतन की परिस्थितियों को जानना चाहती हैं तो हुस्नाबाई के बिना उनका यह काम पूरा नहीं हो सकता था इसलिए अनायास ही सही हुस्नाबाई भी हीराबाई समानांतर इतिहास के पन्नों से उभरकर आती हैं - 'मशहूर गवनहारी अंजलीबाई की अम्मा हीराबाई बनारस में हमारी नानी की जिगरी सहेली हुआ करै थीं। हम सुनते भर थे कि इधर कहीं पहाड़ सैड की थीं। बला की हसीन और वल्लाह बड़़ी नेक तबीयत गवनहारी। जिसका कलाम गाती, वहीं मानों सातवें आसमान पर जा पहुंचता। ये दोनों सहेलियां हुस्ना औ’ हीरा, कहो जिस महफिल में जा बैठीं तो समझो के सौ-सौ चराग जल उट्ठे।’ उपन्यास लेखिका के हिसाब से हीराबाई को उपन्यास के केंद्र में माने तो उपन्यास की शुरुआत 1857 और उसके बाद के रानीखेत से होती है। रानीखेत हीरा की जन्मस्थली है। रानीखेत का इतिहास भी हीरा की तरह दिलचस्प है। कहते हैं कि कत्यूरी राजा ने यहीं रानी का दिल जीता था, इसलिए इस स्थान को रानीखेत कहा जाता है। यह लोक में प्रचलित मान्यता है, जो आज किंवदंती बन चुकी है। 1815 से पहले कुमाऊं पर गोरखों का राज्य था, मई 1815 में गोरखों ने कुमाऊ अंग्रेजों को सौंपा। बावजूद इसके 1857 से पहले रानीखेत का विकास नहीं हुआ। पहले स्वाधीनता आंदोलन के विफल होने और अंग्रेज मलिका का राज्य स्थापित हो जाने के बाद अंग्रेजों का ध्यान रानीखेत की ओर गया। 1864 में पहले फोरेस्ट आफीसर के रूप में विलियम के. हिवेट को भेजा गया, वह ब्रिटेन के किसी उच्च घराने का बिगड़ैल युवा था, जो इससे पहले फौज में था। फौज की कठिन नौकरी न कर पाने के कारण रानीखेत भेजा गया। वह जंगल, शिकार और औरतों का भारी जानकार था। इस समय कुमाऊं के प्रशासक हेनरी रेमजे थे, जो अपने अनुशासन के लिये जाने जाते थे। उनका हुकुम और रहन-सहन किसी राजा से कम नहीं था। विलियम हिवेट ने जंगल, नदी और पहाड़ पर पूरा कब्जा कर लिया, जिन पहाड़ों और पेड़ों को देसी लोग देवता मानकर पूजा किया करते थे, वे अब काटे जाने लगे। अंग्रेजों ने जब रेलों का विस्तार किया तब ज्यादातर लकडिय़ां यहीं से ले जाई गईं। रानीखेत में हीराबाई के संबंध में जानकारी इकट्ठी करने आई विद्या इसकी जानकारी देते हुए कहती हैं 'तब तक इलाके के कुछ गांव और उसके ताल देवी की स्थली माने जाते थे जहां महज दर्शन को ही आया जा सकता था, बस्ती बसाने को नहीं। इन पवित्र तालों में तैरना या मछली मारना कतई मना था। पर चतुर गोरा नहीं माना। फुसला-बहलाकर सीधे-सादे इलाके के प्रधान को सैर को ताल में अपनी नाव उतारकर ले गया। जब बीच ताल पहुंचे तो उसको पानी में उलटा टांगकर उससे इलाके की मिट्टी के मोल पर खरीद पर हामी भरवा ही नहीं ली, बिक्री के राजीनामे पर दस्तखत भी करवा लिये। उसके बाद यह इलाका अंग्रेजों की सैरगाह और शिकारगाह बन गया।’ 