नोशदारु

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    जनवरी 2018
श्रेणी नोशदारु
संस्करण जनवरी 2018
लेखक का नाम नय्यर मसूद





उर्दू रजिस्टर/ कहानी-दो







सीधी गली के आख़िर में बाएं हाथ पर अहाता था जिसके एक सिरे पर पड़ा हुआ तख़्त अब शायद इस्तिमाल नहीं होता था। धूप और बरसातों ने उसकी शक्ल बिगाड़ दी थी। चूलें ढीली हो गई थीं और चारों पाए एक ही तरफ़ झुके हुए थे। फिर भी अभी वो इस्तिमाल हो सकता था।
तख़्त के सामने वाले सिरे पर अहाते का अकेला दरख़्त था जिसमें एक-साथ पीले फूलों के फानुस-नुमा गुच्छे और लंबी मोटी काली फलिआं लटक रही थीं। दरख़्त के पूरे घेर के नीचे ज़मीन पर सूखी पंखुड़ीयों की मोटी तह और उसके ऊपर ताज़ा पंखुड़ीयों का फ़र्श था जिस पर कई जगह दरख़्त से गिरी हुई आधी-पूरी फलिआं पड़ी हुई थीं।
दरख़्त के तने से कुछ हट कर एक ड्योढ़ी का अध-खुला दरवाज़ा था। ड्योढ़ी के ऊपर एक कमरे के बंद दरवाज़े नज़र आ रहे थे। कमरे के ऊपर मकान की छत थी जिसकी पतली मुंडेर पर दरख़्त की कुछ शाखें इस तरह टिकी हुई थीं जैसे थक जाने के बाद सुस्ता रही हों।
आसमान पर मंडलाती हुई एक चील नीचे झुकी और दम-भर में मुंडेर पर आ बैठी। फैलते सुकड़ते परों को ऊपर-नीचे करते करते उस ने इरादा बदल दिया, अपने बदन को उछाला और आसमान में गायब हो गई।
दूसरी तरफ़ से दो हाथ आहिस्ता-आहिस्ता बुलंद हुए। टेढ़ी-मेढ़ी उंगलीयों ने मुंडेर की ऊपरी नाहमवार ईंटों को टटोल कर मज़बूती से पकड़ लिया और देर तक पकड़े रहीं। फिर दोनों हाथों के बीच से एक थके-थके बूढ़े आदमी ने सर उभारा और मुंडेर पर ठोढ़ी टिका दी। देर तक वो शा$खों के उस पार कुछ देखने की कोशिश करता रहा। फिर उस ने चेहरा ऊपर उठाया और हाथ बढ़ा कर फूलों के एक गुच्छे को आहिस्ता से अपनी तरफ़ खींचा। झुक कर नाक उस के क़रीब ले गया और दो छोटी-छोटी साँसें लेकर फूलों को सूँघा। उस की आँखें बंद हो गईं और नथुने ज़रा फडफ़ड़ाये। उस ने गुच्छे को छोड़ दिया और शाखों को इधर-उधर करने लगा। एक मोटी-सी फली उस के हाथ में आ गई। आँखें बंद किए-किए उस ने फली को भी सूँघा। फिर और ज़ोर से सांस खींच कर सूँघा। तीसरी बार सूँघने में उस ने इतने ज़ोर से सांस खींची कि उस के दोनों नथुने क़रीब क़रीब बंद हो गए।
अमलतास, उस ने खुद को बताया और फली को छोड़ दिया।

2
ड्योढ़ी में अंदर वाला दरवाज़ा खुला और अधेड़ उम्र का एक आदमी हाथ में कपड़े का थैला लटकाए हुए ड्योढ़ी में आया। बाहरी दरवाज़े से उस ने एक क़दम निकाला था कि मकान के अंदर किसी औरत के कुछ कहने की आवाज़ आई। वो पलट कर अंदर वाले दरवाज़े के क़रीब आया।
क्या कह रही हो? उस ने बुलंद आवाज़ में पूछा।
अंदर से औरत ने कुछ कहना शुरू किया। वो थोड़ी देर तक खामोशी से सुनता रहा, फिर बोला :
सब पूछ लेंगे भाई, मुलाक़ात भी तो हो।
वो फिर मुड़ कर बाहरी दरवाज़े की तरफ़ बढ़ा लेकिन दो क़दम चला था कि उस का थैला किसी चीच़ में अटक गया। वो मुँह ही मुँह में कुछ कहता हुआ रुक गया।