1857 के बाद अंग्रेजों ने जिस तरह पहाड़ी संपदा की लूट की उसके असंख्य उदाहरण रानीखेत जैसे सुदूर पहाड़ी क्षेत्रों में सुनने को मिलते हैं। उन्होंने न केवल प्राकृतिक संपदा का दोहन किया अपितु यहां की हर सुंदर वस्तु का शोषण किया। मृणाल पाण्डे ने इस तथ्य की ओर विशेषरुप से ध्यान दिलाया है कि गोरखों ने इस पहाड़ी इलाकों की पवित्रता को बचाये रखा, जिसे अंग्रेजों ने नष्ट कर दिया 'गोरखों के आने तक बावड़ी, कुएं, तालाब, देवालय और पेड़ सब पवित्र लोकसम्पत्ति हुए। पर रानी की सरकार ने मद्रास से हिमालय और उसकी तराई तक सब जंगलों का राज सम्पत्ति और परजा को उसका संभावित दुश्मन बता दिया। मुट्ठी गरम करने वाले बाहरी लोगों को काठ, बांस, कत्था सबकी निकासी का ठेका देकर बंदोबस्तियों ने बाकी जंगल सुरक्षित बना दिये जिनमें बिना हुकुम पत्ती तोडऩे तक पर सजा और जुर्माना होने लगा. गांव के सीधे-सादे लोगों की पकड़-धकड़ और उन पर जुर्माना लगाने का का काम पतरौलों को दे दिया गया। बाघ की मौसी बिल्ली हुये वे भी। बहुतों पर मार पड़ी। कई जेल गये। सुनवाई कुछ नहीं। बस ठेकेदार और पतरौल भी हो गये खूब मालामाल।’ मृणाल पाण्डे बताती हैं कि हीराबाई उर्फ हिरुली और एडी साहिब की प्रेम कथा बादी जाति के लोग घर-घर गाकर अनाज और पैसा बटोरते हैं। यह प्रेम कथा एक लोक कथा की तरह कुमाऊं के जीवन में व्याप्त है। लोक अपनी कथाओं को अपनी तरह सुरक्षित रखता है। इसीलिए हीराबाई की कथा भी अभी तक जीवित है। चूंकि लोक कथाओं का कोई रचयिता नहीं होता इसीलिए समय-समय पर वे भी बदलती रहती हैं, हर गायक अपनी तरह से उनमें जोड़-घटा लेता है। हीराबाई की कथा के साथ भी ऐसा ही हुआ है। लोक में तो प्रेम कथा कहती है 'धराली गांव में थीं वो दो किशोरियां, नाम जिनका था गुलाब और हीरा। रूपसी, मृगनयनी, बड़ी हुईं दोनों पानी पीकर सिरकंठ नदी का। उनके रूप का जल पीने लगे तब कई-कई किशोर। घिस गईं पत्थरों की बटियां नदी तट पर छुपते ताकते लड़कों के बूटों से, वहां जहां नहाती थीं बुआ-भतीजी। फिर बुआ तो ब्याह दी गई दूर नैक्याणा के कुमय्यों में, वहां भतीजी की, सरिकंठ नदी के पानी और फाफर की रोटी के स्वाद की याद में रोती-रोती पियूंडी के फूल-सी मुरझाने लगी बेचारी गुलाब।’ लोक अपने नायक और नायिकाओं को ऐसे ही विशेषणों के साथ याद रखता है। कुमय्यों के यहां से परित्यक्ता गुलाब हिवेट को भा गई तो हिवेट ने उसकी भतीजी हीरा से शादी की। कहना न होगा कि हिवेट औरतों के बारे में बचपन से ही बदनाम था लेकिन सामंती समाज की नैतिकताओं को वह अभीतक तोड़ नहीं पाया था इसलिये गुलाब और हीरा को उसने रखैल बनाकर नहीं बल्कि पत्नी बनाकर रखा। मृणाल पाण्डे विवरणों में यह स्पष्ट करती हैं कि हीरा का साथ अंग्रेज हिवेट ने तो दिया पर उसके ही भाई ने उसे घर से निकाल दिया। विवरणों से यह भी स्पष्ट है कि हिवेट प्राकृतिक मौत न मरकर हीरा के भाई की कुटिल चालों में मारा गया। अकेली और एक बच्ची की मां हीरा को उसका भाई अच्छे पैसे लेकर बेचना चाहता था लेकिन वह अपने मास्टर महमूद के साथ बनारस चली गई। यह विडंबना ही है कि अभावों और उपेक्षाओं की शिकार जातियों तक में स्त्री को बराबर का दर्जा नहीं दिया गया, वह वहां भी पिता, पति और भाई के अधिकार क्षेत्र में रहने को बाध्य थी। हीराबाई का जीवन संघर्ष बहुत विकट है। रानीखेत के फोरेस्ट आफीसर विलियम के. हिवेट