उस के बाएं हाथ ड्योढ़ी की दीवार से लगी हुई एक बाईसकल खड़ी थी। उसके दोनों टाएर पिचककर कई जगह से चट$ख गए थे। अंदर के टयूब थोड़े बाहर निकल आए थे और उन पर मिट्टी की तह जम गई थी। एक पैडल लकड़ी का था और दूसरे पैडल की जगह सिर्फ लोहे की डंडी रह गई थी। गद्दी पर एक मैला तौलिया लिपटा हुआ था। हैंडल के दोनों तरफ़ बद-रंग कपड़ों की पोटलीयां और घास-फूस से भरी हुई लंबी-लंबी थैलियां लटक रही थीं। अगले पहिए की कई तीलियों के सिरे रिम से अलग हो कर बाहर की तरफ़ मुड़ गए थे और एक तीली ने आदमी के हाथ वाले थैले को फंसा लिया था। आदमी ने थैले को दो-तीन छोटे-छोटे झटके दिए, फिर झुक कर तीली को चुटकी से पकड़ा और थैले को उस से छुड़ा लिया। बाहरी दरवाज़े की तरफ़ घूमते घूमते वो फिर रुका। बाईसकल के फ्ऱेम में सुतली से बंधा हुआ एक छोटा हवा भरने का पंप उस के झट्कों से ढीला हो कर नीचे लटक आया था। उस ने झुक कर उसे ऊपर किया तो वो फ्ऱेम से अलग हो कर उस के हाथ में आ गया। उस ने पंप के हवा फेंकने वाले सिरे को एक उंगली की पोर से बंद किया, दूसरे हाथ से दस्ता पकड़ कर पंप को दो-तीन बार चलाके देखा, फिर उसे दरवाज़े के बाहर उछाल दिया। ज़ंगआलूद पंप पंखुड़ीयों के पीले फ़र्श पर गिरा और खुद भी अमलतास की फली मालूम होने लगा।
आदमी दरवाज़े से निकल कर अहाते में, अहाते से लंबी सीधी गली में आया। कोई सौ क़दम चल कर दाहिनी तरफ़ की गली में, फिर बाएं हाथ वाली गली में मुड़ा। कुछ देर बाद वो बड़ी सड़क के पूरबी किनारे पर खड़ा था। दाहने बाएं देखकर उस ने तेज़ी से सड़क पार की और पच्छमी ओर के चौड़े फ़ुट-पाथ पर आ गया। सामने की ज़ीनादार गली में उतरा और उस से निकल कर एक और सड़क पर आया। उसे पार कर के एक और ढलवान गली में उतरा और चौक के दो-रूया बाज़ार में दाख़िल हो गया। दाहने हाथ घूम कर बढ़ता हुआ वो फूल वालों तक पहुंचा और बाएं हाथ की गली में मुड़ गया। सामने कुछ बच्चे शीशे की गोलियों से खेल रहे थे। उस ने एक बच्चे से पूछा :
क्यों बेटे, इधर कहीं हैंडपंप लगा है?
वो खराब पड़ा है, बच्चे ने उसे बताया और चौक की तरफ़ इशारा किया। उधर के नल में अभी पानी आ रहा होगा।
और वो खराब वाला हैंडपंप किधर है?
बच्चे ने हाथ इधर-उधर लहरा कर उसे पता बताया और फिर कहा:
मगर उस में पानी नहीं निकलता, खराब पड़ा है।
फिर उस ने अपने किसी साथी को खेल में बेईमानी करते देख लिया और उस से उलझ पड़ा।
आदमी उस की बताई हुई पहली गली में दाख़िल हुआ और कई तंग गलियों से होता हुआ आख़िर उस गली तक पहुंच गया जिसके दहाने पर हैंडपंप लगा हुआ था। गली में दाहने हाथ के तीसरे मकान का बाहरी कमरा उसे खुला नजऱ आया। कमरे से सटी ड्योढ़ी के छोटे से दरवाज़े के सामने लकड़ी के ऊंचे से स्टूल पर उसी का हमउमर एक आदमी बैठा अ$खबार पढ़ रहा था। आहट सुनकर उस ने नज़रें उठाइं।
क्यों भाई साहिब, आने वाले ने ज़रा झिजक कर पूछा, यहां कहीं किशन चंद अत्तार की दुकान...
यही है, बैठे हुए आदमी ने उस का जुमला पूरा होने से पहले ही जवाब दिया। दुकान तो यही है लेकिन अब... वैसे हम पेटैंट हकीमी दवाईयां भी रखते हैं।
आने वाले ने कमरे के अंदर नज़र दौड़ाई। दीवारी अलमारियों के कुछ खानों में सजी हुई शीशियों और डिब्बों के सिवा कमरा ख़ाली ख़ाली सा मालूम होता था।
मुझे किशन चंद जी के बारे में कुछ मालूम करना था।
हाँ हाँ, कहिए।
आने वाला कुछ कहते कहते रुका। एक दफ़ा फिर उस ने कमरे के अंदर नज़र दौड़ाई। इस बार उसे दरवाज़े से टिका हुआ वो चौकोर साइनबोर्ड भी दिखाई दिया जिस पर सलीब के छोटे से सुर्ख निशान के नीचे किशन चंद ऐंड सन्ज़ और उस के नीचे अंग्रेज़ी दवाखाना लिखा हुआ था।
आप उन के... वो फिर कहते कहते रुका।
पोता हूँ मैं उनका।
आने वाले के चेहरे पर इतमीनान ज़ाहिर हुआ, लेकिन अगला सवाल करने से पहले वो फिर कुछ परेशान नज़र आने लगा। दुकान वाला उसे मुतवक़्क़े नज़रों से देख रहा था। आने वाले ने रुकते हुए कहा:
अभी वो... मुझे मालूम करना था क्या वो अभी... फिर उस ने इरादा बदला और बोला, मैं याक़ूब अत्तार साहिब के यहां से आया हूँ। उनका बेटा हूँ। आपने उनका नाम शायद सुना हो।
दुकानदार ज़रा चौकन्ना हो गया।
याक़ूब अत्तार साहिब? हाँ, बिलकुल बिलकुल। वो तो हमारे बाबा के गुरु थे, मतलब, बाबा ने अत्तारी का काम उन्हीं से सीखा था। आप याक़ूब साहिब के बेटे हैं? तो अपने ही आदमी हुए।
उस ने खड़े हो कर आने वाले से हाथ मिलाया, अखबार तह कर के स्टूल के नीचे रखा, कमरे के अंदर से एक छोटा स्टूल लाया और बोला :
वो तो बाबा के पास बहुत आते थे। मुझे कुछ-कुछ याद भी हैं। आपका शुभ नाम?
यूसुफ़ कहते हैं मुझे।
मैं लाल चंद हूँ। बैठिए बैठिए। आपसे मिल के बड़ी खुशी हुई।
लेकिन यूसुफ़ को इस रस्मी गुफ़्तगु में दिलचस्पी नहीं मालूम हो रही थी। उस ने घड़ी देखी और बोला:
लाल चंद जी, मुझे ज़रा... मुझे ये मालूम करना था कि... पूछते अच्छा नहीं मालूम हो रहा है।
नहीं नहीं, ऐसी क्या बात है।
लाल चंद जी, क्या किशन चंद जी अभी हैं?
जी हाँ, बाबा भगवान की कृपा से अभी हैं।
यूसुफ़ दूसरे स्टूल पर बैठ गया।
मुलाक़ात भी करते हैं? उसने पूछा।
मुलाक़ात? मुलाक़ात तो मुश्किल है। कमज़ोर बहुत हो गए हैं। छयासी पार कर चुके हैं।
चल फिर लेते हैं?
हाँ, थोड़ा बहुत तो... मतलब, अपने छोटे मोटे काम कर लेते हैं।
उन से बहुत ज़रूरी काम था लाल चंद जी, यूसुफ़ ने कहा। असल में उन से कुछ पूछना था। तीस बत्तीस साल उधर की बातें हैं।
लेकिन अब उन्हें कुछ याद वाद नहीं है। ज़रा ज़रा बहकने भी लगे हैं, लाल चंद ने कहा, और फिर कहा, छयासी पार कर चुके हैं।
फिर भी...
फिर एक बात और भी है, लाल चंद बोला और चुप हो गया।
कहिए कहिए।
कोई उन से मिलना चाहता है तो मना कर देते हैं। नातेदारों से भी नहीं मिलते। बिगडऩे लगते हैं।
अच्छा, अगर उन से कहा जाये आपके उस्ताद आपसे मिलना चाहते हैं? तब तो शायद इनकार न करें।
तब तो दौड़े चले आएँगे। अब भी कभी कभी पीछे पड़ जाते हैं कि हमें उस्ताद के पास ले चलो।
लाल चंद जी, उन के उस्ताद...