की पत्नी हीरा ने कभी यह सोचा भी नहीं होगा कि एक दिन उसके पति को मारकर उसका भाई उसका मकान और सम्पत्ति छीनकर उसे बेघर और बेसहारा कर देगा। लेकिन हीरा के आत्मबल ने उसे अंदर से टूटने नहीं दिया, उसके पास लाड़-प्यार में पली और बढ़ी और उसकी बेटी अंजली थी जो देखने में अंग्रेजों की तरह लगती थी। बेटी के भविष्य और अपने जीवन की रक्षा के लिये उसने पहाड़ त्याग दिया। अब वह बनारस की दालमंडी में थी, जहां उसकी पहचान एक तवायफ के रुप में थी। संभ्रांत परिवार की बीबी को तवायफ की जिंदगी जीने के लिये कितना कुछ अंदर से मारना पड़ा होगा, इसकी कल्पना ही भयावह है। मृणाल पाण्डे ने हीराबाई का जो व्यक्तित्व गढ़ा है वह बहुत तेज, विवेकशील और हुनरमंद स्त्री का चरित्र है, जिसमें आत्मविश्वास कूट-कूटकर भरा है। उसके आत्मविश्वास ने ही घर से उजड़ी हीरा को दालमंडी में अलग पहचान दी। सुकुमार चचा ने विद्या को उसका परिचय देते हुए लिखा था 'काफी प्रमाण हैं कि कैसे दालमंडी आने के बाद यह फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाली पहाडऩ की जहनियत और रूप पर रीझे उस्तादों की मेहरबानी से उसकी गायकी बहुत जतन से तराशी गई। और किस तरह बाइयों की जलन और कुचक्रों को धता बताती हुई हीराबाई हर बड़ी महफिल में न्योती जाने वाली टोस्ट आफ दि टाउन बन गईं। पर उसके शुरुआती दिनों पर हमेशा पर्दा पड़ा रहा। इसमें शक नहीं कि हीरा और अंजली बेहद सोफिस्टिकेटेड तवायफें ही नहीं बेहत जहीन शख्सियतें भी थीं। हीराबाई तो पढ़ी-लिखी शायरा भी थीं। उनकी कुछ बंदिशें अभी भी गाई जाती हैं। उस जमाने में जब संगीत और कला के सबसे बड़े संरक्षक राजे-महाराजे और जमींदार हुआ करते थे, सिर्फ हीराबाई की महफिलों में ही अपना कलाम सुना पाने और अपने ड्रामों का पाठ कर सकने को उस जमाने के कलमनवीसों में वैसी ही हुमक-भरी होड़ लगी रहती थी जैसी कि उस्तादों में अपनी नई बंदिशों को पेश करने की।’ सुकुमार चचा ने प्रमाणों के आधार पर हीराबाई का परिचय दिया है जो तथ्यपरक होते भी पूरा नहीं कहा जा सकता। हीराबाई की सहेली हुस्नाबाई की बेटी अल्लारखी ने तो उन्हें देखा था इसलिये उनका कहा हुआ अधिक जीवंत है 'गदर के कुछ बरस बाद अपनी बेहद हसीन और शोख बेटी एंजेलीना को लेकर कहीं हिमाला के पहाड़ों की जानिब से बनारस आ गईं थीं। बनारस की नगरी तब तमाम मशहूर नाचने-गानेवालों और उनको पालने वाले रईसों की नगरी थी और दूर-दूर से नाचने गानेवालियों में से जिनमें सचमुच का हुनर होता, वो भरपूर नाम कमा सकती थीं। हीराबाई तबीयतन पक्की गवनहारी खानदान की परवरिश से तैयार बेहद तहजीबयाफ्ता खातून थीं। उम्र उनकी, जब वे बनारस आईं, कोई सत्ताईस-अठाईस बरस की रही होगी। पर इन दिनों डेरेदार तवायफें पंद्रह की होते न होते निगाहों में आ ही जाती थीं। लोगों को कुछ तअज्जुब जरूर हुआ कि इतनी गुणी गानेवाली इतनी देर से गुनीजनों के शहर क्यों पहुंची होगी? तालीम किससे ली होगी इसने? पर यह राज राज ही रहा।’ इस राज का कारण अपने बारे में बहुत कम बोलना और बताना था। उन्होंने बचपन की गरीबी भी देखी थी और जवानी का वैभव भी, लेकिन समय ने उन्हें ऐसे रास्ते पर ला पटका था जहां उनके हुनर के अलावा और कोई साथी नहीं बचा था। बनारस आने का निर्णय जिन स्थितियों में लिया होगा, वे स्थितियां किसी भी स्त्री के लिये सहज नहीं हैं। अपने दम पर बहुत कम समय में उन्होंने बनारस की रसिक मंडली में जो स्थान पाया, वह उनकी अपनी सूझबूझ की ही निशानी है। जो तवायफ प्रदेश के गर्वनर को तंज मारकर कहे कि 'हुजूर, आपको जितनी तनख्वाह मिलती है, उतनी तो मैं एक रात की महफिल में पा लेती हूं’ उस तवायफ की प्रसिद्धि के लिये क्या कहा जा सकता है? यही नहीं किन्हीं शिवचरन ने सुकुमार चचा को यह सूचना भी दी कि 'अपनी एक बिल्ली की शादी में बाई ने 1200 रुपये खर्च किये हैं। बिल्ली जब आई तो फिर एक दावत पर 20 हजार लुटाए।’ ये खर्चा बीसवीं सदी के आरंभिक काल का है, जब रुपया चांदी का होता था और एक रुपया देखना हिंदुस्तान के आम आदमी के लिये एक सपने की तरह था। कहना न होगा कि हीराबाई ने बनारस और फिर कलकत्ता में अपने हुनर के जो चिराग जलाये उनकी रोशनी आज भी पुराने घरानों के लोगों के दिलों में देखी जा सकती है। कालीबाबू ने इसका जिक्र करते हुये लिखा 'कल चुलबुल के घर महफिल में सालों बाद कलकत्ते की हीराबाई का रेयर गाना सुना। कनपटियां सफेद हो चली हैं और चेहरे की वह पुरानी उदासी हल्की सलवटें बनाने लगी है। यूं अब बहुत कम गाती हैं बाई, सुना अंजली को ही आगे बढ़ा रही हैं, पर वाह क्या बात है पुरानी शराब की। दुआ सलाम के बाद संपूर्ण मालकौंस उठाया 'ए बरज रही मैं तोको...’ सीने में भीतर तक गायकी कटार-सी उतर गई। हीराबाई जैसी पढ़ी-लिखी और सलीकेदार तवायफ की जिंदगी में जो उतार-चढ़ाव हैं वे किसी राग से कम नहीं है। लेकिन अंतिम समय में वे जिस प्रकार अकेली और दुखी रहीं, उससे उनका मन टूट गया था, जीने की सारी इच्छाएं समाप्त हो गई थीं। किसी भी तवायफ के बुढ़ापे की लाठी उसकी बेटी होती है लेकिन बेटी अंजलि उनसे स्वयं नाराज रहती थी। इस नाराजगी की वजह के कारण मां और बेटी के लिए अलग-अलग थे। मां चाहती थी कि वह उनके बुढ़ापे में सहारा बने और अपने हुनर के बल पर महफिलों को गुलजार करती रहे लेकिन अंजलि के मन की एक स्त्री उसे केवल तवायफ के रूप में जीने से रोक रही थी और वह ताजुद्दीन को दिल दे बैठी थी। यह कहना गलत होगा कि दोनों में कौन सही था और कौन गलत? हीराबाई ने अपने गायन पर रुपये बरसते देखे थे, वह चाहती थीं कि अंजलि उनसे आगे जाकर प्रसिद्धि के चरम छुऐ। जब हीराबाई को उम्र ने थका दिया तो उन्होंने गाना-बजाना बंद कर दिया पर अपनी निगरानी में अंजलि से महफिलें सजवाने लगीं। 