अचानक लाल चंद ने होंटों पर उंगली रखकर उस को चुप करा दिया और उठकर खड़ा हो गया।
छोटे क़द का एक बहुत दुबला बूढ़ा आदमी सिर्फ एक मैली धोती लपेटे ड्योढ़ी से बाहर निकल रहा था। आगे को बढ़े हुए हाथों की मुट्ठी में सुलगती हुई अगर-बत्तियाँ पकड़े वो कमरे की तरफ़इस तरह बढ़ा जैसे बच्चे जलती हुई शमा लेकर चलते हैं। खड़े हुए आदमीयों की तरफ़ तवज्जा किए बगैर वो कमरे में दाख़िल हो गया। कमरे के बाहर $खुशबूदार धुऐं की पतली पतली लकीरें कई बार नीचे ऊपर हुईं, फिर इधर-उधर मुंतशिर हो गईं। बूढ़ा कमरे के किसी ऐसे गोशे में पहुंच गया था जहां बाहर वाले उसे नहीं देख सकते थे।
बाबा, कुछ देर बाद लाल चंद ने धीरे से यूसुफ़ को बताया।
यूसुफ़ के कुछ बोलने से पहले ही बूढ़ा कमरे से बाहर आ गया। ज़रा सा रुक कर उस ने दोनों हथेलियाँ अपने गालों पर फेरें, खड़े हुए आदमीयों पर एक छिछलती हुई नज़र डाली, फिर मुड़ा और आहिस्ता-आहिस्ता क़दम उठाता हुआ ड्योढ़ी में दाख़िल हो गया।
दोनों आदमी खामोश खड़े थे। फिर लाल चंद ने स्टूल पर बैठ कर यूसुफ़ को भी बैठने का इशारा किया।
ये तो बहुत बूढ़े हो गए, यूसुफ़ ने बैठते हुए कहा।
छयासी पार कर चुके हैं, लाल चंद ने फिर उसे याद दिलाया। याक़ूब दादा ने कितनी उम्र पाई होगी भला?
वो भी अभी हैं, यूसुफ़ ने बताया। छयानवे साल के हो रहे हैं।
लाल चंद कुछ कहने चला था लेकिन फिर उस ने इरादा बदला, और पूछा:
आपको बाबा से किया मालूम करना था?
कई बातें हैं। बहुत पुरानी बातें हैं। देखिए जो उन्हें याद हों।
पुरानी बातें कभी-कभी करते तो हैं, मगर सब मिल-जुल गई हैं। कहीं की बात कहीं जोड़ देते हैं।
फिर भी, लाल चंद जी, उन से मिलना ज़रूरी है।
अच्छा देखिए। किसी मौक़े से कहूँगा। याक़ूब दादा के नाम पर शायद राज़ी हो जाएं।
तो में दो एक दिन में आ के पूछ लूँगा, यूसुफ़ ने कहा, घड़ी देखी और उठ खड़ा हुआ।
बैठिए, कुछ चाय पानी...
नहीं, तकलीफ़ न कीजीए। फिर आऊँगा। दफ़्तर को देर हो रही है।
वो सलाम के लिए हाथ उठा कर मुड़ रहा था कि ड्योढ़ी के दरवाज़े से बूढ़ा अत्तार फिर बाहर निकला और सीधा लाल चंद की तरफ़ बढ़ा।
अरे ललवा, वो यूसुफ़ की तरफ़ देखे ब$गैर लाल चंद से मु$खातब हुआ, ये हमारे उस्ताद का भैया तो नहीं है?
हाँ बाबा, याक़ूब दादा के सुपुत्र हैं, यूसुफ़ साहिब।
वही तो हम कहें। इस की आँखें देखकर शुमार आया कि ये तो उस्ताद की आँख है।
फिर उस ने गर्दन घुमा कर यूसुफ़ की तरफ़ देखा। यूसुफ़ ने ज़रा झुक कर उसे आदाब किया और बोला:
किशन चाचा, हमारे अब्बा आपको बहुत याद करते हैं।
क्यों न याद करेंगे। अपने किशना को याद न करेंगे तो क्या इस निखट्टू ललवा को याद करेंगे?
लाल चंद बच्चों की तरह इठलाया और हँसने लगा। यूसुफ़ ने कहा :
तो चाचा, कभी हमारे यहां आईए।
कितनी बार तो कहा, ये निखट्टू ले ही नहीं चलता।
हम आकर आपको ले जाऐंगे, यूसुफ़ ने कहा। कब चलिएगा?
ललवा, भैया को कुछ पान शर्बत...