'अंजलि तबीयतन चालाक और ऐंठदार रंडी बताई जाती है। कम उम्र से ही अपनी मां को इतना बार धोखा खाते देखकर वह अपनी जायदाद और आना-पाई का हिसाब लेकर काफी चौकस भी रहने लगी थी। कलकत्ता आकर उसकी नथ उतराई तो हुई नहीं, पर सुना पहले वह घुटियारी शरीफ साइड के किसी जमींदार के पास कुछ महीने रही, फिर शहर के बनारसी साड़ी वाले छग्गन साहू के साथ भी उसने कुछ महीने बिताये। पर साहू से ज्यादा दिन पटी नहीं, मनमुटाव रहने लगा। मां की बढ़ती शराबखोरी और लिवर की बीमारी की भी अंजलीबाई को लगातार खबरें मिल रहीं थीं। आखिरकार वापस आकर वह फिर धंधे में लग गई। तब तकरीबन उन्नीस बरस की होगी, उठती जवानी और बेपनाह हुस्न। रुपया बस उस पर बरसा किये था। गला था भी बेहतरीन और अदाएं तो कहना ही क्या? गोरा गुलाबी रंगी बाप से उसे उसकी सलेटी आंखों के साथ मिला था और मां से नुकीली नाक और लंबी छरहरी गढऩ। पर ताजुद्दीन से गहरी चोट खाई अंजलीबाई का दिल मानो बर्फ की सिल्ली बन गया था। अलबत्ता मां की मौत से वह काफी दिन सदमे में रही बताई जाती है।’ वे दुनियादार तो थी हीं इसलिए जमाने का चलन देख अपने दुख से उबरी और खूब नाम तथा नामा कमाने बाद हर तवायफ की तरह अंतिम समय में अपनी किसी पुरानी सहेली की मदद से दक्षिण की एक बड़ी रियासत की राजगायिका बनीं और वहीं मर भी गईं। केवल हीराबाई और अंजलीबाई की नहीं बल्कि हुस्नाबाई एक अल्लारखी भी अंतिम समय में लगभग अकेली ही थीं। तवायफों की दुनिया केवल उनकी जवानी तक गुलजार रहती है बाकी कहा जाता है कि रंडी और पहलवान का बुढ़ापा उनका दुश्मन होता है। मृणाल पाण्डे ने एक लंबी सूची के साथ तवायफों की दुनिया की पड़ताल की है, जो उन्हें शिखर पर भी ले जाती है और गड्ढे में भी। इसी के साथ वे शास्त्रीय घरानों के पतन की कहानी भी लिख रही हैं। एक से एक धुरंधर उस्ताद अपनी गायकी में ही मस्त रहता था, उसकी दुनिया केवल उनकी गायकी तक सीमित रहती थी। संपूर्ण समर्पण के साथ कला को साधा जाता था, तब संभ्रांत घरानों में महफिल सजाने को बुरा नहीं माना जाता था बल्कि सम्मान की नजर से देखा जाता था लेकिन समय के साथ कला का स्तर गिरता गाय। 1911 में कलकत्ता की जगह दिल्ली राजधानी बनीं तो घराने भी उजड़ते चले गये। विश्वयुद्ध के समय अंग्रेजों ने महफिलों पर और कड़ा प्रतिबंध लगा दिया तो उनकी जगह तवे में गाने रिकॉर्ड किये जाने लगे। अब हर घर में तवे बजने लगे थे लेकिन रुचि कम होती जा रही थी। गायकों ने मनचाहा रुपया कमाया पर उन्हें सुनने वाले और सम्मान देने वाले कम होते जा रहे थे। मृणाल पाण्डे ने यह तो बताया कि बड़े घरों में तवायफों का आना और महफिल सजाना बड़प्पन और सम्मान का प्रतीक माना जाता था लेकिन यह भी बताया कि जिन घरों में तवायफें आती थीं उन घरों में उनकी अपनी स्त्रियों की बड़ी उपेक्षा होती थी। सामंती मानसिकता इसी को कहते हैं, घर का पुरुष जो कहे वही घर की परंपरा, वही खानदान की मान-मर्यादा और वही घर की इज्जत। इसमें घर की वह स्त्री नहीं थी, जिसे ब्याह कर लाया गया था, जो संतति के विस्तार का आधार थी, जिसकी मर्यादा कुल की मर्यादा कहलाती थी, उस स्त्री को घर के किसी छोटे से छोटे निर्णय में भागीदार होने के अवसर नहीं थे। वह घर की चारदीवारी में बंद कुल की मर्यादा की रक्षा करने में अपने प्राणों की बलि दे रही थी और बाहर तवायफों के नृत्य और गायन में घर के मुखिया की मूंछें ऊंची हो रही थीं। पुतुल ने अपनी मां के बारे में जो जानकारी दी है, वह दुखी करती है। 