फिर कभी चाचा, यूसुफ़ ने कहा, आपके यहां कोई तकल्लुफ़ थोड़ी है। तो बताईए हमारे यहां कब आ रहे हैं?
लेकिन बूढ़े ने उस की आवाज़ शायद सुनी ही नहीं। वो अपने आपसे बातें कर रहा था :
असाढ़ का छींटा गिरा, और उस्ताद... किशना! उठा साईकल, सँभाल झोले... फिर पाँच पाँच दिन नदी-नाले, ताल-तलैया, जंगल-झाड़ी, कुछ नहीं छोड़ते थे। एक एक झोला तो बीर-बहूटी ही से भर लेते थे। फिर लौट कर सब चीज़ों की छंटाई... किशना! इस गोंद को पहचान... किशना! बता तो, ये काहै का ज़ीरा है?... अरे किशना! जो हज़ार चीज़ को आँख पर पट्टी बांध के न बता दे वो भी कोई अत्तार में अत्तार है?... फिर उस्ताद, हमसे तो ये न होगा... होगा पूत, होगा। बस लगे रहो। आँख पैदा हो जाएगी... क्या बात है!
बूढ़ा सांस दरुस्त करने को रुका। यूसुफ़ ने खंखार कर कुछ कहना चाहा लेकिन लाल चंद ने इशारे से उसे चुप करा दिया।
...और उस्ताद की आँख! बूढ़े ने फिर बोलना शुरू किया, सौ-सौ साल पुराने मुरक्कब लेकर जाओ... उस्ताद! ये माजून समझ में नहीं आई। उस्ताद ने देखा, सूँघा, चक्खा, बस। लिक्खो! एक सांस में पूरा नुस्$खा बोल दिया। पचास पचास जुज़, वज़न समेत। कैसे कैसे खानदानी हकीम, पुश्तैनी नुस्खों को औलाद से भी छुपाने वाले, सात पर्दों में बैठ के अपने हाथ से दवाईयां घोंटने वाले, उस्ताद के नाम से घबराते थे। दवाई देने से पहले मरीज़ से क़सम लेते थे - देखो उस की एक रत्ती भी याक़ूब के हाथ न लगने पाए। और उस्ताद भी हमारे, क्या बात थी, नुस्खा चुराने को पाप जानते थे। कोई खानदानी दवाई हाथ आई भी कभी तो मुँह फेर लिया - नहीं, गलत बात है। हाँ, किसी खानदान से हिक्मत जाती रहे, उस के नुस्खे की क़सम नहीं थी। मगर बस बनाया और रख लिया। बहुत हुआ किसी को एक खुराक दो खुराक यूँही दे दी। क्या मजाल जो एक पैसा उस से कमा लें। हकीम नब्बा साहब का घराना खत्म हुआ तो उनका मरहम पंजा-ए-ताऊस भी $खत्म था। हमारे उस्ताद को कहीं से एक सींक के सिरे पर लगा हुआ मिल गया। लीजीए मेरे साहब, मरहम पंजा-ए-ताऊस तैयार! एक शीशी हमें भी दी। हमने कहा, उस्ताद! मरहम नहीं, जादू है जादू, नुस्खा लिख रखीए। मगर न! कानों पर हाथ रख लिया। किशना! हमारी चीज़ नहीं है। इसी तरह काले किरमानियों की नोशदारू...
नोशदारू! अचानक यूसुफ़ बोल पड़ा। उस ने ये भी नहीं देखा कि लाल चंद उसे चुप रहने का इशारा कर रहा है। किशन चाचा, आप उस नोशदारू को पहचान लेंगे?
बूढ़ा ठिठककर चुप हो गया था। यूसुफ़ ने कुछ देर उस के बोलने का इंतिज़ार किया, फिर क़दरे मायूसी के साथ कहा:
आप नोशदारू की बात कर रहे थे, किशन चाचा।
नोशदारू? बूढ़े ने इधर-उधर देखते हुए पूछा।
जो आपके उस्ताद ने बनाई थी।
हमारे उस्ताद? हम खुद उस्ताद हैं, बूढ़े ने बेदिली से कहा, लाल चंद की तरफ़ देखा, बोला, ललवा, हम ये कहने आए थे, आज हम थोड़ी सी मकू की भुजिया खाएँगे।
फिर वो मुड़ा और ड्योढ़ी में दाख़िल हो गया।
दोनों आदमी देर तक ड्योढ़ी की तरफ़ देखते रहे। फिर लाल चंद ने लंबी सांस खींची और बोला:
बाबा को बोलते मैं टोकना गज़ब है।
क्या कहें, लाल चंद जी, गलती हो गई। असल में नोशदारू का नाम सुनकर रहा नहीं गया।
नोशदारू... लाल चंद ने कहा, कुछ देर तक आँखें सुकेड़े रहा, फिर मायूसी से सर हिला कर बोला, बाबा से हमने नोशदारू का नाम कभी नहीं सुना। मरहम पंजा ताऊस की बात तो बहुत करते हैं। इन के पास था भी। कहीं रखकर भूल गए हैं। अब भी कभी-कभी ढूँढने लगते हैं। मगर नोशदारू का नाम आज पहली बार लिया है। इक_ा इतनी बहुत सी बातें भी आज ही की हैं, शायद उस्ताद का नाम सुनकर...