'इतने सम्पन्न खानदान में भी घरेलू राजनीति के चलते अम्मा की निरीहता और अवशता इस बात से निरंतर गहरी रही है कि हमारे पिता हमेशा खानदानी बटुए की डोरियां अम्मा के लिए तंग रखते रहे। पुराने महाराज जब कभी आकर कहते बहूजी अमुक जिनिस चाहिये या मुंशी छैलबिहारी फुसफुसाते कि रात बारह बजे से अमुक बाई जी जिद पकड़े हैं कि उनको स्टेशन ले जाने को बड़े सरकार की गाड़ी ही जाये तो बिना कहे उसके लिये तो बजट बढ़ा दिया जाता पर बेतरह सिटपिटा कर हमारे लिये फीस, किताबों या नई यूनीफॉर्म बनवाने के लिए जब अम्मा स्टडी के बाहर मृदु स्वर में खांसती तो उनका सतत अपमान करने को तत्पर पति कभी भीतर बुलवाते कभी नहीं।’ पुतुल की अम्मा जो घर का सारा काम संभालती पर उसी घर में उनकी स्थिति किसी भी बाई जी से कम ही थी। बाईजी की जिद पूरी की जाती और अम्मा की जरूरतें भी अधूरी ही रह जातीं। यह अपमानजनक स्थिति है, जिसे पुतुल और उनके भाई राधा प्रसाद रोज देख रहे थे। पुतुल ने लिखा 'हमारे बाबूजी दोस्तबाज सामाजिक प्राणी थे। महफिलें उनकी आमद से ही गुलजार होती हैं ऐसा भी कहा जाता था, लेकिन वे हमेशा अम्मा को पीछे घर पर छोड़कर ही सभा सोसायटी की महफिलों में जाते थे। एक मुश्किल में जाने की घटना का जिक्र पुतुल ने किया है जो हृदय द्रावक है 'नियत समय पर बाबू जी की इंपाला पोर्च पर लगी और हम सब उसमें बैठने लगे। आओ ना? राधा भैया ने मां से कहा। बेचारी मां पल्लू सर पर संभालती अपने पति से स्वीकृति पाने का इंतजार करती रहीं। उनको वे भैया या मुझसे कहीं बेहतर जानती थीं। मैं मां को बिठाने के लिये सीट पर सरककर जगह बना ही रही थी कि बाबू जी ने एक गुर्राहट के साथ आंखों से ही उनको रोक कर सर हिला बाहर रहने का इशारा कर दिया। सर झुकाएं शर्म से सुलगती अम्मा अलग खड़ी हो गईं। विद्या के पिता ने भी उनकी मां को सामने नहीं आने दिया जबकि वे कम गुणी नहीं थीं। सामंती परिवारों में स्त्री का गुण घर-गृहस्थी और बच्चे संभालने तक सीमित रहा है, बाकी के गुणों की पहचान दूसरों में की जाती है। राधा दादा ने विद्या को पत्र लिखकर पूछा 'सचमुच नाराज किससे हो तुम? अपने गांधीवादी पिता से, जिनकी महफिली बैठकों और सामंती सडऩ से गहरी अनकही नफरत ने तुम्हारी मां को उनके बचपन के मिले-जुले रसिक माहौल से दूर कर दिया? या अपनी मां से, जिन्होंने पति के जीते जी बड़ी समझदारी खामोशी से घर के बाथरुम में नल चलाकर पुराने रागदारी संगीत की बंदिशें दोहराने या फिर पति की गैरमौजूदगी में तुम दोनों के साथ आकाशवाणी संगीत सम्मेलन सुनने तक खुद को सीमित कर लिया था?’ विद्या ने जवाब दिया 'जानती हूं, अपने बचपन से नाना के साथ हमारी अम्मा भी तुम्हारे मरहूम दादा जी के यहां होने वाली मजलिसों का वैसा ही हिस्सा रही थीं, जैसे कि तुम्हारे पिता और उनके भाई-बहन। तुम्हारे घर की औरतों के साथ उन्होंने चिक के पीछे से रोशनआरा बेगम, अल्लादिया साहिब और भास्कर बुआ सरीखों का उस्तादी गाना और गायन पर जो-जो उस्तादी जिरहें बार-बार सुनीं थीं, उनको उनसे हमने भी बार-बार सुना है।’ बहरहाल, बड़े घरों की औरतों को केवल चिक के पीछे से चुपचाप सुनने का अधिकार था। उपन्यास पढ़कर विद्या की अम्मा, पुतुल की मां, हीराबाई, अंजलीबाई, हुस्नाबाई तथा अल्लारखी का दुख ज्यादा गहरे उतरता है। सामंती समाज में स्त्री को खाने-पीने अैर रहने-सहने की जरूरतों की कोई कमी नहीं थीं लेकिन बराबरी का हक बिल्कुल भी नहीं था। तवायफों का दुख उनका बुढ़ापे का अकेलापन था। हीराबाई से लेकर अल्लारखी तक सब इसी अकेलेपन की शिकार हैं। हीराबाई की चौथी पीढ़ी में अंचली और ताजू से पैदा नाजायज बच्चे का बच्चा पहाड़ से लड़कियों को भगाकर चकलाघरों में बेच रहा है 'पिछले कुछ बरसों से खनन कार्य की ओट में इलाके से लड़कियां भगाकर उनको तराई के देसी चकलों में बेचने का धंधा भी काफी चल निकला है। लड़कियों को फुसलाकर पटाने में एक कंजे का नाम लगातार लिया जाता है। पूछताछ से पता चला है कि वह बरसों पहले पहाड़ से देस को भाग गई किसी अंगरेज की बागदी घरवाली की गैरशादीशुदा बेटी के बेटे की औलाद है।’ तथा हुस्नाबाई की चौथी पीढ़ी की अमाल अमेरिका में वहां के मुताबिक मिले-जुले संगीत का स्कूल चला रही हैं, उन्हें पता है अब रागों की जानकारी रखने और उन्हें चाहने वाले बहुत कम लोग बचे हैं। ये यूट्यूब का जमाना है, जहां सब कुछ चलता है। हीराबाई और हुस्नाबाई की चार पीढिय़ों का हिसाब देकर मृणाल पाण्डे उस पतन को दिखाना चाहती हैं, जिसे अब कोई रोक नहीं सकता इसलिए उपन्यास के अंत में अमाल के माध्यम से वे कहती हैं 'पर विद्या जी, नींद से महरूम, घर, परिवार, मुल्कों तक को पिघलते देख चुकी हमारी पीढ़ी आज किसी छत पर अटकी एक बेघर बिल्ली है। कभी वह चांद की तरफ मुंहकर अपने नसीबों को रोती है और कभी अपनी ही तबाही का जश्न मनाती हुई मटककली मसककली बनकर ठुमकने लगती है। आज हम सब गाने-बजानेवाले मानो किसी दूर-दराज अनाम प्लेटफार्म पर खड़े हैं। आखिरी ट्रेन जा चुकी है, अगली कब आयेगी इसका भी कोई ठिकाना नहीं, फिर भी इस बेसुरे बेताले वक्त के बीच हम सब सुर-ताल का दामन पकड़े खड़े हैं... और अलग-अलग जुबानों में अपने अनदेखे रसिक सुननेवालों को पुकार रहे हैं।’ यह पुकार पूरे उपन्यास में सुनाई देती है लेकिन बिखरी-बिखरी-सी यदि इसे सुर और ताल में पुकारा गया होता तो यह पुकार और अधिक असरदायक होती। दरअसल, पांच परिवारों की व्यथा-कथा अपनी-अपनी तरह से उपन्यास में दर्ज है, जो पत्रों के माध्यम से है। 'सहेला रे’ की आत्मा संगीत के वैभवशाली दिनों की स्मृति में खुश रहती है और उसके पतन से दुखी। यह उपन्यास सामंती व्यवस्था के ढलते दिनों में तवायफों की गरिमापूर्ण जिंदगी और संगीत की दुर्लभ महफिलों की नायाब बानगी के साथ उनके बिखराव, पतन और अकेलेपन की कहानी भी कहता है। इससे यह जाना जा सकता है कि अंग्रेजों ने न केवल पहाड़ों के सौंदर्य को नष्ट किया अपितु यहां के संगीत और महफिलों की आजाद दुनिया को भी तबाह किया।
पाठक इस संदर्भ में अमृतलाल नागर की सुप्रसिद्ध क़िताब ये कोठेवालियां को भी पढ़ सकते हैं। संपादक संपर्क - मो. 09421101128, 0866898600, वर्धा
|