लाल चंद जी, इन दोनों की मुलाक़ात ज़रूरी है। उस्ताद शागिर्द मिल बैठेंगे तो कितनी ही बातें याद आ जाएँगी। इसी में हो सकता है नोशदारू भी... उस ने रुक कर घड़ी देखी। मैं असल िकस्सा बता दूं। आपको कोई काम तो नहीं है?
हम तो दिन-भर यहीं बैठते हैं, लाल चंद बोला। अलबत्ता आप...
नहीं, दफ़्तर का वक़्त तो गया : दरख़ास्त भेजना होगी।
फिर क्या गम है, बताईए।
यूसुफ़ देर तक खामोशी के साथ कुछ सोचता रहा। फिर उस ने बोलना शुरू किया:
बत्तीस साल पहले अब्बा ने अत्तारी का काम छोड़ दिया था। असल में उन से दवाओं की पहचान में भूल-चूक होने लगी थी। एक दिन एक जवान से हकीम साहब दुकान पर आकर बहुत बिगड़े कि आप मेरे नुस्खों में अपनी हिक्मत न चलाया कीजिए। अब्बा ने कहा, हिक्मत चलाने की बात नहीं है, नुस्ख़े में एक दवा गलत बंध गई थी। हकीम साहब बोले, अगर इसी तरह गलत दवाएं बंधने लगें तो फिर मरीज़ों का तो अल्लाह ही हािफज़ है। अगर कोई ठिकाने लग गया तो मैं कहाँ जाऊंगा? अब्बा कुछ नहीं बोले। हकीम साहब बक-झक के चले गए तो भी कुछ नहीं बोले। देर के बाद कहा तो सिर्फ इतना कहा कि इन हकीम साहब के अब्बा हमसे अपने नुस्खों के वज़न पूछा करते थे। दूसरे दिन उन्हों ने दुकान $खत्म कर दी। दुकान का सामान, दवाएं, अर्क-वर्क कुछ दिन तक सैंत कर रक्खे रहे, फिर एक दिन उठे और सब चीज़ें दूसरे अत्तारों को बेच दीं। जो बच गईं वो खुद साईकल पर लाद-लाद कर इधर-उधर बांट आए। अच्छा-भला अपने बैठने का तख़्त अंदर से उठवा कर बाहर खुले में डलवा दिया और कई दिन तक किसी से कुछ नहीं बोले। फिर ठीक-ठाक हो गए। सवेरे घूमने जाते, बाक़ी दिन-भर घर पर हिक्मत की किताबें देखते रहते थे। इसी तरह बरसों गुज़र गए। फिर एक दिन घूमने निकले तो आधे रास्ते से लौट आए। कहने लगे, टांगें ठीक काम नहीं कर रही हैं। उस दिन रात-भर जागते रहे। दूसरे दिन सवेरे-सवेरे मुझे बुलाया, एक छोटी सी अचारी दी और कहा, इसे सँभाल कर रखना। इस में हमारी नोशदारू है। फिर कहने लगे, हमारे हवास बिगड़ चले हैं और हाथ-पांव भी रहे जा रहे हैं। नोशदारू सब सही कर देगी। हज़ारों साल पुराना बादशाही नुस्$खा है। मैंने कहा, तो फिर इसे आज ही से शुरू कर दीजीए। नहीं नहीं, कहने लगे, इस का काम उस वक़्त शुरू होता है जब कोई और दवा काम नहीं करती। इस से पहले नुक़्सान कर जाती है। तुम इसे छुपा कर रक्खे रहो, तब तक हम दूसरी दवाएं खाते रहेंगे। जब देखना हम बिलकुल बेकार हो रहे हैं तब इसे शुरू करना। इस से पहले नहीं। फिर उन्हों ने अचारी मेरे हाथ से ले ली और उस के पास मुँह ले जा कर चुपके से कुछ कहा, वो मुझे सुनाई नहीं दिया...
अच्छा, आपने भी वो दवाई देखी? लाल चंद ने पूछा। किस टाइप की थी?
कुछ शहद की सी चीज़ थी, यूसुफ़ ने जवाब दिया। खुशबू बहुत तेज़, हल्की सी झपक ज़ाफ़रान की भी थी। खैर, अचारी उन से लेकर मैंने पुराने कपड़ों के संदूक़ में रख दी। उस को भी बरसों गुज़र गए हैं। अब उन की हालत ये हो गई है कि कोई बात समझ नहीं पाते, आँखों की रोशनी क़रीब क़रीब जाती रही है, सुनाई भी बहुत कम देता है, चल फिर भी नहीं पाते। हाँ, दिन-भर में एक बार सरक सरक कर मुंडेर तक जाते हैं और किसी तरह मुंडेर पकड़ कर कुछ देर तक खड़े रहते हैं। फिर वहीं बैठ जाते हैं और इतने ही में ऐसे हलकान हो जाते हैं कि आधे दिन तक हिल भी नहीं पाते।
मतलब नोशदारू का टाइम आ गया, लाल चंद बोला।
वही बता रहा हूँ लाल चंद जी, यूसुफ़ ने कहा। मैं उसे भूल-भाल गया था, डाकटरी दवा चल रही थी। एक दिन उन्हों ने सारी दवा ज़मीन पर उंडेल दी और दिन-भर यही कहते रहे कि कोई दवा काम नहीं करती, कोई दवा काम नहीं करती। तब मुझे नोशदारू याद आ गई। लेकिन उन्हों ने इस की $खुराक नहीं बताई थी, या बताई हो, मुझी को याद न रही हो। $खैर, मैं अचारी लेकर उन के पास पहुंचा। बताया कि ये नोशदारू है, आपने मेरे पास रखाई थी। मगर उन्हें कुछ भी याद नहीं था। मैंने कहा, इसे खाइए, फ़ायदा करेगी। उन्होंने अचारी मेरे हाथ से लेकर खोली, आँखों के पास कर के उसे देखा। फिर ज़ोर-ज़ोर से सूँघा और बड़े गुस्से में आ के चिल्लाए, ज़हर है, ज़हर! में घबरा गया। अचारी उन से लेकर वापस रख दी, मगर उन को उस दिन से रट लग गई है कि यूसुफ़ हमारी जान लेना चाहता है। अपनी बहू को बुला बुला कर कहते हैं, ज़रा यूसुफ़ से पूछो, हमने उस का क्या बिगाड़ा है। उस दिन से मेरे हाथ का पानी तक पीना छोड़ दिया। सिर्फ बहू का दिया हुआ खा-पी लेते थे, अब उन से भी इनकार कर दिया है। आज दो दिन से यूँ ही हैं। फिर अचानक मुझे ख्याल आया कि अगर किशन चाचा... शायद किशन चाचा इस हालत में काम आ जाएं।
हमारे बाबा की हालत भी कुछ-कुछ ऐसी ही हो चली है, लाल चंद बोला, लेकिन आपका ख्याल ठीक है, यूसुफ़ भाई, दोनों की मुलाक़ात बिलकुल होना चाहिए।
तो मैं कब आ जाऊं?
आप क्यों तकलीफ़ कीजीए, में आज ही कल में बाबा को बहला कर लाता हूँ। शाम को ठीक रहेगा?
हाँ, शाम के वक़्त किसी भी दिन, या छुट्टी के दिन किसी भी वक़्त, मगर लाल चंद भाई, ज़रा जल्दी...
आप चिंता न कीजीए। मुझे खुद िफक्र लग गई है।
मकान का पता...
मालूम है। उधर जाता रहता हूँ। एक दोस्त हैं उधर।
यूसुफ़ उठ खड़ा हुआ। लाल चंद ने उठकर उस से हाथ मिलाया। कुछ देर तक उसे वापस जाते देखता रहा। फिर उस ने एक लंबी सांस ली। छोटा स्टूल उठा कर कमरे में रक्खा और अपने स्टूल पर बैठ कर ज़मीन पर पड़ा हुआ अखबार उठा लिया।

3
ड्योढ़ी के दरवाज़े से मैला पानी बह कर बाहर अहाते में फैल रहा था। लाल चंद ने आहिस्ता से कुंडी खड़काई। दरवाज़ा खुल गया। यूसुफ़ सिर्फ एक तहमद बाँधे, हाथ में छोटी सी भीगी हुई झाड़ू लिए आधे धड़ से बाहर निकला।
लाल चंद जी! उस ने कहा, आईए आईए।
मुझे यहां आकर पता चला। बड़ा अफ़सोस हुआ। कब...?
आपके यहां गया था? उस के दूसरे ही दिन रात को किसी वक़्त, यूसुफ़ ने कहा और दरवाज़ा पूरा खोल दिया। आईए, अंदर आ जाईए। मैं कुर्सियाँ ला रहा हूँ।
कुर्सी की तकलीफ़ न कीजीए, बैठूँगा नहीं, लाल चंद बोला। बात ये है, बाबा भी साथ हैं।
किशन चाचा? आए हैं? कहाँ हैं?
उधर तख़्त पर आराम से बैठे हैं।
यूसुफ़ दरवाज़े से बाहर निकलने लगा मगर लाल चंद ने उसे रोक दिया।
नहीं यूसुफ़ साहब, अब अच्छा यही है कि आप उन के सामने न जाएं, काहै से कि यहां आते आते वो भूल गए हैं कि मैं उन्हें उस्ताद से मिलाने ला रहा था। आपको देखेंगे तो... वहां आराम से बैठे हैं।
आप ठीक कह रहे हैं, यूसुफ़ ने धीरे से कहा।
फिर जो असल काम था, मतलब नोशदारु...
हाँ लाल चंद जी, यूसुफ़ बोला। मगर नोशदारू उन्हें याद आ गई थी। उस दिन शाम को उन्हों ने मुझे बुला कर पास बिठाया। देर तक बड़ी मुहब्बत से बातें करते रहे। मुझे भी तसल्ली हुई कि आख़िर मुझसे राज़ी हो गए हैं। फिर अचानक बोले, यूसुफ़ इतने दिन हो गए, तुमने हमको हमारी नोशदारू नहीं दी। मैं दौड़ कर अचारी निकाल लाया। उन के हाथ में दी। उन्हों ने उसे खोल कर सूँघा, और धीरे से फिर वही बात कही, ज़हर है, ज़हर! मगर गुस्सा बिलकुल नहीं किया। फिर अचारी मुझे वापस कर दी और बोले, यूसुफ़, अब क्या दे रहे हो। बस, फिर चुप साध ली। हालत बिगड़ी हुई थी। उसी रात... सुबह मैंने जा कर देखा तो मालूम होता था सो रहे हैं... यूसुफ़ की आवाज़ गले में फंस गई।
बड़ा अफ़सोस हुआ, लाल चंद ने कहा।
कुछ देर दोनों खामोश रहे, फिर यूसुफ़ बोला :
तो किशन चाचा...
उन्हें वापिस लिए जा रहा हूँ, लाल चंद ने बताया, आज सवेरे से कपड़े-वपड़े पहनने में लगे हुए थे। रात ही से निकाल रक्खे थे। बड़े खुश थे कि उस्ताद के पास जा रहा हूँ। अब... देखिए पता चलने पर क्या करते हैं। अच्छा... मुझे कुछ देर बैठना चाहिए था लेकिन...
नहीं नहीं, ठीक है। आप उन्हें ले जाईए, यूसुफ़ ने कहा, तहमद से हाथ पोंछा और लाल चंद से मुसाफ़ा किया।
कभी कोई काम हो... लाल चंद ने कहा। हमसे या बाबा से...
ज़रूर, यूसुफ़ ने कहा।
ड्योढ़ी के अंदर खड़े-खड़े उस ने लाल चंद को अहाते के दूसरे सिरे की तरफ़ जाते देखा।
तख़्त पर बैठा हुआ बूढ़ा अत्तार क़रीब आते हुए लाल चंद के जिस्म की ओट में था, अलबत्ता उस के शफ़्फ़ाफ़ सफ़ैद कुर्ते की एक बारीक चुनी हुई आसतीन और कलफ़ दी हुई दोपल्ली टोपी का एक पल्ला दिखाई दे रहा था। लाल चंद ने उस से कुछ कहा, फिर उसे सहारा देकर उठाने के लिए झुका।
ड्योढ़ी का दरवाज़ा आहिस्ता-आहिस्ता बंद हुआ। फिर उस के पीछे से गीली ज़मीन पर झाड़ू फिरने की आवाज़ आने लगी।

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